०९ मायादर्शनम्

[नवमोऽध्यायः]

भागसूचना

मार्कण्डेयजीका माया-दर्शन

श्लोक-१

मूलम् (वचनम्)

सूत उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

संस्तुतो भगवानित्थं मार्कण्डेयेन धीमता।
नारायणो नरसखः प्रीत आह भृगूद्वहम्॥

मूलम्

संस्तुतो भगवानित्थं मार्कण्डेयेन धीमता।
नारायणो नरसखः प्रीत आह भृगूद्वहम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

सूतजी कहते हैं—जब ज्ञानसम्पन्न मार्कण्डेय मुनिने इस प्रकार स्तुति की, तब भगवान् नर-नारायणने प्रसन्न होकर मार्कण्डेयजीसे कहा॥ १॥

श्लोक-२

मूलम् (वचनम्)

श्रीभगवानुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

भो भो ब्रह्मर्षिवर्यासि सिद्ध आत्मसमाधिना।
मयि भक्त्यानपायिन्या तपःस्वाध्यायसंयमैः॥

मूलम्

भो भो ब्रह्मर्षिवर्यासि सिद्ध आत्मसमाधिना।
मयि भक्त्यानपायिन्या तपःस्वाध्यायसंयमैः॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् नारायणने कहा—सम्मान्य ब्रह्मर्षि-शिरोमणि! तुम चित्तकी एकाग्रता, तपस्या, स्वाध्याय, संयम और मेरी अनन्य भक्तिसे सिद्ध हो गये हो॥ २॥

श्लोक-३

विश्वास-प्रस्तुतिः

वयं ते परितुष्टाः स्म त्वद‍्बृहद्‍व्रतचर्यया।
वरं प्रतीच्छ भद्रं ते वरदेशादभीप्सितम्॥

मूलम्

वयं ते परितुष्टाः स्म त्वद‍्बृहद्‍व्रतचर्यया।
वरं प्रतीच्छ भद्रं ते वरदेशादभीप्सितम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुम्हारे इस आजीवन ब्रह्मचर्य-व्रतकी निष्ठा देखकर हम तुमपर बहुत ही प्रसन्न हुए हैं। तुम्हारा कल्याण हो! मैं समस्त वर देनेवालोंका स्वामी हूँ। इसलिये तुम अपना अभीष्ट वर मुझसे माँग लो॥ ३॥

श्लोक-४

मूलम् (वचनम्)

ऋषिरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

जितं ते देवदेवेश प्रपन्नार्तिहराच्युत।
वरेणैतावतालं नो यद् भवान् समदृश्यत॥

मूलम्

जितं ते देवदेवेश प्रपन्नार्तिहराच्युत।
वरेणैतावतालं नो यद् भवान् समदृश्यत॥

अनुवाद (हिन्दी)

मार्कण्डेय मुनिने कहा—देवदेवेश! शरणागत-भयहारी अच्युत! आपकी जय हो! जय हो! हमारे लिये बस इतना ही वर पर्याप्त है कि आपने कृपा करके अपने मनोहर स्वरूपका दर्शन कराया॥ ४॥

श्लोक-५

विश्वास-प्रस्तुतिः

गृहीत्वाजादयो यस्य श्रीमत्पादाब्जदर्शनम्।
मनसा योगपक्वेन स भवान् मेऽक्षगोचरः॥

मूलम्

गृहीत्वाजादयो यस्य श्रीमत्पादाब्जदर्शनम्।
मनसा योगपक्वेन स भवान् मेऽक्षगोचरः॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्मा-शंकर आदि देवगण योग-साधनाके द्वारा एकाग्र हुए मनसे ही आपके परम सुन्दर श्रीचरणकमलोंका दर्शन प्राप्त करके कृतार्थ हो गये हैं। आज उन्हीं आपने मेरे नेत्रोंके सामने प्रकट होकर मुझे धन्य बनाया है॥ ५॥

श्लोक-६

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथाप्यम्बुजपत्राक्ष पुण्यश्लोकशिखामणे।
द्रक्ष्ये मायां यया लोकः सपालो वेद सद‍्भिदाम्॥

