०३

[अथ तृतीयोऽध्यायः]

भागसूचना

श्रीमद‍्भागवतकी परम्परा और उसका माहात्म्य, भागवतश्रवणसे श्रोताओंको भगवद्धामकी प्राप्ति

श्लोक-१

मूलम् (वचनम्)

सूत उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथोद्धवस्तु तान् दृष्ट्वा कृष्णकीर्तनतत्परान्।
सत्कृत्याथ परिष्वज्य परीक्षितमुवाच ह॥

मूलम्

अथोद्धवस्तु तान् दृष्ट्वा कृष्णकीर्तनतत्परान्।
सत्कृत्याथ परिष्वज्य परीक्षितमुवाच ह॥

अनुवाद (हिन्दी)

सूतजी कहते हैं—उद्धवजीने वहाँ एकत्र हुए सब लोगोंको श्रीकृष्णकीर्तनमें लगा देखकर सभीका सत्कार किया और राजा परीक्षित् को हृदयसे लगाकर कहा॥ १॥

श्लोक-२

मूलम् (वचनम्)

उद्धव उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

धन्योऽसि राजन् कृष्णैकभक्त्या पूर्णोऽसि नित्यदा।
यस्त्वं निमग्नचित्तोऽसि कृष्णसङ्कीर्तनोत्सवे॥

मूलम्

धन्योऽसि राजन् कृष्णैकभक्त्या पूर्णोऽसि नित्यदा।
यस्त्वं निमग्नचित्तोऽसि कृष्णसङ्कीर्तनोत्सवे॥

अनुवाद (हिन्दी)

उद्धवजीने कहा—राजन्! तुम धन्य हो, एक-मात्र श्रीकृष्णकी भक्तिसे ही पूर्ण हो! क्योंकि श्रीकृष्ण-संकीर्तनके महोत्सवमें तुम्हारा हृदय इस प्रकार निमग्न हो रहा है॥ २॥

श्लोक-३

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृष्णपत्नीषु वज्रे च दिष्ट्या प्रीतिः प्रवर्तिता।
तवोचितमिदं तात कृष्णदत्ताङ्गवैभव॥

मूलम्

कृष्णपत्नीषु वज्रे च दिष्ट्या प्रीतिः प्रवर्तिता।
तवोचितमिदं तात कृष्णदत्ताङ्गवैभव॥

अनुवाद (हिन्दी)

बड़े सौभाग्यकी बात है कि श्रीकृष्णकी पत्नियोंके प्रति तुम्हारी भक्ति और वज्रनाभपर तुम्हारा प्रेम है। तात! तुम जो कुछ कर रहे हो, सब तुम्हारे अनुरूप ही है। क्यों न हो, श्रीकृष्णने ही तुम्हें शरीर और वैभव प्रदान किया है; अतः तुम्हारा उनके प्रपौत्रपर प्रेम होना स्वाभाविक ही है॥ ३॥

श्लोक-४

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्वारकास्थेषु सर्वेषु धन्या एते न संशयः।
येषां व्रजनिवासाय पार्थमादिष्टवान् प्रभुः॥

मूलम्

द्वारकास्थेषु सर्वेषु धन्या एते न संशयः।
येषां व्रजनिवासाय पार्थमादिष्टवान् प्रभुः॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसमें तनिक भी सन्देह नहीं कि समस्त द्वारकावासियोंमें ये लोग सबसे बढ़कर धन्य हैं, जिन्हें व्रजमें निवास करानेके लिये भगवान् श्रीकृष्णने अर्जुनको आज्ञा की थी॥ ४॥

श्लोक-५

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रीकृष्णस्य मनश्चन्द्रो राधास्यप्रभयान्वितः।
तद्विहारवनं गोभिर्मण्डयन् रोचते सदा॥

मूलम्

श्रीकृष्णस्य मनश्चन्द्रो राधास्यप्रभयान्वितः।
तद्विहारवनं गोभिर्मण्डयन् रोचते सदा॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीकृष्णका मनरूपी चन्द्रमा राधाके मुखकी प्रभारूप चाँदनीसे युक्त हो उनकी लीलाभूमि वृन्दावनको अपनी किरणोंसे सुशोभित करता हुआ यहाँ सदा प्रकाशमान रहता है॥ ५॥

श्लोक-६

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृष्णचन्द्रः सदा पूर्णस्तस्य षोडश याः कलाः।
चित्सहस्रप्रभाभिन्ना अत्रास्ते तत्स्वरूपता॥

मूलम्

कृष्णचन्द्रः सदा पूर्णस्तस्य षोडश याः कलाः।
चित्सहस्रप्रभाभिन्ना अत्रास्ते तत्स्वरूपता॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीकृष्णचन्द्र नित्य परिपूर्ण हैं, प्राकृत चन्द्रमाकी भाँति उनमें वृद्धि और क्षयरूप विकार नहीं होते। उनकी जो सोलह कलाएँ हैं, उनसे सहस्रों चिन्मय किरणें निकलती रहती हैं; इससे उनके सहस्रों भेद हो जाते हैं। इन सभी कलाओंसे युक्त, नित्य परिपूर्ण श्रीकृष्ण इस व्रजभूमिमें सदा ही विद्यमान रहते हैं; इस भूमिमें और उनके स्वरूपमें कुछ अन्तर नहीं है॥ ६॥

श्लोक-७

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं वज्रस्तु राजेन्द्र प्रपन्नभयभञ्जकः।
श्रीकृष्णदक्षिणे पादे स्थानमेतस्य वर्तते॥

मूलम्

एवं वज्रस्तु राजेन्द्र प्रपन्नभयभञ्जकः।
श्रीकृष्णदक्षिणे पादे स्थानमेतस्य वर्तते॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजेन्द्र परीक्षित्! इस प्रकार विचार करनेपर सभी व्रजवासी भगवान‍्के अंगमें स्थित हैं। शरणागतोंका भय दूर करनेवाले जो ये वज्र हैं, इनका स्थान श्रीकृष्णके दाहिने चरणमें है॥ ७॥

श्लोक-८

विश्वास-प्रस्तुतिः

अवतारेऽत्र कृष्णेन योगमायातिभाविताः।
तद‍्बलेनात्मविस्मृत्या सीदन्त्येते न संशयः॥

मूलम्

अवतारेऽत्र कृष्णेन योगमायातिभाविताः।
तद‍्बलेनात्मविस्मृत्या सीदन्त्येते न संशयः॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस अवतारमें भगवान् श्रीकृष्णने इन सबको अपनी योगमायासे अभिभूत कर लिया है, उसीके प्रभावसे ये अपने स्वरूपको भूल गये हैं और इसी कारण सदा दुःखी रहते हैं। यह बात निस्सन्देह ऐसी ही है॥ ८॥

श्लोक-९

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऋते कृष्णप्रकाशं तु स्वात्मबोधो न कस्यचित्।
तत्प्रकाशस्तु जीवानां मायया पिहितः सदा॥

