[अथ द्वितीयोऽध्यायः]
भागसूचना
यमुना और श्रीकृष्णपत्नियोंका संवाद, कीर्तनोत्सवमें उद्धवजीका प्रकट होना
श्लोक-१
मूलम् (वचनम्)
ऋषय ऊचुः
विश्वास-प्रस्तुतिः
शाण्डिल्ये तौ समादिश्य परावृत्ते स्वमाश्रमम्।
किं कथं चक्रतुस्तौ तु राजानौ सूत तद् वद॥
मूलम्
शाण्डिल्ये तौ समादिश्य परावृत्ते स्वमाश्रमम्।
किं कथं चक्रतुस्तौ तु राजानौ सूत तद् वद॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऋषियोंने पूछा—सूतजी! अब यह बतलाइये कि परीक्षित् और वज्रनाभको इस प्रकार आदेश देकर जब शाण्डिल्य मुनि अपने आश्रमको लौट गये, तब उन दोनों राजाओंने कैसे-कैसे और कौन-कौन-सा काम किया?॥ १॥
श्लोक-२
मूलम् (वचनम्)
सूत उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तु विष्णुरातेन श्रेणीमुख्याः सहस्रशः।
इन्द्रप्रस्थात् समानाय्य मथुरास्थानमापिताः॥
मूलम्
ततस्तु विष्णुरातेन श्रेणीमुख्याः सहस्रशः।
इन्द्रप्रस्थात् समानाय्य मथुरास्थानमापिताः॥
अनुवाद (हिन्दी)
सूतजी कहने लगे—तदनन्तर महाराज परीक्षित् ने इन्द्रप्रस्थ (दिल्ली) से हजारों बड़े-बड़े सेठोंको बुलवाकर मथुरामें रहनेकी जगह दी॥ २॥
श्लोक-३
विश्वास-प्रस्तुतिः
माथुरान् ब्राह्मणांस्तत्र वानरांश्च पुरातनान्।
विज्ञाय माननीयत्वं तेषु स्थापितवान् स्वराट्॥
मूलम्
माथुरान् ब्राह्मणांस्तत्र वानरांश्च पुरातनान्।
विज्ञाय माननीयत्वं तेषु स्थापितवान् स्वराट्॥
अनुवाद (हिन्दी)
इनके अतिरिक्त सम्राट् परीक्षित् ने मथुरामण्डलके ब्राह्मणों तथा प्राचीन वानरोंको, जो भगवान्के बड़े ही प्रेमी थे, बुलवाया और उन्हें आदरके योग्य समझकर मथुरा नगरीमें बसाया॥ ३॥
श्लोक-४
विश्वास-प्रस्तुतिः
वज्रस्तु तत्सहायेन शाण्डिल्यस्याप्यनुग्रहात्।
गोविन्दगोपगोपीनां लीलास्थानान्यनुक्रमात्॥
मूलम्
वज्रस्तु तत्सहायेन शाण्डिल्यस्याप्यनुग्रहात्।
गोविन्दगोपगोपीनां लीलास्थानान्यनुक्रमात्॥
श्लोक-५
विश्वास-प्रस्तुतिः
विज्ञायाभिधयाऽऽस्थाप्य ग्रामानावासयद् बहून्।
कुण्डकूपादिपूर्तेन शिवादिस्थापनेन च॥
मूलम्
विज्ञायाभिधयाऽऽस्थाप्य ग्रामानावासयद् बहून्।
कुण्डकूपादिपूर्तेन शिवादिस्थापनेन च॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार राजा परीक्षित् की सहायता और महर्षि शाण्डिल्यकी कृपासे वज्रनाभने क्रमशः उन सभी स्थानोंकी खोज की, जहाँ भगवान् श्रीकृष्ण अपने प्रेमी गोप-गोपियोंके साथ नाना प्रकारकी लीलाएँ करते थे। लीला-स्थानोंका ठीक-ठीक निश्चय हो जानेपर उन्होंने वहाँ-वहाँकी लीलाके अनुसार उस-उस स्थानका नामकरण किया, भगवान्के लीलाविग्रहोंकी स्थापना की तथा उन-उन स्थानोंपर अनेकों गाँव बसाये। स्थान-स्थानपर भगवान्के नामसे कुण्ड और कुएँ खुदवाये। कुंज और बगीचे लगवाये, शिव आदि देवताओंकी स्थापना की॥ ४-५॥
श्लोक-६
विश्वास-प्रस्तुतिः
गोविन्दहरिदेवादिस्वरूपारोपणेन च।
