[अथ चतुर्थोऽध्यायः]
भागसूचना
श्रीमद्भागवतका स्वरूप, प्रमाण, श्रोता-वक्ताके लक्षण, श्रवणविधि और माहात्म्य
श्लोक-१
मूलम् (वचनम्)
ऋषय ऊचुः
विश्वास-प्रस्तुतिः
साधु सूत चिरं जीव चिरमेवं प्रशाधि नः।
श्रीभागवतमाहात्म्यमपूर्वं त्वन्मुखाच्छ्रुतम्॥
मूलम्
साधु सूत चिरं जीव चिरमेवं प्रशाधि नः।
श्रीभागवतमाहात्म्यमपूर्वं त्वन्मुखाच्छ्रुतम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
शौनकादि ऋषियोंने कहा—सूतजी! आपने हमलोगोंको बहुत अच्छी बात बतायी। आपकी आयु बढ़े, आप चिरजीवी हों और चिरकालतक हमें इसी प्रकार उपदेश करते रहें। आज हमलोगोंने आपके मुखसे श्रीमद्भागवतका अपूर्व माहात्म्य सुना है॥ १॥
श्लोक-२
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्स्वरूपं प्रमाणं च विधिं च श्रवणे वद।
तद्वक्तुर्लक्षणं सूत श्रोतुश्चापि वदाधुना॥
मूलम्
तत्स्वरूपं प्रमाणं च विधिं च श्रवणे वद।
तद्वक्तुर्लक्षणं सूत श्रोतुश्चापि वदाधुना॥
अनुवाद (हिन्दी)
सूतजी! अब इस समय आप हमें यह बताइये कि श्रीमद्भागवतका स्वरूप क्या है? उसका प्रमाण—उसकी श्लोक संख्या कितनी है? किस विधिसे उसका श्रवण करना चाहिये? तथा श्रीमद्भागवतके वक्ता और श्रोताके क्या लक्षण हैं? अभिप्राय यह कि उसके वक्ता और श्रोता कैसे होने चाहिये॥ २॥
श्लोक-३
मूलम् (वचनम्)
सूत उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रीमद्भागवतस्याथ श्रीमद्भगवतः सदा।
स्वरूपमेकमेवास्ति सच्चिदानन्दलक्षणम्॥
मूलम्
श्रीमद्भागवतस्याथ श्रीमद्भगवतः सदा।
स्वरूपमेकमेवास्ति सच्चिदानन्दलक्षणम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
सूतजी कहते हैं—ऋषिगण! श्रीमद्भागवत और श्रीभगवान्का स्वरूप सदा एक ही है और वह है सच्चिदानन्दमय॥ ३॥
श्लोक-४
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रीकृष्णासक्तभक्तानां तन्माधुर्यप्रकाशकम्।
समुज्जृम्भति यद्वाक्यं विद्धि भागवतं हि तत्॥
मूलम्
श्रीकृष्णासक्तभक्तानां तन्माधुर्यप्रकाशकम्।
समुज्जृम्भति यद्वाक्यं विद्धि भागवतं हि तत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् श्रीकृष्णमें जिनकी लगन लगी है उन भावुक भक्तोंके हृदयमें जो भगवान्के माधुर्य भावको अभिव्यक्त करनेवाला, उनके दिव्य माधुर्यरसका आस्वादन करानेवाला सर्वोत्कृष्ट वचन है, उसे श्रीमद्भागवत समझो॥ ४॥
श्लोक-५
विश्वास-प्रस्तुतिः
ज्ञानविज्ञानभक्त्यङ्गचतुष्टयपरं वचः।
मायामर्दनदक्षं च विद्धि भागवतं च तत्॥
मूलम्
ज्ञानविज्ञानभक्त्यङ्गचतुष्टयपरं वचः।
मायामर्दनदक्षं च विद्धि भागवतं च तत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो वाक्य ज्ञान, विज्ञान, भक्ति एवं इनके अंगभूत साधनचतुष्टयको प्रकाशित करनेवाला है तथा जो मायाका मर्दन करनेमें समर्थ है, उसे भी तुम श्रीमद्भागवत समझो॥ ५॥
श्लोक-६
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रमाणं तस्य को वेद ह्यनन्तस्याक्षरात्मनः।
ब्रह्मणे हरिणा तद्दिक् चतुःश्लोक्या प्रदर्शिता॥
मूलम्
प्रमाणं तस्य को वेद ह्यनन्तस्याक्षरात्मनः।
ब्रह्मणे हरिणा तद्दिक् चतुःश्लोक्या प्रदर्शिता॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीमद्भागवत अनन्त, अक्षरस्वरूप है; इसका नियत प्रमाण भला कौन जान सकता है? पूर्वकालमें भगवान् विष्णुने ब्रह्माजीके प्रति चार श्लोकोंमें इसका दिग्दर्शनमात्र कराया था॥ ६॥