मूलम्

अथाप्यम्बुजपत्राक्ष पुण्यश्लोकशिखामणे।
द्रक्ष्ये मायां यया लोकः सपालो वेद सद‍्भिदाम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

पवित्रकीर्ति महानुभावोंके शिरोमणि कमलनयन! फिर भी आपकी आज्ञाके अनुसार मैं आपसे वर माँगता हूँ। मैं आपकी वह माया देखना चाहता हूँ, जिससे मोहित होकर सभी लोक और लोकपाल अद्वितीय वस्तु ब्रह्ममें अनेकों प्रकारके भेद-विभेद देखने लगते हैं॥ ६॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

१- ५ मायाम् आश्चर्यशक्तिम् ॥ ६-१२ ॥

श्लोक-७

मूलम् (वचनम्)

सूत उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इतीडितोऽर्चितः काममृषिणा भगवान् मुने।
तथेति स स्मयन् प्रागाद् बदर्याश्रममीश्वरः॥

मूलम्

इतीडितोऽर्चितः काममृषिणा भगवान् मुने।
तथेति स स्मयन् प्रागाद् बदर्याश्रममीश्वरः॥

अनुवाद (हिन्दी)

सूतजी कहते हैं—शौनकजी! जब इस प्रकार मार्कण्डेय मुनिने भगवान् नर-नारायणकी इच्छानुसार स्तुति-पूजा कर ली एवं वरदान माँग लिया, तब उन्होंने मुसकराते हुए कहा—‘ठीक है, ऐसा ही होगा।’ इसके बाद वे अपने आश्रम बदरीवनको चले गये॥ ७॥

श्लोक-८

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमेव चिन्तयन्नर्थमृषिः स्वाश्रम एव सः।
वसन्नग्न्यर्कसोमाम्बुभूवायुवियदात्मसु॥

मूलम्

तमेव चिन्तयन्नर्थमृषिः स्वाश्रम एव सः।
वसन्नग्न्यर्कसोमाम्बुभूवायुवियदात्मसु॥

श्लोक-९

विश्वास-प्रस्तुतिः

ध्यायन् सर्वत्र च हरिं भावद्रव्यैरपूजयत्।
क्वचित् पूजां विसस्मार प्रेमप्रसरसम्प्लुतः॥

मूलम्

ध्यायन् सर्वत्र च हरिं भावद्रव्यैरपूजयत्।
क्वचित् पूजां विसस्मार प्रेमप्रसरसम्प्लुतः॥

अनुवाद (हिन्दी)

मार्कण्डेय मुनि अपने आश्रमपर ही रहकर निरन्तर इस बातका चिन्तन करते रहते कि मुझे मायाके दर्शन कब होंगे। वे अग्नि, सूर्य, चन्द्रमा, जल, पृथ्वी, वायु, आकाश एवं अन्तःकरणमें—और तो क्या, सर्वत्र भगवान‍्का ही दर्शन करते हुए मानसिक वस्तुओंसे उनका पूजन करते रहते। कभी-कभी तो उनके हृदयमें प्रेमकी ऐसी बाढ़ आ जाती कि वे उसके प्रवाहमें डूबने-उतराने लगते, उन्हें इस बातकी भी याद न रहती कि कब कहाँ किस प्रकार भगवान‍्की पूजा करनी चाहिये?॥ ८-९॥

श्लोक-१०

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्यैकदा भृगुश्रेष्ठ पुष्पभद्रातटे मुनेः।
उपासीनस्य सन्ध्यायां ब्रह्मन् वायुरभून्महान्॥

मूलम्

तस्यैकदा भृगुश्रेष्ठ पुष्पभद्रातटे मुनेः।
उपासीनस्य सन्ध्यायां ब्रह्मन् वायुरभून्महान्॥

अनुवाद (हिन्दी)

शौनकजी! एक दिनकी बात है, सन्ध्याके समय पुष्पभद्रा नदीके तटपर मार्कण्डेय मुनि भगवान‍्की उपासनामें तन्मय हो रहे थे। ब्रह्मन्! उसी समय एकाएक बड़े जोरकी आँधी चलने लगी॥ १०॥

