१०

[दशमोऽध्यायः]

भागसूचना

मार्कण्डेयजीको भगवान् शंकरका वरदान

श्लोक-१

मूलम् (वचनम्)

सूत उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

स एवमनुभूयेदं नारायणविनिर्मितम्।
वैभवं योगमायायास्तमेव शरणं ययौ॥

मूलम्

स एवमनुभूयेदं नारायणविनिर्मितम्।
वैभवं योगमायायास्तमेव शरणं ययौ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सूतजी कहते हैं—शौनकादि ऋषियो! मार्कण्डेय मुनिने इस प्रकार नारायणनिर्मित योगमाया-वैभवका अनुभव किया। अब यह निश्चय करके कि इस मायासे मुक्त होनेके लिये मायापति भगवान‍्की शरण ही एकमात्र उपाय है, उन्हींकी शरणमें स्थित हो गये॥ १॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

मार्कण्डेयस्य तत् कुलप्रसूतत्वे शास्त्रान्तरपरिहारो द्रष्टव्यः एतत् कल्पात् प्रसूतमार्कण्डेयो ऽन्यो वास्मादित्यविरोध उर्वरितः आपदो निर्मुक्तः ॥ १-१५ ॥

श्लोक-२

मूलम् (वचनम्)

मार्कण्डेय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रपन्नोऽस्म्यङ्घ्रिमूलं ते प्रपन्नाभयदं हरे।
यन्माययापि विबुधा मुह्यन्ति ज्ञानकाशया॥

मूलम्

प्रपन्नोऽस्म्यङ्घ्रिमूलं ते प्रपन्नाभयदं हरे।
यन्माययापि विबुधा मुह्यन्ति ज्ञानकाशया॥

अनुवाद (हिन्दी)

मार्कण्डेयजीने मन-ही-मन कहा—प्रभो! आपकी माया वास्तवमें प्रतीतिमात्र होनेपर भी सत्य ज्ञानके समान प्रकाशित होती है और बड़े-बड़े विद्वान् भी उसके खेलोंमें मोहित हो जाते हैं। आपके श्रीचरणकमल ही शरणागतोंको सब प्रकारसे अभयदान करते हैं। इसलिये मैंने उन्हींकी शरण ग्रहण की है॥ २॥

श्लोक-३

मूलम् (वचनम्)

सूत उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमेवं निभृतात्मानं वृषेण दिवि पर्यटन्।
रुद्राण्या भगवान् रुद्रो ददर्श स्वगणैर्वृतः॥

मूलम्

तमेवं निभृतात्मानं वृषेण दिवि पर्यटन्।
रुद्राण्या भगवान् रुद्रो ददर्श स्वगणैर्वृतः॥

अनुवाद (हिन्दी)

सूतजी कहते हैं—मार्कण्डेयजी इस प्रकार शरणागतिकी भावनामें तन्मय हो रहे थे। उसी समय भगवान् शंकर भगवती पार्वतीजीके साथ नन्दीपर सवार होकर आकाशमार्गसे विचरण करते हुए उधर आ निकले और मार्कण्डेयजीको उसी अवस्थामें देखा। उनके साथ बहुत-से गण भी थे॥ ३॥

श्लोक-४

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथोमा तमृषिं वीक्ष्य गिरिशं समभाषत।
पश्येमं भगवन् विप्रं निभृतात्मेन्द्रियाशयम्॥

मूलम्

अथोमा तमृषिं वीक्ष्य गिरिशं समभाषत।
पश्येमं भगवन् विप्रं निभृतात्मेन्द्रियाशयम्॥

श्लोक-५

विश्वास-प्रस्तुतिः

निभृतोदझषव्रातं वातापाये यथार्णवम्।
कुर्वस्य तपसः साक्षात् संसिद्धिं सिद्धिदो भवान्॥

मूलम्

निभृतोदझषव्रातं वातापाये यथार्णवम्।
कुर्वस्य तपसः साक्षात् संसिद्धिं सिद्धिदो भवान्॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब भगवती पार्वतीने मार्कण्डेय मुनिको ध्यानकी अवस्थामें देखा, तब उनका हृदय वात्सल्य-स्नेहसे उमड़ आया। उन्होंने शंकरजीसे कहा—‘भगवन्! तनिक इस ब्राह्मणकी ओर तो देखिये। जैसे तूफान शान्त हो जानेपर समुद्रकी लहरें और मछलियाँ शान्त हो जाती हैं और समुद्र धीर-गम्भीर हो जाता है, वैसे ही इस ब्राह्मणका शरीर, इन्द्रिय और अन्तःकरण शान्त हो रहा है। समस्त सिद्धियोंके दाता आप ही हैं। इसलिये कृपा करके आप इस ब्राह्मणकी तपस्याका प्रत्यक्ष फल दीजिये’॥ ४-५॥

