[अष्टमोऽध्यायः]
भागसूचना
मार्कण्डेयजीकी तपस्या और वर-प्राप्ति
श्लोक-१
मूलम् (वचनम्)
शौनक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
सूत जीव चिरं साधो वद नो वदतां वर।
तमस्यपारे भ्रमतां नृणां त्वं पारदर्शनः॥
मूलम्
सूत जीव चिरं साधो वद नो वदतां वर।
तमस्यपारे भ्रमतां नृणां त्वं पारदर्शनः॥
अनुवाद (हिन्दी)
शौनकजीने कहा—साधुशिरोमणि सूतजी! आप आयुष्मान् हों। सचमुच आप वक्ताओंके सिरमौर हैं। जो लोग संसारके अपार अन्धकारमें भूल-भटक रहे हैं, उन्हें आप वहाँसे निकालकर प्रकाशस्वरूप परमात्माका साक्षात्कार करा देते हैं। आप कृपा करके हमारे एक प्रश्नका उत्तर दीजिये॥ १॥
श्लोक-२
विश्वास-प्रस्तुतिः
आहुश्चिरायुषमृषिं मृकण्डतनयं जनाः।
यः कल्पान्ते उर्वरितो येन ग्रस्तमिदं जगत्॥
मूलम्
आहुश्चिरायुषमृषिं मृकण्डतनयं जनाः।
यः कल्पान्ते उर्वरितो येन ग्रस्तमिदं जगत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
लोग कहते हैं कि मृकण्ड ऋषिके पुत्र मार्कण्डेय ऋषि चिरायु हैं और जिस समय प्रलयने सारे जगत्को निगल लिया था, उस समय भी वे बचे रहे॥ २॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
मार्कण्डेयस्य एतत्कुलप्रसूतत्वे शास्त्रान्तरे परिहारो द्रष्टव्यः एतत्कल्पप्रसूतो मार्कण्डेयोऽन्यो वा स्यादित्यविरोध उर्वरितः आपदो निर्मुक्तः ॥ १-१५ ॥
श्लोक-३
विश्वास-प्रस्तुतिः
स वा अस्मत्कुलोत्पन्नः कल्पेऽस्मिन् भार्गवर्षभ।
नैवाधुनापि भूतानां सम्प्लवः कोऽपि जायते॥
मूलम्
स वा अस्मत्कुलोत्पन्नः कल्पेऽस्मिन् भार्गवर्षभ।
नैवाधुनापि भूतानां सम्प्लवः कोऽपि जायते॥
अनुवाद (हिन्दी)
परन्तु सूतजी! वे तो इसी कल्पमें हमारे ही वंशमें उत्पन्न हुए एक श्रेष्ठ भृगुवंशी हैं और जहाँतक हमें मालूम है, इस कल्पमें अबतक प्राणियोंका कोई प्रलय नहीं हुआ है॥ ३॥
श्लोक-४
विश्वास-प्रस्तुतिः
एक एवार्णवे भ्राम्यन् ददर्श पुरुषं किल।
वटपत्रपुटे तोकं शयानं त्वेकमद्भुतम्॥
मूलम्
एक एवार्णवे भ्राम्यन् ददर्श पुरुषं किल।
वटपत्रपुटे तोकं शयानं त्वेकमद्भुतम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसी स्थितिमें यह बात कैसे सत्य हो सकती है कि जिस समय सारी पृथ्वी प्रलयकालीन समुद्रमें डूब गयी थी, उस समय मार्कण्डेयजी उसमें डूब-उतरा रहे थे और उन्होंने अक्षयवटके पत्तेके दोनेमें अत्यन्त अद्भुत और सोये हुए बालमुकुन्दका दर्शन किया॥ ४॥
श्लोक-५
विश्वास-प्रस्तुतिः
एष नः संशयो भूयान् सूत कौतूहलं यतः।
तं नश्छिन्धि महायोगिन् पुराणेष्वपि सम्मतः॥
मूलम्
एष नः संशयो भूयान् सूत कौतूहलं यतः।
तं नश्छिन्धि महायोगिन् पुराणेष्वपि सम्मतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
सूतजी! हमारे मनमें बड़ा सन्देह है और इस बातको जाननेकी बड़ी उत्कण्ठा है। आप बड़े योगी हैं, पौराणिकोंमें सम्मानित हैं। आप कृपा करके हमारा यह सन्देह मिटा दीजिये॥ ५॥
श्लोक-६
मूलम् (वचनम्)
सूत उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रश्नस्त्वया महर्षेऽयं कृतो लोकभ्रमापहः।
