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प्रथमस्कन्ध अधिकार निरूपण (कुल अध्याय१९) श्रीमद्‌ आचार्यचरणप्रणीत निबन्धानुसार आ प्रथमस्कन्धमां अधिकारीनां लक्षणो अपायेलां छे. अधिकारी त्रण प्रकारना छे - १.हीन २.मध्यम अने ३.उत्तम. अधिकारी(श्रोता-वकता) हीनाधिकारी मध्यमाधिकारी उत्तमाधिकारी अ.१-३ अ.४-६ अ.७-१९ उपर दर्शावेला त्रण अधिकारीनां लक्षणो जे-जे अध्यायोमां कहेवामां आव्यां छे तेने लक्ष्यमां राखवां जोईए. जेम के ः हीनाधिकारी प्रकरण -१ अध्याय३ ः हीनाधिकारीमां पण श्रोतामां जिज्ञासा, मात्सर्यरहितपणुं अने श्रवणमां आदर आ त्रण लक्षणो होवां जोईए. ते ज प्रमाणे वक्तामां भागवत शास्त्रनुं परम्पराथी करेलुं श्रवण, चातुर्य अने गुह्यज्ञान आ त्रण लक्षणो अवश्य जोईए. आ त्रण प्रकारे एक श्रोतानो अने एक वकतानो गुण लईने आ त्रण गुण माटे प्रथम, द्वितीय अने तृतीय ए त्रण अध्याय कह्या छे. तेने नीचेना कोष्ठकथी जाणी शकाशे. [[१]] हीनाधिकारी प्रकरण अध्याय१ अध्याय२ अध्याय३ श्रोता - शौनकादि जिज्ञासुत्व मात्सर्यरहितत्व श्रवणमाम्प्रीति वकता - सूतजी श्रुतभागवतत्व चातुर्य गुह्यज्ञान आम हीनाधिकारी श्रोता अने वकता बन्नेनां लक्षणो तपासवां. जो आटलो हीन अधिकार पण न होय तो लक्षणरहित श्रोताने सम्भळाववुं नर्ही अने लक्षणरहित वकताना मुखथी श्रीभागवत श्रवण करवुं नर्ही. मध्यमाधिकारी प्रकरण-२ अध्याय३ (४-६) मध्यमाधिकारी श्रोता अने वकतानां त्रण-त्रण लक्षण छे - श्रोता अने वकता ना उपर भगवत्कृपा, भगवदीयत्व-वैष्णवता अने भगवान्‌मां सम्पूर्ण स्नेह-भक्ति जोईए. बन्नेमां आ लक्षणो न होय तो श्रवणनुं फळ न मळे. आ लक्षणो तपासीने श्रोताए वकतानो अने वकताए श्रोतानो समागम करवो जोईए. आ लक्षणो समजवामाटे नीचेनुं कोष्ठक जोवुं. मध्यमाधिकारी प्रकरण अध्या.४ अध्या.५ अध्या.६ श्रोता - व्यासजी भगवत्कृपा भगवदीयत्व भगवदेकत्व वकता - नारदजी भगवत्कृपा भगवदीयत्व प्रेम-भक्ति
[[२]] उत्तमाधिकारी-प्रकरण-३ अध्याय-१३ (७-१९) उत्तमाधिकारी वक्ता अने श्रोता मां दृढ वैराग्य जोईए. भगवान्‌ सिवायना सर्व पदार्थोमां राग तजी प्रभुमां एकतान थवुं ए भक्तिमार्गीय वैराग्य छे. आ वैराग्यथी भगवान्‌ पुरुषोत्तममां तत्परता थती होवाथी तेम ज भगवान्‌ बार अङ्गोवाळा होवाथी अने तेरमा अङ्गी-पुरुषोत्तम मळीने तेर अध्यायथी आ त्रीजुं प्रकरण पूर्ण थाय छे. उत्तमाधिकारी (श्रोता=परीक्षित, वकता=श्रीशुकदेवजी) द्वादशाङ्ग पुरुषोत्तममां तत्पर-वैराग्यवान्‌ प्रभुनां द्वादश अङ्गो - बे चरण, बे साथळ, बे बाहु, बे स्तन, बे हस्त एक हृदय अने एक शिर अने एक अङ्गी-पुरुषोत्तम मळीने प्रथम स्कन्धना १९ अध्याय छे. जो कोई पैसा कमावामाटे सेवा-कथा करे तो तेनी केवी गति थाय? एवुं करे त्यारे तो सेवा-कथानुं तो खाली नाम थयुं, खरेखर तो तेणे वहेपार-धन्धो ज कर्यो गणाय. कृष्णार्थी बनीने सेवा-कथा करवाने ठेकाणे धनार्थी बनीने सेवा-कथा करतां सेवा-कथाना वेचाणना बदलामां तेने वहेपार-धन्धानी माफक पैसा-टका मळी रहे परन्तु तेवा नीच प्रकारे थयेली कमाणी तेना माटे अनर्थरूप ज नीवडवानी. आवा नीच हेतुथी करेली सेवाकथानुं पण परिणाम सरवाळे सर्वनाश ज समजवुं. शास्त्रनिषिद्ध आचरण करवाने कारणे आवा अधम माणसनो केवल आ लोक ज नर्ही परन्तु परलोक पण नाश पामे छे. तेथी जेने रत्तिभार पण ज्ञान होय छे ते आवुं कदी करतो नथी. (श्रीगुसांईजी, सिद्धान्तमुक्तावलीनी विवृति)

ईं उं ईं उं

प्रथमस्कन्ध ३सुबोधिनीनुं मङ्गलाचरण वन्दे श्रीकृष्णदेवं मुरनरकभिदं वेदवेदान्तवेद्यं लोके भक्तिप्रसिद्ध्‌्यै यदुकुलजलधौ प्रादुरासीद्‌ अपारः ॥ यस्यासीद्‌ रूपमेव त्रिभुवनतरणे भक्तिवच्च स्वतन्त्रं शास्त्रं रूपं च लोके प्रकटयति मुदा यः स नो भूतिहेतुः ॥१॥

शब्दार्थ - मुर अने नरक नामना असुरोने भेदी नाखनार, वेद अने वेदान्त थी जेमनुं स्वरूप जाणी शकाय छे तेवा श्रीकृष्णदेवने हुं वन्दन करुं छुं. लोकमां भक्तिनी प्रसिद्धि थाय एटला माटे जेमनो पार पामी शकाय एम नथी तेवा ए प्रभु यादवकुळरूप महासागरमां प्रकट थया. जे प्रभुनुं स्वरूप ज त्रण भुवनो सहित तरणमां (मोक्षमां) निमित्तरूप थयुं छे, वळी लोकमां भक्तिनी पेठे स्वतन्त्र शास्त्रात्मक स्वरूपने जे प्रभु आनन्दथी प्रकट करे छे ते प्रभु अमारा अभ्युदयमां कारण रूप थाओ. भावार्थ - सम्पूर्ण श्रीमद्‌भागवतनुं मनन कर्या पछी प्रभुनुं जे स्वरूप अनुभवाय छे तेनो अति सुन्दर आदर्श मङ्गलाचरणना आ प्रथम श्लोकमां आचार्यश्रीए आपेलो छे. मुर अने नरक नामना असुरो प्रभुप्राप्तिमां महाविघ्नरूप हतां. प्रभुए ज्यारे ए बन्नेनो नाश कर्यो त्यारे सोळ हजार राजकन्याओने आपश्रीनी प्राप्ति थई. तेथी ज प्रारम्भमां आ विशेषण योज्युं छे. ‘श्रीकृष्ण’ शब्दमां त्रण भाग छेः श्री, कृष्‌ अने ण. आ त्रणेना अर्थो जुदा छे. ‘श्री’ एटले ब्रह्मानन्दरूप चैतन्य शक्ति अने मायादेवी. तेथी युकत कृष्ण छे. ‘कृष्‌’ एटले सत्ता अने ‘ण’ एटले आनन्द. ए रीते विचार करतां ‘श्रीकृष्ण’ शब्दनो अर्थ ए थाय छे के सच्चिदानन्दरूप परब्रह्म पूर्ण पुरुषोत्तम प्रभु ए ज परम तत्त्व. ए प्रभु ज्यारे सर्ग-विसर्गादि दश लीलाओ करे त्यारे ‘देव’ कहेवाय छे. ए लीलाओ करवामाटे प्रभु चार व्यूहो धारण करे छे अने विविध अवतारो पण धरे छे. सङ्कर्षण, वासुदेव, अनिरुद्ध अने प्रद्युम्न ए चार व्यूह छे. सङ्कर्षण व्यूहथी प्रभु असुरोनो संहार करे छे. तेथी ज ‘‘मुर अने नरकासुरने भेदनारा’’ एवुं विशेषण आप्युं. वासुदेव व्यूहथी प्रभु मोक्ष आपे छे, एनुं सूचन ‘‘वेद अने वेदान्त थी वेद्य’’ ए विशेषणमां छे. प्रद्युम्न व्यूहथी प्रभु वंशवृद्धि करे छे, माटे यादवकुळमां प्रादुर्भाव वर्णव्यो. अनिरुद्ध व्यूहथी धर्मरक्षा करे
४ सुबोधिनीनुं मङ्गलाचरणछे, माटे त्रण भुवनोनी अने तरणनी वात जणावी. धर्म बे प्रकारनो छे - एक प्रवृत्ति धर्म अने बीजो निवृत्त धर्म. प्रवृत्तिधर्मनुं फळ त्रण भुवन छे अने निवृत्तिधर्मनुं फळ तरण एटले मोक्ष छे. ए बन्नेनुं निमित्त कारण प्रभु ज छे. जेम प्रभुनुं भक्तिरूप स्वरूप स्वतन्त्र रीते उद्धारक छे, तेम ए प्रभुनुं शास्त्रात्मक रूप पण उद्धारक छे अने तेथी पोतानां शास्त्रात्मक रूपने (श्रीभागवत, आदिक ने) प्रभु पोते प्रगट करे छे. एवा अमारा आ प्रभु श्रीभागवतना व्याख्यानरूप अभ्युदयमां (श्रीसुबोधिनीजी लखवामां) कारणरूप थाओ एवी प्रार्थना करी छे ॥१॥

कर्ता ज्ञः सकलस्य यो निगमभूः सर्वस्वरूपोपि सन्‌ सर्वस्यापि विधारणो विजयते निर्दोष-सर्वेष्टदः ॥ यो लीलाभिरनेकधा वितनुते रूपं निजं केवलः सोयं वाचि ममास्तु पूर्णगुणभूः कृष्णावतारः पतिः ।२॥

शब्दार्थ - जे प्रभु जगत्‌ना कर्ता, सर्वना ज्ञाता, वेद जेमान्थी प्रगट थया छे, जे प्रभु सर्वनुं स्वरूप छे छतां सर्वने धारण करनारा (सर्वना आधार) छे, वळी जे प्रभु निर्दोष भकतोना बधा मनोरथ पूरनारा तरीके विजय पामे छे (सर्वोत्कृष्ट रीते बिराजे छे), जे प्रभु केवळ अर्थात्‌ निर्गुण होई पोते ज फकत लीलाओथी पोताना स्वरूपनो अनेक रीते विस्तार करे छे, जेमनामान्थी पूर्ण गुणो नीकळ्या छे तेवा आ श्रीकृष्णावतार प्रभु मारी वाणीमां पतिरूपे बिराजो. भावार्थ - श्रीभागवतनी व्याख्या अलौकिक बने तेटला माटे आ श्लोकमां पोतानी वाणीमां प्रभुने बिराजवानी आचार्यश्री प्रार्थना करे छे. उपनिषदो अने ब्रह्मसूत्रो मां वर्णवेला प्रभुना स्वरूपनी ओळखाण आपीने एमां ए वाणीना पतिरूप प्रभु ज छे, माटे पोतानी वाणीमां ए ज प्रभुने बिराजवानी प्रार्थना करी छे ॥२॥

श्रीमद्‌वल्लभविद्वदीशविलसद्‌ वंशाब्धिपूर्णेन्दवे श्रीगोपीपतिवन्दिने सुमनसि ब्रह्मामृतस्यन्दिने ॥ श्रीमल्लक्ष्मणभट्टसूरिरिति यन्‌ नामाऽखिलाऽभीष्टदं तस्मै तातमहाशयाय हरये कुर्मो नमः सिद्धये ॥३॥

शब्दार्थ - श्रीवल्लभ दीक्षितना विद्वानोने पण ईश्वरोथी विलसी रहेला वंशसागरना प्रथमस्कन्ध ५पूर्ण चन्द्र, श्रीगोपीजनवल्लभ श्रीकृष्णने वन्दन करनारा, जेमान्थी सुन्दर मनरूप पुष्पमां कुदरती रीते ब्रह्मामृत झरे छे अने जेमनुं ‘‘श्रीलक्ष्मण भट्ट सूरि’’ एवुं सर्व इच्छित आपनारुं नाम छे, तेवा हरिस्वरूप अमारा पिता महाशयने कार्य सिद्ध थाय ते माटे अमे नमन करीए छीए. भावार्थ - श्रीमदाचार्यश्रीना पूर्वजोमां ‘‘श्रीवल्लभ दीक्षित’’ नामना एक धुरन्धर विद्वान थया छे. पोतानो वंश पवित्र, सुप्रसिद्ध अने अति गौरवशाळी छे ए जणाववा माटे आ विशेषणो छे. आचार्य श्री पोताना पिताश्री माटे ‘‘श्रीगोपीजन वल्लभने वन्दन करनारा’’ एवुं विशेषण योजे छे ते उपरथी लागे छे के पिताश्री परम्पराथी गोपाळ-उपासक अने श्रीविष्णु स्वामि-सम्प्रदायना होवा जोईए. ‘‘ब्रह्मामृतने रेडनारा’’ ए विशेषणथी जणाय छे के श्रीलक्ष्मण भट्टजी एक महान तत्त्वज्ञानी हता ॥३॥

श्रीमद्‌भागवतागमः सुरतरुर्‌ लोके फलत्वं गतो भाषाभेदविभेदतः त्रयमपि स्यान्नो विरुद्धं महत्‌ ॥ भकत्यंशे फलता प्रमाणसुबले वेदत्वम्‌ अर्थे पुनः स्कन्धैर्‌ द्वादशभिर्युतः सुरतरुः शाखाद्विवह्निद्वयम्‌ ॥४॥

शब्दार्थ - श्रीमद्‌भागवत शास्त्ररूप कल्पवृक्ष दैवी सृष्टिमां फलित थयुं छे. जुदी-जुदी भाषाओना भेदथी फळपणुं, कल्पवृक्षपणुं अने वेदपणुं ए त्रण पण विरुद्ध नथी, कारण के श्रीभागवत अति पूज्य पुराण छे. भक्तिरूप अंशमां श्रीभागवतनुं फलपणुं छे, प्रमाणना अतिबलमां एनुं वेदपणुं छे, अर्थमां तो बार स्कन्धथी युकत त्रणसो बत्रीश अध्याय रूप शाखावाळुं ए कल्पवृक्ष छे. भावार्थ - मङ्गलाचरण कर्या पछी उत्तम, मध्यम अने हीन अधिकारीओनी प्रवृत्ति आ शास्त्रमां थाय एटला माटे श्रीभागवतनुं स्वरूप आ श्लोकमां बताव्युं छे. श्रीभागवतनां त्रण स्वरूप छे - १वेदस्वरूप, २कल्पवृक्षस्वरूप अने ३फळस्वरूप. वळी श्रीभागवतमां त्रण भाषा छे - १समाधिभाषा, २परमत भाषा अने ३लौकिक भाषा. श्रीभागवतमां आ त्रण भाषा छे, तेथी पहेलां दर्शावेलां श्रीभागवतनां त्रण स्वरूपमां कशो विरोध आवतो नथी, कारण के आ अति पूज्य महापुराण छे. श्रीभागवतनुं श्रवण कर्या पछी जेने भक्ति उत्पन्न थाय छे तेने सम्पूर्ण श्रीभागवत फळरूपे
६ सुबोधिनीनुं मङ्गलाचरणअनुभवाय छे. एवी ज रीते सर्व वेद अने इतिहास ना साररूपे श्रीभागवतने जेओ जुए छे तेमने श्रीभागवत वेदरूपे दर्शन आपे छे; तेम ज्ञान मेळववा जेओ श्रीभागवतनुं अध्ययन करे छे तेमने श्रीभागवत कल्पवृक्षरूपे दृष्टिगोचर थाय छे. बार स्कन्ध एटले श्रीभागवतरूप कल्पवृक्षना मूळने लागेली स्थूळ शाखाओ, तेमज
३३२ शाखाओ ते ३३२ अध्यायरूपी डाळीओ. दशम स्कन्धमान्ना परम्परा प्राप्त
१२मो अध्याय अघासुर वध, १३मो ब्रह्माजीद्वारा वत्सहरण, १४मो ब्रह्माजी कृत भगवत्स्तुति आ त्रण अध्यायोने प्रक्षिप्त मानीने एने बाद करतां कुल ३३२ अध्याय थाय छे. अर्थं तस्य विवेचितुं न हि विभुर्वैश्वानराद्‌ वाक्पतेर्‌ अन्यस्तत्र विधाय मानुषतनुं मां व्यासवच्छ्रीपतिः ॥ दत्त्वाज्ञां च कृपावलोकनपटुर्‌ यस्माद्‌ अतोऽहं मुदा गूढार्थं प्रकटीकरोमि बहुधा व्यासस्य विष्णोः प्रियम्‌ ॥५॥

शब्दार्थ - आ लोकमां श्रीभागवतनो अर्थ प्रकट करवा वाणीना पति वैश्वानर सिवाय बीजो कोई समर्थ नथी, तेथी ते कार्य करवा माटे मने मनुष्यदेहरूप करीने, श्रीव्यासजीनी माफक श्रीलक्ष्मीपतिए आज्ञा आपी. एवी रीते जे कारणे कृपादृष्टि करवामां चतुर थया ए कारणथी विष्णुरूप व्यासजीने प्रिय गूढ अर्थ अनेक रीते हुं आनन्दपूर्वक प्रकट करुं छुं. भावार्थ - श्रीभागवतनी व्याख्या घणाए करी छे छतां आ प्रवृत्ति शा माटे? एनो जवाब आचार्यश्री आ श्लोकमां आपे छे अने पोतानुं दिव्य स्वरूप स्पष्ट करे छे. श्रीभागवतना अर्थनी पूजा एटले श्रीभागवतनो अर्थ विरोध परिहार करी यथार्थ रीते बताववो. आ कार्य करवानी शक्ति अग्निमां ज छे. आ अग्नि ते वाणीना पति छे. ‘वाणी’ एटले सरस्वती. ए पतिव्रता होवाथी पोतानुं शुद्ध स्वरूप पोताना अग्निरूप पतिने ज बतावे. बीजाने नर्ही. तेथी ज अग्नि विना श्रीभागवतार्थनुं स्पष्टीकरण बीजा कोईथी न ज थई शके एम धारीने ज भगवाने ए अग्निने मनुष्यदेहमां प्रकट करीने श्रीभागवातार्थ प्रकट करवानी आज्ञा करी. पछी भगवाने एमनी उपर (आचार्यश्रीरूप अग्नि सामे) कृपा कटाक्ष कर्यो. आ रहस्य श्रीमदाचार्यचरण कळी गया अने विष्णुनी ज्ञानकळाना अवतार श्रीवेदव्यासजीने प्रथमस्कन्ध ७प्रसन्न करनारो श्रीभागवतनो गूढार्थ प्रकट कर्यो, अने ते पण आनन्दपूर्वक ॥५॥

लक्षणां नैव वक्ष्यामि न न्यूनाद्‌ अन्यपूरणम्‌ । आर्थिकं तु प्रवक्ष्यामि परोक्षकथनादृते ॥६॥

शब्दार्थ - लक्षणा तो हुं नहि ज कहुं. ऊणप देखाडीने बीजी वातथी एने पूरीश नर्ही. परोक्ष (छूपुं) कथन हशे ते सिवाय शुद्ध अर्थ ज हुं कहीश. भावार्थ - श्रीभागवतना अर्थ केवी रीते पोते प्रकट करशे एनी रूपरेखा बतावीने आचार्यश्री प्रतिज्ञा करे छे. ‘‘गङ्गायां घोषः’’ (गङ्गामां गाम छे) आ एक वाक्य छे. आ वाकयनो अर्थ विरुद्ध जणाय छे, कारण के गङ्गाना प्रवाहमां गाम होय नहि, तेथी ‘गङ्गा’ शब्दनो अर्थ लक्षणाए करतां गङ्गानो तीर एवो थाय छे. एटले गङ्गाना तट पर गाम एवो भावार्थ लेवामां आवे छे. आचार्यश्री प्रतिज्ञा करे छे के श्रीभागवतना अर्थमां हुं उपर जणावेली लक्षणानो आश्रय नर्ही ज करुं, तेम ‘‘आ वात अधूरी छे, आ वाकय अर्ही उमेरवुं जोईए’’ एवां बहानां काढीने नवी वात अन्दर दाखल नर्ही करुं. आचार्यश्री प्रतिज्ञा करे छे के परोक्ष (आडी-अवळी) वातो विना जेवो शुद्ध अर्थ नीकळतो हशे तेवो ज अर्थ प्रकट करीश ॥६॥

अविरोधेन सप्तानाम्‌ अर्थानाम्‌ इह सङ्गतिः ॥ उत्तरोत्तरदौर्बल्यं वाच्यं सङ्कोचतः परम्‌ ॥७॥

शब्दार्थ - साते अर्थनो विरोध न आवे तेम अर्ही आ टीकामां अर्थनी सङ्गति छे. परन्तु सङ्कोचने लीधे साते अर्थोमां उत्तरोत्तर अर्थनी दुर्बलता कहेवी जोईए. भावार्थ - श्रीभागवतार्थ निबन्धमां आचार्यश्री जणावे छे के अमे श्रीभागवतनो सात रीते अर्थ प्रकट कर्यो छे - १शास्त्रार्थ २स्कन्धार्थ ३प्रकरणार्थ ४अध्यायार्थ ५वाक्यार्थ
६पदार्थ ७अक्षरार्थ आ सात अर्थ छे. आ सातेमां परस्पर विरोध न आवे ते रीतनो एक अर्थ श्रीसुबोधिनीमां छे. एमां एटलुं तो मानवुं ज पडशे के ए सातेमां उत्तरोत्तर अर्थ दुर्बळ गणाशे. जेम के ‘शास्त्रार्थ’ एटले आखा श्रीभागवतनो अर्थ. हवे ए प्रथम शास्त्रार्थ बीजा स्कन्धार्थमां न ज आवे, तेथी शक्तिनो सङ्कोच गणी लेवो. तेम ज आखा स्कन्धनो अर्थ ते स्कन्धना एक प्रकरणमां न आवे तेथी स्कन्धार्थ करतां प्रकरणार्थ दुर्बळ गणाय. ए ज रीते प्रकरणार्थ करतां अध्यायार्थ
८ सुबोधिनीनुं मङ्गलाचरणदुर्बळ गणाय. आ हिसाबे उत्तरोत्तर दुर्बळता समजी लेवी ॥७॥

भाषात्रयविरोधश्च कल्पभेदात्‌ समाहितः ॥ भाषात्रयविभेदश्च लक्षणैर्‌ ज्ञाप्यते पुनः ॥८॥

शब्दार्थ - श्रीभागवतमां त्रण भाषामां परस्पर विरोध देखातो होय तो एनुं समाधान कल्पभेदथी करेलुं छे. अने त्रण भाषानो तफावत तो लक्षणोथी जणाववामां आवे छे. भावार्थ - समाधि, परमत अने लौकिक ए त्रण भाषा श्रीभागवतमां छे. एमां जो परस्पर विरोध आवे तो एम समजी लेवुं के आ कथा अमुक कल्पनी छे अने आ कथा अमुक कल्पनी छे. त्रणे भाषानो तफावत तो ते-ते चोक्कस लक्षणोथी स्पष्ट थशे ॥८॥

अर्थत्रयन्तु वक्ष्यामि निबन्धेऽस्ति चतुष्टयम्‌ ॥ अत्र सन्तः स्वसन्तोषैर्‌ आज्ञां यच्छन्तु सिद्धये ॥९॥

शब्दार्थ - आ व्याख्यानमां तो हुं वाक्यार्थ, पदार्थ अने अक्षरार्थ ए त्रण अर्थ कहीश. शास्त्रार्थ, स्कन्धार्थ, प्रकरणार्थ अने अध्यायार्थ ए चार अर्थ तत्त्वदीप निबन्धना भागवतार्थ प्रकरणमां छे. आ कार्यनी सिद्धि थाय ए माटे सन्तपुरुषो पोतानो सन्तोष व्यकत करी मने आज्ञा आपो ॥९॥

सेवा-मनोरथोनुं जाहेर प्रदर्शन करनाराओ वाञ्चो! भाव गुप्त रहे तो ज वधे. तेथी पोताना आश्रमधर्मोनी पछवाडे पोताना भगवद्‌भावोने गुप्त राखीने भगवत्सेवा करवी जोईए. जेना हृदयमां प्रभु नथी बिराजता ते ज पोताना भावोने खुल्लेआम प्रदर्शित करतो होय छे. जो प्रभु हृदयमां बिराजता होय तो भावोनुं उघाडे छोगे प्रदर्शन सम्भव नथी. (श्रीमहाप्रभुजी, अणुभाष्य) ईं उं प्रथमस्कन्ध ९ ईं उंश्रीकृष्णाय नमः प्रथमस्कन्ध-अधिकारलीला (दक्षिण चरण) प्रथम प्रकरण-हीनाधिकार अध्याय-१ शौनके पूछेला छ प्रश्नो

विशेष - ‘भागवत’शास्त्र एटले आनन्दरूप हरिनी लीलानुं वर्णन. श्रीभागवतनुं लक्षण ए छे के ‘‘जेनी गायत्रीथी शरूआत करीने धर्मनो विस्तार वर्णव्यो होय अने जेमां वृत्रासुरना वधनी कथा होय ते’’. आ प्रथम श्लोक गायत्रीना अर्थरूप छे. एमां ‘धीमहि’पद गायत्रीना ‘धीमहि’पदनुं अनुसन्धान करावे छे. ‘‘सत्यं परं’’ पदो गायत्रीना ‘तत्‌’ पदना अर्थरूप छे. ‘‘जन्माद्यस्य यतोन्वयाद्‌ इतरतः’’ ए गायत्रीना ‘सवितुः’ पदना अर्थरूप छे. ‘सविता’ एटले सूर्य नहि पण प्रसवकर्ता. ‘अर्थेष्वभिज्ञः’ पदो गायत्रीना ‘देवस्य’ पदनुं सूचन करे छे. ‘तेजोवारिमृदां’ अने ‘‘धाम्ना…कुहकं’’ पदो गायत्रीना ‘वरेण्यं’ अने ‘भर्गः’ पदोना अर्थरूप छे. आ प्रमाणे गायत्रीथी ज श्रीमद्‌भागवतनी शरूआत छे. आ शास्त्रमां धर्मनो पण विस्तार छे अने वृत्रासुरनी कथा पण छे. एमां प्रथम स्कन्धमां अधिकार लीलानुं वर्णन छे. अधिकार पण लीला छे केमके अमुक जीवने अमुक अधिकार सम्पादन करी आपनार पण भगवान्‌ ज छे. एनां त्रण प्रकरण छे. प्रथम हीन प्रकरणना त्रण अध्याय छे. प्रथम अध्याय प्रश्नाध्याय छे. भगवानना छ धर्मो छे माटे प्रथम अध्यायमां छ प्रश्नो छे. एक श्लोकथी मङ्गलाचरण, बे श्लोकथी श्रीभागवतनो महिमा, बे श्लोकथी शौनकनो अने सूतनो प्रसङ्ग, त्रण श्लोकथी सूतनी स्तुति एम आठ श्लोक थया. पछी एक श्लोकथी प्रश्न, अढी श्लोकथी सकारण प्रश्न; तथा चार श्लोकथी श्रीकृष्णविषयक प्रश्न, जे चतुर्व्यूहना प्राकट्यनो सूचक छे अने आगळ शौनकादिके बीजा प्रश्नो कर्या छे. आटली वात प्रथम अध्यायमां आवे छे. श्रीभागवतशास्त्रनो आरम्भ करतां व्यासजी मङ्गलाचरण करे छे - आदिमां, मध्यमां अने अन्तमां मङ्गलाचरण करवाथी ग्रन्थ कर्तानुं आयुष्य वधे छे अने भविष्यमां पण ए ग्रन्थनो पाठ करनारनी भगवत्‌ प्रेममां अभिवृद्धि थाय छे एवी शास्त्राज्ञा छे.
[[१०]] जन्माद्यस्य यतोऽन्वयाद्‌ इतरतश्चार्थेष्वभिज्ञः स्वराट्‌ तेने ब्रह्महृदा य आदिकवये मुह्यन्ति यत्‌ सूरयः ॥ तेजोवारिमृदां यथा विनिमयो यत्र त्रिसर्गोऽमृषा धाम्ना स्वेन सदा निरस्तकुहकं सत्यं परं धीमहि ॥१॥

जे परब्रह्म आ जगत्‌ना जन्मादिनुं समवायि१ अने निमित्त कारण छे, जे परब्रह्मने सर्वे जीवोना सर्वे पुरुषार्थोनुं२ सारी रीते ज्ञान छे, जे परब्रह्म निरपेक्ष होई स्वस्वरूपथी प्रकाशमान३ छे, ४जे परब्रह्मे विद्वानोने५ पण मोह पमाडे तेवा वेदो आदिकवि ब्रह्माने पुराणसहित६ विस्तारी७ आप्या, ८जे परब्रह्मना स्वरूपमां देह, इन्द्रिय अने अन्तःकरण ना धर्मो तेजमां९ जलबुद्धि, जलमां पृथ्वीनी बुद्धि, पृथ्वीमां अग्निनी बुद्धि वगेरे जोनारना दृष्टिदोषथी जेम मिथ्या छे तेवा ज मिथ्या छे, जे परब्रह्म पोताना स्वरूपथी ज सदा१० कपटने११ अथवा अविद्याने दूर करे छे एवा परम सत्य परब्रह्मनुं अमे ध्यान१२ धरीए छीए ॥१॥

विशेष - १. मृत्तिका घटनुं समवायि अथवा उपादान कारण छे तेम जगत्‌नुं उपादान कारण ब्रह्म छे. घट बनावनार कुम्भार अने बनाववानां साधन चक्र वगेरे निमित्त कारण छे तेम जगत्‌नुं निमित्त कारण पण ब्रह्म छे एटले जगत्‌नुं अभिन्न-निमित्तोपादान कारण ब्रह्म छे तेमज प्रयोजक, अधिष्ठान वगेरे सर्वे कारणो ब्रह्म ज छे.
२. ‘अर्थ’ एटले प्रयोजन अथवा निमित्त. भगवानने फळनुं अज्ञान नथी पण एकथी बहु प्रयोजननी सिद्धि करे छे अथवा जीवोना सर्वे पुरुषार्थोनी सिद्धिमाटे जगत्‌नी उत्पत्ति करे छे. सर्वे प्रयोजन जाणतां छतां पोताने कांई खास प्रयोजन नथी ते जणाववा ‘अर्थेषु’ अर्थोमां एम सातमी विभक्ति मूकी छे. ज्ञानशक्तिनो अने प्रयोजननो समास कर्यो नथी तेथी पोताने हर्ष-विषाद नथी एम सूचवे छे.
३. पोते विषयोमां कदापि रमता नथी पण स्वस्वरूपमाञ्ज रमण करे छे.
४. आ प्रकारे श्लोकना प्रथम चरणमां जगत्‌नुं अथवा रूपप्रपञ्चनुं कारण परमात्मा छे. एम वर्णन करीने बीजा चरणमां वेदनुं अथवा नामप्रपञ्चनुं कारण पण पोते ज छे ए वर्णवे छे. जगत्‌मां जीवोनुं बन्धन थाय छे अने वेद मोक्ष करे छे माटे बन्नेनी उत्पत्तिनुं वर्णन जुदुं कर्युं छे.
५. विद्वानो मोह पामे छे. केमके एमने भगवदाश्रय नथी तेथी ज मीमांसको यज्ञने लौकिक, मात्र फलसम्बन्धमां ज वैदिक, माने छे; साङ्ख्यो अने योगीओ ब्रह्मने जीवोनो आत्मा ज [[११]] माने छे; पौराणिको पुरुषपर्यन्त जाय छे, परन्तु पुरुषोत्तम पर्यन्त जता नथी. मात्र भगवान्‌ अथवा भगवदीयो ज वेदना खरा अर्थने समजी शके छे.
६. पुराण ए भगवाननुं हृदय छे माटे अथवा मनपूर्वक
७. वेद नित्य होवाथी उत्पत्ति न कही पण तेने पदथी विस्तार मात्र कह्यो.
८. आ प्रमाणे जगत्‌थी बन्धन अने वेदथी मोक्ष एम बन्ने प्रकारे भगवान्‌ मात्र क्रीडा करे छे ए सर्व भगवाननी लीला ज छे एम कही बे चरणथी भगवाननुं माहात्म्य सूचव्युं. आगळ भक्ति उत्पन्न करनार गुणोनुं वर्णन करे छे.
९. झाञ्झवान्ना जळरूप तेजमां जळबुद्धि, ज ळमां पृथ्वीबुद्धि, रात्रे मणि वगेरे पृथ्वीमां अग्निबुद्धि, मृत्तिका, काच वगेरेमां जळबुद्धि, वादळाम्मां चन्द्रबुद्धि, चन्द्रकिरणोमां वस्त्रबुद्धि वगेरे ए ज प्रमाणे माया अथवा एनां कार्यो, देह, इन्द्रिय अने अन्तःकरण ना धर्मो भगवानना स्वरूपमां अने अवतारोमां छे ज नहि, मात्र जोनारना दृष्टिदोषथी ज भासे छे. भगवान्‌ तो सर्वदा पोताना स्वरूपथी ज सर्व कार्यो करे छे. भगवान्‌मां देह अने इन्द्रियो केटलाक कल्पे छे अने एमां चित्‌ अने आनन्द कल्पे छे, केटलाक आनन्द मां देह अने इन्द्रियो कल्पे छे, केटलाक कृष्णनो आवेश कल्पीने जड-जीवनो स्वरूपमां सम्बन्ध कल्पे छे, केटलाक कोई जीवविशेष अथवा जडविशेषमां खास सामर्थ्य कल्पे छे, केटलाक शरीरमां मायानो अने मायावीनो अध्यास कल्पे छे. ए सर्वेनी बुद्धि भ्रान्त छे. ब्रह्ममां शरीरनो अने इन्द्रियोनो सम्बन्ध ज नथी.
१०.कलिकाळ वगेरे कोई प्रतिबन्धक थई शकतां नथी.
११.देह इन्द्रिय वगेरेमां आत्मभाव थवो ए.
१२.अथवा प्रीति करीए छीए. आ श्रीभागवतमां १निर्मत्सर २सत्पुरुषनो निष्कपट३ परम४ धर्म कह्यो छे, त्रण तापने दूर करनार अने कल्याण प्राप्त करावनार वास्तविक वस्तु५ आमां जाणवानी छे. अने महामुनि६ श्रीवेदव्यासजीए आ श्रीभागवत प्रकट कर्युं छे. एना वधारे वर्णनथी शुं? परन्तुं भाग्यवान्‌ आ श्रीभागवतनुं श्रवण करवानी इच्छा करनारा कुशल पुरुषो श्रीभागवतनो श्रवण करतां तुरत ज भगवानने हृदयमां धारण करी शके छे एथी बीजी मोटाई शी होई शके? ॥२॥

विशेष - १. भगवाननी लीलाना वर्णनरूप ग्रन्थमां के जेना श्रवणमात्रथी सर्वथा असाध्य पण सुसाध्य थाय छे. धर्म अने ज्ञान ए साधन छे अने भगवाननुं प्राकट्य ए साध्य छे.
[[१२]] वेदे कर्तव्य, करवामाटे जे कह्यो ते ‘धर्म’ कहेवाय. यज्ञात्मक धर्म छे, आचार पण धर्म छे. सत्य शौच वगेरे तपश्चर्या अने भगवच्छ्रवणादि पण धर्म गणाय छे. आ अनेक साधनथी साध्यनो आविर्भाव मात्र श्रीभागवतना श्रवणथी थाय तेथी ए कल्पद्रुमथी पण विशेष छे.
२. बीजानी चडती जोईने खेद थाय एनुं नाम ‘मत्सर’ नामनो दोष. ते जेनामां न होय ते निर्मत्सर; एवा छतां सत्पुरुष एटले दोष न होय अने बीजानुं भलुं थाय एवुं करवानी शक्ति-कृपा तेथी युक्त ए निर्मत्सर सत्पुरुष.
३. धर्ममां कापट्य सम्भवे नहि, कारण के वेदे विहित ते धर्म एम तो प्रथम कह्युं छे. त्यां कापट्य सम्भवे नहि, छतां अर्ही ‘‘निष्कपट धर्म’’ एम व्यासजी कहे छे तेथी जो के वेद तो यथार्थ कहे छे पण तेने समजनारनी बुद्धिना भ्रमथी दोष उत्पन्न थाय छे; जेम के ‘‘स्वर्गकामो यजेत’’ एम श्रुति कहे छे तेमां श्रुतिनुं तात्पर्य स्वर्ग एटले ‘आत्मसुख’ छे पण कामी लोको एनो स्वर्गलोक एवो अर्थ करीने ए लोकना उद्‌देशथी यज्ञादि करे छे. वळी शुद्धि अने अशुद्धि नी वातमां एकज वस्तु एकने शुद्ध अने बीजाने अशुद्ध एम केम सम्भवे? त्यां कहेनारनुं तात्पर्य बीजुं छे; तेथी ते धर्मोमां कापट्य तेमज तप वगेरेमां कामना ए कापट्य छे; एक ज वस्तु एकने कर्तव्य अने बीजाने अकर्तव्य एवा धर्मोमां कांईक कापट्य छे तेथी अर्ही ते आ धर्मो नहि पण निष्कपट धर्मो जेवा के श्रवणादिक जे करे तेने नित्यफळ सिद्धज थाय.
४. ‘पर’ एटले भगवान्‌ जेनाथी प्रकट थाय ते परम.
५. यज्ञ, काल, पुरुष वगेरे जाणवा योग्य ज छे, परन्तु एना पण तात्पर्यरूप भगवान्‌ छे तेथी खरी वस्तु जाणवानी अर्ही जरूर छे एम लख्युं छे.
६. काव्यादि ग्रन्थोमां पण रसनुं वर्णन आवे छे पण ए कर्ताना दोषथी दूषणवाळा होय छे एवुं अर्ही नथी एम बताववा माटे महामुनि व्यासजीनी आ कृति बतावी छे, जेमां कर्ता भगवज्ज्ञानावतार होवाथी कर्तृदोषनी सम्भावना नथी. एथी सर्वथी उत्तम श्रीभागवत छे एम कहेवाथी वस्तुनिर्देशात्मक मङ्गलनुं वर्णन आ श्लोकमां थयुं. (आम मध्यभाव कल्पद्रुमत्व कहीने हवे) निगमरूप कल्पतरुनुं१ आ गलित फल छे, शुकना मुखद्वारा२ मळेल तेथी अमृतद्रव्यवाळुं छे, लयने पहोञ्चता सुधी रसरूप छे ते ज आ श्रीभागवत नामनुं३ ग्रन्थरूप फळ छे तेना रसना भोक्ता रसिको तेना भावना चिन्तक हे भावुको! रसरूप होवाथी आ लीलावर्णनरूप भागवतनुं पान४ करो. अथवा ‘आलयम्‌’ एटले प्रत्येक जीवे मरणपर्यन्त भागवद्रसनुं पान करवुं [[१३]] ॥३॥

विशेष - १. काव्यमां लोकोने समजाववा माटे रूपक बतावाय छे. तेम अर्ही ‘कल्पतरु’ शब्द अलङ्काररूपे कहेवामां नथी आव्यो, कारण के श्रीभागवत तो सर्व वेदोना साररूप होवाथी सर्वोद्धारक छे तेथी तेमां आवा अलङ्कारोनी कल्पना करवी ठीक नथी. पण साक्षात्‌ व्यासजी भगवानना ज्ञानना अवताररूप होवाथी एमना ज्ञानमां ए सत्य वस्तु कल्पवृक्ष रूपे स्फुरी ए प्रमाणथी ज एमना शब्दो अन्यथा अनुपपन्न थाय तो प्रमाण न गणाय तेथी वैकुण्ठमां वेदरूप वृक्ष छे तेना फलरूप श्रीभागवत पण त्यां नित्य छे. जे व्यासावतारे, भगवान्‌ करुणा करी सर्वोद्धारार्थ पधार्या त्यारे, साथे लाव्या छे. रसरूप होवाथी एमना अन्तःकरणमां स्थित हतुं ते स्वपुत्र शुकना अन्तःकरणमां स्वान्तःकरणद्वारा आप्युं.
२. शुकदेवजीद्वारा पृथ्वी उपर आव्युं ते शुकदेवजीए प्रथम परीक्षितने उद्‌देशीने कह्युं तेथी ‘शुकमुखात्‌’ एम कह्युं छे.
३. भगवत्सम्बन्धिनी लीला मुख्यत्वे दश प्रकारनी छे. ते दश प्रकारनी सर्गादि लीलानुं जेमां वर्णन होय ते ‘श्रीभागवत्‌’ कहेवाय. ते अक्षरात्मक भगवत्‌ लीलानुं वाचक छे अने एनो वाच्यार्थ रसरूप छे अने रस फळरूप छे. बीजे श्रवणादि साधनरूप होय अने मोक्षादि फळरूप होय तेम अर्ही नथी; अर्ही तो ‘‘नामरूपे व्याकरवाणि’’ श्रुतिमां कह्या प्रमाणे भगवान्‌ स्वतन्त्र फळरूप छे; एमणे ज्यारे कृपा करी त्यारे नाम अने रूप नो विस्तार कर्यो एटले भक्तो एने फळरूप मानी एनाथी कृतार्थ थाय छे. ज्ञानीभक्तो ए द्वारा मोक्षफळने मेळवे छे पण स्वरूप तो फलात्मक छे.
४. रसात्मक होवाथी पानमां क्लेशने के तृप्तिने अवकाश नथी, जेनाथी तृप्ति थाय छे तेनी रसतामां न्यूनता छे. रसिकताना अधिकारी जुदा होय छे. आ श्रीभागवतरसनो अधिकार लोकतृष्णावाळाने नथी तेथी ‘पारमहंस्यसंहिता’ कहेवाय छे तेथी ज ‘‘शुकमुखाद्‌ अमृतद्रवसंयुतम्‌’’ एम मूळ श्लोकमां कह्युं छे. जेम साकर मधुर रस छे छतां स्वदोषथी पित्तवाळाने कडवा रसनो अनुभव थाय छे तेम संसारावेशवाळाने श्रीभागवतमां रसरूपता न भासे तो तेथी भागवतमां रसत्वनी न्यूनता नथी पण पानकर्ताना दोष ज एनी रसताना प्रतिबन्धको छे एम समजवुं. ‘साम्भळो’ एम न कहेतां आ रसनुं ‘पान करो’ एम कहेवानुं तात्पर्य के कथा श्रवण करीए ते कानमां आवीने पछी थोडी वारे आपणे एनुं स्मरण करीए तो ए स्मरणमां आवती नथी तेवी रीते आ भागवत साम्भळवानी व्यासजी आज्ञा करता नथी, व्यासजी पान करवानुं कहे छे. पान करवुं एटले बहार रहेला रसरूप पदार्थने अन्दर
[[१४]] दाखल करवो. एने लोकमां ‘पान कर्युं’ एम कहेवाय छे. तेम अर्ही पण वक्ताना मुखथी नीकळेल भगवल्लीलारूप रसने कर्णद्वारा हृदयमां धारण करवो, पछी एनुं मनन करवुं ए मनन सिद्ध थया पछी निदिध्यासन करवुं; एटलुं थाय त्यारे श्रवण सिद्ध थाय छे. तेथी ज वर्णसमुदायने रसरूप कह्यो अने एनुं पान करवानो आदेश पण विशेष अर्थसूचक छे एम समजवुं. आ त्रण श्लोक पर्यन्त श्रीभगवत्‌नो उपोद्‌घात थयो. *विष्णु जेना देवता छे तेवा नैमिषारण्यमां शौनकादि ऋषिओ सहस्त्र वर्षनो सत्र करवा भेगा मळ्या छे ॥४॥

विशेष - हवे ग्रन्थनो प्रारम्भ करे छे. अत्र कहेवानुं एटलुं छे के श्रीभागवतना परम्परागत सात अर्थ कथाना अर्थथी जुदा छे एटले बीजा टीकाकारोए लख्या नथी. ए सात अर्थोमान्थी चार निबन्धमां लख्या छे अने त्रण श्रीसुबोधिनीजीमां छे. आनन्दरूप हरिनी लीलारूप आ सर्व छे एम जाणतां भगवाननुं माहात्म्यज्ञान थाय छे तेनाथी भक्ति थाय छे. ए सर्वनुं कारण लीलाज्ञान छे. ए लीला मुख्यत्वे दश प्रकारनी छे. एमां प्रथमस्कन्ध अधिकारलीलारूप छे ए दश लीलानुं अङ्ग अधिकार छे एथी प्रथम स्कन्धमां अधिकारलीला छे. ए त्रण प्रकारनो छे. अधिकार मुजब श्रीभागवतनो अर्थ हृदयारूढ थाय छे. सूत-शौनक, नारद-व्यास अने शुक-परीक्षित ए बधाना अधिकार जुदा होवाथी ते-तेना ज्ञानमां अने फळमां भेद छे. एमां सूत-शौनक हीनाधिकारी छे. एक दिवस प्रातःकाळमां ए मुनिओ अग्निमां होम करीने बेठेला सूतजीनो सत्कार करी आदरपूर्वक आ प्रमाणे पूछवा लाग्या ॥५॥

ऋषिओ बोल्या - तमे इतिहास सहित पुराणो भण्या छो. हे निष्पाप! एनां आख्यान पण कर्या छे, धर्मशास्त्रो पण तमो एनी व्याख्या करीने भण्यां छो ॥६॥

वेद जाणनारमां श्रेष्ठ बादरायण जे जाणे छे अने ब्रह्मादिथी लई आपना सुधीने जाणनार बीजा मुनिओ जे जाणे छे हे सौम्य! ते सर्व तमे एमना अनुग्रहथी एना भावसहित जाणो छो, कारण के गुरुओ स्नेहवाळा शिष्यने गुप्त वात पण कहे छे ॥७-८॥

हे दीर्घायुष्यवान्‌! ते-ते शास्त्रमां जे पुरुषनुं सहेलाईथी साचुकलुं श्रेय करनार वस्तु तमारा निश्चयमां होय ते अमने कहेवाने तमे योग्य छो ॥९॥

हे सभ्य! आ कळियुगमां घणुं करीने मनुष्यो अल्प आयुष्यवाळा, आळसु, [[१५]] घणी ज मन्द बुद्धिवाळा, मन्द भाग्यवाळा अने रोगादिकथी पीडायेला छे ॥१०॥

तेम श्रवण करतां घणां कर्तव्य प्राप्त थाय तेथी केवळ श्रवणमात्रथी कृतार्थता थती नथी, साम्भळवानुं पण बहु छे तेथी हे साधो! जे तमे बुद्धिथी साररूप निश्चित कर्युं होय ते कहो, जेना श्रवणथी प्राणीओनुं कल्याण थाय अने भगवान्‌ सारी रीते प्रसन्न थाय ॥११॥

हे सूतजी! भक्तोना पति भगवान्‌ जेमनां कार्य करवानी इच्छाथी वसुदेवनी भार्या देवकीजीमां प्रकट थया ते तमे जाणो छो? तमारूं कल्याण हो ॥१२॥

ते सम्बन्धि बधुं जाणवानी इच्छावाळा अमो तमने कहेवानी प्रार्थना करीए छीए के जे भगवान्‌ प्राणीमात्रनां ऐहिक अने पारलौकिक श्रेय सिद्ध करवा वैकुण्ठथी अर्ही पधार्या छे ॥१३॥

घोर संसारमां दुःख पामतो जीव जेमनुं नाम मुखथी उच्चारे तेटलामाञ्ज दुःखथी मुकत थाय छे; सर्वेने भय करनार काळने पण जेनो भय लागेछे ॥१४॥

ज्ञानी भक्तो जेमना चरणनो आसरो करवा मात्रथी तत्काळ पवित्र थाय छे ज्यारे गङ्गाजळ तो सेवन करनारने ज पवित्र करे छे ॥१५॥