श्लोक-६

मूलम् (वचनम्)

श्रीभगवानुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

नैवेच्छत्याशिषः क्वापि ब्रह्मर्षिर्मोक्षमप्युत।
भक्तिं परां भगवति लब्धवान् पुरुषेऽव्यये॥

मूलम्

नैवेच्छत्याशिषः क्वापि ब्रह्मर्षिर्मोक्षमप्युत।
भक्तिं परां भगवति लब्धवान् पुरुषेऽव्यये॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् शंकरने कहा—देवि! ये ब्रह्मर्षि लोक अथवा परलोककी कोई भी वस्तु नहीं चाहते। और तो क्या, इनके मनमें कभी मोक्षकी भी आकांक्षा नहीं होती। इसका कारण यह है कि घट-घटवासी अविनाशी भगवान‍्के चरणकमलोंमें इन्हें परम भक्ति प्राप्त हो चुकी है॥ ६॥

श्लोक-७

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथापि संवदिष्यामो भवान्येतेन साधुना।
अयं हि परमो लाभो नृणां साधुसमागमः॥

मूलम्

अथापि संवदिष्यामो भवान्येतेन साधुना।
अयं हि परमो लाभो नृणां साधुसमागमः॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रिये! यद्यपि इन्हें हमारी कोई आवश्यकता नहीं है, फिर भी मैं इनके साथ बातचीत करूँगा; क्योंकि ये महात्मा पुरुष हैं। जीवमात्रके लिये सबसे बड़े लाभकी बात यही है कि संत पुरुषोंका समागम प्राप्त हो॥ ७॥

श्लोक-८

मूलम् (वचनम्)

सूत उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्त्वा तमुपेयाय भगवान् स सतां गतिः।
ईशानः सर्वविद्यानामीश्वरः सर्वदेहिनाम्॥

मूलम्

इत्युक्त्वा तमुपेयाय भगवान् स सतां गतिः।
ईशानः सर्वविद्यानामीश्वरः सर्वदेहिनाम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

सूतजी कहते हैं—शौनकजी! भगवान् शंकर समस्त विद्याओंके प्रवर्तक और सारे प्राणियोंके हृदयमें विराजमान अन्तर्यामी प्रभु हैं। जगत‍्के जितने भी संत हैं, उनके एकमात्र आश्रय और आदर्श भी वही हैं। भगवती पार्वतीसे इस प्रकार कहकर भगवान् शंकर मार्कण्डेय मुनिके पास गये॥ ८॥

श्लोक-९

विश्वास-प्रस्तुतिः

तयोरागमनं साक्षादीशयोर्जगदात्मनोः।
न वेद रुद्धधीवृत्तिरात्मानं विश्वमेव च॥

मूलम्

तयोरागमनं साक्षादीशयोर्जगदात्मनोः।
न वेद रुद्धधीवृत्तिरात्मानं विश्वमेव च॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय मार्कण्डेय मुनिकी समस्त मनोवृत्तियाँ भगवद‍्भावमें तन्मय थीं। उन्हें अपने शरीर और जगत‍्का बिलकुल पता न था। इसलिये उस समय वे यह भी न जान सके कि मेरे सामने सारे विश्वके आत्मा स्वयं भगवान् गौरीशंकर पधारे हुए हैं॥ ९॥

श्लोक-१०

विश्वास-प्रस्तुतिः

भगवांस्तदभिज्ञाय गिरीशो योगमायया।
आविशत्तद‍्गुहाकाशं वायुश्छिद्रमिवेश्वरः॥

मूलम्

भगवांस्तदभिज्ञाय गिरीशो योगमायया।
आविशत्तद‍्गुहाकाशं वायुश्छिद्रमिवेश्वरः॥

अनुवाद (हिन्दी)

शौनकजी! सर्वशक्तिमान् भगवान् कैलासपतिसे यह बात छिपी न रही कि मार्कण्डेय मुनि इस समय किस अवस्थामें हैं। इसलिये जैसे वायु अवकाशके स्थानमें अनायास ही प्रवेश कर जाती है, वैसे ही वे अपनी योगमायासे मार्कण्डेय मुनिके हृदयाकाशमें प्रवेश कर गये॥ १०॥

श्लोक-११

विश्वास-प्रस्तुतिः

आत्मन्यपि शिवं प्राप्तं तडित्पिङ्गजटाधरम्।
त्र्यक्षं दशभुजं प्रांशुमुद्यन्तमिव भास्करम्॥

मूलम्

आत्मन्यपि शिवं प्राप्तं तडित्पिङ्गजटाधरम्।
त्र्यक्षं दशभुजं प्रांशुमुद्यन्तमिव भास्करम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

