[पहला अध्याय]
भागसूचना
देवर्षि नारदकी भक्तिसे भेंट
श्लोक-१
विश्वास-प्रस्तुतिः
सच्चिदानन्दरूपाय विश्वोत्पत्त्यादिहेतवे।
तापत्रयविनाशाय श्रीकृष्णाय वयं नुमः॥
मूलम्
सच्चिदानन्दरूपाय विश्वोत्पत्त्यादिहेतवे।
तापत्रयविनाशाय श्रीकृष्णाय वयं नुमः॥
अनुवाद (हिन्दी)
सच्चिदानन्दस्वरूप भगवान् श्रीकृष्णको हम नमस्कार करते हैं, जो जगत्की उत्पत्ति, स्थिति और विनाशके हेतु तथा आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक—तीनों प्रकारके तापोंका नाश करनेवाले हैं॥ १॥
श्लोक-२
विश्वास-प्रस्तुतिः
यं प्रव्रजन्तमनुपेतमपेतकृत्यं
द्वैपायनो विरहकातर आजुहाव।
पुत्रेति तन्मयतया तरवोऽभिनेदु-
स्तं सर्वभूतहृदयं मुनिमानतोऽस्मि॥
मूलम्
यं प्रव्रजन्तमनुपेतमपेतकृत्यं
द्वैपायनो विरहकातर आजुहाव।
पुत्रेति तन्मयतया तरवोऽभिनेदु-
स्तं सर्वभूतहृदयं मुनिमानतोऽस्मि॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिस समय श्रीशुकदेवजीका यज्ञोपवीत-संस्कार भी नहीं हुआ था तथा लौकिक-वैदिक कर्मोंके अनुष्ठानका अवसर भी नहीं आया था, तभी उन्हें अकेले ही संन्यास लेनेके लिये घरसे जाते देखकर उनके पिता व्यासजी विरहसे कातर होकर पुकारने लगे—‘बेटा! बेटा! तुम कहाँ जा रहे हो?’ उस समय वृक्षोंने तन्मय होनेके कारण श्रीशुकदेवजीकी ओरसे उत्तर दिया था। ऐसे सर्वभूत-हृदयस्वरूप श्रीशुकदेवमुनिको मैं नमस्कार करता हूँ॥ २॥
श्लोक-३
विश्वास-प्रस्तुतिः
नैमिषे सूतमासीनमभिवाद्य महामतिम्।
कथामृतरसास्वादकुशलः शौनकोऽब्रवीत्॥
मूलम्
नैमिषे सूतमासीनमभिवाद्य महामतिम्।
कथामृतरसास्वादकुशलः शौनकोऽब्रवीत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक बार भगवत्कथामृतका रसास्वादन करनेमें कुशल मुनिवर शौनकजीने नैमिषारण्य क्षेत्रमें विराजमान महामति सूतजीको नमस्कार करके उनसे पूछा॥ ३॥
श्लोक-४
मूलम् (वचनम्)
शौनक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अज्ञानध्वान्तविध्वंसकोटिसूर्यसमप्रभ ।
सूताख्याहि कथासारं मम कर्णरसायनम्॥
मूलम्
अज्ञानध्वान्तविध्वंसकोटिसूर्यसमप्रभ ।
सूताख्याहि कथासारं मम कर्णरसायनम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
शौनकजी बोले—सूतजी! आपका ज्ञान अज्ञानान्धकारको नष्ट करनेके लिये करोड़ों सूर्योंके समान है। आप हमारे कानोंके लिये रसायन—अमृत-स्वरूप सारगर्भित कथा कहिये॥ ४॥
श्लोक-४
विश्वास-प्रस्तुतिः
भक्तिज्ञानविरागाप्तो विवेको वर्धते महान्।
मायामोहनिरासश्च वैष्णवैः क्रियते कथम्॥
मूलम्
भक्तिज्ञानविरागाप्तो विवेको वर्धते महान्।
मायामोहनिरासश्च वैष्णवैः क्रियते कथम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
भक्ति, ज्ञान और वैराग्यसे प्राप्त होनेवाले महान् विवेककी वृद्धि किस प्रकार होती है तथा वैष्णवलोग किस तरह इस माया-मोहसे अपना पीछा छुड़ाते हैं?॥ ५॥
श्लोक-६
विश्वास-प्रस्तुतिः
इह घोरे कलौ प्रायो जीवश्चासुरतां गतः।
क्लेशाक्रान्तस्य तस्यैव शोधने किं परायणम्॥
मूलम्
इह घोरे कलौ प्रायो जीवश्चासुरतां गतः।
क्लेशाक्रान्तस्य तस्यैव शोधने किं परायणम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस घोर कलि-कालमें जीव प्रायः आसुरी स्वभावके हो गये हैं, विविध क्लेशोंसे आक्रान्त इन जीवोंको शुद्ध (दैवीशक्तिसम्पन्न) बनानेका सर्वश्रेष्ठ उपाय क्या है?॥ ६॥
श्लोक-७
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रेयसां यद्भवेच्छ्रेयः पावनानां च पावनम्।
कृष्णप्राप्तिकरं शश्वत्साधनं तद्वदाधुना॥
मूलम्
श्रेयसां यद्भवेच्छ्रेयः पावनानां च पावनम्।
कृष्णप्राप्तिकरं शश्वत्साधनं तद्वदाधुना॥
अनुवाद (हिन्दी)
सूतजी! आप हमें कोई ऐसा शाश्वत साधन बताइये जो सबसे अधिक कल्याणकारी तथा पवित्र करनेवालोंमें भी पवित्र हो; तथा जो भगवान् श्रीकृष्णकी प्राप्ति करा दे॥ ७॥
श्लोक-८
विश्वास-प्रस्तुतिः
चिन्तामणिलॊकसुखं सुरद्रुः स्वर्गसम्पदम्।
प्रयच्छति गुरुः प्रीतो वैकुण्ठं योगिदुर्लभम्॥
मूलम्
चिन्तामणिलॊकसुखं सुरद्रुः स्वर्गसम्पदम्।
प्रयच्छति गुरुः प्रीतो वैकुण्ठं योगिदुर्लभम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
चिन्तामणि केवल लौकिक सुख दे सकती है और कल्पवृक्ष अधिक-से-अधिक स्वर्गीय सम्पत्ति दे सकता है; परन्तु गुरुदेव प्रसन्न होकर भगवान्का योगिदुर्लभ नित्य वैकुण्ठधाम दे देते हैं॥ ८॥
श्लोक-९
विश्वास-प्रस्तुतिः
सूत उवाच
प्रीतिः शौनक चित्ते ते ह्यतो वच्मि विचार्य च।
सर्वसिद्धान्तनिष्पन्नं संसारभयनाशनम्॥
मूलम्
सूत उवाच
प्रीतिः शौनक चित्ते ते ह्यतो वच्मि विचार्य च।
सर्वसिद्धान्तनिष्पन्नं संसारभयनाशनम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