श्लोक-११

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं चण्डशब्दं समुदीरयन्तं
बलाहका अन्वभवन् करालाः।
अक्षस्थविष्ठा मुमुचुस्तडिद‍्भिः
स्वनन्त उच्चैरभिवर्षधाराः॥

मूलम्

तं चण्डशब्दं समुदीरयन्तं
बलाहका अन्वभवन् करालाः।
अक्षस्थविष्ठा मुमुचुस्तडिद‍्भिः
स्वनन्त उच्चैरभिवर्षधाराः॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय आँधीके कारण बड़ी भयंकर आवाज होने लगी और बड़े विकराल बादल आकाशमें मँडराने लगे। बिजली चमक-चमककर कड़कने लगी और रथके धुरेके समान जलकी मोटी-मोटी धाराएँ पृथ्वीपर गिरने लगीं॥ ११॥

श्लोक-१२

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो व्यदृश्यन्त चतुःसमुद्राः
समन्ततः क्ष्मातलमाग्रसन्तः।
समीरवेगोर्मिभिरुग्रनक्र-
महाभयावर्तगभीरघोषाः॥

मूलम्

ततो व्यदृश्यन्त चतुःसमुद्राः
समन्ततः क्ष्मातलमाग्रसन्तः।
समीरवेगोर्मिभिरुग्रनक्र-
महाभयावर्तगभीरघोषाः॥

अनुवाद (हिन्दी)

यही नहीं, मार्कण्डेय मुनिको ऐसा दिखायी पड़ा कि चारों ओरसे चारों समुद्र समूची पृथ्वीको निगलते हुए उमड़े आ रहे हैं। आँधीके वेगसे समुद्रमें बड़ी-बड़ी लहरें उठ रही हैं, बड़े भयंकर भँवर पड़ रहे हैं और भयंकर ध्वनि कान फाड़े डालती है। स्थान-स्थानपर बड़े-बड़े मगर उछल रहे हैं॥ १२॥

श्लोक-१३

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्तर्बहिश्चाद‍्भिरतिद्युभिः खरैः
शतह्रदाभीरुपतापितं जगत्।
चतुर्विधं वीक्ष्य सहात्मना मुनि-
र्जलाप्लुतां क्ष्मां विमनाः समत्रसत्॥

मूलम्

अन्तर्बहिश्चाद‍्भिरतिद्युभिः खरैः
शतह्रदाभीरुपतापितं जगत्।
चतुर्विधं वीक्ष्य सहात्मना मुनि-
र्जलाप्लुतां क्ष्मां विमनाः समत्रसत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय बाहर-भीतर, चारों ओर जल-ही-जल दीखता था। ऐसा जान पड़ता था कि उस जलराशिमें पृथ्वी ही नहीं, स्वर्ग भी डूबा जा रहा है; ऊपरसे बड़े वेगसे आँधी चल रही है और बिजली चमक रही है, जिससे सम्पूर्ण जगत् संतप्त हो रहा है। जब मार्कण्डेय मुनिने देखा कि इस जल-प्रलयसे सारी पृथ्वी डूब गयी है, उद‍्भिज्ज, स्वेदज, अण्डज और जरायुज—चारों प्रकारके प्राणी तथा स्वयं वे भी अत्यन्त व्याकुल हो रहे हैं, तब वे उदास हो गये और साथ ही अत्यन्त भयभीत भी॥ १३॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

चतुर्विधं देवतिर्यङ मनुष्यस्थावरात्मकं मनाक् ईषत् ॥ १३ ॥

श्लोक-१४

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्यैवमुद्वीक्षत ऊर्मिभीषणः
प्रभञ्जनाघूर्णितवार्महार्णवः।
आपूर्यमाणो वरषद‍्भिरम्बुदैः
क्ष्मामप्यधाद् द्वीपवर्षाद्रिभिः समम्॥