मूलम्

ऋते कृष्णप्रकाशं तु स्वात्मबोधो न कस्यचित्।
तत्प्रकाशस्तु जीवानां मायया पिहितः सदा॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीकृष्णका प्रकाश प्राप्त हुए बिना किसीको भी अपने स्वरूपका बोध नहीं हो सकता। जीवोंके अन्तःकरणमें जो श्रीकृष्णतत्त्वका प्रकाश है, उसपर सदा मायाका पर्दा पड़ा रहता है॥ ९॥

श्लोक-१०

विश्वास-प्रस्तुतिः

अष्टाविंशे द्वापरान्ते स्वयमेव यदा हरिः।
उत्सारयेन्निजां मायां तत्प्रकाशो भवेत्तदा॥

मूलम्

अष्टाविंशे द्वापरान्ते स्वयमेव यदा हरिः।
उत्सारयेन्निजां मायां तत्प्रकाशो भवेत्तदा॥

अनुवाद (हिन्दी)

अट्ठाईसवें द्वापरके अन्तमें जब भगवान् श्रीकृष्ण स्वयं ही सामने प्रकट होकर अपनी मायाका पर्दा उठा लेते हैं, उस समय जीवोंको उनका प्रकाश प्राप्त होता है॥ १०॥

श्लोक-११

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तु कालो व्यतिक्रान्तस्तेनेदमपरं शृणु।
अन्यदा तत्प्रकाशस्तु श्रीमद‍्भागवताद् भवेत्॥

मूलम्

स तु कालो व्यतिक्रान्तस्तेनेदमपरं शृणु।
अन्यदा तत्प्रकाशस्तु श्रीमद‍्भागवताद् भवेत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

किन्तु अब वह समय तो बीत गया; इसलिये उनके प्रकाशकी प्राप्तिके लिये अब दूसरा उपाय बतलाया जा रहा है, सुनो। अट्ठाईसवें द्वापरके अतिरिक्त समयमें यदि कोई श्रीकृष्णतत्त्वका प्रकाश पाना चाहे तो उसे वह श्रीमद‍्भागवतसे ही प्राप्त हो सकता है॥ ११॥

श्लोक-१२

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रीमद‍्भागवतं शास्त्रं यत्र भागवतैर्यदा।
कीर्त्यते श्रूयते चापि श्रीकृष्णस्तत्र निश्चितम्॥

मूलम्

श्रीमद‍्भागवतं शास्त्रं यत्र भागवतैर्यदा।
कीर्त्यते श्रूयते चापि श्रीकृष्णस्तत्र निश्चितम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान‍्के भक्त जहाँ जब कभी श्रीमद‍्भागवत शास्त्रका कीर्तन और श्रवण करते हैं, वहाँ उस समय भगवान् श्रीकृष्ण साक्षात् रूपसे विराजमान रहते हैं॥ १२॥

श्लोक-१३

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रीमद‍्भागवतं यत्र श्लोकं श्लोकार्द्धमेव च।
तत्रापि भगवान् कृष्णो वल्लवीभिर्विराजते॥

मूलम्

श्रीमद‍्भागवतं यत्र श्लोकं श्लोकार्द्धमेव च।
तत्रापि भगवान् कृष्णो वल्लवीभिर्विराजते॥

अनुवाद (हिन्दी)

जहाँ श्रीमद‍्भागवतके एक या आधे श्लोकका ही पाठ होता है, वहाँ भी श्रीकृष्ण अपनी प्रियतमा गोपियोंके साथ विद्यमान रहते हैं॥ १३॥

श्लोक-१४

विश्वास-प्रस्तुतिः

भारते मानवं जन्म प्राप्य भागवतं न यैः।
श्रुतं पापपराधीनैरात्मघातस्तु तैः कृतः॥

मूलम्

भारते मानवं जन्म प्राप्य भागवतं न यैः।
श्रुतं पापपराधीनैरात्मघातस्तु तैः कृतः॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस पवित्र भारतवर्षमें मनुष्यका जन्म पाकर भी जिन लोगोंने पापके अधीन होकर श्रीमद‍्भागवत नहीं सुना, उन्होंने मानो अपने ही हाथों अपनी हत्या कर ली॥ १४॥

श्लोक-१५

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रीमद‍्भागवतं शास्त्रं नित्यं यैः परिसेवितम्।
पितुर्मातुश्च भार्यायाः कुलपङ्‍‍क्तिः सुतारिता॥

मूलम्

श्रीमद‍्भागवतं शास्त्रं नित्यं यैः परिसेवितम्।
पितुर्मातुश्च भार्यायाः कुलपङ्‍‍क्तिः सुतारिता॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिन बड़भागियोंने प्रतिदिन श्रीमद‍्भागवत शास्त्रका सेवन किया है, उन्होंने अपने पिता, माता और पत्नी—तीनोंके ही कुलका भलीभाँति उद्धार कर दिया॥ १५॥

श्लोक-१६

विश्वास-प्रस्तुतिः

विद्याप्रकाशो विप्राणां राज्ञां शत्रुजयो विशाम्।
धनं स्वास्थ्यं च शूद्राणां श्रीमद‍्भागवताद् भवेत्॥

मूलम्

विद्याप्रकाशो विप्राणां राज्ञां शत्रुजयो विशाम्।
धनं स्वास्थ्यं च शूद्राणां श्रीमद‍्भागवताद् भवेत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीमद‍्भागवतके स्वाध्याय और श्रवणसे ब्राह्मणोंको विद्याका प्रकाश (बोध) प्राप्त होता है, क्षत्रियलोग शत्रुओंपर विजय पाते हैं, वैश्योंको धन मिलता है और शूद्र स्वस्थ—नीरोग बने रहते हैं॥ १६॥

श्लोक-१७

विश्वास-प्रस्तुतिः

योषितामपरेषां च सर्ववाञ्छितपूरणम्।
अतो भागवतं नित्यं को न सेवेत भाग्यवान्॥

मूलम्

योषितामपरेषां च सर्ववाञ्छितपूरणम्।
अतो भागवतं नित्यं को न सेवेत भाग्यवान्॥

अनुवाद (हिन्दी)

स्त्रियों तथा अन्त्यज आदि अन्य लोगोंकी भी इच्छा श्रीमद‍्भागवतसे पूर्ण होती है; अतः कौन ऐसा भाग्यवान् पुरुष है, जो श्रीमद‍्भागवतका नित्य ही सेवन न करेगा॥ १७॥

श्लोक-१८

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनेकजन्मसंसिद्धः श्रीमद‍्भागवतं लभेत्।
प्रकाशो भगवद‍्भक्तेरुद‍्भवस्तत्र जायते॥

मूलम्

अनेकजन्मसंसिद्धः श्रीमद‍्भागवतं लभेत्।
प्रकाशो भगवद‍्भक्तेरुद‍्भवस्तत्र जायते॥

अनुवाद (हिन्दी)

अनेकों जन्मोंतक साधना करते-करते जब मनुष्य पूर्ण सिद्ध हो जाता है, तब उसे श्रीमद‍्भागवतकी प्राप्ति होती है। भागवतसे भगवान‍्का प्रकाश मिलता है, जिससे भगवद‍्भक्ति उत्पन्न होती है॥ १८॥