सूतजीने कहा—शौनकजी! तुम्हारे हृदयमें भगवान्का प्रेम है; इसलिये मैं विचारकर तुम्हें सम्पूर्ण सिद्धान्तोंका निष्कर्ष सुनाता हूँ, जो जन्म-मृत्युके भयका नाश कर देता है॥ ९॥
श्लोक-१०
विश्वास-प्रस्तुतिः
भक्त्योघवर्धनं यच्च कृष्णसंतोषहेतुकम्।
तदहं तेऽभिधास्यामि सावधानतया शृणु॥
मूलम्
भक्त्योघवर्धनं यच्च कृष्णसंतोषहेतुकम्।
तदहं तेऽभिधास्यामि सावधानतया शृणु॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो भक्तिके प्रवाहको बढ़ाता है और भगवान् श्रीकृष्णकी प्रसन्नताका प्रधान कारण है, मैं तुम्हें वह साधन बतलाता हूँ; उसे सावधान होकर सुनो॥ १०॥
श्लोक-११
विश्वास-प्रस्तुतिः
कालव्यालमुखग्रासत्रासनिर्णाशहेतवे ।
श्रीमद्भागवतं शास्त्रं कलौ कीरेण भाषितम्॥
मूलम्
कालव्यालमुखग्रासत्रासनिर्णाशहेतवे ।
श्रीमद्भागवतं शास्त्रं कलौ कीरेण भाषितम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीशुकदेवजीने कलियुगमें जीवोंके कालरूपी सर्पके मुखका ग्रास होनेके त्रासका आत्यन्तिक नाश करनेके लिये श्रीमद्भागवतशास्त्रका प्रवचन किया है॥ ११॥
श्लोक-१२
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतस्मादपरं किंचिन्मनः शुद्ध्यै न विद्यते।
जन्मान्तरे भवेत्पुण्यं तदा भागवतं लभेत्॥
मूलम्
एतस्मादपरं किंचिन्मनः शुद्ध्यै न विद्यते।
जन्मान्तरे भवेत्पुण्यं तदा भागवतं लभेत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनकी शुद्धिके लिये इससे बढ़कर कोई साधन नहीं है। जब मनुष्यके जन्म-जन्मान्तरका पुण्य उदय होता है, तभी उसे इस भागवतशास्त्रकी प्राप्ति होती है॥ १२॥
श्लोक-१३
विश्वास-प्रस्तुतिः
परीक्षिते कथां वक्तुं सभायां संस्थिते शुके।
सुधाकुम्भं गृहीत्वैव देवास्तत्र समागमन्॥
मूलम्
परीक्षिते कथां वक्तुं सभायां संस्थिते शुके।
सुधाकुम्भं गृहीत्वैव देवास्तत्र समागमन्॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब शुकदेवजी राजा परीक्षित् को यह कथा सुनानेके लिये सभामें विराजमान हुए , तब देवतालोग उनके पास अमृतका कलश लेकर आये॥ १३॥
श्लोक-१४
विश्वास-प्रस्तुतिः
शुकं नत्वावदन् सर्वे स्वकार्यकुशलाः सुराः।
कथासुधां प्रयच्छस्व गृहीत्वैव सुधामिमाम्॥
मूलम्
शुकं नत्वावदन् सर्वे स्वकार्यकुशलाः सुराः।
कथासुधां प्रयच्छस्व गृहीत्वैव सुधामिमाम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवता अपना काम बनानेमें बड़े कुशल होते हैं; अतः यहाँ भी सबने शुकदेवमुनिको नमस्कार करके कहा; ‘आप यह अमृत लेकर बदलेमें हमें कथामृतका दान दीजिये॥ १४॥
श्लोक-१५
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं विनिमये जाते सुधा राज्ञा प्रपीयताम्।
प्रपास्यामो वयं सर्वे श्रीमद्भागवतामृतम्॥
मूलम्
एवं विनिमये जाते सुधा राज्ञा प्रपीयताम्।
प्रपास्यामो वयं सर्वे श्रीमद्भागवतामृतम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार परस्पर विनिमय (अदला-बदली) हो जानेपर राजा परीक्षित् अमृतका पान करें और हम सब श्रीमद्भागवतरूप अमृतका पान करेंगे’॥ १५॥
श्लोक-१६
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्व सुधा क्व कथा लोके क्व काचः क्व मणिर्महान्।
ब्रह्मरातो विचार्यैवं तदा देवाञ्जहास ह॥
मूलम्
क्व सुधा क्व कथा लोके क्व काचः क्व मणिर्महान्।
ब्रह्मरातो विचार्यैवं तदा देवाञ्जहास ह॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस संसारमें कहाँ काँच और कहाँ महामूल्य मणि तथा कहाँ सुधा और कहाँ कथा? श्रीशुकदेवजीने (यह सोचकर) उस समय देवताओंकी हँसी उड़ा दी॥ १६॥
श्लोक-१७
विश्वास-प्रस्तुतिः
अभक्तांस्तांश्च विज्ञाय न ददौ स कथामृतम्।
श्रीमद्भागवती वार्ता सुराणामपि दुर्लभा॥
मूलम्
अभक्तांस्तांश्च विज्ञाय न ददौ स कथामृतम्।
श्रीमद्भागवती वार्ता सुराणामपि दुर्लभा॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्हें भक्तिशून्य (कथाका अनधिकारी) जानकर कथामृतका दान नहीं किया। इस प्रकार यह श्रीमद्भागवतकी कथा देवताओंको भी दुर्लभ है॥ १७॥
श्लोक-१८
विश्वास-प्रस्तुतिः
राज्ञो मोक्षं तथा वीक्ष्य पुरा धातापि विस्मितः।
सत्यलोके तुलां बद्ध्वातोलयत्साधनान्यजः॥
मूलम्
राज्ञो मोक्षं तथा वीक्ष्य पुरा धातापि विस्मितः।
सत्यलोके तुलां बद्ध्वातोलयत्साधनान्यजः॥
अनुवाद (हिन्दी)
पूर्वकालमें श्रीमद्भागवतके श्रवणसे ही राजा परीक्षित् की मुक्ति देखकर ब्रह्माजीको भी बड़ा आश्चर्य हुआ था। उन्होंने सत्यलोकमें तराजू बाँधकर सब साधनोंको तौला॥ १८॥
श्लोक-१९
विश्वास-प्रस्तुतिः
लघून्यन्यानि जातानि गौरवेण इदं महत्।
तदा ऋषिगणाः सर्वे विस्मयं परमं ययुः॥
मूलम्
लघून्यन्यानि जातानि गौरवेण इदं महत्।
तदा ऋषिगणाः सर्वे विस्मयं परमं ययुः॥
अनुवाद (हिन्दी)
अन्य सभी साधन तौलमें हलके पड़ गये,अपने महत्त्वके कारण भागवत ही सबसे भारी रहा। यह देखकर सभी ऋषियोंको बड़ा विस्मय हुआ॥ १९॥