कृष्णैकभक्तिं स्वे राज्ये ततान च मुमोद ह॥
मूलम्
गोविन्दहरिदेवादिस्वरूपारोपणेन च।
कृष्णैकभक्तिं स्वे राज्ये ततान च मुमोद ह॥
अनुवाद (हिन्दी)
गोविन्ददेव, हरिदेव आदि नामोंसे भगवद्विग्रह स्थापित किये। इन सब शुभ कर्मोंके द्वारा वज्रनाभने अपने राज्यमें सब ओर एकमात्र श्रीकृष्णभक्तिका प्रचार किया और बड़े ही आनन्दित हुए॥ ६॥
श्लोक-७
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रजास्तु मुदितास्तस्य कृष्णकीर्तनतत्पराः।
परमानन्दसम्पन्ना राज्यं तस्यैव तुष्टुवुः॥
मूलम्
प्रजास्तु मुदितास्तस्य कृष्णकीर्तनतत्पराः।
परमानन्दसम्पन्ना राज्यं तस्यैव तुष्टुवुः॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके प्रजाजनोंको भी बड़ा आनन्द था, वे सदा भगवान्के मधुर नाम तथा लीलाओंके कीर्तनमें संलग्न हो परमानन्दके समुद्रमें डूबे रहते थे और सदा ही वज्रनाभके राज्यकी प्रशंसा किया करते थे॥ ७॥
श्लोक-८
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकदा कृष्णपत्न्यस्तु श्रीकृष्णविरहातुराः।
कालिन्दीं मुदितां वीक्ष्य पप्रच्छुर्गतमत्सराः॥
मूलम्
एकदा कृष्णपत्न्यस्तु श्रीकृष्णविरहातुराः।
कालिन्दीं मुदितां वीक्ष्य पप्रच्छुर्गतमत्सराः॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक दिन भगवान् श्रीकृष्णकी विरह-वेदनासे व्याकुल सोलह हजार रानियाँ अपने प्रियतम पतिदेवकी चतुर्थ पटरानी कालिन्दी (यमुनाजी) को आनन्दित देखकर सरलभावसे उनसे पूछने लगीं। उनके मनमें सौतियाडाहका लेशमात्र भी नहीं था॥ ८॥
श्लोक-९
मूलम् (वचनम्)
श्रीकृष्णपत्न्य ऊचुः
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा वयं कृष्णपत्न्यस्तथा त्वमपि शोभने।
वयं विरहदुःखार्तास्त्वं न कालिन्दि तद् वद॥
मूलम्
यथा वयं कृष्णपत्न्यस्तथा त्वमपि शोभने।
वयं विरहदुःखार्तास्त्वं न कालिन्दि तद् वद॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीकृष्णकी रानियोंने कहा—बहिन कालिन्दी! जैसे हम सब श्रीकृष्णकी धर्मपत्नी हैं, वैसे ही तुम भी तो हो। हम तो उनकी विरहाग्निमें जली जा रही हैं, उनके वियोग-दुःखसे हमारा हृदय व्यथित हो रहा है; किन्तु तुम्हारी यह स्थिति नहीं है, तुम प्रसन्न हो। इसका क्या कारण है? कल्याणी! कुछ बताओ तो सही॥ ९॥
श्लोक-१०
विश्वास-प्रस्तुतिः
तच्छ्रुत्वा स्मयमाना सा कालिन्दी वाक्यमब्रवीत्।
सापत्न्यं वीक्ष्य तत्तासां करुणापरमानसा॥
मूलम्
तच्छ्रुत्वा स्मयमाना सा कालिन्दी वाक्यमब्रवीत्।
सापत्न्यं वीक्ष्य तत्तासां करुणापरमानसा॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनका प्रश्न सुनकर यमुनाजी हँस पड़ीं। साथ ही यह सोचकर कि मेरे प्रियतमकी पत्नी होनेके कारण ये भी मेरी ही बहिनें हैं, पिघल गयीं; उनका हृदय दयासे द्रवित हो उठा। अतः वे इस प्रकार कहने लगीं॥ १०॥
श्लोक-११
मूलम् (वचनम्)
