[एकादशोऽध्यायः]
भागसूचना
भगवान्के अंग, उपांग और आयुधोंका रहस्य तथा विभिन्न सूर्यगणोंका वर्णन
श्लोक-१
मूलम् (वचनम्)
शौनक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथेममर्थं पृच्छामो भवन्तं बहुवित्तमम्।
समस्ततन्त्रराद्धान्ते भवान् भागवततत्त्ववित्॥
मूलम्
अथेममर्थं पृच्छामो भवन्तं बहुवित्तमम्।
समस्ततन्त्रराद्धान्ते भवान् भागवततत्त्ववित्॥
अनुवाद (हिन्दी)
शौनकजीने कहा—सूतजी! आप भगवान्के परमभक्त और बहुज्ञोंमें शिरोमणि हैं। हमलोग समस्त शास्त्रोंके सिद्धान्तके सम्बन्धमें आपसे एक विशेष प्रश्न पूछना चाहते हैं, क्योंकि आप उसके मर्मज्ञ हैं॥ १॥
श्लोक-२
विश्वास-प्रस्तुतिः
तान्त्रिकाः परिचर्यायां केवलस्य श्रियः पतेः।
अङ्गोपाङ्गायुधाकल्पं कल्पयन्ति यथा च यैः॥
मूलम्
तान्त्रिकाः परिचर्यायां केवलस्य श्रियः पतेः।
अङ्गोपाङ्गायुधाकल्पं कल्पयन्ति यथा च यैः॥
श्लोक-३
विश्वास-प्रस्तुतिः
तन्नो वर्णय भद्रं ते क्रियायोगं बुभुत्सताम्।
येन क्रियानैपुणेन मर्त्यो यायादमर्त्यताम्॥
मूलम्
तन्नो वर्णय भद्रं ते क्रियायोगं बुभुत्सताम्।
येन क्रियानैपुणेन मर्त्यो यायादमर्त्यताम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
हमलोग क्रियायोगका यथावत् ज्ञान प्राप्त करना चाहते हैं; क्योंकि उसका कुशलतापूर्वक ठीक-ठीक आचरण करनेसे मरणधर्मा पुरुष अमरत्व प्राप्त कर लेता है। अतः आप हमें यह बतलाइये कि पांचरात्रादि तन्त्रोंकी विधि जाननेवाले लोग केवल श्रीलक्ष्मीपति भगवान्की आराधना करते समय किन-किन तत्त्वोंसे उनके चरणादि अंग, गरुडादि उपांग, सुदर्शनादि आयुध और कौस्तुभादि आभूषणोंकी कल्पना करते हैं? भगवान् आपका कल्याण करें॥ २-३॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
॥१-२॥ अमर्त्यताञ्जरामरणाद्यतीतत्वम्मुक्तिम् ॥३-४ ॥
श्लोक-४
मूलम् (वचनम्)
सूत उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
नमस्कृत्य गुरून् वक्ष्ये विभूतीर्वैष्णवीरपि।
याः प्रोक्ता वेदतन्त्राभ्यामाचार्यैः पद्मजादिभिः॥
मूलम्
नमस्कृत्य गुरून् वक्ष्ये विभूतीर्वैष्णवीरपि।
याः प्रोक्ता वेदतन्त्राभ्यामाचार्यैः पद्मजादिभिः॥
अनुवाद (हिन्दी)
सूतजीने कहा—शौनकजी! ब्रह्मादि आचार्योंने, वेदोंने और पांचरात्रादि तन्त्र-ग्रन्थोंने विष्णुभगवान्की जिन विभूतियोंका वर्णन किया है, मैं श्रीगुरुदेवके चरणोंमें नमस्कार करके आपलोगोंको वही सुनाता हूँ॥ ४॥
श्लोक-५
विश्वास-प्रस्तुतिः
मायाद्यैर्नवभिस्तत्त्वैः स विकारमयो विराट्।
निर्मितो दृश्यते यत्र सचित्के भुवनत्रयम्॥
मूलम्
मायाद्यैर्नवभिस्तत्त्वैः स विकारमयो विराट्।
निर्मितो दृश्यते यत्र सचित्के भुवनत्रयम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान्के जिस चेतनाधिष्ठित विराट् रूपमें यह त्रिलोकी दिखायी देती है, वह प्रकृति, सूत्रात्मा, महत्तत्त्व, अहंकार और पंचतन्मात्रा—इन नौ तत्त्वोंके सहित ग्यारह इन्द्रिय तथा पंचभूत—इन सोलह विकारोंसे बना हुआ है॥ ५॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
मायाद्यैरिति मायासंज्ञा प्रकृतिः महानहङ्कारो भूतानि पञ्चकालच तव तत्त्वानि विराट् ब्रह्माण्डम् ॥ ५ ॥
श्लोक-६
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतद् वै पौरुषं रूपं भूः पादौ द्यौः शिरो नभः।
नाभिः सूर्योऽक्षिणी नासे वायुः कर्णौ दिशः प्रभोः॥
मूलम्
एतद् वै पौरुषं रूपं भूः पादौ द्यौः शिरो नभः।
नाभिः सूर्योऽक्षिणी नासे वायुः कर्णौ दिशः प्रभोः॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह भगवान्का ही पुरुषरूप है। पृथ्वी इसके चरण हैं, स्वर्ग मस्तक है, अन्तरिक्ष नाभि है, सूर्य नेत्र हैं, वायु नासिका है और दिशाएँ कान हैं॥ ६॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
पौरुषं भगवदीय नभो नाभिः ॥ ६-७ ॥
श्लोक-७
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रजापतिः प्रजननमपानो मृत्युरीशितुः।
तद्बाहवो लोकपाला मनश्चन्द्रो भ्रुवौ यमः॥
मूलम्
प्रजापतिः प्रजननमपानो मृत्युरीशितुः।