मार्कण्डेय मुनिने देखा कि उनके हृदयमें तो भगवान् शंकरके दर्शन हो रहे हैं। शंकरजीके सिरपर बिजलीके समान चमकीली पीली-पीली जटाएँ शोभायमान हो रही हैं। तीन नेत्र हैं और दस भुजाएँ। लम्बा-तगड़ा शरीर उदयकालीन सूर्यके समान तेजस्वी है॥ ११॥

श्लोक-१२

विश्वास-प्रस्तुतिः

व्याघ्रचर्माम्बरधरं शूलखट्वाङ्गचर्मभिः।
अक्षमालाडमरुककपालासिधनुः सह॥

मूलम्

व्याघ्रचर्माम्बरधरं शूलखट्वाङ्गचर्मभिः।
अक्षमालाडमरुककपालासिधनुः सह॥

अनुवाद (हिन्दी)

शरीरपर बाघम्बर धारण किये हुए हैं और हाथोंमें शूल, खट्वांग, ढाल, रुद्राक्ष-माला, डमरू, खप्पर, तलवार और धनुष लिये हैं॥ १२॥

श्लोक-१३

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिभ्राणं सहसा भातं विचक्ष्य हृदि विस्मितः।
किमिदं कुत एवेति समाधेर्विरतो मुनिः॥

मूलम्

बिभ्राणं सहसा भातं विचक्ष्य हृदि विस्मितः।
किमिदं कुत एवेति समाधेर्विरतो मुनिः॥

अनुवाद (हिन्दी)

मार्कण्डेय मुनि अपने हृदयमें अकस्मात् भगवान् शंकरका यह रूप देखकर विस्मित हो गये। ‘यह क्या है? कहाँसे आया?’ इस प्रकारकी वृत्तियोंका उदय हो जानेसे उन्होंने अपनी समाधि खोल दी॥ १३॥

श्लोक-१४

विश्वास-प्रस्तुतिः

नेत्रे उन्मील्य ददृशे सगणं सोमयाऽऽगतम्।
रुद्रं त्रिलोकैकगुरुं ननाम शिरसा मुनिः॥

मूलम्

नेत्रे उन्मील्य ददृशे सगणं सोमयाऽऽगतम्।
रुद्रं त्रिलोकैकगुरुं ननाम शिरसा मुनिः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब उन्होंने आँखें खोलीं, तब देखा कि तीनों लोकोंके एकमात्र गुरु भगवान् शंकर श्रीपार्वतीजी तथा अपने गणोंके साथ पधारे हुए हैं। उन्होंने उनके चरणोंमें माथा टेककर प्रणाम किया॥ १४॥

श्लोक-१५

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मै सपर्यां व्यदधात् सगणाय सहोमया।
स्वागतासनपाद्यार्घ्यगन्धस्रग्धूपदीपकैः॥

मूलम्

तस्मै सपर्यां व्यदधात् सगणाय सहोमया।
स्वागतासनपाद्यार्घ्यगन्धस्रग्धूपदीपकैः॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर मार्कण्डेय मुनिने स्वागत, आसन, पाद्य, अर्घ्य, गन्ध, पुष्पमाला, धूप और दीप आदि उपचारोंसे भगवान् शंकर, भगवती पार्वती और उनके गणोंकी पूजा की॥ १५॥

श्लोक-१६

विश्वास-प्रस्तुतिः

आह चात्मानुभावेन पूर्णकामस्य ते विभो।
करवाम किमीशान येनेदं निर्वृतं जगत्॥

मूलम्

आह चात्मानुभावेन पूर्णकामस्य ते विभो।
करवाम किमीशान येनेदं निर्वृतं जगत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके पश्चात् मार्कण्डेय मुनि उनसे कहने लगे—‘सर्वव्यापक और सर्वशक्तिमान् प्रभो! आप अपनी आत्मानुभूति और महिमासे ही पूर्णकाम हैं। आपकी शान्ति और सुखसे ही सारे जगत‍्में सुख-शान्तिका विस्तार हो रहा है, ऐसी अवस्थामें मैं आपकी क्या सेवा करूँ?॥ १६॥

श्लोक-१७

विश्वास-प्रस्तुतिः

नमः शिवाय शान्ताय सत्त्वाय प्रमृडाय च।
रजोजुषेऽप्यघोराय नमस्तुभ्यं तमोजुषे॥

मूलम्

नमः शिवाय शान्ताय सत्त्वाय प्रमृडाय च।
रजोजुषेऽप्यघोराय नमस्तुभ्यं तमोजुषे॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं आपके त्रिगुणातीत सदाशिव स्वरूपको और सत्त्वगुणसे युक्त शान्तस्वरूपको नमस्कार करता हूँ। मैं आपके रजोगुणयुक्त सर्वप्रवर्तकस्वरूप एवं तमोगुणयुक्त अघोरस्वरूपको नमस्कार करता हूँ’॥ १७॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