श्लोक-२०
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेनिरे भगवद्रूपं शास्त्रं भागवतं कलौ।
पठनाच्छ्रवणात्सद्यो वैकुण्ठफलदायकम्॥
मूलम्
मेनिरे भगवद्रूपं शास्त्रं भागवतं कलौ।
पठनाच्छ्रवणात्सद्यो वैकुण्ठफलदायकम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्होंने कलियुगमें इस भगवद्रूप भागवतशास्त्रको ही पढ़ने-सुननेसे तत्काल मोक्ष देनेवाला निश्चय किया॥ २०॥
श्लोक-२१
विश्वास-प्रस्तुतिः
सप्ताहेन श्रुतं चैतत्सर्वथा मुक्तिदायकम्।
सनकाद्यैः पुरा प्रोक्तं नारदाय दयापरैः॥
मूलम्
सप्ताहेन श्रुतं चैतत्सर्वथा मुक्तिदायकम्।
सनकाद्यैः पुरा प्रोक्तं नारदाय दयापरैः॥
अनुवाद (हिन्दी)
सप्ताह-विधिसे श्रवण करनेपर यह निश्चय भक्ति प्रदान करता है। पूर्वकालमें इसे दयापरायण सनकादिने देवर्षि नारदको सुनाया था॥ २१॥
श्लोक-२२
विश्वास-प्रस्तुतिः
यद्यपि ब्रह्मसम्बन्धाच्छ्रुतमेतत्सुरर्षिणा।
सप्ताहश्रवणविधिः कुमारैस्तस्य भाषितः॥
मूलम्
यद्यपि ब्रह्मसम्बन्धाच्छ्रुतमेतत्सुरर्षिणा।
सप्ताहश्रवणविधिः कुमारैस्तस्य भाषितः॥
अनुवाद (हिन्दी)
यद्यपि देवर्षिने पहले ब्रह्माजीके मुखसे इसे श्रवण कर लिया था, तथापि सप्ताहश्रवणकी विधि तो उन्हें सनकादिने ही बतायी थी॥ २२॥
श्लोक-२३
मूलम् (वचनम्)
शौनक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
लोकविग्रहमुक्तस्य नारदस्यास्थिरस्य च।
विधिश्रवे कुतः प्रीतिः संयोगः कुत्र तैः सह॥
मूलम्
लोकविग्रहमुक्तस्य नारदस्यास्थिरस्य च।
विधिश्रवे कुतः प्रीतिः संयोगः कुत्र तैः सह॥
अनुवाद (हिन्दी)
शौनकजीने पूछा—सांसारिक प्रपंचसे मुक्त एवं विचरणशील नारदजीका सनकादिके साथ संयोग कहाँ हुआ और विधि-विधानके श्रवणमें उनकी प्रीति कैसे हुई?॥ २३॥
श्लोक-२४
मूलम् (वचनम्)
सूत उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अत्र ते कीर्तयिष्यामि भक्तियुक्तं कथानकम्।
शुकेन मम यत्प्रोक्तं रहः शिष्यं विचार्य च॥
मूलम्
अत्र ते कीर्तयिष्यामि भक्तियुक्तं कथानकम्।
शुकेन मम यत्प्रोक्तं रहः शिष्यं विचार्य च॥
अनुवाद (हिन्दी)
सूतजीने कहा—अब मैं तुम्हें वह भक्तिपूर्ण कथानक सुनाता हूँ, जो श्रीशुकदेवजीने मुझे अपना अनन्य शिष्य जानकर एकान्तमें सुनाया था॥ २४॥
श्लोक-२५
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकदा हि विशालायां चत्वार ऋषयोऽमलाः।
सत्सङ्गार्थं समायाता ददृशुस्तत्र नारदम्॥
मूलम्
एकदा हि विशालायां चत्वार ऋषयोऽमलाः।
सत्सङ्गार्थं समायाता ददृशुस्तत्र नारदम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक दिन विशालापुरीमें वे चारों निर्मल ऋषि सत्संगके लिये आये। वहाँ उन्होंने नारदजीको देखा॥ २५॥
श्लोक-२६
मूलम् (वचनम्)
कुमारा ऊचुः
विश्वास-प्रस्तुतिः
कथं ब्रह्मन्दीनमुखः कुतश्चिन्तातुरो भवान्।
त्वरितं गम्यते कुत्र कुतश्चागमनं तव॥
मूलम्
कथं ब्रह्मन्दीनमुखः कुतश्चिन्तातुरो भवान्।
त्वरितं गम्यते कुत्र कुतश्चागमनं तव॥
अनुवाद (हिन्दी)
सनकादिने पूछा—ब्रह्मन्! आपका मुख उदास क्यों हो रहा है? आप चिन्तातुर कैसे हैं? इतनी जल्दी-जल्दी आप कहाँ जा रहे हैं? और आपका आगमन कहाँसे हो रहा है?॥ २६॥
श्लोक-२७
विश्वास-प्रस्तुतिः
इदानीं शून्यचित्तोऽसि गतवित्तो यथा जनः।
तवेदं मुक्तसङ्गस्य नोचितं वद कारणम्॥
मूलम्
इदानीं शून्यचित्तोऽसि गतवित्तो यथा जनः।
तवेदं मुक्तसङ्गस्य नोचितं वद कारणम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस समय तो आप उस पुरुषके समान व्याकुल जान पड़ते हैं जिसका सारा धन लुट गया हो; आप-जैसे आसक्तिरहित पुरुषोंके लिये यह उचित नहीं है। इसका कारण बताइये॥ २७॥
श्लोक-२८
मूलम् (वचनम्)
नारद उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहं तु पृथिवीं यातो ज्ञात्वा सर्वोत्तमामिति।
पुष्करं च प्रयागं च काशीं गोदावरीं तथा॥
मूलम्
अहं तु पृथिवीं यातो ज्ञात्वा सर्वोत्तमामिति।
पुष्करं च प्रयागं च काशीं गोदावरीं तथा॥
श्लोक-२९
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरिक्षेत्रं कुरुक्षेत्रं श्रीरङ्गं सेतुबन्धनम्।
एवमादिषु तीर्थेषु भ्रममाण इतस्ततः॥
मूलम्
हरिक्षेत्रं कुरुक्षेत्रं श्रीरङ्गं सेतुबन्धनम्।
एवमादिषु तीर्थेषु भ्रममाण इतस्ततः॥
श्लोक-३०
विश्वास-प्रस्तुतिः
नापश्यं कुत्रचिच्छर्म मनःसंतोषकारकम्।
कलिनाधर्ममित्रेण धरेयं बाधिताधुना॥
मूलम्
नापश्यं कुत्रचिच्छर्म मनःसंतोषकारकम्।
कलिनाधर्ममित्रेण धरेयं बाधिताधुना॥
अनुवाद (हिन्दी)
नारदजीने कहा—मैं सर्वोत्तम लोक समझकर पृथ्वीमें आया था। यहाँ पुष्कर, प्रयाग, काशी, गोदावरी (नासिक), हरिद्वार, कुरुक्षेत्र, श्रीरंग और सेतुबन्ध आदि कई तीर्थोंमें मैं इधर-उधर विचरता रहा; किन्तु मुझे कहीं भी मनको संतोष देनेवाली शान्ति नहीं मिली। इस समय अधर्मके सहायक कलियुगने सारी पृथ्वीको पीड़ित कर रखा है॥ २८—३०॥