श्लोक-७
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदानन्त्यावगाहेन स्वेप्सितावहनक्षमाः।
त एव सन्ति भो विप्रा ब्रह्मविष्णुशिवादयः॥
मूलम्
तदानन्त्यावगाहेन स्वेप्सितावहनक्षमाः।
त एव सन्ति भो विप्रा ब्रह्मविष्णुशिवादयः॥
अनुवाद (हिन्दी)
विप्रगण! इस भागवतकी अपार गहराईमें डुबकी लगाकर इसमेंसे अपनी अभीष्ट वस्तुको प्राप्त करनेमें केवल ब्रह्मा, विष्णु और शिव आदि ही समर्थ हैं; दूसरे नहीं॥ ७॥
श्लोक-८
विश्वास-प्रस्तुतिः
मितबुद्ध्यादिवृत्तीनां मनुष्याणां हिताय च।
परीक्षिच्छुकसंवादो योऽसौ व्यासेन कीर्तितः॥
मूलम्
मितबुद्ध्यादिवृत्तीनां मनुष्याणां हिताय च।
परीक्षिच्छुकसंवादो योऽसौ व्यासेन कीर्तितः॥
श्लोक-९
विश्वास-प्रस्तुतिः
ग्रन्थोऽष्टादशसाहस्रो योऽसौ भागवताभिधः।
कलिग्राहगृहीतानां स एव परमाश्रयः॥
मूलम्
ग्रन्थोऽष्टादशसाहस्रो योऽसौ भागवताभिधः।
कलिग्राहगृहीतानां स एव परमाश्रयः॥
अनुवाद (हिन्दी)
परन्तु जिनकी बुद्धि आदि वृत्तियाँ परिमित हैं, ऐसे मनुष्योंका हितसाधन करनेके लिये श्रीव्यासजीने परीक्षित् और शुकदेवजीके संवादके रूपमें जिसका गान किया है, उसीका नाम श्रीमद्भागवत है। उस ग्रन्थकी श्लोक-संख्या अठारह हजार है। इस भवसागरमें जो प्राणी कलिरूपी ग्राहसे ग्रस्त हो रहे हैं, उनके लिये वह श्रीमद्भागवत ही सर्वोत्तम सहारा है॥ ८-९॥
श्लोक-१०
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रोतारोऽथ निरूप्यन्ते श्रीमद्विष्णुकथाश्रयाः।
प्रवरा अवराश्चेति श्रोतारो द्विविधा मताः॥
मूलम्
श्रोतारोऽथ निरूप्यन्ते श्रीमद्विष्णुकथाश्रयाः।
प्रवरा अवराश्चेति श्रोतारो द्विविधा मताः॥
अनुवाद (हिन्दी)
अब भगवान् श्रीकृष्णकी कथाका आश्रय लेनेवाले श्रोताओंका वर्णन करते हैं। श्रोता दो प्रकारके माने गये हैं—प्रवर (उत्तम) तथा अवर (अधम)॥ १०॥
श्लोक-११
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रवराश्चातको हंसः शुको मीनादयस्तथा।
अवरा वृकभूरुण्डवृषोष्ट्राद्याः प्रकीर्तिताः॥
मूलम्
प्रवराश्चातको हंसः शुको मीनादयस्तथा।
अवरा वृकभूरुण्डवृषोष्ट्राद्याः प्रकीर्तिताः॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रवर श्रोताओंके ‘चातक’, ‘हंस’, ‘शुक’ और ‘मीन’ आदि कई भेद हैं। अवरके भी ‘वृक’, ‘भूरुण्ड’, ‘वृष’ और ‘उष्ट्र’ आदि अनेकों भेद बतलाये गये हैं॥ ११॥
श्लोक-१२
विश्वास-प्रस्तुतिः
अखिलोपेक्षया यस्तु कृष्णशास्त्रश्रुतौ व्रती।
स चातको यथाम्भोदमुक्ते पाथसि चातकः॥
मूलम्
अखिलोपेक्षया यस्तु कृष्णशास्त्रश्रुतौ व्रती।
स चातको यथाम्भोदमुक्ते पाथसि चातकः॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘चातक’ कहते हैं पपीहेको। वह जैसे बादलसे बरसते हुए जलमें ही स्पृहा रखता है, दूसरे जलको छूता ही नहीं—उसी प्रकार जो श्रोता सब कुछ छोड़कर केवल श्रीकृष्णसम्बन्धी शास्त्रोंके श्रवणका व्रत ले लेता है, वह ‘चातक’ कहा गया है॥ १२॥
श्लोक-१३
विश्वास-प्रस्तुतिः
हंसः स्यात् सारमादत्ते यः श्रोता विविधाच्छ्रुतात्।
दुग्धेनैक्यं गतात्तोयाद् यथा हंसोऽमलं पयः॥
मूलम्
हंसः स्यात् सारमादत्ते यः श्रोता विविधाच्छ्रुतात्।