कालिन्द्युवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
आत्मारामस्य कृष्णस्य ध्रुवमात्मास्ति राधिका।
तस्या दास्यप्रभावेण विरहोऽस्मान् न संस्पृशेत्॥
मूलम्
आत्मारामस्य कृष्णस्य ध्रुवमात्मास्ति राधिका।
तस्या दास्यप्रभावेण विरहोऽस्मान् न संस्पृशेत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
यमुनाजीने कहा—अपनी आत्मामें ही रमण करनेके कारण भगवान् श्रीकृष्ण आत्माराम हैं और उनकी आत्मा हैं—श्रीराधाजी। मैं दासीकी भाँति राधाजीकी सेवा करती रहती हूँ; उनकी सेवाका ही यह प्रभाव है कि विरह हमारा स्पर्श नहीं कर सकता॥ ११॥
श्लोक-१२
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्या एवांशविस्ताराः सर्वाः श्रीकृष्णनायिकाः।
नित्यसम्भोग एवास्ति तस्याः साम्मुख्ययोगतः॥
मूलम्
तस्या एवांशविस्ताराः सर्वाः श्रीकृष्णनायिकाः।
नित्यसम्भोग एवास्ति तस्याः साम्मुख्ययोगतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् श्रीकृष्णकी जितनी भी रानियाँ हैं, सब-की-सब श्रीराधाजीके ही अंशका विस्तार हैं। भगवान् श्रीकृष्ण और राधा सदा एक-दूसरेके सम्मुख हैं, उनका परस्पर नित्य संयोग है; इसलिये राधाके स्वरूपमें अंशतः विद्यमान जो श्रीकृष्णकी अन्य रानियाँ हैं, उनको भी भगवान्का नित्य संयोग प्राप्त है॥ १२॥
श्लोक-१३
विश्वास-प्रस्तुतिः
स एव सा स सैवास्ति वंशी तत्प्रेमरूपिका।
श्रीकृष्णनखचन्द्रालिसङ्गाच्चन्द्रावली स्मृता॥
मूलम्
स एव सा स सैवास्ति वंशी तत्प्रेमरूपिका।
श्रीकृष्णनखचन्द्रालिसङ्गाच्चन्द्रावली स्मृता॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीकृष्ण ही राधा हैं और राधा ही श्रीकृष्ण हैं। उन दोनोंका प्रेम ही वंशी है। तथा राधाकी प्यारी सखी चन्द्रावली भी श्रीकृष्ण-चरणोंके नखरूपी चन्द्रमाओंकी सेवामें आसक्त रहनेके कारण ही ‘चन्द्रावली’ नामसे कही जाती है॥ १३॥
श्लोक-१४
विश्वास-प्रस्तुतिः
रूपान्तरमगृह्णाना तयोः सेवातिलालसा।
रुक्मिण्यादिसमावेशो मयात्रैव विलोकितः॥
मूलम्
रूपान्तरमगृह्णाना तयोः सेवातिलालसा।
रुक्मिण्यादिसमावेशो मयात्रैव विलोकितः॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीराधा और श्रीकृष्णकी सेवामें उसकी बड़ी लालसा, बड़ी लगन है; इसीलिये वह कोई दूसरा स्वरूप धारण नहीं करती। मैंने यहीं श्रीराधामें ही रुक्मिणी आदिका समावेश देखा है॥ १४॥
श्लोक-१५
विश्वास-प्रस्तुतिः
युष्माकमपि कृष्णेन विरहो नैव सर्वतः।
किन्तु एवं न जानीथ तस्माद् व्याकुलतामिताः॥
मूलम्
युष्माकमपि कृष्णेन विरहो नैव सर्वतः।
किन्तु एवं न जानीथ तस्माद् व्याकुलतामिताः॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुमलोगोंका भी सर्वांशमें श्रीकृष्णके साथ वियोग नहीं हुआ है, किन्तु तुम इस रहस्यको इस रूपमें जानती नहीं हो, इसीलिये इतनी व्याकुल हो रही हो॥ १५॥
श्लोक-१६