जेमनां कार्य स्तुति करवा लायक छे तेवा भगवाननो यश कलियुगना मळने दूर करनार होवाथी शुद्धिनी कामनावाळो कयो पुरुष न साम्भळे? ॥१६॥

ए लीलावडे कळाने धारण करनार भगवाननां विद्वानोए गायेल कर्म श्रद्धावाळा अमोने सम्भळावो ॥१७॥

हे बुद्धिमन्‌! जीवना दुःखने हरनार भगवानना अवतारनी कथा जे भगवान्‌ कर्तुम्‌, अकर्तुम्‌ अन्यथाकर्तुं समर्थ एटले ‘ईश्वर’ छे, जे लोकनुं कल्याण करनारी लीलानुं आत्ममाया (ईश्वरनुं सर्वभवन सामर्थ्य) वडे धारण करे छे तेमनी शुभ अवतारकथा अमने तमे कहो ॥१८॥

जे साम्भळनारने अने एना रसने जाणनारने पद-पदमां वधारे स्वाद आपे छे ते उत्तमश्लोक भगवानना पराक्रम अनेक वखत साम्भळवा छतां अमे तृप्त थता नथी ॥१९॥

जे लोकोथी न बनी शके तेवां कर्म बळदेवजीनी साथे केशवे कर्या, कारण के एओ भगवान्‌ छे, कपटथी मनुष्यभावने बतावे छे तेमनी कथा कहो ॥२०॥

कळियुगनो प्रवेश थयो जाणी, बधां कर्म छोडी केवळ कथारूप दीर्घ सत्रवडे अमो
[[१६]] अर्ही वैष्णवक्षेत्रमां बेठेला छीए. (आनाथी कथा साम्भळवामां स्वयोग्यता ऋषिओए सूचवी.) ॥२१॥

दुस्तर कलिने तरवानी इच्छा करता अमो अर्ही बेठा त्यां समुद्रमां नाविक वगरना नावमां बेठेला माणसने नाविक मळे तेम तमे दैवेच्छाथी अमने मळ्या ॥२२॥

ब्रूहि योगेश्वरे कृष्णे ब्रह्मण्ये धर्मवर्मणि । स्वां काष्ठाम्‌ अधुनोपेते धर्मः कं शरणं गतः ॥२३॥

धर्मनुं रक्षण करनार ब्राह्मणना हितैषी योगेश्वर श्रीकृष्ण वैकुण्ठ पधार्या त्यारे धर्म कोने शरणे गयो ए वात आप कहो ॥२३॥

इति श्रीभागवतमां प्रथमस्कन्धना हीनाधिकारमां ‘‘शौनके पूछेला छ प्रश्नो’’ नामनो प्रथम अध्याय सम्पूर्ण. फण्ड-फाळामाटे, आजीविकामाटे दक्षिणा लईने के मृतकना उद्धारार्थे भागवतकथा करवी, बेसाडवी के साम्भळवी ए श्रीमहाप्रभुजीनी आज्ञाना उल्लङ्घनरूप घोर पाप छे

अध्याय २

फळ साधनरूप त्रण कर्मोनो निर्णय इति सम्प्रश्न-संहृष्टः स विप्रै रौमहर्षणिः ॥ प्रतिपूज्य वयस्तेषां प्रवक्तुम्‌ उपचक्रमे ॥१॥

व्यासजी बोल्याः ए प्रकारे रोमहर्षणना पुत्र उग्रश्रवा (सूतजी) ब्राह्मणोना एवा सारा प्रश्नथी प्रसन्न थया अने एमना वचनने अभिनन्दीने ए प्रश्नोना उत्तर आपवानो आरम्भ कर्यो ॥१॥

(प्रथम देवताने नमस्कार करीने प्रारम्भ थाय. तेथी सूतजी पोताना गुरुने नमस्काररूप मङ्गलाचरण करे छे के) जेने कांई कर्तव्य करवानुं रह्युं नथी तेवा-उपनयन वगरना छतां सर्व छोडीने चाली नीकळता शुकदेवजीने जोई एमना पिता व्यासजी पुत्रविरहथी [[१७]] ईं उं ईं उन्दीन थई ‘हे पुत्र! हे पुत्र!’ एम बोलावे छे त्यारे सर्वभूतोना हृदयमां रहेला शुकदेवजीनी तन्मयताथी वृक्षो उत्तर आपे छे एवा शुकमुनिने चारे तरफथी हुं नमन करुं छुम् ॥२॥

भगवानना जेवा प्रतापवाळुं, सर्व वेदना साररूप, घोर अज्ञानरूपी अन्धकारने तरवाने इच्छनार, संसारीओना हृदयमां स्वस्वरूपनो प्रकाश करनार असाधारण दीपक तेवुं जे गुप्तपुराण ते श्रीभागवत्‌नो दयाथी प्रचार करनार व्यासना पुत्र अने मुनिजनोना गुरु शुकदेवजीने हुं शरणे जाउं छुम् ॥३॥

नारायणने, मनुष्यमां उत्तम नरने, सरस्वती देवीने अने व्यासजीने नमन करीने जयनो* (भगवत्कथानो) प्रारम्भ करवो. (चारेय भगवत्स्वरूप छे) ॥४॥

विशेष - महाभारत अने अढार पुराण ए ‘जय’ कहेवाय छे. ए वाञ्चतां पहेलां नारायण वगेरेनुं स्मरण करवुं एवो शिष्टाचार छे. अर्ही नारायण एटले वक्ता व्यास अने नर तेनी समीपमां साधन करनारा छे. एनुं स्मरण करवाथी कथा कहेनारना हृदयमान्थी लोकावेश दूर थईने सर्वात्मा प्रवेशे छे. उत्तम नर ते सूत्रात्मा अने सरस्वती देवी भाग्यात्मिका वाकयरूपिणी छे. आ बधां नाम साक्षात्‌ भगवाननां वाचक छे अने साक्षात्प्रभु ज प्रणाम करवा योग्य छे तेथी एमने प्रथम नमन करीने कथानो आरम्भ कर्यो छे. ए प्रमाणे नमन करीने सूतजीए कह्युं - हे मुनिओ! विश्वनुं कल्याण करनार सरस प्रश्न तमे कर्यो; सरस एटला माटे के तमारो प्रश्न कृष्णसम्बन्धी छे, जे कृष्णना आवेशथी अन्तःकरण प्रसन्न थाय छे ॥५॥

मनुष्योने माटे सौथी श्रेष्ठ, परम धर्म ते ज छे के जेनाथी भगवान्‌ श्रीकृष्णमां भक्ति थाय. ते पण एवी के जेमां कोई पण प्रकारनुं निमित्त१ अर्थात्‌ कामना न होय अने जे नित्य-निरन्तर टकी रहे, जेनी धारा कयांय तूटे नहि. २आवी भक्तिथी भगवान्‌ श्रीकृष्ण खूब प्रसन्न थाय छे ॥६॥

विशेष - १. कोई निमित्तथी थयेली वस्तु ते निमित्तना नाशथी नाश पामे छे माटे सोपाधिक भक्ति आत्मगामिनी न थई शके माटे भक्तिने अहैतुकी कही छे.
२. कोई रोगादिकथी पण एनो बाध न थवो जोईए. जेनो बाध कोई पण कारणथी थाय ते भक्ति पण भगवद्‌ गामिनी न थाय तेथी मूळमां ‘अप्रतिहता’ कही छे. आ बे

विशेषणवाळी भक्ति प्रभुने प्रसन्न करे छे. वासुदेव भगवान्‌मां भक्ति थतां ज ते निर्हेतुक ज्ञानने अने वैराग्यने सत्वर
[[१८]] उत्पन्न करे छे ॥७॥

पुरुषोए सारी रीते करेलो धर्म विश्वक्‌सेन भगवाननी कथामां प्रीति उत्पन्न न करे तो ए धर्म नहि परन्तु कोरो श्रम ज छे ॥८॥

मोक्ष सम्बन्धी धर्मनुं फळ अर्थ१ नथी, धर्म ज जेनो अन्तिम अर्थ छे तेवा तेवा अर्थनुं फळ काम२ नथी ॥९॥

विशेष - १. अर्थथी धर्म थाय पण धर्मथी अर्थ थतो नथी तेथी धर्मनुं फळ अर्थ नथी.
२. कृपणने अर्थ छे परन्तु काम एनाथी भोगवातो नथी अने पशुने अर्थ नथी तथापि काम भोग तो छे. तेथी अर्थनुं पर्यवसान काममां नथी परन्तु मोक्षमां छे एम त्रणे पुरुषार्थनुं तात्पर्य मोक्षमां ज होवाथी ‘‘धर्मादर्थश्च कामश्च स किमर्थं न सेव्यते’’ एम कहेनारनुं मन्तव्य ठीक नथी. काम एटले ‘विषयसुख’ तेनुं फळ इन्द्रियने पोषवी ए नथी परन्तु जेटलाथी जीवन टके तेटलो ज काम उपयोगी छे. जीवननुं फळ तत्त्वज्ञान छे, नहि के अर्थ- काम. अथ-कामसाधक जीवन मोक्षमां बिन-उपयोगी छे ॥१०॥

तत्त्वज्ञानीओ१ अद्वितीय एक ज ज्ञानने ‘तत्त्व’ कहे छे जेने ज्ञानीओ ‘ब्रह्म’२ कहे छे, योगीओ ‘परमात्मा’ अने भक्तो ‘भगवान्‌’ कहे छे ॥११॥

विशेष - १. जेने वेदना एक पण अक्षरमां सन्देह न होय तेने भागवत्‌ शास्त्रमां तत्त्वज्ञानी कह्यो छे.
२. श्रुतिमां ‘ब्रह्म’ नामथी, गीतामां ‘परमात्मा’ नामथी अने श्रीभागवत्‌मां ‘भगवान्‌’ नामथी बोलाय छे. तेथी श्रद्धावाळा मननशीलो श्रुतिथी१ ग्रहण थयेली अने २ज्ञान-वैराग्य वाळी भक्तिवडे स्वस्वरूपमां ए ब्रह्मने देखे छे ॥१२॥

विशेष - १. जेम-जेम श्रवण करतो रहे तेम-तेम भक्ति हृदयमां स्थिर थाय छे.
२. अर्ही ज्ञानने अने वैराग्यने त्रीजी विभक्तिमां कह्यो तेथी ‘‘सहयुकते प्रधाने’’ ए व्याकरणस्मृतिथी भक्तिनी मुख्यता बतावीछे. तेथी हे द्विजश्रेष्ठ (द्विजो करतां श्रेष्ठ एटले के त्रण जन्मवाळा. माताना उदरथी थयेलो जन्म पहेलो; उपनयन सस्कार ए बीजो जन्म, यज्ञनी दीक्षा ए त्रीजो जन्म.) शौनकादि ऋषिओ! पोत-पोताना वर्ण अने आश्रम प्रमाणे धर्माचरणनी सिद्धि त्यारे ज थई कहेवाय के ज्यारे एनाथी प्रभु प्रसन्न* थाय ॥१३॥

[[१९]] विशेष - साधन तो केवळ पापने दूर करे छे ए पछी भगवत्प्रसाद थाय छे अने ए प्रसादथी ज अन्तःकरण वस्तुतः शुद्ध थाय छे त्यारे श्रवणादिमां रुचि उद्‌भवे छे. तेथी भक्तना रक्षक भगवाननुं एकाग्र चित्तथी श्रवण, कीर्तन, ध्यान अने पूजन नित्य कर्तव्य छे ॥१४॥

जेना ध्यानरूप खडगवडे ज्ञानी पुरुषो कर्मग्रन्थि कापी नाखे छे तेवा प्रभुनी कथामां कोण प्रीति न करे? ॥१५॥

हे ब्राह्मणो! प्रभुनी कथामां प्रीति त्यारे थाय के ज्यारे कथा साम्भळवानी इच्छा राखनार पुरुषने कथामां श्रद्धा होय. पवित्र तीर्थसेवनथी अने मोटा पुरुषोनी सेवाथी आ बधुं प्राप्त थाय छे ॥१६॥

जेनां श्रवण-कीर्तन पवित्र करे छे तेवा सत्पुरुषोना मित्र श्रीकृष्ण स्वस्वरूप कथा साम्भळनारना हृदयमां रहीने तेमनां पाप दूर करे छे ॥१७॥

एम नित्य भगवद्‌गुण साम्भळतां साम्भळनारनां पाप नष्टप्रायः थाय छे त्यारे उत्तम श्लोक भगवान्‌मां एकनिष्ठावाळी भक्ति थाय छे ॥१८॥

त्यारे रजोगुणथी तथा तमोगुणथी थता काम लोभ वगेरे चित्तने भेदी शक्तां नथी अने चित्तमां सत्त्वनो उछाळो आवतां प्रसन्नता थाय छे ॥१९॥

एम प्रसन्न मनवाळा अने भगवाननी भक्ति करनार अने सङ्गने छोडनार भक्तने भगवत्स्वरूपनुं ज्ञान थाय छे ॥२०॥

ज्ञान थयुं के तत्काल हृदयनी अहन्ता-ममतानी दृढ गाण्ठ खुली जाय छे, मनना सर्व सन्देह निवृत्त थाय छे. भगवान्‌ आत्मा छे एवो अनुभव थतां आ जीवनां सर्वे कर्मोनो क्षय थाय छे ॥२१॥

माटे शब्दरसना जाणनारा भगवद्‌भक्तो परमानन्दयुक्त थईने चित्तने प्रसन्न करनारी वासुदेव भगवाननी भक्ति नित्य करे छे ॥२२॥

एक ज पुरुष अर्ही जगत्‌नी स्थिति वगेरेने माटे प्रकृतिना रज, तम अने सत्त्वगुण धारण करे त्यारे रजोधिष्ठित ‘ब्रह्मा’, तमोधिष्ठित ‘शिव’ अने सत्त्वाधिष्ठित ‘विष्णु’ एवां नाम धारण करे छे. ए त्रणमां पण मनुष्यनुं श्रेय तो सत्त्वतनु विष्णुथी ज थाय छे ॥२३॥

पृथ्वीना* विकाररूप लाकडान्थी धूम थाय छे तेमान्थी त्रयीमय अग्नि थाय छे तेम तमोगुणथी रजोगुण अने तेथी सत्त्वगुण उत्तरोउत्तर श्रेष्ठ छे. कारण के तेथी ब्रह्मनुं
[[२०]] दर्शन थाय छे ॥२४॥

विशेष - पृथ्वीमान्थी काष्ठ उत्पन्न थाय छे तेमां पाणीनो भाग होवाथी धुमाडो थाय छे. शुष्क काष्ठथी अग्नि थाय छे अने वैदिक कार्यमां ए अग्नि श्रेष्ठ गणाय छे. तेमान्थी लीलां काष्ठथी सूकां सारां, एनाथी अग्नि उत्तम. एम तम करतां रज उत्तम, एनाथी सत्त्व उत्तम एम समजवुं. पहेलां मुनिओ अधोक्षज(इन्द्रियोथी जेमनुं ज्ञान शक्य नथी तेवा) भगवाननुं पोताना कल्याणने माटे भजन करता हता के जे भजन करवाथी ए मुनिओनी पछीथी थनारानां पण कल्याण थयां छे ॥२५॥

मोक्षनी इच्छावाळा पुरुषो घोर रूपवाळा भूतपतिओने छोडीने नारायणनी शान्त कळाने भजे छे अने बीजाना उत्कर्षने जोईने एनी ईर्ष्या करता नथी ॥२६॥

रजो अने तमो गुणी स्वभाववाळा जीवो धन, ऐश्वर्य अने प्रजा नी प्राप्तिमाटे राजस अने तामस देवताने जेवा के पितृना ईश, भूत अने प्रजा ना ईशने भजे छे कारण के एमनो स्वभाव एमना जेवो छे ॥२७॥

बधा वेद* भगवान्‌ श्रीकृष्णनुं ज प्रतिपादन करे छे. यज्ञो पण भगवान्‌ श्रीकृष्णनी आराधनामाटे ज छे. योगो पण एमने ज प्राप्त करवामाटेना उपायो छे. कर्मोद्वारा पण एमनी ज प्राप्ति करवानी छे. ज्ञानथी पण एमने ज जाणवाना छे. तप पण एमनी प्राप्तिमां कारण छे. धर्म पण एमने माटे ज छे. अरे, बधी ज गतिओनुं लक्ष्य, प्राप्त करवानी वस्तु, भगवान्‌ श्रीकृष्ण ज छे. आ बधां-वेद, यज्ञो वगेरे सत्त्वगुण परायण छे. सत्त्वगुणथी अन्तःकरणनी शुद्धि थाय छे अने तेनाथी सुखनी प्राप्ति थाय छे ॥२८-२९॥

विशेष - वेद सात्त्विक प्रमाण छे. यज्ञ, सात्त्विक ज्ञान, योग, तप, आचार ए सर्व सात्त्विक छे. अने सत्त्वना अधिष्ठाता वासुदेव तेथी अत्र सर्वने वासुदेवपर एटले ‘‘वासुदेव छे परायण-परम गति-धाम तेवां’’ कह्यां छे. ए ज भगवाने गुणवती अने उच्च-नीच सर्वभवनसमर्थ* मायावडे पोते निर्गुण रहीने स्वसामर्थ्य बळे आरम्भमां जगत्‌ रच्युं छे ॥३०॥

विशेष - भगवान्‌ पौराणिकी सृष्टि करे छे तेमां पण माया तो केवळ निमित्तरूपे ज रहे छे. भगवान्‌ गुणप्रधान भावथी सृष्टिकर्ता होवाथी सृष्टिना अनेक भेद छे. भगवाननुं सर्वभवनसामर्थ्य [[२१]] एटले शक्ति तेनुं ज नाम ‘माया’ छे. बीजा पण मायाना अनेक भेद छे. सात्त्विक अन्तःकरण, सात्त्विक-राजस इन्द्रियो, राजस-तामस विषयो अने तामस पञ्चमहाभूतो एम चारे प्रकारनो सृष्टिभेद धर्म, अर्थ, काम अने मोक्षनी सिद्धिने अर्थे छे. देहथी धर्म, तन्मात्राथी अर्थ, इन्द्रियथी काम अने अन्तःकरणथी मोक्ष सिद्धि थाय छे.(सुबोधिनीजी) ए मायाबळे विलसता गुणोमां प्रवेश करीने रहेला पोते पण यद्यपि गुणयुक्त जेवा भासे छे. तथापि एमनी विज्ञानशक्ति प्रकाशे छे. (जीवनी जेम तिरोहित थती नथी) ॥३१॥

जेम एक ज अग्नि स्वकारणरूप काष्ठमां नानो-मोटो देखाय छे तेम प्राणीमात्रमां भगवान्‌ दर्शन दे छे ॥३२॥

देव, मनुष्य, पशु रूप ए स्वनिर्मित सृष्टिमां पोते ज बिराजे छे अने ते-ते विषयोने स्वयं भोगवे छे ॥३३॥

भावयत्येष सत्त्वेन लोकान्‌ वै लोकभावनः । लीलावतारानुरतो देवतिर्यङ्ग्‌नरादिषु ॥३४॥

ए ज भगवान्‌ सत्त्वगुणवडे लोकनुं पालन करे छे तेमज देव, पशु अने मनुष्य आदिमां ते-ते जीवने अर्थे लीलावडे अवतार धारण करे छे ॥३४॥

इति श्रीभागवत्‌मां प्रथम स्कन्धना हीनाधिकारमां ‘‘फळ- साधनरूप त्रण कर्मोनो निर्णय’’ नामनो बीजो अध्याय सम्पूर्ण.

अध्याय ३

श्रीभगवानना अवतारो जगृहे पौरुषं रूपं भगवान्‌ महदादिभिः ॥ सम्भूतं षोडशकलम्‌ आदौ लोकसिसृक्षया ॥१॥

सूत बोल्या - भगवानने ब्रह्माण्डनी रचना करवानी इच्छा थई. इच्छा थतां ज पोते पुरुषनुं रूप ग्रहण कर्युं. आ पुरुषरूप महत्‌ तत्त्व अहङ्कार अने पाञ्च तन्मात्रा ए सातथी बनेलुं तथा सोळ कळाओ-दस इन्द्रिय, मन अने पञ्चमहाभूतवाळुं हतुं.
[[२२]] (आ त्रेवीस तत्त्वो कहेवाय छे.) ॥१॥

योगनिद्राने विस्तारता अने जळमां पोढेला भगवानना नाभिकमळमान्थी मरीचि वगेरे ऋषिवर्योने उत्पन्न करनार ब्रह्माजी थयाम् ॥२॥

जेमना अवयवरूप स्थानथी लोकोनो विस्तार थयो छे ते भगवाननुं सर्व कार्य करवाने शक्तिवाळुं रूप खरेखर खीली उठेला विशुद्ध सत्त्वरूप छे ॥३॥

हजारो चरण, साथळ, भुजा अने मुखोवाळुं तथा हजारो मस्तक, कान, आङ्ख अने नासिकाओ तेमज हजारो मुकुट, वस्त्र अने कुण्डलोवाळुं ए रूप योगी लोको पोतानां योगसिद्ध नेत्रोवडे जुए छे ॥४॥

ए अनेक अवतारोनुं धाम अने नष्ट न थाय तेवुं बीज छे, जेना अंशना पण अंशवडे देव, पशु अने मनुष्य वगेरे उत्पन्न थाय छे ॥५॥

ए ज भगवाने१ प्रथम कुमारनी सृष्टिनो आश्रय करीने सनकादि रूपे प्रकटीने न आचरी शकाय तेवुं अखण्डित ब्रह्मचर्य२ पाळ्युम् ॥६॥

विशेष - १. भगवान्‌ सत्त्वशरीरमां प्रवेश करीने सर्वदा रहे ते ‘अवतार’ कहेवाय, कार्यकाले आवे ते ‘आवेश’ कहेवाय. तेथी शरीर शुद्ध अने अशुद्ध एम बे प्रकारनां कहेवाय छे. एनो निर्णय वैष्णवतन्त्रमां आपेलो छे. भगवान्‌ ज्ञानशक्ति अने क्रियाशक्ति वडे अवतार धारण करे छे. वराहादि अवतारमां प्रभु बळनुं कार्य करे छे. दत्त, व्यास आदि अवतारोवडे ज्ञानकार्य करे छे. मत्स्य, कूर्म, वराह, नृसिंह, वामन, राम (परशुराम), रामचन्द्र, कृष्ण, बुद्ध, व्यास, कपिल, दत्त, ऋषभ, शिशुमार, रुचिना पुत्र (रौच्य), नारायण, हरि, तापस, कृष्ण, मनु, महीदास, हंस, मोहनी, हयग्रीव, वडवावक्‌त्र, धन्वन्तरि, कल्कि वगेरे अवतार केवळ विष्णु छे. लक्ष्मी, ब्रह्मा, रुद्र, शेष, गरुड, इन्द्र, काम, प्रद्युम्न, अनिरुद्ध, व्यूह, सूर्य, चन्द्र, बृहस्पति, धर्म, तत्पत्नीओ, दक्षादि, मनु एना पुत्रौ ऋषिओ, नारद, पर्वत, कश्यप, सनकादिक, ब्रह्मादि, देवता, भरत, कार्तवीर्य, वैन्य वगेरे, चक्रवर्ती, गय, लक्ष्मणादि, बळदेव, प्रद्युम्न, अनिरुद्ध, अर्र्जुन वगेरे विशेष आवेशी छे.
२. भूखनो अग्नि असह्य छे तेम कामाग्नि पण असह्य छे. जेम भूखमां जलपान तेम काममां स्त्रीप्रेक्षण आदि छे. जेम भूखमां अन्नतृप्ति तेम काममां रेतःपातथी तृप्ति छे. जेमां बीजरूप काम होय ते ‘कुमार’. तेने स्त्रीरूप जलना सेवनथी यौवन थाय छे. सनकादिकने स्त्रीनो संसर्ग न होवाथी सदा कौमारवय छे. स्त्रीना स्मरणादि विना बीजने धारण करवुं ए ‘ब्रह्मचर्य’ कहेवाय. ते सामर्थ्य जीवमां न होवाथी भगवान्‌ ज कामाग्नि सहन करी शके. तेथी [[२३]] ज ‘कुमार’रूपे अर्ही भगवाननो प्रथमावतार कह्यो छे. बीजा वराहावतारमां आ लोकनी वृद्धिने अर्थे यक्षना ईश एवा भगवाने रसातळमां गयेली पृथ्वीने लाववाने वराहावतार धर्यो ॥७॥

त्रीजा अवतारे ऋषिसर्गमां नारदजी प्रकट थया, जेनाथी कर्मनुं फळ भोगववुं न पडे तेवुं नैष्कर्म्यरूप वैष्णवतन्त्र (नारद पञ्चरात्र) नारदजीए प्रकट कर्युम् ॥८॥

चोथा अवतारमां धर्मकळाना सर्गमां नर अने नारायण एम बे रूपे प्रकट थईने आत्मानी शान्तियुक्त, कोईथी न थई शके तेवुं, शान्त तप आचर्युम् ॥९॥

पाञ्चमा अवतार सिद्धना ईश्वर कपिलदेवजी, जेमणे काळे करीने नष्ट थयेलुं साङ्ख्य के जेमां तत्त्वसमुदायनो निर्णय छे ते साङ्ख्य प्रकट करीने ‘आसुरि’ नामना मुनिने कह्युम् ॥१०॥

अनसूयाथी अत्रिमां दत्तरूपे प्रकट्या ए छठ्ठा अवतार. ते अवतारमां आन्वीक्षिकी (योगसहित आत्मज्ञानरूपी) विद्या अलर्क राजाने अने प्रह्‌लाद वगेरेने कही ॥११॥

सातमा अवतारमां आप रुचि प्रजापतिनी ‘आकूति’ नामनी पत्नीथी यज्ञ स्वरूपे प्रकट थया अने पोताना पुत्र याम वगेरे देवताओनी साथे पोते स्वायम्भुव मन्वन्तरनी रक्षा करी ॥१२॥

नाभिराजाथी मेरुदेवीमां भगवान्‌ ऋषभदेवजीनो आठमो अवतार थयो तेमणे सर्व आश्रमोए नमस्कार करवा योग्य धीर पुरुषनो सन्न्यासरूप निवृत्तिमार्ग बताव्यो ॥१३॥

ऋषिओनी प्रार्थनाथी नवमो अवतार पृथुराजानो थयो तेमणे आ पृथ्वीमान्थी सर्व औषधिनुं दोहन कर्युं जेनाथी ए ‘उशत्तम’ सौथी सुन्दर-सौथी कल्याणकारी कहेवाया ॥१४॥

एमणे ज चाक्षुष मन्वन्तरना अन्ते थयेल प्रलयमां *मत्स्यरूप धारण करीने पृथ्वीरूप नौकामां सर्व बीजने अने वैवस्वत मनुने लईने एक मन्वन्तर पर्यन्त एओनुं रक्षण कर्युम् ॥१५॥

विशेष - कल्पनी समाप्तिमां दैनन्दिन प्रलय थाय छे. एक कल्पमां १४ मनु थाय छे तेथी
१४ मन्वन्तर थया पछी प्रलय थाय. अने चाक्षुष मनु तो छठ्ठा छे माटे प्रलय न थवो जोईए तेथी आ देखाडेलो प्रलय मायिक छे एम श्रीधर वगेरेनुं कथन छे; परन्तु ए युक्त नथी. केमके मनुओ क्रमे थाय एवो नियम नथी. तेथी चाक्षुष पण कोईवार १४मो मनु होई
[[२४]] शके. मत्स्यपुराणमां वैवस्वत मनु पछी क्रमथी सावर्णि, रोच्य, भौत्य, मेरुसावर्णि, ऋतु, ऋतुधाम, विश्वक्‌सेन एम कहेल छे. अने मार्कण्डेय पुराणमां पाञ्च सावर्णि, रौच्य, भौत्य एम क्रम छे तेथी आ प्रलय मायिक नथी. देवता अने दानवो ज्यारे मन्दराचळने रवाई करीने समुद्रमन्थन करवा लाग्या त्यारे अगियारमो अवतार कच्छप भगवाननो थयो. तेमणे पोतानी पीठ उपर मन्दर पर्वत धर्यो ॥१६॥

बारमो अने तेरमो अवतार धन्वन्तरिनो थयो तेमणे देवताओने अमृत पायुं अने मोहिनी स्वरूपे असुरोने मोह उत्पन्न कर्यो ॥१७॥

नृसिंहजीनो अवतार चौदमो थयो. तेमणे अत्यन्त बळवान थयेला दैत्येन्द्र हिरण्यकशिपुने, जेम चटाईकरनार घास कापे तेम, नखोथी चीरी नाख्यो ॥१८॥

पन्दरमो अवतार वामनजीनो थयो. तेमणे पोतानुं स्वरूप अतिसूक्ष्म कर्युं अने सर्व लई लेवानी इच्छाथी बलिराजा पासेथी तेना यज्ञमां जई त्रण पगलां जमीन मागी ॥१९॥

सोळमा परशुराम अवतारमां ब्राह्मणद्रोही राजाओने जोईने कोप करीने एकवीस वार पृथ्वीने निःक्षत्रिय करी ॥२०॥

पछी सत्यवतीमां पराशर मुनिथी वेदव्यास रूप सत्तरमो अवतार थयो. तेमणे मनुष्योने अल्पबुद्धिवाळा जोईने वेदरूप वृक्षनी शाखाओ करी ॥२१॥

देवताओनां कार्य करवानी इच्छाए राजारूपे श्रीरामचन्द्रजी प्रकट थया अने समुद्रनिग्रह वगेरे कार्य कर्याम् ॥२२॥

ओगणीसमा अने वीसमा अवतारे यदुकुळमां जन्म धारण करीने राम अने कृष्ण रूपे प्रकट्या. तेमणे पृथ्वीनो भार उतार्यो ॥२३॥

त्यारबाद कलियुग सारी रीते प्रवृत्त थशे. त्यारे देवताओना दुश्मन दैत्योने मोह पमाडवा बिहारमां अजिनना पुत्र स्वरूपे आपनो बुद्ध* अवतार थशे ॥२४॥

विशेष - आ प्रभुना अवतारमां कूर्मावतार, आदिकूर्मनो, धन्वन्तरि विष्णुनो, नृसिंह काळनो, वामन विष्णुनो, परशुराम वैश्वानरनो, व्यास विष्णुना ज्ञाननो, राम वासुदेवनो, बळदेवजी सङ्कर्षणनो, कृष्ण व्यूहोनो अने बुद्ध वासुदेवनो अवतार छे एम समजवुं. युगसन्ध्यामां ज्यारे राजाओ चोर-डाकु जेवा थई जशे त्यारे ‘विष्णुयश’ नामना ब्राह्मणने त्यां जगत्पति आ प्रभु कल्कि रूपे प्रकट थशे ॥२५॥

[[२५]] हे द्विजो! जेम अक्षय जलाशयमान्थी हजारो नहेरो नीकळे छे तेम सत्त्वनिधि भगवानना असङ्ख्य अवतार थाय छे ॥२६॥

ऋषिओ, मनुओ, देवो, अत्यन्त बळवान पुरुषो, मनुपुत्रो अने प्रजापतिओ सहित सर्वए रक्षण करवानी इच्छावाळा भगवाननी कळा एटले धर्मावेशरूप छे ॥२७॥

ए सर्व अवतारो कोई कळा, कोई अंश, कोई आवेशरूप छे; एवा कृष्ण पण हशे एवुं न समजवुं. केमके कृष्ण तो सर्व अवतारोना अवतारी छे तेथी कृष्ण तो स्वयं भगवान्‌ छे. एओ दैत्योथी पीडित आ लोकनी युगे-युगे रक्षा करे छे ॥२८॥

आ कृष्णनो जन्म गुह्य छे. आ अवतारनी कथानो प्रयत्नपूर्वक साञ्ज-सवार प्रेम पूर्वक जे पाठ करे ते सर्व दुःखथी मुक्त थई जाय ॥२९॥

चैतन्यरूप भगवान्‌ के जे (प्राकृत्‌) रूपरहित छे तेनुं महद्‌ वगेरे मायागुणोए (सत्त्वव्यवधानथी रचेलुं) आ रूप छे. जेम लोहना गोळामां अग्नि रहे छे तेम आ रूप समजवुम् ॥३०॥

जेम आकाश अरूप छे तेमां मेघ देखाय छे, जेम वायु अरूप छे तेमां रज देखाय छे तेम द्रष्टा भगवान्‌मां मूर्ख लोकोए दृश्यत्वनो* आरोप कर्यो छे ॥३१॥

विशेष - आकाशमां अने वायुमां रूप नथी. तेमां अन्य वस्तु रही न शके तथापि आपणे मेघ अने रजपुञ्जने जोईए छीए तेम भगवान्‌ सर्वना द्रष्टा छे तथापि एमना स्वरूपने नहि जाणनार मूर्खो आ भगवान्‌मां दृश्यत्वनो, ते-ते पदार्थोना देखावापणानो, आरोप स्वबुद्धिभ्रमे करे छे. आ स्थूल रूपथी पर भगवाननुं एक सूक्ष्म अव्यक्त रूप छे, जे न तो स्थूलनी माफक आकार वगेरे गुणवाळुं छे, नथी तो ते देखवामां आवी शक्तुं, न साम्भळवामां. ए ज सूक्ष्म शरीर छे. आत्मानो आरोप अथवा प्रवेश थवाथी ए ज ‘जीव’ कहेवाय छे अने एनो वारंवार जन्म थाय छे ॥३२॥

उपर्युक्त आ बे सत्‌ अने असत्‌ रूपो, स्थूल अने सूक्ष्म शरीर, अविद्याथी ज आत्मामां आरोपित छे. जे अवस्थामां आत्मस्वरूपना ज्ञानथी आ आरोप दूर थई जाय छे ए ज वखते ब्रह्मनो साक्षात्कार थाय छे. वास्तविक रीते जीवेय नथी अने जड पण नथी. जे कंई छे ते बधुं भगवान्‌ ज छे. ते बेउ जड अने जीव
[[२६]] देखाय छे ते अविद्याथीज ॥३३॥

ज्यारे विशेष चतुर भगवाननी माया मतिरूपे रहेली (पण) विरमे छे त्यारे जीव स्वरूप प्राप्त करीने आनन्दरूप थाय छे ॥३४॥

एम अजन्मा, अकर्ता अने दरेकना हृदयना प्रेरक कृष्णना वेदमां गुप्त रीते कहेलां जन्म अने कर्म कविओ वर्णवेछे ॥३५॥

ए पुरुषोत्तमनी लीला विफळ नथी. ए अमोघ सफळ लीलावडे आ जगत्‌ने उत्पन्न करे छे, रक्षण करे छे अने स्वरूपमां लीन करे छे. तथापि एमां पोते आसक्त थता नथी. छ गुणना ईश्वर प्राणीओमां गुप्तरूपे बिराजीने, स्वाधीन रहीने, इन्द्रियोना सुखनी गन्ध ले छे ॥३६॥

जेवी रीते अणजाण माणस नटे चेष्टाथी करेली करामतने नथी समजी शक्तो तेवी ज रीते पोताना सङ्कल्प अने वाणी (वेद) द्वारा भगवाने प्रकट करेल नाना प्रकारनां नाम, रूपो तथा लीलाओने, दुष्टबुद्धिवाळो जीव तर्क-युक्ति-प्रमाण द्वारा जाणी शकतो नथी ॥३७॥

चक्र जेना श्रीहस्तमां छे अने अनन्त जेनां पराक्रम छे तेवा लौकिक वैदिक प्रमाणोथी पर, जगत्‌कर्तानी गति निष्कपट भावे निरन्तर आदरपूर्वक एमना चरणने भजनार जाणे छे ॥३८॥

हवे आ संसारमां (आप) भगवानो धन्य छो, कारण के सर्व लोकना नाथ वासुदेवमां आवी रीते सम्पूर्ण आत्मभाव करो छो, जेथी भयङ्कर संसारमां फरी आववानुं रहेतुं नथी. (आ श्लोकमां सूतजी श्रोताओने माटे ‘‘धन्या भगवन्तः’’ शब्दो वापरे छे कारण के श्रीगीताजी १७-३मां निर्णय आप्यो छे के ‘‘यो यच्छ्रद्धः सएव सः’’ जेने जे देवमां श्रद्धा होय ते-ते रूपज छे. तमने भगवान्‌मां परम श्रद्धा छे माटे तमो भगवद्रूप छो) ॥३९॥

उत्तम श्लोक भगवानना चरित्ररूप (अने) वेदतुल्य एवुं आ श्रीभागवत पुराण भगवान्‌ वेदव्यासे प्रकट कर्युं छे ॥४०॥

लोकनुं कल्याण ए जेनुं मूख्य फळ छे, वळी धनने अने कल्याणना स्थान रूप तेवा आ श्रीभागवतने (प्रकट) करी जितेन्द्रियोमां श्रेष्ठ तेवा पोताना पुत्र श्रीशुकजीने ए ॥४१॥

आमां सर्व वेदो अने इतिहासोनो जे सार तेनो सङ्ग्रह करेलो छे ए शुकदेवजीए [[२७]] गङ्गाना तीरे प्रायोपवेश१ करीने उत्तम ऋषिओ साथे बेठेला परीक्षित राजाने सारी रीते श्रवण कराव्युं. धर्म२ अने ज्ञानादिनी साथे श्रीकृष्ण ज्यारे स्वधाममां पधार्या त्यारे कलियुग३ व्यापी जतां लोको नेत्ररहित थई गया त्यारे आ श्रीभागवतरूप सूर्य४ हमणां ऊग्यो छे. अने हे विप्रो! त्यां अत्यन्त तेजस्वी अत्यन्त ज्ञानवान्‌, प्रकाशवान्‌ विप्रर्षि कथा कहेता हता त्यारे… ॥४२-४४॥

अहं चाध्यगमं तत्र निविष्टः तदनुग्रहात्‌ ॥ सोऽहं वः श्रावयिष्यामि यथाऽधीतं यथामतिः ॥४५॥

…तेमनी कृपाथी हुं त्यां बेठो अने श्रीभागवत भण्यो. हुं जेवुं भण्यो तेवुं तमने मारी बुद्धि प्रमाणे श्रवण करावीश ॥४५॥

विशेष - १. ‘प्रायो’ मरणानशने मृत्योर्बाहुल्यतुल्ययोः इति मेदिनी. मरण पर्यन्त खाधापीधा विना त्यां ज स्थिति करवी.
२. भगवान्‌ धर्मना रक्षक छे. रक्षक होय त्यां सुधी धर्म रही शके. तेथी ज्यारे भगवान्‌ स्वधाम पधार्या त्यारे धर्म अने ज्ञान पण एमनी साथेज गयां!
३. कळियुगनुं स्वरूप श्याम छे. अन्धकार पण पदार्थने ढाङ्के छे. तेथी लोकोने धर्म-ज्ञान देखायां नहि त्यारे कळियुगना अन्धकारथी लोको ‘नेत्ररहित’ थया एम कह्युं छे.
४. श्रीभागवतमां भगवाने पोतानुं तेज धर्युं छे एवी कथा छे. तेथी भागवतरूप सूर्य कह्यो. तेना प्राकट्यथी लोको भगवत्प्राप्तिनां जे साधन कलिना आवरणथी देखातां न हतां ते हवे श्रीभागवतना प्रचारथी देखावा लाग्यां. एथी श्रीभागवत भगवद्रूप छे. जेम रूप उद्धारक छे तेम नामात्मक भागवत पण उद्धारमां असहायशूर ज छे. इति श्रीभागवतना प्रथम स्कन्धना हीनाधिकारमां ‘‘श्रीभगवान्‌नां अवतार’’ नामनो त्रीजो अध्याय सम्पूर्ण. ‘‘यस्तु स्वार्थं भगवन्तं सेवते सो अधमः’’ जे स्वार्थ (आजीविका,प्रतिष्ठा वगरेमाटे)भगवत्सेवा करतो होय तेने अधम (अर्चक) जाणवो. (श्रीवल्लभाचार्य सुबो.२.९.१९)
[[२८]] ईं उं ईं उम्मध्यमप्रकरण-मध्यमाधिकार

अध्याय ४

शुकना वैराग्यनुं कारण अने व्यासजीनी चिन्ता

विशेष - हीन प्रकरणना त्रण अध्यायमां पोताना प्रमाणे भागवत्‌नो अर्थ सूते कह्यो, हवे त्रण अध्यायथी मध्यम प्रकरण कहेवाय छे. तेमां अदृष्टद्वारा फळ आपे तेवा धर्मना फळमां व्यभिचार आवे छे तेथी एवो धर्म तो त्याज्य छे ए वात अर्ही पण समान होवाथी अर्ही जे शास्त्र कहेवानुं छे ते मध्यम छे. वळी वक्ता नारदजी ज्ञान आपवाना अधिकारी होवाथी ए बेउए उत्तमाधिकारने लायक छे तथापि उपर दर्शावेलां बे कारणोथी एमनो अधिकार ‘मध्यम’ थयो छे. आ चतुर्थाध्यायमां उत्तम प्रक्रियावान्‌ वक्ता शुकदेवजीना दृढ वैराग्यनो निर्देश करीने व्यासजीनी चिन्तानो उपक्रम छे. व्यास उवाच इति ब्रुवाणं संस्तूय मुनीनां दीर्घसत्रिणाम्‌ ॥ वृद्धः कुलपतिः सूतं बह्‌वृचः शौनकोऽब्रवीत्‌ ॥१॥

व्यासजी कहे छे - एम दीर्घसत्रवाळा मुनिओनी मध्यमां आ प्रमाणे बोलता सूतनी स्तुति करीने (ज्ञानमां) वृद्ध, (ऋषि) कुलना अध्यक्ष अने ऋग्वेदना अध्येता शौनकमुनिए सूत पौराणिकने कह्युम् ॥१॥

शौनके कह्युं - हे सूत! हे महाभाग्यवान्‌! वक्ताओमां श्रेष्ठ, जे कथा तमने शुकदेवजीए कही ते भगवत्सम्बन्धिनी पवित्र कथा तमे अमने कहो ॥२॥

कया युग अने कया स्थान मां तेम ज कया कारणथी ए कथा प्रवृत्त थई? वळी मुनि व्यासजीए कोनी प्रेरणाथी आ श्रीभागवत्‌रूप संहिता करी ए कहो ॥३॥

ए व्यासजीना निर्विकल्पक समाधिमान, समदृष्टिमान अने एकान्तमां रहेवानी मतिवाळा, निद्रारहित, महायोगी पुत्र शुकदेवजी गुप्त रहीने लोकमां मूढ जेवा जणाय छे ॥४॥

एमनी पाछळ आवता (अनग्न) व्यास मुनिने* जोईने अप्सराओए वस्त्र पहेर्या, परन्तु नग्न शुकदेवजी चाल्या गयां त्यारे न पहेर्यां ए आश्चर्य जोईने व्यासे एनुं कारण एमने पूछ्‌युं त्यारे ए ओ बोली - ‘‘तमारा मनमां स्त्री-पुरुषनो [[२९]] भेद छे, परन्तु केवळ भगवन्निष्ठ तमारा पुत्रमां एवो भेदभाव नथी’’ ॥५॥

विशेष - कोईक तळावमां नग्न स्त्रीओ स्नान करती हती त्यान्थी युवान शुकदेवजी नग्न अवस्थामां चाल्या गया तथापि स्त्रीओ तळावमान्थी बहार न नीकळी अने नग्न नहि एवा वृद्ध व्यासजी त्यां आव्या त्यारे तेमने जोईने ते स्त्रीओए वस्त्र पहेरी लीधां. ए जोईने व्यासे कारण पूछयुं तेना उत्तरमां तेमणे कह्युं, ‘‘तमारो युवान पुत्र नग्न छे तथापि एने स्त्री- पुरुषनां भेद नथी तेथी अमे एनां देखतां पण वस्त्रो न पहेर्या अने तमने भेदबुद्धि छे तेथी अमे वस्त्र पहेर्या एवी कथा छे. (सुबोधिनीजी) कुरुजाङ्गल देशोमां फरता-फरता शुकदेवजी हस्तिनापुर आव्या त्यारे तो एओ उन्मत्त, मूङ्गा अने जडनी जेम फरता हता छतां लोको एमने केम ओळखी शकया? ॥६॥

राजर्षि परीक्षित राजाने एवा अलक्षित मुनिनी साथे संवाद केम थयो के जेनां परिणामे आ (भागवत्‌रूप) सात्वतीश्रुति भक्तनो वेद प्रकट्यो? ॥७॥

हे महाभाग सूत! जे शुकदेवजी गृहस्थना घरमां गाय दोवाय तेटलो वखत ज ए गृहस्थाश्रमने तीर्थरूप करवाने रोकाय छे तो एटला समयमां आ मोटी संहिता केम कही शकया? ॥८॥

अभिमन्युना पुत्र परीक्षित राजा भगवद्‌भक्तोमां उत्तम गणाय छे. तेमनां आश्चर्यकारक जन्म अने कर्म हे सूत! आप अमने कहो ॥९॥

पाण्डवोना मानने वधारनार, सर्व पृथ्वीना राजा परीक्षिते लक्ष्मीनो अनादर करीने गङ्गाना तीर उपर आवी शा माटे मृत्यु सुधी अन्ननो त्याग कर्यो* ए अमने कहो ॥१०॥

विशेष - सर्व छोडीने मरण पर्यन्त एकत्र स्थिति करवी. पोताना हितने माटे शत्रुलोको धनादि लावीने भेट करीने जेनी चरणपीठिकाने नमे छे ते वीर युवान कोईथी त्याग न थई शके तेवी लक्ष्मीने प्राणनी साथे केम त्यागी शकया, हे अङ्ग! ए बधी वात अमने कहो ॥११॥

उत्तमश्लोक भगवत्परायण भक्तजनो लोकना कल्याणार्थे, लोकमां पुत्र-पौत्रादिरूपे वृद्धि पामवाने अने ऐश्वयार्थे लोकमां जीवे छे, केवळ देह पोषणार्थे तेमनुं जीवन नथी तो पछी एमणे बीजाने उपयोगी थाय तेवो देह निराशाथी शा माटे छोड्यो? ॥१२॥

[[३०]] अमे तमने वेद सिवाय पुराणादि विषयमां निष्णात मानता होवाथी तमे अमारी पूछेली बधी वातो कहो ॥१३॥

सूतजी कहे छे - त्रीजा युगपर्ययमां* ज्यारे द्वापर युग आव्यो त्यारे पराशर मुनिथी उपरिचर वसुनी पुत्री वासवीमां भगवाननी कलारूपे व्यासजी प्रकट थया ॥१४॥

विशेष - ब्रह्मकल्प ए सृष्टिनो प्रथम कल्प. ब्रह्माजीनो एक दिवस ते कल्प. एमां चार युग एक हजार वार आवे. तेमां त्रीजी वार ज्यारे युगनो आरम्भ थयो त्यारे सत्ययुगमां अने त्रेतायुगमां तो धर्म बदलायो नहि, परन्तु द्वापरयुग सन्देहनो समय छे तेथी ए समयमां लोकोने सन्देह थवा लाग्यो त्यारे श्रीभगवाने व्यासजीरूपे भूतल पर पधारीने सन्देहनिवर्तक श्रीभागवतादि शास्त्रनो प्रचार कर्यो. एओ कोई वखत सरस्वतीना पवित्र जळनुं आचमन करीने सूर्योदय समये एकान्तमां एकला बेठा हता ॥१५॥

जेनो वेग स्पष्ट देखातो नथी तेवा काळवडे पृथ्वीमां युगधर्मनो फेरफार थयो ते काळथी प्रारम्भीने आधुनिक पर्यन्तनी बधी वस्तुना स्वरूपने जाणनार व्यासजी जाणी गया ॥१६॥

वळी आपणा लोकोनी शक्तिनी क्षीणताने, अश्रद्धाने, निर्बळताने, दुर्बुद्धिने अने अल्प आयुष्यने व्यासजी जाणी गया ॥१७॥

दुर्भागी* मनुष्योने पोतानी दिव्य दृष्टिथी जोईने सर्व वर्णनुं अने आश्रमनुं हित करवाने जेमनुं सफळ ज्ञान छे तेवा व्यासजी दिव्यदृष्टिए समाधि करीने जोवा लाग्या ॥१८॥

विशेष - मनुष्य कर्म करे तेवुं भाग्य थाय छे. काळ सारो होय तो बुद्धि सारी होवाथी कर्म पण सारुं थतां माणस सुभग थाय छे. पण काळ खराब होवाथी बुद्धिमां भेद थवाथी खराब कर्म करतां-करतां लोको दुर्भग थाय छे. प्रजानुं ‘चातुर्होत्र’ नामनुं शुद्ध कर्म जोईने ए वैदिक शुद्ध कर्मरूप यज्ञना प्रचारार्थे एक वेदना चार विभाग कर्या ॥१९॥

ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद अने अथर्ववेद ए चार वेद जुदा कर्या. इतिहासने अने पुराणने ‘पाञ्चमो वेद’ कहे छे ॥२०॥

तेमां ‘पैल’ नामना मुनि ऋग्वेदने भण्या, जैमिनि सामवेदने भण्या अने [[३१]] एकला वैशम्पायन यजुर्वेदना भणनारा थया ॥२१॥

दारुण एवा ‘सुमन्तु’ नामना मुनि अथर्ववेदना ग्राहक थया अने मारा पिता रोमहर्षण इतिहास तथा पुराण भण्या ॥२२॥

ए सर्व ऋषिओ पोतपोताना वेदनो विभाग करता आव्या. एम करतां शिष्यो अने एमना शिष्यो द्वारा ए वेदो अनेक शाखावाळा थया ॥२३॥

ए वेदना अर्थने बुद्धिहीन पण जाणे एटला माटे दीन उपर कृपाळु व्यासजी वेदना विभाग करवामां समर्थ थया ॥२४॥

स्त्री, शूद्र अने संस्कारहीन ब्राह्मण ने काने वेद पडवो न जोईए. तेथी कर्मवडे श्रेय करवामां मूढ तेवा पुरुषोना हितार्थे व्यासजीए कृपा करीने ‘भारत’ नामनुं आख्यान कर्युम् ॥२५॥

एम लोकना कल्याण अर्थे सर्वात्मज्ञाननी प्रवृत्ति करतां (पण) व्यासजीने ज्यारे पोताना हृदयमां प्रसन्नता न थई त्यारे हे ब्राह्मणो! अत्यन्त प्रसन्न नहि अने सर्व धर्मने जाणनारा ए व्यासजी एकान्तमां पवित्र सरस्वतीना तट उपर विचार करता कह्युं के ॥२६-२७॥

में वेदव्रत ब्रह्मचर्यादि आचर्युं छे. वेदने, गुरुने अने अग्निने मान आप्युं छे एमां कोई जातनो कपटभाव राख्यो नथी. वळी लोकनी धर्ममां प्रवृत्ति कराववामाटे अध्यापन पण कराव्युञ्छे ॥२८॥

महाभारतमां में वेदनो अर्थ पण लोकोने बताव्यो छे, जेमां स्त्री अने शूद्रो पण धर्म वगेरे पुरुषार्थ जोई शके छे ॥२९॥

तथापि मारो देहसम्बन्धवान्‌ सर्वसमर्थ आत्मा ओजस्वी होवा छतां जाणे एमां कांईक ऊणुं होय तेम शोभतो नथी ॥३०॥

अथवा परमहंसोने प्रिय अने ए ज भगवत्‌ प्रिय धर्म कह्या तो छे तथापि मुख्य रीते वर्णव्या नथी शुं? ए भगवत्सम्बन्धी धर्मो ज भगवानने प्रिय छे ॥३१॥

ए रीते पोताना आत्मानी ऊणप जोईने खेद करता व्यासजी जे आश्रममां बेठा छे त्यां नारदजी आव्या ॥३२॥

तमभिज्ञाय सहसा प्रत्युत्थायागतं मुनिम्‌ ॥ पूजयामास विधिवत्‌ नारदं सुरपूजितम्‌ ॥३३॥

[[३२]] नारदजीने आव्या जाणीने तरत ज ऊभा थई, सामे जईने, देवता जेमनी पूजा करे छे तेवा नारदजीनी पूजा विधिपूर्वक करी ॥३३॥

इति श्रीभागवत्‌मां प्रथम स्कन्धमां (मध्यम प्रकरणनो पहेलो) ‘‘शुकना वैराग्यनुं कारण अने व्यासजीनी चिन्ता’’ नामनो चोथो अध्याय सम्पूर्ण. … श्रीभागवतमादरात्‌। पठनीयं प्रयत्नेन निर्हेतुकमदम्भतः॥ कोई पण लौकिक(पैसा-टका कमाववा, फण्ड-फाळा)-पारलौकिक (मृतकनो उद्धार, पितृदोषनुं निवारण) हेतु के ढोङ्ग विना आदर पूर्वक प्रयत्न पूर्वक जातेज, श्रीभागवतनोनो पाठ करवो जोईए. (श्रीवल्लभाचार्य) अध्याय प भक्ति महिमा

विशेष - गया अध्यायमां सर्व धर्मनो सन्देह कह्यो तेनो निर्णय आ पाञ्चमा अध्यायमां भक्तिमार्गनी रीतिए कहेवाय छे. मध्यम अधिकारनी आ वात छे तेथी आदि अने अन्त मां दृष्टान्त आपीने निर्णय कर्यो छे. अथ तं सुखमासीनम्‌ उपासीनं बृहच्छ्रवाः ॥ देवर्षिः प्राह विप्रर्षि वीणापाणिः स्मयन्निव ॥१॥

सूतजी कहे छे - एम सुखरूप बेठेल, जेमनी कीर्ति बहु छे, वीणा जेमना हाथमां छे तेवा देवर्षि नारद, पासे बेठेला विप्रर्षि व्यासजीने मन्दहास्यपूर्वक कहेवा लाग्या ॥१॥

हे पराशरपुत्र! हे महाभाग्यवान्‌! तमारो शरीर सम्बन्धी अने मन सम्बन्धी आत्मा पोताना स्वरूपवडे सन्तुष्ट तो छे ने? ॥२॥

तमे लोकहितनो जे विचार करेलो ते सिद्ध थयो छे. केमके मोटुं अद्‌भुत अने सर्वार्थे धर्म, अर्थ, काम अने मोक्ष चारेय पुरुषार्थोनुं निरूपण करतुं ‘भारत’ नामनुं पुस्तक तमे कर्युं छे के जेमां बधा वक्तव्यनो समावेश थाय छे ॥३॥

त्रिकालथी अबाधित तेवा परब्रह्मने तमे जाणो छो, अविकृत वेदनुं अध्ययन [[३३]] ईं उं ईं उन्तमे कर्युं छे तथापि हे समर्थ! तमे जाणे के अकृतार्थ हो तेम तमारा आत्मानो शोक करता जणाओ छो ॥४॥

व्यासजी कहे छे - तमे कह्युं ते बधुं मने मळ्युं छे तथापि मारो अन्तरात्मा प्रसन्न थतो नथी. तेथी ब्रह्माजीना पुत्र अने जेमना ज्ञाननी हद नथी तेवा आपने ए मारी चिन्तानुं मूळ शुं छे ए हुं पूछुं छुम् ॥५॥

आप प्रसिद्ध छो. पुराणपुरुष पुरुषोत्तमनी आपे उपासना करी छे. पुरुष अने प्रकृति ना ईश गुणनो सङ्ग कर्या विना ज विश्वने उत्पन्न करे छे, पालन करे छे अने सर्वात्मामां लय करे छे ए तमे जाणो छो ॥६॥

तमे सूर्यनी जेम त्रण लोकमां फरो छो, वायुनी जेम सर्वना आत्माना साक्षी छो तो परब्रह्म अने शब्दब्रह्म ने जाणनार तथा वेदमां ब्रह्मचर्यादि व्रते निष्णात थयेला मारामां शी न्यूनता छे ए विषे तमे पूरो विचार करी जुओ ॥७॥

नारदजी बोल्या - तमे भगवानना यशनुं गान नहि जेवुं कर्युं होवाथी तमारो आत्मा प्रसन्न थतो नथी ते तमारा ज्ञाननी कमी होवानुं हुं मानुं छुम् ॥८॥

हे मुनिओमां श्रेष्ठ! तमे धर्म वगेरे पुरुषार्थनुं विस्तारथी जेम वर्णन कर्युं छे तेम वासुदेव भगवाननो महिमा गायो नथी ॥९॥

जे आश्चर्य १युक्त पदवाळुं वचन जगत्‌ने २पवित्र करनार हरियशने कोई पण रीते कहेतुं न होय तो एने भगवद्‌भक्तो काक्तीर्थ३ कहे छे, ज्यां सुन्दर निवासस्थानवाळा मानसनिवासी हंसो रमता नथी ॥१०॥

विशेष - १.विशेष अर्थ नहि कहेनार शब्दरचना शब्दचित्र कहेवाय छे. कवितामां एने उत्तम स्थान मळतुं नथी. तेथी ‘‘शब्दचित्रं वाच्यचित्रमव्यङ्ग्यमवरं स्मृतम्‌’’ एम कह्युं छे.
२.महाभारत पतितने पवित्र करतुं नथी. प्राधान्यथी धर्म, अर्थ, कामनुं वर्णन त्यां होवाथी शुकादि जेवाने पण ए पवित्र करतुं नथी. अने भगवद्‌यश तो समग्र जगत्‌ने पण पवित्र करे छे. हीनमां हीन अने उत्तममां उत्तम पण एनाथी पवित्र थाय छे. तेथी नारदजी उक्तिनुं तात्पर्य भगवद्‌यश वर्णनमां छे.
३.काक्तीर्थ कहेवानुं कारण तो एटलुं ज के एवी कविता कामनावाळा लोकोना चित्तने प्रसन्न करे छे पण एमां भगवद्‌गुण न होवाथी भगवद्‌भक्तो एनो स्पर्श करता नथी. भगवद्‌भक्तो हंसो छे अने कामी पुरुषो कागडा जेवा छे. तेथी जेनो कामी आदर करे ते ‘काक्तीर्थ’ कहेवाय छे.
[[३४]] भक्तनी ते वाणी जेमां श्लोकनुं ठेकाणुं होतुं नथी, भगवद्‌गुणथी गून्थेली होईने ए प्राणीमात्रना पापनो नाश करे छे. भगवाननां यशस्वी नामो साधु लोको मुखथी उच्चारे छे, श्रवण करे छे अने गाय छे ॥११॥

अविद्यारहित, निर्गुण ज्ञान पण भगवानना भाव विनानुं होय तो बराबर शोभतुं नथी तो पछी निरन्तर अकल्याण करनार अने ईश्वरार्पण बुद्धिथी न थयेलुं कर्म तो कयान्थी ज शोभे? ॥१२॥

तेथी महाभाग व्यासजी तमे अमोघ ज्ञानवाळा, पवित्र यशवाळा, सत्यमां प्रीतिवाळा अने व्रतने धारण करनारा होवाथी जीवमात्रने बन्धनथी मुक्त करवामाटे उरुक्रम भगवाननी भक्ति उत्पन्न करनारी लीलानुं अनुस्मरण समाधिवडे करो ॥१३॥

भगवानना चरित्र सिवाय बीजुं बधुं अनादरणीय तुच्छ छे. भगवच्चरित्र सिवाय बीजुं कंई कहेवानी जे मनुष्य इच्छा करे छे ते तेवी इच्छा मात्रथी निर्मित अनेक नाम-रूपोना चक्करमां पडी जाय छे, कारण के तेनी दृष्टि भेदभावथी भराई जाय छे. जेवी रीते पवनथी डोलती होडी पोताना मुकाम उपर पहोञ्ची शक्ती नथी तेवी रीते ते मनुष्यनी बुद्धि* कयांय स्थिर थईने रहेती नथी ॥१४॥

विशेष - मृगजळ देखाय छे खरुं पण तेनी पासे जवानो विचार करतां ज्यां जईए त्यान्थी आगळ ज ए देखाय छे. एनुं स्थान निश्चित नथी. तेम धर्मनुं निरूपण करनार मनुष्यो जुदी-जुदी बुद्धिथी अनन्त रीते एक धर्मने कहे छे तेथी बुद्धिना भेदथी अनन्त थयेलो धर्म एकनो निश्चय करावी शक्तो नथी. एम भगवानना धर्म अनन्त छे, परन्तु ए बुद्धिनी कल्पनारूप न होवाथी अनन्त छतां नियत होवाथी कार्य सिद्ध करे छे. तेथी भगवद्‌धर्म विना बीजुं कहेवुं ए निराधार होवाथी निष्फळ छे. स्वभावथी अधर्ममां प्रीतिवाळाने कहेवुं के अधर्म धर्मरूप छे तो तेथी धर्मनुं महान नाश थाय छे; जेनुं कथन धर्मरूप गणाय छे तेवा पुरुषे ज्यारे अधर्मने धर्म कह्यो त्यारे बीजा गमे तेटला एने अधर्म कहेशे तथापि ते अधर्म छे एम लोकोना मानवामां नहि आवे ॥१५॥

आ अनन्तपार एवा समर्थ भगवाननुं सुख निवृत्ति मार्ग कोई विचक्षण ज जाणी शके छे. देहादिना धर्मरूप प्रवृत्तिमार्गमां गति करनारने ए सुख मळतुं नथी माटे ए विभुनी लीलाने प्रकट करो ॥१६॥

[[३५]] वर्णाश्रम वगेरे धर्मोने स्वधर्म नहि समजी, एवा धर्मोने छोडीने भगवानना चरणने भजनार काचा मनुष्योनो पात तो न थाय तथापि एनो पात थाय तो पण बीजे कोई स्थळे एनुं कुशळ थाय खरुं? न थाय पण भगवानज एनुं श्रेय करे छे. वळी भगवानना चरणनो आश्रय छोडीने स्वधर्मथी भजनार पुरुषोए (पण) कयो अर्थ प्राप्त कर्यो? कोई पण नहि ॥१७॥

तेथी चतुर तो तेने ज अर्थे यत्न करे के जे उपरना अने नीचेना लोकमां फरतां पण न मळी शके. वळी जेम विना प्रयत्ने दुःख आवी मळे छे तेम सुख पण गम्भीर वेगवाळा काळनी प्रेरणाथी आवे छे तेथी सुखने अर्थे पण प्रयत्न न करवो ॥१८॥

मनुष्य जो मोक्ष आपनार भगवाननो सेवक थाय तो हे अङ्ग! ते आ संसारमां कोई पण प्रकारे आवतो नथी ज. भगवानना चरणना आलिङ्गनादिकनो पूर्वमां अनुभव थयो छे तेनुं स्मरण करता रसनो आवेश आववाथी ए चरण अने स्मरण वगेरे छोडवानी इच्छा करतो नथी ॥१९॥

उत्तमाधिकारीने एवी प्रतीति थाय छे के आ विश्व खरेखर भगवान्‌ छे. मध्यम अधिकारीने एवी प्रतीति थाय छे के आ विश्व भगवान्‌ जेवुं छे, भगवान्‌ तो नहि. अधम अधिकारीने एम लागे छे के आ विश्व छे अने भगवान्‌ तो एनाथी जुदा छे. जे भगवान्‌थी विश्वनी उत्पत्ति, स्थिति अने लय थाय छे ते तमे जाणो छो. छतां याद देवडाववा पूरतो सङ्केत कर्यो छे ॥२०॥

तमे सफळ ज्ञानशक्तिवाळा छो, परमात्मानी कळा छो, अजन्मा छो, जगत्‌ना कल्याणने अर्थे प्रकट्या छो तेथी तमे तमारा स्वरूपथी भगवत्स्वरूप जाणो छो तेथी तमे महानुभाव भगवानना गुणनुं वर्णन करो ॥२१॥

पुरुषनी तपश्चर्यानो, शास्त्रश्रवणनो, सारी रीते यज्ञ करवानो अने सारी रीते वेदादिना पठननो, सारी बुद्धिनो, दाननो आ सर्वनो एक मात्र चोक्कस *अर्थ, शब्दनो मर्म जाणनार कवि लोकोए एटलो ज कह्यो छे के उत्तमश्लोक प्रभुना गुणनुं गान करवुं, सर्व साधनथी भगवान्‌मां प्रीति करवी, प्रेमथी एमना गुण गावा एमाञ्ज तप, श्रवण वगेरेनी सफळता छे ॥२२॥

विशेष - तप, वेदाध्ययन, यज्ञ, ज्ञान अने दान थी सकामताथी प्राप्त थयेला अर्थ स्वल्प होय छे अने ए सर्वनो नित्य अर्थ भगवद्‌भक्ति छे तेथी भगवद्‌गुणगान ए सर्व साधनथी श्रेष्ठ छे.
[[३६]] नारदजी पोतानुं चरित्र१वर्णन करे छे के हे मुनि! व्यासजी! हुं वेदज्ञ ऋषिलोकोनी दासीथी जन्म्यो हतो. ज्यारे चातुर्मासमां एक स्थळे२ एओ रह्या त्यारे एमनी सेवामां हुं बाळक छतां मुकायो ॥२३॥

विशेष - १. महा नीच दासीना पुत्र भक्तिथी ब्रह्माना पुत्र अने भगवानना भक्तमां श्रेष्ठ थया ए स्वचरित्रथी ज व्यासजीने नारद बतावे छे. एमां भक्तिनो क्रम बताव्यो छे. श्रोतामां ज गुणो जोईए अने जे दोषो दूर करवाना छे ते बधा स्वदृष्टान्तथी कह्यो छे.
२. मारी मां जे ब्राह्मणने त्यां दासी हती तेने त्यां ए सनकादि चार मास रह्या. तेमनी सेवामां ब्राह्मणोए मने नियुक्त कर्यो, मने सत्सङ्ग थयो, जे सत्सङ्ग भक्तिमां मुख्य साधन छे. तद्‌दन बाळक छतां में बधी चपळता छोडी दीधी हती. हुं इन्द्रियोनुं दमन क्रतो, रमकडान्नो सङ्ग्रह न करतो एमनी सेवा करतो अने थोडामां थोडुं बोलतो. एवा मने जोईने, जो के मुनिलोको समानदृष्टिवाळा हता तथापि एमणे मारा उपर अनुग्रह कर्यो ॥२४॥

ब्राह्मणोनी आज्ञाथी पातळोमां रहेल उच्छिष्ठ एक वार जमवाथी समस्त दोषथी हुं मुक्त थयो. ज्यारे *दोष गया त्यारे ब्राह्मणनी सेवा चालु रहेतां भगवद्‌धर्ममां मने रुचि उत्पन्न थई ॥२५॥

विशेष - बधा दोष दूर करी लेवानी मारी प्रवृत्ति जोईने ए ब्राह्मणो मारा उपर अनुग्रह करवा लाग्या एथी निर्दोषता पूर्वक सेवा ए बीजुं साधन छे. ए ब्राह्मणो हम्मेशां कृष्णनी कथानुं उत्तम गान करता ते एमना अनुग्रहथी मनने प्रिय लागवाथी हुं श्रद्धाथी श्रवण करवा लाग्यो. एनुं श्रद्धाथी श्रवण करतां- करतां जेमनो यश बहु आनन्द दायक छे तेवां भगवान्‌मां मारी रुचि थई ॥२६॥

ज्यारे भगवान्‌मां प्रमाणबलने छोडीने मारी स्वाभाविक रुचि थई त्यारे हे महामुनि! मारी बुद्धि पण भगवान्‌मां स्थिर थई अने मने एम थयुं के हुं जगत्‌थी पर ब्रह्मरूप छुं. मारामां आ स्थूळ शरीर वगेरे सर्व छे, परन्तु ए मायाए *कल्पेलां छे एम हुं जोवा लाग्यो ॥२७॥

विशेष - ब्रह्ममां देहादि जोवुं, पण मायाथी एवुं देखाय छे एम जोवुं ते प्रथम अधिकारनुं ज्ञान छे. एमां ब्रह्म अधिकरण अने माया करण छे. ब्रह्मनो अनुभव प्रपञ्चथी जुदो थयो अने स्थूल-सूक्ष्मनो अनुभव मायिक थयो. [[३७]] ए प्रकारे शरद्‌ अने वर्षा ए बे ऋतु पर्यन्त दरेक वखते हरिनुं पवित्र यशोगान मुनिओ करता ते हुं श्रवण करतो. एम करतां रजोगुण अने तमोगुण ने दूर करनारी भक्ति मने प्राप्त थई ॥२८॥

ए प्रमाणे स्नेह अने विनय युक्त तथा जेनां पाप गयां छे तेवो श्रद्धावाळो, इन्द्रियोनुं दमन करनार तथा अनुचर तेवो जे हुं, दीन बाळक, तेना उपर दया करनार अने जवाने तैयार थयेला ए ब्राह्मणो साक्षात्‌ भगवाने कहेल गुह्य ज्ञान मने कही गया ॥२९-३०॥

जे ज्ञानथी हुं हृदयमां बिराजमान्‌ वासुदेवनी मायानो प्रताप जाणवा लाग्यो के जे माया जाणवाथी भगवानना चरणनी प्राप्ति थाय छे ॥३१॥

जे कारणी ‘ईश्वर’ एटले सर्वकरण समर्थ ब्रह्ममां कर्मनुं१ आरोपण करवुं ए ज त्रण तापने२ दूर करवानो उपाय छे ॥३२॥

विशेष - १. जेम विष प्राणनो नाश करनार छे तथापि एने सारी रीते शुद्ध करी अनुपान साथे एनो उपयोग करवामां आवे तो ए अमृतनुं कार्य करे छे तेम कर्म यद्यपि संसारने उत्पन्न करनार होवाथी त्याज्य छे तथापि एने ईश्वरार्पण बुद्धिथी करवामां अथवा भगवत्सेवामाटे करवामां आवे तो ए ज फळरूप थई जाय छे.
२. आधिभौतिक, आध्यात्मिक, आधिदैविक ए त्रण ताप. अडद कफ करनार होवाथी कफवाळाने ए आपो तो कफ वधारे छे तथापि एने कोई युक्तिथी ए आपवामां आवे तो कफने ए दूर करे छे वधुमां अन्य रोगोने पण ए मटाडे छे; तेम कर्मने पण भगवदर्पण करवाथी संसारने मटाडे छे एटलुं ज नहि पण भगवत्कृपा सम्पादक पण थाय छे. व्रतधारीओमां श्रेष्ठ हे व्यासजी! जेना सेवनथी प्राणीने रोग उत्पन्न थाय छे ते ज वस्तुनी चिकित्सा करीने उपयोग* कराय तो ए रोगोत्पादक थतुं नथी परन्तु रोगने दूर करे छे ॥३३॥

विशेष - कर्मवडे आधिभौतिकादि ताप थाय ए वात ठीक छे, परन्तु ए स्वस्वरूपमां होय तो ज एम करी शके, परन्तु ए प्रभुने अर्पण कर्युं त्यारे ए जाते कर्म ज रहे नहि तो एमां तापादि करवानुं सामर्थ्य कयान्थी रहे? जेम अग्निमां तृण पडे तो ए स्वरूपथी ज नष्ट थाय छे तेम भगवदर्पित कर्मनुं पण समजवुं. एम मनुष्यनां सर्व कर्म संसार उत्पन्न करनार छे; परन्तु ए कर्मो भगवानने अर्पण करो तो तेथी कर्मना स्वरूपनो नाश थई जाय; पछी एनाथी संसार तो थाय
[[३८]] ज कयान्थी? ॥३४॥

भगवानने प्रसन्न करवामाटे जे कर्म अर्ही करवामां आवे छे तेनाथी भक्ति अने ज्ञान उत्पन्न थाय छे अने कर्म पोते ज क्षीण थई जाय छे, कारण के भक्तियोगने करावनार ज्ञान ए कर्मने अधीन होवाथी एने उत्पन्न करीने समाप्त थाय छे ॥३५॥

भगवाननी शिक्षाए कर्म करनारा भक्तो भगवाननां गुण अने नामो नो उच्चार तथा स्मरण करे छे तेथी एओने ए कर्म संसार आपनारुं थतुं नथी ॥३६॥

‘‘मोक्ष आपनार आप भगवान्‌ वासुदेवने नमस्कार. आपनुं ध्यान धरीए छीए. प्रद्युम्न, अनिरुद्ध अने सङ्कर्षण चतुर्मूर्तिने नमस्कार’’ ॥३७॥

आ प्रमाणे जे पुरुष चतुर्व्यूहरूपी भगवानना स्वरूपोनुं, नामोद्गहे पाण्डव रक्षक, द्रौपदी लज्जा निवारक, गोवर्धनोद्धरण द्गद्वारा प्राकृत मूर्तिरहित, अप्राकृत मन्त्रमूर्ति (मन्त्र ज छे शरीर जेनुं, मन्त्रार्थरूप) भगवान्‌ यज्ञपुरुषनुं पूजन करे छे तेनुं ज ज्ञान पूर्ण अने यथार्थ छे ॥३८॥

आ प्रकारे प्रभुनी आज्ञानुं में पालन कर्युं त्यारे हे ब्रह्मन्‌ (व्यासजी)! भगवाने पोतानां ज्ञान, ऐश्वर्य अने प्रेमलक्षणा भक्तिनुं मने दान कर्युम् ॥३९॥

त्वमप्यदभ्रश्रुत विश्रुतं विभोः समाप्यते येन विदां बुभुत्सितम्‌ ॥ आख्याहि दुःखैर्मुहुरर्दितात्मनां सङ्क्‌लेशनिर्वाणमुशन्ति नान्यथा ॥४०॥

में जेम भगवाननी आज्ञानुं पालन कर्युं तेम तमे पण आज्ञापालन करो एवा हेतुथी कहुं छुं के हे विद्वान्‌! तमे पण जेनाथी विद्वानोने जाणवानुं शेष न रहे तेवुं भगवाननुं चरित्र वर्णवो. ए कर्या विना अनेक प्रकारना क्लेशोनी घाणीमां सतत पीलाता लोकोना क्लेश सारी रीते जशे नहि ॥४०॥

इति श्रीभागवत्‌मां प्रथम स्कन्धमां (मध्यम प्रकरणनो बीजो) ‘‘भक्ति महिमा’’ नामनो पाञ्चमो अध्याय सम्पूर्ण. फण्ड-फाळामाटे, आजीविकामाटे दक्षिणा लईने के मृतकना उद्धारार्थे भागवतकथा करवी, बेसाडवी के साम्भळवी ए श्रीमहाप्रभुजीनी आज्ञाना उल्लङ्घनरूप घोर पाप छे [[३९]]

ईं उं ईं उं

अध्याय ६

नारदजीनी भक्तिनुं स्वरूप

विशेष - मध्यमाधिकारे जे पदार्थोनुं निरूपण कर्युं अने नारदजीए श्रवण ब्राह्मणो पासे कर्युं तेनुं अन्तःकरणमां भगवज्ज्ञान ए फळ थयुं एम पण कहेवामां आव्युं. आ छठ्ठा अध्यायमां नारदजीनी कीर्तनभक्ति पर्यन्तनुं वर्णन करवामां आवशे. हृदयमां सर्व ज्ञान वगेरे होय, परन्तु ज्यां सुधी बहारथी भक्ति वगेरे न थाय त्यां सुधी केवळ आन्तर रहेल ते ज्ञान वगेरे कांई पण फळ आपतुं नथी. तेथी नारदजी नित्य कीर्तन करता विचारे छे ए वातनुं आ अध्यायमां वर्णन आवे छे. एवं निशम्य भगवान्‌ देवर्षेर्जन्म-कर्म च ॥ भूयः पप्रच्छ तं ब्रह्मन्‌ व्यासः सत्यवतीसुतः ॥१॥

सूतजी कहे छे - ए प्रकारे नारदजीनुं कथन साम्भळी सत्यवतीना पुत्र भगवान्‌ व्यासजीए फरी नारदजीने प्रश्न कर्यो ॥१॥

व्यासजीए पूछ्‌युं - नानी वयना तमने ज्ञान आपनार भिक्षुओ गया पछी तमे शुं कर्युं? ॥२॥

हे ब्रह्माजीना पुत्र! तमे कई रीते आज पर्यन्त रह्या अने काळ आव्यो त्यारे शरीरनो त्याग केवी रीते कर्यो? ॥३॥

देवर्षे! मृत्यु थया पछी पूर्व जन्मनुं स्मरण तमने केम रह्युं? कारण के काळ सर्वने भक्षण करी जनारो छे तो एणे तमारी पूर्व कल्पनी स्मृतिमां विघ्न न कर्युं? ॥४॥

नारदजीए कह्युं - ज्यारे मने ज्ञान आपनार भिक्षु लोको त्यान्थी पधार्या त्यारे हुं बाळक हतो ते वयमां में आ प्रकारे कर्युम् ॥५॥

हुं मारी मातानो एकनो एक पुत्र हतो. एक तो ए स्त्री, बीजुं गमार अने त्रीजुं ए दासी हती. बीजुं तो ए करी शके एम हती ज नहि. हा, पण मारामां एनी खूब ज ममता हती. मारे पण एना सिवाय बीजो कोई सहारो न हतो ॥६॥

ए पोते स्वतन्त्र न होवाथी मारा योग-क्षेममाटे पण असमर्थ हती. जेम काष्ठनी पूतळी एना सञ्चालकने वश होय छे तेम सर्व लोक ईश्वरने वश छे ॥७॥

[[४०]] मारां मातानी दृष्टि पासे ए ब्राह्मणना आश्रममां हुं रह्यो त्यारे दिशा के देशकाळने हुं जाणतो न हतो. कारण के मारी वय ए समये पाञ्च वर्षनी हती ॥८॥

एक वखत मारी मां गाय दोहवा माटे घरथी बहार नीकळी. रस्तामां एनो पग एक सर्पने अडी गयो. काळ भगवाननी प्रेरणाथी बिचारीने ए सर्प करड्यो जेथी ए मरण पामी ॥९॥

भक्तनुं सुख इच्छता भगवाननो ए में महान उपकार मान्यो के मारामां स्नेह राखती अने पारकी नोकरडी मारी माता छूटी गई. हवे मने कोई प्रतिबन्ध न होवाथी हुं उत्तर दिशा तरफ चाली नीकळ्यो ॥१०॥

धन-धान्यनी समृद्धिथी सुन्दर देश, शहेर, गामडां, व्रज, मीठा वगेरेना अगर, खेतर, अग्निहोत्र करनार खर्वट, वन अने उपवन, विचित्र गेरु वगेरे धातुवाळा विचित्र पर्वतो, हाथीए भाङ्गेली डाळीओवाळां वृक्ष, शीतल जळवाळां जळाशय, देवोए सेवेली अने विचित्र कलरवयुक्त पक्षीओवाळा विशेष भ्रमता भमराओनी शोभा छे जेमां तेवी कमळ-तळावडीओ जोतो-जोतो हुं आगळ वध्यो. हुं एकलो ज हतो. आगळ वध्यो त्यां में नेतर, वांस, बरू अने पोला वांसथी घणुं ज गाढ एवुं वन जोयुं. सर्पो, घुवडो अने शियाळोनुं तो ए घर ज हतुं. भयने पण भय पमाडे एवुं तो ए खतरनाक अने लाम्बु-चोडुं हतुम् ॥११-१३॥

त्यारे हुं खूब थाकी गयो हतो, क्षुधा-तृषानी बाधाथी पीडातो हतो. एक जळाशयमां में स्नान, जलपान अने आचमन कर्या एथी मारो थाक मटी गयो. पछी ए निर्जन वनमां एकलो हुं पीपळाना वृक्षना थडमां बेठो. में जे प्रकारे ब्राह्मणो पासेथी भगवाननुं स्वरूप श्रवण कर्युं हतुं तेनुं चिन्तन मारा मनथी करवा लाग्यो ॥१४-१५॥

प्रथम चरणारविन्दनुं ध्यान करतां ज चित्त भावविवश थयुं, उत्कण्ठा वधवा लागी, नेत्रमां आंसु उभराई आव्यां अने धीमे-धीमे मारा हृदयमां मने हरिनां दर्शन थयाम् ॥१६॥

त्यारे प्रेमथी पुलकित थयो, अत्यन्त आनन्दमय थयो अने गङ्गाना प्रवाहमान्थी पात्र भर्युं होय तेने गङ्गामां पाछुं ठालवीए त्यारे ए गङ्गारूप थाय छे तेम हुं मारो पोतानो आनन्द भगवदानन्दमां मळवाथी अभेदे भगवान्‌ थयो त्यारे हे मुनि! हुं अने आ भगवान्‌ ए भेद मारामान्थी दूर थयो ॥१७॥

[[४१]] ज्यारे भगवदिच्छाथी पोते तिरोहित थया त्यारे मानसी मूर्ति पण तिरोहित थतां मारा जोवामां कांई पण न आव्युं त्यारे मारा मनमां अत्यन्त दुःख थयुं अने हुं तरत ज त्यान्थी उभो थयो ॥१८॥

जे में जोयुं हतुं तेना फरी दर्शन करवामाटे मनमां समाधि करी तेमां पण दर्शन न थयां त्यारे—ताववाळा रोगीने रुचि उत्पन्न करवा थोडी द्राक्ष आपवामां आवे पण जो ते रोगी वधारे द्राक्ष मागे तो न आपवामां आवे कारण के ताववाळाने माटे झाझी द्राक्ष पथ्यरूप नथी —हुं पण अतृप्तनी माफक आतुर थयो. भगवद्‌दर्शनने माटे प्रयत्न करवा छतां मने दर्शन थयां नहि ॥१९॥

एम ए एकान्त अरण्यमां यत्न करता अने गम्भीर अने मधुर वाणीवडे मारा शोकने दूर करता होय तेम अगोचर भगवाने मने कह्युं के आ जन्ममां तुं मारा प्रत्यक्ष दर्शननो अधिकारी नथी, कारण के जेना हृदयना दोष पक्व थया नथी तेवा कुयोगीओने मारुं दर्शन खूब-खूब दूर छे ॥२०-२१॥

एक वखत मारुं दर्शन थयुं ते तने मारामां कामना थवा माटे छे. हे निष्पाप! मारामां कामनावाळा सत्पुरुषो हृदयना रागादि सर्व दोषोने छोडी दे छे ॥२२॥

तने तो सत्पुरुषनी सेवा थोडा दिवस पण करवाथी मारामां दृढ बुद्धि थई छे तेथी राग वगेरे दोषथी दुष्ट आ लोकने छोडीने तुं स्वल्प समयमां मारो सेवक थईश ॥२३॥

मने प्राप्त करवानो तारो दृढ निश्चय छे ते क्यारेय कोई पण प्रकारथी डगशे नहि. त्यां सुधी के प्रजानी सृष्टि अने प्रलय समये पण आ शरीरनी याद ताजी ज रहेशे ॥२४॥

परमेश्वरनुं ते परम तेजोमय स्वरूप आटलुं कहीने अटकी गयुं. तेनुं अनुमान करावे एवुं चिह्‌न आकाशरूप प्रथम कार्य छे. पोते तो अलिङ्ग छे. एटले के अनुमानथी जाणी शकाय एवुं एनुं स्वरूप नथी. ए अद्‌भुत छे, वेदनी उत्पत्तिनुं मूल छे. प्रमाणताने अर्थे महत्‌ थयुं छे. ए महत्‌ स्वरूपनो कृपापात्र थई, महान्‌मां महान्‌ एवा भगवानने में साष्टाङ्ग प्रणाम कर्या. जीवथी प्रभुने प्रणाम करवा सिवाय बीजुं बने पण शुं? ॥२५॥

ए पछी तो हुं शरम-सङ्कोच छोडीने भगवान्‌ अनन्त होवाथी एमना अनन्त नामनो पाठ करवा लाग्यो. भगवानना रहस्यमय अने मङ्गलमय चरित्रनुं स्मरण
[[४२]] करतो, मनमां सन्तोष राखीने सर्व स्पृहा अने मत्सर छोडीने मृत्युनी राह जोतो पृथ्वी उपर फरवा लाग्यो ॥२६॥

आ रीते पर्यटन करवाथी कृष्णमां मति थाय छे. कृष्णमां मति थाय एटले विषयोमान्थी आसक्ति दूर थाय छे. हे ब्रह्मन्‌! तेथी मारुं अन्तःकरण शुद्ध थयुं, रागद्वेष दूर थतां, सुदाम पर्वत उपरनी वीजळीना माफक मारो काल प्रकट थयो ॥२७॥

देह वियोगनो क्लेश तो मने जणायो ज नहि. शुद्ध सत्त्वनो बनेलो भगवत्सम्बन्धी देह मारे माटे तैयार ज हतो. आ पाञ्च भौतिक देहना कारणरूप कर्मो पूरां थतां आ देह पडी गयो ॥२८॥

क्ल्प-ब्रह्माजीनो दिवस पूरो थाय त्यारे आ जगत्‌ने समेटी लई श्रीनारायण भगवान्‌ समुद्रना जलमां शयन करे छे. ए वखते एमना हृदयमां शयन करवानी इच्छाथी आ समग्र सृष्टिने समेटी ब्रह्माजी ज्यारे प्रवेश करवा लाग्या त्यारे एमना श्वासनी साथे में पण एमना हृदयमां प्रवेश करी दीधो ॥२९॥

एक हजार चतुर्युग पसार थया त्यारे ब्रह्माजी जाग्या अने तेमणे सृष्टि रचवानी इच्छा करी त्यारे एमनी इन्द्रियोमान्थी मरीचि वगेरे ऋषिओनी साथे हुं पण प्रकट थयो. हुं भक्त होवाथी ब्रह्माजीए मने खोळामां लीधो तेथी ‘‘उत्सङ्गात्‌ नारदो जज्ञे’’ खोळामान्थी नारदजी प्रकट थया एम कह्युं छे ॥३०॥

अन्दरना अने बहारना लोकमां हुं फरुं एमां भगवद्‌दर्शनरूप मारुं व्रत खण्डित थतुं नथी. वळी महाविष्णुना अनुग्रहथी मारी गतिनो कयारे पण प्रतिबन्ध थतो नथी ॥३१॥

देवोए आपेली नादब्रह्मथी शोभती वीणानो नाद झङ्कार करतो भगवत्‌ कथानुं गान करतो हुं फर्या करुं छुं. प्रथम जे महान श्रम कर्यो ते हवे सरळ थई गयो ॥३२॥

केमके हुं भगवाननां वीर्यो (महाकर्मो) नुं उच्च स्वरे गान करुं छुं त्यारे जेना चरणमां सर्व तीर्थ छे अथवा तीर्थरूप जेनां चरण छे एवा अने स्वयश जेने प्रिय छे तेवा भगवान्‌ जाणे के में बोलाव्या होय तेम तुरत पधारीने मने हृदयमां दर्शन आपे छे ॥३३॥

विषयस्पर्शना सुखार्थे वारंवार दुःखी थता जीवोने संसाररूप समुद्र तरवामाटे भगवानना चरित्रनुं वर्णन एक नौकारूप होवानुं अनुभवेलुं छे ॥३४॥

[[४३]] काम अने लोभ थी घायल अन्तःकरण यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, ध्यान, धारणा अने समाधि करवाथी पण एटलुं शान्त नथी थतुं जेटलुं भगवत्सेवाथी साक्षात्‌ शान्त थाय छे. तेथी सेवा करवी ए मुख्य कर्तव्य छे ॥३५॥

नारदजी व्यासजीने कहे छे के हे निष्पाप! तमे जे मने पूछ्‌युं ते सर्व तमने मारा जन्मनुं अने मारा कर्तव्य कर्मनुं रहस्य में कह्युं तेथी तमारा चित्तमां असन्तोष छे ते दूर थशे अने सन्तोष थशे ॥३६॥

सूत बोल्या - आ प्रमाणे वासवीसुत व्यास भगवानने कहीने नारदमुनि एमनी रजा लईने ज्यां इच्छा होय त्यां जनारा ए मुनि वीणा वगाडता-वगाडता पधार्या ॥३७॥

अहो देवर्षिर्धन्योऽयं यत्‌ कीर्तिं शांर्गधन्वनः ॥ गायन्माद्यन्‌ गिरातन्त्र्या रमयत्यातुरं जगत्‌ ॥३८॥

अहो! देवर्षि धन्य छे के जे शांर्गधन्वा भगवाननी कीर्तिनुं वीणा उपर गान करी पोते तो आनन्दमग्न थाय ज छे, साथे-साथे त्रितापथी तपेल आ जगत्‌ने पण आनन्दित करता रहे छे ॥३८॥

इति श्रीभागवत प्रथमस्कन्धमां (मध्यमप्रकरणनो त्रीजो) ‘‘नारदजीनी भक्तिनुं स्वरूप’’ नामनो छठ्ठो अध्याय सम्पूर्ण थयो* मध्यम प्रकरण सम्पूर्ण थयुं

विशेष - आ मध्य प्रकरणमां नारदजी वक्ता अने व्यासजी श्रोता छे. तेमां नारदजीने वैराग्य नथी तेम व्यासजीने साधनबल विशेष छे तेथी एकनिष्ठता न होवाथी मध्यमता छे. उत्तममां जुदी ज वात कहेवामां आवशे. आमां भगवत्कृपा, भगवदीयत्व अने भगवद्‌ अनुभव ए त्रण अध्यायना अर्थरूप छे. ए त्रण गुण श्रोता-वक्ता बेउमां जोईए. तेमां नारदजी स्वदृष्टान्तथी सत्सङ्गथी भगवत्कृपानुं वर्णन करे छे अने व्यासजीने पण नारदजीनो समागम भगवत्कृपाथी ज थयो छे. भगवदीयत्व नारदजीमां छे एवुं व्यासजीमां न हतुं ते नारदजीना कथनथी प्राप्त थयुं. भगवद्‌ अनुभव नारदजीए वर्णव्यो छे तेम व्यासजीने समाधिमां थयो छे. आ सर्व विषय आ त्रण अध्यायमां स्पष्ट समजाव्यो छे.
[[४४]] तृतीय उत्तमाधिकार प्रकरण

अध्याय ७

अश्वत्थामाना बाणथी रक्षा

विशेष - सप्तम अध्यायथी ते छेल्ले ओगणीसमा पर्यन्तना १३ अध्यायमां उत्तम प्रकरण छे. तेमां वैराग्य प्रधान छे. भगवान्‌मां एकतानता ए ज वैराग्यनी दृढता कहेवाय. भगवान्‌ पुरुषोत्तम छे. ते पुरुषथी अधिक होवाथी पुरुषोत्तम होवाथी १३ अध्यायथी उत्तम प्रकरण कह्युं छे. आ १३ अध्यायनो भाव-सातमामां अश्वत्थामाना बाणथी रक्षा, आठमामां गर्भरक्षा अने कुन्ताजीनी स्तुति, नवमामां भीष्मनो युधिष्ठिरने धर्मोपदेश तथा भीष्मे करेली भगवाननी स्तुति, दसमामां युधिष्ठिरनो राज्याभिषेक तथा भगवाननुं द्वारका प्रति प्रयाण, अगियारमामां सम्बन्धीओनो समागम, बारमामां परीक्षितना जन्मनुं वर्णन, तेरमामां विदुरजीनुं हस्तिनापुर पधारवुं, धृतराष्ट्रनुं गान्धारीने लईने उत्तर दिशामां गमन, चौदमामां द्वारकाथी अर्जुननुं आगमन पन्दरमामां यादवोना क्षयनी वात राजाने कहीने पाण्डवो परीक्षितने राज्य आपीने उत्तर दिशामां गया एनुं वर्णन, सोळमामां परीक्षितनो दिग्विजय, पृथ्वी धर्म अने कलि नो समागम, सत्तरमामां धर्मनी रक्षा अने कलिने स्थान आपवानी वात, अढारमामां परीक्षितने ब्राह्मणनो शाप अने ओगणीसमामां परीक्षितनो प्रायोपवेश तथा मुनिओ तथा शुकदेवजी नो समागम. आ उत्तमाधिकारनुं प्रकरण छे तेमां अधिकारी अने वैराग्यवान्‌ छे ए एनी उत्तमता छे. हेतु भगवान्‌ छे, भगवाने परीक्षितनी रक्षा क्लेश सहीने पण करी छे. भगवान्‌ षड्‌धर्मयुक्त धर्मी छे, सर्वोत्तम, सर्वमृग्य, मुक्तिदाता, ज्ञानप्रद, सर्वक्लेशनिवृत्तिपूर्वक भक्ति देनार अने भक्तमनोरथपूरक षड्‌धर्म विशिष्ट धर्मी छे ते श्रम करीने जेनुं पालन करे ते श्रीभागवतना श्रवणमां मुख्य अधिकारी. तेथी चालु सातमा अध्यायमां श्रीभागवतनी उत्पत्ति एनी प्रवृत्ति तथा भक्तमनोरथ पूर्ति ए त्रण वस्तुनुं निरूपण थाय छे. निर्गते नारदे सूत! भगवान्‌ बादरायणः ॥ श्रुत्वा तु तदभिप्रेतं ततः किमकरोद्‌ विभुः ॥१॥

शौनके पूछ्‌युं - हे सूतजी! नारदजी ए प्रकारे कहीने गया पछी भगवान्‌ समर्थ बादरायण व्यासजीए पोतानुं गमतुं श्रवण करीने शुं कर्युं? ॥१॥

सूतजी बोल्या - ब्रह्मा जेना देवता छे तेवी सरस्वती नदीना पश्चिम तट [[४५]] उपर ऋषिओना सत्रने वधारनार ‘शम्याप्रास’ नामनो एक आश्रम प्रसिद्ध छे ॥२॥

बोरना वनोथी शोभता ए पोताना आश्रममां बेसीने आचमन करीने व्यासजीए भगवाननी जेवी इच्छा हशे ते प्रमाणे प्रेरणा करशे एम विचारी मनने स्थिर कर्युं ॥३॥

एमां नारदजीए कहेला योगथी समाधि करता भगवाननां अने एनी आश्रित मायानां दर्शन कर्याम् ॥४॥

आ मायाथी ज मोहित थयेलो आ जीव पोते त्रणेय गुणोथी अतीत होवा छतां पोताने त्रिगुणात्मक जड जेवो मानीने मायाए करेला जन्म-मरणरूप अनर्थने प्राप्त करे छे ॥५॥

ए दर्शन कर्या पछी ए ज समाधिमां अनर्थने दूर करनार इन्द्रियोथी अगोचर भगवान्‌मां साक्षाद्‌ भक्तियोगने जोयो. ए सर्व जाणीने लोको ए वातथी अजाण्या होई एने जणाववा श्रीभागवत संहिता रची ॥६॥

जे संहितानुं श्रवण थतां पुरुषने परम पुरुष कृष्णने विशे भक्ति उत्पन्न थाय छे. ए भक्ति शोक, मोह अने भय ने दूर करे छे ॥७॥

ए श्रीभागवतसंहिता रचीने एने पूर्वापर अनुक्रम आपी निवृत्तिने श्रेष्ठ माननारा स्वपुत्र शुकदेवजीने महामुनि व्यासजीए ए संहिता भणावी ॥८॥

शौनक बोल्या - श्रीशुकदेवजी तो प्रवृत्तिना भयथी जनोई वगेरे संस्कारनी पण उपेक्षा करीने आत्मामां रमण करे छे, ते मुनि आ विशाळ ग्रन्थ भाव सहित अर्थना ज्ञानपूर्वक शा माटे भण्या? ॥९॥

सूतजीए कह्युं - आत्मामां रमनार, मनन करनार अने अहन्ता-ममतानी ग्रन्थि रहित तेवा भक्तो पण उरुक्रम भगवाननी अलौकिक निष्काम भक्ति करता रहे छे. कारण के हरि छे ज एवा गुणवाळा के जे गुणो प्रवृत्ति अने निवृत्ति स्वभाववाळा सर्वने आनन्द आपी पोतानी तरफ खेञ्ची ले छे ॥१०॥

भगवानना गुणोए जेनी बुद्धिनुं आकर्षण कर्युं छे तेवा बादरायणना पुत्र अने भगवद्‌भक्तने प्रिय तेवा श्रीशुकदेवजी आ मोटुं आख्यान भण्या ॥११॥

परीक्षितराजानां जन्म, कर्म अने अवसान तेमज पाण्डवोना देहत्यागनी वात, जेमान्थी भगवाननी कथानो उदय थाय छे ते बधी कथा, हुं तमने कहीश ॥१२॥

[[४६]] ज्यारे सङ्ग्राममां कौरव अने पाण्डव ना योद्धाओ वीरगतिने (सन्मुख लडता मरे तेनी मुक्ति थाय छे तेवी मुक्तिने) पाम्या अने भीमसेननी गदाथी दुर्योधननी साथळ भाङ्गी गई त्यारे अश्वत्थामा पोताना आश्रयरूप दुर्योधननुं प्रिय करवामाटे सूतेला द्रौपदीना पाञ्च बाळकोनां मस्तक कापी ते मस्तको दुर्योधनने बताववा लई गयो. परन्तु सूतेला पुत्रोनो शिरच्छेद दुर्योधनने पण गम्यो नहि. कारण के आवा नीच कार्यनी बधा ज निन्दा करे छे ॥१३-१४॥