दुग्धेनैक्यं गतात्तोयाद् यथा हंसोऽमलं पयः॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे हंस दूधके साथ मिलकर एक हुए जलसे निर्मल दूध ग्रहण कर लेता और पानीको छोड़ देता है, उसी प्रकार जो श्रोता अनेकों शास्त्रोंका श्रवण करके भी उसमेंसे सारभाग अलग करके ग्रहण करता है, उसे ‘हंस’ कहते हैं॥ १३॥
श्लोक-१४
विश्वास-प्रस्तुतिः
शुकः सुष्ठु मितं वक्ति व्यासं श्रोतृंश्च हर्षयन्।
सुपाठितः शुको यद्वच्छिक्षकं पार्श्वगानपि॥
मूलम्
शुकः सुष्ठु मितं वक्ति व्यासं श्रोतृंश्च हर्षयन्।
सुपाठितः शुको यद्वच्छिक्षकं पार्श्वगानपि॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिस प्रकार भलीभाँति पढ़ाया हुआ तोता अपनी मधुर वाणीसे शिक्षकको तथा पास आनेवाले दूसरे लोगोंको भी प्रसन्न करता है, उसी प्रकार जो श्रोता कथावाचक व्यासके मुँहसे उपदेश सुनकर उसे सुन्दर और परिमित वाणीमें पुनः सुना देता और व्यास एवं अन्यान्य श्रोताओंको अत्यन्त आनन्दित करता है, वह ‘शुक’ कहलाता है॥ १४॥
श्लोक-१५
विश्वास-प्रस्तुतिः
शब्दं नानिमिषो जातु करोत्यास्वादयन् रसम्।
श्रोता स्निग्धो भवेन्मीनो मीनः क्षीरनिधौ यथा॥
मूलम्
शब्दं नानिमिषो जातु करोत्यास्वादयन् रसम्।
श्रोता स्निग्धो भवेन्मीनो मीनः क्षीरनिधौ यथा॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे क्षीरसागरमें मछली मौन रहकर अपलक आँखोंसे देखती हुई सदा दुग्ध पान करती रहती है, उसी प्रकार जो कथा सुनते समय निर्निमेष नयनोंसे देखता हुआ मुँहसे कभी एक शब्द भी नहीं निकालता और निरन्तर कथारसका ही आस्वादन करता रहता है, वह प्रेमी श्रोता ‘मीन’ कहा गया है॥ १५॥
श्लोक-१६
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्तुदन् रसिकाञ्छ्रोतॄन् विरौत्यज्ञो वृको हि सः।
वेणुस्वनरसासक्तान् वृकोऽरण्ये मृगान् यथा॥
मूलम्
यस्तुदन् रसिकाञ्छ्रोतॄन् विरौत्यज्ञो वृको हि सः।
वेणुस्वनरसासक्तान् वृकोऽरण्ये मृगान् यथा॥
अनुवाद (हिन्दी)
(ये प्रवर अर्थात् उत्तम श्रोताओंके भेद बताये गये हैं, अब अवर यानी अधम श्रोता बताये जाते हैं।) ‘वृक’ कहते हैं भेड़ियेको। जैसे भेड़िया वनके भीतर वेणुकी मीठी आवाज सुननेमें लगे हुए मृगोंको डरानेवाली भयानक गर्जना करता है, वैसे ही जो मूर्ख कथाश्रवणके समय रसिक श्रोताओंको उद्विग्न करता हुआ बीच-बीचमें जोर-जोरसे बोल उठता है, वह ‘वृक’ कहलाता है॥ १६॥
श्लोक-१७
विश्वास-प्रस्तुतिः
भूरुण्डः शिक्षयेदन्याञ्छ्रुत्वा न स्वयमाचरेत्।
यथा हिमवतः शृङ्गे भूरुण्डाख्यो विहङ्गमः॥
मूलम्
भूरुण्डः शिक्षयेदन्याञ्छ्रुत्वा न स्वयमाचरेत्।
यथा हिमवतः शृङ्गे भूरुण्डाख्यो विहङ्गमः॥
अनुवाद (हिन्दी)
हिमालयके शिखरपर एक भूरुण्ड जातिका पक्षी होता है। वह किसीके शिक्षाप्रद वाक्य सुनकर वैसा ही बोला करता है, किन्तु स्वयं उससे लाभ नहीं उठाता। इसी प्रकार जो उपदेशकी बात सुनकर उसे दूसरोंको तो सिखाये पर स्वयं आचरणमें न लाये, ऐसे श्रोताको ‘भूरुण्ड’ कहते हैं॥ १७॥
श्लोक-१८
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वं श्रुतमुपादत्ते सारासारान्धधीर्वृषः।
स्वादुद्राक्षां खलिं चापि निर्विशेषं यथा वृषः॥
मूलम्
सर्वं श्रुतमुपादत्ते सारासारान्धधीर्वृषः।