मूलम्

तस्यैवमुद्वीक्षत ऊर्मिभीषणः
प्रभञ्जनाघूर्णितवार्महार्णवः।
आपूर्यमाणो वरषद‍्भिरम्बुदैः
क्ष्मामप्यधाद् द्वीपवर्षाद्रिभिः समम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनके सामने ही प्रलयसमुद्रमें भयंकर लहरें उठ रही थीं, आँधीके वेगसे जलराशि उछल रही थी और प्रलयकालीन बादल बरस-बरसकर समुद्रको और भी भरते जा रहे थे। उन्होंने देखा कि समुद्रने द्वीप, वर्ष और पर्वतोंके साथ सारी पृथ्वीको डुबा दिया॥ १४॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

वाताघूर्णितजलमध्ये तिरश्चकार ॥ १४ ॥

श्लोक-१५

विश्वास-प्रस्तुतिः

सक्ष्मान्तरिक्षं सदिवं सभागणं
त्रैलोक्यमासीत् सह दिग्भिराप्लुतम्।
स एक एवोर्वरितो महामुनि-
र्बभ्राम विक्षिप्य जटा जडान्धवत्॥

मूलम्

सक्ष्मान्तरिक्षं सदिवं सभागणं
त्रैलोक्यमासीत् सह दिग्भिराप्लुतम्।
स एक एवोर्वरितो महामुनि-
र्बभ्राम विक्षिप्य जटा जडान्धवत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

पृथ्वी, अन्तरिक्ष, स्वर्ग, ज्योतिर्मण्डल (ग्रह, नक्षत्र एवं तारोंका समूह) और दिशाओंके साथ तीनों लोक जलमें डूब गये। बस, उस समय एकमात्र महामुनि मार्कण्डेय ही बच रहे थे। उस समय वे पागल और अंधेके समान जटा फैलाकर यहाँसे वहाँ और वहाँसे यहाँ भाग-भागकर अपने प्राण बचानेकी चेष्टा कर रहे थे॥ १५॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

सभागणं ज्योतिगणसहितम् उर्वरितः अवशिष्टः ॥ १५-१७ ॥

श्लोक-१६

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्षुत्तृट्परीतो मकरैस्तिमिङ्गिलै-
रुपद्रुतो वीचिनभस्वता हतः।
तमस्यपारे पतितो भ्रमन् दिशो
न वेद खं गां च परिश्रमेषितः॥

मूलम्

क्षुत्तृट्परीतो मकरैस्तिमिङ्गिलै-
रुपद्रुतो वीचिनभस्वता हतः।
तमस्यपारे पतितो भ्रमन् दिशो
न वेद खं गां च परिश्रमेषितः॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे भूख-प्याससे व्याकुल हो रहे थे। किसी ओर बड़े-बड़े मगर तो किसी ओर बड़े-बड़े तिमिंगिल मच्छ उनपर टूट पड़ते। किसी ओरसे हवाका झोंका आता, तो किसी ओरसे लहरोंके थपेड़े उन्हें घायल कर देते। इस प्रकार इधर-उधर भटकते-भटकते वे अपार अज्ञानान्धकारमें पड़ गये—बेहोश हो गये और इतने थक गये कि उन्हें पृथ्वी और आकाशका भी ज्ञान न रहा॥ १६॥

श्लोक-१७

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्वचिद् गतो महावर्ते तरलैस्ताडितः क्वचित्।
यादोभिर्भक्ष्यते क्वापि स्वयमन्योन्यघातिभिः॥

मूलम्

क्वचिद् गतो महावर्ते तरलैस्ताडितः क्वचित्।
यादोभिर्भक्ष्यते क्वापि स्वयमन्योन्यघातिभिः॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे कभी बड़े भारी भँवरमें पड़ जाते, कभी तरल तरंगोंकी चोटसे चंचल हो उठते। जब कभी जल-जन्तु आपसमें एक-दूसरेपर आक्रमण करते, तब ये अचानक ही उनके शिकार बन जाते॥ १७॥

श्लोक-१८

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्वचिच्छोकं क्वचिन्मोहं क्वचिद् दुःखं सुखं भयम्।
क्वचिन्मृत्युमवाप्नोति व्याध्यादिभिरुतार्दितः॥

मूलम्

क्वचिच्छोकं क्वचिन्मोहं क्वचिद् दुःखं सुखं भयम्।
क्वचिन्मृत्युमवाप्नोति व्याध्यादिभिरुतार्दितः॥