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमेवात्र गोपीनामक्रूरावसरे पुरा।
विरहाभास एवासीदुद्धवेन समाहितः॥
मूलम्
एवमेवात्र गोपीनामक्रूरावसरे पुरा।
विरहाभास एवासीदुद्धवेन समाहितः॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी प्रकार पहले भी जब अक्रूर श्रीकृष्णको नन्दगाँवसे मथुरामें ले आये थे, उस अवसरपर जो गोपियोंको श्रीकृष्णसे विरहकी प्रतीति हुई थी, वह भी वास्तविक विरह नहीं, केवल विरहका आभास था। इस बातको जबतक वे नहीं जानती थीं, तबतक उन्हें बड़ा कष्ट था; फिर जब उद्धवजीने आकर उनका समाधान किया, तब वे इस बातको समझ सकीं॥ १६॥
श्लोक-१७
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेनैव भवतीनां चेद् भवेदत्र समागमः।
तर्हि नित्यं स्वकान्तेन विहारमपि लप्स्यथ॥
मूलम्
तेनैव भवतीनां चेद् भवेदत्र समागमः।
तर्हि नित्यं स्वकान्तेन विहारमपि लप्स्यथ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि तुम्हें भी उद्धवजीका सत्संग प्राप्त हो जाय, तो तुम सब भी अपने प्रियतम श्रीकृष्णके साथ नित्यविहारका सुख प्राप्त कर लोगी॥ १७॥
श्लोक-१८
मूलम् (वचनम्)
सूत उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्तास्तु ताः पत्न्यः प्रसन्नां पुनरब्रुवन्।
उद्धवालोकनेनात्मप्रेष्ठसङ्गमलालसाः॥
मूलम्
एवमुक्तास्तु ताः पत्न्यः प्रसन्नां पुनरब्रुवन्।
उद्धवालोकनेनात्मप्रेष्ठसङ्गमलालसाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
सूतजी कहते हैं—ऋषिगण! जब उन्होंने इस प्रकार समझाया, तब श्रीकृष्णकी पत्नियाँ सदा प्रसन्न रहनेवाली यमुनाजीसे पुनः बोलीं। उस समय उनके हृदयमें इस बातकी बड़ी लालसा थी कि किसी उपायसे उद्धवजीका दर्शन हो, जिससे हमें अपने प्रियतमके नित्य संयोगका सौभाग्य प्राप्त हो सके॥ १८॥
श्लोक-१९
मूलम् (वचनम्)
श्रीकृष्णपत्न्य ऊचुः
विश्वास-प्रस्तुतिः
धन्यासि सखि कान्तेन यस्या नैवास्ति विच्युतिः।
यतस्ते स्वार्थसंसिद्धिस्तस्या दास्यो बभूविम॥
मूलम्
धन्यासि सखि कान्तेन यस्या नैवास्ति विच्युतिः।
यतस्ते स्वार्थसंसिद्धिस्तस्या दास्यो बभूविम॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीकृष्णपत्नियोंने कहा—सखी! तुम्हारा ही जीवन धन्य है; क्योंकि तुम्हें कभी भी अपने प्राणनाथके वियोगका दुःख नहीं भोगना पड़ता। जिन श्रीराधिकाजीकी कृपासे तुम्हारे अभीष्ट अर्थकी सिद्धि हुई है, उनकी अब हमलोग भी दासी हुईं॥ १९॥
श्लोक-२०
विश्वास-प्रस्तुतिः
परन्तूद्धवलाभे स्यादस्मत्सर्वार्थसाधनम्।
तथा वदस्व कालिन्दि तल्लाभोऽपि यथा भवेत्॥
मूलम्
परन्तूद्धवलाभे स्यादस्मत्सर्वार्थसाधनम्।
तथा वदस्व कालिन्दि तल्लाभोऽपि यथा भवेत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
किन्तु तुम अभी कह चुकी हो कि उद्धवजीके मिलनेपर ही हमारे सभी मनोरथ पूर्ण होंगे; इसलिये कालिन्दी! अब ऐसा कोई उपाय बताओ, जिससे उद्धवजी भी शीघ्र ही मिल जायँ॥ २०॥