नारायणकथा यत्र गीता कलिमलापहा॥
मूलम्
प्रश्नस्त्वया महर्षेऽयं कृतो लोकभ्रमापहः।
नारायणकथा यत्र गीता कलिमलापहा॥
अनुवाद (हिन्दी)
सूतजीने कहा—शौनकजी! आपने बड़ा सुन्दर प्रश्न किया। इससे लोगोंका भ्रम मिट जायगा और सबसे बड़ी बात तो यह है कि इस कथामें भगवान् नारायणकी महिमा है। जो इसका गान करता है, उसके सारे कलिमल नष्ट हो जाते हैं॥ ६॥
श्लोक-७
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्राप्तद्विजातिसंस्कारो मार्कण्डेयः पितुः क्रमात्।
छन्दांस्यधीत्य धर्मेण तपःस्वाध्यायसंयुतः॥
मूलम्
प्राप्तद्विजातिसंस्कारो मार्कण्डेयः पितुः क्रमात्।
छन्दांस्यधीत्य धर्मेण तपःस्वाध्यायसंयुतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
शौनकजी! मृकण्ड ऋषिने अपने पुत्र मार्कण्डेयके सभी संस्कार समय-समयपर किये। मार्कण्डेयजी विधिपूर्वक वेदोंका अध्ययन करके तपस्या और स्वाध्यायसे सम्पन्न हो गये थे॥ ७॥
श्लोक-८
विश्वास-प्रस्तुतिः
बृहद्व्रतधरः शान्तो जटिलो वल्कलाम्बरः।
बिभ्रत् कमण्डलुं दण्डमुपवीतं समेखलम्॥
मूलम्
बृहद्व्रतधरः शान्तो जटिलो वल्कलाम्बरः।
बिभ्रत् कमण्डलुं दण्डमुपवीतं समेखलम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्होंने आजीवन ब्रह्मचर्यका व्रत ले रखा था। शान्तभावसे रहते थे। सिरपर जटाएँ बढ़ा रखी थीं। वृक्षोंकी छालका ही वस्त्र पहनते थे। वे अपने हाथोंमें कमण्डलु और दण्ड धारण करते, शरीरपर यज्ञोपवीत और मेखला शोभायमान रहती॥ ८॥
श्लोक-९
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृष्णाजिनं साक्षसूत्रं कुशांश्च नियमर्द्धये।
अग्न्यर्कगुरुविप्रात्मस्वर्चयन् सन्ध्ययोर्हरिम्॥
मूलम्
कृष्णाजिनं साक्षसूत्रं कुशांश्च नियमर्द्धये।
अग्न्यर्कगुरुविप्रात्मस्वर्चयन् सन्ध्ययोर्हरिम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
काले मृगका चर्म, रुद्राक्षमाला और कुश—यही उनकी पूँजी थी। यह सब उन्होंने अपने आजीवन ब्रह्मचर्य-व्रतकी पूर्तिके लिये ही ग्रहण किया था। वे सायंकाल और प्रातःकाल अग्निहोत्र, सूर्योपस्थान, गुरुवन्दन, ब्राह्मण-सत्कार, मानस-पूजा और ‘मैं परमात्माका स्वरूप ही हूँ’ इस प्रकारकी भावना आदिके द्वारा भगवान्की आराधना करते॥ ९॥
श्लोक-१०
विश्वास-प्रस्तुतिः
सायं प्रातः स गुरवे भैक्ष्यमाहृत्य वाग्यतः।
बुभुजे गुर्वनुज्ञातः सकृन्नो चेदुपोषितः॥
मूलम्
सायं प्रातः स गुरवे भैक्ष्यमाहृत्य वाग्यतः।
बुभुजे गुर्वनुज्ञातः सकृन्नो चेदुपोषितः॥
अनुवाद (हिन्दी)
सायं-प्रातः भिक्षा लाकर गुरुदेवके चरणोंमें निवेदन कर देते और मौन हो जाते। गुरुजीकी आज्ञा होती तो एक बार खा लेते, अन्यथा उपवास कर जाते॥ १०॥
श्लोक-११
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं तपस्स्वाध्यायपरो वर्षाणामयुतायुतम्।
आराधयन् हृषीकेशं जिग्ये मृत्युं सुदुर्जयम्॥
मूलम्
एवं तपस्स्वाध्यायपरो वर्षाणामयुतायुतम्।
आराधयन् हृषीकेशं जिग्ये मृत्युं सुदुर्जयम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