स्वादुद्राक्षां खलिं चापि निर्विशेषं यथा वृषः॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वृष’ कहते हैं बैलको। उसके सामने मीठे-मीठे अंगूर हो या कड़वी खली, दोनोंको वह एक-सा ही मानकर खाता है। उसी प्रकार जो सुनी हुई सभी बातें ग्रहण करता है, पर सार और असार वस्तुका विचार करनेमें उसकी बुद्धि अंधी—असमर्थ होती है, ऐसा श्रोता ‘वृष’ कहलाता है॥ १८॥
श्लोक-१९
विश्वास-प्रस्तुतिः
स उष्ट्रो मधुरं मुञ्चन् विपरीते रमेत यः।
यथा निम्बं चरत्युष्ट्रो हित्वाम्रमपि तद्युतम्॥
मूलम्
स उष्ट्रो मधुरं मुञ्चन् विपरीते रमेत यः।
यथा निम्बं चरत्युष्ट्रो हित्वाम्रमपि तद्युतम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिस प्रकार ऊँट माधुर्यगुणसे युक्त आमको भी छोड़कर केवल नीमकी ही पत्ती चबाता है, उसी प्रकार जो भगवान्की मधुर कथाको छोड़कर उसके विपरीत संसारी बातोंमें रमता रहता है, उसे ‘ऊँट’ कहते हैं॥ १९॥
श्लोक-२०
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्येऽपि बहवो भेदा द्वयोर्भृङ्गखरादयः।
विज्ञेयास्तत्तदाचारैस्तत्तत्प्रकृतिसम्भवैः॥
मूलम्
अन्येऽपि बहवो भेदा द्वयोर्भृङ्गखरादयः।
विज्ञेयास्तत्तदाचारैस्तत्तत्प्रकृतिसम्भवैः॥
अनुवाद (हिन्दी)
ये कुछ थोड़े-से भेद यहाँ बताये गये। इनके अतिरिक्त भी प्रवर-अवर दोनों प्रकारके श्रोताओंके ‘भ्रमर’ और ‘गदहा’ आदि बहुत-से भेद हैं,’ इन सब भेदोंको उन-उन श्रोताओंके स्वाभाविक आचार-व्यवहारोंसे परखना चाहिये॥ २०॥
श्लोक-२१
विश्वास-प्रस्तुतिः
यः स्थित्वाभिमुखं प्रणम्य विधिव-
त्त्यक्तान्यवादो हरेः
लीलाः श्रोतुमभीप्सतेऽतिनिपुणो
नम्रोऽथ क्लृप्ताञ्जलिः।
शिष्यो विश्वसितोऽनुचिन्तनपरः
प्रश्नेऽनुरक्तः शुचिः
नित्यं कृष्णजनप्रियो निगदितः
श्रोता स वै वक्तृभिः॥
मूलम्
यः स्थित्वाभिमुखं प्रणम्य विधिव-
त्त्यक्तान्यवादो हरेः
लीलाः श्रोतुमभीप्सतेऽतिनिपुणो
नम्रोऽथ क्लृप्ताञ्जलिः।
शिष्यो विश्वसितोऽनुचिन्तनपरः
प्रश्नेऽनुरक्तः शुचिः
नित्यं कृष्णजनप्रियो निगदितः
श्रोता स वै वक्तृभिः॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो वक्ताके सामने उन्हें विधिवत् प्रणाम करके बैठे और अन्य संसारी बातोंको छोड़कर केवल श्रीभगवान्की लीला-कथाओंको ही सुननेकी इच्छा रखे, समझनेमें अत्यन्त कुशल हो, नम्र हो, हाथ जोड़े रहे, शिष्यभावसे उपदेश ग्रहण करे और भीतर श्रद्धा तथा विश्वास रखे; इसके सिवा, जो कुछ सुने उसका बराबर चिन्तन करता रहे, जो बात समझमें न आये, पूछे और पवित्र भावसे रहे तथा श्रीकृष्णके भक्तोंपर सदा ही प्रेम रखता हो—ऐसे ही श्रोताको वक्ता लोग उत्तम श्रोता कहते हैं॥ २१॥
श्लोक-२२
विश्वास-प्रस्तुतिः
भगवन्मतिरनपेक्षः सुहृदो दीनेषु सानुकम्पो यः।
बहुधा बोधनचतुरो वक्ता सम्मानितो मुनिभिः॥
मूलम्
भगवन्मतिरनपेक्षः सुहृदो दीनेषु सानुकम्पो यः।
बहुधा बोधनचतुरो वक्ता सम्मानितो मुनिभिः॥
अनुवाद (हिन्दी)
अब वक्ताके लक्षण बतलाते हैं। जिसका मन सदा भगवान्में लगा रहे, जिसे किसी भी वस्तुकी अपेक्षा न हो, जो सबका सुहृद् और दीनोंपर दया करनेवाला हो तथा अनेकों युक्तियोंसे तत्त्वका बोध करा देनेमें चतुर हो, उसी वक्ताका मुनिलोग भी सम्मान करते हैं॥ २२॥
श्लोक-२३
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ भारतभूस्थाने श्रीभागवतसेवने।
विधिं शृणुत भो विप्रा येन स्यात् सुखसन्ततिः॥
मूलम्
अथ भारतभूस्थाने श्रीभागवतसेवने।
विधिं शृणुत भो विप्रा येन स्यात् सुखसन्ततिः॥
अनुवाद (हिन्दी)