ते बाळकोनी माता द्रौपदी पोताना पुत्रोना मृत्युना समाचार साम्भळीने अत्यन्त दुःखी थई. नेत्रमां आंसु छलकायां अने ते रोवा लागी. तेने शान्त करतां अर्जुने कह्युम् ॥१५॥

हे कल्याणी! आततायी अने ब्राह्मणमां अधम एवा अश्वत्थामानुं मस्तक गाण्डीव धनुषथी छूटेलां बाणोवडे उडावी लावी तने हुं भेट करीश. पुत्रोना अग्निसंस्कार थया पछी अश्वत्थामाना मस्तक उपर पग मूकी तुं स्नान करीश त्यारे हुं तारां शोकनां आंसु लूछी तारो शोक मूकावीश ॥१६॥

एवां सुन्दर अने कांईक बडाईवाळां वाक्यवडे द्रौपदीने शान्त करीने भगवान्‌ जेना मित्र तथा सारथी छे तेवो अर्जुन बख्तर धारण करी मोटुं धनुष लई रथमां सवार थई गुरुपुत्रनी पाछळ पड्यो ॥१७॥

पाछळ आवता अर्जुनने बाळकोने मारनार अश्वत्थामा दूरथी रथमां आवतो जोई उद्विग्न चित्तथी पोताना प्राण बचाववा खातर रुद्रना भयथी सूर्यनी* जेम पृथ्वी उपर दोड्यो ॥१८॥

विशेष - सूर्ये विद्युन्माली नामना राक्षसने मारी नाख्यो. विद्युन्माली शिवजीनो भक्त हतो. सूर्ये पोताना भक्तने परास्त कर्यो ते जाणी क्रोधथी त्रिशूल लईने सूर्यने मारवामाटे रुद्र एनी सामे थया त्यारे सूर्य दोड्या अने काशीमां पड्या. ते त्यां ‘लोलार्क’ नामे प्रसिद्ध छे. एम अश्वत्थामा पण पृथ्वी उपर ज ज्यां सुधी जई शकाय त्यां सुधी नाठो. ज्यारे कोई रक्षा करनार बीजो नथी अने रथना घोडा पण थाकी गया छे एम अश्वत्थामाए जोयुं त्यारे ब्राह्मणपुत्र अश्वत्थामाए केवळ ब्रह्मास्त्र ज आत्मरक्षण माटे छेल्लो उपाय छे एम निश्चय कर्यो ॥१९॥

प्राण सङ्कट आवतां पलायन छोडी, आचमन करी जेना उपसंहारने पोते जाणतो नथी तो पण देवता सान्निध्यमाटे ध्यान करी ए ब्रह्मास्त्र अर्जुन तरफ [[४७]] सान्ध्युम् ॥२०॥

बाण छूटतां सर्व दिशाओमां प्रचण्ड तेज देखायुं त्यारे ए आपत्ति प्राणने बाधा करनारी जाणी अर्जुन भगवानने कहेवा लाग्यो ॥२१॥

अर्जुने कह्युं - हे कृष्ण! कृष्ण! आपनी क्रियाशक्ति अनन्त छे. बीजाओने तो भय उपस्थित थया पछी तेमनुं आप पालन करो छो पण भक्तोनी पासे तो भयने फरकवा पण देता नथी, तेमने भयमुक्त ज राखो छो. आपथी बर्हिमुख लोको बळता ज रहे छे. मोटामां मोटी आग छे जन्म-मरणनी. ए संसारनी आगमान्थी उगारनार जो कोई होय तो ते आप ज छो ॥२२॥

तमे आद्यपुरुष छो, साक्षात्‌ ईश्वर छो, प्रकृतिथी पर छो. आपनी चित्‌ शक्तिथी मायाने दूर करी केवळ आत्मामां स्थिति करो छो ॥२३॥

ते ज आप, मायावडे जेनां चित्त मोह पाम्यां छे तेवा, आ जीवलोकनां धर्म वगेरे रूप क्ल्याण स्वपराक्रमवडे आप करी आपो छो ॥२४॥

तेमज आपनो अवतार पृथ्वीनो भार ओछो करवानी इच्छाथी अने पोताना अनन्य भाववाळा भक्तो आपनुं निरन्तर स्मरण अने ध्यान करी शके ते माटे छे ॥२५॥

हे देवोनां कार्य सिद्ध करनार! आ परम दारुण तेज कयान्थी चोतरफ आवे छे? ए शुं छे? ए हुं कांई जाणतो नथी ॥२६॥

श्रीभगवाने कह्युं - तुं जाणे छे के द्रोणना पुत्र अश्वत्थामानुं आ ब्रह्मास्त्र छे. पण ए आ ब्रह्मास्त्रने पाछुं खेञ्ची लेवानी कळा जाणतो नथी. छतां प्राणबाधक सङ्कट पड्‌्युं जोई एणे ब्रह्मास्त्र छोडी मूकयुं छे ॥२७॥

आ ब्रह्मास्त्रनुं निवारण करनार बीजुं कोई अस्त्र नथी. तुं अस्त्र विद्यानो जाणनार होवाथी ब्रह्मास्त्रवडे वधेला आ ब्रह्मास्त्रने शान्त कर ॥२८॥

सूतजी बोल्या - शत्रुना वीरोने मारवा समर्थ अर्जुने भगवाननुं कथन श्रवण करी, आचमन अने प्रभुनी परिक्रमा करी, ब्रह्मास्त्रनी सामे ब्रह्मास्त्रनो प्रयोग कर्यो. ज्यारे बन्ने अस्त्रो अथडायां त्यारे पृथ्वी, स्वर्ग अने आकाश मां एओनुं तेज फेलाववाथी प्रलय समये सङ्कर्षणना मुखमान्थी अग्नि नीकळे छे तेम ए बन्ने तेज वध्याम् ॥२९-३०॥

अने त्रण लोकने बाळवा लाग्यां. एनाथी पीडा पामती प्रजा ‘‘आ प्रलयनी
[[४८]] सांवर्तक अग्नि छे’’ एम कहेवा लागी ॥३१॥

प्रजानो नाश अने लोकनी छिन्न-भिन्नता जोई, वासुदेवनो विचार पण जाणीने अर्जुने बन्ने तेजने शान्त कर्याम् ॥३२॥

पछी तुरत क्रूर अश्वत्थामाने पकडी, लाल नेत्रवाळा अर्जुने जेम पशुने दोरडान्थी बान्धे तेम एने बान्ध्यो ॥३३॥

शत्रुने दोरडान्थी बान्धी सेनाना पडाव तरफ जबरजस्तीथी लई जवानी इच्छावाळा अर्जुनने कमळनेत्र भगवाने कोप करी कह्युम् ॥३४॥

भगवाने कह्युं - हे पृथाना पुत्र! आ ब्राह्मणोमां अधमनुं रक्षण करवुं योग्य नथी. एने तो मारी ज नाख. केमके एणे रातमां सूतेला निरपराधी बाळकोने मार्या छे ॥३५॥

मदिरा पीधेलो, भूतना आवेशवाळो, सूतेलां बाळक, स्त्री, जड, शरणे आवेलो, रथ वगरनो अने भयवाळो शत्रु होय तेने धर्मने जाणनार मारतो नथी ॥३६॥

पोताना प्राणने बीजानो प्राण लईने पोषे छे तेवाने मारवो ए एनुं भलुं करवा जेवुं छे, कारण के बीजाना प्राणथी पोतानुं पोषण करनार माणस ए दोषथी ज अधम नरकादिमां जाय छे. माटे एवाने मारवो ए धर्मरूप छे. जेने मारवानो छे ते पण पाप करतो बचे एमां एनुं पण कल्याण छे ॥३७॥

तमे वळी द्रौपदीने मारा साम्भळतां कह्युं छे के हे मानिनी! तारा पुत्रना मारनारनुं मस्तक तारी पासे उतारी लावीश ॥३८॥

तेथी तमारा पुत्रोने मारनार आततायी आ अश्वत्थामाए पोताना स्वामीने पण दुःख पहोञ्चाड्युं छे तेथी कुलकलङ्करूप आ पापीने मारी ज नाखो ॥३९॥

सूतजी बोल्या - ए प्रमाणे धर्मनी परीक्षा करता कृष्णे अर्जुनने प्रेरणा करी तो पण, अश्वत्थामा पोताना गुरुनो पुत्र होवाथी, पोताना पुत्रोनो हत्यारो होवा छतां, एने न मार्यो ॥४०॥

अने पोताना मुकाम उपर आवी गोविन्द जेना प्रिय सारथि छे तेवा अर्जुने, मरेला पुत्रोनो शोक करता स्वप्रिया द्रौपदीनी पासे स्वशत्रुने ऊभो राख्यो अने ‘‘आ तमारा पुत्रने मारनार’’ एम बोल्यो ॥४१॥

पछी ए प्रमाणे सामे ऊभा करेला पशुनी पेठे दोरडान्थी बान्धेला, निन्दितकर्म करवाथी नीचे मुख राखी उभेला, गुरुपुत्र अश्वत्थामाने जोईने द्रौपदीए, सारा [[४९]] स्वभाववाळी होवाथी गुरुपुत्रनुं अपमान थयुं छे एम जाणी एनी उपर दया करीने एने नमस्कार कर्या ॥४२॥

आ अश्वत्थामाने बान्धीने पोतानी पासे अर्जुन लाव्यो ए सती (द्रौपदी) जोई शकयां नहि अने सती कहेवा लाग्यां के आ ब्राह्मण छे अने ए तो अत्यन्त गुरु छे माटे आने छोडी दो, छोडी दो ॥४३॥

केमके रहस्य सहित धनुर्वेद तमे जेनी पासे भण्या छो के जेमां अस्त्रो फेङ्कवाना अने पाछां खेञ्ची लेवाना प्रकार आवी जाय छे. तथा बधी जातना अस्त्रो तमे जेना अनुग्रहथी शीख्या छो ॥४४॥

ते ज भगवान्‌ द्रोणाचार्य पुत्ररूपे आ छे. ए द्रोणना आत्माना अर्धभागरूप कृपी जे कृपानी अधिष्ठात्री देवता छे अने जे वीरपुत्रने जन्म आप्याथी ‘वीरसू’ कहेवाय छे ते आनाथी पुत्रवती होवाथी द्रोणाचार्यनी पाछळ बळी मूआं नथी ॥४५॥

तेथी हे धर्मना ज्ञाता! महाभाग! आपे नमस्कार करवा योग्य अने वारंवार पूज्य अने गौरवविशिष्ट आपना गुरुकुळने कष्ट आपवुं आपने योग्य नथी ॥४६॥

जेम मारा पुत्रो मारवाथी हुं आङ्खोमां आंसु लावी रडुं छुं तेम पतिने देव माननारी आ अश्वत्थामानी माता गौतमीने पुत्रवधथी रडती जोवाने हुं इच्छती नथी ॥४७॥

इन्द्रियोने नहि जीतनारा जे राजाओ ब्राह्मणना कुळने कोपवाळुं करे छे ते कुळ आखुं ब्राह्मणना कोपथी शोकयुक्त थई समग्र नाश पामे छे ॥४८॥

सूते कह्युं - द्रौपदीनी वात धर्मयुक्त, न्यायी अने दयायुक्त हती. सत्य अने समता पण तेमां हतां. तेथी हे ब्राह्मणो! राजा युधिष्ठिरे द्रौपदीनां आ श्रेष्ठ वचनोने आवकार्या ॥४९॥

ए ज प्रमाणे नकुल, सहदेव, सात्यकि, अर्जुन तथा भगवान्‌ श्रीकृष्ण तथा ए स्थाने मळेलां स्त्री-पुरुषोए ए ज प्रमाणे द्रौपदीना वाक्यनुं समर्थन कर्युम् ॥५०॥

ज्यारे बीजा बधा एकमत थया त्यारे शत्रुने भयङ्कर भीमसेन क्रोधयुक्त थईने कहेवा लाग्यो के आ अश्वत्थामा आपणा पुत्रोने मारी पोतानुं के एना स्वामीनुं कांई भलुं करी शक््यो नथी पण बाळकोनो नकामो वध कर्यो छे तेथी एने वधनी शिक्षा करवी ए ज उत्तम छे ॥५१॥

[[५०]] भीमनुं आम कहेवुं थयुं अने द्रौपदीनुं तेथी जुदुं ज बोलवुं थयुं त्यारे चतुर्भुज भगवान्‌ अर्जुनना मुख तरफ जोई हसता-हसता आ प्रमाणे बोल्या ॥५२॥

‘‘पतित ब्राह्मणने पण न मारवो जोईए’’ तेमज ‘‘आततायी* ब्राह्मण, गुरु के गमे ते होय एने मारवो जोईए’’ ए बन्ने आज्ञाओ मारीज होवाथी बन्ने आज्ञानुं पालन थाय तेम तमे करो ॥५३॥

विशेषः ‘‘अग्निदो गरदश्चैव शस्त्रपाणिर्धनापहः, क्षेत्रदारहरश्चैव षडेते ह्याततायिनः’’ घरमां आग मुकनारो के जेनाथी सर्व नाश थाय, झेर आपनार के एनाथी सर्व रहे पण सर्वनो भोग करनार जाय एटले पण सर्व नाश थयो; हाथमां हथियार राखीने भय बतावी बधुं लई जनार, धननी चोरी करनार तथा घर अथवा क्षेत्र अने स्त्रीनुं हरण करनार ए छ ‘आततायी’ कहेवाय छे. आ छने मारवामां दोष नथी एम धर्मशास्त्रमां स्पष्ट कहेल छे. वळी तमे प्रिया द्रौपदीनुं समाधान करतां जे एमनी पासे वाक्य बोल्या छो ते पण सत्य करो. में कह्युं ते अने हमणां द्रौपदी बोल्यां ते बधुं सत्य रहे तेम करो ॥५४॥

सूते कह्युं - भगवानना अभिप्रायने अर्जुन तुरत समजी गयो अने तलवार लई ब्राह्मणना माथामां जे मणि हतो ते शिखानी साथे काढी लीधो॥५५॥

अने दोरडान्थी बन्धन कर्युं हतुं ते छोडी नाख्युं. बाळकोनी हत्या करवाथी ए श्रीहीन तो बनी ज गयो हतो. हवे तेनी शिखानो मणि लेवायाथी पण निस्तेज थयेल अश्वत्थामाने पोताना मुकाममान्थी काढी मूकयो ॥५६॥

मुण्डन करवुं, द्रव्य लई लेवुं, स्थानमान्थी अपमानपूर्वक दूर करवो ए ज पतित ब्राह्मणनो वध समजवो. आ सिवाय ब्राह्मणनो देहथी नाश करवारूपी दण्ड शास्त्रसम्मत नथी ॥५७॥

पुत्रशोकाद्‌र्दिताः सर्वे पाण्डवाः सह कृष्णया ॥ स्वानां मृतानां यत्कृत्यं चक्रुर्‌ निर्हरणादिकम्‌ ॥५८॥

पुत्रना शोकथी दुःखी सर्व पाण्डवोए द्रौपदीने लई पोताना मरेलां बाळकोनी दाहादि अन्त्येष्टि क्रिया करी ॥५८॥

इति श्रीभागवत प्रथम स्कन्धमां (उत्तम प्रकरणमां पहेलो) ‘‘अश्वत्थामाना बाणथी रक्षा’’ नामनो सातमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. [[५१]] अध्याय ८ ब्रह्मास्त्रथी रक्षा अने भगवाननी स्तुति

विशेष - पूर्वाध्यायमां बधा भक्तो भगवानना वाक्यमां निष्ठावाळा छे एम कह्युं अने ए सर्वनुं कारण जेमां छे तेवी कथा पण कही. आ आठमा अध्यायमां जे कार्य करवाथी जे थाय तेमां जो दोष थाय तो एनो उपाय अने गुण थाय तो एनुं पोषण कहेवामां आवशे. एमां अध्यायमां चार वात कहेवाशे - ब्रह्मास्त्रथी दाह, एनाथी रक्षा, अद्‌भुत कर्म करवावाळा भगवाननी स्तुति तथा भगवाननां अद्‌भुत कर्मो. ए चारमां प्रथम ज ब्रह्मास्त्रनो प्रसङ्ग कहे छे. अथ ते सम्परेतानां स्वानाम्‌ उदकमिच्छताम्‌ ॥ दातुं सकृष्णा गङ्गायां पुरस्कृत्य ययुः स्त्रियः ॥१॥

शौनकादि मुनिओ प्रत्ये सूत कहेवा लाग्या - पछी ए बधा पाण्डवो पोताना बाळको अश्वत्थामाने हाथे मर्या तेओने जलाञ्जलि* देवा माटे श्रीकृष्णनी साथे बीजी स्त्रीओने आगळ करीने गङ्गाने तीरे गया ॥१॥

विशेष - शुद्धि कर्या पछी संस्कार करवानी रीति छे - ए शुद्धि बहारनी अने अन्दरनी एम बे प्रकारनी छे. तेमां बे श्लोकथी बहारनी शुद्धि कहेछे. ज्यारे मरेलानी प्रेतता छूटे त्यारे जीवनारनी शुद्धि थाय छे. ए प्रेतत्व एनी क्रिया करवाथी छूटे छे. माटे दाह कुरुक्षेत्रमां कर्यो छे तो पण क्रिया करवा बधा हस्तिनापुर गया. गङ्गाना जलथी प्रेतत्व छूटे छे - ‘‘प्रत्तं जलं त्र्यञ्जलमात्मजेन प्रेतस्य तापप्रशमं करोति’’ एवुं वाकय छे तेथी जलाञ्जलि अपाय छे. बधां त्यां जई मरेलाओने जलदान करी, घणुं रुदन करी भगवानना चरणनी रजथी पवित्र गङ्गाजीमां फरी स्नान करवा लाग्याम् ॥२॥

(हवे भगवाननुं कर्तव्य कहे छे के) त्यां विदुरजी सहित राजा धृतराष्ट्र, पुत्रशोकथी दुःख पामतां गान्धारी, कुन्ती, द्रौपदी वगेरे जेमनां वहालां मरवाथी शोकवाळां थया छे तेवान्ने मुनिओद्वारा भगवाने शान्त कराव्यां अने एम बताव्युं के प्राणिमात्र काळने वश छे एमां मनुष्यनुं कंई चालतुं नथी ॥३-४॥

जे दुष्टो कपट करी युधिष्ठिर पासेथी राज्य पडावी गया हता ते बधानो युद्धथी नाश कराव्यो. द्रौपदीना केशदर्शनथी जे राजाओनां आयुष्य हणायां छे तेवा राजाओनो नाश लडाईने बहाने थयो ॥५॥

उत्तम साधनोथी पण अश्वमेध युधिष्ठिर पासे करावी एनो पवित्र यश पृथ्वी
[[५२]] उपर फेलाव्यो. जेम सो यज्ञ करनार इन्द्र यशस्वी छे तेवा पृथ्वीना इन्द्र युधिष्ठिरने कहेराववा आ बधुं करवा भगवान्‌ आवेला ए कार्य पूर्ण थयुं. ज्यारे सात्यकि अने उद्धवजी नी साथे पोते द्वारका पधारवानी तैयारी करी त्यारे व्यासजी वगेरे ब्राह्मणोनो सत्कार कर्यो. ब्राह्मणो पण एमनो सत्कार करी रह्या पछी पाण्डवोनी रजा लई ज्यारे भगवान्‌ रथमां बेसवा जाय छे त्यां भयथी विह्‌वल बनेली उत्तराए कह्युं - हे महायोगी! देवोना देव! जगत्‌ना पति! बचावो-बचावो. आपना सिवाय आ जगत्‌मां अने अभय आपी शके एवो कोई हुं जोती नथी. कारण के अर्ही तो बधा एक-बीजाना मृत्युना कारण बनी रह्या छे. (उत्तर उत्तम, उत्कृष्ट. उत्तरा=जेनी भक्ति उत्तर, उत्तम छे तेवी स्त्री) ॥६-८॥

हे नाथ! तपेल लोढा जेवुं बाण मारी सामे आवे छे ते खुशीथी मने बाळे पण आप मारा गर्भनी तो अवश्य रक्षा करो. ए न पडे ए आपे करवानुं छे. तेथी हुं आपनी शरणागत थई छुं, कारण के बीजा तो परस्पर मृत्युवाळा होवाथी शरणे जवा लायक नथी ॥९॥

सूते कह्युं - भगवान्‌ तो भक्तवत्सल छे. उत्तरानां वाकय साम्भळी विचारवा लाग्या एटले पाण्डवोनो वंशच्छेद करवा अश्वत्थामाए आ ब्रह्मास्त्र उत्तरानो गर्भ बाळवा मोकल्युं छे ए जाणी गया ॥१०॥

हे मुनिओमां श्रेष्ठ! ए ज समये पाञ्च पाण्डवो उपर भभूकतां पाञ्च बाण आवतां तेओए जोयां के तुरत पोतपोतानां अस्त्रो तेओए लीधा ॥११॥

भगवाने विचार्युं के आ बधा मारा भक्तो छे तेमनो रक्षक मारा सिवाय बीजो कोई नथी अने तेथी एमना दुःखने जोई पोताना सुदर्शन चक्रथी पोताना भक्तोनी भगवाने रक्षा करी ॥१२॥

भगवान्‌ सर्व प्राणीनी अन्दर अने बहार आत्मारूपे बिराजे छे, योगेश्वर छे. वळी भक्तनां दुःख हरनार होई ‘हरि’ नामथी प्रसिद्ध छे. तेमणे उत्तराना गर्भने पोतानी मायाथी वीर्टी लीधो. कारण के कौरवो बधा नष्ट थया हता अने तेथी पाण्डवोना सन्तानना बीजरूप आ गर्भ होवाथी ए गर्भ अवश्य बचावी लेवा पात्र छे एम धारी रक्षानो उपाय आ प्रमाणे कर्यो ॥१३॥

जो के ब्रह्मास्त्र एवुं छे के ज्यां गयुं त्यां ए अमोघ (सफळ) होवाथी निष्फळ न ज जाय अने एनुं निवारण थई शके ज नहि तो पण हे भृगुकुलश्रेष्ठ! विष्णु [[५३]] सम्बन्धी तेज एवुं अद्‌भुत छे के एनाथी ब्रह्मास्त्र पण सारी रीते शान्त थयुं ॥१४॥

आम ब्रह्मास्त्रने पण अच्युत भगवाने निष्फळ कर्युं एमां कांई तमारे आश्चर्य मानवानुं नथी. केमके जे पोतानी दैवी मायाशक्तिथी आ जगत्‌नां उत्पत्ति, पालन तथा संहार करवाने समर्थ छे तेमने आ एक ब्रह्मास्त्रनुं निवारण शुं हिसाबमां छे? ॥१५॥

आम ब्रह्मास्त्रथी मुक्त थयेला पोताना पुत्रो पाण्डवोने अने द्रौपदीने साथे राखी द्वारका जवाने तैयारी करी रहेला भगवान्‌ श्रीकृष्ण पासे आवी सती (भक्तिमाटे ज जे जीवन वगेरे धारण करे छे ते सत्‌, तेनुं स्त्रीलिङ्ग सती.) कुन्तीजी आ प्रमाणे स्तुति करवा लाग्याम् ॥१६॥

कुन्तीजी बोल्यां - सर्वभूतनी अन्दर अने बहार रहेनार छतां न देखातां, प्रकृतिथी पर, आद्य अने कर्तुं अकर्तुं अन्यथाकर्तुं समर्थ तेवा ईश्वर, मायारूप अन्तर्पटथी ढङ्कायेल, जेने इन्द्रियजन्य ज्ञान प्राप्त करी शकतुं नथी माटे अधोक्षज, आप सर्वरूप थाओ छो छतां आप अव्यय-विनाश विनाना छो अने पुरुषरूप तेवा आपने नहि जाणनारी हुं नमस्कार करुं छुं. जेम मूढ माणस नाटकमां अभिनय करता नटने खरा स्वरूपमां जाणी शकतो नथी तेम हुं आपनुं खरुं स्वरूप न जाणतां केवल नमस्कार करुं छुम् ॥१७-१८॥

तथा शुद्ध अन्तःकरणवाळा, परमहंस रूप, मनन करनारा एवा मुनि लोकोना भक्तियोगने* विस्तारवा माटे प्रकट थता आपने अमो स्त्रीओ केम जाणी शकीए? ॥१९॥

विशेषः भगवान्‌ स्वयं भूतळ उपर वेद अने ऋषि लोकोने प्रकट करीने ए द्वारा भगवत्प्राप्तिनां ज्ञानादि साधनो थया पछी पोते पधार्या. तेमां ज्ञाननुं अङ्ग सन्न्यास छे. ज्यारे वासना सहित ऐहिकनो त्याग करे त्यारे अन्तःकरण शुद्ध थाय छे. ज्यारे अन्नादि दोषनो संसर्ग छूटे छे त्यारे ए मनन करे छे. मनन करवुं ए श्रवण कर्युं होय त्यारे ज कराय एटले श्रवण तो समजी लेवुं. त्यार बाद चित्तनी एकाग्रता थवी एनुं नाम ‘निदिध्यासन’. ए करवाथी भगवत्स्वरूपनो निर्धार थाय छे. ए बधुं अन्तःकरणशुद्धिमूलक होवाथी एने ज्यारे ज्ञान प्राप्त थाय त्यारे ज थाय. भक्तियोग वगर तो भगवत्सम्बन्धी ज्ञान अथवा सायुज्य न थाय. तेथी एवां साधन न छतां पण स्वरूपथी फळ आपवा माटे आपनो आ अवतार छे
[[५४]] एवी कुन्तीनी मान्यता छे. त्यारे तो सर्वनो उद्धार थई जाय! त्यां कहे छे के नृत्य तो बधा जुए पण रस पडे छे रसिकोने ज, बीजाने नहि. तेम साधारण स्त्री-पुरुषो तथा दैत्यांशवाळा जीवोने प्रभुना दर्शनथी पण ज्ञान, भक्ति के रस कांई पण थतुं नथी. ऊलटुं नपुंसकने जेम स्त्रीनी चेष्टामां आनन्द न आवतां एमां दोष देखाय छे तेम असुरोने सदा भगवल्लीलामां दोषद्रष्टि ज रहे. तेथी सर्वोद्धारनी शङ्काने अवकाश नथी. आप कृष्ण मूलस्वरूप छो. सदानन्दस्वरूप एवा ‘कृष्ण’ शब्दनो अर्थ श्रुतिसिद्ध छे. देवकीजीना आनन्ददाता पुत्र आप छो. गोपना राजा नन्दरायना आप कुमार छो अने गायो अने गोपगोपीओना इन्द्र होवाथी ‘गोविन्द’ पण आप छो एवा आपने हुं वारंवार नमस्कार करुं छुम् ॥२०॥

पङ्कज(कमळ) जेनी नाभिमां छे, पङ्कजनी माळा धारण करनार, पङ्कज जेवा नेत्रवाळा अने पङ्कज जेवां चरणवाळा आपने हुं नमस्कार करुं छुम् ॥२१॥

हे इन्द्रियोना स्वामी! दुष्ट कंसे पोतानी बहेन देवकीने केद कर्या अने घणा काळ सुधी शोकग्रस्त देवकीने आपे दुःखथी मुक्त कर्या तेम हे समर्थ! आप अमारा नाथ छो; तेथी मारा पुत्रोनी साथे आपे अनेक दुःखोना समयमां वारंवार सकुटुम्ब मारुं रक्षण कर्युं छे ॥२२॥

(ए दुःखोने कुन्तीजी गणावे छे के) हे हरि! प्रथम तो झेरथी१ लाखागृहना अग्निथी, पुरुषने२ खानार हिडिम्ब वगेरे राक्षसोथी, दुष्टोनी सभामां ३द्रौपदीनी, वनवासनां अनेक दुःखोथी, सङ्ग्राममां अनेक शस्त्रोथी तथा छेल्ले अश्वत्थामाना ब्रह्मास्त्रथी आपे अमारां बधान्नी चारे तरफथी रक्षा करी छे ॥२३॥

विशेषः १. दुर्योधने विषना लाडु करीने भीमसेन वगेरेने मारी नाखवानी बुद्धिथी खवराव्या हता.
२. एक गाममां ब्राह्मणीनो एकनो एक ज पुत्र राक्षसना बलिदाननो भाग थतो जाणी ब्राह्मणी विलाप करती हती तेने जोई कुन्तीजीने दया आववाथी ए ब्राह्मणना छोकराने बदले भीमसेनने मोकल्यो हतो. ए राक्षसने भीमसेने मार्यो ए कथा महाभारतमां छे.
३. द्रौपदीनां वस्त्र सभामां खेञ्च्यां त्यारे रक्षा करी ए प्रसिद्ध वात छे. हे जगद्‌गुरो! अमने डगले ने पगले विपत्तिओ हम्मेशां हो, कारण के तेथी ते-ते विपत्तिओमां पुनर्जन्मने टाळनार आपनुं *दर्शन थाय ॥२४॥

विशेष - विपत्तिना समयमां सर्व विषयो छूटी जाय त्यारे शुद्ध शरणागति थाय छे. [[५५]] हे प्रभु! आपना वगर मारुं कोई रक्षक नथी एवो निश्चय थतां भगवद्‌दर्शन थाय छे. अने भगवाननो साक्षात्कार थयो तेने आ लोकमां पाछो जन्म लेवो न पडे ए स्पष्ट छे तेथी दर्शनने अपुनर्भव एवुं विशेषण आप्युं छे. उच्च कुलमां जन्म, *ऐश्वर्य, विद्या अने लक्ष्मी ने कारणे जेनो घमण्ड वधी रह्यो छे तेवो पुरुष तो आपना नामनुं उच्चारण करवाने पण लायक नथी कारण के आप तो एवा पुरुषने ज दर्शन आपो छो जे अकिञ्चन होय, अर्थात्‌ जेने उपर गणावेला चार प्रकारना मदमान्थी एकेय प्रकारनो मद न होय ॥२५॥

विशेष - भगवानना नव धर्म नवधा भक्तिना कारणरूप छे. ए नव धर्ममान्थी केटलाक स्वरूपनिष्ठ अने केटलाक गुणनिष्ठ एम जुदा-जुदा छे. एमां ज्यारे भगवाननुं स्वरूप जाणवामां आवे त्यारे एनुं श्रवण करवानुं मन थाय छे. भगवानना गुण जाणवामां आवे त्यारे कीर्तनभक्ति थाय छे. लीलाना ज्ञानथी ए लीलानुं स्मरण थाय छे. श्रवण, कीर्तन अने स्मरण ए नवधा भक्तिमां पहेलो खण्ड छे. बीजा खण्डमां पादसेवन, पूजन, वन्दन अने दास्य ए चार भक्तिनो समावेश थाय छे. त्रीजा खण्डमां सख्य तथा आत्मनिवेदन ए बे छे. आ भक्तिना क्रममां आवतां अटकावनारा दोषो सत्कुळमां जन्म, राज्यादि ऐश्वर्य, शास्त्रश्रवणजन्य अभिमान अने लक्ष्मी छे. तेथी ए चार दोषवाळाने भक्तिनो अधिकार नथी. जीव पोताना स्वरूपथी अधिकारी पण दोषथी अनधिकारी बने छे. चोखा भोजनमां उत्तम छे पण एनी मदिरा बने तो ए अपेय बने छे. तेथी ज ‘‘विद्यामदो धनमदः’’ इत्यादिनी दोषमां गणना छे. भगवन्नामना उच्चारना अनधिकारीओ - भागवतनो प्रथम स्कन्ध भगवल्लीलाश्रवणनी पात्रता विशे कहेनार छे त्यारे सहज प्रश्न थाय के ए लीलाना श्रवणना अपात्र कोण? ए प्रश्नना उत्तरमां कहेवानुं के प्रथमस्कन्धमां कुन्तीजीनी स्तुतिमां आठमा अध्यायना नीचेना श्लोकमां भगवाननी दुष्टदुर्ज्ञेयता (एटले के भगवानने दुष्टो जाणी शकता नथी ए) आ प्रमाणे कही छे - ‘‘जन्मैश्वर्य श्रुतश्रीभिरेधमानमदः पुमान्‌, नैवार्हत्यभिधातुं वै त्वामकिञ्चनगोचरम्‌’’(१.८.२५) सत्कुळमां जन्म, ऐश्वर्य, शास्त्राभ्यास अने सम्पत्ति थी जे पुरुष मदोन्मत्त थाय छे ते आपनुं नाम लेवाने पण लायक रहेतो नथी केमके आपनुं स्वरूप तो अकिञ्चन भक्तो ज जाणी अने पामी शके छे. आप तो अकिञ्चनना विषयरूप छो. ए धर्म एनामां न होवाथी ए मदवाळा लोको आपनुं नाम लई शकता नथी. ज्यारे आपना सिवाय जेने बीजो कोई पदार्थ पोताना तरीके स्वीकृत नथी तेनी
[[५६]] (निष्किञ्चननी) श्रवणादिभक्तिना आप विषय थाओ छो. आनो अर्थ श्रीभागवत्‌नी श्रीसुबोधिनीजी टीकामां नीचे प्रमाणे छे - ‘‘भगवानना नव प्रकारना धर्म जाणवा जोईए. ए गुणो नवविध भक्तिना कारणरूप छे. ए धर्मो स्वरूप, गुण, लीला वगेरे भेदथी भिन्न छे. एमां स्वरूप जाणवामां आवे त्यारे भगवच्छ्रवण बने छे. गुण जाणवाथी कीर्तन थई शके छे. लीला जणाय त्यारे स्मरण थाय छे. अर्ही त्रण भक्तिरूप एक खण्ड पूरो थाय छे. बीजा खण्डमां समीपगमन थाय त्यारे पादसेवन, पूजन, वन्दन अने दास्य ए चार भक्ति बनी शके. त्रीजा खण्डमां सख्य अने आत्मनिवेदन ए बे भक्ति छे एटले बधा मळी भक्तिना ९ भेद छे. एमां पण दुष्टदुर्ज्ञेयत्व ते-ते लीलामां कहेवामां आवशे. एमां पण भगवान्‌ दुष्टदुर्ज्ञेय छे एम न जणाय त्यां सुधी दुष्टलोकोना बाधक काया, वाणी अने मन ना व्यापारनां दर्शन थवाथी भगवत्समीपमां जई ज न शकाय. दुष्टदुर्ज्ञेयता जाण्या पछी जो समीपमां न जवाय तो अन्ध देखतो नथी माटे नेत्रवाळाए पण जोवुं नहि ए न्यायथी आपणी बुद्धिनो दोष गणाय तेथी पण बीजा खण्डमां प्रवृत्ति थाय. तेथी पादसेवन भक्तिमां दुष्टदुर्ज्ञेयता कहे छे. एमां सत्कुळमां जन्म, राजा वगेरेनुं ऐश्वर्य, शास्त्रादिथी उत्पन्न थयेल ज्ञान अने अखूट सम्पत्ति ए चार प्रकारे जेने मद उत्पन्न थाय ते भगवाननां नाम लेवाने पण लायक नथी. अर्ही समजवानुं छे के जेम चोखा वगेरे रान्धीने देवने निवेदन करीने देव, पितृ, मनुष्य वगेरे माटे उपयोगमां ले तो ए पितृ, देव अने मनुष्य ने तृप्ति करे छे एटलुं ज नहि पण ए एमने अमृतरूप थाय छे; पण ए ज धान्यनो उपयोग कोई सुरा बनाववामां करे तो ए अन्नना मळमान्थी मादक पदार्थ बने छे तेथी ए मादक पदार्थ पण अन्नथी बन्युं माटे पीवालायक गणी एनुं पान करे तो ए स्वधर्मभ्रष्ट थाय छे एटलुं ज नहि पण शरीरथी पण काळे करीने वियुक्त थाय छे. तेम गर्ववाळा जीवो सत्कुळमां आवीने ए कुळना मळरूप थाय छे त्यारे जेम सुरा मद करावे तेम एवा लोकोने कुळ वगेरेनुं जाति अभिमान थाय छे. एवा लोको भगवन्नाम लेवाने लायक रहेता नथी. कदाच मुखथी नामनो उच्चार करे तो पण (मद) नशामां बोलायेलुं होवाथी एओना मुखथी ए नाम साम्भळवा लायक रहेतुं नथी. जेम ब्राह्मण सुरापान करी मदवाळो बने ते वेदोच्चार पण करे खरो तो पण ए एनुं बोलेल वाक्य ब्राह्मणना मुखथी उच्चारायेलुं होवा छतां श्रवणीय नथी तेम कुळमदवाळाए उच्चारेल भगवन्नाम पण श्रवणने योग्य नथी. ए तो एक कुळनी ज वात करी. तेम ज ऐश्वर्य, सम्पत्ति अने शास्त्रश्रवण थी पण जो ए जीव मदवाळो थाय तो ए पूर्वोक्तनी जेम मदवाळो होवाथी ए भगवन्नामना उच्चारणने लायक रहेतो नथी. तेथी ज [[५७]] ‘‘विद्यामदो धनमदः तृतीयोऽभिजनो मदः, एते मदा मदान्धानां तएव तु सतां दमाः’’ ए श्लोक लोकमां प्रसिद्ध छे. उपर गणावेला जन्म, ऐश्वर्य अने शास्त्रश्रवण सत्पुरुषोना पण थाय छे ते भगवद्‌भजनने योग्य छे, पण जेने ऐश्वर्यादि मदो उत्पन्न थाय छे ते ज भगवन्नामने अयोग्य थाय छे. जोके भक्तिमां सर्वनो अधिकार छे, छतां कृत्रिम मदिरादिना सेवनथी वेदाधिकार निवृत्त थाय छे तेम भक्तिनो अधिकार पण निवृत्त थाय छे त्यारे तेना मुखथी कदाच भगवन्नाम नीकळे तो पण ए उन्मत्तप्रलपित कहेवाय. ए साम्भळवाथी गुण न थतां दोष थाय छे. तेथी एना आचारथी कोई व्यवस्थित कार्य सिद्ध थतुं नथी. शङ्का - ‘‘जन्मकर्मावदातानाम्‌’’ इत्यादिथी सत्कुळमां जन्म होय तेनी तो विशेष योग्यता कही छे तेथी एवाने वेदोनो अधिकार मद थाय छतां रहे. भगवानने तो तमे सर्वात्मा कहो छो एनां नाम तो सर्वदा लेवाने अधिकार होवो जोईए. ‘‘चक्राकिन्तस्य नामानि सदा सर्वत्र कीर्तयेत्‌’’ एम स्मृति कहे छे. ‘‘पतितः स्खलितः’’ इत्यादि वाकयथी बधी अवस्थामां ए भजनीय छे, महापातकी पण भगवन्नामथी पवित्र थाय छे तो पछी मदवाळानो अधिकार नहि एम केम कही शकाय? उत्तर - ए शङ्काना उत्तरमां कहे छे के ए भगवानने उपर जणावेल जन्म, ऐश्वर्य वगेरे धर्म विनाना निःसाधन भक्तो ज पामी शके छे तेथी पूर्वोक्त जन्मैश्वर्यादि मदवाळाने स्वरूपथी अधिकार जतो नथी पण एने भक्तिनुं फळ मळतुं नथी. फलतः अनधिकार छे एटले भगवान्‌ हृदयमां आवता नथी. भगवानना गुण मुखमां आवता नथी अने आवे छे तो व्यवहार मात्रमां आवे छे, शौचार्थ गङ्गाजळनी जेम. अकिञ्चन-निःसाधन भक्तो ज भगवानने प्राप्त करी शके छे तेथी, आजे पण मदथी मत्त थयेल साथे कोई व्यवहार करी शक्तो नथी तेथी एमनी पासे भगवान्‌ त्यारे पण न होवाथी एनो अधिकार भगवन्नामना उच्चारोमां पण होतो नथी. श्रीमदाचार्यचरण चतुर्विध मदवाळाने नामोच्चारनो अधिकार नथी एम विस्तारथी श्रीसुबोधिनीजीमां लखे छे एनुं कारण ए ज के जो ए जीवो पर भगवत्कृपा होय तो आपेल जन्मादि एओने मादक न थाय. पण ज्यारे एओने जन्मादिथी मद थाय छे त्यारे ए भगवत्कृपानो विषय न होवाथी भक्तोए पण एवाओ तरफ उपेक्षा करवी योग्य छे. तेथी ज दृष्टान्तमां सुराने लीधी छे. जे सुरानां घ्राण-भक्षथी पण द्विज पतित थाय छे. तेथी एवा लोकोथी दूर रहेवामां श्रीमदाचार्यचरणना कथननुं तात्पर्य छे.
[[५८]] अकिञ्चनना धनरूप, (अकिञ्चन जेमनुं धन छे) जेओना गुणोनी वृत्तिओ निवृत्त थई छे तेवा लोकोनी साथे सम्बन्ध राखनारा, आत्माराम छो अने कैवल्यना (मोक्षना) आप पति तेवा शान्तस्वरूप आपने हुं नमस्कार करुं छुम् ॥२६॥

आप कालस्वरूप छो. आपनामां आदि अने अन्त एवो व्यवहार सम्भवतो नथी, कारण के आप नित्य छो. काळरूप होवाथी सर्वने वश करनार ईश्वर छो; सर्वमां समानताथी रहेनार छो. जेनाथी परस्पर एक जीव होय छतां बन्नेमां काळ होवाथी बन्ने काळनी प्रेरणाथी कजियो करी जुदा पडे छे; आ सर्व आपनी लीला आपना अधिकारी काळथी थाय छे एम मारुं मानवुं छे ॥२७॥

आप मनुष्यनुं अनुकरण करी, शुं करवानी इच्छाथी आम करो छो ए कोईने जाणी शकतुं नथी. आपने कदी कोई कयांय पण प्रिय नथी तेम ज द्वेष करवा योग्य नथी. आपना स्वरूपमां कोईने विषम बुद्धि उत्पन्न थाय तेवो धर्म आपनामां जोवामां आवतो नथी ॥२८॥

हे विश्वात्मा! आप अजन्मा अने अकर्ता छो छतां आप जळचर, पशु, देव, अने मनुष्यमां पोताना जन्म अने कर्म बतावो छो ए केवळ नाटक मात्र ज छे ॥२९॥

एक वखत आपे पथ्थर मारी दर्हीनुं पात्र फोड्युं हतुं त्यारे माता यशोदा दोरडुं लईने पाछळ दोडी आव्यां अने आपने पकड्या त्यारे आपे मुख नीचुं करी दीधुं. आङ्खमां आंसु आववाथी आञ्जण रेलाई गयुं. ए समयना आपना स्वरूपनो विचार करुं छुं तो मारी बुद्धिमां मोह थाय छे. कारण के सर्वने भय करनार काळने तो आपनो ज भय छे तो पछी आप यशोदाजीथी डर्या ए आपनुं चरित्र मन घणो मोह करे छे ॥३०॥

पवित्र यशवाळा यदुराजा पुष्टिमार्गीय भक्त होवाथी एमनी कीर्ति वधारवाने माटे मलयमां जेम चन्दनवृक्ष थाय छे तेम अजन्मा आपनुं प्रगटवुं थयुं छे एम केटलाक कहे छे ॥३१॥

बीजाओ एम कहे छे के आप अजन्मा छो छतां ज्यारे घणी प्रार्थना थई त्यारे वसुदेवनां पत्नी देवकीजीमां आ लोकनुं कल्याण करवाने अने असुरोनो संहार करवाने आप पधार्या छो ॥३२॥

केटलाक वळी एम कहे छे के जेम समुद्रमां घणां भारथी नाव डूबवानी तैयारी [[५९]] उपर होय एमान्थी भार ओछो करवामां आवे तो ज ए डूबतुं बचे तेम पृथ्वी उपर दुष्टोनो भार वधवाथी पृथ्वी दुःखी थवा लागी तेनो भार उतारवानी ब्रह्माए प्रार्थना करी तेथी आप पधार्या छो ॥३३॥

आ संसारमां जन्म लईने अविद्या, काम अने कर्म थी पीडाता लोकोना उद्धार थाय तेवां कर्म करवामाटे आप पधार्या छो के जे कर्मोनां *श्रवण अने स्मरण करवाथी अविद्या वगेरेथी थयेला क्लेशथी लोको मुक्त थाय एम बीजाओ कहे छे ॥३४॥

विशेष - जेम शास्त्रे कह्युं के गङ्गामां स्नान करवुं तो एनो अर्थ एवो न समजवो के गङ्गा आपणी पासे आवे तो आपणे स्नान करीए; परन्तु परिश्रम करी त्यां जवुं; गङ्गामां ऊतरवानो रस्तो-घाट न होय तो ए तैयार करी एमां ऊतरीने स्नान करवुं एवो अर्थ छे. एम अर्ही साम्भळवुं एम कह्युं तेथी कोई वक्ता आवी सम्भळावी जाय तो साम्भळवुं एवो अर्थ करवानो नथी पण एने माटे प्रयत्न करवो. ज्यां भगवद्भक्तो रहेता होय त्यां जवुं, एमनी पासे स्वयं नम्रताथी वर्तीए, जे कहे ते ध्यान दई मननो संयम करी साम्भळवुं. जे मनुष्यो आपनुं चरित्र श्रवण करे छे, *गान करे छे, मुखथी वारंवार उच्चारे छे, स्मरण करे छे तमारी लीलानां वखाण करी एमां आनन्द पामे छे ते पुरुषो ज संसारने निवृत्त करनार आपना चरणनुं थोडाज समयमां दर्शन करे छे ॥३५॥

विशेष - श्रवण थया पछी हृदयमां प्रभु प्रकट थाय त्यारे रसपरवशताथी एनुं कीर्तन करवुं तेम ज आगळ रस वधतां कोईने उद्‌देशीने ए बीजाने कहेवुं एम एनो क्रम समजवो. भक्तवाञ्छाकल्पतरु-प्रभो! शुं हवे आप आटले समये थयेला शुद्ध हृदयवाळा अमो दासने छोडी जशो? आपना चरण कमल सिवाय बीजो कोई सहारो अमारे नथी एटले आप पधारी जशो तो-तो अमारुं जीवन ज नहि टके. बीजे समये आप अर्हीथी पधारता त्यारे अमारुं कंईक काम बाकी राखीने पधारता. हवे कोई कार्य बाकी रहेलुं नहि होवाथी कदाच आप फरीथी न पण पधारो. एक या बीजे निमित्ते बधा राजाओ साथे वेर थई चूक्युं छे. तेथी आपनी रक्षा विना अमारुं जीवन ज अशकय छे ॥३६॥

यादवो तेमज अमारा नाम अने रूप नुं शुं महत्त्व छे? जो आपनुं दर्शन बन्ध थाय तो प्राण वगरनी इन्द्रियो जेवी अमारी बन्ने कुळनी गति थाय ॥३७॥

हे गदाधर! आप द्वारका पधारशो त्यारे ध्वजा, वज्र वगेरे चिह्‌नवाळा आपनां स्वज्ञापक विलक्षण चरणारविन्दथी अत्यारे पृथ्वी जेवी शोभे छे तेवी शोभा रहेशे
[[६०]] नहि ॥३८॥

आ सुन्दर डाङ्गर वगेरे औषधि अने द्राक्ष वगेरे लता वगेरेथी शोभा आपता आ देशो अत्यारे आपनी कृपादृष्टिथी समुद्धिवाळा देखाय छे. वनो, पर्वतो, नदीओ अने जलाशयो आपनी दृष्टिवडे ज नित्य वृद्धि अने समुद्धि ने प्राप्त थाय छे ॥३९॥

हे विश्वना ईश्वर! हे विश्वना आत्मा! हे विश्वमूर्ते! पाण्डु अने वृष्णि कुळ ए बेमां मारो स्नेह छे ते स्नेहपाशने आप कापी नाखो ॥४०॥

अने गङ्गानो प्रवाह जेम समुद्रमां अविच्छिन्न चालतो रहे छे तेम हे मधुपते! मारी बुद्धि बधुं छोडी साक्षात्‌ आपना स्वरूपमां रति करे एवुं करो ॥४१॥

हे श्रीकृष्ण! हे अर्जुनना सखा! यदुवंश शिरोमणि! पृथ्वीनो द्रोह करनार राजाओने बाळनार! अविनाशी वीर्यवाळा! गोविन्द! गाय ब्राह्मण अने देवताओ नां दुःखने दूर करवामाटे वैकुण्ठथी भूतळ उपर पधारनार! हे योगेश्वर! अखिलगुरो! हे भगवन्‌! आपने हुं नमस्कार करुं छुम् ॥४२॥

सूतजी बोल्याः घणां अव्यक्त मधुर पदोवडे कुन्तीजीए सर्व तरफथी भगवाननुं यशोगान कर्युं त्यारे भगवान्‌ वैकुण्ठ पोतानी मायावडे जाणे एने मोह करता होय तेम हसवा लाग्या ॥४३॥

तेने ‘‘बहु सारुं’’ एम कही, हस्तिनापुरमां प्रवेश करी, स्त्रीवर्गनी रजा लई पोताना नगर द्वारका तरफ जवानी तैयारी करता भगवानने राजा युधिष्ठिरे प्रेमने लीधे रोक्या ॥४४॥

(भगवान्‌ अर्ही अद्‌भुत लीला करे छे. केमके जे मुक्त छे तेने मोहमां नाखे छे, जे मोहमां पडेला छे तेने मुक्त करे छे. आ भगवाननी लीला छे तेथी हवे युधिष्ठिरना मोहनी वात करे छे के) भगवानना अभिप्रायने जाणनार व्यासादि मुनिओ अने खास कृष्णे अनेक इतिहासोनां दृष्टान्त आपीने समजाव्या तो पण युधिष्ठिरने एवो शोक थयो के ए शोकमान्थी छूटी शकया नहि ॥४५॥

हे विप्रो! पोताना कुटुम्बनो संहार थयो छे एनो विचार करतां युधिष्ठिर, देहात्मबुद्धिवडे स्नेह अने मोह ने वश थई बोल्या ॥४६॥

अरेरे! आ देह पारको छे ए देहने माटे अनेक अक्षौहिणी सैन्यने मारनार दुरात्मा एवो जे हुं ते मारा हृदयमां घर करी रहेल मारुं अज्ञान तमे जुओ ॥४७॥

[[६१]] बाळको, ब्राह्मणो, मित्रो, सम्बन्धीओ, वडीलो, भाईओ, गुरुओ ए बधान्नो में द्रोह कर्यो तेथी मने करोडो वर्षे पण नरकमान्थी मुक्त थवानो वखत नहि आवे ॥४८॥

वळी प्रजापालक राजा धर्मयुद्ध करे तो एमां शत्रुनो वध थाय एनुं राजाने पाप लागतुं नथी ए शास्त्रनुं वचन मने गळे उतरतुं नथी ॥४९॥

एनाथी मारा मननुं समाधान थई शकतुं नथी, कारण के जेमना पतिओने में मारी नाख्या छे ते स्त्रीओ मारी दुश्मन न हती; एमनो द्रोह जे में कर्यो ते दोषनुं गृहस्थनां कोई पण कर्मोवडे मार्जन करवानुं मारुं गजुं नथी ॥५०॥

यथा पङ्केन पङ्काम्भः सुरया वा सुराकृतम्‌ । भूतहत्यां तथैवैकां न यज्ञैर्मार्ष्टुमर्हति ॥५१॥

जेम कादवने दूर करवामाटे कादववाळा पाणीथी, दारूनो स्पर्श मटाडवाने माटे बीजा दारूथी एने धोवुं ए पूर्व दोषने दूर करी शकतुं नथी तेम यज्ञो करवाथी एक पण प्राणीने मारवाना पापने दूर करी शकवाने समर्थ कोई न थाय ॥५१॥

इति श्रीभागवत्‌ प्रथम स्कन्धमां (उत्तमप्रकरणनो बीजो) ‘‘ब्रह्मास्त्रथी रक्षा अने भगवाननी स्तुति’’ नामनो आठमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. सावधान! सावधान!! सावधान!!! षोडशग्रन्थना ज्ञान विनानुं कोरुं भागवतनुं श्रवण-पठन-मनन पुष्टिमार्गीने गेरमार्गे दोरनारुं पण बनी शके छे.