तद्बाहवो लोकपाला मनश्चन्द्रो भ्रुवौ यमः॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रजापति लिंग है, मृत्यु गुदा है, लोकपालगण भुजाएँ हैं, चन्द्रमा मन है और यमराज भौंहें हैं॥ ७॥
श्लोक-८
विश्वास-प्रस्तुतिः
लज्जोत्तरोऽधरो लोभो दन्ता ज्योत्स्ना स्मयो भ्रमः।
रोमाणि भूरुहा भूम्नो मेघाः पुरुषमूर्धजाः॥
मूलम्
लज्जोत्तरोऽधरो लोभो दन्ता ज्योत्स्ना स्मयो भ्रमः।
रोमाणि भूरुहा भूम्नो मेघाः पुरुषमूर्धजाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
लज्जा ऊपरका होठ है, लोभ नीचेका होठ है, चन्द्रमाकी चाँदनी दन्तावली है, भ्रम मुसकान है, वृक्ष रोम हैं और बादल ही विराट् पुरुषके सिरपर उगे हुए बाल हैं॥ ८॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
स्मयः स्मितं भ्रमः भ्रमाभिमानी देवतात्मकः ॥८॥
श्लोक-९
विश्वास-प्रस्तुतिः
यावानयं वै पुरुषो यावत्या संस्थया मितः।
तावानसावपि महापुरुषो लोकसंस्थया॥
मूलम्
यावानयं वै पुरुषो यावत्या संस्थया मितः।
तावानसावपि महापुरुषो लोकसंस्थया॥
अनुवाद (हिन्दी)
शौनकजी! जिस प्रकार यह व्यष्टि पुरुष अपने परिमाणसे सात बित्तेका है उसी प्रकार वह समष्टि पुरुष भी इस लोकसंस्थितिके साथ अपने सात बित्तेका है॥ ९॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
संस्थया अवयवसंस्थानेन ॥ ९ ॥
श्लोक-१०
विश्वास-प्रस्तुतिः
कौस्तुभव्यपदेशेन स्वात्मज्योतिर्बिभर्त्यजः।
तत्प्रभा व्यापिनी साक्षात् श्रीवत्समुरसा विभुः॥
मूलम्
कौस्तुभव्यपदेशेन स्वात्मज्योतिर्बिभर्त्यजः।
तत्प्रभा व्यापिनी साक्षात् श्रीवत्समुरसा विभुः॥
अनुवाद (हिन्दी)
स्वयं भगवान् अजन्मा हैं। वे कौस्तुभमणिके बहाने जीव-चैतन्यरूप आत्मज्योतिको ही धारण करते हैं और उसकी सर्वव्यापिनी प्रभाको ही वक्षःस्थलपर श्रीवत्सरूपसे॥ १०॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
आत्मज्योतिः स्त्रशेषभूतम् ज्ञानाकारं जीवात्मरूपं कौस्तुभो जीववर्णाभिमानिनी देवतेत्यर्थः । तत्प्रभा जीवस्य ज्ञानप्रभा श्रीवत्सादिषु तत्त्वनिवासः पुराणान्तरप्रसिद्धोऽपि श्रुतिर्वैविध्यसम्भवात् तन्मूलतया परिहर्तव्यः ॥ १० ॥
श्लोक-११
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वमायां वनमालाख्यां नानागुणमयीं दधत्।
वासश्छन्दोमयं पीतं ब्रह्मसूत्रं त्रिवृत् स्वरम्॥
मूलम्
स्वमायां वनमालाख्यां नानागुणमयीं दधत्।
वासश्छन्दोमयं पीतं ब्रह्मसूत्रं त्रिवृत् स्वरम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे अपनी सत्त्व, रज आदि गुणोंवाली मायाको वनमालाके रूपसे, छन्दको पीताम्बरके रूपसे तथा अ+उ+म्—इन तीन मात्रावाले प्रणवको यज्ञोपवीतके रूपमें धारण करते हैं॥ ११॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
नानागुणमयीं मायां पञ्चभूताख्यकार्यावस्थां प्रकृतिं भूतपञ्चकमयीं बनमालामित्यर्थः । ब्रह्मसूत्रं त्रिवृत् स्वरम् उपवीताभिमानिनी देवतेत्यर्थः ॥ ११ ॥
श्लोक-१२
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिभर्ति सांख्यं योगं च देवो मकरकुण्डले।
मौलिं पदं पारमेष्ठ्यं सर्वलोकाभयङ्करम्॥
मूलम्
बिभर्ति सांख्यं योगं च देवो मकरकुण्डले।
मौलिं पदं पारमेष्ठ्यं सर्वलोकाभयङ्करम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवाधिदेव भगवान् सांख्य और योगरूप मकराकृत कुण्डल तथा सब लोकोंको अभय करनेवाले ब्रह्मलोकको ही मुकुटके रूपमें धारण करते हैं॥ १२॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
पारमेष्ठ्यं पदं ब्रह्मलोकं मुख्यं तत्त्वं प्रथमोत्पन्नम् ॥ १२-१३ ॥
श्लोक-१३
विश्वास-प्रस्तुतिः
अव्याकृतमनन्ताख्यमासनं यदधिष्ठितः।
धर्मज्ञानादिभिर्युक्तं सत्त्वं पद्ममिहोच्यते॥
मूलम्
अव्याकृतमनन्ताख्यमासनं यदधिष्ठितः।
धर्मज्ञानादिभिर्युक्तं सत्त्वं पद्ममिहोच्यते॥
अनुवाद (हिन्दी)
मूलप्रकृति ही उनकी शेषशय्या है, जिसपर वे विराजमान रहते हैं और धर्म-ज्ञानादियुक्त सत्त्वगुण ही उनके नाभिकमलके रूपमें वर्णित हुआ है॥ १३॥
श्लोक-१४
विश्वास-प्रस्तुतिः