विप्रगण! अब मैं भारतवर्षकी भूमिपर श्रीमद्भागवत-कथाका सेवन करनेके लिये जो आवश्यक विधि है, उसे बतलाता हूँ; आप सुनें। इस विधिके पालनसे श्रोताकी सुख-परम्पराका विस्तार होता है॥ २३॥
श्लोक-२४
विश्वास-प्रस्तुतिः
राजसं सात्त्विकं चापि तामसं निर्गुणं तथा।
चतुर्विधं तु विज्ञेयं श्रीभागवतसेवनम्॥
मूलम्
राजसं सात्त्विकं चापि तामसं निर्गुणं तथा।
चतुर्विधं तु विज्ञेयं श्रीभागवतसेवनम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीमद्भागवतका सेवन चार प्रकारका है—सात्त्विक, राजस, तामस और निर्गुण॥ २४॥
श्लोक-२५
विश्वास-प्रस्तुतिः
सप्ताहं यज्ञवद् यत्तु सश्रमं सत्वरं मुदा।
सेवितं राजसं तत्तु बहुपूजादिशोभनम्॥
मूलम्
सप्ताहं यज्ञवद् यत्तु सश्रमं सत्वरं मुदा।
सेवितं राजसं तत्तु बहुपूजादिशोभनम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसमें यज्ञकी भाँति तैयारी की गयी हो, बहुत-सी पूजा-सामग्रियोंके कारण जो अत्यन्त शोभासम्पन्न दिखायी दे रहा हो और बड़े ही परिश्रमसे बहुत उतावलीके साथ सात दिनोंमें ही जिसकी समाप्ति की जाय, वह प्रसन्नतापूर्वक किया हुआ श्रीमद्भागवतका सेवन ‘राजस’ है॥ २५॥
श्लोक-२६
विश्वास-प्रस्तुतिः
मासेन ऋतुना वापि श्रवणं स्वादसंयुतम्।
सात्त्विकं यदनायासं समस्तानन्दवर्धनम्॥
मूलम्
मासेन ऋतुना वापि श्रवणं स्वादसंयुतम्।
सात्त्विकं यदनायासं समस्तानन्दवर्धनम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक या दो महीनेमें धीरे-धीरे कथाके रसका आस्वादन करते हुए बिना परिश्रमके जो श्रवण होता है, वह पूर्ण आनन्दको बढ़ानेवाला ‘सात्त्विक’ सेवन कहलाता है॥ २६॥
श्लोक-२७
विश्वास-प्रस्तुतिः
तामसं यत्तु वर्षेण सालसं श्रद्धया युतम्।
विस्मृतिस्मृतिसंयुक्तं सेवनं तच्च सौख्यदम्॥
मूलम्
तामसं यत्तु वर्षेण सालसं श्रद्धया युतम्।
विस्मृतिस्मृतिसंयुक्तं सेवनं तच्च सौख्यदम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
तामस सेवन वह है जो कभी भूलसे छोड़ दिया जाय और याद आनेपर फिर आरम्भ कर दिया जाय, इस प्रकार एक वर्षतक आलस्य और अश्रद्धाके साथ चलाया जाय। यह ‘तामस’ सेवन भी न करनेकी अपेक्षा अच्छा और सुख ही देनेवाला है॥ २७॥
श्लोक-२८
विश्वास-प्रस्तुतिः
वर्षमासदिनानां तु विमुच्य नियमाग्रहम्।
सर्वदा प्रेमभक्त्यैव सेवनं निर्गुणं मतम्॥
मूलम्
वर्षमासदिनानां तु विमुच्य नियमाग्रहम्।
सर्वदा प्रेमभक्त्यैव सेवनं निर्गुणं मतम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब वर्ष, महीना और दिनोंके नियमका आग्रह छोड़कर सदा ही प्रेम और भक्तिके साथ श्रवण किया जाय, तब वह सेवन ‘निर्गुण’ माना गया है॥ २८॥
श्लोक-२९
विश्वास-प्रस्तुतिः
पारीक्षितेऽपि संवादे निर्गुणं तत् प्रकीर्तितम्।
तत्र सप्तदिनाख्यानं तदायुर्दिनसंख्यया॥
मूलम्
पारीक्षितेऽपि संवादे निर्गुणं तत् प्रकीर्तितम्।
तत्र सप्तदिनाख्यानं तदायुर्दिनसंख्यया॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा परीक्षित् और शुकदेवके संवादमें भी जो भागवतका सेवन हुआ था, वह निर्गुण ही बताया गया है। उसमें जो सात दिनोंकी बात आती है, वह राजाकी आयुके बचे हुए दिनोंकी संख्याके अनुसार है, सप्ताह-कथाका नियम करनेके लिये नहीं॥ २९॥
श्लोक-३०
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्यत्र त्रिगुणं चापि निर्गुणं च यथेच्छया।