अनुवाद (हिन्दी)

कहीं शोकग्रस्त हो जाते तो कहीं मोहग्रस्त। कभी दुःख-ही-दुःखके निमित्त आते तो कभी तनिक सुख भी मिल जाता। कभी भयभीत होते, कभी मर जाते तो कभी तरह-तरहके रोग उन्हें सताने लगते॥ १८॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

मृत्युमिव ॥ १८-१९ ॥

श्लोक-१९

विश्वास-प्रस्तुतिः

अयुतायुतवर्षाणां सहस्राणि शतानि च।
व्यतीयुर्भ्रमतस्तस्मिन् विष्णुमायावृतात्मनः॥

मूलम्

अयुतायुतवर्षाणां सहस्राणि शतानि च।
व्यतीयुर्भ्रमतस्तस्मिन् विष्णुमायावृतात्मनः॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार मार्कण्डेय मुनि विष्णुभगवान‍्की मायाके चक्करमें मोहित हो रहे थे। उस प्रलयकालके समुद्रमें भटकते-भटकते उन्हें सैकड़ों-हजारों ही नहीं, लाखों-करोड़ों वर्ष बीत गये॥ १९॥

श्लोक-२०

विश्वास-प्रस्तुतिः

स कदाचिद् भ्रमंस्तस्मिन् पृथिव्याः ककुदि द्विजः।
न्यग्रोधपोतं ददृशे फलपल्लवशोभितम्॥

मूलम्

स कदाचिद् भ्रमंस्तस्मिन् पृथिव्याः ककुदि द्विजः।
न्यग्रोधपोतं ददृशे फलपल्लवशोभितम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

शौनकजी! मार्कण्डेय मुनि इसी प्रकार प्रलयके जलमें बहुत समयतक भटकते रहे। एक बार उन्होंने पृथ्वीके एक टीलेपर एक छोटा-सा बरगदका पेड़ देखा। उसमें हरे-हरे पत्ते और लाल-लाल फल शोभायमान हो रहे थे॥ २०॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

पृथिव्याः ककुदि उन्नतस्थले फलपुष्पाकरम् आभरणमासीनम् ॥ २० ॥

श्लोक-२१

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रागुत्तरस्यां शाखायां तस्यापि ददृशे शिशुम्।
शयानं पर्णपुटके ग्रसन्तं प्रभया तमः॥

मूलम्

प्रागुत्तरस्यां शाखायां तस्यापि ददृशे शिशुम्।
शयानं पर्णपुटके ग्रसन्तं प्रभया तमः॥

अनुवाद (हिन्दी)

बरगदके पेड़में ईशानकोणपर एक डाल थी, उसमें एक पत्तोंका दोना-सा बन गया था। उसीपर एक बड़ा ही सुन्दर नन्हा-सा शिशु लेट रहा था। उसके शरीरसे ऐसी उज्ज्वल छटा छिटक रही थी, जिससे आसपासका अँधेरा दूर हो रहा था॥ २१॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

अन्तरिदं जगत् अल्पदेशे विपुलदेशान्तर्भावोऽल्पकाले बहुकालान्तर्भावः तदितरजनात् तद्वयतिरिक्तमुक्ति पदार्थभेदतत्कालावसायि सलिलादिसृष्टिरीश्वरस्य सवशक्तित्वादुपपन्ना ॥ २१-३४ ॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे द्वादशस्कन्धे श्री सुदर्शन सूरिकृत शुकपक्षीये नवमोऽध्यायः ॥ ६ ॥

श्लोक-२२

विश्वास-प्रस्तुतिः

महामरकतश्यामं श्रीमद्वदनपङ्कजम्।
कम्बुग्रीवं महोरस्कं सुनासं सुन्दरभ्रुवम्॥

मूलम्

महामरकतश्यामं श्रीमद्वदनपङ्कजम्।
कम्बुग्रीवं महोरस्कं सुनासं सुन्दरभ्रुवम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह शिशु मरकतमणिके समान साँवल-साँवला था। मुखकमलपर सारा सौन्दर्य फूटा पड़ता था। गरदन शंखके समान उतार-चढ़ाववाली थी। छाती चौड़ी थी। तोतेकी चोंचके समान सुन्दर नासिका और भौंहें बड़ी मनोहर थीं॥ २२॥