श्लोक-१९

विश्वास-प्रस्तुतिः

सांख्यायनप्रसादाप्तं श्रीमद‍्भागवतं पुरा।
बृहस्पतिर्दत्तवान् मे तेनाहं कृष्णवल्लभः॥

मूलम्

सांख्यायनप्रसादाप्तं श्रीमद‍्भागवतं पुरा।
बृहस्पतिर्दत्तवान् मे तेनाहं कृष्णवल्लभः॥

अनुवाद (हिन्दी)

पूर्वकालमें सांख्यायनकी कृपासे श्रीमद‍्भागवत बृहस्पतिजीको मिला और बृहस्पतिजीने मुझे दिया; इसीसे मैं श्रीकृष्णका प्रियतम सखा हो सका हूँ॥ १९॥

श्लोक-२०

विश्वास-प्रस्तुतिः

आख्यायिकां च तेनोक्तां विष्णुरात निबोध ताम्।
ज्ञायते सम्प्रदायोऽपि यत्र भागवतश्रुतेः॥

मूलम्

आख्यायिकां च तेनोक्तां विष्णुरात निबोध ताम्।
ज्ञायते सम्प्रदायोऽपि यत्र भागवतश्रुतेः॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित् ! बृहस्पतिजीने मुझे एक आख्यायिका भी सुनायी थी, उसे तुम सुनो। इस आख्यायिकासे श्रीमद‍्भागवतश्रवणके सम्प्रदायका क्रम भी जाना जा सकता है॥ २०॥

श्लोक-२१

मूलम् (वचनम्)

बृहस्पतिरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ईक्षाञ्चक्रे यदा कृष्णो मायापुरुषरूपधृक्।
ब्रह्मा विष्णुः शिवश्चापि रजःसत्त्वतमोगुणैः॥

मूलम्

ईक्षाञ्चक्रे यदा कृष्णो मायापुरुषरूपधृक्।
ब्रह्मा विष्णुः शिवश्चापि रजःसत्त्वतमोगुणैः॥

श्लोक-२२

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुरुषास्त्रय उत्तस्थुरधिकारांस्तदादिशत्।
उत्पत्तौ पालने चैव संहारे प्रक्रमेण तान्॥

मूलम्

पुरुषास्त्रय उत्तस्थुरधिकारांस्तदादिशत्।
उत्पत्तौ पालने चैव संहारे प्रक्रमेण तान्॥

अनुवाद (हिन्दी)

बृहस्पतिजीने कहा था—अपनी मायासे पुरुषरूप धारण करनेवाले भगवान् श्रीकृष्णने जब सृष्टिके लिये संकल्प किया, तब उनके दिव्य विग्रहसे तीन पुरुष प्रकट हुए। इनमें रजोगुणकी प्रधानतासे ब्रह्मा, सत्त्वगुणकी प्रधानतासे विष्णु और तमोगुणकी प्रधानतासे रुद्र प्रकट हुए। भगवान‍्ने इन तीनोंको क्रमशः जगत‍्की उत्पत्ति, पालन और संहार करनेका अधिकार प्रदान किया॥ २१-२२॥

श्लोक-२३

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रह्मा तु नाभिकमलादुत्पन्नस्तं व्यजिज्ञपत्।

मूलम्

ब्रह्मा तु नाभिकमलादुत्पन्नस्तं व्यजिज्ञपत्।

मूलम् (वचनम्)

ब्रह्मोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

नारायणादिपुरुष परमात्मन् नमोऽस्तु ते॥

मूलम्

नारायणादिपुरुष परमात्मन् नमोऽस्तु ते॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब भगवान‍्के नाभि-कमलसे उत्पन्न हुए ब्रह्माजीने उनसे अपना मनोभाव यों प्रकट किया।
ब्रह्माजीने कहा—परमात्मन्! आप नार अर्थात् जलमें शयन करनेके कारण ‘नारायण’ नामसे प्रसिद्ध हैं, सबके आदि कारण होनेसे आदिपुरुष हैं; आपको नमस्कार है॥ २३॥

श्लोक-२४

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वया सर्गे नियुक्तोऽस्मि पापीयान् मां रजोगुणः।
त्वत्स्मृतौ नैव बाधेत तथैव कृपया प्रभो॥

मूलम्

त्वया सर्गे नियुक्तोऽस्मि पापीयान् मां रजोगुणः।
त्वत्स्मृतौ नैव बाधेत तथैव कृपया प्रभो॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभो! आपने मुझे सृष्टिकर्ममें लगाया है, मगर मुझे भय है कि सृष्टिकालमें अत्यन्त पापात्मा रजोगुण आपकी स्मृतिमें कहीं बाधा न डालने लग जाय। अतः कृपा करके ऐसी कोई बात बतायें, जिससे आपकी याद बराबर बनी रहे॥ २४॥

श्लोक-२५

मूलम् (वचनम्)

बृहस्पतिरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदा तु भगवांस्तस्मै श्रीमद‍्भागवतं पुरा।
उपदिश्याब्रवीद् ब्रह्मन् सेवस्वैनत् स्वसिद्धये॥

मूलम्

यदा तु भगवांस्तस्मै श्रीमद‍्भागवतं पुरा।
उपदिश्याब्रवीद् ब्रह्मन् सेवस्वैनत् स्वसिद्धये॥

अनुवाद (हिन्दी)

बृहस्पतिजी कहते हैं—जब ब्रह्माजीने ऐसी प्रार्थना की, तब पूर्वकालमें भगवान‍्ने उन्हें श्रीमद‍्भागवतका उपदेश देकर कहा—‘ब्रह्मन्! तुम अपने मनोरथकी सिद्धिके लिये सदा ही इसका सेवन करते रहो’॥ २५॥

श्लोक-२६

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रह्मा तु परमप्रीतस्तेन कृष्णाप्तयेऽनिशम्।
सप्तावरणभङ्गाय सप्ताहं समवर्तयत्॥

मूलम्

ब्रह्मा तु परमप्रीतस्तेन कृष्णाप्तयेऽनिशम्।
सप्तावरणभङ्गाय सप्ताहं समवर्तयत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्माजी श्रीमद‍्भागवतका उपदेश पाकर बड़े प्रसन्न हुए और उन्होंने श्रीकृष्णकी नित्य प्राप्तिके लिये तथा सात आवरणोंका भंग करनेके लिये श्रीमद‍्भागवतका सप्ताहपारायण किया॥ २६॥

श्लोक-२७

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रीभागवतसप्ताहसेवनाप्तमनोरथः।
सृष्टिं वितनुते नित्यं ससप्ताहः पुनः पुनः॥

मूलम्

श्रीभागवतसप्ताहसेवनाप्तमनोरथः।
सृष्टिं वितनुते नित्यं ससप्ताहः पुनः पुनः॥

अनुवाद (हिन्दी)