यथा कथञ्चित् कर्तव्यं सेवनं भगवच्छ्रुतेः॥
मूलम्
अन्यत्र त्रिगुणं चापि निर्गुणं च यथेच्छया।
यथा कथञ्चित् कर्तव्यं सेवनं भगवच्छ्रुतेः॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारतवर्षके अतिरिक्त अन्य स्थानोंमें भी त्रिगुण (सात्त्विक, राजस और तामस) अथवा निर्गुण-सेवन अपनी रुचिके अनुसार करना चाहिये। तात्पर्य यह कि जिस किसी प्रकार भी हो सके श्रीमद्भागवतका सेवन, उसका श्रवण करना ही चाहिये॥ ३०॥
श्लोक-३१
विश्वास-प्रस्तुतिः
ये श्रीकृष्णविहारैकभजनास्वादलोलुपाः।
मुक्तावपि निराकाङ्क्षास्तेषां भागवतं धनम्॥
मूलम्
ये श्रीकृष्णविहारैकभजनास्वादलोलुपाः।
मुक्तावपि निराकाङ्क्षास्तेषां भागवतं धनम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो केवल श्रीकृष्णकी लीलाओंके ही श्रवण, कीर्तन एवं रसास्वादनके लिये लालायित रहते और मोक्षकी भी इच्छा नहीं रखते, उनका तो श्रीमद्भागवत ही धन है॥ ३१॥
श्लोक-३२
विश्वास-प्रस्तुतिः
येऽपि संसारसन्तापनिर्विण्णा मोक्षकाङ्क्षिणः।
तेषां भवौषधं चैतत् कलौ सेव्यं प्रयत्नतः॥
मूलम्
येऽपि संसारसन्तापनिर्विण्णा मोक्षकाङ्क्षिणः।
तेषां भवौषधं चैतत् कलौ सेव्यं प्रयत्नतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
तथा जो संसारके दुःखोंसे घबराकर अपनी मुक्ति चाहते हैं, उनके लिये भी यही इस भवरोगकी ओषधि है। अतः इस कलिकालमें इसका प्रयत्नपूर्वक सेवन करना चाहिये॥ ३२॥
श्लोक-३३
विश्वास-प्रस्तुतिः
ये चापि विषयारामाः सांसारिकसुखस्पृहाः।
तेषां तु कर्ममार्गेण या सिद्धिः साधुना कलौ॥
मूलम्
ये चापि विषयारामाः सांसारिकसुखस्पृहाः।
तेषां तु कर्ममार्गेण या सिद्धिः साधुना कलौ॥
श्लोक-३४
विश्वास-प्रस्तुतिः
सामर्थ्यधनविज्ञानाभावादत्यन्तदुर्लभा।
तस्मात्तैरपि संसेव्या श्रीमद्भागवती कथा॥
मूलम्
सामर्थ्यधनविज्ञानाभावादत्यन्तदुर्लभा।
तस्मात्तैरपि संसेव्या श्रीमद्भागवती कथा॥
अनुवाद (हिन्दी)
इनके अतिरिक्त जो लोग विषयोंमें ही रमण करनेवाले हैं, सांसारिक सुखोंकी ही जिन्हें सदा चाह रहती है, उनके लिये भी अब इस कलियुगमें सामर्थ्य, धन और विधि-विधानका ज्ञान न होनेके कारण कर्ममार्ग (यज्ञादि)से मिलनेवाली सिद्धि अत्यन्त दुर्लभ हो गयी है। ऐसी दशामें उन्हें भी सब प्रकारसे अब इस भागवतकथाका ही सेवन करना चाहिये॥ ३३-३४॥
श्लोक-३५
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनं पुत्रांस्तथा दारान् वाहनादि यशो गृहान्।
असापत्न्यं च राज्यं च दद्याद् भागवती कथा॥
मूलम्
धनं पुत्रांस्तथा दारान् वाहनादि यशो गृहान्।
असापत्न्यं च राज्यं च दद्याद् भागवती कथा॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह श्रीमद्भागवतकी कथा धन, पुत्र, स्त्री, हाथी-घोड़े आदि वाहन, यश, मकान और निष्कण्टक राज्य भी दे सकती है॥ ३५॥
श्लोक-३६
विश्वास-प्रस्तुतिः
इह लोके वरान् भुक्त्वा भोगान् वै मनसेप्सितान्।
श्रीभागवतसङ्गेन यात्यन्ते श्रीहरेः पदम्॥
मूलम्
इह लोके वरान् भुक्त्वा भोगान् वै मनसेप्सितान्।
श्रीभागवतसङ्गेन यात्यन्ते श्रीहरेः पदम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
सकाम भावसे भागवतका सहारा लेनेवाले मनुष्य इस संसारमें मनोवांछित उत्तम भोगोंको भोगकर अन्तमें श्रीमद्भागवतके ही संगसे श्रीहरिके परमधामको प्राप्त हो जाते हैं॥ ३६॥