ओजःसहोबलयुतं मुख्यतत्त्वं गदां दधत्।
अपां तत्त्वं दरवरं तेजस्तत्त्वं सुदर्शनम्॥
मूलम्
ओजःसहोबलयुतं मुख्यतत्त्वं गदां दधत्।
अपां तत्त्वं दरवरं तेजस्तत्त्वं सुदर्शनम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे मन, इन्द्रिय और शरीरसम्बन्धी शक्तियोंसे युक्त प्राणतत्त्वरूप कौमोदकी गदा, जलतत्त्वरूप पांचजन्य शंख और तेजस्-तत्त्वरूप सुदर्शनचक्रको धारण करते हैं॥ १४॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
महत्तत्त्वं महान्वै बुद्धिलक्षणः बुद्धिश्च गदेति शास्त्राऽवगतं दरवरः शङ्खः ॥ १४-१५ ॥
श्लोक-१५
विश्वास-प्रस्तुतिः
नभोनिभं नभस्तत्त्वमसिं चर्म तमोमयम्।
कालरूपं धनुः शार्ङ्गं तथा कर्ममयेषुधिम्॥
मूलम्
नभोनिभं नभस्तत्त्वमसिं चर्म तमोमयम्।
कालरूपं धनुः शार्ङ्गं तथा कर्ममयेषुधिम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
आकाशके समान निर्मल आकाशस्वरूप खड्ग, तमोमय अज्ञानरूप ढाल, कालरूप शार्ङ्गधनुष और कर्मका ही तरकस धारण किये हुए हैं॥ १५॥
श्लोक-१६
विश्वास-प्रस्तुतिः
इन्द्रियाणि शरानाहुराकूतीरस्य स्यन्दनम्।
तन्मात्राण्यस्याभिव्यक्तिं मुद्रयार्थक्रियात्मताम्॥
मूलम्
इन्द्रियाणि शरानाहुराकूतीरस्य स्यन्दनम्।
तन्मात्राण्यस्याभिव्यक्तिं मुद्रयार्थक्रियात्मताम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन्द्रियोंको ही भगवान्के बाणोंके रूपमें कहा गया है। क्रियाशक्तियुक्त मन ही रथ है। तन्मात्राएँ रथके बाहरी भाग हैं और वर-अभय आदिकी मुद्राओंसे उनकी वरदान, अभयदान आदिके रूपमें क्रियाशीलता प्रकट होती है॥ १६॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
आकूतिः स्यन्दनं देहाभिमानिनी देवता अभिव्यक्तिः अवतारेषु आह्निकांशः मुद्राज्ञानमुद्राद्यभिमानिनी देवता अर्थक्रियाकारिताभिमानिनी ॥ १६ ॥
श्लोक-१७
विश्वास-प्रस्तुतिः
मण्डलं देवयजनं दीक्षा संस्कार आत्मनः।
परिचर्या भगवत आत्मनो दुरितक्षयः॥
मूलम्
मण्डलं देवयजनं दीक्षा संस्कार आत्मनः।
परिचर्या भगवत आत्मनो दुरितक्षयः॥
अनुवाद (हिन्दी)
सूर्यमण्डल अथवा अग्निमण्डल ही भगवान्की पूजाका स्थान है, अन्तःकरणकी शुद्धि ही मन्त्रदीक्षा है और अपने समस्त पापोंको नष्ट कर देना ही भगवान्की पूजा है॥ १७॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
मण्डलं पद्माद्याकारं देवयजनं यजमानयागभूम्यभिमानिदेवता संस्कारः प्रोक्षणादिः दीक्षा यागदीक्षाभिमानिदेवता परिचर्या यागपरिचर्याभिमानिदेवता दुरितक्षयाभिमानिनी ॥ १७-१८ ॥
श्लोक-१८
विश्वास-प्रस्तुतिः
भगवान् भगशब्दार्थं लीलाकमलमुद्वहन्।
धर्मं यशश्च भगवांश्चामरव्यजनेऽभजत्॥
मूलम्
भगवान् भगशब्दार्थं लीलाकमलमुद्वहन्।
धर्मं यशश्च भगवांश्चामरव्यजनेऽभजत्॥
श्लोक-१९
विश्वास-प्रस्तुतिः
आतपत्रं तु वैकुण्ठं द्विजा धामाकुतोभयम्।
त्रिवृद्वेदः सुपर्णाख्यो यज्ञं वहति पूरुषम्॥
मूलम्
आतपत्रं तु वैकुण्ठं द्विजा धामाकुतोभयम्।
त्रिवृद्वेदः सुपर्णाख्यो यज्ञं वहति पूरुषम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्राह्मणो! समग्र ऐश्वर्य, धर्म, यश, लक्ष्मी, ज्ञान और वैराग्य—इन छः पदार्थोंका नाम ही लीलाकमल है, जिसे भगवान् अपने करकमलमें धारण करते हैं। धर्म और यशको क्रमशः चँवर एवं व्यजन (पंखे) के रूपसे तथा अपने निर्भय धाम वैकुण्ठको छत्ररूपसे धारण किये हुए हैं। तीनों वेदोंका ही नाम गरुड है। वे ही अन्तर्यामी परमात्माका वहन करते हैं॥ १८-१९॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
द्विजा इति सम्बोधनम् ॥ १९ - २१ ॥
श्लोक-२०
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनपायिनी भगवती श्रीः साक्षादात्मनो हरेः।
विष्वक्सेनस्तन्त्रमूर्तिर्विदितः पार्षदाधिपः।
नन्दादयोऽष्टौ द्वाःस्थाश्च तेऽणिमाद्या हरेर्गुणाः॥
मूलम्
अनपायिनी भगवती श्रीः साक्षादात्मनो हरेः।
विष्वक्सेनस्तन्त्रमूर्तिर्विदितः पार्षदाधिपः।
नन्दादयोऽष्टौ द्वाःस्थाश्च तेऽणिमाद्या हरेर्गुणाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