सत्त्वाय ज्ञानवर्द्धकगुणशालिने प्रकर्षेण मृडयति सुखयतीति प्रमृडः ॥ १६-२० ॥

श्लोक-१८

मूलम् (वचनम्)

सूत उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं स्तुतः स भगवानादिदेवः सतां गतिः।
परितुष्टः प्रसन्नात्मा प्रहसंस्तमभाषत॥

मूलम्

एवं स्तुतः स भगवानादिदेवः सतां गतिः।
परितुष्टः प्रसन्नात्मा प्रहसंस्तमभाषत॥

अनुवाद (हिन्दी)

सूतजी कहते हैं—शौनकजी! जब मार्कण्डेय मुनिने संतोंके परम आश्रय देवाधिदेव भगवान् शंकरकी इस प्रकार स्तुति की, तब वे उनपर अत्यन्त सन्तुष्ट हुए और बड़े प्रसन्नचित्तसे हँसते हुए कहने लगे॥ १८॥

श्लोक-१९

मूलम् (वचनम्)

श्रीभगवानुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

वरं वृणीष्व नः कामं वरदेशा वयं त्रयः।
अमोघं दर्शनं येषां मर्त्यो यद् विन्दतेऽमृतम्॥

मूलम्

वरं वृणीष्व नः कामं वरदेशा वयं त्रयः।
अमोघं दर्शनं येषां मर्त्यो यद् विन्दतेऽमृतम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् शंकरने कहा—मार्कण्डेयजी! ब्रह्मा, विष्णु तथा मैं—हम तीनों ही वरदाताओंके स्वामी हैं, हमलोगोंका दर्शन कभी व्यर्थ नहीं जाता। हमलोगोंसे ही मरणशील मनुष्य भी अमृतत्वकी प्राप्ति कर लेता है। इसलिये तुम्हारी जो इच्छा हो, वही वर मुझसे माँग लो॥ १९॥

श्लोक-२०

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्राह्मणाः साधवः शान्ता निःसङ्गा भूतवत्सलाः।
एकान्तभक्ता अस्मासु निर्वैराः समदर्शिनः॥

मूलम्

ब्राह्मणाः साधवः शान्ता निःसङ्गा भूतवत्सलाः।
एकान्तभक्ता अस्मासु निर्वैराः समदर्शिनः॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्राह्मण स्वभावसे ही परोपकारी, शान्तचित्त एवं अनासक्त होते हैं। वे किसीके साथ वैरभाव नहीं रखते और समदर्शी होनेपर भी प्राणियोंका कष्ट देखकर उसके निवारणके लिये पूरे हृदयसे जुट जाते हैं। उनकी सबसे बड़ी विशेषता तो यह होती है कि वे हमारे अनन्य प्रेमी एवं भक्त होते हैं॥ २०॥

श्लोक-२१

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलोका लोकपालास्तान् वन्दन्त्यर्चन्त्युपासते।
अहं च भगवान् ब्रह्मा स्वयं च हरिरीश्वरः॥

मूलम्

सलोका लोकपालास्तान् वन्दन्त्यर्चन्त्युपासते।
अहं च भगवान् ब्रह्मा स्वयं च हरिरीश्वरः॥

अनुवाद (हिन्दी)

सारे लोक और लोकपाल ऐसे ब्राह्मणोंकी वन्दना, पूजा और उपासना किया करते हैं। केवल वे ही क्यों; मैं, भगवान् ब्रह्मा तथा स्वयं साक्षात् ईश्वर विष्णु भी उनकी सेवामें संलग्न रहते हैं॥ २१॥

श्लोक-२२

विश्वास-प्रस्तुतिः

न ते मय्यच्युतेऽजे च भिदामण्वपि चक्षते।
नात्मनश्च जनस्यापि तद् युष्मान् वयमीमहि॥

मूलम्

न ते मय्यच्युतेऽजे च भिदामण्वपि चक्षते।
नात्मनश्च जनस्यापि तद् युष्मान् वयमीमहि॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसे शान्त महापुरुष मुझमें, विष्णुभगवान् में, ब्रह्मामें, अपनेमें और सब जीवोंमें अणुमात्र भी भेद नहीं देखते। सदा-सर्वदा, सर्वत्र और सर्वथा एकरस आत्माका ही दर्शन करते हैं। इसलिये हम तुम्हारे-जैसे महात्माओंकी स्तुति और सेवा करते हैं॥ २२॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