श्लोक-३७
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत्र भागवती वार्ता ये च तच्छ्रवणे रताः।
तेषां संसेवनं कुर्याद् देहेन च धनेन च॥
मूलम्
यत्र भागवती वार्ता ये च तच्छ्रवणे रताः।
तेषां संसेवनं कुर्याद् देहेन च धनेन च॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिनके यहाँ श्रीमद्भागवतकी कथा-वार्ता होती हो तथा जो लोग उस कथाके श्रवणमें लगे रहते हों, उनकी सेवा और सहायता अपने शरीर और धनसे करनी चाहिये॥ ३७॥
श्लोक-३८
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदनुग्रहतोऽस्यापि श्रीभागवतसेवनम्।
श्रीकृष्णव्यतिरिक्तं यत्तत् सर्वं धनसंज्ञितम्॥
मूलम्
तदनुग्रहतोऽस्यापि श्रीभागवतसेवनम्।
श्रीकृष्णव्यतिरिक्तं यत्तत् सर्वं धनसंज्ञितम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्हींके अनुग्रहसे सहायता करनेवाले पुरुषको भी भागवत-सेवनका पुण्य प्राप्त होता है। कामना दो वस्तुओंकी होती है—श्रीकृष्णकी और धनकी। श्रीकृष्णके सिवा जो कुछ भी चाहा जाय, यह सब धनके अन्तर्गत है; उसकी ‘धन’ संज्ञा है॥ ३८॥
श्लोक-३९
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृष्णार्थीति धनार्थीति श्रोता वक्ता द्विधा मतः।
यथा वक्ता तथा श्रोता तत्र सौख्यं विवर्धते॥
मूलम्
कृष्णार्थीति धनार्थीति श्रोता वक्ता द्विधा मतः।
यथा वक्ता तथा श्रोता तत्र सौख्यं विवर्धते॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रोता और वक्ता भी दो प्रकारके माने गये हैं, एक श्रीकृष्णको चाहनेवाले और दूसरे धनको। जैसा वक्ता, वैसा ही श्रोता भी हो तो वहाँ कथामें रस मिलता है, अतः सुखकी वृद्धि होती है॥ ३९॥
श्लोक-४०
विश्वास-प्रस्तुतिः
उभयोर्वैपरीत्ये तु रसाभासे फलच्युतिः।
किन्तु कृष्णार्थिनां सिद्धिर्विलम्बेनापि जायते॥
मूलम्
उभयोर्वैपरीत्ये तु रसाभासे फलच्युतिः।
किन्तु कृष्णार्थिनां सिद्धिर्विलम्बेनापि जायते॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि दोनों विपरीत विचारके हों तो रसाभास हो जाता है, अतः फलकी हानि होती है। किन्तु जो श्रीकृष्णको चाहनेवाले वक्ता और श्रोता हैं, उन्हें विलम्ब होनेपर भी सिद्धि अवश्य मिलती है॥ ४०॥
श्लोक-४१
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनार्थिनस्तु संसिद्धिर्विधिसम्पूर्णतावशात्।
कृष्णार्थिनोऽगुणस्यापि प्रेमैव विधिरुत्तमः॥
मूलम्
धनार्थिनस्तु संसिद्धिर्विधिसम्पूर्णतावशात्।
कृष्णार्थिनोऽगुणस्यापि प्रेमैव विधिरुत्तमः॥
अनुवाद (हिन्दी)
पर धनार्थीको तो तभी सिद्धि मिलती है, जब उनके अनुष्ठानका विधि-विधान पूरा उतर जाय। श्रीकृष्णकी चाह रखनेवाला सर्वथा गुणहीन हो और उसकी विधिमें कुछ कमी रह जाय तो भी, यदि उसके हृदयमें प्रेम है तो, वही उसके लिये सर्वोत्तम विधि है॥ ४१॥
श्लोक-४२
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसमाप्ति सकामेन कर्त्तव्यो हि विधिः स्वयम्।
स्नातो नित्यक्रियां कृत्वा प्राश्य पादोदकं हरेः॥
मूलम्
आसमाप्ति सकामेन कर्त्तव्यो हि विधिः स्वयम्।
स्नातो नित्यक्रियां कृत्वा प्राश्य पादोदकं हरेः॥
श्लोक-४३
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुस्तकं च गुरुं चैव पूजयित्वोपचारतः।
ब्रूयाद् वा शृणुयाद् वापि श्रीमद्भागवतं मुदा॥