श्लोक-३१
विश्वास-प्रस्तुतिः
सत्यं नास्ति तपः शौचं दया दानं न विद्यते।
उदरम्भरिणो जीवा वराकाः कूटभाषिणः॥
मूलम्
सत्यं नास्ति तपः शौचं दया दानं न विद्यते।
उदरम्भरिणो जीवा वराकाः कूटभाषिणः॥
श्लोक-३२
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन्दाः सुमन्दमतयो मन्दभाग्या ह्युपद्रुताः।
पाखण्डनिरताः सन्तो विरक्ताः सपरिग्रहाः॥
मूलम्
मन्दाः सुमन्दमतयो मन्दभाग्या ह्युपद्रुताः।
पाखण्डनिरताः सन्तो विरक्ताः सपरिग्रहाः॥
श्लोक-३३
विश्वास-प्रस्तुतिः
तरुणीप्रभुता गेहे श्यालको बुद्धिदायकः।
कन्याविक्रयिणो लोभाद्दम्पतीनां च कल्कनम्॥
मूलम्
तरुणीप्रभुता गेहे श्यालको बुद्धिदायकः।
कन्याविक्रयिणो लोभाद्दम्पतीनां च कल्कनम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
अब यहाँ सत्य, तप, शौच (बाहर-भीतरकी पवित्रता), दया, दान आदि कुछ भी नहीं है। बेचारे जीव केवल अपना पेट पालनेमें लगे हुए हैं; वे असत्यभाषी, आलसी, मन्दबुद्धि, भाग्यहीन, उपद्रवग्रस्त हो गये हैं। जो साधु-संत कहे जाते हैं वे पूरे पाखण्डी हो गये हैं; देखनेमें तो वे विरक्त हैं, किन्तु स्त्री-धन आदि सभीका परिग्रह करते हैं। घरोंमें स्त्रियोंका राज्य है, साले सलाहकार बने हुए हैं, लोभसे लोग कन्या-विक्रय करते हैं और स्त्री-पुरुषोंमें कलह मचा रहता है॥ ३१—३३॥
श्लोक-३४
विश्वास-प्रस्तुतिः
आश्रमा यवनै रुद्धास्तीर्थानि सरितस्तथा।
देवतायतनान्यत्र दुष्टैर्नष्टानि भूरिशः॥
मूलम्
आश्रमा यवनै रुद्धास्तीर्थानि सरितस्तथा।
देवतायतनान्यत्र दुष्टैर्नष्टानि भूरिशः॥
अनुवाद (हिन्दी)
महात्माओंके आश्रम, तीर्थ और नदियोंपर यवनों (विधर्मियों) का अधिकार हो गया है; उन दुष्टोंने बहुत-से देवालय भी नष्ट कर दिये हैं॥ ३४॥
श्लोक-३५
विश्वास-प्रस्तुतिः
न योगी नैव सिद्धो वा न ज्ञानी सत्क्रियो नरः।
कलिदावानलेनाद्य साधनं भस्मतां गतम्॥
मूलम्
न योगी नैव सिद्धो वा न ज्ञानी सत्क्रियो नरः।
कलिदावानलेनाद्य साधनं भस्मतां गतम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस समय यहाँ न कोई योगी है न सिद्ध है; न ज्ञानी है और न सत्कर्म करनेवाला ही है। सारे साधन इस समय कलिरूप दावानलसे जलकर भस्म हो गये हैं॥ ३५॥
श्लोक-३६
विश्वास-प्रस्तुतिः
अट्टशूला* जनपदाः शिवशूला द्विजातयः।
कामिन्यः केशशूलिन्यः सम्भवन्ति कलाविह॥
मूलम्
अट्टशूला* जनपदाः शिवशूला द्विजातयः।
कामिन्यः केशशूलिन्यः सम्भवन्ति कलाविह॥
पादटिप्पनी
- अट्टमन्नं शिवो वेदः शूलो विक्रय उच्यते। केशो भगमिति प्रोक्तमृषिभिस्तत्त्वदर्शिभिः॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस कलियुगमें सभी देशवासी बाजारोंमें अन्न बेचने लगे हैं, ब्राह्मणलोग पैसा लेकर वेद पढ़ाते हैं और स्त्रियाँ वेश्या-वृत्तिसे निर्वाह करने लगी हैं॥ ३६॥
श्लोक-३७
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं पश्यन् कलेर्दोषान् पर्यटन्नवनीमहम्।
यामुनं तटमापन्नो यत्र लीला हरेरभूत्॥
मूलम्
एवं पश्यन् कलेर्दोषान् पर्यटन्नवनीमहम्।
यामुनं तटमापन्नो यत्र लीला हरेरभूत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस तरह कलियुगके दोष देखता और पृथ्वीपर विचरता हुआ मैं यमुनाजीके तटपर पहुँचा जहाँ भगवान् श्रीकृष्णकी अनेकों लीलाएँ हो चुकी हैं॥ ३७॥
श्लोक-३८
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्राश्चर्यं मया दृष्टं श्रूयतां तन्मुनीश्वराः।
एका तु तरुणी तत्र निषण्णा खिन्नमानसा॥
मूलम्
तत्राश्चर्यं मया दृष्टं श्रूयतां तन्मुनीश्वराः।
एका तु तरुणी तत्र निषण्णा खिन्नमानसा॥
अनुवाद (हिन्दी)
मुनिवरो! सुनिये, वहाँ मैंने एक बड़ा आश्चर्य देखा। वहाँ एक युवती स्त्री खिन्न मनसे बैठी थी॥ ३८॥
श्लोक-३९
विश्वास-प्रस्तुतिः
वृद्धौ द्वौ पतितौ पार्श्वे निःश्वसन्तावचेतनौ।
शुश्रूषन्ती प्रबोधन्ती रुदती च तयोः पुरः॥
मूलम्
वृद्धौ द्वौ पतितौ पार्श्वे निःश्वसन्तावचेतनौ।
शुश्रूषन्ती प्रबोधन्ती रुदती च तयोः पुरः॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसके पास दो वृद्ध पुरुष अचेत अवस्थामें पड़े जोर-जोरसे साँस ले रहे थे। वह तरुणी उनकी सेवा करती हुई कभी उन्हें चेत करानेका प्रयत्न करती और कभी उनके आगे रोने लगती थी॥ ३९॥
श्लोक-४०
विश्वास-प्रस्तुतिः
दशदिक्षु निरीक्षन्ती रक्षितारं निजं वपुः।
वीज्यमाना शतस्त्रीभिर्बोध्यमाना मुहुर्मुहुः॥
मूलम्
दशदिक्षु निरीक्षन्ती रक्षितारं निजं वपुः।
वीज्यमाना शतस्त्रीभिर्बोध्यमाना मुहुर्मुहुः॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह अपने शरीरके रक्षक परमात्माको दशों दिशाओंमें देख रही थी। उसके चारों ओर सैकड़ों स्त्रियाँ उसे पंखा झल रही थीं और बार-बार समझाती जाती थीं॥ ४०॥