न ते मयीति अजे मयि चाच्युते ब्रह्मशरीर के मयि अच्युते इत्यर्थः " स ब्रह्मा स शिवः" इति श्रुतिः भगवतः सर्वान्तरात्मत्वात् भेदनिषेधस्यान्तरात्मत्वनिबन्धनत्वमेव स्फुटीकृतं नात्मनः जनस्यापीति नहिभेदं च वक्ष्यत इत्यन्वयः ॥ २१ - २८ ॥

श्लोक-२३

विश्वास-प्रस्तुतिः

न ह्यम्मयानि तीर्थानि न देवाश्चेतनोज्झिताः।
ते पुनन्त्युरुकालेन यूयं दर्शनमात्रतः॥

मूलम्

न ह्यम्मयानि तीर्थानि न देवाश्चेतनोज्झिताः।
ते पुनन्त्युरुकालेन यूयं दर्शनमात्रतः॥

अनुवाद (हिन्दी)

मार्कण्डेयजी! केवल जलमय तीर्थ ही तीर्थ नहीं होते तथा केवल जड मूर्तियाँ ही देवता नहीं होतीं। सबसे बड़े तीर्थ और देवता तो तुम्हारे-जैसे संत हैं; क्योंकि वे तीर्थ और देवता बहुत दिनोंमें पवित्र करते हैं, परन्तु तुमलोग दर्शनमात्रसे ही पवित्र कर देते हो॥ २३॥

श्लोक-२४

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्राह्मणेभ्यो नमस्यामो येऽस्मद‍‍्रूपं त्रयीमयम्।
बिभ्रत्यात्मसमाधानतपःस्वाध्यायसंयमैः॥

मूलम्

ब्राह्मणेभ्यो नमस्यामो येऽस्मद‍‍्रूपं त्रयीमयम्।
बिभ्रत्यात्मसमाधानतपःस्वाध्यायसंयमैः॥

अनुवाद (हिन्दी)

हमलोग तो ब्राह्मणोंको ही नमस्कार करते हैं; क्योंकि वे चित्तकी एकाग्रता, तपस्या, स्वाध्याय, धारणा, ध्यान और समाधिके द्वारा हमारे वेदमय शरीरको धारण करते हैं॥ २४॥

श्लोक-२५

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रवणाद् दर्शनाद् वापि महापातकिनोऽपि वः।
शुध्येरन्नन्त्यजाश्चापि किमु सम्भाषणादिभिः॥

मूलम्

श्रवणाद् दर्शनाद् वापि महापातकिनोऽपि वः।
शुध्येरन्नन्त्यजाश्चापि किमु सम्भाषणादिभिः॥

अनुवाद (हिन्दी)

मार्कण्डेयजी! बड़े-बड़े महापापी और अन्त्यज भी तुम्हारे-जैसे महापुरुषोंके चरित्रश्रवण और दर्शनसे ही शुद्ध हो जाते हैं; फिर वे तुमलोगोंके सम्भाषण और सहवास आदिसे शुद्ध हो जायँ, इसमें तो कहना ही क्या है॥ २५॥

श्लोक-२६

मूलम् (वचनम्)

सूत उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इति चन्द्रललामस्य धर्मगुह्योपबृंहितम्।
वचोऽमृतायनमृषिर्नातृप्यत् कर्णयोः पिबन्॥

मूलम्

इति चन्द्रललामस्य धर्मगुह्योपबृंहितम्।
वचोऽमृतायनमृषिर्नातृप्यत् कर्णयोः पिबन्॥

अनुवाद (हिन्दी)

सूतजी कहते हैं—शौनकादि ऋषियो! चन्द्रभूषण भगवान् शंकरकी एक-एक बात धर्मके गुप्ततम रहस्यसे परिपूर्ण थी। उसके एक-एक अक्षरमें अमृतका समुद्र भरा हुआ था। मार्कण्डेय मुनि अपने कानोंके द्वारा पूरी तन्मयताके साथ उसका पान करते रहे; परन्तु उन्हें तृप्ति न हुई॥ २६॥

श्लोक-२७

विश्वास-प्रस्तुतिः

स चिरं मायया विष्णोर्भ्रामितः कर्शितो भृशम्।
शिववागमृतध्वस्तक्लेशपुञ्जस्तमब्रवीत्॥

मूलम्

स चिरं मायया विष्णोर्भ्रामितः कर्शितो भृशम्।
शिववागमृतध्वस्तक्लेशपुञ्जस्तमब्रवीत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे चिरकालतक विष्णुभगवान‍्की मायासे भटक चुके थे और बहुत थके हुए भी थे। भगवान् शिवकी कल्याणी वाणीका अमृतपान करनेसे उनके सारे क्लेश नष्ट हो गये। उन्होंने भगवान् शंकरसे इस प्रकार कहा॥ २७॥