अध्याय ९

शरपञ्जर पीडित भीष्मनी मुक्ति

विशेष - आ अध्यायमां लोकप्रतीतिथी ज्यारे भगवान्‌ युधिष्ठिरने राज्य अपावी ए कार्य पूरुं करी रह्या त्यारे हवे भागवतना श्रोता परीक्षितना देहनी रक्षानी कथा कहेवाय छे. आ नवमा अध्यायमां भीष्मनी मुक्तिनुं वर्णन छे. भीष्म जे धर्मो कहेशे तेनाथी राजाना मोहनी निवृत्ति थशे. भीष्मनी मुक्ति भगवानना सान्निध्यथी थशे. एमां समजवानुं के भक्त होय पण जो
[[६२]] ईं उं ईं उम्भगवाननो द्रोह करे तो ए नरकमां जाय पण जो भगवान्‌ पोते कृपा करे तो एवाने पण मुक्ति आपे एम बताववामाटे शरपञ्जरनी स्थिति नरकरूपे वर्णवी छे. भगवाने बुद्धिनुं दान कर्युं त्यारे भीष्मे स्तुति करी छे. आ अध्यायमां २४ श्लोकथी भीष्म पासे जवुं अने भीष्मनां वाक्य छे; सात श्लोकथी त्यान्ना खबर छे, अगियार श्लोकथी भीष्मस्तुति छे, त्रण श्लोकथी एमनी मुक्ति कही छे अने चार श्लोकथी त्यार पछीनो वृतान्त छे. सूत उवाच इति भीतः प्रजाद्रोहात्‌ सर्वधर्मविवित्सया ॥ ततो विनशनं प्रागाद्‌ यत्र देवव्रतोऽपतत्‌ ॥१॥

सूतजी बोल्या - ए प्रमाणे धर्मने जाणवानी इच्छावाळा अने प्रजाना द्रोहथी भय पामेला युधिष्ठिर राजा त्यान्थी कुरुक्षेत्र गया के ज्यां देवव्रत* भीष्म लडाईमां शस्त्रोथी घवाईने पड्या हता ॥१॥

विशेष - भगवान्‌ सत्यव्रत छे तेवा भीष्म पण छे. ‘देवव्रत’ एटले सत्य प्रतिज्ञावाळा तेनुं ब्रह्मचर्य पण सत्य छे. त्यारे सोनाना साजवाळा घोडा तथा रथ उपर सवार थई लडाईमान्थी एना भाईओ अने व्यास, धौम्य वगेरे ब्राह्मणो पण एमनी पाछळ गया ॥२॥

हे विप्रवर्य! अर्जुनने सारथि तरीके साथे लईने रथमां बिराजी भगवान्‌ पण त्यां पधार्या त्यारे गुह्यकोथी कुबेर* शोभे तेम युधिष्ठिर शोभवा लाग्या ॥३॥

विशेष - कुबेर = कुत्सितं बेरमणि यस्य. खराब छे आङ्ख जेनी ते. आथी एम सूचवायुं के बहार प्रकाश घणो, अन्तरमां अन्धारुं. तेवी रीते युधिष्ठिर पण शोकग्रस्त हता; बहारनो प्रकाश-साम्राज्य, विजय पुष्कळ लाध्यो छतां. जाणे के स्वर्गथी कोई देवता पड्यो होय एवा पृथ्वी उपर पडेला भीष्मने जोईने पोतानी पाछळ आवेला सर्वनी साथे कृष्ण अने पाण्डवो भीष्मने प्रणाम करवा लाग्या ॥४॥

भरतकुळमां श्रेष्ठ भीष्मने जोवाने त्यां ब्रह्मर्षि, देवर्षि अने राजर्षिओ आवी रहेला हता ॥५॥

पर्वत, नारद, धौम्य, भगवान्‌ व्यास, बृहदश्व, भरद्वाज तथा शिष्यनी साथे परशुरामजी -ए सात सात्त्विक ॥६॥

वसिष्ठ, इन्द्रप्रमद, त्रित, गृत्समद, असित, कक्षीवान्‌ गौतम, अत्रि, विश्वामित्र, [[६३]] सुदर्शन, बीजा राजसो ॥७॥

अने पवित्र शुकदेवजी वगेरे मुनिओ तथा कश्यप अने बृहस्पति वगेरे शिष्यो सहित त्यां पधार्या ॥८॥

ए भेगा थयेला मुनिमण्डलने तथा बीजाओने जोईने देशकाळनो विभाग जाणता होवाथी महाभाग, धर्मज्ञ भीष्मे ए बधानी पूजा करी ॥९॥

जेमणे मायाथी शरीर ग्रहण कर्युं छे छतां जगत्‌ना ईश्वर छे, जेमना प्रतापनो हालमां ज पोते अनुभव कर्यो छे तेवा अन्तर्यामी कृष्णनी पूजा करी ॥१०॥

पोतानां नेत्रमां स्नेहनां अश्रु आववाथी आङ्खो पोतानुं कार्य नथी करी शक्ती तेवां नेत्रवडे भीष्मपितामह पासे बेठेला तथा विनय अने स्नेहवाळा पाण्डुपुत्रोने जोई एमने उपदेश आपवानी बुद्धिथी आ प्रमाणे कहेवा लाग्या ॥११॥

भीष्मे कह्युं - अरेरे! आ केटला दुःखनी* वात छे; आ केटलो मोटो अन्याय छे! के विप्रधर्म तथा अच्युत भगवानना आश्रयवाळा हे धर्मपुत्रो! तमो दुःखमय जीवन जीवो ए योग्यनथी ॥१२॥

विशेष - बीज, स्वभाव तथा शरीर ना धर्म अने अधर्मवडे जीव सुख अने दुःखने कर्ममार्ग प्रमाणे भोगवे छे. ए दोष न होय तो एने दुःख होतुं नथी. धर्मपुत्र होवाथी तमारामां बीजदोष नथी. ब्राह्मणना आश्रित होवाथी स्वभावदोष नथी. (स्वभाव दोषवाळा त्रण प्रकारे धर्मनो आश्रय नथी करता; नीतिथी अविरुद्ध, स्वभावशुद्ध अने ईश्वर सम्बन्धी ब्राह्मणनो आश्रय करनार नीतिने जाणनार होवाथी नीतिथी विरोध आवे एवुं करतो नथी. धर्म पोतानो आश्रय करनारने शुद्ध करे छे. ईश्वराश्रित होवाथी ईश्वर सम्बन्धी धर्म स्फुरे छे. आ एक धर्म जेनामां होय ते पण दुःख न पामे तो तमारामां त्रणे होवाथी दुःखनी सम्भावना पण न होवी जोईए). तथापि तमने दुःख पड्युं ए आश्चर्यनी वात छे. तमारा जेवानुं दुःख जोई साधुपुरुषने खेद थाय छे तेथी उपर दुःख तथा अन्यायनी वात छे एम भीष्मनुं कथन छे. तमारा पिता अधिरथ पाण्डु ज्यारे मर्या त्यारे तमो बहु नाना हता. ए दिवसोमां नानी उम्मरनी कुन्तीराणीए वारंवार अनेक क्लेशो तमारे माटे विना कारण सहन कर्या ॥१३॥

तमारुं आ प्रमाणे जे अप्रिय थयुं ते हुं तो काळनुं कर्तव्य मानुं छुं. जेम वादळान्नी घटाने वायु धारे त्यां खेञ्ची जाय छे. तेम इन्द्रादि लोकपालथी लईने बधा लोक काळने वश छे ॥१४॥

[[६४]] ज्यां धर्मना पुत्र राजा होय, हाथमां गदा राखी तैयार रहेला भीमसेन अने गाण्डीव धनुषवाळा अस्त्रज्ञ अर्जुन अने मित्र श्रीकृष्ण होय त्यां पण विपत्ति एज दुःखनी वातछे! ॥१५॥

आ भगवाने शुं करवा धार्युं छे ते कोई जाणी शक्तुं नथी, कारण के विशेष जाणवाने इच्छता कवि लोको पण मोह पामे छे ॥१६॥

माटे हे भरतश्रेष्ठ! आ बधुं दैवने अधीन छे एम मानी, नाथ! ए दैव अथवा भगवानने अनुसरी तमे आ अनाथ प्रजाना नाथ थई हे समर्थ! एनुं पालन करो ॥१७॥

आ भगवान्‌ साक्षात्‌ आद्य नारायण छे ए पोतानी मायाथी लोकने मोहमां नाखता यादवोमां गुप्त रीते फरे छे ॥१८॥

आ कृष्णनो गुप्त प्रभाव ते तो शिवजी जाणे छे, कां तो देवर्षि नारद अथवा तो हे राजन्‌! कपिलदेवजी जाणे छे के जे साक्षात्‌ भगवान्‌ छे ॥१९॥

तमे जेने मामाना पुत्र समजो छो, प्रेमी, मित्र तथा सद्‌भावयुक्त निष्कपट हितेच्छु समजो छो अने तेथी ज सलाहकार, दूत अने मित्रता ने लईने एने सारथि पण तमे कर्या ॥२०॥

ते सर्वात्मा, समदृष्टिवाळा, द्वैतरहित, अहङ्काररहित अने निष्पाप तेवा आ कृष्णने मतिवैषम्य* नथी ॥२१॥

विशेष - आ प्रिय अने अप्रिय आवो भेद ते मति वैषम्य=बुद्धिनुं विषमपणुं; आवुं भगवान्‌मां न होवाथी एओ सर्वने समदृष्टिथी जोनार छे. तो पण हे भूप! एकान्त भक्तने विशे एमनी कृपा तो तमो जुओ के मारा प्राणना प्रयाणवेळाए ए कृष्णे मने साक्षात्‌ दर्शन आप्याम् ॥२२॥

भक्तिवडे मननो आवेश भगवान्‌मां करीने के वाणीवडे नाम लईने देह छोडनारो योगी* कर्मनी वासनाने छोडी दे छे ॥२३॥

विशेष - प्रथम योग करतो होय पण पछी जो मात्र मनमां ज भगवाननुं चिन्तन करे अथवा मुखथी नाम मात्र ग्रहण करे एटला मात्रथी पण कर्मोनी निवृत्ति थाय छे; एटले योगादिथी भक्ति श्रेष्ठ छे एम कहेवानुं हार्द छे. देवना देव, प्रसन्न हासथी हसता लाल नेत्रयुक्त मुखारविन्दवाळा ए भगवान्‌ कृष्ण, जेमनुं दर्शन बीजा लोकोने फक्त ध्यानमां ज थाय छे ते, हुं ज्यां सुधी देहनो [[६५]] त्याग न करुं त्यां सुधी आप अर्ही बिराजजो ॥२४॥

सूतजी बोल्या - युधिष्ठिर ए बधुं साम्भळी शरपञ्जर उपर सूतेला भीष्मने बधा ऋषिओ साम्भळे तेम अनेक प्रकारना धर्म पूछवा लाग्या ॥२५॥

पुरुषना स्वभावने लईने कहेला, वर्ण अने आश्रम ने अनुसरीने कहेला, वैराग्य अने प्रीति ने उद्‌देशीने कहेला ॥२६॥

दानधर्म, राजधर्म अने मोक्षधर्मो एमना अवान्तर भेदो, स्त्रीधर्मो, भगवद्धर्म ए बधाने सङ्क्षेपथी तेमज विस्तारथी वर्णव्या ॥२७॥

धर्म, अर्थ, काम अने मोक्ष ए मेळववाना उपाय ए नाना प्रकारनां आख्यान अने इतिहासो नां तत्त्वने जाणनार होवाथी वर्णन करवा लाग्या ॥२८॥

भीष्मपितामह धर्मो कहेता हता एवामां एवो काळ हाजर थयो के जेनी स्वतन्त्र रीते मरनार योगी लोको देहत्यागमाटे इच्छा करे छे, जेने ‘उत्तरायण’ कहे छे ॥२९॥

हजारो योद्धाओने शस्त्रथी अथवा वचनथी नष्ट करे तेवा भीष्म बोलतां बन्ध थई भगवान्‌ आदिपुरुष, पीताम्बरधारी आगळ ऊभेला चतुर्भुज श्रीकृष्णमां सर्व सङ्गथी मुक्त थयेल मनने लगाडी दीधुम् ॥३०॥

शस्त्रोना प्रहारथी थयेली वेदना तो भगवानना दर्शनमात्रथी तुरन्त दूर थई गई हती. भगवाननी विशुद्ध धारणाथी एमनां जे कंई बच्यां-खूच्यां अशुभ हता ए बधा नाश पाम्यां. हवे शरीर छोडवाने वखते पोतानी बधी इन्द्रियोना वृत्ति- विलास थम्भावी दीधां अने प्रेमपूर्वक, अविद्याना नाशक होवानी तेमणे स्तुति करी॥३१॥

भीष्म बोल्या - एवी रीते यादवोमां श्रेष्ठ, अक्षरथी पर छे तेवा भगवान्‌ स्वसुखमां रमतां कोई वखत लोकोमां फरवामाटे स्वभावरूप प्रकृतिने प्राप्त थाय छे, जे प्रकृतिना सम्बन्धथी आ जन्मादिनो प्रवाह थाय छे तेवा भगवान्‌मां लोभरहित मारी बुद्धि* जे में छेल्ला श्वास सुधी मारापणाथी गणी छे ते अर्पण करुं छुं ॥३२॥

विशेष - भगवान्‌ तद्रूपे थवाथी पदार्थ बधा भगवद्रूप छे ते बधामां मारापणाथी जीवबुद्धि करे छे. जेनाथी अहन्ता-ममता वगेरे दुःखहेतु ऊभा थाय छे ते बुद्धिने एना कार्यथी रोकी भगवान्‌मां अर्पण करवाथी कोई बाधक पदार्थ न रह्यो तेथी बुद्धिनुं अर्पण कर्युं छे.
[[६६]] वाङ्कडियावाळना समूहथी र्वीटायेला मुखवाळा श्रीअङ्गने धारण करनार, त्रिभुवनमां कामना करवा योग्य, श्याम तमाल जेवा, सूर्यनां किरण जेवां पीताम्बरने धारण करनार, अर्जुनना मित्र साकार श्रीकृष्णमां मारी विशुद्ध प्रीति हो ॥३३॥

जेमां *शस्त्रप्रहारथी चामडी भेदाई जाय छे तेवा युद्धमां घोडानी खरीथी ऊडेली रजवडे धूसरा अने चोतरफ वीखरायेला वाळने लागेल थाकना पसीनानां टीपान्थी जेमनुं श्रीमुख शोभे छे तेवा शोभायमान कवचवाळा श्रीकृष्णमां मारो आत्मा हो ॥३४॥

विशेष - ‘‘मम निशितशरैः विभिद्यमानत्वचि’’ आ विशेषणमां भीष्मपितामह भक्त होवाथी ‘‘मारा बाणथी कृष्णनी त्वचा विकृत थई छे’’ एम कहे तो एनुं भक्तपणुं जाय माटे एम न कहे एवा भावथी वैष्णव टीकाकारो ‘‘तीक्ष्ण बाणथी मारी त्वचाने भगवाने भेदी छे’’ एवो अथवा ‘‘युद्धमां लडनारनी मारा बाणथी त्वचा भेदाई छे तेवा सङ्ग्राममां’’ एम युद्धनुं

विशेषण करवुं एवो अर्थ करे छे. श्रीआचार्यचरण तो वेदोनां वाक्योनो विपरीत अर्थ करीने ईश्वर अने धर्म नुं खण्डन करनारां कुतर्कवादीओनां तीव्र वाक्य बाणोथी वेदभगवाननी त्वचाचामडी भेदाई गयेल होवा छतां ‘‘विलसत्‌ कवचे’’ ते वेदवाक्योनो साचो अर्थ श्रीसुबोधिनीजीमां करीने रक्षण करनारा भक्तोनां अने तत्त्ववेत्ताओनां वाकयो रूपी कवचथी शोभतां श्रीकृष्णमां मारो आत्मा रहो एवो उत्तम अर्थ करे छे. मित्र अर्जुनना कहेवाथी पोताना अने शत्रुना सैन्यनी वच्चे रथने जलदी लावी स्थिति करनार तथा परसैन्यनुं आयुष्य दृष्टिथी* हरनारा, अर्जुनना मित्रमां मारी बुद्धि रहो ॥३५॥

विशेष - अचिन्त्य अने अनन्त शक्तिथी कोटि ब्रह्माण्डना जन्म,स्थिति अने प्रलय करनारने दृष्टिथी सैनिकनुं आयुष्य हरण करवुं अशक््य नथी. दूर रहेली पोतानी अने दुश्मनोनी बन्ने सेनानां अग्र भाग जोईने गुरु वगेरेनी हत्यामां दोष छे तेवी बुद्धिथी स्वजनना वधथी युद्धविमुख थता अर्जुनने आत्मविद्यानुं दान करी कुबुद्धि* मटाडनार परम पुरुष श्रीकृष्णना चरणमां मारी प्रीति हो ॥३६॥

विशेष - अर्जुनने गुरु वगेरेनी हत्या दोषयुक्त लागी तेथी एम करवुं एने योग्य न लाग्युं त्यारे भगवानने तो अर्जुनादि द्वारा पृथ्वीनो भार ओछो करवो छे, अर्जुनने मात्र निमित्त करवो छे, तेथी त्यां अर्जुनने ब्रह्मविद्या कही अने सर्वकर्तृत्व भगवान्‌मां छे एम बताव्युं. [[६७]] तेथी अर्जुननी ‘‘गुरुने मारवाथी मने दोष थशे’’ एवी बुद्धि जो के ठीक छे तो पण भगवद्‌धारणाथी ते जुदी होवाथी अर्ही एने कुबुद्धि कही छे. तेथी भक्तने भगवदाज्ञापालन ए सुबुद्धि अने भगवाननी इच्छा विरुद्ध करवुं ते कुबुद्धि एवुं पण तात्पर्य अर्ही प्रकट जणाय छे. अर्ही शङ्का थाय के त्यारे बधाने मार्या एनी हिंसानो दोष न लागे! त्यां एनुं समाधान वाळन्दना दृष्टान्तथी समजवुं. जेम शरीरथी उत्पन्न थयेल वाळने वाळन्द कापी नाखे छे ए जो के वाळने माटे अनिष्ट छे पण ए वाळवाळाने सफाई थवाथी आनन्द आपनार छे तेम टूङ्की बुद्धिवाळाने दुष्टने मारवुं पापरूप लागे पण जगन्नियन्ताना सृष्टिना क्रमना ए विरोधी होवाथी एने दूर करी सृष्टिनुं भलुं करनार एना कर्ताने ए प्रिय होवाथी एनो दोष न लागे. ईश्वर मरनारनो पण जडांश निवृत्त करे छे तेथी मरनारनुं पण तेमां श्रेय होवाथी ए मरवुं पण भगवत्समीप होवाथी श्रेयस्कर छे. जेमना खभा उपरथी खेस सरी गयो छे तेवा भगवान्‌ मारी प्रतिज्ञा* पाळवाने माटे पोतानी प्रतिज्ञाने तोडता, रथमां रहीने चक्र श्रीहस्तमां धारण करनार, जेम हाथीने मारवाने सिंह दोडे तेम मारी सामे पधार्या त्यारे पृथ्वी कम्पवा लागी ॥३७॥

विशेष - भीष्मे प्रतिज्ञा करेल के हुं जो भगवानने शस्त्र धरावुं तो ज खरो भीष्म. भगवान्‌ दन्तवक्‌त्रने मारीने बोल्या छे के ‘‘हवे हुं शस्त्र नहि धरुं’’. तेथी पुरुषोत्तमनामसहस्रमां ‘न्यस्तशस्त्रास्त्रविग्रहः’ एवुं नाम छे. कौरवयुद्धमां पधार्या त्यारे ‘‘अयुध्यमानो- ऽहमेकतः’’ हुं एक तरफ युद्ध नहि करीने रहीश —-एम कह्युं छे. आनुं समाधान ए ज के भगवाने आयुध धारण कर्युं छे, तेनो उपयोग नथी कर्यो. तेथी भगवाननी प्रतिज्ञानो भङ्ग न थयो अने भीष्मनी वात पण रही छे. आ श्लोकमां ‘‘मारी रति हो’’ एम नथी कह्युं एनुं कारण ए ज के अत्यारे भगवाने भक्त उपर रति करी छे. भीष्मने तो ‘‘में चक्र प्रभुने धराव्युं’’ एवुं अभिमान थयुं छे तेथी प्रार्थना नथी करी. कट्टर पाखण्डीओने खतम करनार, *जेमां मच्छरोनो नाश थयेल छे तेवा समये अर्थात्‌ शियाळा अने उनाळा मां थयेल छे चाठां जेमने तेवा दिग्विजय करवा नीकळेला क्षत्रियो अने सन्न्यासीओ तेवा पुरुषोथी चारे तरफ र्वीटायेला, जे मारो आततायीनो (युद्ध न करनार कृष्ण साथे युद्ध करनार भीष्म) पराणे वध करवा पधार्या ते भगवान्‌ मुकुन्द मारी गति हो ॥३८॥

विशेष - प्रथमनां बे विशेषणनो आचार्यश्री पूर्वनी जेम आध्यात्मिक अर्थ करे छे. अर्जुनना रथने कुटुम्बरूप माननार, जेमणे चाबूक ग्रहण कर्यो छे तेवा, घोडानी
[[६८]] लगाम छे हाथमां जेमनां तेवा, ए समये दर्शन लायक स्वरूपवाळा तेवा भगवान्‌मां मरवाने इच्छतो तेवो हुं भीष्म तेनी बुद्धि हो. जेनां दर्शन करतां-करतां मृत्यु पामेला सद्‌गतिने पाम्या छे तेमां में तो अन्त समये स्नेह कर्यो छे तेथी ज छेवट सुधीनी *रतिने माटे प्रार्थना करुं छुम् ॥३९॥

विशेष - ‘‘कामं क्रोधं’’ ए श्लोकमां ‘‘नित्यं हरौ विदधतः’’ एम कह्युं छे एनुं तात्पर्य ए ज के भगवान्‌मां स्नेह, काम, क्रोध के बीजा दोष के गुण जे योजवो ते छेवट सुधी करो तो ज एने भगवद्रूप फळ मळे छे; नहि तो बीजे मन जवाथी ‘‘अन्ते या मतिः सा गतिः’’ ए न्यायथी भगवानने माटे करेलुं बधुं अन्यशेष थई जाय तो ए भगवद्रूप फळ आपतुं नथी; तेथी भीष्मे छेल्ला श्वास सुधी रतिनी प्रार्थना करी छे. वळी सुन्दर गतिना विलासथी, मनोहर हास्य अने प्रेमपूर्वक जोवाथी जेमने बहुमान प्राप्त थयुं छे ते कयां सुधी के ए मानना मदमां भगवानना खभा उपर चडवानी इच्छा करतां गोपीजनो भगवल्लीलाना अनुकरण मात्रथी कृतकृत्य थयां, स्वरूपने प्राप्त थयां (ते स्वरूपमां मने परम प्रेम हो) ॥४०॥

मुनिसमुदाय अने यज्ञ श्रेष्ठ राजाओथी पूर्ण तेवी, युधिष्ठिर राजानी राजसूय यज्ञनी सभामां प्रथम पूजन जेमनुं थयुं छे तेथीज दर्शनपात्र बनेला, आ भगवान्‌ मारी दृष्टि समक्ष प्रकट बिराजे छे ॥४१॥

स्वस्वरूपमान्थी कल्पेला शरीरधारी जीवोना प्रत्येक हृदयमां बिराजता; जेम सूर्य एक छे छतां दरेक प्राणीनी आङ्खे जुदो जोवामां आवे छे तेवा आ भगवानने भेद-मोह वगेरे छोडी हुं शरणे जाउं छुम् ॥४२॥

सूतजीए कह्युं - मन, वाणी अने दृष्टि थी भगवान्‌ श्रीकृष्णमां स्वात्माने अर्पी ए भीष्मे श्वासने अन्दर ज विराम कराव्यो एटले देह छोड्यो ॥४३॥

जेम साञ्ज समये दिवस वीती जता पक्षीओ मौन धारण करे तेम निष्कळ ब्रह्ममां प्रवेश करता भीष्मने जाणी सर्व मौन थई रह्या ॥४४॥

देवताए प्रेरेलां दुन्दुभि आकाशमां वागवां लाग्यां. आकाशमान्थी पुष्पनी वृष्टि थई. राजाओमां जे सज्जन हता ते आ कार्यनी प्रशंसा करवा लाग्या ॥४५॥

भरतकुळमां उत्पन्न थयेला युधिष्ठिर राजा मृत्यु पामेला भीष्मना देहनी अन्त्येष्टि क्रिया करावीने अमुक समयमाटे शोकमग्न थई गया ॥४६॥

ऋषिओ भगवाननां गुह्य नामोथी स्तुति करवा लाग्या. अने हृदयमां श्रीकृष्णने [[६९]] पधरावी सर्व पोतपोताने आश्रमे पहोञ्च्या ॥४७॥

युधिष्ठिर कृष्णनी साथे हस्तिनापुर जई काका धृतराष्ट्र अने तपस्विनी गान्धारीने दिलासो देवा लाग्या ॥४८॥

पित्रा चानुमतो राजा वासुदेवानुमोदितः ॥ चकार राज्यं धर्मेण पितृपैतामहं विभुः ॥४९॥

मन्त्रीमण्डल तथा काका धृतराष्ट्रनी सम्मतिथी तथा श्रीकृष्णना अनुमोदनथी बापदादानां राज्यनुं युधिष्ठिर राजा स्वधर्म पूर्वक पालन करवा लाग्या ॥४९॥

इति श्रीभागवत प्रथम स्कन्धमां (उत्तमप्रकरणनो त्रीजो) ‘‘शर पञ्जर पीडित भीष्मनी मुक्ति’’ नामनो नवमो अध्याय सम्पूर्ण. भागवत कथाथी धुन्धुकारी जेवा पापी मृतकनो उद्धार थशे के नर्ही ते तो भगवान्‌ जाणे परन्तु श्रीमहाप्रभुजीनी आज्ञाथी विपरीत जईने मृतकना उद्धारार्थे भागवत बेसाडनार, तेवी कथा माटे आज्ञा आपनार गुरु तेमज तेवी भागवत वाञ्चनार कथाकार त्रणेय पुष्टिमार्गीओ(?) गुरुद्रोहरूपी घोर पापथी कदी छूटी नर्ही शके.

अध्याय १०

पाण्डवोनुं सुख

विशेषः भीष्मनी मुक्तिनुं निरूपण भगवाननी चिन्ता दूर करवामाटे आथी पहेलाना अध्यायमां कर्युं. पाण्डवोने आ लोकमां ज सर्व सुख भगवाने आप्युं एनुं वर्णन बे अध्यायथी कहेवाय छे. तेमां प्रथम पाण्डवोनुं सुख बतावे छे. जेनुं सुख कृष्णने अधीन होय ते सुखी कहेवाय छे. तेथी आ अध्यायमां सर्वनी कृष्णपरायणता कहेवामां आवशे. आ दशमा अध्यायमां १४ श्लोकथी भगवत्प्रयाणनुं वर्णन, १० श्लोकथी पुरस्त्रीनां वाकयनुं वर्णन, छ श्लोकथी द्वारका पहोञ्च्यानुं वर्णन एवी रीते ३५ श्लोक छे. हत्वा स्वरिक्‌थस्पृध आततायिनो युधिष्ठिरो धर्मभृतां वरिष्ठः ॥ सहानुजैः प्रत्यवरुद्धभोजनः कथं प्रवृत्तः किमकारषीत्‌ ततः ॥१॥

शौनक पूछे छे - पोताना धनने हडप करी जवानी इच्छा करनार, शस्त्र लईने
[[७०]] ईं उं ईं उम्मारवा आवनार आततायी लोकोने मारी धार्मिक शिरोमणि श्रेष्ठ युधिष्ठिर राजा भोजन पालनमां भाईओने साथे राखी कार्य करनारा थई केवी रीते राज्य करर्युं अने एमणे शुं कर्युं? ॥१॥

सूतजीए कह्युं - वंशना दावाग्निरूप अश्वत्थामाना अस्त्रथी बळेल वंशाङ्कुरने जीवतो करीने तथा युधिष्ठिरने पोताना राज्यना मालिक बनावीने भगवान्‌ अत्यन्त प्रसन्न थया ॥२॥

भीष्मे तथा अच्युत भगवाने कहेलुं साम्भळी हृदयमां धारण करीने उच्च ज्ञानथी भ्रमोने दूर करीने भीम, अर्जुन वगेरे चार भाईओ जेमने अनुसरे छे तेवा युधिष्ठिर राजा भगवाननो आश्रय राखीने इन्द्रनी पेठे राज्य करवा मण्ड्या ॥३॥

एमना शासनमां लोकनी इच्छा प्रमाणे मेघ वर्षवा लाग्यो; पृथ्वी सर्व कामने पूर्ण करनारी थई, मोटा *ओधस-आउवाळी गायो, दोहनार अने वासण आवे न आवे त्यां तो, दूधघणुं होवाथी, गोशाळाओनुं ज आनन्दपूर्वक दूधथी सिञ्चन करती ॥४॥

विशेष - गायना शरीरमां क्षीराशय होय छे. ज्यान्थी चार आञ्चळमान्थी दूध नीकळे छे तेनुं नाम ‘ओधस’ जेने सौराष्ट्रवासीओ ‘आउ’ कहे छे. नदीओ, समुद्रो, पर्वतो, वेलो, वनस्पतिओ, ओषधिओ पोतपोताना समयमां फळवा लाग्या ॥५॥

लोकोमां मननी अने शरीरनी चिन्ता न रही. आधिभौतिक वगेरे त्रण ताप युधिष्ठिरना राज्यमां कोईने जोवामां न आव्या ॥६॥

भगवान्‌ केटलाक मास सुहृदोना शोकने मटाडवा तथा बहेन सुभद्रानुं प्रिय करवा *हस्तिनापुरमां रह्या ॥७॥

विशेष - हस्ती नामनो राजा हतो. तेणे वसावेलुं माटे ‘हस्तिनापुर’ एवुं संस्कृतमां नाम पड्युं छे. भगवान्‌ एमां रह्या माटे हस्तीना समग्र-वंशनी मुक्ति थई. ए भगवान्‌ जे मथुरादि स्थळे निरन्तर बिराजे ए स्थळ बीजाने मुक्ति आपनार थाय. भगवान्‌ अमुक समय ज रहे तो एवुं थाय एवो नियम नथी तेथी काळना स्वल्पांशरूप मास कह्या छे. पछी ज्यारे प्रभुए युधिष्ठिर पासे द्वारका जवानी रजा मागी त्यारे राजाए प्रभुने आलिङ्गन करी रजा आपी. प्रभु एमने प्रणाम करी रथमां बिराज्यां. समान उम्मरवाळाओए प्रभुने आलिङ्गन कर्युं. नानी उम्मरवाळाओए प्रभुने प्रणाम कर्या [[७१]] ॥८॥

त्यारे सुभद्रा, द्रौपदी, कुन्ती, उत्तरा, गान्धारी, धृतराष्ट्र, सात्यकि, कृपाचार्य, नकुल, सहदेव, भीम, धौम्य अने बीजा ब्राह्मणो, सत्यवती वगेरे बीजी स्त्रीओ ए बधान्ने, मूर्छित जेवां थई जवाथी, भगवाननो वियोग सहन करवो अशकय थयो ॥९-१०॥

सत्सङ्गवडे जेनो दुःसङ्ग छूट्यो छे तेवो पुरुष सत्सङ्गने छोडवानो उत्साह नथी करतो, कारण के सन्तो भगवानना यश गाय छे ते एक वार साम्भळवाथी पण मनने रुचे छे. तेथी कुन्तीना पुत्रोए तो भगवान्‌मां ज बुद्धिने रोकी छे ते भगवाननो विरह केम सहन करी शके? ॥११॥

दर्शन, स्पर्श, वातचीत, सूवुं, साथे बेसवुं अने भोजन करवुं ए छ क्रिया पाण्डवोने भगवान्‌ साथे नित्य थती तेथी भगवान्‌ विदाय थाय छे त्यारे पाण्डवोनुं चित्त पण भगवाननी पाछळ दोडे छे. बधा भगवाननां दर्शन करे छे, स्नेहथी बन्धायेलां आम-तेम फरे छे ॥१२॥

बन्धुजननी स्त्रीओ देवकीजीना पुत्र भगवान्‌ घरथी बहार पधारे छे तेने अपशुकन न थाय तेवा विचारथी नेत्रमां ज आंसुने रोकी राखे छे ॥१३॥

मृदङ्ग, ढोल, पणव, नगारां, नोबत ए पाञ्च वाद्यो; शङ्ख, गोमुख अने फूङ्कवाना वाद्यो, घण्टा अने घूघरी, घनभेद अने वीणा तन्तुरूप एम चार प्रकारनां वाजिन्त्र वागवा लाग्याम् ॥१४॥

कौरवनी स्त्रीओ प्रेम, लज्जा अने मन्दहास्यवाळां मुखवाळी थई, हवेलीना उपरना भाग उपर चडी भगवद्‌दर्शननी इच्छाथी फूलोनी वृष्टि करवा लागी ॥१५॥

पोताने अत्यन्त प्रिय तेवा भगवाननी उपर मोतीनी झालरवाळुं अने रत्नना हाथावाळुं सफेद छत्र अर्जुने प्रीतियुक्त थईने धर्युम् ॥१६॥

उद्धवजी तथा सात्यकिए स्वतः शीतल अने सुगन्धी पवन जेमान्थी नीकळे छे तेवा परम अद्‌भुत पङ्खा लीधा. मार्गमां फूलोनी वृष्टि जेमना उपर थती आवे छे तेवा मधुपतिनी शोभा थई ॥१७॥

ब्राह्मणोनां ठेकठेकाणे आशीर्वचन सम्भळायां. ए वचन निर्गुणने प्रतिकूळ अने सगुणने अनुकूळ एम बन्ने प्रकारनां ए समये साम्भळवामां आव्याम् ॥१८॥

ए समये भगवान्‌मां ज जेनुं चित्त छे तेवा कौरवेन्द्र युधिष्ठिरना हस्तिनापुरनी
[[७२]] स्त्रीओ बधान्ना कानने अने मनने सुन्दर लागे तेवी परस्पर वातचीत करवा लागी ॥१९॥

स्त्रीओ बोली - ‘‘जेमने जाणवाथी बधुं जणाएलुं थाय छे’’ ए श्रुति प्रमाणे मूळ भगवानने जाणवा जोईए. तो भगवान्‌ कोण? एम अपेक्षा थाय तो आ एनो खुलासो - कोई पण जातनी उपासना, उपदेश के विचार विना, जेमना सान्निध्य मात्रथी आपणे सर्वज्ञ (बधुं जाणनारा) थई जईए ते भगवान्‌. तेथी आ श्रीकृष्ण ज भगवान्‌ छे. गुणोनी उत्पत्ति पहेलां जगत्‌ना आत्मारूप भगवान्‌ जीवोने स्वस्वरूपमां लीन करे छे, शक्तिओ पण स्वरूपमां ज लीन थाय छे त्यारे जे स्वरूपे एकला रहे छे ते ज आ पुराणपुरुष श्रीकृष्ण छे एम निश्चय समजो ॥२०॥

वेद वगेरे शास्त्रना कर्ता जे आद्यपुरुष ते स्वरूपमां नाम अने रूप करवामाटे पोतानी जीवने मोह करनारी* अने सृष्टि करवानी इच्छावाळी मायाने फरी अनुसर्या ॥२१॥

विशेष - माया बे प्रकारनी छे. एक तो स्वप्रतिकृतिथी सम्बद्ध भगवानने जगद्‌रूपे बतावे छे अने बीजी पोतानी इच्छाथी उत्पन्न थयेल जीवने मोह करे छे. आ बीजी मायाने ‘जीवमाया’ शब्दथी मूलमां कही छे. (सुबोधिनीजी) जेमनां चरण पामवाने इन्द्रियो अने प्राण नुं नियमन करी भक्तिथी उभराता अन्तःकरणवडे भक्तो जोई शके छे ते आ श्रीकृष्ण छे. ते ज आत्मामां रहेल प्रकृति कार्यने दूर करवाने समर्थ छे ॥२२॥

भगवाननी गुप्त लीलाओ कहेनारा लोकोए गुप्त कहेलां तेवां उपनिषदोमां सख्यभक्ति सुधी पहोञ्चेला भक्तोए गायेल तेवा आ भगवान्‌ छे, जे समग्र जगत्‌ना ईश्वर छे. आ जगत्‌ने पोतानी क्रीडारूपे उत्पन्न करे छे, रक्षण करे छे अने स्वरूपमां लीन करे छे, छतां एमां आसक्त थतां नथी ॥२३॥

ज्यारे तामस बुद्धिवाळा राजाओ अधर्मथी जीवन चलावे छे त्यारे प्रजानो उदयनेमाटे आ ज भगवान्‌, सत्त्वनी प्रेरणाथी ऐश्वर्य, सत्य, ऋत्‌, दया अने यशनो अङ्गीकार करी युग-युगमां स्वरूपने धारण करी अर्ही पधारे छे ॥२४॥

कयां तो पिता ययातिए जेने शाप आपेलो छे अने लोकमां निन्दित एवा यदु अने कयां तेना कुलनी उत्तमता? ते कुलमां भगवाननो अवतार थयेलो होवाथी लोक [[७३]] ते वंश सम्बन्धी तमामने याद करी नमी पडे छे. यदुवंश सर्वथी अधिक प्रशंसा करवा योग्य छे. एवी ज रीते मधु दैत्यना सम्बन्धवाळुं होवा छतां मधुवन पहेलां सत्पुरुषोना वासविहोणुं हतुं. वन होवाथी डरामणुं हतुं. दैत्य अने भय होवाथी भगवाननुं स्मरण पण त्यां न थाय तो भगवान्‌ तो कयान्थी ज होय? छतां ते उत्तम थयुं कारण के उत्तम पुरुष, लक्ष्मीपतिए पोताना जन्म अने फरवाथी तेने सुशोभित कर्युं छे ॥२५॥

कुश नामना दैत्यनी भूमि, अर्थात्‌ कुशस्थली आ द्वारका पृथ्वीना पवित्र यशने वधारे छे, स्वर्गना यशनो तिरस्कार करे छे. कारण के त्यान्नी प्रजा हसता मुखवाळा अने कृपा करनार होवाथी इच्छेला तेवा पोताना पति आ भगवाननां नित्य दर्शन करे छे ॥२६॥

आ श्रीकृष्णे जेओनुं पाणिग्रहण कर्युं छे तेवी कृष्णपत्नीओए पूर्वे व्रत, स्नान अने होमथी ईश्वरने सारी रीते प्रसन्न करेला होवां जोईए. कारण के हे सखीओ! तेओ वारंवार कृष्णना अधरामृतनुं पान करे छे, जे अधरामृतने माटे व्रजनी स्त्रीओ मोह पाम्यां हताम् ॥२७॥

स्वयंवरमां शिशुपाल वगेरे दुष्ट राजाओने कचडीने जेमने पोताना बाहुबलथी, वीर्यरूप किम्मत चूकवीने लावेली तथा जेमना पूत्रो प्रद्युम्न, साम्ब, अम्ब वगेरे छे ते रुक्‌मिणी, जाम्बुवती, मित्रविन्दा वगेरे आठ पटराणीओने भगवान्‌ हरण करी लाव्या तथा भौमासुरने मारीने लाववामां आवेली सोळ हजार पत्नीओ छे ते खरेखर धन्य छे! ॥२८॥

स्त्रीपणामां नथी पवित्रता के नथी विशेष चातुर्य तो पण कृष्णपत्नीओनुं स्त्रीपणुं घणुञ्ज उत्तम छे केमके कमलनयन भगवान्‌ ए स्त्रीओनां हृदयमां प्रेमनी वृद्धि करता तेमनां घर छोडी बीजे पधारता पण नथी. तेथी कृष्णपत्नीओनुं स्त्रीत्व धन्य छे ॥२९॥

एम बोलती नागरिक स्त्रीओने स्मितपूर्वक निहाळता अभिनन्दन करता भगवान्‌ हस्तिनापुरथी पधार्या ॥३०॥

बीजा राजाओथी शङ्काशील थयेल युधिष्ठिर राजाए भगवान्‌ पधारे छे तेमना रक्षणमाटे स्नेहवशात्‌ चतुरङ्गिणी सेना साथे मोकली ॥३१॥

विरहथी व्याकुळ थयेल दृढ स्नेहवाळा कौरवो दूर सुधी आव्या. तेओने भगवाने
[[७४]] पाछा वाळ्या अने पोते स्वनगर तरफ प्रयाण कर्युम् ॥३२॥

हस्तिनापुर देश, पञ्जाबनो थोडो भाग, पाञ्चाळ देश, शूरसेनना राज्यनो प्रदेश, यमुनाजीनो प्रदेश, ब्रह्मावर्त, कुरुक्षेत्र, मत्स्यदेश, सरस्वतीना काण्ठानो देश ॥३३॥

मरुदेश, सौवीर अने आभीरोना देशमां थई द्वारका मण्डळ तरफ, हे भार्गव!, आनर्त देशना छेडे भगवान्‌ पधार्या. समर्थ भगवान्‌ एटलुं पधार्या एमां घोडाओने थोडोक थाक लाग्यो ॥३४॥

तत्र तत्र ह तत्रत्यैर्हरिः प्रत्युद्यतार्हणः ॥ सायं भेजे दिशं पश्चाद्‌ गविष्ठो गां गतस्तदा ॥३५॥

ज्यां-ज्यां भगवान्‌ पधार्या त्यां-त्यान्ना लोको भेटो लई भगवाननां पूजन करता गया. सूर्यास्त समये भगवान्‌ द्वारका पधार्या ॥३५॥

इति श्रीभागवत प्रथमस्कन्धमां (उत्तमप्रकरणनो ४ थो) ‘‘पाण्डवोनुं सुख’’नामनो दसमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. … श्रीभागवतमादरात्‌। पठनीयं प्रयत्नेन निर्हेतुकमदम्भतः॥ कोई पण लौकिक(पैसा-टका कमाववा, फण्ड-फाळा)-पारलौकिक (मृतकनो उद्धार, पितृदोषनुं निवारण) हेतु के ढोङ्ग विना आदर पूर्वक प्रयत्न पूर्वक जातेज, श्रीभागवतनोनो पाठ करवो जोईए. (श्रीवल्लभाचार्य)

अध्याय ११

द्वारकावासी भक्तोनुं सुख

विशेष - एम कौरव भक्तोना सुखनुं वर्णन दसमा अध्यायमां करवामां आव्युं. आ अगियारमां अध्यायमां द्वारकामां रहेला भक्तोना सुखनुं वर्णन करवामां आवशे. प्रवेश, प्रविष्ट अने तेमां स्थिति एम त्रण प्रकारनो उत्सव आमां कहेवाय छे. भगवाननुं स्वरूप शास्त्रथी जाणनारने पण प्राकृतनां जेवो स्नेह थई गयो ए कृष्णनी इच्छाथी ज थाय एम कहेवाने भगवाननुं द्वारका पधारवानुं वर्णन करे छे. प्रथम शङ्खनाद कर्या पछी स्नेहवाळानां दर्शन थयां. पछी [[७५]] ईं उं ईं उम्बधाए भगवाननी स्तुति करी. भगवानना विरहथी पीडित लोको पासे भगवान्‌ न जाय माटे प्रथम भगवाने शङ्ख वगाडी पोताना आगमननुं सूचन कर्युं तेथी लोकोने आनन्द थयो. द्वारका जलदुर्ग छे. तेमां पहेलां ओखा मण्डळमां प्रवेश कर्यो पछी द्वारका प्रवेश एम विभागथी वर्णन छे. आनर्तान्‌ स उपव्रज्य स्वृद्धान्‌ जनपदान्‌ स्वकान्‌ ॥ दध्मौ दरवरं तेषां विषादं शमयन्निव ॥१॥

सूतजी बोल्या - भगवान्‌ समृद्धिवाळा पोताना आनर्त देशमां पहोञ्च्या के तरत ए लोकोनां दुःख जाणे दूर करता होय तेम श्रेष्ठ शङ्ख आपे वगाड्यो ॥१॥

भगवानना होठोनी लालीथी लाल थयेल ते सफेद वर्णनो शङ्ख वागती वखते एमने करकमलोमां एवो शोभवा लाग्यो, जाणे के लाल रङ्गना कमलो उपर बेसीने कोई राजहंस उच्च स्वरथी मधुर गान करी रह्यो होय ॥२॥

संसारना भयने भयभीत करे तेवो शङ्खध्वनि साम्भळी स्वामीनां दर्शननी लालसावाळी सर्व प्रजा गामनी बहार दर्शन करवा नीकळी आवी ॥३॥

जेम सूर्यने दीवो धरे छे तेम नित्य निजलाभथी सदा पूर्णकाम अने आत्माराम श्रीकृष्णने प्रजाए पोतानी शक्ति प्रमाणे भेट करी ॥४॥

प्रीतिथी बधाना मुख खीली उठ्यां. हर्षथी गद्‌गदित कण्ठथी प्रजा पिताने बाळक पोतानी तोतडी बोलीमां कहे तेम बधाना मित्र अने संरक्षक प्रभुने कहेवा लागी ॥५॥