श्लोक-४१
विश्वास-प्रस्तुतिः
दृष्ट्वा दूराद्गतः सोऽहं कौतुकेन तदन्तिकम्।
मां दृष्ट्वा चोत्थिता बाला विह्वला चाब्रवीद्वचः॥
मूलम्
दृष्ट्वा दूराद्गतः सोऽहं कौतुकेन तदन्तिकम्।
मां दृष्ट्वा चोत्थिता बाला विह्वला चाब्रवीद्वचः॥
अनुवाद (हिन्दी)
दूरसे यह सब चरित देखकर मैं कुतूहलवश उसके पास चला गया। मुझे देखकर वह युवती खड़ी हो गयी और बड़ी व्याकुल होकर कहने लगी॥ ४१॥
श्लोक-४२
मूलम् (वचनम्)
बालोवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
भो भोः साधो क्षणं तिष्ठ मच्चिन्तामपि नाशय।
दर्शनं तव लोकस्य सर्वथाघहरं परम्॥
मूलम्
भो भोः साधो क्षणं तिष्ठ मच्चिन्तामपि नाशय।
दर्शनं तव लोकस्य सर्वथाघहरं परम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
युवतीने कहा—अजी महात्माजी! क्षणभर ठहर जाइये और मेरी चिन्ताको भी नष्ट कर दीजिये। आपका दर्शन तो संसारके सभी पापोंको सर्वथा नष्ट कर देनेवाला है॥ ४२॥
श्लोक-४३
विश्वास-प्रस्तुतिः
बहुधा तव वाक्येन दुःखशान्तिर्भविष्यति।
यदा भाग्यं भवेद्भूरि भवतो दर्शनं तदा॥
मूलम्
बहुधा तव वाक्येन दुःखशान्तिर्भविष्यति।
यदा भाग्यं भवेद्भूरि भवतो दर्शनं तदा॥
अनुवाद (हिन्दी)
आपके वचनोंसे मेरे दुःखकी भी बहुत कुछ शान्ति हो जायगी। मनुष्यका जब बड़ाभाग्य होता है, तभी आपके दर्शन हुआ करते हैं॥ ४३॥
श्लोक-४४
मूलम् (वचनम्)
नारद उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
कासि त्वं काविमौ चेमा नार्यः काः पद्मलोचनाः।
वद देवि सविस्तारं स्वस्य दुःखस्य कारणम्॥
मूलम्
कासि त्वं काविमौ चेमा नार्यः काः पद्मलोचनाः।
वद देवि सविस्तारं स्वस्य दुःखस्य कारणम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
नारदजी कहते हैं—तब मैंने उस स्त्रीसे पूछा—देवि! तुम कौन हो? ये दोनों पुरुष तुम्हारे क्या होते हैं? और तुम्हारे पास ये कमलनयनी देवियाँ कौन हैं? तुम हमें विस्तारसे अपने दुःखका कारण बताओ॥ ४४॥
श्लोक-४५
मूलम् (वचनम्)
बालोवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहं भक्तिरिति ख्याता इमौ मे तनयौ मतौ।
ज्ञानवैराग्यनामानौ कालयोगेन जर्जरौ॥
मूलम्
अहं भक्तिरिति ख्याता इमौ मे तनयौ मतौ।
ज्ञानवैराग्यनामानौ कालयोगेन जर्जरौ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युवतीने कहा—मेरा नाम भक्ति है, ये ज्ञान और वैराग्य नामक मेरे पुत्र हैं। समयके फेरसे ही ये ऐसे जर्जर हो गये हैं॥ ४५॥
श्लोक-४६
विश्वास-प्रस्तुतिः
गङ्गाद्याः सरितश्चेमा मत्सेवार्थं समागताः।
तथापि न च मे श्रेयः सेवितायाः सुरैरपि॥
मूलम्
गङ्गाद्याः सरितश्चेमा मत्सेवार्थं समागताः।
तथापि न च मे श्रेयः सेवितायाः सुरैरपि॥
अनुवाद (हिन्दी)
ये देवियाँ गंगाजी आदि नदियाँ हैं। ये सब मेरी सेवा करनेके लिये ही आयी हैं। इस प्रकार साक्षात् देवियोंके द्वारा सेवित होनेपर भी मुझे सुख-शान्ति नहीं है॥ ४६॥
श्लोक-४७
विश्वास-प्रस्तुतिः
इदानीं शृणु मद्वार्तां सचित्तस्त्वं तपोधन।
वार्ता मे वितताप्यस्ति तां श्रुत्वा सुखमावह॥
मूलम्
इदानीं शृणु मद्वार्तां सचित्तस्त्वं तपोधन।
वार्ता मे वितताप्यस्ति तां श्रुत्वा सुखमावह॥
अनुवाद (हिन्दी)
तपोधन! अब ध्यान देकर मेरा वृत्तान्त सुनिये। मेरी कथा वैसे तो प्रसिद्ध है, फिर भी उसे सुनकर आप मुझे शान्ति प्रदान करें॥ ४७॥
श्लोक-४८
विश्वास-प्रस्तुतिः
उत्पन्ना द्रविडे साहं वृद्धिं कर्णाटके गता।
क्वचित्क्वचिन्महाराष्ट्रे गुर्जरे जीर्णतां गता॥
मूलम्
उत्पन्ना द्रविडे साहं वृद्धिं कर्णाटके गता।
क्वचित्क्वचिन्महाराष्ट्रे गुर्जरे जीर्णतां गता॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं द्रविड़ देशमें उत्पन्न हुई, कर्णाटकमें बढ़ी, कहीं-कहीं महाराष्ट्रमें सम्मानित हुई; किन्तु गुजरातमें मुझको बुढ़ापेने आ घेरा॥ ४८॥
श्लोक-४९
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र घोरकलेर्योगात्पाखण्डैः खण्डिताङ्गका।
दुर्बलाहं चिरं याता पुत्राभ्यां सह मन्दताम्॥
मूलम्
तत्र घोरकलेर्योगात्पाखण्डैः खण्डिताङ्गका।
दुर्बलाहं चिरं याता पुत्राभ्यां सह मन्दताम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ घोर कलियुगके प्रभावसे पाखण्डियोंने मुझे अंग-भंग कर दिया। चिरकालतक यह अवस्था रहनेके कारण मैं अपने पुत्रोंके साथ दुर्बल और निस्तेज हो गयी॥ ४९॥
श्लोक-५०
विश्वास-प्रस्तुतिः
वृन्दावनं पुनः प्राप्य नवीनेव सुरूपिणी।
जाताहं युवती सम्यक्प्रेष्ठरूपा तु साम्प्रतम्॥
मूलम्
वृन्दावनं पुनः प्राप्य नवीनेव सुरूपिणी।
जाताहं युवती सम्यक्प्रेष्ठरूपा तु साम्प्रतम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