श्लोक-२८

मूलम् (वचनम्)

ऋषिरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहो ईश्वरलीलेयं दुर्विभाव्या शरीरिणाम्।
यन्नमन्तीशितव्यानि स्तुवन्ति जगदीश्वराः॥

मूलम्

अहो ईश्वरलीलेयं दुर्विभाव्या शरीरिणाम्।
यन्नमन्तीशितव्यानि स्तुवन्ति जगदीश्वराः॥

अनुवाद (हिन्दी)

मार्कण्डेयजीने कहा—सचमुच सर्वशक्तिमान् भगवान‍्की यह लीला सभी प्राणियोंकी समझके परे है। भला, देखो तो सही—ये सारे जगत‍्के स्वामी होकर भी अपने अधीन रहनेवाले मेरे-जैसे जीवोंकी वन्दना और स्तुति करते हैं॥ २८॥

श्लोक-२९

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्मं ग्राहयितुं प्रायः प्रवक्तारश्च देहिनाम्।
आचरन्त्यनुमोदन्ते क्रियमाणं स्तुवन्ति च॥

मूलम्

धर्मं ग्राहयितुं प्रायः प्रवक्तारश्च देहिनाम्।
आचरन्त्यनुमोदन्ते क्रियमाणं स्तुवन्ति च॥

अनुवाद (हिन्दी)

धर्मके प्रवचनकार प्रायः प्राणियोंको धर्मका रहस्य और स्वरूप समझानेके लिये उसका आचरण और अनुमोदन करते हैं तथा कोई धर्मका आचरण करता है तो उसकी प्रशंसा भी करते हैं॥ २९॥

श्लोक-३०

विश्वास-प्रस्तुतिः

नैतावता भगवतः स्वमायामयवृत्तिभिः।
न दुष्येतानुभावस्तैर्मायिनः कुहकं यथा॥

मूलम्

नैतावता भगवतः स्वमायामयवृत्तिभिः।
न दुष्येतानुभावस्तैर्मायिनः कुहकं यथा॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे जादूगर अनेकों खेल दिखलाता है और उन खेलोंसे उसके प्रभावमें कोई अन्तर नहीं पड़ता, वैसे ही आप अपनी स्वजनमोहिनी मायाकी वृत्तियोंको स्वीकार करके किसीकी वन्दना-स्तुति आदि करते हैं तो केवल इस कामके द्वारा आपकी महिमामें कोई त्रुटि नहीं आती॥ ३०॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

मायामयवृत्तिभिः आश्चर्यचेष्टाभिः ॥ २९ ॥

श्लोक-३१

विश्वास-प्रस्तुतिः

सृष्ट्वेदं मनसा विश्वमात्मनानुप्रविश्य यः।
गुणैः कुर्वद‍्भिराभाति कर्तेव स्वप्नदृग् यथा॥

मूलम्

सृष्ट्वेदं मनसा विश्वमात्मनानुप्रविश्य यः।
गुणैः कुर्वद‍्भिराभाति कर्तेव स्वप्नदृग् यथा॥

अनुवाद (हिन्दी)

आपने स्वप्नद्रष्टाके समान अपने मनसे ही सम्पूर्ण विश्वकी सृष्टि की है और इसमें स्वयं प्रवेश करके कर्ता न होनेपर भी कर्म करनेवाले गुणोंके द्वारा कर्ताके समान प्रतीत होते हैं॥ ३१॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

शास्त्रदृष्टया भगवदात्मकत्वं मन्वान आह-सृष्टदमिति । ब्रह्मादिवत् स्वप्नदृग्न्यथेति स्वाप्नस्पर्शादिकुर्वन्निव स्थितः कर्मानुगुणेः कर्मपरिणामिभिर्गुणैः विषमसृष्टिं कुर्वद्भिः कुर्वन्निवा भातीत्यर्थः ॥ ३० ॥

श्लोक-३२

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मै नमो भगवते त्रिगुणाय गुणात्मने।
केवलायाद्वितीयाय गुरवे ब्रह्ममूर्तये॥

मूलम्

तस्मै नमो भगवते त्रिगुणाय गुणात्मने।
केवलायाद्वितीयाय गुरवे ब्रह्ममूर्तये॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवन्! आप त्रिगुणस्वरूप होनेपर भी उनके परे उनकी आत्माके रूपमें स्थित हैं। आप ही समस्त ज्ञानके मूल, केवल, अद्वितीय ब्रह्मस्वरूप हैं। मैं आपको नमस्कार करता हूँ॥ ३२॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