ज्यां बीजा उपर सत्ता चलावनार काळनुं चालतुं नथी तेवुं अने ब्रह्मा, शिव अने इन्द्रादि जेने वन्दन करे छे तेवुं कल्याणनी इच्छावाळाना परम आश्रयरूप आपना चरणकमळने हे नाथ! अमो सदा नमस्कार करीए छीए ॥६॥

जेनी सेवा करवाथी अमे कृतार्थ थईए तेवा आप अमारां माता, पिता, सुहृद, पति, गुरु अने परम दैवत छो. ते आप हे विश्वनुं कल्याण करनार! अमारुं कल्याण करो ॥७॥

अहा, अमे आपने प्राप्त करीने सनाथ थई गया. कारण के आप पोते अर्ही पधारीने अमारां सर्व कार्यो पूर्ण करो छो तेथी आपना सर्व सौन्दर्यसार अनुपमरूपना अमे दर्शन करतां रहीए छीए. केवुं सुन्दर मुख छे! प्रेमपूर्ण हास्यवाळी स्नेह टपकती दृष्टि! आ दर्शन तो देवताओने पण दुर्लभ छे. भगवाननां दर्शन ज पहेलां
[[७६]] तो दुर्लभ छे. तेमां पण सन्मुख रहीने दर्शन थवां वधारे दुर्लभ छे. तेमां पण भगवाननी दृष्टि पोतानी उपर चडे ते सौथी दुर्लभ. तेमां पण दृष्टि दया अने स्नेहवाळी! ते अमारा उपर पडी. भगवदीओ माटे आ सिवाय बीजो कोई उत्कर्ष नथी ॥८॥

हे कमल नयन कृष्ण! सुहृद्‌ने जोवानी इच्छाथी ज्यारे हस्तिनापुर के मथुरा वगेरेमां आप पधारो छो त्यारे हे अच्युत! आपना विना अमारी एक क्षण करोडो वर्ष जेवी थाय छे के जेवी सूर्य वगरनी क्षण आङ्खने थाय ॥९॥

भक्तोए बोलेली एवी वाणी साम्भळता अने दृष्टिथी अनुकम्पा बतावता भगवाने द्वारकापुरीमां प्रवेश कर्यो ॥१०॥

मधु, भोज, दाशार्ह, कुकुर, अन्धक अने वृष्णि एवा छ प्रकारना यादवोथी – पोतपोताना आत्माने योग्य बळवाळा नागो पाताळमां जेम (गङ्गानुं) भोगवतीनुं रक्षण करे छे तेम –सुरक्षित करायेली, सर्व ऋतुमां सर्व वैभवने आपनारी, पवित्र वृक्ष, लतावाळा बगीचाओ अने जलाशयोथी शोभती एवी; दरवाजा उपरना भागमां तोरणथी शोभती विचित्र प्रकरनां ध्वजा, पताका, तोरणथी जेनो ताप रोकाई गयो छे तेवी, मोटा रस्ताओ, नानी गलीओ, चोको साफ करेला छे. अने सुगन्धी जलनां सिञ्चन थयां छे तथा अङ्कुर उगाडेला छे तेवा मार्गोवाळी; रस्ताना दरेक घरनी पासे दर्ही, चोखा, नाळियेर अने शेरडीथी शोभा करेली छे तेवी; पूर्णकुम्भ राख्यां छे, बलि मूकया छे तथा दीवा मूकवाथी शोभावाळी तेवी द्वारका नगरीमां भगवान्‌ पधार्या ॥११-१५॥

प्रियतम भगवानने पधारेला जाणी महामना वसुदेव, अक्रूर, उग्रसेन अद्‌भुत पराक्रमवाळा बळदेव, प्रद्युम्न, चारुदेष्ण, जाम्बवतीना पुत्र साम्ब ए सर्वेए अत्यन्त हर्षना आवेशथी सूवुं, बेसवुं, भोजन करवुं वगेरे छोडी दीधां. गजराजने आगळ करी मङ्गळ पदार्थयुक्त ब्राह्मणोनी साथे शङ्ख, तुरी वगेरे वाद्यो अने ब्राह्मणोना वेदोना घोषो साथे रथोमां बेसी, प्रेमथी जेमने भय थयो छे तेवा स्वागत करवा गया. आदरपूर्वक भगवाननां दर्शनमां उत्कण्ठावाळी, शोभायमान कुण्डळना प्रकाशथी शोभता कपोलथी मुखनी शोभावाळी सेङ्कडो वाराङ्गनाओ तथा नट, नर्तक, गान करनार, सूत, मागध बन्दिजन वगेरे भगवानना यशोगान करता स्वागत करवा सामे आव्याम् ॥१६-२०॥

[[७७]] भगवान्‌ प्रथम बान्धवोने, पछी गामना लोकोने, पछी सेवकोने जेवो जेनो सम्बन्ध हतो ते प्रमाणे बधान्ने मान आपवा लाग्या अने लोकोए आपेलां मानने स्वीकारवा लाग्या ॥२१॥

कोईने नमस्कार, कोईने भेटवानुं, कोईनी साथे हाथ मीलाव्या, कोईने मन्दहास्य करीने अने कोईने आश्वासन आपीने, चाण्डाल सुधी बधान्ने जे इच्छित हतुं ते आपीने प्रसन्न कर्या ॥२२॥

स्त्रीओ साथे मुरब्बीओ विप्रो अने वृद्वोए प्रभुने आशीर्वाद आप्या, पछी बान्धवोनी साथे प्रभु नगरमां पधार्या ॥२३॥

कृष्ण ज्यारे राजमार्ग उपर पधार्या त्यारे द्वारकानी स्त्रीओ भगवाननां दर्शन थशे तेथी जेओना मनमां मोटो आनन्द छे तेवी बधी घरनी मेडीओ उपर चडी ॥२४॥

जो के द्वारकाना भगवाननां नित्य दर्शन करे छे तो पण शोभानी सीमारूप भगवानने जोईने कोईने तृप्ति थती नथी ॥२५॥

जे भगवाननुं वक्षःस्थल श्रीलक्ष्मीजीनुं निवासस्थान छे, जेमनुं श्रीमुख लक्ष्मीजीनी दृष्टिओनुं पानपात्र छे, जेमना बाहुओ लोकपालोना स्थानरूप छे अने जेमनुं चरणारविन्द *सारने गानारा भक्तजनोनुं, सारने जाणनारा ज्ञानीओनुं, योगिजनोनुं अथवा सदाचारी कर्मनिष्ठोनुं एम अनेक प्रकारना तत्त्वज्ञानीओनुं आश्रयस्थान छे एवा प्रभुना दिव्य दर्शनथी जीवने शी रीते तृप्ति थाय? ॥२६॥

विशेष - ‘‘सारङ्ग-सारं गच्छन्ति इति सारङ्गाः सदाचाराः कर्मनिष्ठाः. पुनश्च सरति इति सरः तस्य समूहः सारम्‌, रससमूहमिति यावत्‌. अक्षरव्यत्यासेन वा. ते कर्मफलार्थिनो विषयिणो योगिनो वा. पुनः सारं गच्छन्ति जानन्ति इति सारङ्गाः ज्ञानिनः. पुनः सारं गायन्ति इति सारङ्गाः भक्ताः. पुनः अरसहितं सुदर्शनसहितं सारं भगवन्तं सुदर्शनं वा. कालेन भीताः सन्तः गच्छन्ति गायान्ति वा ते सारङ्गाः सात्त्वताः’’ (श्रीसुबोधिनीजी). उपर छत्र बे बाजु चामरथी शोभता मार्गमां जेमना उपर पुष्पनी वृष्टि थई रही छे तथा कटि उपर पीताम्बर अने वनमाळानी शोभावाळा भगवान्‌, मेघनी उपर सूर्य, बे बाजु बे चन्द्र अने विद्युत तथा बे बाजु इन्द्रधनुष ए बधानी शोभा एकत्रित थाय तेवा शोभवा लाग्या ॥२७॥

भगवाने माता-पिताना गृहमां प्रवेश कर्यो. त्यां तेमने माताओए आलिङ्गन
[[७८]] कर्युं. देवकी वगेरे सात माताओना चरणो उपर मस्तक मूकीने भगवाने वन्दन कर्युं ॥२८॥

ए साते माताओ जेओना स्तनमान्थी दूध झरे छे तेवां स्नेहमां विह्‌वल थई श्रीकृष्णने गोदमां बेसाडी हर्षना आंसुथी भगवानने सिञ्चवा लाग्याम् ॥२९॥

उत्तमतामां जेनाथी कोई न वधे तेवा अने सर्व कामने पूर्ण करे तेवा स्वभवनमां पधार्या, ज्यां सोळ हजार पत्नीओना महेल छे ॥३०॥

परदेशथी बहु दिवसे आवेला पोताना पतिने जोईने जेओने मनमां महान उत्सव थयो छे तेवां, लज्जित नेत्रयुक्त मुखवाळां व्रतधारी भगवत्पत्नीओ भगवाननुं दर्शन थतां ज, जेवी अवस्थामां हतां तेवी ज अवस्थामां जल्दी आसनथी अने हृदयथी ऊभां थयाम् ॥३१॥

जेओनो दुरन्त भाव छे तेवां कृष्णपत्नीओ प्रथम पुत्रोद्वारा, पछी दृष्टिद्वारा अने पछी अन्तरात्माद्वारा भगवानने मळ्यां. हे भृगुवर्य शौनक, आनन्दनी विह्‌लताथी आनन्दाश्रु नेत्रमां रोकयां हतां ते पण लज्जावतीओनां नेत्रमान्थी सरी पड्या ॥३२॥

जो के भगवान्‌ एमनी पत्नीओनी समीप ज रहे छे तो पण बेउ भगवच्चरण क्षणे-क्षणे नवीन करतां पण नवीन ज जणाय छे तेथी एवा सुन्दरने जोवानुं कोण जतुं करे? चञ्चल स्वभाववाळां लक्ष्मीजी पण चञ्चळतारूपी स्वभावनो त्याग करी, कोई दिवस चरणने छोडतां नथी ॥३३॥

अनेक अक्षौहिणी वडे जेओनां तेज वधेलां छे तेवा अने पृथ्वीना भाररूप राजाओने परस्पर वेर करावी, वायुथी वधेलो अग्नि सर्वने बाळी शान्त थाय छे तेम निरायुध भगवान्‌ राजाओद्वारा सर्व भार उतारी पोते उपराम पाम्या ॥३४॥

ते ज भगवान्‌ स्वमायावडे आ नरलोकमां अवतरी सुन्दर स्त्रीओना समूहमां रही साधारण मनुष्यनी माफक तेमणे क्रीडा करी ॥३५॥

लज्जा-भय जेमां नथी ए उद्‌दामभाव कहेवाय; एनां सूचक सुन्दर हास अने लज्जा पूर्वक जोवुं; एटलां साधनथी जेमणे कामदेवने जीती लीधो छे तेथी ज मोह पामी कामे विचार्युं के मारुं कार्य मारी सेना (स्त्रीओ) ज करशे तो पछी धनुष्यनुं मारे कंई काम नथी. मारा करतां पण (कामदेव) पण मोह पमाडे छे तो बीजानुं तो गजुं ज शुं? जो के भगवत्पत्नीओ प्रमदाओमां श्रेष्ठ छे; एओए घणा कपटप्रयोग [[७९]] कर्या पण भगवानना मनने वश करवाने एओ समर्थ न थयाम् ॥३६॥

भगवान्‌ एवा असङ्ग छे तेने पण लोको सङ्गी माने छे, पोतानी जेम ज मनुष्य माने छे अने पोतानी जेम ज भगवान्‌ पण कामना करे छे एम माने छे, कारण के ए ओ मूर्ख होवाथी भगवत्स्वरूपने जाणतां नथी ॥३७॥

भगवाननी ए ज भगवत्ता छे के जे प्रकृतिमां रहे छे छतां प्रकृतिना गुणथी लेपाता नथी; जेम भगवाननो आश्रय करी रहेली बुद्धि प्रकृतिना गुणथी लिप्त थती नथी तेम ॥३८॥

तं मेनिरेऽबला मूढाः स्त्रैणं चानुव्रतं रहः ॥ अप्रमाणविदो भर्तुः ईश्वरं मतयो यथा ॥३९॥

हाथीने जोवो होय तो आङ्खोथी जोई शकाय; नाक, कान, स्पर्शथी नहि. छतां अन्ध पुरुषो स्पर्श करीने हाथीने जुए छे. तेम भगवानने भगवाननां शास्त्रो (श्रीभागवत्‌, गीता इत्यादि) थी ज जाणवा जोईए पण जुदी-जुदी मतिओ जुदुं-जुदुं कहे छे. जेम के केटलाक कहे छे के ईश्वर छे ज नहि. बीजा कहे छे के यज्ञ ए ज ईश्वर छे. त्रीजा वळी ईश्वर कर्ता ज छे एम कहे छे वगेरे. जेम भगवाने ज प्रवृत्त करेला तत्त्वज्ञान पोताना तर्कथी भगवानने खोटी रीते जाणे छे एम पतिनुं सत्य स्वरूप नहि जाणनारी मूढ अबलाओ श्रीकृष्ण भगवानने पोताना एकान्तसेवी स्त्रीलम्पट भक्त ज समजी बेठी हती ॥३९॥

इति श्रीभागवत्‌ प्रथमस्कन्धमां (उत्तमप्रकरणमां पाञ्चमो) ‘‘द्वारकावासी भक्तोनुं सुख’’नामनो अगियारमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. प्रभु सेवा-मनोरथ-कथा-कीर्तन जेवा पवित्र अलौकिक कोई पण प्रभुभक्तिमय प्रकारोना नामे सामग्री-भेट-दक्षिणा-न्योछावर माङ्गनार तेमज स्वीकारनार ने पुष्टिभक्तिमार्गमां पापीमां पापी, दुष्टमां दुष्ट, अधममां अधम जाणवा.
[[८०]]

ईं उं ईं उं

अध्याय १२

परीक्षितना जन्मनी कथा अश्वत्थाम्नोपसृष्टेन ब्रह्मशीर्ष्णोरुतेजसा ॥ उत्तराया हतो गर्भ ईशेनाजीवितः पुनः ॥१॥

शौनके पूछ्‌युं - अश्वत्थामाए छोडेला ब्रह्मास्त्रथी उत्तरानो गर्भ नाश पाम्यो तेने भगवाने फरी जीवतो कर्यो ॥१॥

महात्मा अने महाबुद्धिवाळा ए परीक्षितनां जन्म तथा कर्मो कहो! एमनुं मृत्युं केम थयुं ए तथा शरीर छोड्या पछी एमनुं शुं थयुं ए बधुं जो तमे मने कहेवा योग्य धारता हो तो हुं साम्भळवा इच्छुं छुं. तमने पण शुकदेवजीए ज्ञान आपेल छे तेथी श्रद्धावाळा एवा अमने आप कहो ॥२-३॥

सूतजीए कह्युं - कृष्णना चरणनी अनुवृत्ति-सेवा करवाथी सर्वकामथी निःस्पृह तेवा युधिष्ठिर राजा, पितानी जेम प्रजाने आनन्द आपता एनुं पालन करवा लाग्या ॥४॥

हे ब्राह्मणो! त्यारे सम्पत्ति, यज्ञो, पटराणीओ, भाईओ, पृथ्वी अने जम्बूद्वीपनुं राज्य तेमज स्वर्ग सुधी पहोञ्चेलो यश ए बधां युधिष्ठिरने कामना कर्या वगर मळेल छे. देवताओ जेनी झङ्खना करे तेवां बधां छे; परन्तु मुकुन्द भगवान्‌मां मनवाळा युधिष्ठिर राजाना मनने, भूख्याने जेम भोजन विना बीजी कामनाओ प्रसन्न करती नथी तेम, शुं प्रसन्न करी शके? अर्थात्‌ न करी शकयाम् ॥५-६॥

हे भृगुनन्दन शौनक! माताना गर्भमां रहेला परीक्षिते अस्त्रना तेजथी बळतां- बळतां कोई एक पुरुषनां ए समये दर्शन कर्या ॥७॥

अङ्गूठा जेवडा, स्वच्छ प्रकाशतां सुवर्णना मुकुटवाळा, घणा सुन्दर देखाववाळा, श्यामस्वरूप, वीजळीना जेवां वस्त्रवाळा, च्युति विनाना, लक्ष्मीयुक्त, लाम्बा चार बाहुवाळा तपेला सुवर्ण जेवां कुण्डलवाळा, रुधिर जेवां लाल नेत्रवाळा, हाथमां गदा लईने पोतानी चारे तरफ फरता, उम्बाडिया जेवी गदाने वारंवार फेरवता, सूर्य झाकळने जेम दूर करे तेम ब्रह्मास्त्रना तेजने दूर करता ने ‘‘मारी नजीकमां आ ते कोण?’’ एम में जोया. ते तेजने दूर करीने समर्थ अने धर्मनुं रक्षण करनार, जेनुं स्वरूप जाणी न शकाय तेवा भगवान्‌ ब्रह्मास्त्रना अग्निने शमावी दश मास बिराजी [[८१]] तेनां जोताञ्ज अन्तर्धानपाम्या ॥८-११॥

पछी सर्वे शुभगुणोवाळा समये ज्यारे बधा ग्रहो अनुकूळ थया त्यारे पराक्रममां पाण्डुराजा जेवा, पाण्डुना वंशने धारण करनार परीक्षित जन्म्याम् ॥१२॥

राजा युधिष्ठिर प्रसन्न थया अने धौम्य, कृपाचार्य वगेरे ब्राह्मणोने बोलावी स्वस्तिवाचनपूर्वक परीक्षितनुं जातकर्म कराव्युम् ॥१३॥

सोनुं, गाय, भूमि, गामो, हाथी, घोडो, इच्छित पदार्थो अने उत्तम अन्न-ए बधानुं तीर्थने जाणनारना कहेवाथी तीर्थविद साथे रहेला राजाए प्रजारूप तीर्थमां ब्राह्मणोने दान कर्युम् ॥१४॥

त्यारे ब्राह्मणो राजा उपर अत्यन्त प्रसन्न थया अने विनयथी नमन करता राजाने कहेवा लाग्या के हे पुरुकुळमां श्रेष्ठ युधिष्ठिर! कुरुवंशनी प्रजामां आ एक ज गर्भरूपे हतो; ते ज्यारे कोईथी हठावी न शकाय तेवा दैवथी नाश पामवानी अणी उपर हतो त्यारे, श्रीभागवत्‌ वगेरे स्वरूपथी उत्तम प्रकारे प्रकट थवानी इच्छावाळा भगवाने तमारा उपर अनुग्रह करी एनी गर्भमां रक्षा करी छे; माटे मोटी कीर्तिवाळो आ तमारो पुत्र ‘विष्णुरात’ नामे ओळखाशे; आ उत्तम भगवद्भक्त थशे एमां सन्देह नथी ॥१५-१७॥

राजाए पूछ्‌युं - हे वेदोनो अर्थ जाणनार उत्तम पुरुषो! आ बाळक अमारा वंशमां थयेल पवित्र यशवाळा महात्माओ अने राजर्षिओने यशथी अने साधु साथेनी वातचीतमां अनुसरशे? ॥१८॥

ब्राह्मणो बोल्या - हे राजन्‌! वैवस्वत मनुना पुत्र इक्ष्वाकुनी जेम आ प्रजानुं मन्त्रीओद्वारा नहि पण जाते पालन करशे, ब्राह्मणोनो भक्त थशे, दशरथना पुत्र रामनी जेवो सत्य प्रतिज्ञावाळो थशे, उशीनरना वंशमां थयेला शिबिराजाना जेवो दान आपनार थशे, शरणे आवनारनी रक्षा करनारो थशे, यशने फेलावनारो थशे अने दुष्यन्तना पुत्र भरतना जेवो पोताना सगाओना अने यज्ञ करनारमां यशस्वी थशे ॥१९-२०॥

सहस्रार्जुन अने अर्जुनना जेवो धनुर्विद्यामां निपुण थशे. अग्निनी पेठे दुर्घर्ष-उल्लङ्घन थाय नहि तेवो अने समुद्रनी जेम दुस्तर थशे ॥२१॥

सिंहना जेवो पराक्रमी, हिमालयनी जेम आश्रय करवा लायक, पृथ्वी जेवो क्षमावाळो, माबाप जेवो सहन करनारो ॥२२॥

[[८२]] ब्रह्माजी जेवो समतावाळो, शिवजीनी जेम प्रसन्न थनार, भगवाननी जेम सर्वने आश्रय आपनार ॥२३॥

सर्व सद्‌गुणना महिमामां कृष्णभक्त, रन्तिदेव जेवो उदार, ययाति जेवो धार्मिक ॥२४॥

धैर्यमां बलिराजा जेवो, प्रह्‌लादनी जेम कृष्णमां भक्तिमान, अश्वमेधो करनार, वृद्धोनी सेवा करनार ॥२५॥

राजर्षिओनो पिता अने उन्मार्गीने दण्ड आपनार अने धर्मने माटे कळियुगनो निग्रह करनार तमारो पुत्र थशे ॥२६॥

ब्राह्मणना पुत्रे मोकलेल तक्षक नागथी पोतानुं मृत्यु थशे एम साम्भळी सङ्गमुक्त थई भगवच्चरण पामशे ॥२७॥

व्यासना पुत्र शुकथी आत्मानुं स्वरूप जाणी गङ्गामां देह छोडीने निर्भय लोकने साक्षात्‌ प्राप्त करशे ॥२८॥

जातकने जाणनार ब्राह्मणो राजाने कही राजाए आपेलां दान वगरे लई, बधा पोतपोताने स्थाने गया ॥२९॥

ए ज आ लोक विख्यात परीक्षित राजा पूर्वे गर्भमां जे रूपने जोयुं छे तेनुं ध्यान करतां मनुष्यमां ए रूपनी परीक्षा करे छे ॥३०॥

ए राजपुत्र जेम शुक्ल पक्षमां रोज चन्द्र वधे तेम गुरुजनोना लालन पालनथी तेनी इच्छाओ पूरी थतां तेना शरीर अने बुद्धि जलदी विकास पाम्याम् ॥३१॥

ज्ञातिद्रोहना निवारणने इच्छता युधिष्ठिर अश्वमेध करवाने तत्पर थतां, कर अने दण्ड सिवायनुं द्रव्य जोईए एने माटे विचार करवा लाग्या ॥३२॥

युधिष्ठिरनो अभिप्राय जाणी, कृष्णनी प्रेरणाथी भीम वगेरे एमना भाईओ उत्तर दिशामान्थी घणुं धन लाव्या ॥३३॥

तेन सम्भृतसम्भारो धर्मपुत्रो युधिष्ठिरः ॥ वाजिमेधैस्त्रिभिर्भीतो यज्ञैः समयजद्धरिम्‌ ॥३४॥

धर्मना पुत्र युधिष्ठिरे एमान्थी यज्ञिय पदार्थो भेगा करी त्रण अश्वमेध यज्ञथी भगवाननुं सारी रीते यजन कर्युम् ॥३४॥

इति श्रीभागवत्‌ प्रथम स्कन्धमां (उत्तमप्रकरणमां छठ्ठो) ‘‘परीक्षितना जन्मनी कथा’’ नामनो बारमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. [[८३]] अध्याय १३ विदुरना उपदेशथी धृतराष्ट्रनुं नीकळवुं

विशेष - श्रीभागवत्‌ना श्रोता परीक्षितनी उत्पत्ति पूर्वना अध्यायमां कही; हवे एनी मुक्ति थवामाटे एना त्रण पुरुष (वडवाओ)नी मुक्तिनुं आ अध्यायमां वर्णन छे. अभिमन्यु, अर्जुन अने प्रपितामह धृतराष्ट्र एनी ‘मुक्ति’ कहेवाय छे. बे अध्यायवडे मुक्ति एटलामाटे कहेवामां आवे छे के जेना त्रिपुरुष मुक्त न होय तेनी मुक्ति थती नथी तेथी आ प्रमाणे वर्णन छे. तेथी आ तेरमा अध्यायममां ‘चित्तशुद्धि’ कहेवाय छे. पछीना अध्यायमां राज्य, शोर्य वगेरेना वर्णनथी इन्द्रियोनी शुद्धि कहेवाशे. त्यारबाद वैराग्य अने सत्सङ्गथी अधिकार सिद्ध थतां फळनी योग्यता थाय छे. आम न करे तो पुष्ट न थाय माटे पछीनी कथा कहेवामां आवे छे. विदुरस्तीर्थयात्रायां मैत्रेयादात्मनो गतिम्‌ । ज्ञात्वागाद्धास्तिनपुरं तया चात्मविवित्सितः ॥१॥

सूतजी बोल्या - विदुरे तीर्थयात्रमां मैत्रेय पासेथी भगवाननी लीला जाणी ए ज्ञानवडे उत्तम प्रकारे भगवाननुं स्वरूप जाणवामां आव्युं ए जाणी हस्तिनापुर गया ॥१॥

विदुरजीए मैत्रेयने जेटला प्रश्न कर्या तेनाथी ज भगवान्‌मां भक्ति* थई तेथी वधारे प्रश्न करवानुं छोडी दीधुं. युधिष्ठिर विदुरने आवेला जाणी नाना भाईओनी साथे धृतराष्ट्र, युयुत्सु, सञ्जय, कृपाचार्य, कुन्ती, गान्धारी, द्रौपदी, सुभद्रा, उत्तरा, द्रोणाचार्यनी पत्नी, पाण्डुनी बीजी कुलस्त्रीओ, पुत्रो अने सर्व तरफथी स्त्रीओ साथे ज्ञातिजनो सामे गया. त्यां जई योग्यता प्रमाणे कोई मळ्या; कोईए नमस्कार कर्या; अने जेम शरीरमां प्राण आवे हर्षथी भेट्या. विरहथी दीन थई प्रेमनां घणां आंसु उभरायां. राजाए आसन आपी एमनुं पूजन कर्युम् ॥२-६॥

विशेष - मैत्रेय पासे जई पोताने जाणवामाटे विदुरे घणुं पूछ्‌युं तेमां ज जाणवाथी बधुं जणाय छे ए न्यायथी भगवच्चसरित्र जाण्युं ते चरित्र बे स्कन्धथी जाणी लीधुं तेमान्थी विदुर एवुं समज्या के सर्व प्रभुने अधीन छे. ए जेम करशे तेम ज थशे. माटे केवळ एमनो आश्रय करीने रहेवुं. ए जेम प्रेरे ते एनुं कर्तव्य जाणी करवुं; तेथी धृतराष्ट्रने मुक्तिमाटे प्रेर्या त्यारे विदुर हस्तिनापुर आव्या. आवुं समज्या तेने बीजुं साम्भळवानी इच्छा न थई अने भक्तिना बळथी एटलाथी कृतार्थ थया एनो विस्तार आ पछी आवशे.
[[८४]] एमने जमाड्या, थाक ऊतर्यो अने सुखरूपे बेठा त्यारे बधाना साम्भळतां राजा युधिष्ठिरे विनयथी नम्र थई कह्युम् ॥७॥

युधिष्ठिरे पूछ्‌युं - विष, अग्नि वगेरे अनेक विपत्तिथी मारी मानी साथे अमने बधाने छोडावी, पोताना पक्षनी छायामां अमने तमे मोटा कर्या छे. आप अमने याद करो छो? ॥८॥

तमे तीर्थमां फरतां पृथ्वीमां कई आजीविकाथी रह्या? पृथ्वीमां मुख्य-मुख्य क्यां तीर्थो क्षेत्रोनुं सेवन कर्युं? ॥९॥

प्रभु! आपना सरखा भगवद्‌भक्तो पोते ज तीर्थ स्वरूप होई हृदयमां रहेला भगवान्‌ वडे तीर्थोने तीर्थ करे छे ॥१०॥

भाई, जेओना कृष्ण ज मुख्य देव छे तेवा आपणा सुहृदो बान्धवोने आपे जोया अथवा साम्भळ्या? तेओ पोताना नगरमां आनन्दमां छे? ॥११॥

ज्यारे धर्मराजाए आ प्रमाणे पूछ्‌युं त्यारे यदुकुलना क्षयने मूकीने बाकीनुं बधुं विदुरजीए जे अनुभव्युं हतुं ते क्रमथी राजाने कह्युम् ॥१२॥

दुःखथी पण सहन न थाय छे तेवुं अप्रिय वगर माग्ये प्राप्त थाय छे तो पण ए दुःखितने जोवाने असमर्थ, दयाळुए ते न कह्युम् ॥१३॥

मोटाभाईनुं श्रेय करवानी इच्छाथी देवनी पेठे सत्कार पामेला विदुरजी सर्वनो प्रेम जीती लेता केटलोक समय त्यां सुखपूर्वक रह्या ॥१४॥

पाप करनारने एना पापने लायक दण्ड करवानो यमराजानो अधिकार छे ते यमराजा शापथी सो वर्ष सुधी शूद्रपणाने पाम्या छे ते ज आ विदुर छे. ए शापनां सो वर्ष दरमियान पापीओने योग्य रीते दण्ड देवानुं काम अर्यमाए करेलुम् ॥१५॥

युधिष्ठिरने राज्य मळ्या पछी कुळने धारण करनार पौत्र परीक्षित अने लोकपाल जेवा भाईओनी साथे धर्मराजा अपूर्वलक्ष्मीथी आनन्द माणताहता ॥१६॥

एवी रीते घरोमां आसक्त थयेला घरमां करवा योग्यकार्यमां गाफेल रह्या अने परम दुस्तर काळ जोतजोतामां वही गयो ॥१७॥

विदुर आ बधुं जाणी गया अने धृतराष्ट्रने कह्युं - हे राजन्‌ आ मृत्यु आव्युं ए जाणो अने जलदी घर छोडी चाली नीकळो ॥१८॥

कोई काळे कोई प्रकारे जेनो उपाय थई शकतो नथी तेवो आपणा बधानो काळ आ आव्यो, जेना आववाथी प्रिय प्राणने पण छोडीने जीव चाल्यो जाय छे. त्यां [[८५]] धनादिकनी तो वात ज शी पूछवी? ॥१९-२०॥

तमारा पिता(भीष्म), भाईओ, मित्रो अने पुत्रो मरी गया. आयुष्य पण घणुं वीती गयुं. वृद्धावस्थाथी देह पण जकडाई गयो छे तथापि पारका घरमां तमे पड्या छो ॥२१॥

अहो! माणसने जीववानी आशा मोटी छे, जे आशाथी भीमे अवज्ञाथी आपेल पिण्ड श्वाननी पेठे तमे स्वीकारो छो ॥२२॥

तमे जेओने अग्निमां बाळ्या, झेर आप्युं, जेओनी स्त्रीओने कलङ्कित करी, जेओनां घर, धन वगेरे लई लीधां तेओनुं आपेलुं खाई प्राण धारण करवानुं प्रयोजन केटलुं? ॥२३॥

जेम जूनुं थयेल वस्त्र झरतुं जाय छे तेम तमारो आ देह वृद्धावस्थाथी जीर्ण थयो छे छतां तमो जीववाने इच्छो छो अने एने माटे दैन्यबतावो छो ॥२४॥

जेने बन्धन मुक्त थयां छे तेवो विरक्त अने देहनी शी गति थशे ए नहि जाणनार स्वार्थ रहित देहने छोडी दे ते ‘धीर’ कहेवाय छे ॥२५॥

जे परथी अथवा पोताथी वैराग्य प्राप्त करी जितेन्द्रिय थई भगवानने हृदयमां पधरावी जगत्‌ने छोडे ते मनुष्यमां श्रेष्ठ कहेवाय ॥२६॥

पोताना माणसो पण न जाणे तेम तमे उत्तर दिशा तरफ जाओ. हवे पछीनो काळ मोटा भागे पुरुषोना गुणनो नाशक छे, अर्थात्‌ बुद्धिनो नाश करनार छे॥२७॥

राजा अजमीढना वंशमां जन्मेल प्रज्ञाचक्षु राजा धृतराष्ट्रने नानाभाई विदुरे आ प्रमाणे बोध कर्यो तेथी बधाम्मान्थी दृढ स्नेह छोडी, भाईए बतावेली दिशा तरफ ए चाली नीकळ्या ॥२८॥

परम पतिव्रता सुबलनी पुत्री गान्धारीए ज्यारे जोयुं के मारा पतिदेव तो ए हिमालयनी यात्राए जाय छे के जे परमहंसोने एवुं ज सुख आपे छे, जेवुं सुख मरजीवाओने लडाईना मेदानमां पोताना शत्रुद्वारा न्यायोचित प्रहारथी थाय छे त्यारे ए पण तेनी पाछळ चाली नीकळी ॥२९॥

राजा युधिष्ठिर प्रातःकालनुं आवश्यक कर्म सन्ध्यावन्दन, अग्निमां होम तथा पृथ्वी-तल-गाय* अने सुवर्णनुं दान करी ब्राह्मणोने नमस्कार करी गुरुने नमस्कार करवा धृतराष्ट्र पासे आव्या त्यां एमने तथा गान्धारीने न जोयाम् ॥३०॥

विशेष - ‘‘तिलैर्विष्णुर्गवां रुद्रो भूम्या चैव प्रजापतिः। सर्वे प्रीताः सुवर्णेन सत्पात्रेषु
[[८६]] समर्पणात्‌’’ सत्पात्रने उद्‌देशी ते-ते दान करवाथी ते-ते देव प्रसन्न थाय छे. ए ज कहे छे ः तलथी विष्णु, गोदानथी रुद्र, पृथ्वीवडे प्रजापति अने सुवर्णवडे बीजा बधा देवो प्रसन्न थाय छे तेथी ए दानो नित्यकर्तव्य छे. त्यां बेठेला सञ्जयने चिन्तातुर मनवाळा युधिष्ठिरे पूछ्युं, हे गवल्गणना पुत्र! अमारा वृद्ध अने नेत्रहीन पिता अने पुत्रोना हणवाथी व्यथित माता क्यां छे? शुद्ध अन्तःकरणवाळा काका विदुरजी क्यां गया? ॥३१॥

जेमना पुत्रो अने बन्धुओ हणाया छे एवा धृतराष्ट्र काकाए, जेणे मारे विषे पुत्र बुद्धि न करी पापनी शङ्का सेवी दुःखी थई गङ्गाजीमां तो नथी झम्पलाव्युं ने? ॥३२॥

अमारा पिता पाण्डु मरण पाम्या त्यारे अमे बधा नाना बाळक हता ते वखते ए बन्ने काकाओए अमारा उपर प्रेम वर्षावी बधां दुःखोने दूर करी अमारुं रक्षण कर्युं हतुं ते बन्ने काकाओ क्यां गयां? ॥३३॥

सूतजी बोल्या - सञ्जयने युधिष्ठिरनी दीनता जोई दया आवी; अने युधिष्ठिरमां स्नेह होवाथी एमने जोई दुःख थयुं; पोताना स्वामी धृतराष्ट्रने न जोवाथी अत्यन्त विकलता थई तेथी युधिष्ठिरे पूछेला वाक्यनो उत्तर सञ्जय आपी शक्या नहि. पण राजाने उत्तर न आपवो अयोग्य समजी, आङ्खमां आवेलां आंसुने लूछी स्वामी धृतराष्ट्रना चरणनुं स्मरण करी, बुद्धिथी मनने रोकी युधिष्ठिरने अणगमतो उत्तर आप्यो ॥३४-३५॥

सञ्जय बोल्या - हे कुलनन्दन! आपना बन्ने काका अने गान्धारीए, मनमां करेला निश्चयने हुं जाणतो नथी; पण हे महाबाहो! ए महात्माओए मने तो ठगी ज लीधो ॥३६॥

एटलामां तम्बूरनी साथे भगवान्‌ नारदजी पधार्या. भाईओ सहित ऊभा थई एमने मान आपी ए बन्नेने नमस्कार करी पूजन करता होय तेम पूछवा लाग्या ॥३७॥

युधिष्ठिर बोल्या - मारा बन्ने काका अने जेमना पुत्रो मरवाथी दुःखित तेवां बिचारां दीन तपस्विनी माता अर्हीथी क्यां गयां ए हुं जाणतो नथी ॥३८॥

अपार शोकसमुद्रमां डूबता समुद्रमां नाविकनी जेम आप अमारा पारदर्शक छो.

विशेष कहेवानो विचार करे छे त्यां भगवन्मय मुनि श्रेष्ठ नारदजी राजाने कहेवा [[८७]] लाग्या ॥३९॥

नारदजीए कह्युं - हे राजन्‌! आ जगत्‌ ईश्वरने वश छे; ए ज प्राणीने भेळां करे छे अने ए ज जुदां करे छे माटे कोईनो शोक न करो ॥४०॥

(लोकपाल सहित आ समग्र लोको विवश थईने ईश्वरनी आज्ञानुं पालन करी रह्या छे. आ अर्धो श्लोक श्रीसुबोधिनीजी सम्मत नथी. बीजी केटलीक टीकाओमां छे. अभ्यास अर्थे अर्ही आप्यो छे) बळदोने जेम नाकमां नानी दोरी परोवी दोरडाथी बान्धवामां आवे त्यारे बळदो वशमां रहे छे तेम, प्राणी मात्रने विषरूपी नासिकामां अहन्ताममतारूपी दोराथी वेध करी वेदनी वाणीरूपी नाथमां* (ब्राह्मण, क्षत्री, गृहस्थ वगेरे नामोथी) जीवो बन्धायेला होई ईश्वरे वश करेला छे. तेथी ज ए बधा भगवाननुं इच्छित करे छे ॥४१॥

विशेष - बळदना नाकमां दोरडुं नाखे छे तेने गुजराती भाषामां ‘नाथ’ कहेवाय छे. ए नाथथी बळदने जेम चलावनारनी इच्छा होय तेम चलावी शके छे. बळद ए इन्द्रियोने स्थाने छे. बळदने काबूमां राखवा तेना नाकमां दोरी परोववामां आवे छे. अहन्ता-ममता ए दोरी छे. वेदो ए राण्ढवुं छे. ब्राह्मण, क्षत्रिय रूप खोराक (आहुति) छे. तेनो भोग भगवाने करवानो छे एटले के तेओए भगवत्सायुज्य प्राप्त करवानुं छे. भगवाननी इच्छा ए बळदने बान्धवामाटे खीलो छे. प्राकृत क्रियाओ फोतरां छे. बीज अने योनि नो सम्बन्ध घासने स्थाने छे. जीव इन्द्रियोनो अध्यास राखे तो बळद थाय; न राखे तो काचुं अन्न थाय. इन्द्रियो भगवाननुं कार्य करवामाटे सर्जायेली होवाथी तेओ भगवाननुं कार्य करती होय त्यारे निरर्थक अध्यास करीने शोक न करवो जोईए. जेम रमकडान्ने भेगां करवां अथवा जुदां करवां ए रमनारनी इच्छा उपर निर्भर रहे छे तेम जगत्‌ वडे क्रिया करता भगवाननी इच्छाथी प्राणीना संयोग-वियोग थाय छे ॥४२॥

जो तमे मानो के आ बधुं नित्य छे अथवा अनित्य छे तो ध्रुव होय ते छे ज एटले पदार्थनो शोक करवानो नथी; अध्रुव मानो तो जन्म्यो त्यारथी जवानो ज; तेथी एना जवामां अज्ञानथी उत्पन्न थता स्नेह विना बीजुं कांई नथी॥४३॥

वनमां गयेलां अनाथ दीन माता-पिता शुं करशे एवुं अज्ञानथी आत्मामां देखातुं विकलपणुं तमे हे भाई! दूर करो. जेने अजगर गळी गयो होय तेवो माणस बीजानी रक्षा करी शकतो नथी; काल, कर्म अने गुणने आधीन आ पाञ्च भूतोथी
[[८८]] बनेलो देह बीजाने केम बचावी शके? ॥४४-४५॥

हाथ विनानां प्राणीओ हाथवाळानुं, पग वगरना प्राणीओ चोपागान्नुं अने नाना प्राणीओ मोटा प्राणीओनुं जीवन होवाथी, सृष्टिना आरम्भमां जीवो ज जीवने प्राण धारण करवामां जीवनरूप होय छे ॥४६॥

हे राजन्‌! आ एक ज भगवान्‌ जीवोनी अन्दर अने बहार पोते प्रकाशरूपे ए सर्वरूपे देखाय छे. मायाथी बहुरूप देखाता ए भगवानने तमे जुओ ॥४७॥

हे महराजा! ए ज आ भगवान्‌ प्राणीओनुं पालन करनार छे. ते ज भगवान्‌ दैत्योनो नाश करवामाटे अत्यारे आ पृथ्वीउपर कालरूपे पधार्या छे ॥४८॥

देवोनुं जे हित करवा जेवुं हतुं ते भगवाने कर्युं; बाकीना कर्तव्यने माटे भगवान्‌ भूतळ उपर रह्या छे तेथी तमे भगवान्‌ भूतळ उपर बिराजे त्यां सुधी राह जुओ ॥४९॥

धृतराष्ट्र पोतानी स्त्री गान्धारी तथा भाई विदुरजीनी साथे हिमालयनी दक्षिण तरफ ऋषिओना आश्रम छे त्यां गया छे ॥५०॥

गङ्गाजी एक छे छतां सात ऋषिओने प्रसन्न करवामाटे सात प्रवाहनुं रूप धारण करनार होवाथी ते स्थल ‘सप्तस्रोत’ नामथी प्रसिद्ध छे ॥५१॥

ए गङ्गामां त्रण वखत स्नान करे छे, अग्निमां होम करे छे, इच्छाओने छोडी जलपान करीने प्रभुमां चित्त परोवी शान्त थईने त्यां रह्या छे ॥५२॥

एमणे आसन अने श्वास उपर जय प्राप्त कर्यो छे. छ इन्द्रियोने विषयोथी पाछी वाळी आत्मामां रोकी छे. रजोगुण, तमोगुण अने सत्त्वगुणना रागादि मळने भगवत्स्मरणवडे दूर करीने विज्ञानात्मामां जीवात्माने मेळवी ए बन्नेना क्षेत्रज्ञमां अने क्षेत्रज्ञनो ब्रह्ममां लय कर्यो छे अने पछी घडानुं आकाश घडो फूटवाथी महा आकाशमां मळे छे तेम आधाररूप ब्रह्ममां ए क्षेत्रज्ञने मेळवी दीधो छे. मायिक गुणोनां थतां कार्योने छोड्यां छे, इन्द्रियो अने अन्तःकरण नो निरोध कर्यो छे, बधो आहार छोडीने थाम्भला जेवा अचल थईने रह्या छे. बधां कर्मने छोडनार ए तमारा पिताने तमे त्यां जई विघ्नरूप न थशो. आजथी आवता पाञ्चमे दिवसे हे राजा! ए पोतानो देह छोडशे ए पोते बळी जशे. पतिना देहने झूम्पडी साथे बळतो जोई बहार रहेलां साध्वी गान्धारी ए ज अग्निमां प्रवेश करशे ॥५३-५७॥

विदुरजीने एम करवानुं मन थशे नहि पण जे बनशे ते आश्चर्य जेवुं लागशे. हे [[८९]] कुरुनन्दन! ए जोईने पारलौकिक दृष्टिए हर्ष अने लौकिक दृष्टिए शोक अनुभवता तीर्थसेवननी इच्छाथी विदुरजी त्यान्थी चाल्या जशे ॥५८॥

इत्युक्‌त्वाथारुहत्‌ स्वर्गं नारदः सहतुम्बुरुः ॥ युधिष्ठिरो वचस्तस्य हृदि कृत्वा जहाच्छुचः ॥५९॥

आ प्रमाणे बोली तम्बूरनी साथे नारदजी स्वर्ग तरफ सिधाव्या अने नारदनां वचन हृदयमां धारण करी युधिष्ठिर राजाए शोकने छोडी दीधो ॥५९॥

इति श्रीभागवत्‌ प्रथमस्कन्धनो (उत्तमप्रकरणमां सातमो) ‘‘विदुरजीना उपदेशथी धृतराष्ट्रनुं नीकळवुं’’ नामनो तेरमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. आनाथी वधु मूर्ख बीजो कोण? ‘‘पारसमणि (भागवत)ने वाटके, भटजी (कथाकार) मागे भीख’’ भटजी माङ्गे भीख, नाम चिन्तामणि हरिनुं!! सकळ मनोरथ सेथज, सिद्ध औषध नथी करीनुं!!! (दयाराम)

अध्याय १४

उत्पात जोवाथी युधिष्ठिरनी चिन्ता अने अर्जुननुं आववुं

विशेष - तेरमा अध्यायमां धृतराष्ट्रनी मुक्ति कही. हवे १४-१५ अध्यायोमां पाण्डवोनी मुक्ति एना कारणनी साथे कहेवामां आवे छे. पाण्डवोने ब्रह्मभावरूप फळनी इच्छा नथी पण सायुज्यनी इच्छा छे. ए ज्यां सुधी श्रीकृष्ण मित्रभावथी भूतल उपर बिराजे छे त्यां सुधी सायुज्यनो बाध थाय छे. तेथी आ १४मा अध्यायमां भगवान्‌ स्वधाम पधार्या ए एमनी मुक्तिनुं कारण कहेवामां आवे छे. ए भगवान्‌ पधार्यानी वात कहेनार अर्जुनने जोई अने प्रश्न पूछवानुं आ अध्यायमां कहेवामां आवे छे. भगवानने पधारवानी सम्भावनामां आटली विकळता जेने थाय छे तेने भगवान्‌ स्वधाम पधार्या एम साम्भळवाथी शुं न थाय ए बधुं कहेवामाटे १४ तथा १५ अध्यायमां पाण्डवोनी मुक्ति बे प्रकारे कहेवामां आवे छे. एमां १४ श्लोकथी अर्जुननी स्तुति छे. तेथी १४ ब्रह्माण्डमां जे भगवद्‌गुण छे ते पाण्डवोए जाण्या छे. प्रथम सत्त्व, रजस्‌, तमस ना क्रमथी भगवद्गुणनुं वर्णन अर्जुन आ अध्यायमां करे छे.
[[९०]]

ईं उं ईं उं

सूत उवाच सम्प्रस्थिते द्वारकायां जिष्णौ बन्धुदिदृक्षय ा। ज्ञातुं च पुण्यश्लोकस्य कृष्णस्य च विचेष्टितम्‌ ॥१॥

सूतजीए कह्युं - पवित्र कीर्तिवाळा कृष्णनी प्रवृत्ति जाणवामाटे अने बान्धवोने जोवानी इच्छाथी अर्जुन द्वारका गया. अने केटलाक (सात) महिना थई गया त्यारे पाण्डुना पुत्र युधिष्ठिर राजा कुरुना कुळमां प्रकटवाथी शकुन जाणता होईने घोर रूपवाळां शकुन जोवा लाग्या ॥१-२॥

काळनी क्रूर गति जोई जे समये जे ऋतु होवी जोईए ते न रही. क्रोध, लोभ अने खोटुं ज जेना मनमां छे तेवा माणसोनी पापवाळी वृत्तिओ जोई, कपटप्राय व्यवहार जोयो, शठतावाळी मित्रता जोई, माता, पिता, भाईओ, बान्धवो अने स्त्री-पुरुषमां बखेडा जोया ॥३-४॥

मनुष्यो ज्यारे एवा काळने अनुसर्या त्यारे खराब परिणाम लावनार शकुन तथा लोभादिक अधर्ममां प्रवृत्तिवाळा माणसोने जोई युधिष्ठिरे नाना भाईने कह्युं॥५॥

युधिष्ठिरे कह्युं - बन्धुओने खबर लेवा अने पवित्र यशवाळा कृष्णनी लीलाने जाणवामाटे अर्जुनने द्वारका मोकल्यो छे एने आजे सात मास थया, तो पण हे भीमसेन! तारो नानो भाई अर्जुन आव्यो नहि एनुं कारण हुं बराबर जाणतो नथी ॥६-७॥

देवर्षि नारदे बतावेलो काळ के जेमां भगवान्‌ पोताना क्रीडाना साधनरूपे रहेलुं श्रीअङ्ग छोडी दे तेवो आ समय नथी? अमारी सम्पत्तिओ, राज्य, स्त्री, प्राण, कुळ, प्रजा, शत्रुनो जय तथा स्वर्गादि लोक बधुं ए कृष्णना अनुग्रहथी अमारुं सिद्ध थयुं हतुम् ॥८-९॥

हे पुरुषसिंह! आकाश, भूमि अने देह थी उत्पन्न थता दारुण उत्पातो, बुद्धिने मोह करे एवा भयनी चाडी खाता आपणी सामे ऊभा थाय छे ते तमे जुओ ॥१०॥