अब जबसे मैं वृन्दावन आयी, तबसे पुनः परम सुन्दरी सुरूपवती नवयुवती हो गयी हूँ॥ ५०॥
श्लोक-५१
विश्वास-प्रस्तुतिः
इमौ तु शयितावत्र सुतौ मे क्लिश्यतः श्रमात्।
इदं स्थानं परित्यज्य विदेशं गम्यते मया॥
मूलम्
इमौ तु शयितावत्र सुतौ मे क्लिश्यतः श्रमात्।
इदं स्थानं परित्यज्य विदेशं गम्यते मया॥
अनुवाद (हिन्दी)
किन्तु सामने पड़े हुए ये दोनों मेरे पुत्र थके-माँदे दुःखी हो रहे हैं। अब मैं यह स्थान छोड़कर अन्यत्र जाना चाहती हूँ॥ ५१॥
श्लोक-५२
विश्वास-प्रस्तुतिः
जरठत्वं समायातौ तेन दुःखेन दुःखिता।
साहं तु तरुणी कस्मात्सुतौ वृद्धाविमौ कुतः॥
मूलम्
जरठत्वं समायातौ तेन दुःखेन दुःखिता।
साहं तु तरुणी कस्मात्सुतौ वृद्धाविमौ कुतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
ये दोनों बूढ़े हो गये हैं—इसी दुःखसे मैं दुःखी हूँ। मैं तरुणी क्यों और ये दोनों मेरे पुत्र बूढ़े क्यों?॥ ५२॥
श्लोक-५३
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रयाणां सहचारित्वाद्वैपरीत्यं कुतः स्थितम्।
घटते जरठा माता तरुणौ तनयाविति॥
मूलम्
त्रयाणां सहचारित्वाद्वैपरीत्यं कुतः स्थितम्।
घटते जरठा माता तरुणौ तनयाविति॥
अनुवाद (हिन्दी)
हम तीनों साथ-साथ रहनेवाले हैं। फिर यह विपरीतता क्यों? होना तो यह चाहिये कि माता बूढ़ी हो और पुत्र तरुण॥ ५३॥
श्लोक-५४
विश्वास-प्रस्तुतिः
अतः शोचामि चात्मानं विस्मयाविष्टमानसा।
वद योगनिधे धीमन् कारणं चात्र किं भवेत्॥
मूलम्
अतः शोचामि चात्मानं विस्मयाविष्टमानसा।
वद योगनिधे धीमन् कारणं चात्र किं भवेत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसीसे मैं आश्चर्यचकित चित्तसे अपनी इस अवस्थापर शोक करती रहती हूँ। आप परम बुद्धिमान् एवं योगनिधि हैं; इसका क्या कारण हो सकता है, बताइये?॥ ५४॥
श्लोक-५५
मूलम् (वचनम्)
नारद उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ज्ञानेनात्मनि पश्यामि सर्वमेतत्तवानघे।
न विषादस्त्वया कार्यो हरिः शं ते करिष्यति॥
मूलम्
ज्ञानेनात्मनि पश्यामि सर्वमेतत्तवानघे।
न विषादस्त्वया कार्यो हरिः शं ते करिष्यति॥
अनुवाद (हिन्दी)
नारदजीने कहा—साध्वि! मैं अपने हृदयमें ज्ञानदृष्टिसे तुम्हारे सम्पूर्ण दुःखका कारण देखता हूँ, तुम्हें विषाद नहीं करना चाहिये। श्रीहरि तुम्हारा कल्याण करेंगे॥ ५५॥
श्लोक-५६
मूलम् (वचनम्)
सूत उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षणमात्रेण तज्ज्ञात्वा वाक्यमूचे मुनीश्वरः॥
मूलम्
क्षणमात्रेण तज्ज्ञात्वा वाक्यमूचे मुनीश्वरः॥
अनुवाद (हिन्दी)
सूतजी कहते हैं—मुनिवर नारदजीने एक क्षणमें ही उसका कारण जानकर कहा॥ ५६॥
श्लोक-५७
मूलम् (वचनम्)
नारद उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
शृणुष्वावहिता बाले युगोऽयं दारुणः कलिः।
तेन लुप्तः सदाचारो योगमार्गस्तपांसि च॥
मूलम्
शृणुष्वावहिता बाले युगोऽयं दारुणः कलिः।
तेन लुप्तः सदाचारो योगमार्गस्तपांसि च॥
अनुवाद (हिन्दी)
नारदजीने कहा—देवि! सावधान होकर सुनो। यह दारुण कलियुग है। इसीसे इस समय सदाचार, योगमार्ग और तप आदि सभी लुप्त हो गये हैं॥ ५७॥
श्लोक-५८
विश्वास-प्रस्तुतिः
जना अघासुरायन्ते शाठ्यदुष्कर्मकारिणः।
इह सन्तो विषीदन्ति प्रहृष्यन्ति ह्यसाधवः।
धत्ते धैर्यं तु यो धीमान् स धीरः पण्डितोऽथवा॥
मूलम्
जना अघासुरायन्ते शाठ्यदुष्कर्मकारिणः।
इह सन्तो विषीदन्ति प्रहृष्यन्ति ह्यसाधवः।
धत्ते धैर्यं तु यो धीमान् स धीरः पण्डितोऽथवा॥
अनुवाद (हिन्दी)
लोग शठता और दुष्कर्ममें लगकर अघासुर बन रहे हैं। संसारमें जहाँ देखो, वहीं सत्पुरुष दुःखसे म्लान हैं और दुष्ट सुखी हो रहे हैं। इस समय जिस बुद्धिमान् पुरुषका धैर्य बना रहे, वही बड़ा ज्ञानी या पण्डित है॥ ५८॥
श्लोक-५९
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस्पृश्यानवलोक्येयं शेषभारकरी धरा।
वर्षे वर्षे क्रमाज्जाता मङ्गलं नापि दृश्यते॥
मूलम्
अस्पृश्यानवलोक्येयं शेषभारकरी धरा।
वर्षे वर्षे क्रमाज्जाता मङ्गलं नापि दृश्यते॥
अनुवाद (हिन्दी)
पृथ्वी क्रमशः प्रतिवर्ष शेषजीके लिये भाररूप होती जा रही है। अब यह छूनेयोग्य तो क्या, देखनेयोग्य भी नहीं रह गयी है और न इसमें कहीं मंगल ही दिखायी देता है॥ ५९॥
श्लोक-६०
विश्वास-प्रस्तुतिः
न त्वामपि सुतैः साकं कोऽपि पश्यति साम्प्रतम्।
उपेक्षितानुरागान्धैर्जर्जरत्वेन संस्थिता॥
मूलम्
न त्वामपि सुतैः साकं कोऽपि पश्यति साम्प्रतम्।
उपेक्षितानुरागान्धैर्जर्जरत्वेन संस्थिता॥
अनुवाद (हिन्दी)
अब किसीको पुत्रोंके साथ तुम्हारा दर्शन भी नहीं होता। विषयानुरागके कारण अंधे बने हुए जीवोंसे उपेक्षित होकर तुम जर्जर हो रही थी॥ ६०॥
श्लोक-६१
विश्वास-प्रस्तुतिः
वृन्दावनस्य संयोगात्पुनस्त्वं तरुणी नवा।