सप्ताहयज्ञकी विधिसे सात दिनोंतक श्रीमद‍्भागवतका सेवन करनेसे ब्रह्माजीके सभी मनोरथ पूर्ण हो गये। इससे वे सदा भगवत्स्मरणपूर्वक सृष्टिका विस्तार करते और बारंबार सप्ताहयज्ञका अनुष्ठान करते रहते हैं॥ २७॥

श्लोक-२८

विश्वास-प्रस्तुतिः

विष्णुरप्यर्थयामास पुमांसं स्वार्थसिद्धये।
प्रजानां पालने पुंसा यदनेनापि कल्पितः॥

मूलम्

विष्णुरप्यर्थयामास पुमांसं स्वार्थसिद्धये।
प्रजानां पालने पुंसा यदनेनापि कल्पितः॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्माजीकी ही भाँति विष्णुने भी अपने अभीष्ट अर्थकी सिद्धिके लिये उन परमपुरुष परमात्मासे प्रार्थना की; क्योंकि उन पुरुषोत्तमने विष्णुको भी प्रजा-पालनरूप कर्ममें नियुक्त किया था॥ २८॥

श्लोक-२९

मूलम् (वचनम्)

विष्णुरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रजानां पालनं देव करिष्यामि यथोचितम्।
प्रवृत्त्या च निवृत्त्या च कर्मज्ञानप्रयोजनात्॥

मूलम्

प्रजानां पालनं देव करिष्यामि यथोचितम्।
प्रवृत्त्या च निवृत्त्या च कर्मज्ञानप्रयोजनात्॥

अनुवाद (हिन्दी)

विष्णुने कहा—देव! मैं आपकी आज्ञाके अनुसार कर्म और ज्ञानके उद्देश्यसे प्रवृत्ति और निवृत्तिके द्वारा यथोचित रूपसे प्रजाओंका पालन करूँगा॥ २९॥

श्लोक-३०

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदा यदैव कालेन धर्मग्लानिर्भविष्यति।
धर्मं संस्थापयिष्यामि ह्यवतारैस्तदा तदा॥

मूलम्

यदा यदैव कालेन धर्मग्लानिर्भविष्यति।
धर्मं संस्थापयिष्यामि ह्यवतारैस्तदा तदा॥

अनुवाद (हिन्दी)

कालक्रमसे जब-जब धर्मकी हानि होगी, तब-तब अनेकों अवतार धारण कर पुनः धर्मकी स्थापना करूँगा॥ ३०॥

श्लोक-३१

विश्वास-प्रस्तुतिः

भोगार्थिभ्यस्तु यज्ञादि फलं दास्यामि निश्चितम्।
मोक्षार्थिभ्यो विरक्तेभ्यो मुक्तिं पञ्चविधां तथा॥

मूलम्

भोगार्थिभ्यस्तु यज्ञादि फलं दास्यामि निश्चितम्।
मोक्षार्थिभ्यो विरक्तेभ्यो मुक्तिं पञ्चविधां तथा॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो भोगोंकी इच्छा रखनेवाले हैं, उन्हें अवश्य ही उनके किये हुए यज्ञादि कर्मोंका फल अर्पण करूँगा; तथा जो संसारबन्धनसे मुक्त होना चाहते हैं, विरक्त हैं, उन्हें उनके इच्छानुसार पाँच प्रकारकी मुक्ति भी देता रहूँगा॥ ३१॥

श्लोक-३२

विश्वास-प्रस्तुतिः

येऽपि मोक्षं न वाञ्छन्ति तान् कथं पालयाम्यहम्।
आत्मानं च श्रियं चापि पालयामि कथं वद॥

मूलम्

येऽपि मोक्षं न वाञ्छन्ति तान् कथं पालयाम्यहम्।
आत्मानं च श्रियं चापि पालयामि कथं वद॥

अनुवाद (हिन्दी)

परन्तु जो लोग मोक्ष भी नहीं चाहते, उनका पालन मैं कैसे करूँगा—यह बात समझमें नहीं आती। इसके अतिरिक्त मैं अपनी तथा लक्ष्मीजीकी भी रक्षा कैसे कर सकूँगा, इसका उपाय भी बताइये॥ ३२॥

श्लोक-३३

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मा अपि पुमानाद्यः श्रीभागवतमादिशत्।
उवाच च पठस्वैनत्तव सर्वार्थसिद्धये॥

मूलम्

तस्मा अपि पुमानाद्यः श्रीभागवतमादिशत्।
उवाच च पठस्वैनत्तव सर्वार्थसिद्धये॥

अनुवाद (हिन्दी)

विष्णुकी यह प्रार्थना सुनकर आदिपुरुष श्रीकृष्णने उन्हें भी श्रीमद‍्भागवतका उपदेश किया और कहा—‘तुम अपने मनोरथकी सिद्धिके लिये इस श्रीमद‍्भागवत-शास्त्रका सदा पाठ किया करो’॥ ३३॥

श्लोक-३४

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो विष्णुः प्रसन्नात्मा परमार्थकपालने।
समर्थोऽभूच्छ्रिया मासि मासि भागवतं स्मरन्॥

मूलम्

ततो विष्णुः प्रसन्नात्मा परमार्थकपालने।
समर्थोऽभूच्छ्रिया मासि मासि भागवतं स्मरन्॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस उपदेशसे विष्णुभगवान‍्का चित्त प्रसन्न हो गया और वे लक्ष्मीजीके साथ प्रत्येक मासमें श्रीमद‍्भागवतका चिन्तन करने लगे। इससे वे परमार्थका पालन और यथार्थरूपसे संसारकी रक्षा करनेमें समर्थ हुए॥ ३४॥

श्लोक-३५

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदा विष्णुः स्वयं वक्ता लक्ष्मीश्च श्रवणे रता।
तदा भागवतश्रावो मासेनैव पुनः पुनः॥

मूलम्

यदा विष्णुः स्वयं वक्ता लक्ष्मीश्च श्रवणे रता।
तदा भागवतश्रावो मासेनैव पुनः पुनः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब भगवान् विष्णु स्वयं वक्ता होते हैं और लक्ष्मीजी प्रेमसे श्रवण करती हैं, उस समय प्रत्येक बार भागवतकथाका श्रवण एक मासमें ही समाप्त होता है॥ ३५॥

श्लोक-३६

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदा लक्ष्मीः स्वयं वक्त्री विष्णुश्च श्रवणे रतः।
मासद्वयं रसास्वादस्तदातीव सुशोभते॥

मूलम्

यदा लक्ष्मीः स्वयं वक्त्री विष्णुश्च श्रवणे रतः।
मासद्वयं रसास्वादस्तदातीव सुशोभते॥

अनुवाद (हिन्दी)

किन्तु जब लक्ष्मीजी स्वयं वक्ता होती हैं और विष्णु श्रोता बनकर सुनते हैं, तब भागवतकथाका रसास्वादन दो मासतक होता रहता है; उस समय कथा बड़ी सुन्दर, बहुत ही रुचिकर होती है॥ ३६॥

श्लोक-३७

विश्वास-प्रस्तुतिः

अधिकारे स्थितो विष्णुर्लक्ष्मीर्निश्चिन्तमानसा।
तेन भागवतास्वादस्तस्या भूरि प्रकाशते॥