हे भाईला! मारां डाबा साथळ, नेत्र अने बाहु वारंवार फरके छे. हृदयमां कम्प पण बहु जलदी भय आपनारो थशे ॥११॥

सळगता मुखवाळी आ शियाळवी गोळ-गोळ फरावी ऊगता सूर्यनी सामे रुदन करी रही छे. आ कूतरो नीडर थईने हे भाई! मारी सामे जोईने भसे छे॥१२॥

[[९१]] घोडा जेवां सारां प्राणीओ मारी डाबी बाजु उतरे छे, ज्यारे बीजा गर्दभ जेवां हलकां पशुओ मारी जमणी बाजु उतरे छे. हे पुरुषव्याघ्र! मारा घोडा वगेरे वाहनो रोता होय एवा लागे छे ॥१३॥

आ कबूतर मृत्युनो दूत छे. बीजानी ऊङ्घ बगाडता घुवड अने कागडो पोतानी कर्णकठोर चिचियारीथी विश्वने शून्य करी देवा इच्छता होय तेम मनने कमकमावी मूके छे ॥१४॥

दिशाओ धुम्मसवाळी देखाय छे. सूर्य अने चन्द्र नी आसपास गोळ कुण्डाळा थाय छे. पर्वतोनी साथे पृथ्वी चलित थई कम्पे छे. मेघरहित आकाशमान्थी कडाका थाय छे ॥१५॥

(शरीरने) र्वीधी नाखे एवो कठोर वायु धूळनी डमरी चडावे छे, जेथी अन्धारुं घोर थई जाय छे, चारे कोर वादळो लोही वरसावे छे, जाणे के (लाल) विष्ठा करतां होयनी! ॥१६॥

कान्तिहीन सूर्यने अने परस्पर टकराता ग्रहोने आकाशमां जुओ. आकाश अने पृथ्वी भूत, प्रेत, पिशाचनी भीडथी भडके बळती होय तेवी देखाय छे॥१७॥

नदी अने मोटा नदो खळभळी उठ्या छे. तळावो तथा माणसो ना मन डखोळाई गयां छे. अग्नि घीनी धाराथी पण चेततो नथी आ काळ करशे शुं?॥१८॥

वाछडां एओनी माताने धावतां नथी. गायो दोहनमां दूध आपती नथी. आङ्खोमां आंसु लावी गायो रुदन करे छे. व्रजमां मोटा बळदो अवाज करता नथी ॥१९॥

देवतानी मूर्तिओ रुदन करती होय, पसीनावाळी होय, स्थान उपरथी चलित होय तेवी देखाय छे. आ देशो, गामो, नगरो, आश्रमो अने मकानो शोभाहीन जणाय छे. आनन्दरहित देखावो आपणी समीपमां दुःखने उत्पन्न करतां क्यां पाप बतावी जाय छे ॥२०॥

आ मोटा उत्पातोने जोईने, बीजा कोई पुरुषनां चरणोमां शोभा न होय तेवी शोभावाळा भगवानना चरणकमळना वियोगथी पृथ्वीनो सोहाग झूण्टाई गयो होय एम हुं मानुं छुम् ॥२१॥

सूतजीए कह्युं - के जेणे अनर्थ निहाळ्या छे तेवा मनवाळा युधिष्ठिर ए वातनो विचार करे छे ते समये द्वारका गयेलो अर्जुन त्यान्थी आवी पहोञ्च्यो ॥२२॥

[[९२]] पहेलां हतो तेथी जुदो ज देखातो, मोटा भाईना चरणमां वन्दन करतो, दुःखी, नीचे मुख राखी रहेलो, कमल जेवां नेत्रमान्थी आंसु सारतो अने कान्तिरहित अर्जुनने जोईने गभरायेला चित्तथी, नारदनुं कहेवुं याद करी बधा सुहृदोना देखतां, युधिष्ठिरे अर्जुनने पूछयुम् ॥२३-२४॥

युधिष्ठिरे पुछ्‌युं - द्वारकामां आपणा स्वजनो मधु, भोज, दशार्हाह, सात्वत, अन्धक अने वृष्णि वंशना यादवो मजामां तो छे ने? ॥२५॥

हे वीर! मातामह शूरसेन कुशळ छे? नानाभाईओ साथे मामा वसुदेव कुशळ छे के? ॥२६॥

एमनी पत्नीओ अने आपणां मामी देवकी वगेरे सात बहेनो कुशळ छे? एओनां पुत्र तथा पुत्रवधुओ पण कुशळ छे? दुष्ट पुत्रवाळा उग्रसेन अने तेमना नानाभाई देवक जीवे छे? पुत्रसहित अक्रूर, हृदीक, जयन्त, गद, सारण अने शत्रुजित वगेरे यादवो छे तो प्रसन्नतामां ने? सात्वतोमान्ना समर्थ बळदेवजी सुखी छे? ॥२७-२९॥

वृष्णिकुळमां श्रेष्ठ महारथी प्रद्युम्न, गम्भीर वेगवाळा अनिरुद्ध, भगवद्रूप, होवाथी कुशळ छे? सुषेण, चारुदेष्ण, जाम्बवतीना पुत्र साम्ब, बीजा पण कृष्णना पुत्रोमां श्रेष्ठ ऋषभ वगेरे सुपुत्र तेम ज एमनी पाछळ चालनारा श्रुतदेव, उद्धव, सुनन्द अने नन्द जेमां मुख्य छे तेवा बीजा पण भगवद्‌भक्तोमां श्रेष्ठ रामकृष्णनी भुजानी छायामां सुरक्षित बधा आनन्दमां छे? आपणी साथे सौहार्दथी बन्धायेला ते आपणने याद करे छे के? ॥३०-३३॥

आपणा जेवा निःसाधनोना इन्द्र, भक्त-वत्सल अने ब्राह्मणनुं हित करनार भगवान्‌ श्रीकृष्ण सुहृदोनी साथे द्वारका नगरीमां सुधर्मा सभामां प्रसन्नतापूर्वक बिराजे छे के? ॥३४॥

लोकोना मङ्गळने माटे, कल्याण तथा समृद्धिनेमाटे यदुकुळरूपी समुद्रमां अनन्त (काल)ना मित्र आद्यपुरुष विराजे छे ॥३५॥

भगवानना भुजबळथी रक्षण करायेली द्वारकापुरीमां यादवो महापराक्रमीनी जेम निर्भय रहीने परमानन्द युक्त थईने क्रीडा करे छे? ॥३६॥

भगवानना चरणारविन्दनी सेवा ज मुख्य कर्तव्य छे जेओनुं तेवी सत्यभामा वगेरे सोळ हजार स्त्रीओ, जेने भगवान्‌ सङ्ग्राममां युद्ध करी जय मेळवी लाव्या छे [[९३]] ते, इन्द्राणीने योग्य भोगोने भोगवे छे? ॥३७॥

जे भगवानना बाहुदण्डना पराक्रमथी रक्षायेला यादव वीरो निर्भय बनीने स्वर्गना इन्द्रादि देवोने भोगववा योग्य सुधर्मा सभाने मस्तीथी पगवडे वारंवार दबावे छे? ॥३८॥

तात! तुं तो कुशळ छे ने? मने तो तुं तेजोहीन देखाय छे. (ससराने घेर बहु दिवस रहेवाथी) तने मान न मळ्युं? तारुं अपमान थवा पाम्युं? ॥३९॥

स्नेह रहित माणसोए अमङ्गळ शब्दो तने कह्या तो नथी ने? मागवा आवनारने योग्य आपवानुं अन्तःकरणथी कहीने आपी शक्यो न हो एम तो बन्युं नथी ने? ॥४०॥

ब्राह्मण बाळक गाय वृद्ध रोगी स्त्री अने शरणे आवेल प्राणीने रक्षण करीश एम कही छोडी दीधां नथी ने? ॥४१॥

तुं रह्यो मरद, शुं ते अगम्य स्त्री साथे गमन कर्युं? अथवा रस्तामां तारा बराबरिया अथवा ताराथी अधम पुरुषोने हाथे हारी गयो? ॥४२॥

अथवा वृद्ध अने बाळको, जे प्रथम भोजन कराववा लायक छे, तेओने छोडी दई तें भोजन करी लीधुं शुं? अथवा तने न छाजे तेवुं कोई निन्द्य कर्म तें कर्युं छे? ॥४३॥

कच्चित्‌ प्रेष्ठतमे नाथ हृदयेनात्मबन्धुना ॥ शून्योऽसि रहितो नित्यं मन्यसे तेऽन्यथा न रुक्‌ ॥४४॥

अथवा अत्यन्त प्रेष्ठ, आत्माना बन्धु एवा अन्तर्यामीरूप श्रीकृष्ण विना आत्माने तुं हृदयथी शून्य मानतो होवो जोईए; नहि तो तारा जेवा वीरने आवो शोक सम्भवे नहि ॥४४॥

इति श्रीभागवत्‌ प्रथमस्कन्धना (उत्तमप्रकरणमां आठमो) ‘‘उत्पातजोवाथीयुधिष्ठिरनीचिन्ताअनेअर्जुनननुंआववुं’’ नामनो चौदमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. कथाकारो! श्रीमहाप्रभुनी आज्ञा साम्भळो!!! ‘‘प्राण कण्ठे आवी गया होय तोय भागवत कथाना निमित्ते दक्षिणा न लेवी’’ भगवत्कथा ए दिव्य आराधना छे, लौकिक आजीविका-धन्धो नर्ही.
[[९४]]

ईं उं ईं उं

अध्याय १५

भगवाननो निर्याण साम्भळी युधिष्ठिरादिनुं स्वर्गारोहण

विशेष - चौदमा अध्यायमां मुक्तिना हेतु भगवाननुं स्वधाम पधारवानुं वर्णन कर्युं. आ पन्दरमां अध्यायमां भगवान्‌ पधारी गयानो निश्चय थतां कृतकार्य थई शास्त्रनी रीति प्रमाणे युधिष्ठिर मुक्त थया एनुं निरूपण करवामां आवे छे. द्रौपदी अने चार भाईओ सहित युधिष्ठिर कृष्णनी भक्तिवडे मुक्तिने पाम्या एनुं वर्णन कराय छे. अर्जुननो भगवान्‌मां प्रेम, भगवानना उपकारनुं स्मरण अने भगवद्‌ज्ञान ए बधुं राजाने माटे अर्जुन पासे बोलाव्युं छे ए साम्भळीने राजा पण वैराग्ययुक्त थया छे. सूत उवाच एवं कृष्णसखः कृष्णो भ्रात्रा राज्ञाऽऽविकल्पितः ॥ नानाशङ्कास्पदं रूपं कृष्णविश्लेषकर्शितः ॥१॥

सूतजी बोल्या - राजा युधिष्ठिरे अर्जुनने एवा विकल्पोथी प्रश्न कर्यो के कौरवोनी सेना अपार अने अनन्त महासागर जेवी हती. ते महासागरमां क्रूर जलचर मगरो जेवा कर्ण वगेरे अनार्यो हता. अने हुं एकलो ज रथथी तेने तरी गयो एटलुं ज नहि पण शत्रुओनुं अढळक धन में पाछुं हरी लीधुं. तेमना शिरोभागमान्थी अमूल्य मणिमय तेज तो हर्युं पण तेमनां माथां वधेरी नाख्यां. आनुं एक मात्र कारण हुं भगवाननो बान्धव हतो ए भगवद्‌बन्धुत्व मात्रथी, भगवद्भक्ति अने भगवत्‌-सान्निध्य न होवा छतां, कौरव सेना सागरने हुं तरी शक्यो ॥१४॥

कौरवोनी सेना भीष्म, कर्ण, द्रोण, शल्य तथा बीजा मोटा राजाओ अने क्षत्रिय वीरोना रथथी शोभायमान हती. एनी सामे मारी आगळ-आगळ चालीने पोतानी दृष्टिथी ज ए महारथी सेनापतिओना आयु, मन (उत्साह) अन्तःकरण शक्ति, इन्द्रिय शक्ति हरी लीधाम् ॥१५॥

द्रौणाचार्य, भीष्म, कर्ण, अश्वत्थामा, सुशर्मा, शल्य, जयद्रथ, बाह्‌लिक वगेरे योद्धाओए मारा उपर कदी निष्फळ न जाय तेवा महिमावाळां अस्त्रो चलाव्यां हतां; पण हिरण्यकशिपु वगेरे असुरोनां अस्त्रो जे नृसिंहस्वरूप भगवानना दास (प्रह्‌लाद) नो स्पर्श पण करी न शक्यां तेम तेमनां शस्त्रो मारो (तो शुं पण मारा रथनो) स्पर्श पण करी शक््यां नहि कारण के मारा भगवाने तो मने पोताना ने [[९५]] भुजदण्ड वच्चे ज सुरक्षित करी स्थाप्यो हतो! ॥१६॥

संसारथी मुक्त थवामाटे सन्त पुरुषो जेमना चरणकमलनी सेवा करे छे, पोतानी जात सुद्धां आपी देनार ए भगवानने दुष्ट बुद्धिवाळो सारथि बनावतांय अचकायो नहि. जे वखते मारा घोडा थाकी गया हता अने हुं रथ उपरथी ऊतरी जमीन उपर ऊभो हतो त्यारे मोटा-मोटा महारथी शत्रुओ पण मारा उपर प्रहार न करी शक््या कारण के श्रीकृष्णना प्रभावथी एमनी बुद्धि ज बहेर मारी गई हती ॥१७॥

उदार अने मोहक हास्यथी शोभतां माधवनां मश्करीनां वचनो, हे नरदेव! मने याद आवे छे त्यारे मारा हृदयने हचमचावी मूके छे. (स्मितथी वश थयेलो न होउं त्यारे) मने ‘पार्थ’ कहीने; (अर्जुन=सादडनुं झाड; वृक्ष जेवो जड जणाउं त्यारे) अर्जुन कहीने; (अणछाजतुं कार्य करतो होउं त्यारे) हे सखा कहीने; (हुं भोट जेवो लागुं त्यारे) कुरुनन्दन कहीने मने सम्बोधन करता ॥१८॥

सूवुं, बेसवुं, टहेलवुं, आपबडाई करवी, भोजन वगेरेमां अमो साथे होईए. क्यारेक हुं व्यङ्गमां कही बसे तो, ‘‘मित्र तमे तो भारे साचा बोला हो!’’ ए वखते पण ए महापुरुष पोतानी महानुभावताने लीधे, मित्र मित्रनो, पिता पुत्रनो अपराध सही ले छे तेम, तेओ मारा दुष्ट बुद्धिवाळाना अपराधो सही लेता. (कीडी वगेरे क्षुद्र जन्तुओना अपराध उपर हाथी लक्ष पण देतो नथी ज तो!) ॥१९॥

जे मारा सखा, प्रिय मित्र, नहि-नहि मारुं हृदय ज हता ए ज पूर्ण पुरुषोत्तम विनानो हुं थई गयो. भगवाननी पत्नीओने द्वारकाथी हुं मारा रक्षणमां साथे लई आवी रह्यो हतो. त्यारे मार्गमां दुष्ट गोपोए मने एक अबलानी जेम हरावी दीधो. हे प्रिय! ॥२०॥

ए ज धनुष, ते ज बाणो, रथ पण ते, घोडा पण ए ज अने ए ज रथी हुं अर्जुन जेने मोटा-मोटा राजाओ झूकी-झूकीने प्रणाम करता हता. श्रीकृष्ण विना ए बधुं एक ज क्षणमां नहिवत्‌ निःसार बनी गयुं. जेवी रीते भस्ममां आपेल आहुति, ठग राजानी सेवा अने खारी जमीनमां वावेलुं बीज व्यर्थ जाय छे तेम ॥२१॥

हे राजन्‌! तमे द्वारकामां आपणो जे सुहृदोना खबर पूछ्‌या, ते बधाने ब्राह्मणनो शाप थयो, तेथी मूढ थई परस्पर मुक्का-मुक्कीथी मारवा लाग्या. वारुणी मदिरा पीवाथी गाण्डा बनी एकबीजाना स्वरूपने भूली गया ने हवे चार पाञ्च ज
[[९६]] अध्याय-१५, प्रथमस्कन्ध ९७ बाकी रह्या, (बाकी बधा मरी गया) ॥२२-२३॥

घणुं करीने आ भगवाननी ज लीला समजो के माणसोथी माणसनी उत्पत्ति करावे अने माणसथी माणसनो संहार करावे ॥२४॥

जलचरोमां नाना प्राणीने मोटुं गळी जाय छे, तेम अर्ही पण दुर्बळनो सबळोए अने नानानो मोटाए परस्पर संहार र्क्यो ॥२५॥

एम भगवाने बळवान यादवोथी बीजा राजाओने संहार कराव्यो अने यादवोनो परस्पर संहार करावी पृथ्वीनो भार उतार्यो ॥२६॥

देश, काळ अने अर्थने अनुरूप अने हृदयना तापने शान्त करनार गोविन्दनां वाक्यो स्मरण करतां ज मारा चित्तने हरी ले छे ॥२७॥

सूतजीए कह्युं - एम प्रगाढ प्रेमपूर्वक कृष्णना चरणारविन्दनुं चिन्तन करता अर्जुननी बुद्धि शान्त अने निर्मळ थई गई ॥२८॥

वासुदेवना चरणना ध्यानथी जेनो वेग चोतरफथी वध्यो छे तेवी भक्तिवडे हृदयना बधा दोष दूर थयेल ते अर्जुन थयो अर्थात्‌ शुद्ध थयो ॥२९॥

पछी सङ्ग्राममां भगवाने जे गीतानुं ज्ञान आप्युं हतुं अने जे काळना व्यवधानथी, कर्मोना विस्तारथी अने प्रमादथी थोडा समयमाटे भुलाई गयुं हतुं ते फरी ताजुं थयुम् ॥३०॥

ब्रह्मसम्पत्तिथी शोक विनानो थयो, देहादिमां आत्मबुद्धि टळी गई, प्रकृतिनो लय तथा निर्गुणपणुं थवाथी लिङ्गशरीरनो नाश थतां जन्म थवानो सम्भव ज टळी गयो ॥३१॥

युधिष्ठिरे भगवाननुं वैकुण्ठगमन अने यदुकुळनो नाश साम्भळी दृढ अन्तःकरणवाळा थई देवमार्ग तरफ जवानो निश्चय कर्यो ॥३२॥

कुन्तीजी अर्जाुनना मुखथी यादवोनो नाश थयो ए तथा भगवाननुं स्वधाममां प्रयाण थयुं ए साम्भळी एकान्त मतिथी आत्मरूप भगवान्‌मां बुद्धिने स्थापन करी संसारथी विराम पाम्यां अने भगवान्‌मां कुन्तीजीनुं सायुज्य थयुं अर्थात्‌ आ पाञ्च महाभूतनुं खोळियुं खाली कर्युम् ॥३३॥

काण्टावडे काण्टो काढी बन्नेने फेङ्की दे तेम आ बधुं भगवानना मनथी तो समान होवाथी, जे श्रीअङ्गेथी आ पृथ्वीनो भार उतार्यो हतो ते शरीर अने आ लोक बन्नेनो भगवाने त्याग कर्यो ॥३४॥९८ अध्याय-१५, प्रथमस्कन्ध अलग-अलग प्रकारनी भूमिका भजववा अभिनेता जेम स्त्री वगेरेना वेशमां आवे छे अने ते-ते कार्य पूरुुं थये ते रूप छोडी दे छे तेम भगवान्‌ श्रीकृष्ण विविध प्रकारनी क्रीडा करवा मत्स्य, वराह, नृसिंह, राम वगेरेनां रूपो धारण करे छे. जे कलेवरथी श्रीकृष्णे पृथ्वीनो भार उतार्यो ते कलेवरनां काम पूरुं थये, आपे त्याग पण कर्यो ॥३५॥

जेनी मधुर लीलाओ श्रवण करवा योग्य छे ए भगवान्‌ श्रीकृष्णे ज्यारे (प्रातःकालमां) आ पृथ्वीनो पोताना शरीरद्वारा त्याग कर्यो ते ज दिवसे (सवारे) जेमनां चित्त अजागृत (भक्ति अथवा ज्ञान रहित) छे तेमने अधर्ममां फसावनार कलियुग आवी लाग्यो ॥३६॥

बुद्धिमान्‌ युधिष्ठिरे ए कलिना प्रचारने देश, गाम, घर अने शरीर मां एम लोभ, असत्य, कपट, हिंसा वगेरे अधर्मोने दाखल थयेला जाणी पृथ्वी छोडी जवानो निश्चय कर्यो ॥३७॥

पोताथी भगवदीयपणामां कांई ओछो नहि अने विनयथी तेवा पोताना पौत्रने आखी पृथ्वीना सम्राट तरीके हस्तिनापुरमां अभिषेक कर्यो ॥३८॥

तेमज शूरसेन देशना पति वज्रने मथुरामां गादी आपी; प्राजापत्य यज्ञ करी अग्निने पोताना स्वरूपमां लीन कर्यो ॥३९॥

लूगडां, घरेणां वगेरे ज्यां राख्यां हतां त्यां ज छोडी दईने निरहङ्कार थई ममत छोडी बधां बन्धनथी छूटा थया ॥४०॥

वाणीथी शरीरनो सम्बन्ध होवाथी वाणीनो मनमां होम कर्यो. मननी स्त्री वाणी छे. ‘‘दूतीरेव त्वं मनसोसि’’ (तुं मननी दूती छे) एम श्रुतिमां कह्युं छे. ए वाणीनो मनमां अने मननो प्राणमां होम कर्यो. प्राणनो अपानमां, अपाननो मृत्युमां, मृत्युनो उत्सर्गमां होम कर्यो. ए उत्सर्ग तथा मृत्यु नो होम पाञ्च भूतोमां कर्यो. पाञ्चभूतने त्रण गुणमां होम्यां. त्रण गुणोने प्रकृतिमां होमीने प्रकृतिने पुरुषरूप आत्मामां होमी अने ए पुरुषने सर्वकाळ वगेरेना नियामक अक्षरमां होमी दीधा ॥४१-४२॥

एवी रीते बधुं ममतास्पद हतुं तेने होमीने बीजुं बधुं भगवान्‌मां राखी मळांश देहनो त्याग कर्यो. (एनो प्रकार कहे छे) फाटेलां लूगडां पहेर्या, आहार छोड्यो, वाणीने रोकी, वाळने खुल्ला छोडी दीधा अने स्वस्वरूपने जड होय, भूतपेठां होय, पिशाच जेवुं होय तेम देखाडवा लाग्या ॥४३॥

साम्भळता न होय, जोता न होय एम गाममान्थी बहार नीकळ्या. ज्यां पूज्य महात्माओ गया छे तेवी उत्तर दिशामां ब्रह्मनुं ध्यान करता चालता थया के ज्यां गयेलो पाछो संसारमां आवतो नथी ॥४४॥

नाना भाईओए जोयुं के हवे पृथ्वीमां बधां लोकोने अधर्मना सहायक कलियुगे प्रभावित करी दीधा छे. तेथी तेओए पोताना मोटा भाईने अनुसरवानो निश्चय कर्यो ॥४५॥

चारे पुरुषार्थो तो एमणे अर्ही ज प्राप्त करी लीधा हता. हवे भगवानना चरणारविन्दनी प्राप्ति करी छेल्लामां छेल्लो पाञ्चमो पुरुषार्थ छे एम जाणी तेओए एनुं मनमां ध्यान कर्युम् ॥४६॥

ध्यान करतां भगवान्‌मां भक्तिभाव वध्यो. अने तेथी शुद्धबुद्धिवाळा थई ए नारायणना पदमां प्राप्त थया के जे गतिने असत्‌-विषयी लोको मेळवी शक्ता नथी. एवा रजोगुण वगरना स्थानने बधा दोष छोडीने शुद्ध मनवडे पाण्डवोए प्राप्त कर्युं ॥४७-४८॥

भगवान्‌ श्रीकृष्णना प्रेमावेशमां मुग्ध इन्द्रियादि सहित विदुरजी पण कृष्णनी आज्ञाथी प्रभासमां देह छोडी पितृओनी साथे पोताना अधिकारना स्थाने वैवस्वतपुरमां गया ॥४९॥

द्रौपदीजी, पाञ्च पतिओ निरपेक्ष थई गया ए जाणी अनन्य प्रेमपूर्वक भगवान्‌ श्रीकृष्णनुञ्ज चिन्तन करतां भगवानना चरणारविन्दने प्राप्त थयाम् ॥५०॥

यः श्रद्धयैतद्‌ भगवत्प्रियाणां पाण्डोः सुतानामभिसम्प्रयाणम्‌ ॥ शृणोत्यलं स्वस्त्ययनं पवित्रं लब्ध्वा हरौ भक्तिमुपैति सिद्धिम्‌ ॥५१॥

भगवानना प्रिय एवा पाण्डुना पुत्रोनुं प्रयाण श्रद्धाथी जे साम्भळशे तेने आ आख्यान कुशळ करनार थशे. वळी पवित्र एवा एमना प्रयाणने साम्भळनार भगवान्‌मां भक्ति अने एनाथी मळती सिद्धि प्राप्त करे छे ॥५१॥

इति श्रीभागवत्‌ प्रथमस्कन्धना (उत्तमप्रकरणमां ९मो) ‘‘भगवाननो निर्याण साम्भळी युधिष्ठिरादिनुं स्वर्गारोहण’’ नामनो पन्दरमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. [[९९]] अध्याय १६ कलिए पीडेली भूमि पासे परीक्षितनुं आववुं

विशेष - पन्दरमा अध्यायमां, पाण्डवोनी मुक्तिनुं वर्णन कर्युं ते परीक्षितना उत्तम लोकमां अडचण न थवा माटे थयुं. हवे राज्य करवामां ऐहिक बन्धन सम्भव छे तेनी निवृत्ति माटे कलिथी पण बन्ध थवानो सम्भव होवाथी ए बधानी निवृत्ति आ अध्यायमां कहे छे. स्वभावथी धर्मनुं पालन कर्युं छे पण धर्मनुं कारण काळ होवाथी एनो दोष होय त्यां सुधी काळना प्रतिबन्धथी धर्मने वधवामां अडचण पडे माटे दोषना मूळने मटाडवुं जोईए. पृथ्वी, धर्म अने काळ ए त्रण आधिदैविक स्वरूपनो साक्षात्कार परीक्षितने थाय नहि त्यां सुधी भगवानना स्वरूपनो साक्षात्कार पण आधिदैविक होवाथी थाय नहि तेथी आ अध्यायमां ए बधाना साक्षात्कारनुं वर्णन कर्युं छे. पृथ्वी अने धर्म उपर अनुग्रह अने कलिनो निग्रह आ अध्यायमां छे. तेमां १७ श्लोकथी पृथ्वीना विजयनुं वर्णन तथा २० श्लोकथी धरणी अने धर्म नो संवाद छे. आ अध्यायनी पहेलां ७ मा थी १५मा सुधीमां राजा परीक्षितनी मुक्तिमां जे शुद्धि जोईए तेनुं वर्णन कर्युं छे. १६ थी १९ सुधीमां भगवाननुं आपेल सामर्थ्य तथा असाधारण धर्मोन्नतिनुं वर्णन छे. ततः परीक्षिद्‌ द्विजवर्यशिक्षया मर्ही महाभागवतः शशास ह ॥ यथा हि सूत्यामभिजातकोविदाः समादिशन्‌ विप्र महद्‌गुणस्तथा ॥१॥

सूतजीए कह्युं - पाण्डवोना महाप्रयाण पछी जन्म वखते ज्योतिषीओए युधिष्ठिर समक्ष परीक्षितना जे गुण कह्या हता तेवा ब्रह्मण्य महाभगवद्‌भक्त परीक्षित भगवद्‌भक्त ब्राह्मणोना मार्गदर्शनमां पृथ्वीनुं राज्य करवा लाग्या ॥१॥

उत्तर राजानी इरावती नामनी कन्याने परण्या अने एमां जनमेजय वगेरे चार पुत्रोने उत्पन्न कर्या ॥२॥

कृपाचार्यने गुरु करी गङ्गाना काण्ठा उपर मोटी दक्षिणावाळा त्रण अश्वमेध यज्ञो कर्या, जे यज्ञमां देवताओए प्रत्यक्ष पोतानो भाग ग्रहण कर्यो ॥३॥

गाय-बळदनी जोडने पगथी मारनार राजानुं रूप धरनार शूद्ररूप कलिनो दिग्विजयमां फरतां परीक्षिते पोताना पराक्रमथी पराभव कर्यो ॥४॥

शौनके पूछ्‌युं - दिग्विजयमां परीक्षिते कलिनो पराभव शा कारणथी कर्यो? वळी राजाना रूपने ग्रहण करनारो ए शूद्र कोण हतो के जे गायने पगनो प्रहार करतो
[[१००]] हतो? ए बधी वात कृष्णकथा कहेनारी होवाथी, हे महाभाग मने आपनी इच्छा होय तो कहो. अथवा भगवानना चरणकमळना *मकरन्दनो स्वाद लेनार सत्पुरुषोने आयुष्यनो व्यर्थ व्यय करनार असार बकवादने शो सम्बन्ध होय? कांई ज न होय ॥५-६॥

विशेष - ‘‘मकरन्द पुरुषसुखं ब्रह्मसुखं अर्थसुखं च ददातीति मकरन्दः’’. मः = विष्णुः, कः = ब्रह्म, कामः; रैः = धनम्‌, दः = आपनार (श्रीसुबोधिनीजी) थोडा आयुष्यवाळा, मरण-धर्मवाळा शरीरथी अमर थवानी इच्छावाळा मनुष्योना कल्याणमाटे पशु हिंसावाळा कर्ममां मृत्युस्वरूप भगवानने अमे अर्ही यज्ञमां बोलावी, आ यज्ञसमाप्ति सुधी रोक्या छे ॥७॥

ज्यां सुधी सर्वनो अन्त करनार मृत्यु आपणी पासे बेठुं छे त्यां सुधी कोईनुं मृत्यु न थाओ एवा हेतुथी परम ऋषिओए एमने बोलाव्या छे. अहो! मनुष्य लोकमां पण हरिलीलारूपी अमृतनुं आम निश्चिन्तताथी पान कराय छे ए आश्चर्य छे ॥८॥

आळसु, आयुष्यमां मन्द, बुद्धिमां पण मन्द एवा पुरुषने रात तो सूवामां अने दिवस काममां नकामा चाल्या जाय छे ॥९॥

सूतजी बोल्या - पोते जेना चक्रवर्ती राजा छे एवा हस्तिनापुरमां वसता परीक्षित राजाए ज्यारे बहु प्रिय नहि एवो पोताना राज्यमां कलियुग आव्यानी वात साम्भळी. त्यारे रणसङ्ग्राममां शूरवीर तेवा एमणे धनुष हाथमां लीधुम् ॥१०॥

श्याम घोडावाळा अने शणगारेल तथा सिंहनी ध्वजावाळा रथमां बेसी, हाथी, घोडा, रथ अने पायदळवाळी चतुरङ्गिणी सेनाने साथे लई, दिशाओनो जय करवाने नीकळी पड्या ॥११॥

भद्राश्व, केतुमाल, भारत, उत्तरकुरु तथा किम्पुरुष वगेरे देशो जीती त्यान्थी खण्डणी लीधी ॥१२॥

ज्यां-ज्यां गयां त्यां-त्यां पोताना पूर्वजोनो गवातो यश साम्भळ्यो, जे पाण्डवोना यशमां श्रीकृष्णनां माहात्म्यनुं सूचन थतुं हतुम् ॥१३॥

भगवाने गर्भमां अश्वत्थामाना ब्रह्मास्त्रथी पोतानी रक्षा करी छे ए पण परीक्षिते साम्भळ्युं. पाण्डवो अने यादवो नो परस्पर स्नेह तथा एमनी कृष्णमां भक्ति विषे पण साम्भळ्युम् ॥१४॥

[[१०१]] यश गवाता साम्भळी प्रीतिथी जेमनां नेत्र प्रफुल्लित छे तेवां परीक्षिते मोटी उदारता प्रकट करी. यशोगान करनारने मोटा मूल्यवाळां वस्त्रो, सुवर्णना हारो वगेरे आप्याम् ॥१५॥

भगवाननुं सारथिपणुं, सभ्यपणुं, सेवा, मित्रता, दूतपणुं, वीरासन, पाछळ चालवुं, स्तुति करवी, प्रणाम करवा इत्यादि साम्भळी तथा स्नेहवाळा पाण्डवोने जगत्‌ प्रणाम करे छे ए बधुं भगवत्सम्बन्धी साम्भळी, राजाने भगवच्चरणमां भक्ति थई ॥१६॥

विशेष - आ श्लोक प्रक्षिप्त होवाथी श्रीमहाप्रभुजीए एनुं व्याख्यान कर्युं नथी. ए एम पूर्वजोनुं चरित्र साम्भळतां फरे छे त्यां नजीकमां ज एक आश्चर्य थयुं ते कहुं छुं तमे साम्भळो ॥१७॥

वृषभना रूपने धरनारो धर्म एक ‘सत्य’ नामना पगथी चालतो, कान्ति वगरनी अने वाछडां विनानी गाय जेवी आङ्खोमां आंसुवाळी माताने पूछे छे॥१८॥

धर्म बोल्यो - हे माताजी! शुष्क दुर्बळ मुख उपर कान्ति देखाती नथी तेथी पूछुं छुं के तमारुं आरोग्य बरोबर छे ने? कां तो कोई बन्धु दूर होय अथवा कोई जातनी मनमां पीडा होय तेवां तमोने लक्षणथी हुं जाणुं छुम् ॥१९॥

ओछा पगवाळो एटले एक पगवाळो एवो हुं छुं तेनो शोक करो छो? अथवा शूद्रो तने भोगवशे तेथी तमारा आत्मानो शोक करो छे? जेओना यज्ञना भाग मळता बन्ध पड्या छे तेवा देवताओनुं अथवा वृष्टि न थवाथी दुःखी थयेली प्रजानुं तमने दुःख छे? ए कहो ॥२०॥

हे पृथ्वी! अरक्षित स्त्री अने बाळकोनो शोक करो छो? अथवा राक्षसोथी पीडाती प्रजानो शोक करो छो? या तो ब्राह्मणनां कुळ खराब कर्म करवा लाग्यां त्यारे वेदवाणी आश्रय रहित थई एनो शोक करो छो? ब्राह्मणनी भक्तिथी राजकुल विमुख थयां तेथी कुलीनोनो शोक करो छो? कळियुगनी असरवाळा अधम क्षत्रियोनो के एमणे देशोने कबजे कर्या छे तेवा देशोनो शोक करो छो? अथवा खान, पान, वस्त्र, स्नान अने स्त्रीसङ्गमाञ्ज तत्पर जीवो हालमां थया छे ते जीवलोकनो शोक करो छो? ॥२१-२२॥

हे मा पृथ्वी! तारा उपर थयेलो अत्यन्त भार उतारवामाटे जेमणे अवतार धारण कर्यो एवा सर्व दुःखनुं हरण करनारा श्रीहरि अत्यारे अन्तर्धान थया. अने
[[१०२]] तेथी एमनां उदार चरित्रो जीवोनो मोक्ष करवामां कदाच विलम्ब करे तेथी तुं (मोक्षना अधिकारी नथी) तेओनो शोक करे छे? ॥२३॥

तमारा मननी पीडानुं कारण मने कहो हे वसुन्धरा! जे भगवानना वियोगनी मानसिक पीडाथी तमे दूबळां थयां छो, अथवा बलवानोथी पण वधारे बलवान काळे ज आजे, देवताओ वखाणे तेवुं तमारुं सौभाग्य हर्यु छे एनाथी दुःखी छो? ॥२४॥

पृथ्वी बोली - हे धर्म! तुं जे मने पूछे छे ते तुं सर्व जाणे छे के जेनी दयाथी तुं लोकने सुख आपनार चार पगवाळो हतो ॥२५॥

सत्य, पवित्रता, दया, क्षमा, उदारता, सन्तोष, सरलता, शम (मननी दृढता), दम (इन्द्रियोनी निश्चलता), तप समता, तितिक्षा (अपराध सही लेवानुं वलण), उपरति (लाभ अलाभमां उदासीनता)शास्त्रोनुं अध्ययन ॥२६॥

ज्ञान, वितृष्णा, ऐश्वर्य, शौर्य, प्रभाव, दक्षता, कर्तव्यनुं भान, स्वातन्त्र्य, कुशळता, सौन्दर्य, धैर्य, कोमळता ॥२७॥

निर्भयता, विनय, सुन्दर स्वभाव, सह(मननी दृढता-साहस), ओज(इन्द्रियोनी शक्ति-उत्साह), (शारीरिक) बळ, भग (भोगनुं स्थान होवापणुं- सौभाग्य), गम्भीरता, स्थिरता, आस्तिक्ता, कीर्ति, मान, गर्वनो अभाव ॥२८॥

आ ओगणचाळीस अने बीजा ब्रह्मण्यता, भक्तवत्सलता वगेरे असङ्ख्य गुणो भगवान्‌ श्रीकृष्णमां बिराजे छे, महान बनवानी इच्छा राखनार सर्व लोको जेनी इच्छा करे छे. ते महान गुणो, अपार ज्ञान, अखूट बळ, भगवान्‌मां सदा पूर्ण रूपे बिराजे छे, जराय ओछा थता नथी ॥२९॥

ए ज सर्वगुणना एक स्थानरूप अने लक्ष्मीना आश्रयरूप भगवान्‌थी विरहित थयेल अने पापना मित्र कळीयुगनी कुदृष्टिनो शिकार बनी चूकेली आ दुनिया जोईने हुं शोक करुं छुम् ॥३०॥

हे देवश्रेष्ठ! मारा आत्मानो अने तुं धर्म छे तेनो हुं शोक करुं छुं. देवो, पितृओ, ऋषिओ, सज्जनो, बधा वर्णो तथा आश्रमोनो मने शोक थाय छे॥३१॥

भगवानने शरणे गयेला ब्रह्मा वगेरे देवो जेमना कटाक्ष मात्रनी कामनाथी घणा काळ सुधी तपश्चर्या करे छे ते लक्ष्मीजी पोताना निवासरूप कमळना वनने छोडी अत्यन्त प्रेमपूर्वक जे चरण कमलोनी छत्रछायानुं सेवन कर्या करे छे ॥३२॥

[[१०३]] ए ज भगवानना कमल, वज्र, अङ्कुश, धजा वगेरे चिन्होथी युक्त श्रीचरणोथी विभूषित होवाथी मने महान वैभव प्राप्त थयो हतो अने त्रण लोकथी अधिक शोभती हती ते चरणनी विभूतिनुं अभिमान थवाथी अन्ते भगवाने मने छोडी दीधी एनो हुं शोक करुं छुं. ॥३३॥

स्वतन्त्र भगवाने आसुर राजाओने सेङ्कडो अक्षौहिणी सेना मने भार करनारी हती तेने मारीने मारो भार उतार्यो, पोताना पराक्रमथी ओछा पगवाळो एटले दुःखथी ऊभो रही शके तेवा जे तुं तेना पग सम्पूर्ण कर्या तेवा, यादवोमां सुन्दर श्रीअङ्गने धारण करी विहार करता ॥३४॥

ते भगवाननो विरह कोण सही शके? प्रेम र्नीगळती दृष्टि, मनोहर मलकाट अने मधथीय मीठी वातोथी मथुरानी स्त्रीओना मान साथे धीरजने पण प्रभुए हरी लीधेल. पुरुषनो विरह पण स्त्रीथी सहन न थई शके तो पछी पुरुषोत्तमना विरहनी तो वात ज शुं? पुरुषोत्तमनो विरह जे सहन करी शके ते स्त्री दर असल स्त्री ज कहेवडाववाने योग्य नथी. मारा उपर तो एमना श्रीचरण चिह्‌नो अङ्कित थतां मने रोमाञ्च थतो; पछी मारी दशानी तो वात ज शी? ॥३५॥

तयोरेवं कथयतो पृथिवीधर्मयोस्तदा ॥ परीक्षिन्नाम राजर्षिः प्राप्तः प्रार्ची सरस्वतीम्‌ ॥३६॥

एम पृथ्वीने धर्मनो संवाद चालतो हतो तेटलामां राजर्षि परीक्षित प्राची सरस्वती पासे आवी पहोञ्च्या ॥३६॥

इति श्रीभागवत्‌ प्रथमस्कन्धनो (उत्तमप्रकरणमां दशमो) ‘‘कलिए पीडेली भूमि पासे परीक्षितनुं आववुं’’ नामनो सोळमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. भगवत्सेवा अने भगवद्‌गुणगान ए भक्तिमयी निष्काम-पवित्र जीवनसाधना होवी जोईए, धन्धो नर्ही. हवेली-मन्दिरमां जाहेर सेवा-मनोरथोना रूपमां भगवत्सेवाने तेमज भागवतकथा, ढाढीलीला, मालापहेरामणीना माध्यमथी भगवत्कथाने पोतानो धन्धो बनावी बेठेला ‘भक्ति’शब्दनो उच्चार करवा पण लायक नथी.
[[१०४]]

ईं उं ईं उं

अध्याय १७

परीक्षित राजाए कलिने करेली शिक्षा

विशेष - आ सत्तरमां अध्यायमां राजाए पृथ्वी अने धर्म नुं दुःख जाणीने सान्त्वन कर्युं ए वात छे. कलिने पहेलो मारत तो पृथ्वी अने धर्म ने भय थवाथी स्वस्थताथी अभिप्राय कही शक्त नहि माटे प्रथम ए बन्नेनुं सान्त्वन कर्या पछी कळियुगनो निग्रह करवानी वात करी छे. राजाने विवेक उत्पन्न थवा माटे धर्मनी उक्ति छे. सर्व सामर्थ्यनो सम्बन्ध वैराग्य थवा माटे छे. कलियुगे राजानो वेश कर्यो छे तेथी राजाना वेशमां पण ए मारक छे एम बताववामाटे छे. धर्मना पग परीक्षिते सान्ध्या छे. आ अध्यायमां श्लोक क्रम-४ श्लोकथी धर्म वगेरेने राजाए जोया, १२ थी तेमने राजाए प्रश्न कर्यो, ४ श्लोकथी धर्मनां वाक्यो, ७ श्लोकथी एनो विचार छे, ८ थी कलिनुं शासन कर्युं छे, १ श्लोकथी ए कलिनुं स्थाननुं दान कर्युं छे, बीजा श्लोकोथी धर्मादिनुं सान्त्वन छे. तत्र गोमिथुनं राजा हन्यमानमनाथवत्‌ ॥ दण्डहस्तं च वृषलं ददृशे नृपलाञ्छनम्‌ ॥१॥

सूतजी बोल्या - परीक्षिते राजाना चिह्‌नने धारण करनार तथा जेना हाथमां दण्ड छे तेवा शूद्रने जोयो तथा अनाथ जेवां गाय अने बळदनी जोडने शूद्रथी पीटाती जोई ॥१॥

शुद्रे फटकारेलो, मृणाल सरखो धोळो अने भयथी मूत्र करतो, कम्पतो, एक पगथी ऊभो रहेलो तेवा बळदने जोयो ॥२॥

धर्मरूप अग्निहोत्र वगेरेना पदार्थोने आपनारी, दीन, शूद्रना पगनी पाटुओ सहन करनारी, वाछडां वगरनी, आङ्खमां आंसुवाळी, दुबळी अने घासनी इच्छा करती गायने जोई ॥३॥

सोनानां राचरचीलान्थी शणगारेला रथमां बेठेल परीक्षित राजाए बन्नेने जोई मेघना सरखी गम्भीर वाणीथी हाथमां धनुष उठावीने एने पूछयुं - ॥४॥

माराथी रक्षायेलां आ लोकमां निर्बळने बळथी मारनार बळवाळो तुं छे कोण? राजाना जेवो वेश छे पण कर्मथी शूद्र छे ॥५॥

श्रीकृष्ण अर्जुनने साथे लईने गया पछी एकान्तमां निरपराध प्राणीने प्रहार करतो तुं अपराधी कोण छे? तारा कर्मथी तुं वधने लायक छे ॥६॥

[[१०५]] त्रण पगथी लङ्गडो, एक पगथी चालनार अने मृणालना जेवा सफेद बळदनुं रूप धरनार अमने खेद करावनार तुं कोई देव छे? ॥७॥

कुरुकुलना राजाओना भुजदण्डथी सुरक्षित आ पृथ्वीतळ उपर तारा सिवाय कोईना आंसुओ पड्यां नथी ॥८॥

हे धेनुपुत्र! तुं शोक न कर. शूद्रनो भय हवे नथी एम जाण अने हे माताजी! खलने दण्ड देनार हुं हाजर छुं माटे तमो रुदन न करो. तमारुं कल्याण हो ॥९॥

हे साध्वि! जेना देशमां बधी प्रजा दुष्टोथी त्रास पामे ते राजा प्रमादी गणाय. अने एना कीर्ति, आयुष्य, भाग्य अने परलोक नो नाश थाय छे ॥१०॥

राजाओनो प्रथम धर्म ए छे के दुःखीनुं दुःख दूर करवुं. तेथी आ प्राणीओनो द्रोह करनार सौथी दुष्ट छे तेनो हुं वध करीश ॥११॥

हे सुरभिनन्दन! तमे तो चार पगवाळां प्राणी छो. चारमान्थी त्रण पग कोणे कापी नाख्या? श्रीकृष्णना अनुयायी राजाओना राज्यमां क्यारेय कोई पण तमारी माफक दुःखी न हो ॥१२॥

हे बळद! तारुं भलुं थाओ. सारा अने कोईनो अपराध न करे तेवा साधुजनना देहनो अङ्ग-भङ्ग करनार अने पाण्डवोनी कीर्तिने कलङ्क लगाडनार ते कोण छे ए कहे ॥१३॥

निरपराधीनो दोष करनारने बधी बाजुथी माराथी भय छे. निरपराधी प्राणीओने दुःख देनार अङ्कुश वगरनो माणस भले देव होय तो पण एनो बाजुबन्ध सहित हाथ हुं उडावी दईश ॥१४॥

राजानो परम धर्म एक ए ज छे के स्वधर्ममां रहेता लोकोनुं पालन करवुं. आपत्ति न होय तेवा समयमां पण स्वधर्मने छोडनारने दण्ड करे ए राजानो बीजो परम धर्म छे ॥१५॥

धर्मे कह्युं - पाण्डवना पुत्र! आपनुं आवुं अभयदान देनारुं वचन योग्य छे, जे पाण्डवोना गुणना समुदायने वश थईने श्रीकृष्णे एमना दूतपणानो पण स्वीकार कर्यो ॥१६॥

हे नरेन्द्र! शास्त्रोना जुदा-जुदा वचनोथी मोहित थयेल होवाथी अमे ते पुरुषने नथी जाणता, जेनाथी क्लेशोनां कारण उत्पन्न थाय छे ॥१७॥

केटलाक विकल्प ज जेने ढाङ्की रहे छे तेवा लोको सुख-दुःखनुं कारण मन छे एम
[[१०६]] कहे छे. बीजाओ प्रारब्धने सुख-दुःखना कारणरूप माने छे. केटलाक कालने तो वळी बीजा स्वभावने सर्वनुं कारण कहे छे ॥१८॥

केटलाक तो ए वात तर्कमां आवे एवी नथी अने कहेवानो निर्देश पण न करी शकाय एम कहेनार छे. तेथी हे राजर्षि! आमां जे सुख-दुःखना कारणमां तमारी बुद्धिथी तमने योग्य लागे तेनो आप ज विचार करी निश्चय करो ॥१९॥

एवां धर्मनां वचन साम्भळी सम्राट परीक्षित चित्त स्थिर करी खेद दूर करीने ए धर्मने ज फरीने हे ऋषिश्रेष्ठ पूछवा लाग्या ॥२०॥

राजाए कह्युं - धर्मने जाणनार धर्म तुं धर्मरूप बोले छे; माटे वृषभनुं रूप धारण करनार तुं धर्म छे; (तने दुःख देनारनुं नाम एटलामाटे ते न बताव्युं) कारण के अधर्म करनारने जे नरकादि स्थान मळे ते ज अधर्मनी चुगली करनारने पण मळे ए जाणी, न बोलनार तो धर्म ज होय ॥२१॥

अथवा भगवान्‌थी प्रेरित मायानी गति साधारण लोको मनथी के वचनथी जाणी शक्ता नथी, कारण के एनुं ज्ञान मन अने वाणीथी पर छे ॥२२॥

तप, पवित्रता, दया अने सत्य ए तारा चार पग सत्ययुगमां हता. ते-ते युग जतां एक-एक पग अधर्मना अंश मोह, सङ्ग अने मदथी ओछा थतां हाल तारो एक पग रह्यो छे* ॥२३॥