धन्यं वृन्दावनं तेन भक्तिर्नृत्यति यत्र च॥
मूलम्
वृन्दावनस्य संयोगात्पुनस्त्वं तरुणी नवा।
धन्यं वृन्दावनं तेन भक्तिर्नृत्यति यत्र च॥
अनुवाद (हिन्दी)
वृन्दावनके संयोगसे तुम फिर नवीन तरुणी हो गयी हो। अतः यह वृन्दावनधाम धन्य है जहाँ भक्ति सर्वत्र नृत्य कर रही है॥ ६१॥
श्लोक-६२
विश्वास-प्रस्तुतिः
अत्रेमौ ग्राहकाभावान्न जरामपि मुञ्चतः।
किञ्चिदात्मसुखेनेह प्रसुप्तिर्मन्यतेऽनयोः॥
मूलम्
अत्रेमौ ग्राहकाभावान्न जरामपि मुञ्चतः।
किञ्चिदात्मसुखेनेह प्रसुप्तिर्मन्यतेऽनयोः॥
अनुवाद (हिन्दी)
परंतु तुम्हारे इन दोनों पुत्रोंका यहाँ कोई ग्राहक नहीं है, इसलिये इनका बुढ़ापा नहीं छूट रहा है। यहाँ इनको कुछ आत्मसुख (भगवत्स्पर्शजनित आनन्द)-की प्राप्ति होनेके कारण ये सोते-से जान पड़ते हैं॥ ६२॥
श्लोक-६३
मूलम् (वचनम्)
भक्तिरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
कथं परीक्षिता राज्ञा स्थापितो ह्यशुचिः कलिः।
प्रवृत्ते तु कलौ सर्वसारः कुत्र गतो महान्॥
मूलम्
कथं परीक्षिता राज्ञा स्थापितो ह्यशुचिः कलिः।
प्रवृत्ते तु कलौ सर्वसारः कुत्र गतो महान्॥
अनुवाद (हिन्दी)
भक्तिने कहा—राजा परीक्षित् ने इस पापी कलियुगको क्यों रहने दिया? इसके आते ही सब वस्तुओंका सार न जाने कहाँ चला गया?॥ ६३॥
श्लोक-६४
विश्वास-प्रस्तुतिः
करुणापरेण हरिणाप्यधर्मः कथमीक्ष्यते।
इमं मे संशयं छिन्धि त्वद्वाचा सुखितास्म्यहम्॥
मूलम्
करुणापरेण हरिणाप्यधर्मः कथमीक्ष्यते।
इमं मे संशयं छिन्धि त्वद्वाचा सुखितास्म्यहम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
करुणामय श्रीहरिसे भी यह अधर्म कैसे देखा जाता है? मुने! मेरा यह संदेह दूर कीजिये, आपके वचनोंसे मुझे बड़ी शान्ति मिली है॥ ६४॥
श्लोक-६५
मूलम् (वचनम्)
नारद उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदि पृष्टस्त्वया बाले प्रेमतः श्रवणं कुरु।
सर्वं वक्ष्यामि ते भद्रे कश्मलं ते गमिष्यति॥
मूलम्
यदि पृष्टस्त्वया बाले प्रेमतः श्रवणं कुरु।
सर्वं वक्ष्यामि ते भद्रे कश्मलं ते गमिष्यति॥
अनुवाद (हिन्दी)
नारदजीने कहा—बाले! यदि तुमने पूछा है तो प्रेमसे सुनो; कल्याणी! मैं तुम्हें सब बताऊँगा और तुम्हारा दुःख दूर हो जायगा॥ ६५॥
श्लोक-६६
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदा मुकुन्दो भगवान् क्ष्मां त्यक्त्वा स्वपदं गतः।
तद्दिनात्कलिरायातः सर्वसाधनबाधकः॥
मूलम्
यदा मुकुन्दो भगवान् क्ष्मां त्यक्त्वा स्वपदं गतः।
तद्दिनात्कलिरायातः सर्वसाधनबाधकः॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिस दिन भगवान् श्रीकृष्ण इस भूलोकको छोड़कर अपने परमधामको पधारे उसी दिनसे यहाँ सम्पूर्ण साधनोंमें बाधा डालनेवाला कलियुग आ गया॥ ६६॥
श्लोक-६७
विश्वास-प्रस्तुतिः
दृष्टो दिग्विजये राज्ञा दीनवच्छरणं गतः।
न मया मारणीयोऽयं सारङ्ग इव सारभुक्॥
मूलम्
दृष्टो दिग्विजये राज्ञा दीनवच्छरणं गतः।
न मया मारणीयोऽयं सारङ्ग इव सारभुक्॥
अनुवाद (हिन्दी)
दिग्विजयके समय राजा परीक्षित् की दृष्टि पड़नेपर कलियुग दीनके समान उनकी शरणमें आया। भ्रमरके समान सारग्राही राजाने यह निश्चय किया कि इसका वध मुझे नहीं करना चाहिये॥ ६७॥
श्लोक-६८
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत्फलं नास्ति तपसा न योगेन समाधिना।
तत्फलं लभते सम्यक्कलौ केशवकीर्तनात्॥
मूलम्
यत्फलं नास्ति तपसा न योगेन समाधिना।
तत्फलं लभते सम्यक्कलौ केशवकीर्तनात्॥
अनुवाद (हिन्दी)
क्योंकि जो फल तपस्या, योग एवं समाधिसे भी नहीं मिलता, कलियुगमें वही फल श्रीहरिकीर्तनसे ही भलीभाँति मिल जाता है॥ ६८॥
श्लोक-६९
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकाकारं कलिं दृष्ट्वा सारवत्सारनीरसम्।
विष्णुरातः स्थापितवान् कलिजानां सुखाय च॥
मूलम्
एकाकारं कलिं दृष्ट्वा सारवत्सारनीरसम्।
विष्णुरातः स्थापितवान् कलिजानां सुखाय च॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार सारहीन होनेपर भी उसे इस एक ही दृष्टिसे सारयुक्त देखकर उन्होंने कलियुगमें उत्पन्न होनेवाले जीवोंके सुखके लिये ही इसे रहने दिया था॥ ६९॥
श्लोक-७०
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुकर्माचरणात्सारः सर्वतो निर्गतोऽधुना।
पदार्थाः संस्थिता भूमौ बीजहीनास्तुषा यथा॥
मूलम्
कुकर्माचरणात्सारः सर्वतो निर्गतोऽधुना।
पदार्थाः संस्थिता भूमौ बीजहीनास्तुषा यथा॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस समय लोगोंके कुकर्ममें प्रवृत्त होनेके कारण सभी वस्तुओंका सार निकल गया है और पृथ्वीके सारे पदार्थ बीजहीन भूसीके समान हो गये हैं॥ ७०॥
श्लोक-७१
विश्वास-प्रस्तुतिः
विप्रैर्भागवती वार्ता गेहे गेहे जने जने।
कारिता कणलोभेन कथासारस्ततो गतः॥
मूलम्