मूलम्
पुस्तकं च गुरुं चैव पूजयित्वोपचारतः।
ब्रूयाद् वा शृणुयाद् वापि श्रीमद्भागवतं मुदा॥
अनुवाद (हिन्दी)
सकाम पुरुषको कथाकी समाप्तिके दिनतक स्वयं सावधानीके साथ सभी विधियोंका पालन करना चाहिये। (भागवत-कथाके श्रोता और वक्ता दोनोंके ही पालन करनेयोग्य विधि यह है—) प्रतिदिन प्रातःकाल स्नान करके अपना नित्यकर्म पूरा कर ले। फिर भगवान्का चरणामृत पीकर पूजाके सामानसे श्रीमद्भागवतकी पुस्तक और गुरुदेव (व्यास) का पूजन करे। इसके पश्चात् अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक श्रीमद्भागवतकी कथा स्वयं कहे अथवा सुने॥ ४२-४३॥
श्लोक-४४
विश्वास-प्रस्तुतिः
पयसा वा हविष्येण मौनं भोजनमाचरेत्।
ब्रह्मचर्यमधःसुप्तिं क्रोधलोभादिवर्जनम्॥
मूलम्
पयसा वा हविष्येण मौनं भोजनमाचरेत्।
ब्रह्मचर्यमधःसुप्तिं क्रोधलोभादिवर्जनम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
दूध या खीरका मौन भोजन करे। नित्य ब्रह्मचर्यका पालन और भूमिपर शयन करे, क्रोध और लोभ आदिको त्याग दे॥ ४४॥
श्लोक-४५
विश्वास-प्रस्तुतिः
कथान्ते कीर्त्तनं नित्यं समाप्तौ जागरं चरेत्।
ब्राह्मणान् भोजयित्वा तु दक्षिणाभिः प्रतोषयेत्॥
मूलम्
कथान्ते कीर्त्तनं नित्यं समाप्तौ जागरं चरेत्।
ब्राह्मणान् भोजयित्वा तु दक्षिणाभिः प्रतोषयेत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रतिदिन कथाके अन्तमें कीर्तन करे और कथासमाप्तिके दिन रात्रिमें जागरण करे। समाप्ति होनेपर ब्राह्मणोंको भोजन कराकर उन्हें दक्षिणासे सन्तुष्ट करे॥ ४५॥
श्लोक-४६
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरवे वस्त्रभूषादि दत्त्वा गां च समर्पयेत्।
एवं कृते विधाने तु लभते वाञ्छितं फलम्॥
मूलम्
गुरवे वस्त्रभूषादि दत्त्वा गां च समर्पयेत्।
एवं कृते विधाने तु लभते वाञ्छितं फलम्॥
श्लोक-४७
विश्वास-प्रस्तुतिः
दारागारसुतान् राज्यं धनादि च यदीप्सितम्।
परंतु शोभते नात्र सकामत्वं विडम्बनम्॥
मूलम्
दारागारसुतान् राज्यं धनादि च यदीप्सितम्।
परंतु शोभते नात्र सकामत्वं विडम्बनम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
कथावाचक गुरुको वस्त्र, आभूषण आदि देकर गौ भी अर्पण करे। इस प्रकार विधि-विधान पूर्ण करनेपर मनुष्यको स्त्री, घर, पुत्र, राज्य और धन आदि जो-जो उसे अभीष्ट होता है, वह सब मनोवांछित फल प्राप्त होता है। परन्तु सकामभाव बहुत बड़ी विडम्बना है, वह श्रीमद्भागवतकी कथामें शोभा नहीं देता॥ ४६-४७॥
श्लोक-४८
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृष्णप्राप्तिकरं शश्वत् प्रेमानन्दफलप्रदम्।
श्रीमद्भागवतं शास्त्रं कलौ कीरेण भाषितम्॥
मूलम्
कृष्णप्राप्तिकरं शश्वत् प्रेमानन्दफलप्रदम्।
श्रीमद्भागवतं शास्त्रं कलौ कीरेण भाषितम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीशुकदेवजीके मुखसे कहा हुआ यह श्रीमद्भागवतशास्त्र तो कलियुगमें साक्षात् श्रीकृष्णकी प्राप्ति करानेवाला और नित्य प्रेमानन्दरूप फल प्रदान करनेवाला है॥ ४८॥
अनुवाद (समाप्ति)
इति श्रीस्कान्दे महापुराण एकाशीतिसाहस्र्यां संहितायां द्वितीये वैष्णवखण्डे श्रीमद्भागवतमाहात्म्ये भागवतश्रोतृवक्तृलक्षणश्रवणविधिनिरूपणं नाम चतुर्थोऽध्यायः॥ ४॥
॥ समाप्तमिदं श्रीमद्भागवतमाहात्म्यम्॥
॥ हरिः ॐ तत्सत्॥