श्लोक-२३

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्वासैजदलकाभातं कम्बुश्रीकर्णदाडिमम्।
विद्रुमाधरभासेषच्छोणायितसुधास्मितम्॥

मूलम्

श्वासैजदलकाभातं कम्बुश्रीकर्णदाडिमम्।
विद्रुमाधरभासेषच्छोणायितसुधास्मितम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

काली-काली घुँघराली अलकें कपोलोंपर लटक रही थीं और श्वास लगनेसे कभी-कभी हिल भी जाती थीं। शंखके समान घुमावदार कानोंमें अनारके लाल-लाल फूल शोभायमान हो रहे थे। मूँगेके समान लाल-लाल होठोंकी कान्तिसे उनकी सुधामयी श्वेत मुसकान कुछ लालिमामिश्रित हो गयी थी॥ २३॥

श्लोक-२४

विश्वास-प्रस्तुतिः

पद्मगर्भारुणापाङ्गं हृद्यहासावलोकनम्।
श्वासैजद‍्बलिसंविग्ननिम्ननाभिदलोदरम्॥

मूलम्

पद्मगर्भारुणापाङ्गं हृद्यहासावलोकनम्।
श्वासैजद‍्बलिसंविग्ननिम्ननाभिदलोदरम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

नेत्रोंके कोने कमलके भीतरी भागके समान तनिक लाल-लाल थे। मुसकान और चितवन बरबस हृदयको पकड़ लेती थी। बड़ी गम्भीर नाभि थी। छोटी-सी तोंद पीपलके पत्तेके समान जान पड़ती और श्वास लेनेके समय उस पर पड़ी हुई बलें तथा नाभि भी हिल जाया करती थी॥ २४॥

श्लोक-२५

विश्वास-प्रस्तुतिः

चार्वङ्गुलिभ्यां पाणिभ्यामुन्नीय चरणाम्बुजम्।
मुखे निधाय विप्रेन्द्रो धयन्तं वीक्ष्य विस्मितः॥

मूलम्

चार्वङ्गुलिभ्यां पाणिभ्यामुन्नीय चरणाम्बुजम्।
मुखे निधाय विप्रेन्द्रो धयन्तं वीक्ष्य विस्मितः॥

अनुवाद (हिन्दी)

नन्हें-नन्हें हाथोंमें बड़ी सुन्दर-सुन्दर अँगुलियाँ थीं। वह शिशु अपने दोनों करकमलोंसे एक चरणकमलको मुखमें डालकर चूस रहा था। मार्कण्डेय मुनि यह दिव्य दृश्य देखकर अत्यन्त विस्मित हो गये॥ २५॥

श्लोक-२६

विश्वास-प्रस्तुतिः

तद्दर्शनाद् वीतपरिश्रमो मुदा
प्रोत्फुल्लहृत्पद्मविलोचनाम्बुजः।
प्रहृष्टरोमाद‍्भुतभावशङ्कितः
प्रष्टुं पुरस्तं प्रससार बालकम्॥

मूलम्

तद्दर्शनाद् वीतपरिश्रमो मुदा
प्रोत्फुल्लहृत्पद्मविलोचनाम्बुजः।
प्रहृष्टरोमाद‍्भुतभावशङ्कितः
प्रष्टुं पुरस्तं प्रससार बालकम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

शौनकजी! उस दिव्य शिशुको देखते ही मार्कण्डेय मुनिकी सारी थकावट जाती रही। आनन्दसे उनके हृदय-कमल और नेत्रकमल खिल गये। शरीर पुलकित हो गया। उस नन्हें-से शिशुके इस अद‍्भुत भावको देखकर उनके मनमें तरह-तरहकी शंकाएँ—‘यह कौन है’ इत्यादि—आने लगीं और वे उस शिशुसे ये बातें पूछनेके लिये उसके सामने सरक गये॥ २६॥