आत्मस्वरूप भगवान्की उनसे कभी न बिछुड़नेवाली आत्मशक्तिका ही नाम लक्ष्मी है। भगवान्के पार्षदोंके नायक विश्वविश्रुत विष्वक्सेन पांचरात्रादि आगमरूप हैं। भगवान्के स्वाभाविक गुण अणिमा, महिमा आदि अष्टसिद्धियोंको ही नन्द-सुनन्दादि आठ द्वारपाल कहते हैं॥ २०॥
श्लोक-२१
विश्वास-प्रस्तुतिः
वासुदेवः सङ्कर्षणः प्रद्युम्नः पुरुषः स्वयम्।
अनिरुद्ध इति ब्रह्मन् मूर्तिव्यूहोऽभिधीयते॥
मूलम्
वासुदेवः सङ्कर्षणः प्रद्युम्नः पुरुषः स्वयम्।
अनिरुद्ध इति ब्रह्मन् मूर्तिव्यूहोऽभिधीयते॥
अनुवाद (हिन्दी)
शौनकजी! स्वयं भगवान् ही वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध—इन चार मूर्तियोंके रूपमें अवस्थित हैं; इसलिये उन्हींको चतुर्व्यूहके रूपमें कहा जाता है॥ २१॥
श्लोक-२२
विश्वास-प्रस्तुतिः
स विश्वस्तैजसः प्राज्ञस्तुरीय इति वृत्तिभिः।
अर्थेन्द्रियाशयज्ञानैर्भगवान् परिभाव्यते॥
मूलम्
स विश्वस्तैजसः प्राज्ञस्तुरीय इति वृत्तिभिः।
अर्थेन्द्रियाशयज्ञानैर्भगवान् परिभाव्यते॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे ही जाग्रत्-अवस्थाके अभिमानी ‘विश्व’ बनकर शब्द, स्पर्श आदि बाह्य विषयोंको ग्रहण करते और वे ही स्वप्नावस्थाके अभिमानी ‘तैजस’ बनकर बाह्य विषयोंके बिना ही मन-ही-मन अनेक विषयोंको देखते और ग्रहण करते हैं। वे ही सुषुप्ति-अवस्थाके अभिमानी ‘प्राज्ञ’ बनकर विषय और मनके संस्कारोंसे युक्त अज्ञानसे ढक जाते हैं और वही सबके साक्षी ‘तुरीय’ रहकर समस्त ज्ञानोंके अधिष्ठान रहते हैं॥ २२॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
वृत्तिभिः स विश्वस्तैजसः प्राज्ञः तुरीय इति परिभाव्यते इत्यन्वयः । विश्वतैजसादि शब्दाअनिरुद्धादिष्वेव सृष्टिस्थितिसंहृतिमत्सु जाग्रत्स्वप्न- सुषुप्त्यभिमानिषु वर्त्तन्ते तुरीयशब्दो मुक्तत्यभिमानिनि वासुदेवे वर्त्तते तदेवाह - अर्थेन्द्रियाशयज्ञानैरिति । अर्थशब्दो बाह्येन्द्रियार्थावभासलक्षणजाग्रदवस्थापरः इन्द्रियशब्देन मनोविषयेण स्वप्नहेतुना स्वप्नावस्थाद्यैक्यं ज्ञाप्यते मनस्युपरते वासनामात्रावशेषा सुषुप्त्यवस्था आशयशब्देन प्राप्यते परिशुद्धाऽनवच्छिन्नज्ञानैकाकारावस्था ज्ञानशब्देन प्रदृश्यते तत्तदभिमानी भगवान परिभाव्यत इत्यर्थः ॥ २२ ॥
श्लोक-२३
विश्वास-प्रस्तुतिः
अङ्गोपाङ्गायुधाकल्पैर्भगवांस्तच्चतुष्टयम्।
बिभर्ति स्म चतुर्मूर्तिर्भगवान् हरिरीश्वरः॥
मूलम्
अङ्गोपाङ्गायुधाकल्पैर्भगवांस्तच्चतुष्टयम्।
बिभर्ति स्म चतुर्मूर्तिर्भगवान् हरिरीश्वरः॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार अंग, उपांग, आयुध और आभूषणोंसे युक्त तथा वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न एवं अनिरुद्ध—इन चार मूर्तियोंके रूपमें प्रकट सर्वशक्तिमान् भगवान् श्रीहरि ही क्रमशः विश्व, तैजस, प्राज्ञ एवं तुरीयरूपसे प्रकाशित होते हैं॥ २३॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
अङ्गापाङ्गेति अङ्गोपाङ्गायुधाकल्पैः विशिष्टो भगवान चतुर्मूत्तिः वासुदेवादिरूपेण तच्चतुष्टयं बिभर्त्ति सृष्टयादि चतुष्टयं निर्वहतीत्यर्थः ॥ २३ ॥
श्लोक-२४
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्विजऋषभ स एष ब्रह्मयोनिः स्वयंदृक्
स्वमहिमपरिपूर्णो मायया च स्वयैतत्।
सृजति हरति पातीत्याख्ययानावृताक्षो
विवृत इव निरुक्तस्तत्परैरात्मलभ्यः॥
मूलम्
द्विजऋषभ स एष ब्रह्मयोनिः स्वयंदृक्
स्वमहिमपरिपूर्णो मायया च स्वयैतत्।
सृजति हरति पातीत्याख्ययानावृताक्षो
विवृत इव निरुक्तस्तत्परैरात्मलभ्यः॥
अनुवाद (हिन्दी)
शौनकजी! वही सर्वस्वरूप भगवान् वेदोंके मूल कारण हैं, वे स्वयंप्रकाश एवं अपनी महिमासे परिपूर्ण हैं। वे अपनी मायासे ब्रह्मा आदि रूपों एवं नामोंसे इस विश्वकी सृष्टि, स्थिति और संहार सम्पन्न करते हैं। इन सब कर्मों और नामोंसे उनका ज्ञान कभी आवृत नहीं होता। यद्यपि शास्त्रोंमें भिन्नके समान उनका वर्णन हुआ है अवश्य,परन्तु वे अपने भक्तोंको आत्मस्वरूपसे ही प्राप्त होते हैं॥ २४॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