विशेष - सत्ययुगमां तपश्चर्या धर्म मुख्य अने बीजा धर्म गौण हता; पण ते युग पूरो थतां तपने गर्व थयो तेथी गर्ववडे तपोरूप धर्मनष्ट थयो. त्रेतायुगमां पवित्रता मुख्य हती ते सङ्गदोषथी नष्ट थतां बीजो पग गयो. एम द्वापरमां मदथी दयारूप मुख्य धर्म हतो ते गयो. एम त्रण धर्मना पगनो त्रण युगे लोप कर्यो. हालमां सत्य उपर ज धर्मनो आधार छे. हे धर्म! अत्यारे सत्य नामना तारा एक चरणथी तुं तारो निर्वाह अने प्रचार कर. ए सत्यने आ अधर्मथी वधेलो कळियुग हडप करी जवानी इच्छा करे छे ॥२४॥

आ गौमाता साक्षात्‌ पृथ्वी छे. भगवाने एनो कमरतोड बोजो उतारी दीधो हतो अने एमना निरवधि सौन्दर्य रेलावता चरणचिह्‌नोथी सर्वत्र उत्सवमय बनी गई हती ॥२५॥

अत्यारे तेने प्रभुनो वियोग थयो छे. ए साध्वी अभागणीनी समान नेत्रोमां जल लावी ए चिन्ता करी रही छे के हवेराजानो स्वाङ्ग सजी ब्राह्मणोनो द्रोह करनार [[१०७]] शूद्रो मारो भोग करशे ॥२६॥

महारथी परीक्षित राजाए एम धर्म अने पृथ्वीने समजावी, अधर्मना कारणरूप कळियुगने पूरो करवा हाथमां तीक्ष्ण तलवार लीधी ॥२७॥

‘‘आ राजा मने मारी नाखशे’’ एम धारी राजानां चिह्‌न छोडी दई भयथी व्याकुळ कळियुग परीक्षित राजाना चरणना मूळमां मस्तक धरी ढळी पड्यो (अने चरणनो स्पर्श कर्यो जेनाथी राजानी पण बुद्धि बगडी) ॥२८॥

परीक्षित खूब यशस्वी, दीन वत्सल अने शरणागत वत्सल हता. एमणे ज्यारे कलियुगने पोताना चरणोमां पडेल जोयो तो कृपा करी एने मार्यो नहि पण हसता होय तेम तेने कह्युम् ॥२९॥

अर्जुनना यशने धारण करनार राजाने हाथ जोडनाराने भय जरा जेटलो पण नथी पण तुं अधर्मनो बन्धु छो तेथी मारा राज्यमां तारे बिलकुल रहेवुं नहि ॥३०॥

राजाओना देहमां तुं ज्यारथी दाखल थयो त्यारथी ज तारी पाछळ चालनारो तारी सेनारूप अधर्मनो समूह पण राजाओना शरीरमां आवेलो देखाय छे. (अधर्मना नव प्राणने गणावे छे) तेमां
१. लोभ (पारकाना द्रव्यनी इच्छा)
२. अनृत खोटुं बोलवुं (बीजाने खोटुं आळ चडाववुं)
३. चौर्य (नजरे जोतां न लई शकाय एवो कोई बळवाळो होय तो एनी रजा वगर गुप्त रीते एनी वस्तु लई लेवी)
४. अनार्य (अनाचार, दुर्बळ होय तो एनी स्त्री वगेरेनुं हरण करवुं)
५. अंह (तेम करवानी तेनी ताकात न होय तो घर सळगावी मूकवुं)
६. ज्येष्ठा (कोईने दरिद्र बनावी देवो)
७. माया (छेतरवानी चतुराई)
८. कलह (कङ्कास करवो)
९. दम्भ (वात छुपाववा फरीने विश्वास पेदा करवानो देखाव करवो) —ए ९ दोषो तारी सेनारूप छे. ज्यां तुं जाय त्यां ए होय छे माटे अधर्मना प्राणरूप कह्या छे ॥३१॥

हे अधर्मना बन्धु! कलि, सत्य अने धर्म ज्यां रहे छे तेवा ब्रह्मावर्तमां यज्ञनो
[[१०८]] विस्तार जाणनार ब्राह्मणो यज्ञेश्वर भगवाननुं ज्यां यजन करे छे त्यां तारे न रहेवुं ॥३२॥

जे ब्रह्मावर्तमां पूजाता यज्ञमूर्ति भगवान्‌ भजनारनी कामना अने एनुं सुख वधारे छे तथा स्थावर अने जङ्गम प्राणीओनी अन्दर अने बहार वायुनी जेम आत्मारूपे बिराजे छे ॥३३॥

सूतजीए कह्युं - परीक्षिते एवो हुकम कर्यो त्यारे कलि ध्रूजी ऊठ्यो अने यमराजनी जेम मारवाने तैयार अने तलवार उगामीने रहेला परीक्षितने कलि कहेवा लाग्यो ॥३४॥

कलि बोल्यो - हे सम्राट! आपनी आज्ञाथी हुं ज्यां-ज्यां रहेवानो विचार करुं छुं त्यां-त्यां आपने धनुषपर बाण चढावीने ऊभेला जोउ छुम् ॥३५॥

माटे धर्मधारीओमां श्रेष्ठ हे राजन्‌! मने एवुं स्थान बतावो के ज्यां हुं स्थिर रही आपनी आज्ञानुं पालन करी शकुम् ॥३६॥

सूतजीए कह्युं - एम ज्यारे प्रार्थना करी त्यारे कळियुगने जुगार, मद्यपान, हिंसानुं स्थान अने स्त्रीओ के ज्यां चार प्रकारना अधर्म* होय छे ते स्थान आप्यां ॥३७॥

विशेष - ए चार स्थान स्वरूपथी अधर्मरूप नथी पण धर्मथी विरुद्ध होय ते कलिने रहेवा लायक छे. तेथी स्वस्वधर्मनिष्ठ स्त्री, विधिपूर्वकनी हिंसा, विधिपूर्वकनुं मद्यपान वगेरे अधर्मरूप गणातां नथी. तेथी ए कलिना निवासरूप नथी ए लक्षमां राखवानुं छे. ए चार प्रकारनां महापातकरूपी पण छे. ‘‘ब्रह्महत्या सुरापानं स्तेयं गुर्वङ्गनागमः’’ ए चार महापातक धर्मशास्त्रमां गणेल छे. फरीने याचना करी त्यारे सोनुं आप्युं तेथी असत्य, मद, काम, रज अने वेर ए पाञ्च स्थान कलिना निवासरूप थयां. (जुगारमां असत्य, मद्यपानमां मद, रजोगुण एटले क्रोध तेमां हिंसा मुख्य काममां स्त्री अने सोनामां वेर छे) एम परीक्षित राजानी आज्ञाने पाळतो अधर्मनो उत्पादक कलि, उत्तराकुंवरे आपेलां आ पाञ्च स्थानमां रहेवा लाग्यो ॥३८-३९॥

तेथी जेने आबादीनी इच्छा होय ते ए कलिना निवास रूप पाञ्च पदार्थनुं सेवन न करे. तेमां पण खास करीने राजा, लोकपति अने गुरु ए त्रणे; समाज, शिष्य अने घरना पालक होवाथी, अधर्मना स्थानोने न सेवे. नहि तो ए द्वारा प्रजा, सेवक [[१०९]] अने बाळ-बच्चामां अधर्मनी प्रवृत्ति थाय छे. वृषभ रूपी धर्मना त्रण पग - तप, शौच अने दया नष्ट थया हता ते पाछा सान्ध्या अने पृथ्वीने दिलासो आपी तेने समृद्ध करी ॥४०-४१॥

अरण्यमां प्रवेशनी इच्छावाळा पितामह युधिष्ठिरे आपेला अने राजाने लायक तेवा ए सिंहासन उपर अत्यारे परीक्षित राजा बिराजे छे ॥४२॥

परम यशस्वी, कौरवेन्द्रनी लक्ष्मीथी अधिक शोभता ए राजर्षि परीक्षित हालमां हस्तिनापुरमां चक्रवर्ती महाराजा छे ॥४३॥

इत्थम्भूतानुभावोऽयम्‌ अभिमन्युसुतो नृपः ॥ यस्य पालयतः क्षोर्णी यूयं सत्राय दीक्षिताः ॥४४॥

अभिमन्युनन्दन राजा परीक्षित हकीक्तमां एवो ज प्रभावशाळी छे जेना शासनकाळमां आपे दीर्ध यज्ञनेमाटे दीक्षा लीधी छे ॥४४॥

इति श्रीमद्‌भागवत्‌ प्रथमस्कन्धनो (उत्तमप्रकरणमां ११मो) ‘‘परीक्षित राजाए कलिए करेली शिक्षा’’ नामनो सत्तरमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. ब्रह्मसम्बन्ध लेनाराओ! सावधना!!! समर्पित जीवन जीववानी दीक्षा लीधा बाद असमर्पित खान-पान वगेरेनो त्याग न करनारनुं ब्रह्मसम्बन्ध फोक थई जाय छे (सिद्धान्तरहस्य) अने ते नअसिपत्रथ नामना नरकमां जाय छे. (श्रीहरिरायचरण)

अध्याय १८

परीक्षित राजाने थयेलो ब्राह्मणनो शाप

विशेष - १८ अने १९ मा अध्यायमां परीक्षितनी छेल्ली कथानुं वर्णन छे. तेमां ब्राह्मणना शापथी राजाने वैराग्य थयुं तेथी राज्य छोड्युं छे अने गङ्गा उपर प्रायो पवेश कर्यो छे ए प्रथम सूक्ष्मताथी कह्युं, पछी श्रोतानी प्रसन्नताने माटे विस्तारथी कह्युं छे. ब्राह्मणथी शाप थयो एनुं कारण एटलुं ज के ए शाप वगर तुरत मुक्ति करनार कांई बीजुं साधन हतुं नहि. तक्षकनो अग्नि अलौकिक होय ते द्वारा राजानो दाह कराववाना उद्‌देशथी भगवाने जे ब्राह्मण द्वारा ए शाप अपाव्यो छे. जो एम न होय तो आनी उपर अमृतनी वृष्टि थई छे तेथी
[[११०]] ईं उं ईं उम्बीजी रीते एना मृत्युनो सम्भव नथी. यादवोने ब्राह्मणनां शापथी मोह थयो तेम परीक्षितने मोह नथी थयो तेथी परीक्षितनी महत्ता सिद्ध थई. १० श्लोकथी परीक्षितनो उपसंहार ७ श्लोकथी फरीने प्रश्न छे, १४ श्लोकथी अपराध, ६ श्लोकथी शाप, १३ श्लोकथी शमीकनो अनुताप एम श्लोकक्रम छे. यो वै द्रौण्यस्त्रविप्लुष्टो न मातुरुदरे मृतः ॥ अनुग्रहाद्‌ भगवतः कृष्णस्याद्‌भुतकर्मणः ॥१॥

सूतजी कहेवा लाग्या - अश्वत्थामाना ब्रह्मास्त्रथी बळ्या तो पण परीक्षित अद्‌भुत कर्मवाळा श्रीकृष्ण भगवानना अनुग्रहथी माताना उदरमां मर्या नहि ॥१॥

ब्राह्मणना कोपथी उद्‌भवेल अने प्राणनो नाश करनार तक्षक जो के अति भयङ्कर हतो तो पण भगवान्‌मां जेणे अन्तःकरण अर्पण कर्युं छे तेवा परीक्षितने ए तक्षकनो भय लाग्यो नहि ॥२॥

चारे बाजुथी आसक्ति छोडी, जेमणे भगवाननी स्थिति जाणी छे तेवा शुकदेवजीना शिष्य परीक्षिते गङ्गाना किनारा उपर पोतानो देह छोड्यो ॥३॥

लौकिक वातमां पण जेने भगवाननो सम्बन्ध होय तेवा अने भगवानना चरणने तथा कथामृतने सेवनार भक्तोने अन्त समयमां पण भय थतो नथी ॥४॥

कलि भूतळ उपर आव्यो पण ज्यां सुधी अभिमन्युना पुत्र परीक्षित एक सम्राट तरीके आ पृथ्वीनी उपर सत्ता चलावता हता त्यां सुधी कलि कांई काम करवाने समर्थ न थयो ॥५॥

जे दिवसे अने जे क्षणे भगवाने पृथ्वी छोडी ते ज दिवसे अने ते ज क्षणे अर्ही अधर्मनुं मूल कारण कलि पृथ्वी उपर चालु थयो ॥६॥

भ्रमरना जेवा *सारग्राही सम्राट परीक्षिते कलियुगनो द्वेष न कर्यो. कारण के (कलिमां) पुण्य तरत फळ आपे छे ज्यारे पाप तरत फल आपतान्नथी ॥७॥

विशेष - चोखा उपर फोतरां होय छे तेथी लोको चोखा नाखी देता नथी. चोखा लई ले छे, फोतरां फेङ्की दे छे. अन्नमां झेर अने मध भळेलां होय तो अन्न जेम फेङ्की देवाय एम गुण करतां दोष वधारे होय तो त्याग केम न करवो? एवी शङ्का थाय तो कहे छे के परीक्षित भ्रमर जेवा सारग्राही हता. केतकीनी चारे बाजुए काण्टाओ होय छतां तेमां मध वधारे होवाथी भमरो मध-मध लई ले छे, काण्टाथी र्वीधाया विना. मध ज एनुं जीवन छे, वळी ‘‘सत्ययुगमां पाप ते ज क्षणे फळ आपे छे, त्रेतायुगमां बारमा दिवसे, द्वापरमां एक महिने अने कलियुगमां एक [[१११]] वरसे. एथी उलटुं सत्कर्म-धर्म, पुण्य कलियुगमां ते ज क्षणे फळ आपे छे, त्रेतामां बारमा दिवसे, द्वापरमां एक मासे अने सत्ययुगमां एक वरसे. वळी कलियुगमां संसर्गथी थतां पाप लागतां ज नथी, शरीरथी खरेखर करेलां पापनुं फळ भोगववुं पडे छे. माटे राजाए कलिने सही लीधो. ए बाळकनी पासे ज शूर छे, धीर पासे बीकण छे, प्रमादवाळा तरफ ए सावधान छे. अने नहार जेवो छे एटलेज जागता जीवोने पकडतो नथी पण नहार जेम बाळको तथा सूतेलान्ने उपाडी जाय छे तेम असावधमां प्रवर्तवावाळो कलिछे॥८॥

जेमां वासुदेवनी कथा आवे छे तेवुं पवित्र, परीक्षितनुं आख्यान तमे जे मने पूछयुं हतुं ते में तमने विस्तार करीने कह्युम् ॥९॥

जेनी लीला अधिक कहेवा लायक छे तेवा भगवाननी गुण अने लीला सम्बन्धी जे-जे कथा होय ते जीववा इच्छानाराओए अथवा भक्तिरूपी अभ्युदय इच्छनाराओए सारी रीते सेवन करवा योग्य छे.(घीवाळो खोराकज जेम ताकात-बळ आपे छे तेम)।१०। ऋषिओ बोल्या - हे सौम्य सूत! तमे युग-युग सुधी जीवो अने तमारो विमळ यश हो केमके तमे माणसने मृत्युथी बचावनार एटले अमृतरूप तेवा भगवानना यश अमने उद्देशीने विस्तारथी कहोछो ॥११॥

यज्ञना धुमाडाथी जेमना देह भूखरा थई गया छे तेवा अमो, फळना अविश्वासवाळां आ यज्ञ वगेरे कर्म करीए छीए त्यां आवीने गोविन्दना चरणारविन्दना मकरन्दनुं तमे पान करावो छो ॥१२॥

भगवत्प्रेमी भक्तना, सङ्गनी एक क्षणनी तुलनामां स्वर्ग के मोक्षने पण अमे तो गणता नथी, (एक ज मुठ्ठी साकर खावाथी जे रसनो अनुभव थाय ते खाण्डी खोळ खावाथी थाय?) तो पछी मनुष्यना आ लोकनां सुख (पुत्र, धन वगेरे) तो सत्सङ्गनी क्षणनी बरोबरी कयान्थी करी शके? ॥१३॥

एवो कोण रसमर्मज्ञ हशे ज महापुरुषोना एकमात्र जीवन सर्वस्व श्रीकृष्णनी लीला कथाओथी तृप्त थई जाय? कारण के ब्रह्मा अने शिव वगेरे जे समर्थ छे ते पण गुणातीत भगवानना अनन्त कल्याणमय गुणोनो पार पामी शकया नथी॥१४॥

विद्वन्‌! तमे भगवानने तमारा जीवननो ध्रुवतारक मानो छो. तेथी आप विशुद्ध चरित्रोनुं श्रद्धाळु श्रोता एवा अमारा माटे विस्तारथी वर्णन करो ॥१५॥

[[११२]] भगवानना महान भक्त, अत्यन्त बुद्धिमान परीक्षित राजा, शुके कहेला जे ज्ञानथी गरुड जेनी ध्वजामां छे तेवा भगवाननां चरणकमळने पाम्याम् ॥१६॥

ते परम पवित्र, स्पष्ट अर्थवाळुं, अद्‌भुत योगवाळुं अने अनन्त भगवाननां चरित्रयुक्त, भगवद्‌भक्तोना मनने चारे तरफथी आनन्द आपनारुं एवुं आख्यान तमे अमने कृपा करी सम्भळावो ॥१७॥

सूतजी कहेवा लाग्या - अहो! अमे विलोम जातिथी उत्पन्न थया छीए छतां वृद्धनी सेवाथी आजे अमारो जन्म सफळ थयो, कारण के महत्तम (महानमां महान) पुरुषोनी भगवत्कथा कहेवानी आज्ञा, हीनकुलमां जन्म थवाथी थती मननी पीडाने तरत ज दूर करे छे ॥१८॥

तो पछी मोटाओने पण छेल्ले जेमनो आश्रय लेवो पडे तेवा भगवाननां नाम मोढेथी उच्चारता पुरुषना सर्व पुरुषार्थ सिद्ध थाय एमां तो कहेवुं शुं? कारण के ए भगवान्‌ अनन्त शक्तिवाळा अने अनन्त छे एमना अनन्त गुणोने लीधे एमनुं ‘अनन्त’ नाम पड्युं छे. ए भगवानना गुणनी बरोबरी के एनाथी सरसाई कोई करी शके तेवुं छे ज नहि. अने आटलुं कहेवाथी ज बधी मोटाई एमां आवी जाय छे के लक्ष्मीनी बीजा लोको प्रार्थना करे छे ते लक्ष्मी प्रार्थना करनार लोकोने छोडीने नहि इच्छता एवा भगवाननां चरणकमळनी रेणुनी सेवा करे छे. (एटलुं ज बोलवुं भगवाननी मोटाई कहेवामां पूरतुं छे.) ॥१९-२०॥

जे भगवानना चरणनखथी नीकळतुं अने ब्रह्माए चरण धोवामाटे आपेलुं (गङ्गानुं) जळ महादेव सहित जगत्‌ने पवित्र करे छे तो पछी एवा मुकुन्द भगवान्‌थी बीजो कयो अर्थ वधारे होई शके? ॥२१॥

देहादिमां लागेल ममता वगेरे आसक्ति छोडीने धीर पुरुषो भगवान्‌मां अनुरागवाळा थाय छे. ते अहिंसा अने शान्तिएज स्वधर्म छे तेवा परमहंसने सेववालायक पदने प्राप्त थाय छे ॥२२॥

हे सूर्य तुल्य ऋषिओ! मने आपे जे पूछयुं ते में ज्यां सुधी मारुं ज्ञान हतुं त्यां सुधी कह्युं. पक्षीओ पोतानी पाङ्खमां जोर होय तेटलुं आकाशमां ऊडी शके छे; तेम ज विशेषपणाथी जोनार विद्वान पोताना गजा प्रमाणे भगवाननुं चरित्र जाणे छे ॥२३॥

(राजाने शाप थयो ते कथा कहे छे के) एक दिवस परीक्षित धनुष लई वनमां मृगया [[११३]] करतां मृगनी पाछळ वधारे दूर गया तेथी थाकी गया; भूख अने तरस लागवाथी पासे जोयुं तो कयांए जलाशय न जोवाथी एक आश्रममां प्रवेश कर्यो॥२४॥

त्यां इन्द्रिय, प्राण, मन अने बुद्धिने रोकीने, आङ्खोने बन्ध करीने बेठेला शान्त मुनिने जोया ॥२५॥

जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति ए त्रण स्थानथी पर चतुर्थस्थानरूप समाधिने प्राप्त थयेल विकार रहित ब्रह्मभूत अने चोतरफ वीखरायेली जटाथी, रुरुमृग अने काळा मृगनी चर्मथी जेमनुं शरीर ढङ्कायुं छे तेवा मुनिनी पासे जईने, जेनुं ताळवुं सुकाय छे तेवा राजाए जळ माग्युं. ज्यारे राजाने बेसवा माटे घासनुं आसन पण न मळ्युं, कोईए भूमिउपर बेसवानुं न कह्युं पछीअर्ध्य अने आदरयुक्त मीठी वातोनी तो वात शी त्यारे जाणे पोतानुं अपमान थयुं होय तेम मानीने ते क्रोधने वश थई गया ॥२६-२७॥

शौनकजी! ए भूख तरसथी तरफडी रहेल हता तेथी ब्राह्मण प्रत्ये एमने जीवनमां पहेली ज वार इर्ष्या अने क्रोध थयाम् ॥२८॥

कलिने स्थान आपवाथी ब्राह्मणनुं अपमान करवानी एमनी बुद्धि थई; तेथी क्रोध करीने सर्पने मारी ए मरेला सर्पने त्यान्थी नीकळती वखते धनुषनी अणी वडे उठावी, ब्राह्मणना खभा उपर नाखी, पोताना नगरमां राजा आव्या ॥२९॥

राजाना मनने एम थयुं के बधी इन्द्रियोने बन्ध करी आङ्खो र्मीचीने बेठेल मुनि खरेखर समाधिमां छे के ‘‘क्षत्रबन्धुओ आवे तोय शुं अने जाय तोय शुं?’’ एम धारी खोटी समाधि करी छे ए जाणी लउं माटे राजाए मुनिना गळामां सर्पने फेङ्कयो ॥३०॥

ए मुनिनो अति तेजस्वी पुत्र बाळको साथे फरतो हतो, पोताना पितानुं राजाए अपमान कर्युं छे एम साम्भळी ते त्यां आवी आ प्रमाणे बोल्यो ॥३१॥

अहो! एठवाड खाईने तगडा थयेला कूतरांओनी जेम, द्वार उपर रहेनार कूतरांओ जेम स्वामीनो अपराध करे तेम जे राजाओ पालक छे ते एमना स्वामीनो अपराध करे छे ते आश्चर्यने तो जुओ ॥३२॥

ब्राह्मणोए क्षत्रियने एमना घरनी चोकी करनार द्वारपाळ नक्की कर्या छे ते क्षत्रिय ब्राह्मणना घरमां जई पात्रमां राखेलुं खावानुं खाई जाय ए योग्य छे शुं? ॥३३॥

[[११४]] कृष्ण भगवान्‌ अवळे मार्गे चालनारने दण्ड करनार हता तेमना गया पछी मर्यादा तोडनार आ राजाने हुं आजे ज शिक्षा करुं छुं. जोई लो तमे मारा ब्रह्मतेजनुं बल ॥३४॥

ऋषिकुमारोने एटलुं कही, क्रोधथी जेनां नेत्र लाल थयां छे. तेवा ऋषिकुमारे कौशिक नदीना जळनुं आचमन करी वाणीरूपी वज्र फेकयुम् ॥३५॥

आ प्रमाणे मर्यादानुं उल्लङ्घन करनार अने मारा पितानो द्रोह करनार, कुळमां अङ्गाररूप अने मारा पिताना गळामां आ सर्प पहेरावनारने मारो प्रेरायेलो तक्षक नाग सातमें दिवसे बाळी भस्म करो ॥३६॥

एम कही, आश्रममां आव्यो. त्यां पोताना पिताना गळामां मरेला सर्पनुं शरीर जोई दुःखथी आर्त थई मुक्तकण्ठे रोवा लाग्यो ॥३७॥

अङ्गिराना गोत्रमां उत्पन्न थयेला ते शमीकमुनिए पुत्रनुं रुदन साम्भळी आङ्खो खोली त्यां पोताना गळामां सर्पनुं शरीर जोईने ए सर्प शरीरने दूर फेङ्की, ‘‘शा माटे रुदन करे छे, कोणे तारो अपराध कर्यो’’ एम पुत्रने पूछवाथी बनेली बधी वात पुत्रे पिताने कही बतावी ॥३८-३९॥

राजाने शाप आप्यो साम्भळी ब्राह्मणे पुत्रने अभिनन्दन न कर्युं पण हे मूर्ख! ते मोटुं पाप कर्युं केमके थोडा अपराधमां मोटो दण्ड कर्यो ॥४०॥

हे अविपक्व बुद्धिवाळा! नरदेवने तुं बीजानी बरोबर गणे ए योग्य नथी. एना कोईथी न सहन थाय तेवा तेजथी सुरक्षित थयेली प्रजा सर्वत्र निर्भय थईने कल्याण सम्पादन करे छे ॥४१॥

ज्यारे राजानुं नाम धारण करनार भगवान्‌ पृथ्वीमां नहि देखाय त्यारे घेटान्नुं टोळुं रक्षक वगरनुं आमतेम फरी नाश पामे तेम आ लोक चोरोथी ऊभराई जईने कोई रक्षक न होवाथी नाश पामशे ॥४२॥

राजा नाश पामतां चोर लोको ज पाप करशे. तेनी साथे आपणने सम्बन्ध नहि होवा छतां तेना भागी आपणे थईशुं, कारण के रक्षकने मारनार आपणे छीए. राजा जवाथी चोर लोको परस्पर मारे छे, शाप दे छे अने स्त्री वगेरे धननुं अपहरण करे छे ॥४३॥

त्यारे वर्ण अने आश्रम ना आचारवाळो वेदत्रयीमां कहेलो आर्योनो धर्म राजा वगर नाश पामे छे अने पछी अर्थ अने काम ए बे पुरुषार्थमां बुद्धिवाळा लोको थई [[११५]] जवाथी श्वान अने वानर नी जेम वर्णसङ्कर थई जाय छे. राजा परीक्षित तो महान यशस्वी धर्मधुरन्धर छे. महान भगवद्‌भक्त छे, अश्वमेध यजन करनार छे ते राजर्षि भूख अने तरस थी व्याकुळ थई एवुं करी बेठा तो एमने आपणे शाप आपीए ए कांई एमने योग्य न ज गणाय ॥४४-४५॥

हे भगवन्‌! बाळक अने अपक्व बुद्धिवाळा मारा पुत्रे आपनो निष्पाप सेवकनो आ अपराध कर्यो तेने सर्वात्मा आप क्षमा करो ॥४६॥

भगवानना भक्तोने गालीदान करे, छेतरे, शाप दे अने मार मारे तो पण एओ समर्थ होय छतां भगवानना सेवक होवाथी बदलो लेता नथी ॥४७॥

सूतजीए कह्युं - एम पुत्रे करेला पापथी ए मुनिए पश्चाताप कर्यो पण पोतानो परीक्षिते अपकार कर्यो छे एनो विचार सरखो पण न कर्यो ॥४८॥

प्रायशः साधवो लोके परैर्द्वन्द्वेषु योजिताः ॥ न व्यथन्ति न हृष्यन्ति यत आत्माऽगुणाश्रयः ॥४९॥

लोकमां भगवद्‌भक्त एमने बीजाओ दुःख दे तो पण प्रायः एनाथी दुःखी थता नथी तेम सुखी पण थता नथी, कारण के आत्मा तो सुख दुःखादि गुणथी पर छे; सुख-दुःखादिनो आश्रय अन्तःकरण छे अने आत्मा तेथी पर छे; तेथी प्रभुपरायण होवाथी सुख-दुःखनी असर थती नथी ॥४९॥

इति श्रीमद्‌भागवत्‌ प्रथमस्कन्धनो (उत्तमप्रकरणमां १२मो) ‘‘परीक्षित राजाने थयेलो ब्राह्मणनो शाप’’ नामनो अढारमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. फण्ड-फाळामाटे, आजीविकामाटे दक्षिणा लईने के मृतकना उद्धारार्थे भागवतकथा करवी, बेसाडवी के साम्भळवी ए श्रीमहाप्रभुजीनी आज्ञाना उल्लङ्घनरूप घोर पाप छे

अध्याय १९

परिक्षितनो गङ्गा उपर प्रायोप्रवेश शुकदेवजीनुं त्यां पधारवुं

विशेष - पूर्वना अध्यायमां राजाना सर्वदोषनी निवृत्ति कही राजानो प्रमाद गयो तो पण
[[११६]] ईं उं ईं उम्भगवदिच्छाथी ब्राह्मणने व्यामोह न थयो. हवे यश, कर्म, समाज अने लक्ष्मीमां परीक्षित मोटा होवाथी वैराग्य, ज्ञान अने भक्ति मां राजानी पूर्णगुणता कहे छे. आ ओगणीशमां अध्यायमां राजा सर्व छोडीने गङ्गाना तीर उपर आवीने बेठा त्यां मुनिओ आव्या तेमने प्रश्न करतां सन्देह पड्यो एटलामां शुकदेवजी पधार्या. मुनिओ राजाना भाविना ज्ञानवाळा होवाथी भगवद्‌भक्तना छेल्ला गमनने जोवा तथा कथा साम्भळवा आव्या छे. प्रश्ननो विवाद तो शुकदेवजी सर्वमां श्रेष्ठ छे एम बताववामाटे छे. नारदजीने जो के शुकना जेटलुं ज ज्ञान छे तो पण अर्ही तो वैराग्यना प्रकर्षथी उत्तमता छे; तेवुं वैराग्य नारदजीमां न होवाथी ए भागवत्‌ना वक्ता थई शक््या नहि. परशुराम तथा व्यास पण भगवदवतार छे, छतां गुरुए ज्ञान आपवाथी ज एमनी मुक्ति छे तेथी एमने वक्तापणुं नथी तेथी ज बत्रीश लक्षणवाळा शुकदेवजी भागवत्‌ना वक्ता थया छे. परीक्षितनो गर्भ भाव हतो त्यारे विष्णु भगवाने रक्षा करी अने देहत्याग समये शुकदेवजीरूपी महादेवे संहार कर्यो. पण अर्ही नरकादिथी रक्षा करी ए मुख्य वक्तव्य छे. श्लोकनो क्रम - ३ श्लोकथी राजानो पश्चाताप, ४ थी प्रायोप्रवेश अने ५ थी मुनिओनुं आगमन, ६ थी तेमनो सत्कार, ४ थी राजानी प्रशंसा, २ थी राजानो प्रश्न, ७ थी शुकना आववानो प्रस्ताव अने ९ थी राजाए शुकदेवनो प्रश्न कर्यो एम आ अध्यायमां चाळीश श्लोक आवशे. महीपतिस्त्वथ तत्कर्म गर्ह्यं विचिन्तयन्नात्मकृतं सुदुर्मनाः ॥ अहो मया मीवमनार्यवत्‌ कृतं निरागसि ब्रह्मणि गूढतेजसि ॥१॥

राजा परीक्षितनो मृगयामान्थी आवी पोते करेला निन्द्य कर्मनो विचार करतां मनमां अत्यन्त पश्चात्ताप थयो. ए अत्यन्त उदास थई गया अने विचार करवा लाग्यां ‘‘घणी ज खेदनी वात छे के में निर्दोष अने गूढ तेजवाळा ब्राह्मणनी साथे अनार्य पुरुषोना जेवो नीच व्यवहार कर्यो ॥१॥

मारा ए पापनो निवेडो थाय एमाटे जेनुं में अपमान कर्युं छे तेना तरफथी जल्दी मोटुं दुःख मने पडो के जेथी मारा पापनुं प्रायश्चित थई जाय अने फरीथी पाछो हुं एवुं काम साक्षात्‌ न करुम् ॥२॥

आजे ज मारुं राज्य, सेना भर्याभादर्या भण्डार ए बधान्ने कोपी ऊठेला ब्राह्मणनो शापरूप अग्नि बाळीने खाक करी मूको के जेथी मारा दुष्टनी ब्राह्मण, देव अने गाय प्रत्ये फरीने आवी पापबुद्धि न थाय ॥३॥

[[११७]] एम राजा विचार करे छे त्यां शमीके मोकलेल ब्राह्मणना मुखथी तक्षकथी थनारुं पोतानुं मृत्यु साम्भळ्युं. राजाए साम्भळीने ठीक थयुं एम मानवा लाग्या कारण के ‘‘तरतमां तक्षक अन्त करशे’’ ए वाक्य राजाना वैराग्यनुं कारण थयुम् ॥४॥

पछी कृष्णना चरणकमळनी सेवाने अधिक माननार परीक्षित राजाए परलोक तथा आ लोक छोडवां हवे योग्य छे एम तो पहेलेथी ज विचार कर्यो हतो तेने छोडी गङ्गा नदीना किनारा उपर अनशनव्रत लई बेठा ॥५॥

जे गङ्गाजी शोभायमान तुलसी मिश्र श्रीकृष्णना चरणनी रजथी अधिक गुणयुक्त जलप्रवाहने लईने महादेवजी सहित त्रणे लोकने पवित्र करे छे. तेवी गङ्गाने मरवाने तैयार थयेल कोण न सेवे? ॥६॥

एम परीक्षित गङ्गाजीना तीरउपर प्रायोप्रवेश करवानो निश्चय करी बेठा अने अनन्य भाववाळा थई, समस्त सङ्ग छोडी, मुनिनुं व्रत धारण करी मुकुन्दना चरणनुं ध्यान करवा लाग्या ॥७॥

ए वखते त्रिलोकीने पवित्र करनारा मोटा-मोटा महानुभाव मुनिओ शिष्यो साथे त्यां आव्या. ए सत्पुरुषो तीर्थमां जवाना बहाने पोते ज तीर्थोने पवित्र करे छे. अत्रि, वसिष्ठ, च्यवन, शरद्वान, अरिष्टनेमि, भृगु, अङ्गिरा, पराशर, विश्वामित्र, परशुराम, उतथ्य, इन्द्रप्रमद, ईध्मवाह, मेधातिथि, देवल, आर्ष्टिषेण, भरद्वाज, गौतम, पिप्पलाद, मैत्रेय, और्व, कवष, अगस्त्य, व्यास, भगवान्‌, नारद अने बीजा देवर्षि, ब्रह्मर्षि तथा राजर्षिओमां श्रेष्ठ अरुण वगेरे आव्या. ते उत्तम ऋषिओने आवेला जोई बधानुं पूजन करी राजा मस्तक नमावीने नमस्कार करवा लाग्या ॥८-११॥

ए बधा मुनिओ सुखरूपे बेठा पछी राजा फरीने प्रणाम करीने एमनी सामे ऊभा रही शुद्ध हृदयथी अञ्जलि बान्धीने ए जे कंई करवा मागता हता ते तेमने सम्भळाववा लाग्या ॥१२॥

राजा बोल्या - मोटाए जेओना उपर अनुग्रह कर्यो छे तेवा शीलवाळा अमो आजे धन्य छीए, कारण ब्राह्मणोए चरण धोवानुं ठेकाणुं होय छे त्यां जवाने पण क्षत्रियो लायक नथी, कारण के पारकी हिंसारूप एनुं कर्म निन्द्य छे (तेथी ब्राह्मणो एने पोतानी तुल्य गणता नथी पण दूर राखे छे ते धन्य छीए एम परीक्षितनुं कथन छे) ॥१३॥

[[११८]] एवा निन्द्य कर्मवाळो अने गृहस्थाश्रममां विशेष आसक्तिवाळो एवो जे हुं परीक्षित तेने ब्राह्मणनो शाप वैराग्य करावनार होवाथी ते शापरूपे भगवाने ज मारा उपर अनुग्रह कर्यो छे, कारण के शाप वगर वैराग्य न थाय अने वैराग्य न थाय तो घरमां आसक्ति रहे तेथी हृदयमां भयज उत्पन्न थाय ॥१४॥

तेथी हुं आपनी समक्ष गङ्गाना तीर उपर भगवाननुं शरण लईने आव्यो छुं एम गङ्गाजी तथा आप जाणो. ब्राह्मणे मोकलेलो कपटरूप तक्षक सुखेथी दंश करे. आप बधा भगवानना गुणनुं गान करो ॥१५॥

(हुं अपराधी होवाथी मारी मुक्ति थवी सम्भवित नथी अने हुं भगवदीय होवाथी हुं मुक्ति इच्छतो पण नथी) आप ब्राह्मणोना चरणोना प्रणाम करी पुनः एटली ज प्रार्थना करुं छुं के कर्मवशात्‌ मारे गमे ते योनिमां जन्म लेवो पडे पण भगवान्‌ श्रीकृष्णना चरणोमां मारो प्रेम स्थिर रहे, एमना चरणाश्रित महानुभाव भगवदीयोमां

विशेष प्रीति हो अने जगत्‌ना समस्त प्राणीओ प्रत्ये मारी एकधारी मैत्री रहे एवो आशीर्वाद आपो ॥१६॥

सूतजीए कह्युं - एम निश्चयवाळा राजा परीक्षिते पोताना पुत्रने राज्यनो भार सोम्पी धीर थईने समुद्रनी पत्नी गङ्गाना दक्षिण किनारे पश्चिम भागमां जेनां मूळ रह्यां छे तेवा दर्भना आसन उपर स्थिति करी ॥१७॥

आम ज्यारे राजाओमां देव जेवा परीक्षिते गङ्गा उपर प्रायोप्रवेश कर्यो अने आकाशमां देवना सङ्घो वखाणवा लाग्या अने भूमि उपर पुष्पनी वृष्टि करवा लाग्या त्यारे देवोनां दुन्दुभि वागवा लाग्या ॥१८॥

त्यां जेटला मोटा ऋषिओ आव्या हता तेमणे आ राजाना कर्मनी प्रशंसा करी अने तमे बहु उत्तम कार्य कर्युं एम एना कामने अनुमोदन आपवा लाग्या. अने प्रजा उपर अनुग्रह करवो ए ज जेना कर्तव्यनो सार छे तेवा ए महर्षिओ भगवद्‌गुणना श्रवणनी योग्यतावाळा राजाने कहेवा लाग्या ॥१९॥

हे राजर्षि श्रेष्ठ! तमे कृष्णने भजनार छो तेथी ए माटे आम सर्व त्याग करी भगवत्परायण थाओ ते कांई आश्चर्यकर नथी केमके तमारा पितामहोए पण भगवाननी पासे रहेवानी कामनाथी राजाओए भोगवेला राज्यासनने छोडी दीधुं हतुम् ॥२०॥

भगवद्‌भक्तमां मुख्य आ परीक्षित, कलेवर त्यजी ज्यां रजोगुण नथी, शोक [[११९]] नथी तेवा भगवद्धाममां जाय त्यां सुधी अमो बधा अर्ही ज रहीशुम् ॥२१॥

आवां मुनिओनां मधुर, गौरववाळां अने सत्य वचनो साम्भळीने भगवानना चरित्रनुं श्रवण करवानी इच्छाथी ए ब्राह्मणोने नमस्कार करीने राजा परीक्षिते योग्य कह्युम् ॥२२॥

राजाए कह्युं - आप बधा सर्व स्थळेथी जेम सत्यलोकमान्थी वेदो साक्षात्‌ देह धरीने आवे तेम, आव्या छो ते आपने बीजाओ उपरना अनुग्रह सिवाय बीजुं कांई प्रयोजन नथी. आ लोक के परलोकमां बीजुं कर्तव्य नथी ॥२३॥

तेथी हे ब्राह्मणो! आपनामां विश्वास राखीने मारे पूछवानुं छे के ते आ हुं पूछुं छुं के बधाने माटे बधी अवस्थाओमां अने खास करीने जेनुं मरण नजीक छे तेवा पुरुषोए, हे निष्णात विप्रवरो! आवश्यक कर्तव्य जेमां दानादि धर्मनी माफक काल वगेरेनी शुद्धिनी पण जरूर न होय ते आप विचार करीने कहो ॥२४॥

परीक्षित ज्यां ब्राह्मणोने एवो प्रश्न करे छे. त्यां भगवदिच्छाथी पृथ्वीमां पर्यटन करता, कोई लक्षणथी जेमना स्वरूपनुं ज्ञान न थई शके तेवा आत्मभावथी सन्तुष्ट, बालकोथी र्वीटायेला, अवधूत वेशवाळा, व्यासजीना पुत्र शुकदेवजी त्यां प्रकट थया ॥२५॥

सोळ वर्षनी अवस्था हती. चरण, हाथ, साथळभुजाओ खभा, गाल अने बीजां बधां अङ्ग सुकुमार हतां. नेत्रोमां मोटां-मोटां अने मनोहर हतां. नासिका कंईक ऊञ्ची हती. कान सरखा हता. सुन्दर भमर हती जेथी मुख खूब सुन्दर लागतुं हतुं. गळुं तो मानो शङ्ख ज ॥२६॥

हांसडी, ढाङ्केली छाती विशाळ अने ऊञ्ची, नाभि आवर्त (भमरी)ना जेवी ऊण्डी, उदर अत्यन्त सुन्दर त्रिवलीयुक्त हतुं. लाम्बी लाम्बी भुजाओ हती, मुख उपर वाङ्कडिया वाळ विखरायेला हता. आ दिगम्बर वेषमां तेओ उत्तम देवता जेवा तेजस्वी जणाता हता ॥२७॥

श्याम वर्ण हतो. मनमोहक यौवन हतुं. अङ्गनी शोभाथी अने रुचिर मन्दहास्यथी स्त्रीओना मनने सुखकर शुकदेवजीनां दर्शन करी बधा मुनिओ पोतपोताना आसनेथी ऊभा थया ॥२८॥

शुकदेवजीनुं स्वरूप जाणी न शकाय तेवुं छे तो पण मुनिओ एवां लक्षणना जाणनारा होवाथी जाणी लई ऊभा थई परीक्षिते आवेला अतिथिने मस्तक नमावी
[[१२०]] सत्कार कर्यो एटले मूर्ख लोको, स्त्रीओ, बाळको वगेरे शुकने जोवाने पाछळ फरतां हता ते पाछा वळ्यां. पछी राजाए एमनी पूजा करी अने ए मोटा आसन उपर बिराज्या ॥२९॥

महानमां महान ज्ञानीओने पण ज्ञान आपनार शुकदेवजी, ब्रह्मर्षि, राजर्षि अने सुरर्षिओना समूहोथी बेठा त्यारे ग्रह, नक्षत्र अने ताराओ वडे चन्द्र शोभे तेम अधिक शोभावाळा थया ॥३०॥

अकुण्ठित बुद्धिवाळा अने शान्त थईने बिराजेला मुनिने भगवद्‌भक्त परीक्षित पासे जई प्रणाम करी मस्तक नमावी हाथ जोडी वाणीथी पूछवा लाग्या ॥३१॥

राजा बोल्या - हे ब्रह्मन्‌! आप अतिथिरूपे अर्ही पधार्या तेथी आपे अमने तो मोटा पुरुषोने पण सेवा करवा लायक बनावी दीधा. केमके अमे क्षत्रियोना वंशमां उत्पन्न थया छीए पण एमना धर्म अमारामां नथी ते आपे पधारी अमने तीर्थरूप कर्या ॥३२॥

जेनुं सारी रीते स्मरण करवाथी गृहो पवित्र थाय छे तो पछी दर्शन, स्पर्श, पादप्रक्षालन अने आसन वगेरेथी पवित्रता थाय एमां तो शुं ज कहेवुं? ॥३३॥

विष्णुने जोईने जेम असुरो नासे तेम हे महायोगिन्‌! मोटां पाप पण आपना सामीप्यथी तत्काल नाश पामे छे ॥३४॥

पाण्डुसुतो जेने प्रिय छे तेवा श्रीकृष्ण आजे मारा उपर प्रसन्न थया के श्रीकृष्ण पोताना पितामां बहेन कुन्तीजीने प्रसन्न करवामाटे पाण्डवोमां बन्धुत्व स्थापन करी एना वंशनी उपर पण प्रसन्नता बतावे छे ॥३५॥

नहि तो कयांय शोधतां न मळो एवा आपनुं अमने दर्शन कयान्थी थाय? तेमां पण मरणोन्मुखने दर्शन थवुं अन ए पण सिद्ध पुरुष आप स्वयं ते-ते घरे जईने कहेता फरो छो के मागो, हुं तमने बधां पुरुषार्थो प्राप्त करावी आपीश. आवुं अपूर्व मागनारामां श्रेष्ठ वनीयाननुं दर्शन ए कृष्णना अनुग्रह वगर अशकय होवाथी आजे कृष्णे मारी उपर कृपा करी तमने अर्ही मोकल्या एवी मारी खातरी थाय छे ॥३६॥

तेथी अमारा सिद्धिरूप योगीजनना गुरु एवा आपनेहुं पूछुं छुं के पुरुषमात्रे शुं करवुं? तेमाम्पण मृत्यु जेनुं बारणुं खखडवातुं होय तेणे अने जीवतां माणसोए सर्वथा शुं करवुं? ॥३७॥

[[१२१]] वळी जीवताए अने मरणोन्मुखे शुं श्रवण करवुं, शानो जप करवो, केवल कर्मेन्द्रियोथी करवा जेवुं शुं, स्मरण करवा योग्य शुं, भजन करवा योग्य शुं ते आप कहो. अने शुं न करवुं, शुं श्रवण न करवुं वगेरे पण हे प्रभु! कहो ॥३८॥

हे ब्रह्मन्‌! आपनां दर्शन दुर्लभ छे. गृहस्थना गृहमां एक गायनुं दोहन थाय तेटलो समय पण आपनुं तो बिराजवुं थतुं नथी ॥३९॥

एवमाभाषितः पृष्टः स राज्ञा श्लक्ष्णया गिरा ॥ प्रत्यभाषत धर्मज्ञो भगवान्‌ बादरायणिः ॥४०॥

सूतजीए कह्युं - आ प्रमाणे राजाए मधुर वाणीथी शुकदेवजीनी साथे सम्भाषण करी पूछयुं त्यारे धर्मोना मर्मज्ञ व्यासजीना पुत्र शुकदेवजी एनो उत्तर आपवा लाग्या ॥४०॥

इति श्रीभागवत्‌ प्रथमस्कन्धनो (उत्तमप्रकरणमां तेरमो) ‘‘परीक्षितनो गङ्गा उपर प्रायोप्रवेश शुकदेवजीनुं त्यां पधारवुं’’ नामनो ओगणीसमो अध्याय सम्पूर्ण थयो. प्रथमस्कन्ध समाप्त भगवत्सेवा अने भगवद्‌गुणगान ए भक्तिमयी निष्काम-पवित्र जीवनसाधना होवी जोईए, धन्धो नर्ही. हवेली-मन्दिरमां जाहेर सेवा-मनोरथोना रूपमां भगवत्सेवाने तेमज भागवतकथा, ढाढीलीला, मालापहेरामणीना माध्यमथी भगवत्कथाने पोतानो धन्धो बनावी बेठेला ‘भक्ति’शब्दनो उच्चार करवा पण लायक नथी.
[[१२२]] [[१२३]] द्वितीयस्कन्ध साधन निरूपण साधन-ज्ञानलीला (अध्याय-१०) प्र.१ तत्त्वध्यान प्र.२ हृत्प्रसाद प्र.३ मनन (वस्तुनिर्धार) (श्रद्धा) (विमर्श) प्रथम साधनःतत्त्वध्यान (प्रकरण १)वस्तुनिर्धार स्थूलध्यान(अध्याय-१) सूक्ष्मध्यान(अध्याय-२) द्वितीय साधनःहृत्प्रसाद=चित्तशुद्धि (प्रकरण २) श्रद्धा श्रोतानो हृत्प्रसाद (अ.३) वक्तानो हृत्प्रसाद (अ.४)१२४ द्वितीयस्कन्ध ईं उं तृतीय साधनःमनन (प्रकरण ३) विमर्श उत्पत्ति (अध्याय५-७) उनत्ति (अध्याय८-१०) आशङ्‌का उत्तर फल अनित्यमां जनन परिच्छिन्नमां समागम नित्यअपरिच्छिन्नमां प्राकट्य आवेशी अवतार प्रभु सेवा-मनोरथ-कथा-कीर्तनना नामे सामग्री-भेट-दक्षिणा-न्योछावर माङ्गनार तेमज ते निमित्ते स्वीकारनार ने पुष्टिभक्तिमार्गमां पापीमां पापी, दुष्टमां दुष्ट, अधममां अधम जाणवा.