मूलम्

अधिकारे स्थितो विष्णुर्लक्ष्मीर्निश्चिन्तमानसा।
तेन भागवतास्वादस्तस्या भूरि प्रकाशते॥

श्लोक-३८

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ रुद्रोऽपि तं देवं संहाराधिकृतः पुरा।
पुमांसं प्रार्थयामास स्वसामर्थ्यविवृद्धये॥

मूलम्

अथ रुद्रोऽपि तं देवं संहाराधिकृतः पुरा।
पुमांसं प्रार्थयामास स्वसामर्थ्यविवृद्धये॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसका कारण यह है कि विष्णु तो अधिकारारूढ हैं, उन्हें जगत‍्के पालनकी चिन्ता करनी पड़ती है; पर लक्ष्मीजी इन झंझटोंसे अलग हैं, अतः उनका हृदय निश्चिन्त है। इसीसे लक्ष्मीजीके मुखसे भागवतकथाका रसास्वादन अधिक प्रकाशित होता है। इसके पश्चात् रुद्रने भी, जिन्हें भगवान‍्ने पहले संहारकार्यमें लगाया था, अपनी सामर्थ्यकी वृद्धिके लिये उन परमपुरुष भगवान् श्रीकृष्णसे प्रार्थना की॥ ३७-३८॥

श्लोक-३९

मूलम् (वचनम्)

रुद्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

नित्ये नैमित्तिके चैव संहारे प्राकृते तथा।
शक्तयो मम विद्यन्ते देवदेव मम प्रभो॥

मूलम्

नित्ये नैमित्तिके चैव संहारे प्राकृते तथा।
शक्तयो मम विद्यन्ते देवदेव मम प्रभो॥

श्लोक-४०

विश्वास-प्रस्तुतिः

आत्यन्तिके तु संहारे मम शक्तिर्न विद्यते।
महद्दुःखं ममैतत्तु तेन त्वां प्रार्थयाम्यहम्॥

मूलम्

आत्यन्तिके तु संहारे मम शक्तिर्न विद्यते।
महद्दुःखं ममैतत्तु तेन त्वां प्रार्थयाम्यहम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

रुद्रने कहा—मेरे प्रभु देवदेव! मुझमें नित्य, नैमित्तिक और प्राकृत संहारकी शक्तियाँ तो हैं, पर आत्यन्तिक संहारकी शक्ति बिलकुल नहीं है। यह मेरे लिये बड़े दुःखकी बात है। इसी कमीकी पूर्तिके लिये मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ॥ ३९-४०॥

श्लोक-४१

मूलम् (वचनम्)

बृहस्पतिरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रीमद‍्भागवतं तस्मा अपि नारायणो ददौ।
स तु संसेवनादस्य जिग्ये चापि तमोगुणम्॥

मूलम्

श्रीमद‍्भागवतं तस्मा अपि नारायणो ददौ।
स तु संसेवनादस्य जिग्ये चापि तमोगुणम्॥

श्लोक-४२

विश्वास-प्रस्तुतिः

कथा भागवती तेन सेविता वर्षमात्रतः।
लये त्वात्यन्तिके तेनावाप शक्तिं सदाशिवः॥

मूलम्

कथा भागवती तेन सेविता वर्षमात्रतः।
लये त्वात्यन्तिके तेनावाप शक्तिं सदाशिवः॥

अनुवाद (हिन्दी)

बृहस्पतिजी कहते हैं—रुद्रकी प्रार्थना सुनकर नारायणने उन्हें भी श्रीमद‍्भागवतका ही उपदेश किया। सदाशिव रुद्रने एक वर्षमें एक पारायणके क्रमसे भागवतकथाका सेवन किया। इसके सेवनसे उन्होंने तमोगुणपर विजय पायी और आत्यन्तिक संहार (मोक्ष) की शक्ति भी प्राप्त कर ली॥ ४१-४२॥

श्लोक-४३

मूलम् (वचनम्)

उद्धव उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रीभागवतमाहात्म्य इमामाख्यायिकां गुरोः।
श्रुत्वा भागवतं लब्ध्वा मुमुदेऽहं प्रणम्य तम्॥

मूलम्

श्रीभागवतमाहात्म्य इमामाख्यायिकां गुरोः।
श्रुत्वा भागवतं लब्ध्वा मुमुदेऽहं प्रणम्य तम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

उद्धवजी कहते हैं—श्रीमद‍्भागवतके माहात्म्यके सम्बन्धमें यह आख्यायिका मैंने अपने गुरु श्रीबृहस्पतिजीसे सुनी और उनसे भागवतका उपदेश प्राप्त कर उनके चरणोंमें प्रणाम करके मैं बहुत ही आनन्दित हुआ॥ ४३॥

श्लोक-४४

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्तु वैष्णवीं रीतिं गृहीत्वा मासमात्रतः।
श्रीमद‍्भागवतास्वादो मया सम्यङ्‍‍निषेवितः॥

मूलम्

ततस्तु वैष्णवीं रीतिं गृहीत्वा मासमात्रतः।
श्रीमद‍्भागवतास्वादो मया सम्यङ्‍‍निषेवितः॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् भगवान् विष्णुकी रीति स्वीकार करके मैंने भी एक मासतक श्रीमद‍्भागवतकथाका भलीभाँति रसास्वादन किया॥ ४४॥

श्लोक-४५

विश्वास-प्रस्तुतिः

तावतैव बभूवाहं कृष्णस्य दयितः सखा।
कृष्णेनाथ नियुक्तोऽहं व्रजे स्वप्रेयसीगणे॥

मूलम्

तावतैव बभूवाहं कृष्णस्य दयितः सखा।
कृष्णेनाथ नियुक्तोऽहं व्रजे स्वप्रेयसीगणे॥

अनुवाद (हिन्दी)

उतनेसे ही मैं भगवान् श्रीकृष्णका प्रियतम सखा हो गया। इसके पश्चात् भगवान‍्ने मुझे व्रजमें अपनी प्रियतमा गोपियोंकी सेवामें नियुक्त किया॥ ४५॥

श्लोक-४६

विश्वास-प्रस्तुतिः

विरहार्त्तासु गोपीषु स्वयं नित्यविहारिणा।
श्रीभागवतसन्देशो मन्मुखेन प्रयोजितः॥

मूलम्

विरहार्त्तासु गोपीषु स्वयं नित्यविहारिणा।
श्रीभागवतसन्देशो मन्मुखेन प्रयोजितः॥

अनुवाद (हिन्दी)

यद्यपि भगवान् अपने लीलापरिकरोंके साथ नित्य विहार करते रहते हैं, इसलिये गोपियोंका श्रीकृष्णसे कभी भी वियोग नहीं होता; तथापि जो भ्रमसे विरहवेदनाका अनुभव कर रही थीं, उन गोपियोंके प्रति भगवान‍्ने मेरे मुखसे भागवतका सन्देश कहलाया॥ ४६॥

श्लोक-४७

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं यथामति लब्ध्वा ता आसन् विरहवर्जिताः।
नाज्ञासिषं रहस्यं तच्चमत्कारस्तु लोकितः॥