श्लोक-२१
मूलम् (वचनम्)
सूत उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्ता तु कालिन्दी प्रत्युवाचाथ तास्तथा।
स्मरन्ती कृष्णचन्द्रस्य कलाः षोडशरूपिणीः॥
मूलम्
एवमुक्ता तु कालिन्दी प्रत्युवाचाथ तास्तथा।
स्मरन्ती कृष्णचन्द्रस्य कलाः षोडशरूपिणीः॥
अनुवाद (हिन्दी)
सूतजी कहते हैं—श्रीकृष्णकी रानियोंने जब यमुनाजीसे इस प्रकार कहा, तब वे भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रकी सोलह कलाओंका चिन्तन करती हुई उनसे कहने लगीं॥ २१॥
श्लोक-२२
विश्वास-प्रस्तुतिः
साधनभूमिर्बदरी व्रजता कृष्णेन मन्त्रिणे प्रोक्ता।
तत्रास्ते स तु साक्षात्तद्वयुनं ग्राहयँल्लोकान्॥
मूलम्
साधनभूमिर्बदरी व्रजता कृष्णेन मन्त्रिणे प्रोक्ता।
तत्रास्ते स तु साक्षात्तद्वयुनं ग्राहयँल्लोकान्॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘‘जब भगवान् श्रीकृष्ण अपने परमधामको पधारने लगे, तब उन्होंने अपने मन्त्री उद्धवसे कहा—‘उद्धव! साधना करनेकी भूमि है बदरिकाश्रम, अतः अपनी साधना पूर्ण करनेके लिये तुम वहीं जाओ।’ भगवान्की इस आज्ञाके अनुसार उद्धवजी इस समय अपने साक्षात् स्वरूपसे बदरिकाश्रममें विराजमान हैं और वहाँ जानेवाले जिज्ञासु लोगोंको भगवान्के बताये हुए ज्ञानका उपदेश करते रहते हैं॥ २२॥
श्लोक-२३
विश्वास-प्रस्तुतिः
फलभूमिर्व्रजभूमिर्दत्ता तस्मै पुरैव सरहस्यम्।
फलमिह तिरोहितं सत्तदिहेदानीं स उद्धवोऽलक्ष्यः॥
मूलम्
फलभूमिर्व्रजभूमिर्दत्ता तस्मै पुरैव सरहस्यम्।
फलमिह तिरोहितं सत्तदिहेदानीं स उद्धवोऽलक्ष्यः॥
अनुवाद (हिन्दी)
साधनकी फलरूपा भूमि है—व्रजभूमि; इसे भी इसके रहस्योंसहित भगवान्ने पहले ही उद्धवको दे दिया था। किन्तु वह फलभूमि यहाँसे भगवान्के अन्तर्धान होनेके साथ ही स्थूल दृष्टिसे परे जा चुकी है; इसीलिये इस समय यहाँ उद्धव प्रत्यक्ष दिखायी नहीं पड़ते॥ २३॥
श्लोक-२४
विश्वास-प्रस्तुतिः
गोवर्द्धनगिरिनिकटे सखीस्थले तद्रजःकामः।
तत्रत्याङ्कुरवल्लीरूपेणास्ते स उद्धवो नूनम्॥
मूलम्
गोवर्द्धनगिरिनिकटे सखीस्थले तद्रजःकामः।
तत्रत्याङ्कुरवल्लीरूपेणास्ते स उद्धवो नूनम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर भी एक स्थान है, जहाँ उद्धवजीका दर्शन हो सकता है। गोवर्धन पर्वतके निकट भगवान्की लीला-सहचरी गोपियोंकी विहार-स्थली है; वहाँकी लता, अंकुर और बेलोंके रूपमें अवश्य ही उद्धवजी वहाँ निवास करते हैं। लताओंके रूपमें उनके रहनेका यही उद्देश्य है कि भगवान्की प्रियतमा गोपियोंकी चरणरज उनपर पड़ती रहे॥ २४॥
श्लोक-२५
विश्वास-प्रस्तुतिः
आत्मोत्सवरूपत्वं हरिणा तस्मै समर्पितं नियतम्।
तस्मात्तत्र स्थित्वा कुसुमसरःपरिसरे सवज्राभिः॥
मूलम्
आत्मोत्सवरूपत्वं हरिणा तस्मै समर्पितं नियतम्।
तस्मात्तत्र स्थित्वा कुसुमसरःपरिसरे सवज्राभिः॥