ब्रह्ममूर्त्तये वेदनिर्वाहकाय ज्ञानप्रवर्तकाय वा ॥ ३१-३३ ॥

श्लोक-३३

विश्वास-प्रस्तुतिः

कं वृणे नु परं भूमन् वरं त्वद् वरदर्शनात्।
यद्दर्शनात् पूर्णकामः सत्यकामः पुमान् भवेत्॥

मूलम्

कं वृणे नु परं भूमन् वरं त्वद् वरदर्शनात्।
यद्दर्शनात् पूर्णकामः सत्यकामः पुमान् भवेत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

अनन्त! आपके श्रेष्ठ दर्शनसे बढ़कर ऐसी और कौन-सी वस्तु है, जिसे मैं वरदानके रूपमें माँगूँ? मनुष्य आपके दर्शनसे ही पूर्णकाम और सत्यसंकल्प हो जाता है॥ ३३॥

श्लोक-३४

विश्वास-प्रस्तुतिः

वरमेकं वृणेऽथापि पूर्णात् कामाभिवर्षणात्।
भगवत्यच्युतां भक्तिं तत्परेषु तथा त्वयि॥

मूलम्

वरमेकं वृणेऽथापि पूर्णात् कामाभिवर्षणात्।
भगवत्यच्युतां भक्तिं तत्परेषु तथा त्वयि॥

अनुवाद (हिन्दी)

आप स्वयं तो पूर्ण हैं ही, अपने भक्तोंकी भी समस्त कामनाओंको पूर्ण करनेवाले हैं। इसलिये मैं आपका दर्शन प्राप्त कर लेनेपर भी एक वर और माँगता हूँ। वह यह कि भगवान् में, उनके शरणागत भक्तोंमें और आपमें मेरी अविचल भक्ति सदा-सर्वदा बनी रहे॥ ३४॥

श्लोक-३५

मूलम् (वचनम्)

सूत उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्यर्चितोऽभिष्टुतश्च मुनिना सूक्तया गिरा।
तमाह भगवाञ्छर्वः शर्वया चाभिनन्दितः॥

मूलम्

इत्यर्चितोऽभिष्टुतश्च मुनिना सूक्तया गिरा।
तमाह भगवाञ्छर्वः शर्वया चाभिनन्दितः॥

अनुवाद (हिन्दी)

सूतजी कहते हैं—शौनकजी! जब मार्कण्डेय मुनिने सुमधुर वाणीसे इस प्रकार भगवान् शंकरकी स्तुति और पूजा की, तब उन्होंने भगवती पार्वतीकी प्रसाद-प्रेरणासे यह बात कही॥ ३५॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

शर्वया शर्वपल्या ॥ ३४-३५ ॥

श्लोक-३६

विश्वास-प्रस्तुतिः

कामो महर्षे सर्वोऽयं भक्तिमांस्त्वमधोक्षजे।
आकल्पान्ताद् यशः पुण्यमजरामरता तथा॥

मूलम्

कामो महर्षे सर्वोऽयं भक्तिमांस्त्वमधोक्षजे।
आकल्पान्ताद् यशः पुण्यमजरामरता तथा॥

अनुवाद (हिन्दी)

महर्षे! तुम्हारी सारी कामनाएँ पूर्ण हों। इन्द्रियातीत परमात्मामें तुम्हारी अनन्य भक्ति सदा-सर्वदा बनी रहे। कल्पपर्यन्त तुम्हारा पवित्र यश फैले और तुम अजर एवं अमर हो जाओ॥ ३६॥

श्लोक-३७

विश्वास-प्रस्तुतिः

ज्ञानं त्रैकालिकं ब्रह्मन् विज्ञानं च विरक्तिमत्।
ब्रह्मवर्चस्विनो भूयात् पुराणाचार्यतास्तु ते॥

मूलम्

ज्ञानं त्रैकालिकं ब्रह्मन् विज्ञानं च विरक्तिमत्।
ब्रह्मवर्चस्विनो भूयात् पुराणाचार्यतास्तु ते॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्मन्! तुम्हारा ब्रह्मतेज तो सर्वदा अक्षुण्ण रहेगा ही। तुम्हें भूत, भविष्य और वर्तमानके समस्त विशेष ज्ञानोंका एक अधिष्ठानरूप ज्ञान और वैराग्ययुक्त स्वरूपस्थितिकी प्राप्ति हो जाय। तुम्हें पुराणका आचार्यत्व भी प्राप्त हो॥ ३७॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

ज्ञानं तत्त्वज्ञानं ब्रह्मवर्चस्विनः बृह्मवर्चस्विनः ॥ ३६-४० ॥

श्लोक-३८

मूलम् (वचनम्)