मूलम्

तं यथामति लब्ध्वा ता आसन् विरहवर्जिताः।
नाज्ञासिषं रहस्यं तच्चमत्कारस्तु लोकितः॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस सन्देशको अपनी बुद्धिके अनुसार ग्रहण कर गोपियाँ तुरन्त ही विरहवेदनासे मुक्त हो गयीं। मैं भागवतके इस रहस्यको तो नहीं समझ सका, किन्तु मैंने उसका चमत्कार प्रत्यक्ष देखा॥ ४७॥

श्लोक-४८

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वर्वासं प्रार्थ्य कृष्णं च ब्रह्माद्येषु गतेषु मे।
श्रीमद‍्भागवते कृष्णस्तद्रहस्यं स्वयं ददौ॥

मूलम्

स्वर्वासं प्रार्थ्य कृष्णं च ब्रह्माद्येषु गतेषु मे।
श्रीमद‍्भागवते कृष्णस्तद्रहस्यं स्वयं ददौ॥

श्लोक-४९

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुरतोऽश्वत्थमूलस्य चकार मयि तद् दृढम्।
तेनात्र व्रजवल्लीषु वसामि बदरीं गतः॥

मूलम्

पुरतोऽश्वत्थमूलस्य चकार मयि तद् दृढम्।
तेनात्र व्रजवल्लीषु वसामि बदरीं गतः॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके बहुत समयके बाद जब ब्रह्मादि देवता आकर भगवान‍्से अपने परमधाममें पधारनेकी प्रार्थना करके चले गये, उस समय पीपलके वृक्षकी जड़के पास अपने सामने खड़े हुए मुझे भगवान‍्ने श्रीमद‍्भागवत-विषयक उस रहस्यका स्वयं ही उपदेश किया और मेरी बुद्धिमें उसका दृढ़ निश्चय करा दिया। उसीके प्रभावसे मैं बदरिकाश्रममें रहकर भी यहाँ व्रजकी लताओं और बेलोंमें निवास करता हूँ॥ ४८-४९॥

श्लोक-५०

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मान्नारदकुण्डेऽत्र तिष्ठामि स्वेच्छया सदा।
कृष्णप्रकाशो भक्तानां श्रीमद‍्भागवताद् भवेत्॥

मूलम्

तस्मान्नारदकुण्डेऽत्र तिष्ठामि स्वेच्छया सदा।
कृष्णप्रकाशो भक्तानां श्रीमद‍्भागवताद् भवेत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसीके बलसे यहाँ नारदकुण्डपर सदा स्वेच्छानुसार विराजमान रहता हूँ। भगवान‍्के भक्तोंको श्रीमद‍्भागवतके सेवनसे श्रीकृष्णतत्त्वका प्रकाश प्राप्त हो सकता है॥ ५०॥

श्लोक-५१

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदेषामपि कार्यार्थं श्रीमद‍्भागवतं त्वहम्।
प्रवक्ष्यामि सहायोऽत्र त्वयैवानुष्ठितो भवेत्॥

मूलम्

तदेषामपि कार्यार्थं श्रीमद‍्भागवतं त्वहम्।
प्रवक्ष्यामि सहायोऽत्र त्वयैवानुष्ठितो भवेत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस कारण यहाँ उपस्थित हुए इन सभी भक्तजनोंके कार्यकी सिद्धिके लिये मैं श्रीमद‍्भागवतका पाठ करूँगा; किन्तु इस कार्यमें तुम्हें ही सहायता करनी पड़ेगी॥ ५१॥

श्लोक-५२

मूलम् (वचनम्)

सूत उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

विष्णुरातस्तु श्रुत्वा तदुद्धवं प्रणतोऽब्रवीत्।

मूलम्

विष्णुरातस्तु श्रुत्वा तदुद्धवं प्रणतोऽब्रवीत्।

मूलम् (वचनम्)

परीक्षिदुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरिदास त्वया कार्यं श्रीभागवतकीर्तनम्॥

मूलम्

हरिदास त्वया कार्यं श्रीभागवतकीर्तनम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

सूतजी कहते हैं—यह सुनकर राजा परीक्षित् उद्धवजीको प्रणाम करके उनसे बोले।
परीक्षित् ने कहा—हरिदास उद्धवजी! आप निश्चिन्त होकर श्रीमद‍्भागवतकथाका कीर्तन करें॥ ५२॥

श्लोक-५३

विश्वास-प्रस्तुतिः

आज्ञाप्योऽहं यथा कार्यः सहायोऽत्र मया तथा।

मूलम्

आज्ञाप्योऽहं यथा कार्यः सहायोऽत्र मया तथा।

मूलम् (वचनम्)

सूत उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रुत्वैतदुद्धवो वाक्यमुवाच प्रीतमानसः॥

मूलम्

श्रुत्वैतदुद्धवो वाक्यमुवाच प्रीतमानसः॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस कार्यमें मुझे जिस प्रकारकी सहायता करनी आवश्यक हो, उसके लिये आज्ञा दें।
सूतजी कहते हैं—परीक्षित् का यह वचन सुनकर उद्धवजी मन-ही-मन बहुत प्रसन्न हुए और बोले॥ ५३॥

श्लोक-५४

मूलम् (वचनम्)

उद्धव उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रीकृष्णेन परित्यक्ते भूतले बलवान् कलिः।
करिष्यति परं विघ्नं सत्कार्ये समुपस्थिते॥

मूलम्

श्रीकृष्णेन परित्यक्ते भूतले बलवान् कलिः।
करिष्यति परं विघ्नं सत्कार्ये समुपस्थिते॥

अनुवाद (हिन्दी)

उद्धवजीने कहा—राजन्! भगवान् श्रीकृष्णने जबसे इस पृथ्वीतलका परित्याग कर दिया है, तबसे यहाँ अत्यन्त बलवान् कलियुगका प्रभुत्व हो गया है। जिस समय यह शुभ अनुष्ठान यहाँ आरम्भ हो जायगा, बलवान् कलियुग अवश्य ही इसमें बहुत बड़ा विघ्न डालेगा॥ ५४॥

श्लोक-५५

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्माद् दिग्विजयं याहि कलिनिग्रहमाचर।
अहं तु मासमात्रेण वैष्णवीं रीतिमास्थितः॥

मूलम्

तस्माद् दिग्विजयं याहि कलिनिग्रहमाचर।
अहं तु मासमात्रेण वैष्णवीं रीतिमास्थितः॥

श्लोक-५६

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रीमद‍्भागवतास्वादं प्रचार्य त्वत्सहायतः।
एतान् सम्प्रापयिष्यामि नित्यधाम्नि मधुद्विषः॥

मूलम्

श्रीमद‍्भागवतास्वादं प्रचार्य त्वत्सहायतः।
एतान् सम्प्रापयिष्यामि नित्यधाम्नि मधुद्विषः॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसलिये तुम दिग्विजयके लिये जाओ और कलियुगको जीतकर अपने वशमें करो। इधर मैं तुम्हारी सहायतासे वैष्णवी रीतिका सहारा लेकर एक महीनेतक यहाँ श्रीमद‍्भागवतकथाका रसास्वादन कराऊँगा और इस प्रकार भागवतकथाके रसका प्रसार करके इन सभी श्रोताओंको भगवान् मधुसूदनके नित्य गोलोकधाममें पहुँचाऊँगा॥ ५५-५६॥