आख्येति उपलक्षितः अनावृत्ताक्षः असङ्कुचितज्ञानविवृत इव स्फुट इव निरुक्तः ॥ २४ ॥
श्लोक-२५
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रीकृष्ण कृष्णसख वृष्ण्यृषभावनिध्रु-
ग्राजन्यवंशदहनानपवर्गवीर्य।
गोविन्द गोपवनिताव्रजभृत्यगीत-
तीर्थश्रवः श्रवणमङ्गल पाहि भृत्यान्॥
मूलम्
श्रीकृष्ण कृष्णसख वृष्ण्यृषभावनिध्रु-
ग्राजन्यवंशदहनानपवर्गवीर्य।
गोविन्द गोपवनिताव्रजभृत्यगीत-
तीर्थश्रवः श्रवणमङ्गल पाहि भृत्यान्॥
अनुवाद (हिन्दी)
सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीकृष्ण! आप अर्जुनके सखा हैं। आपने यदुवंशशिरोमणिके रूपमें अवतार ग्रहण करके पृथ्वीके द्रोही भूपालोंको भस्म कर दिया है। आपका पराक्रम सदा एकरस रहता है। व्रजकी गोपबालाएँ और आपके नारदादि प्रेमी निरन्तर आपके पवित्र यशका गान करते रहते हैं। गोविन्द! आपके नाम, गुण और लीलादिका श्रवण करनेसे ही जीवका मंगल हो जाता है। हम सब आपके सेवक हैं। आप कृपा करके हमारी रक्षा कीजिये॥ २५॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
अवनिधुग्राजन्यवंशदहन ! भूमेरपकारिराजन्यकुलच्छेदनदहन ! विनाशक अनपवर्गवीर्य अन्तरहिवीर्य इत्यर्थः । येन पावनकीर्तेः शौरे: स्यन्दन इत्यन्वयः ॥ २५-२८ ॥
श्लोक-२६
विश्वास-प्रस्तुतिः
य इदं कल्य उत्थाय महापुरुषलक्षणम्।
तच्चित्तः प्रयतो जप्त्वा ब्रह्म वेद गुहाशयम्॥
मूलम्
य इदं कल्य उत्थाय महापुरुषलक्षणम्।
तच्चित्तः प्रयतो जप्त्वा ब्रह्म वेद गुहाशयम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
पुरुषोत्तमभगवान्के चिह्नभूत अंग, उपांग और आयुध आदिके इस वर्णनका जो मनुष्य भगवान्में ही चित्त लगाकर पवित्र होकर प्रातःकाल पाठ करेगा, उसे सबके हृदयमें रहनेवाले ब्रह्मस्वरूप परमात्माका ज्ञान हो जायगा॥ २६॥
श्लोक-२७
मूलम् (वचनम्)
शौनक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
शुको यदाह भगवान् विष्णुराताय शृण्वते।
सौरो गणो मासि मासि नाना वसति सप्तकः॥
मूलम्
शुको यदाह भगवान् विष्णुराताय शृण्वते।
सौरो गणो मासि मासि नाना वसति सप्तकः॥
श्लोक-२८
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेषां नामानि कर्माणि संयुक्तानामधीश्वरैः।
ब्रूहि नः श्रद्दधानानां व्यूहं सूर्यात्मनो हरेः॥
मूलम्
तेषां नामानि कर्माणि संयुक्तानामधीश्वरैः।
ब्रूहि नः श्रद्दधानानां व्यूहं सूर्यात्मनो हरेः॥
अनुवाद (हिन्दी)
शौनकजीने कहा—सूतजी! भगवान् श्रीशुकदेवजीने श्रीमद्भागवत-कथा सुनाते समय राजर्षि परीक्षित् से (पंचम स्कन्धमें) कहा था कि ऋषि, गन्धर्व, नाग, अप्सरा, यक्ष, राक्षस और देवताओंका एक सौरगण होता है और ये सातों प्रत्येक महीनेमें बदलते रहते हैं। ये बारह गण अपने स्वामी द्वादश आदित्योंके साथ रहकर क्या काम करते हैं और उनके अन्तर्गत व्यक्तियोंके नाम क्या हैं? सूर्यके रूपमें भी स्वयं भगवान् ही हैं; इसलिये उनके विभागको हम बड़ी श्रद्धाके साथ सुनना चाहते हैं, आप कृपा करके कहिये॥ २७-२८॥
श्लोक-२९
मूलम् (वचनम्)
सूत उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनाद्यविद्यया विष्णोरात्मनः सर्वदेहिनाम्।
निर्मितो लोकतन्त्रोऽयं लोकेषु परिवर्तते॥
मूलम्
अनाद्यविद्यया विष्णोरात्मनः सर्वदेहिनाम्।
निर्मितो लोकतन्त्रोऽयं लोकेषु परिवर्तते॥
अनुवाद (हिन्दी)
सूतजीने कहा—समस्त प्राणियोंके आत्मा भगवान् विष्णु ही हैं। अनादि अविद्यासे अर्थात् उनके वास्तविक स्वरूपके अज्ञानसे ही समस्त लोकोंके व्यवहार-प्रवर्तक प्राकृत सूर्यमण्डलका निर्माण हुआ है। वही लोकोंमें भ्रमण किया करता है॥ २९॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
अविद्यया ज्ञानविरोधिन्या प्रकृत्या तस्य क्रियामूलत्वं कालावधिकतया कालो देशेत्यादि कार्यम् अपूर्वम् आगमः प्रमाणभूतो वेदः देशकालादिपर्यन्तम् सर्वं क्रिया इति सर्वसाधनत्वेन च क्रियान्तर्भूतम् एभि विशिष्टा क्रिया इत्यर्थः यया क्रियया बहुधोक्तः तत्तदेवताद्रव्यशरीरकत्वात् बहुधोक्त इत्यर्थः ॥ २९ - ३१ ॥