श्लोक-२७

विश्वास-प्रस्तुतिः

तावच्छिशोर्वै श्वसितेन भार्गवः
सोऽन्तःशरीरं मशको यथाविशत्।
तत्राप्यदो न्यस्तमचष्ट कृत्स्नशो
यथा पुरामुह्यदतीव विस्मितः॥

मूलम्

तावच्छिशोर्वै श्वसितेन भार्गवः
सोऽन्तःशरीरं मशको यथाविशत्।
तत्राप्यदो न्यस्तमचष्ट कृत्स्नशो
यथा पुरामुह्यदतीव विस्मितः॥

अनुवाद (हिन्दी)

अभी मार्कण्डेयजी पहुँच भी न पाये थे कि उस शिशुके श्वासके साथ उसके शरीरके भीतर उसी प्रकार घुस गये, जैसे कोई मच्छर किसीके पेटमें चला जाय। उस शिशुके पेटमें जाकर उन्होंने सब-की-सब वही सृष्टि देखी, जैसी प्रलयके पहले उन्होंने देखी थी। वे वह सब विचित्र दृश्य देखकर आश्चर्यचकित हो गये। वे मोहवश कुछ सोच-विचार भी न सके॥ २७॥

श्लोक-२८

विश्वास-प्रस्तुतिः

खं रोदसी भगणानद्रिसागरान्
द्वीपान् सवर्षान् ककुभः सुरासुरान्।
वनानि देशान् सरितः पुराकरान्
खेटान् व्रजानाश्रमवर्णवृत्तयः॥

मूलम्

खं रोदसी भगणानद्रिसागरान्
द्वीपान् सवर्षान् ककुभः सुरासुरान्।
वनानि देशान् सरितः पुराकरान्
खेटान् व्रजानाश्रमवर्णवृत्तयः॥

श्लोक-२९

विश्वास-प्रस्तुतिः

महान्ति भूतान्यथ भौतिकान्यसौ
कालं च नानायुगकल्पकल्पनम्।
यत् किञ्चिदन्यद् व्यवहारकारणं
ददर्श विश्वं सदिवावभासितम्॥

मूलम्

महान्ति भूतान्यथ भौतिकान्यसौ
कालं च नानायुगकल्पकल्पनम्।
यत् किञ्चिदन्यद् व्यवहारकारणं
ददर्श विश्वं सदिवावभासितम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने उस शिशुके उदरमें आकाश, अन्तरिक्ष, ज्योतिर्मण्डल, पर्वत, समुद्र, द्वीप, वर्ष, दिशाएँ, देवता, दैत्य, वन, देश, नदियाँ, नगर, खानें, किसानोंके गाँव, अहीरोंकी बस्तियाँ, आश्रम, वर्ण, उनके आचार-व्यवहार, पंचमहाभूत, भूतोंसे बने हुए प्राणियोंके शरीर तथा पदार्थ, अनेक युग और कल्पोंके भेदसे युक्त काल आदि सब कुछ देखा। केवल इतना ही नहीं जिन देशों, वस्तुओं और कालोंके द्वारा जगत‍्का व्यवहार सम्पन्न होता है, वह सब कुछ वहाँ विद्यमान था। कहाँतक कहें, यह सम्पूर्ण विश्व न होनेपर भी वहाँ सत्यके समान प्रतीत होते देखा॥ २८-२९॥

श्लोक-३०

विश्वास-प्रस्तुतिः

हिमालयं पुष्पवहां च तां नदीं
निजाश्रमं तत्र ऋषीनपश्यत्।
विश्वं विपश्यञ्छ्वसिताच्छिशोर्वै
बहिर्निरस्तो न्यपतल्लयाब्धौ॥

मूलम्

हिमालयं पुष्पवहां च तां नदीं
निजाश्रमं तत्र ऋषीनपश्यत्।
विश्वं विपश्यञ्छ्वसिताच्छिशोर्वै
बहिर्निरस्तो न्यपतल्लयाब्धौ॥

अनुवाद (हिन्दी)