श्लोक-५७

मूलम् (वचनम्)

सूत उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रुत्वैवं तद्वचो राजा मुदितश्चिन्तयाऽऽतुरः।
तदा विज्ञापयामास स्वाभिप्रायं तमुद्धवम्॥

मूलम्

श्रुत्वैवं तद्वचो राजा मुदितश्चिन्तयाऽऽतुरः।
तदा विज्ञापयामास स्वाभिप्रायं तमुद्धवम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

सूतजी कहते हैं—उद्धवजीकी बात सुनकर राजा परीक्षित् पहले तो कलियुगपर विजय पानेके विचारसे बड़े ही प्रसन्न हुए; परन्तु पीछे यह सोचकर कि मुझे भागवतकथाके श्रवणसे वंचित ही रहना पड़ेगा, चिन्तासे व्याकुल हो उठे। उस समय उन्होंने उद्धवजीसे अपना अभिप्राय इस प्रकार प्रकट किया॥ ५७॥

श्लोक-५८

मूलम् (वचनम्)

परीक्षिदुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

कलिं तु निग्रहीष्यामि तात ते वचसि स्थितः।
श्रीभागवतसम्प्राप्तिः कथं मम भविष्यति॥

मूलम्

कलिं तु निग्रहीष्यामि तात ते वचसि स्थितः।
श्रीभागवतसम्प्राप्तिः कथं मम भविष्यति॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा परीक्षित् ने कहा—हे तात! आपकी आज्ञाके अनुसार तत्पर होकर मैं कलियुगको तो अवश्य ही अपने वशमें करूँगा, मगर श्रीमद‍्भागवतकी प्राप्ति मुझे कैसे होगी॥ ५८॥

श्लोक-५९

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहं तु समनुग्राह्यस्तव पादतले श्रितः।

मूलम्

अहं तु समनुग्राह्यस्तव पादतले श्रितः।

मूलम् (वचनम्)

सूत उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रुत्वैतद् वचनं भूयोऽप्युद्धवस्तमुवाच ह॥

मूलम्

श्रुत्वैतद् वचनं भूयोऽप्युद्धवस्तमुवाच ह॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं भी आपके चरणोंकी शरणमें आया हूँ, अतः मुझपर भी आपको अनुग्रह करना चाहिये।
सूतजी कहते हैं—उनके इस वचनको सुनकर उद्धवजी पुनः बोले॥ ५९॥

श्लोक-६०

मूलम् (वचनम्)

उद्धव उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

राजंश्चिन्ता तु ते कापि नैव कार्या कथञ्चन।
तवैव भगवच्छास्त्रे यतो मुख्याधिकारिता॥

मूलम्

राजंश्चिन्ता तु ते कापि नैव कार्या कथञ्चन।
तवैव भगवच्छास्त्रे यतो मुख्याधिकारिता॥

अनुवाद (हिन्दी)

उद्धवजीने कहा—राजन्! तुम्हें तो किसी भी बातके लिये किसी प्रकार भी चिन्ता नहीं करनी चाहिये; क्योंकि इस भागवतशास्त्रके प्रधान अधिकारी तो तुम्हीं हो॥ ६०॥

श्लोक-६१

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतावत्कालपर्यन्तं प्रायो भागवतश्रुतेः।
वार्तामपि न जानन्ति मनुष्याः कर्मतत्पराः॥

मूलम्

एतावत्कालपर्यन्तं प्रायो भागवतश्रुतेः।
वार्तामपि न जानन्ति मनुष्याः कर्मतत्पराः॥

अनुवाद (हिन्दी)

संसारके मनुष्य नाना प्रकारके कर्मोंमें रचे-पचे हुए हैं, ये लोग आजतक प्रायः भागवत-श्रवणकी बात भी नहीं जानते॥ ६१॥

श्लोक-६२

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वत्प्रसादेन बहवो मनुष्या भारताजिरे।
श्रीमद‍्भागवतप्राप्तौ सुखं प्राप्स्यन्ति शाश्वतम्॥

मूलम्

त्वत्प्रसादेन बहवो मनुष्या भारताजिरे।
श्रीमद‍्भागवतप्राप्तौ सुखं प्राप्स्यन्ति शाश्वतम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुम्हारे ही प्रसादसे इस भारतवर्षमें रहनेवाले अधिकांश मनुष्य श्रीमद‍्भागवतकथाकी प्राप्ति होनेपर शाश्वत सुख प्राप्त करेंगे॥ ६२॥

श्लोक-६३

विश्वास-प्रस्तुतिः

नन्दनन्दनरूपस्तु श्रीशुको भगवानृषिः।
श्रीमद‍्भागवतं तुभ्यं श्रावयिष्यत्यसंशयम्॥

मूलम्

नन्दनन्दनरूपस्तु श्रीशुको भगवानृषिः।
श्रीमद‍्भागवतं तुभ्यं श्रावयिष्यत्यसंशयम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

महर्षि भगवान् श्रीशुकदेवजी साक्षात् नन्दनन्दन श्रीकृष्णके स्वरूप हैं, वे ही तुम्हें श्रीमद‍्भागवतकी कथा सुनायेंगे; इसमें तनिक भी सन्देहकी बात नहीं है॥ ६३॥

श्लोक-६४

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेन प्राप्स्यसि राजंस्त्वं नित्यं धाम व्रजेशितुः।
श्रीभागवतसञ्चारस्ततो भुवि भविष्यति॥

मूलम्

तेन प्राप्स्यसि राजंस्त्वं नित्यं धाम व्रजेशितुः।
श्रीभागवतसञ्चारस्ततो भुवि भविष्यति॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! उस कथाके श्रवणसे तुम व्रजेश्वर श्रीकृष्णके नित्यधामको प्राप्त करोगे। इसके पश्चात् इस पृथ्वीपर श्रीमद‍्भागवत-कथाका प्रचार होगा॥ ६४॥

श्लोक-६५

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मात्त्वं गच्छ राजेन्द्र कलिनिग्रहमाचर।

मूलम्

तस्मात्त्वं गच्छ राजेन्द्र कलिनिग्रहमाचर।

अनुवाद (हिन्दी)

अतः राजेन्द्र परीक्षित्! तुम जाओ और कलियुगको जीतकर अपने वशमें करो।

मूलम् (वचनम्)

सूत उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्तस्तं परिक्रम्य गतो राजा दिशां जये॥

मूलम्

इत्युक्तस्तं परिक्रम्य गतो राजा दिशां जये॥

अनुवाद (हिन्दी)

सूतजी कहते हैं—उद्धवजीके इस प्रकार कहनेपर राजा परीक्षित् ने उनकी परिक्रमा करके उन्हें प्रणाम किया और दिग्विजयके लिये चले गये॥ ६५॥