सूत उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं वरान्स मुनये दत्त्वागात्‍त्र्‍यक्ष ईश्वरः।
देव्यै तत्कर्म कथयन्ननुभूतं पुरामुना॥

मूलम्

एवं वरान्स मुनये दत्त्वागात्‍त्र्‍यक्ष ईश्वरः।
देव्यै तत्कर्म कथयन्ननुभूतं पुरामुना॥

अनुवाद (हिन्दी)

सूतजी कहते हैं—शौनकजी! इस प्रकार त्रिलोचन भगवान् शंकर मार्कण्डेय मुनिको वर देकर भगवती पार्वतीसे मार्कण्डेय मुनिकी तपस्या और उनके प्रलयसम्बन्धी अनुभवोंका वर्णन करते हुए वहाँसे चले गये॥ ३८॥

श्लोक-३९

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोऽप्यवाप्तमहायोगमहिमा भार्गवोत्तमः।
विचरत्यधुनाप्यद्धा हरावेकान्ततां गतः॥

मूलम्

सोऽप्यवाप्तमहायोगमहिमा भार्गवोत्तमः।
विचरत्यधुनाप्यद्धा हरावेकान्ततां गतः॥

अनुवाद (हिन्दी)

भृगुवंशशिरोमणि मार्कण्डेय मुनिको उनके महायोगका परम फल प्राप्त हो गया। वे भगवान‍्के अनन्यप्रेमी हो गये। अब भी वे भक्तिभावभरित हृदयसे पृथ्वीपर विचरण किया करते हैं॥ ३९॥

श्लोक-४०

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनुवर्णितमेतत्ते मार्कण्डेयस्य धीमतः।
अनुभूतं भगवतो मायावैभवमद‍्भुतम्॥

मूलम्

अनुवर्णितमेतत्ते मार्कण्डेयस्य धीमतः।
अनुभूतं भगवतो मायावैभवमद‍्भुतम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

परम ज्ञानसम्पन्न मार्कण्डेय मुनिने भगवान‍्की योगमायासे जिस अद‍्भुत लीलाका अनुभव किया था, वह मैंने आपलोगोंको सुना दिया॥ ४०॥

श्लोक-४१

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतत् केचिदविद्वांसो मायासंसृतिमात्मनः।
अनाद्यावर्तितं नॄणां कादाचित्कं प्रचक्षते॥

मूलम्

एतत् केचिदविद्वांसो मायासंसृतिमात्मनः।
अनाद्यावर्तितं नॄणां कादाचित्कं प्रचक्षते॥

अनुवाद (हिन्दी)

शौनकजी! यह जो मार्कण्डेयजीने अनेक कल्पोंका—सृष्टि-प्रलयोंका अनुभव किया, वह भगवान‍्की मायाका ही वैभव था, तात्कालिक था और उन्हींके लिये था, सर्वसाधारणके लिये नहीं। कोई-कोई इस मायाकी रचनाको न जानकर अनादि-कालसे बार-बार होनेवाले सृष्टि-प्रलय ही इसको भी बतलाते हैं। (इसलिये आपको यह शंका नहीं करनी चाहिये कि इसी कल्पके हमारे पूर्वज मार्कण्डेयजीकी आयु इतनी लम्बी कैसे हो गयी?)॥ ४१॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

एतदिति । केचन संसारानादित्वानभिज्ञाः कादाचित्कत्वमाहुरित्यर्थः ॥ ४१–४२ ॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे द्वादशस्कन्धे श्रीसुदर्शनसूरिकृतशुकपक्षीये दशमोऽध्यायः ॥ १० ॥

श्लोक-४२

विश्वास-प्रस्तुतिः

य एवमेतद् भृगुवर्य वर्णितं
रथाङ्गपाणेरनुभावभावितम्।
संश्रावयेत् संशृणुयादु तावुभौ
तयोर्न कर्माशयसंसृतिर्भवेत्॥

मूलम्

य एवमेतद् भृगुवर्य वर्णितं
रथाङ्गपाणेरनुभावभावितम्।
संश्रावयेत् संशृणुयादु तावुभौ
तयोर्न कर्माशयसंसृतिर्भवेत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

भृगुवंशशिरोमणे! मैंने आपको यह जो मार्कण्डेय-चरित्र सुनाया है, वह भगवान् चक्रपाणिके प्रभाव और महिमासे भरपूर है। जो इसका श्रवण एवं कीर्तन करते हैं, वे दोनों ही कर्म-वासनाओंके कारण प्राप्त होनेवाले आवागमनके चक्करसे सर्वदाके लिये छूट जाते हैं॥ ४२॥

अनुवाद (समाप्ति)

इति श्रीमद‍्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां द्वादशस्कन्धे दशमोऽध्यायः॥ १०॥