मार्कण्डेयजीने इस प्रकार तपस्या और स्वाध्यायमें तत्पर रहकर करोड़ों वर्षोंतक भगवान्की आराधना की और इस प्रकार उस मृत्युपर भी विजय प्राप्त कर ली, जिसको जीतना बड़े-बड़े योगियोंके लिये भी कठिन है॥ ११॥
श्लोक-१२
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रह्मा भृगुर्भवो दक्षो ब्रह्मपुत्राश्च ये परे।
नृदेवपितृभूतानि तेनासन्नतिविस्मिताः॥
मूलम्
ब्रह्मा भृगुर्भवो दक्षो ब्रह्मपुत्राश्च ये परे।
नृदेवपितृभूतानि तेनासन्नतिविस्मिताः॥
अनुवाद (हिन्दी)
मार्कण्डेयजीकी मृत्यु-विजयको देखकर ब्रह्मा, भृगु, शंकर, दक्ष प्रजापति, ब्रह्माजीके अन्यान्य पुत्र तथा मनुष्य, देवता, पितर एवं अन्य सभी प्राणी अत्यन्त विस्मित हो गये॥ १२॥
श्लोक-१३
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्थं बृहद्व्रतधरस्तपस्स्वाध्यायसंयमैः।
दध्यावधोक्षजं योगी ध्वस्तक्लेशान्तरात्मना॥
मूलम्
इत्थं बृहद्व्रतधरस्तपस्स्वाध्यायसंयमैः।
दध्यावधोक्षजं योगी ध्वस्तक्लेशान्तरात्मना॥
अनुवाद (हिन्दी)
आजीवन ब्रह्मचर्य-व्रतधारी एवं योगी मार्कण्डेयजी इस प्रकार तपस्या, स्वाध्याय और संयम आदिके द्वारा अविद्या आदि सारे क्लेशोंको मिटाकर शुद्ध अन्तःकरणसे इन्द्रियातीत परमात्माका ध्यान करने लगे॥ १३॥
श्लोक-१४
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्यैवं युञ्जतश्चित्तं महायोगेन योगिनः।
व्यतीयाय महान् कालो मन्वन्तरषडात्मकः॥
मूलम्
तस्यैवं युञ्जतश्चित्तं महायोगेन योगिनः।
व्यतीयाय महान् कालो मन्वन्तरषडात्मकः॥
अनुवाद (हिन्दी)
योगी मार्कण्डेयजी महायोगके द्वारा अपना चित्त भगवान्के स्वरूपमें जोड़ते रहे। इस प्रकार साधन करते-करते बहुत समय—छः मन्वन्तर व्यतीत हो गये॥ १४॥
श्लोक-१५
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतत् पुरन्दरो ज्ञात्वा सप्तमेऽस्मिन् किलान्तरे।
तपोविशङ्कितो ब्रह्मन्नारेभे तद्विघातनम्॥
मूलम्
एतत् पुरन्दरो ज्ञात्वा सप्तमेऽस्मिन् किलान्तरे।
तपोविशङ्कितो ब्रह्मन्नारेभे तद्विघातनम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्मन्! इस सातवें मन्वन्तरमें जब इन्द्रको इस बातका पता चला, तब तो वे उनकी तपस्यासे शंकित और भयभीत हो गये। इसलिये उन्होंने उनकी तपस्यामें विघ्न डालना आरम्भ कर दिया॥ १५॥
श्लोक-१६
विश्वास-प्रस्तुतिः
गन्धर्वाप्सरसः कामं वसन्तमलयानिलौ।
मुनये प्रेषयामास रजस्तोकमदौ तथा॥
मूलम्
गन्धर्वाप्सरसः कामं वसन्तमलयानिलौ।
मुनये प्रेषयामास रजस्तोकमदौ तथा॥
अनुवाद (हिन्दी)
शौनकजी! इन्द्रने मार्कण्डेयजीकी तपस्यामें विघ्न डालनेके लिये उनके आश्रमपर गन्धर्व, अप्सराएँ, काम, वसन्त, मलयानिल, लोभ और मदको भेजा॥ १६॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
रजस्तोक इति कस्यचिन्नाम ॥ १६-२९ ॥
श्लोक-१७
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते वै तदाश्रमं जग्मुर्हिमाद्रेः पार्श्व उत्तरे।
पुष्पभद्रा नदी यत्र चित्राख्या च शिला विभो॥
मूलम्
ते वै तदाश्रमं जग्मुर्हिमाद्रेः पार्श्व उत्तरे।