श्लोक-३०
विश्वास-प्रस्तुतिः
एक एव हि लोकानां सूर्य आत्माऽऽदिकृद्धरिः।
सर्ववेदक्रियामूलमृषिभिर्बहुधोदितः॥
मूलम्
एक एव हि लोकानां सूर्य आत्माऽऽदिकृद्धरिः।
सर्ववेदक्रियामूलमृषिभिर्बहुधोदितः॥
अनुवाद (हिन्दी)
असलमें समस्त लोकोंके आत्मा एवं आदिकर्ता एकमात्र श्रीहरि ही अन्तर्यामीरूपसे सूर्य बने हुए हैं। वे यद्यपि एक ही हैं, तथापि ऋषियोंने उनका बहुत रूपोंमें वर्णन किया है, वे ही समस्त वैदिक क्रियाओंके मूल हैं॥ ३०॥
श्लोक-३१
विश्वास-प्रस्तुतिः
कालो देशः क्रिया कर्ता करणं कार्यमागमः।
द्रव्यं फलमिति ब्रह्मन् नवधोक्तोऽजया हरिः॥
मूलम्
कालो देशः क्रिया कर्ता करणं कार्यमागमः।
द्रव्यं फलमिति ब्रह्मन् नवधोक्तोऽजया हरिः॥
अनुवाद (हिन्दी)
शौनकजी! एक भगवान् ही मायाके द्वारा काल, देश, यज्ञादि क्रिया, कर्ता, स्रुवा आदि करण, यागादि कर्म, वेदमन्त्र, शाकल्य आदि द्रव्य और फलरूपसे नौ प्रकारके कहे जाते हैं॥ ३१॥
श्लोक-३२
विश्वास-प्रस्तुतिः
मध्वादिषु द्वादशसु भगवान् कालरूपधृक्।
लोकतन्त्राय चरति पृथग्द्वादशभिर्गणैः॥
मूलम्
मध्वादिषु द्वादशसु भगवान् कालरूपधृक्।
लोकतन्त्राय चरति पृथग्द्वादशभिर्गणैः॥
अनुवाद (हिन्दी)
कालरूपधारी भगवान् सूर्य लोगोंका व्यवहार ठीक-ठीक चलानेके लिये चैत्रादि बारह महीनोंमें अपने भिन्न-भिन्न बारह गणोंके साथ चक्कर लगाया करते हैं॥ ३२॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
मध्वादिषु चैत्रादिमासेषु गणैः प्रत्येकं सप्तसङ्ख्यैः ॥ ३२ ॥
श्लोक-३३
विश्वास-प्रस्तुतिः
धाता कृतस्थली हेतिर्वासुकी रथकृन्मुने।
पुलस्त्यस्तुम्बुरुरिति मधुमासं नयन्त्यमी॥
मूलम्
धाता कृतस्थली हेतिर्वासुकी रथकृन्मुने।
पुलस्त्यस्तुम्बुरुरिति मधुमासं नयन्त्यमी॥
अनुवाद (हिन्दी)
शौनकजी! धाता नामक सूर्य, कृतस्थली अप्सरा, हेति राक्षस, वासुकि सर्प, रथकृत् यक्ष, पुलस्त्य ऋषि और तुम्बुरु गन्धर्व—ये चैत्र मासमें अपना-अपना कार्य सम्पन्न करते हैं॥ ३३॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
धाता आदित्यः कृतस्थली अप्सरा हेतीराक्षसः वासुकिः भुजङ्गः रथकृत् यक्षः पुलस्त्य ऋषिः तुम्बुरुः गन्धर्वः ॥ ३३ ॥
श्लोक-३४
विश्वास-प्रस्तुतिः
अर्यमा पुलहोऽथौजाः प्रहेतिः पुञ्जिकस्थली।
नारदः कच्छनीरश्च नयन्त्येते स्म माधवम्॥
मूलम्
अर्यमा पुलहोऽथौजाः प्रहेतिः पुञ्जिकस्थली।
नारदः कच्छनीरश्च नयन्त्येते स्म माधवम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
अर्यमा सूर्य, पुलह ऋषि, अथौजा यक्ष, प्रहेति राक्षस, पुंजिकस्थली अप्सरा, नारद गन्धर्व और कच्छनीर सर्प—ये वैशाख मासके कार्य-निर्वाहक हैं॥ ३४॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
अथौजा यक्षः प्रहेती राक्षसः नारद ऋषिगनिकृत् कच्छनीरो नागः ॥ ३४ ॥
श्लोक-३५
विश्वास-प्रस्तुतिः
मित्रोऽत्रिः(गिः) पौरुषेयोऽथ तक्षको मेनका हहाः।
रथस्वन इति ह्येते शुक्रमासं नयन्त्यमी॥
मूलम्
मित्रोऽत्रिः(गिः) पौरुषेयोऽथ तक्षको मेनका हहाः।
रथस्वन इति ह्येते शुक्रमासं नयन्त्यमी॥
अनुवाद (हिन्दी)
मित्र सूर्य, अत्रि ऋषि, पौरुषेय राक्षस, तक्षक सर्प, मेनका अप्सरा, हाहा गन्धर्व और रथस्वन यक्ष—ये ज्येष्ठ मासके कार्यनिर्वाहक हैं॥ ३५॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
अगिऋषिः पौरुषेयो राक्षसः तक्षको नागः हाहा गन्धर्वः ॥३५॥
श्लोक-३६
विश्वास-प्रस्तुतिः
वसिष्ठो वरुणो रम्भा सहजन्यस्तथा हुहूः।
शुक्रश्चित्रस्वनश्चैव शुचिमासं नयन्त्यमी॥
मूलम्
वसिष्ठो वरुणो रम्भा सहजन्यस्तथा हुहूः।
शुक्रश्चित्रस्वनश्चैव शुचिमासं नयन्त्यमी॥
अनुवाद (हिन्दी)
आषाढ़में वरुण नामक सूर्यके साथ वसिष्ठ ऋषि, रम्भा अप्सरा, सहजन्य यक्ष, हूहू गन्धर्व, शुक्र नाग और चित्रस्वन राक्षस अपने-अपने कार्यका निर्वाह करते हैं॥ ३६॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
रथस्वनो यक्षः वरुण आदित्यः सहजन्यशुक्रौ यक्षराक्षसौ चित्रस्वनः गन्धर्वः ॥ ३६ ॥
श्लोक-३७
विश्वास-प्रस्तुतिः
इन्द्रो विश्वावसुः श्रोता एलापत्रस्तथाङ्गिराः।