श्लोक-६६

विश्वास-प्रस्तुतिः

वज्रस्तु निजराज्येशं प्रतिबाहुं विधाय च।
तत्रैव मातृभिः साकं तस्थौ भागवताशया॥

मूलम्

वज्रस्तु निजराज्येशं प्रतिबाहुं विधाय च।
तत्रैव मातृभिः साकं तस्थौ भागवताशया॥

अनुवाद (हिन्दी)

इधर वज्रने भी अपने पुत्र प्रतिबाहुको अपनी राजधानी मथुराका राजा बना दिया और माताओंको साथ ले उसी स्थानपर, जहाँ उद्धवजी प्रकट हुए थे, जाकर श्रीमद‍्भागवत सुननेकी इच्छासे रहने लगे॥ ६६॥

श्लोक-६७

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ वृन्दावने मासं गोवर्धनसमीपतः।
श्रीमद‍्भागवतास्वादस्तूद्धवेन प्रवर्तितः॥

मूलम्

अथ वृन्दावने मासं गोवर्धनसमीपतः।
श्रीमद‍्भागवतास्वादस्तूद्धवेन प्रवर्तितः॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर उद्धवजीने वृन्दावनमें गोवर्धनपर्वतके निकट एक महीनेतक श्रीमद‍्भागवत-कथाके रसकी धारा बहायी॥ ६७॥

श्लोक-६८

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मिन्नास्वाद्यमाने तु सच्चिदानन्दरूपिणी।
प्रचकाशे हरेर्लीला सर्वतः कृष्ण एव च॥

मूलम्

तस्मिन्नास्वाद्यमाने तु सच्चिदानन्दरूपिणी।
प्रचकाशे हरेर्लीला सर्वतः कृष्ण एव च॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस रसका आस्वादन करते समय प्रेमी श्रोताओंकी दृष्टिमें सब ओर भगवान‍्की सच्चिदानन्दमयी लीला प्रकाशित हो गयी और सर्वत्र श्रीकृष्णचन्द्रका साक्षात्कार होने लगा॥ ६८॥

श्लोक-६९

विश्वास-प्रस्तुतिः

आत्मानं च तदन्तःस्थं सर्वेऽपि ददृशुस्तदा।
वज्रस्तु दक्षिणे दृष्ट्वा कृष्णपादसरोरुहे॥

मूलम्

आत्मानं च तदन्तःस्थं सर्वेऽपि ददृशुस्तदा।
वज्रस्तु दक्षिणे दृष्ट्वा कृष्णपादसरोरुहे॥

श्लोक-७०

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वात्मानं कृष्णवैधुर्यान्मुक्तस्तद‍्भुव्यशोभत।
ताश्च तन्मातरः कृष्णे रासरात्रिप्रकाशिनि॥

मूलम्

स्वात्मानं कृष्णवैधुर्यान्मुक्तस्तद‍्भुव्यशोभत।
ताश्च तन्मातरः कृष्णे रासरात्रिप्रकाशिनि॥

श्लोक-७१

विश्वास-प्रस्तुतिः

चन्द्रे कलाप्रभारूपमात्मानं वीक्ष्य विस्मिताः।
स्वप्रेष्ठविरहव्याधिविमुक्ताः स्वपदं ययुः॥

मूलम्

चन्द्रे कलाप्रभारूपमात्मानं वीक्ष्य विस्मिताः।
स्वप्रेष्ठविरहव्याधिविमुक्ताः स्वपदं ययुः॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय सभी श्रोताओंने अपनेको भगवान‍्के स्वरूपमें स्थित देखा। वज्रनाभने श्रीकृष्णके दाहिने चरणकमलमें अपनेको स्थित देखा और श्रीकृष्णके विरहशोकसे मुक्त होकर उस स्थानपर अत्यन्त सुशोभित होने लगे। वज्रनाभकी वे रोहिणी आदि माताएँ भी रासकी रजनीमें प्रकाशित होनेवाले श्रीकृष्णरूपी चन्द्रमाके विग्रहमें अपनेको कला और प्रभाके रूपमें स्थित देख बहुत ही विस्मित हुईं तथा अपने प्राणप्यारेकी विरह-वेदनासे छुटकारा पाकर उनके परमधाममें प्रविष्ट हो गयीं॥ ६९-७१॥

श्लोक-७२

विश्वास-प्रस्तुतिः

येऽन्ये च तत्र ते सर्वे नित्यलीलान्तरं गताः।
व्यावहारिकलोकेभ्यः सद्योऽदर्शनमागताः॥

मूलम्

येऽन्ये च तत्र ते सर्वे नित्यलीलान्तरं गताः।
व्यावहारिकलोकेभ्यः सद्योऽदर्शनमागताः॥

अनुवाद (हिन्दी)

इनके अतिरिक्त भी जो श्रोतागण वहाँ उपस्थित थे वे भी भगवान‍्की नित्य अन्तरंगलीलामें सम्मिलित होकर इस स्थूल व्यावहारिक जगत‍्से तत्काल अन्तर्धान हो गये॥ ७२॥

श्लोक-७३

विश्वास-प्रस्तुतिः

गोवर्धननिकुञ्जेषु गोषु वृन्दावनादिषु।
नित्यं कृष्णेन मोदन्ते दृश्यन्ते प्रेमतत्परैः॥

मूलम्

गोवर्धननिकुञ्जेषु गोषु वृन्दावनादिषु।
नित्यं कृष्णेन मोदन्ते दृश्यन्ते प्रेमतत्परैः॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे सभी सदा ही गोवर्धन-पर्वतके कुंज और झाड़ियोंमें, वृन्दावन-काम्यवन आदि वनोंमें तथा वहाँकी दिव्य गौओंके बीचमें श्रीकृष्णके साथ विचरते हुए अनन्त आनन्दका अनुभव करते रहते हैं। जो लोग श्रीकृष्णके प्रेममें मग्न हैं, उन भावुक भक्तोंको उनके दर्शन भी होते हैं॥ ७३॥

श्लोक-७४

मूलम् (वचनम्)

सूत उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

य एतां भगवत्प्राप्तिं शृणुयाच्चापि कीर्तयेत्।
तस्य वै भगवत्प्राप्तिर्दुःखहानिश्च जायते॥

मूलम्

य एतां भगवत्प्राप्तिं शृणुयाच्चापि कीर्तयेत्।
तस्य वै भगवत्प्राप्तिर्दुःखहानिश्च जायते॥

अनुवाद (हिन्दी)

सूतजी कहते हैं—जो लोग इस भगवत्प्राप्तिकी कथाको सुनेंगे और कहेंगे, उन्हें भगवान् मिल जायँगे और उनके दुःखोंका सदाके लिये अन्त हो जायगा॥ ७४॥

अनुवाद (समाप्ति)

इति श्रीस्कान्दे महापुराण एकाशीतिसाहस्र्यां संहितायां द्वितीये वैष्णवखण्डे परीक्षिदुद्धवसंवादे श्रीमद‍्भागवतमाहात्म्ये तृतीयोऽध्यायः॥ ३॥