विप्रैर्भागवती वार्ता गेहे गेहे जने जने।
कारिता कणलोभेन कथासारस्ततो गतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्राह्मण केवल अन्न-धनादिके लोभवश घर-घर एवं जन-जनको भागवतकी कथा सुनाने लगे हैं, इसलिये कथाका सार चला गया॥ ७१॥
श्लोक-७२
विश्वास-प्रस्तुतिः
अत्युग्रभूरिकर्माणो नास्तिका रौरवा जनाः।
तेऽपि तिष्ठन्ति तीर्थेषु तीर्थसारस्ततो गतः॥
मूलम्
अत्युग्रभूरिकर्माणो नास्तिका रौरवा जनाः।
तेऽपि तिष्ठन्ति तीर्थेषु तीर्थसारस्ततो गतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
तीर्थोंमें नाना प्रकारके अत्यन्त घोर कर्म करनेवाले, नास्तिक और नारकी पुरुष भी रहने लगे हैं; इसलिये तीर्थोंका भी प्रभाव जाता रहा॥ ७२॥
श्लोक-७३
विश्वास-प्रस्तुतिः
कामक्रोधमहालोभतृष्णाव्याकुलचेतसः।
तेऽपि तिष्ठन्ति तपसि तपःसारस्ततो गतः॥
मूलम्
कामक्रोधमहालोभतृष्णाव्याकुलचेतसः।
तेऽपि तिष्ठन्ति तपसि तपःसारस्ततो गतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिनका चित्त निरन्तर काम, क्रोध, महान् लोभ और तृष्णासे तपता रहता है वे भी तपस्याका ढोंग करने लगे हैं, इसलिये तपका भी सार निकल गया॥ ७३॥
श्लोक-७४
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनसश्चाजयाल्लोभाद्दम्भात्पाखण्डसंश्रयात्।
शास्त्रानभ्यसनाच्चैव ध्यानयोगफलं गतम्॥
मूलम्
मनसश्चाजयाल्लोभाद्दम्भात्पाखण्डसंश्रयात्।
शास्त्रानभ्यसनाच्चैव ध्यानयोगफलं गतम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनपर काबू न होनेके कारण तथा लोभ, दम्भ और पाखण्डका आश्रय लेनेके कारण एवं शास्त्रका अभ्यास न करनेसे ध्यानयोगका फल मिट गया॥ ७४॥
श्लोक-७५
विश्वास-प्रस्तुतिः
पण्डितास्तु कलत्रेण रमन्ते महिषा इव।
पुत्रस्योत्पादने दक्षा अदक्षा मुक्तिसाधने॥
मूलम्
पण्डितास्तु कलत्रेण रमन्ते महिषा इव।
पुत्रस्योत्पादने दक्षा अदक्षा मुक्तिसाधने॥
अनुवाद (हिन्दी)
पण्डितोंकी यह दशा है कि वे अपनी स्त्रियोंके साथ पशुकी तरह रमण करते हैं; उनमें संतान पैदा करनेकी ही कुशलता पायी जाती है, मुक्ति-साधनमें वे सर्वथा अकुशल हैं॥ ७५॥
श्लोक-७६
विश्वास-प्रस्तुतिः
न हि वैष्णवता कुत्र सम्प्रदायपुरःसरा।
एवं प्रलयतां प्राप्तो वस्तुसारः स्थले स्थले॥
मूलम्
न हि वैष्णवता कुत्र सम्प्रदायपुरःसरा।
एवं प्रलयतां प्राप्तो वस्तुसारः स्थले स्थले॥
अनुवाद (हिन्दी)
सम्प्रदायानुसार प्राप्त हुई वैष्णवता भी कहीं देखनेमें नहीं आती। इस प्रकार जगह-जगह सभी वस्तुओंका सार लुप्त हो गया है॥ ७६॥
श्लोक-७७
विश्वास-प्रस्तुतिः
अयं तु युगधर्मो हि वर्तते कस्य दूषणम्।
अतस्तु पुण्डरीकाक्षः सहते निकटे स्थितः॥
मूलम्
अयं तु युगधर्मो हि वर्तते कस्य दूषणम्।
अतस्तु पुण्डरीकाक्षः सहते निकटे स्थितः॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह तो इस युगका स्वभाव ही है, इसमें किसीका दोष नहीं है। इसीसे पुण्डरीकाक्षभगवान् बहुत समीप रहते हुए भी यह सब सह रहे हैं॥ ७७॥
श्लोक-७८
मूलम् (वचनम्)
सूत उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति तद्वचनं श्रुत्वा विस्मयं परमं गता।
भक्तिरूचे वचो भूयः श्रूयतां तच्च शौनक॥
मूलम्
इति तद्वचनं श्रुत्वा विस्मयं परमं गता।
भक्तिरूचे वचो भूयः श्रूयतां तच्च शौनक॥
अनुवाद (हिन्दी)
सूतजी कहते हैं—शौनकजी! इस प्रकार देवर्षि नारदके वचन सुनकर भक्तिको बड़ा आश्चर्य हुआ; फिर उसने जो कुछ कहा, उसे सुनिये॥ ७८॥
श्लोक-७९
मूलम् (वचनम्)
भक्तिरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुरर्षे त्वं हि धन्योऽसि मद्भाग्येन समागतः।
साधूनां दर्शनं लोके सर्वसिद्धिकरं परम्॥
मूलम्
सुरर्षे त्वं हि धन्योऽसि मद्भाग्येन समागतः।
साधूनां दर्शनं लोके सर्वसिद्धिकरं परम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
भक्तिने कहा—देवर्षे! आप धन्य हैं! मेरा बड़ा सौभाग्य था जो आपका समागम हुआ। संसारमें साधुओंका दर्शन ही समस्त सिद्धियोंका परम कारण है॥ ७९॥
श्लोक-८०
विश्वास-प्रस्तुतिः
जयति जगति मायां यस्य कायाधवस्ते
वचनरचनमेकं केवलं चाकलय्य।
ध्रुवपदमपि यातो यत्कृपातो ध्रुवोऽयं
सकलकुशलपात्रं ब्रह्मपुत्रं नतास्मि॥
मूलम्
जयति जगति मायां यस्य कायाधवस्ते
वचनरचनमेकं केवलं चाकलय्य।
ध्रुवपदमपि यातो यत्कृपातो ध्रुवोऽयं
सकलकुशलपात्रं ब्रह्मपुत्रं नतास्मि॥
अनुवाद (हिन्दी)
आपका केवल एक बारका उपदेश धारण करके कयाधूकुमार प्रह्लादने मायापर विजय प्राप्त कर ली थी। ध्रुवने भी आपकी कृपासे ही ध्रुवपद प्राप्त किया था। आप सर्वमंगलमय और साक्षात् श्रीब्रह्माजीके पुत्र हैं, मैं आपको नमस्कार करती हूँ॥ ८०॥
अनुवाद (समाप्ति)
इति श्रीपद्मपुराणे उत्तरखण्डे श्रीमद्भागवतमाहात्म्ये भक्तिनारदसमागमो नाम प्रथमोऽध्यायः॥ १॥