प्रम्लोचा राक्षसो वर्यो नभोमासं नयन्त्यमी॥
मूलम्
इन्द्रो विश्वावसुः श्रोता एलापत्रस्तथाङ्गिराः।
प्रम्लोचा राक्षसो वर्यो नभोमासं नयन्त्यमी॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रावण मास इन्द्र नामक सूर्यका कार्यकाल है। उनके साथ विश्वावसु गन्धर्व, श्रोता यक्ष, एलापत्र नाग, अंगिरा ऋषि, प्रम्लोचा अप्सरा एवं वर्य नामक राक्षस अपने कार्यका सम्पादन करते हैं॥ ३७॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
इन्द्र आदित्य विवस्वावसुर्गन्धर्वः श्रोता यक्षः एलापत्रः नागः ॥ ३७ ॥
श्लोक-३८
विश्वास-प्रस्तुतिः
विवस्वानुग्रसेनश्च व्याघ्र आसारणो भृगुः।
अनुम्लोचा शङ्खपालो नभस्याख्यं नयन्त्यमी॥
मूलम्
विवस्वानुग्रसेनश्च व्याघ्र आसारणो भृगुः।
अनुम्लोचा शङ्खपालो नभस्याख्यं नयन्त्यमी॥
अनुवाद (हिन्दी)
भाद्रपदके सूर्यका नाम है विवस्वान्। उनके साथ उग्रसेन गन्धर्व, व्याघ्र राक्षस, आसारण यक्ष, भृगु ऋषि, अनुम्लोचा अप्सरा और शंखपाल नाग रहते हैं॥ ३८॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
उग्रसेन व्याघ्रौ यक्षराक्षसौ ॥ ३८ ॥
श्लोक-३९
विश्वास-प्रस्तुतिः
पूषा धनञ्जयो वातः सुषेणः सुरुचिस्तथा।
घृताची गौतमश्चेति तपोमासं नयन्त्यमी॥
मूलम्
पूषा धनञ्जयो वातः सुषेणः सुरुचिस्तथा।
घृताची गौतमश्चेति तपोमासं नयन्त्यमी॥
अनुवाद (हिन्दी)
शौनकजी! माघ मासमें पूषा नामके सूर्य रहते हैं। उनके साथ धनंजय नाग, वात राक्षस, सुषेण गन्धर्व, सुरुचि यक्ष, घृताची अप्सरा और गौतम ऋषि रहते हैं॥ ३९॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
पूषा सूर्यः धनञ्जयो नागः सुषेणो यक्षः सुरुचिर्गन्धर्वः वातो राक्षसः ॥ ३९ ॥
श्लोक-४०
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्रतुर्वर्चा भरद्वाजः पर्जन्यः सेनजित्तथा।
विश्व ऐरावतश्चैव तपस्याख्यं नयन्त्यमी॥
मूलम्
क्रतुर्वर्चा भरद्वाजः पर्जन्यः सेनजित्तथा।
विश्व ऐरावतश्चैव तपस्याख्यं नयन्त्यमी॥
अनुवाद (हिन्दी)
फाल्गुन मासका कार्यकाल पर्जन्य नामक सूर्यका है। उनके साथ क्रतु यक्ष, वर्चा राक्षस, भरद्वाज ऋषि, सेनजित् अप्सरा, विश्व गन्धर्व और ऐरावत सर्प रहते हैं॥ ४०॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
वर्चा आदित्यः पर्जन्यो गन्धर्वः सेनजिद्राक्षसः ऐरावतो नागः ॥ ४० ॥
श्लोक-४१
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथांशुः कश्यपस्तार्क्ष्य ऋतसेनस्तथोर्वशी।
विद्युच्छत्रुर्महाशङ्खः सहोमासं नयन्त्यमी॥
मूलम्
अथांशुः कश्यपस्तार्क्ष्य ऋतसेनस्तथोर्वशी।
विद्युच्छत्रुर्महाशङ्खः सहोमासं नयन्त्यमी॥
अनुवाद (हिन्दी)
मार्गशीर्ष मासमें सूर्यका नाम होता है अंशु। उनके साथ कश्यप ऋषि, तार्क्ष्य यक्ष, ऋतसेन गन्धर्व, उर्वशी अप्सरा, विद्युच्छत्रु राक्षस और महाशंख नाग रहते हैं॥ ४१॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
तार्क्ष्यो यक्षः कृतसेनो गन्धर्वः ॥ ४१ ॥
श्लोक-४२
विश्वास-प्रस्तुतिः
भगः स्फूर्जोऽरिष्टनेमिरूर्ण आयुश्च पञ्चमः।
कर्कोटकः पूर्वचित्तिः पुष्यमासं नयन्त्यमी॥
मूलम्
भगः स्फूर्जोऽरिष्टनेमिरूर्ण आयुश्च पञ्चमः।
कर्कोटकः पूर्वचित्तिः पुष्यमासं नयन्त्यमी॥
अनुवाद (हिन्दी)
पौष मासमें भग नामक सूर्यके साथ स्फूर्ज राक्षस, अरिष्टनेमि गन्धर्व, ऊर्ण यक्ष, आयु ऋषि, पूर्वचित्ति अप्सरा और कर्कोटक नाग रहते हैं॥ ४२॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
स्फूर्जो राक्षसः अरिष्टनेमिः यक्षः ऊर्णो गन्धर्वः पूर्वचित्तिः देवत्री ॥ ४२ ॥
श्लोक-४३
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वष्टा ऋचीकतनयः कम्बलश्च तिलोत्तमा।
ब्रह्मापेतोऽथ शतजिद् धृतराष्ट्र इषम्भराः॥
मूलम्
त्वष्टा ऋचीकतनयः कम्बलश्च तिलोत्तमा।
ब्रह्मापेतोऽथ शतजिद् धृतराष्ट्र इषम्भराः॥
अनुवाद (हिन्दी)
आश्विन मासमें त्वष्टा सूर्य, जमदग्नि ऋषि, कम्बल नाग, तिलोत्तमा अप्सरा, ब्रह्मापेत राक्षस, शतजित् यक्ष और धृतराष्ट्र गन्धर्वका कार्यकाल है॥ ४३॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