अनुवाद (हिन्दी)
उद्धवजीके सम्बन्धमें एक निश्चित बात यह भी है कि उन्हें भगवान्ने अपना उत्सव-स्वरूप प्रदान किया है। भगवान्का उत्सव उद्धवजीका अंग है, वे उससे अलग नहीं रह सकते; इसलिये अब तुमलोग वज्रनाभको साथ लेकर वहाँ जाओ और कुसुमसरोवरके पास ठहरो॥ २५॥
श्लोक-२६
विश्वास-प्रस्तुतिः
वीणावेणुमृदङ्गैः कीर्तनकाव्यादिसरससङ्गीतैः।
उत्सव आरब्धव्यो हरिरतलोकान् समानाय्य॥
मूलम्
वीणावेणुमृदङ्गैः कीर्तनकाव्यादिसरससङ्गीतैः।
उत्सव आरब्धव्यो हरिरतलोकान् समानाय्य॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवद्भक्तोंकी मण्डली एकत्र करके वीणा, वेणु और मृदंग आदि बाजोंके साथ भगवान्के नाम और लीलाओंके कीर्तन, भगवत्सम्बन्धी काव्य-कथाओंके श्रवण तथा भगवद्गुण-गानसे युक्त सरस संगीतोंद्वारा महान् उत्सव आरम्भ करो॥ २६॥
श्लोक-२७
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्रोद्धवावलोको भविता नियतं महोत्सवे वितते।
यौष्माकीणामभिमतसिद्धिं सविता स एव सवितानाम्॥
मूलम्
तत्रोद्धवावलोको भविता नियतं महोत्सवे वितते।
यौष्माकीणामभिमतसिद्धिं सविता स एव सवितानाम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार जब उस महान् उत्सवका विस्तार होगा, तब निश्चय है कि वहाँ उद्धवजीका दर्शन मिलेगा। वे ही भलीभाँति तुम सब लोगोंके मनोरथ पूर्ण करेंगे’’॥ २७॥
श्लोक-२८
मूलम् (वचनम्)
सूत उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति श्रुत्वा प्रसन्नास्ताः कालिन्दीमभिवन्द्य तत्।
कथयामासुरागत्य वज्रं प्रति परीक्षितम्॥
मूलम्
इति श्रुत्वा प्रसन्नास्ताः कालिन्दीमभिवन्द्य तत्।
कथयामासुरागत्य वज्रं प्रति परीक्षितम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
सूतजी कहते हैं—यमुनाजीकी बतायी हुई बातें सुनकर श्रीकृष्णकी रानियाँ बहुत प्रसन्न हुईं। उन्होंने यमुनाजीको प्रणाम किया और वहाँसे लौट-कर वज्रनाभ तथा परीक्षित् से वे सारी बातें कह सुनायीं॥ २८॥
श्लोक-२९
विश्वास-प्रस्तुतिः
विष्णुरातस्तु तच्छ्रुत्वा प्रसन्नस्तद्युतस्तदा।
तत्रैवागत्य तत् सर्वं कारयामास सत्वरम्॥
मूलम्
विष्णुरातस्तु तच्छ्रुत्वा प्रसन्नस्तद्युतस्तदा।
तत्रैवागत्य तत् सर्वं कारयामास सत्वरम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
सब बातें सुनकर परीक्षित् को बड़ी प्रसन्नता हुई और उन्होंने वज्रनाभ तथा श्रीकृष्णपत्नियोंको उसी समय साथ ले उस स्थानपर पहुँचकर तत्काल वह सब कार्य आरम्भ करवा दिया, जो कि यमुनाजीने बताया था॥ २९॥
श्लोक-३०
विश्वास-प्रस्तुतिः
गोवर्द्धनाददूरेण वृन्दारण्ये सखीस्थले।
प्रवृत्तः कुसुमाम्भोधौ कृष्णसङ्कीर्तनोत्सवः॥
मूलम्
गोवर्द्धनाददूरेण वृन्दारण्ये सखीस्थले।
प्रवृत्तः कुसुमाम्भोधौ कृष्णसङ्कीर्तनोत्सवः॥
अनुवाद (हिन्दी)
गोवर्धनके निकट वृन्दावनके भीतर कुसुम-सरोवरपर जो सखियोंकी विहारस्थली है, वहाँ ही श्रीकृष्णकीर्तनका उत्सव आरम्भ हुआ॥ ३०॥