हिमालय पर्वत, वही पुष्पभद्रा नदी, उसके तटपर अपना आश्रम और वहाँ रहनेवाले ऋषियोंको भी मार्कण्डेयजीने प्रत्यक्ष ही देखा। इस प्रकार सम्पूर्ण विश्वको देखते-देखते ही वे उस दिव्य शिशुके श्वासके द्वारा ही बाहर आ गये और फिर प्रलयकालीन समुद्रमें गिर पड़े॥ ३०॥

श्लोक-३१

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मिन् पृथिव्याः ककुदि प्ररूढं
वटं च तत्पर्णपुटे शयानम्।
तोकं च तत्प्रेमसुधास्मितेन
निरीक्षितोऽपाङ्गनिरीक्षणेन॥

मूलम्

तस्मिन् पृथिव्याः ककुदि प्ररूढं
वटं च तत्पर्णपुटे शयानम्।
तोकं च तत्प्रेमसुधास्मितेन
निरीक्षितोऽपाङ्गनिरीक्षणेन॥

अनुवाद (हिन्दी)

अब फिर उन्होंने देखा कि समुद्रके बीचमें पृथ्वीके टीलेपर वही बरगदका पेड़ ज्यों-का-त्यों विद्यमान है और उसके पत्तेके दोनेमें वही शिशु सोया हुआ है। उसके अधरोंपर प्रेमामृतसे परिपूर्ण मन्द-मन्द मुसकान है और अपनी प्रेमपूर्ण चितवनसे वह मार्कण्डेयजीकी ओर देख रहा है॥ ३१॥

श्लोक-३२

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ तं बालकं वीक्ष्य नेत्राभ्यां धिष्ठितं हृदि।
अभ्ययादतिसंक्लिष्टः परिष्वक्तुमधोक्षजम्॥

मूलम्

अथ तं बालकं वीक्ष्य नेत्राभ्यां धिष्ठितं हृदि।
अभ्ययादतिसंक्लिष्टः परिष्वक्तुमधोक्षजम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

अब मार्कण्डेय मुनि इन्द्रियातीत भगवान‍्को जो शिशुके रूपमें क्रीडा कर रहे थे और नेत्रोंके मार्गसे पहले ही हृदयमें विराजमान हो चुके थे, आलिंगन करनेके लिये बड़े श्रम और कठिनाईसे आगे बढ़े॥ ३२॥

श्लोक-३३

विश्वास-प्रस्तुतिः

तावत् स भगवान् साक्षाद् योगाधीशो गुहाशयः।
अन्तर्दध ऋषेः सद्यो यथेहानीशनिर्मिता॥

मूलम्

तावत् स भगवान् साक्षाद् योगाधीशो गुहाशयः।
अन्तर्दध ऋषेः सद्यो यथेहानीशनिर्मिता॥

अनुवाद (हिन्दी)

परन्तु शौनकजी! भगवान् केवल योगियोंके ही नहीं, स्वयं योगके भी स्वामी और सबके हृदयमें छिपे रहनेवाले हैं। अभी मार्कण्डेय मुनि उनके पास पहुँच भी न पाये थे कि वे तुरंत अन्तर्धान हो गये—ठीक वैसे ही, जैसे अभागे और असमर्थ पुरुषोंके परिश्रमका पता नहीं चलता कि वह फल दिये बिना ही क्या हो गया?॥ ३३॥

श्लोक-३४

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमन्वथ वटो ब्रह्मन् सलिलं लोकसम्प्लवः।
तिरोधायि क्षणादस्य स्वाश्रमे पूर्ववत् स्थितः॥

मूलम्

तमन्वथ वटो ब्रह्मन् सलिलं लोकसम्प्लवः।
तिरोधायि क्षणादस्य स्वाश्रमे पूर्ववत् स्थितः॥

अनुवाद (हिन्दी)

शौनकजी! उस शिशुके अन्तर्धान होते ही वह बरगदका वृक्ष तथा प्रलयकालीन दृश्य एवं जल भी तत्काल लीन हो गया और मार्कण्डेय मुनिने देखा कि मैं तो पहलेके समान ही अपने आश्रममें बैठा हुआ हूँ॥ ३४॥

अनुवाद (समाप्ति)

इति श्रीमद‍्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां द्वादशस्कन्धे मायादर्शनं नाम नवमोऽध्यायः॥ ९॥