त्वष्टा आदित्यः कम्बलाश्लो नागः ब्रह्मापेतो राक्षसः शतजित् यक्षः प्रतराष्ट्रो गन्धर्वः इषम्भराः इषमासनिर्वाहकाः ॥ ४३ ॥
श्लोक-४४
विश्वास-प्रस्तुतिः
विष्णुरश्वतरो रम्भा सूर्यवर्चाश्च सत्यजित्।
विश्वामित्रो मखापेत ऊर्जमासं नयन्त्यमी॥
मूलम्
विष्णुरश्वतरो रम्भा सूर्यवर्चाश्च सत्यजित्।
विश्वामित्रो मखापेत ऊर्जमासं नयन्त्यमी॥
अनुवाद (हिन्दी)
तथा कार्तिकमें विष्णु नामक सूर्यके साथ अश्वतर नाग, रम्भा अप्सरा, सूर्यवर्चा गन्धर्व, सत्यजित् यक्ष, विश्वामित्र ऋषि और मखापेत राक्षस अपना-अपना कार्य सम्पन्न करते हैं॥ ४४॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
विष्णुरादित्यः अश्वतरो नागः सृत्यजित् यक्षः मखापेतो राक्षसः ॥ ४४-५० ॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे द्वादशस्कन्धे श्रीसुदर्शनसूरिकृतशुकपक्षीये एकादशोऽध्यायः ॥ ११॥
श्लोक-४५
विश्वास-प्रस्तुतिः
एता भगवतो विष्णोरादित्यस्य विभूतयः।
स्मरतां सन्ध्ययोर्नॄणां हरन्त्यंहो दिने दिने॥
मूलम्
एता भगवतो विष्णोरादित्यस्य विभूतयः।
स्मरतां सन्ध्ययोर्नॄणां हरन्त्यंहो दिने दिने॥
अनुवाद (हिन्दी)
शौनकजी! ये सब सूर्यरूप भगवान्की विभूतियाँ हैं। जो लोग इनका प्रतिदिन प्रातःकाल और सायंकाल स्मरण करते हैं, उनके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं॥ ४५॥
श्लोक-४६
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्वादशस्वपि मासेषु देवोऽसौ षड्भिरस्य वै।
चरन् समन्तात्तनुते परत्रेह च सन्मतिम्॥
मूलम्
द्वादशस्वपि मासेषु देवोऽसौ षड्भिरस्य वै।
चरन् समन्तात्तनुते परत्रेह च सन्मतिम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
ये सूर्यदेव अपने छः गणोंके साथ बारहों महीने सर्वत्र विचरते रहते हैं और इस लोक तथा परलोकमें विवेक-बुद्धिका विस्तार करते हैं॥ ४६॥
श्लोक-४७
विश्वास-प्रस्तुतिः
सामर्ग्यजुर्भिस्तल्लिङ्गैर्ऋषयः संस्तुवन्त्यमुम्।
गन्धर्वास्तं प्रगायन्ति नृत्यन्त्यप्सरसोऽग्रतः॥
मूलम्
सामर्ग्यजुर्भिस्तल्लिङ्गैर्ऋषयः संस्तुवन्त्यमुम्।
गन्धर्वास्तं प्रगायन्ति नृत्यन्त्यप्सरसोऽग्रतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
सूर्यभगवान्के गणोंमें ऋषिलोग तो सूर्यसम्बन्धी ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेदके मन्त्रोंद्वारा उनकी स्तुति करते हैं और गंधर्व उनके सुयशका गान करते रहते हैं। अप्सराएँ आगे-आगे नृत्य करती चलती हैं॥ ४७॥
श्लोक-४८
विश्वास-प्रस्तुतिः
उन्नह्यन्ति रथं नागा ग्रामण्यो रथयोजकाः।
चोदयन्ति रथं पृष्ठे नैर्ऋता बलशालिनः॥
मूलम्
उन्नह्यन्ति रथं नागा ग्रामण्यो रथयोजकाः।
चोदयन्ति रथं पृष्ठे नैर्ऋता बलशालिनः॥
अनुवाद (हिन्दी)
नागगण रस्सीकी तरह उनके रथको कसे रहते हैं। यक्षगण रथका साज सजाते हैं और बलवान् राक्षस उसे पीछेसे ढकेलते हैं॥ ४८॥
श्लोक-४९
विश्वास-प्रस्तुतिः
वालखिल्याः सहस्राणि षष्टिर्ब्रह्मर्षयोऽमलाः।
पुरतोऽभिमुखं यान्ति स्तुवन्ति स्तुतिभिर्विभुम्॥
मूलम्
वालखिल्याः सहस्राणि षष्टिर्ब्रह्मर्षयोऽमलाः।
पुरतोऽभिमुखं यान्ति स्तुवन्ति स्तुतिभिर्विभुम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
इनके सिवा वालखिल्य नामके साठ हजार निर्मलस्वभाव ब्रह्मर्षि सूर्यकी ओर मुँह करके उनके आगे-आगे स्तुतिपाठ करते चलते हैं॥ ४९॥
श्लोक-५०
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं ह्यनादिनिधनो भगवान् हरिरीश्वरः।
कल्पे कल्पे स्वमात्मानं व्यूह्य लोकानवत्यजः॥
मूलम्
एवं ह्यनादिनिधनो भगवान् हरिरीश्वरः।
कल्पे कल्पे स्वमात्मानं व्यूह्य लोकानवत्यजः॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार अनादि, अनन्त, अजन्मा भगवान् श्रीहरि ही कल्प-कल्पमें अपने स्वरूपका विभाग करके लोकोंका पालन-पोषण करते-रहते हैं॥ ५०॥
अनुवाद (समाप्ति)
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां द्वादशस्कन्धे आदित्यव्यूहविवरणं नामैकादशोऽध्यायः॥ ११॥