श्लोक-३१
विश्वास-प्रस्तुतिः
वृषभानुसुताकान्तविहारे कीर्तनश्रिया।
साक्षादिव समावृत्ते सर्वेऽनन्यदृशोऽभवन्॥
मूलम्
वृषभानुसुताकान्तविहारे कीर्तनश्रिया।
साक्षादिव समावृत्ते सर्वेऽनन्यदृशोऽभवन्॥
अनुवाद (हिन्दी)
वृषभानुनन्दिनी श्रीराधाजी तथा उनके प्रियतम श्रीकृष्णकी वह लीलाभूमि जब साक्षात् संकीर्तनकी शोभासे सम्पन्न हो गयी, उस समय वहाँ रहनेवाले सभी भक्तजन एकाग्र हो गये; उनकी दृष्टि, उनके मनकी वृत्ति कहीं अन्यत्र न जाती थी॥ ३१॥
श्लोक-३२
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः पश्यत्सु सर्वेषु तृणगुल्मलताचयात्।
आजगामोद्धवः स्रग्वी श्यामः पीताम्बरावृतः॥
मूलम्
ततः पश्यत्सु सर्वेषु तृणगुल्मलताचयात्।
आजगामोद्धवः स्रग्वी श्यामः पीताम्बरावृतः॥
श्लोक-३३
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुञ्जामालाधरो गायन् वल्लवीवल्लभं मुहुः।
तदागमनतो रेजे भृशं सङ्कीर्तनोत्सवः॥
मूलम्
गुञ्जामालाधरो गायन् वल्लवीवल्लभं मुहुः।
तदागमनतो रेजे भृशं सङ्कीर्तनोत्सवः॥
श्लोक-३४
विश्वास-प्रस्तुतिः
चन्द्रिकागमतो यद्वत् स्फाटिकाट्टालभूमणिः।
अथ सर्वे सुखाम्भोधौ मग्नाः सर्वं विसस्मरुः॥
मूलम्
चन्द्रिकागमतो यद्वत् स्फाटिकाट्टालभूमणिः।
अथ सर्वे सुखाम्भोधौ मग्नाः सर्वं विसस्मरुः॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर सबके देखते-देखते वहाँ फैले हुए तृण, गुल्म और लताओंके समूहसे प्रकट होकर श्रीउद्धवजी सबके सामने आये। उनका शरीर श्याम-वर्ण था, उसपर पीताम्बर शोभा पा रहा था। वे गलेमें वनमाला और गुंजाकी माला धारण किये हुए थे तथा मुखसे बारंबार गोपीवल्लभ श्रीकृष्णकी मधुर लीलाओंका गान कर रहे थे। उद्धवजीके आगमनसे उस संकीर्तनोत्सवकी शोभा कई गुनी बढ़ गयी। जैसे स्फटिकमणिकी बनी हुई अट्टालिकाकी छतपर चाँदनी छिटकनेसे उसकी शोभा बहुत बढ़ जाती है। उस समय सभी लोग आनन्दके समुद्रमें निमग्न हो अपना सब कुछ भूल गये, सुध-बुध खो बैठे॥ ३२—३४॥
श्लोक-३५
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षणेनागतविज्ञाना दृष्ट्वा श्रीकृष्णरूपिणम्।
उद्धवं पूजयाञ्चक्रुः प्रतिलब्धमनोरथाः॥
मूलम्
क्षणेनागतविज्ञाना दृष्ट्वा श्रीकृष्णरूपिणम्।
उद्धवं पूजयाञ्चक्रुः प्रतिलब्धमनोरथाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
थोड़ी देर बाद जब उनकी चेतना दिव्य लोकसे नीचे आयी, अर्थात् जब उन्हें होश हुआ तब उद्धवजीको भगवान् श्रीकृष्णके स्वरूपमें उपस्थित देख, अपना मनोरथ पूर्ण हो जानेके कारण प्रसन्न हो, वे उनकी पूजा करने लगे॥ ३५॥
अनुवाद (समाप्ति)
इति श्रीस्कान्दे महापुराण एकाशीतिसाहस्र्यां संहितायां द्वितीये वैष्णवखण्डे श्रीमद्भागवतमाहात्म्ये गोवर्धनपर्वतसमीपे परीक्षिदादीनामुद्धवदर्शनवर्णनं नाम द्वितीयोऽध्यायः॥ २॥