पुष्पभद्रा नदी यत्र चित्राख्या च शिला विभो॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवन्! वे सब उनकी आज्ञाके अनुसार उनके आश्रमपर गये। मार्कण्डेयजीका आश्रम हिमालयके उत्तरकी ओर है। वहाँ पुष्पभद्रा नामकी नदी बहती है और उसके पास ही चित्रा नामकी एक शिला है॥ १७॥
श्लोक-१८
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदाश्रमपदं पुण्यं पुण्यद्रुमलताञ्चितम्।
पुण्यद्विजकुलाकीर्णं पुण्यामलजलाशयम्॥
मूलम्
तदाश्रमपदं पुण्यं पुण्यद्रुमलताञ्चितम्।
पुण्यद्विजकुलाकीर्णं पुण्यामलजलाशयम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
शौनकजी! मार्कण्डेयजीका आश्रम बड़ा ही पवित्र है। चारों ओर हरे-भरे पवित्र वृक्षोंकी पंक्तियाँ हैं, उनपर लताएँ लहलहाती रहती हैं। वृक्षोंके झुरमुटमें स्थान-स्थानपर पुण्यात्मा ऋषिगण निवास करते हैं और बड़े ही पवित्र एवं निर्मल जलसे भरे जलाशय सब ऋतुओंमें एक-से ही रहते हैं॥ १८॥
श्लोक-१९
विश्वास-प्रस्तुतिः
मत्तभ्रमरसङ्गीतं मत्तकोकिलकूजितम्।
मत्तबर्हिनटाटोपं मत्तद्विजकुलाकुलम्॥
मूलम्
मत्तभ्रमरसङ्गीतं मत्तकोकिलकूजितम्।
मत्तबर्हिनटाटोपं मत्तद्विजकुलाकुलम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
कहीं मतवाले भौंरे अपनी संगीतमयी गुंजारसे लोगोंका मन आकर्षित करते रहते हैं तो कहीं मतवाले कोकिल पंचम स्वरमें ‘कुहू-कुहू’ कूकते रहते हैं; कहीं मतवाले मोर अपने पंख फैलाकर कलापूर्ण नृत्य करते रहते हैं तो कहीं अन्य मतवाले पक्षियोंका झुंड खेलता रहता है॥ १९॥
श्लोक-२०
विश्वास-प्रस्तुतिः
वायुः प्रविष्ट आदाय हिमनिर्झरशीकरान्।
सुमनोभिः परिष्वक्तो ववावुत्तम्भयन् स्मरम्॥
मूलम्
वायुः प्रविष्ट आदाय हिमनिर्झरशीकरान्।
सुमनोभिः परिष्वक्तो ववावुत्तम्भयन् स्मरम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
मार्कण्डेय मुनिके ऐसे पवित्र आश्रममें इन्द्रके भेजे हुए वायुने प्रवेश किया। वहाँ उसने पहले शीतल झरनोंकी नन्हीं-नन्हीं फुहियाँ संग्रह कीं। इसके बाद सुगन्धित पुष्पोंका आलिंगन किया और फिर कामभावको उत्तेजित करते हुए धीरे-धीरे बहने लगा॥ २०॥
श्लोक-२१
विश्वास-प्रस्तुतिः
उद्यच्चन्द्रनिशावक्त्रः प्रवालस्तबकालिभिः।
गोपद्रुमलताजालैस्तत्रासीत् कुसुमाकरः॥
मूलम्
उद्यच्चन्द्रनिशावक्त्रः प्रवालस्तबकालिभिः।
गोपद्रुमलताजालैस्तत्रासीत् कुसुमाकरः॥
अनुवाद (हिन्दी)
कामदेवके प्यारे सखा वसन्तने भी अपनी माया फैलायी। सन्ध्याका समय था। चन्द्रमा उदित हो अपनी मनोहर किरणोंका विस्तार कर रहे थे। सहस्र-सहस्र डालियोंवाले वृक्ष लताओंका आलिंगन पाकर धरतीतक झुके हुए थे। नयी-नयी कोपलों, फलों और फूलोंके गुच्छे अलग ही शोभायमान हो रहे थे॥ २१॥
श्लोक-२२
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्वीयमानो गन्धर्वैर्गीतवादित्रयूथकैः।
अदृश्यतात्तचापेषुः स्वःस्त्रीयूथपतिः स्मरः॥
मूलम्
अन्वीयमानो गन्धर्वैर्गीतवादित्रयूथकैः।
अदृश्यतात्तचापेषुः स्वःस्त्रीयूथपतिः स्मरः॥
अनुवाद (हिन्दी)
वसन्तका साम्राज्य देखकर कामदेवने भी वहाँ प्रवेश किया। उसके साथ गाने-बजानेवाले गन्धर्व झुंड-के-झुंड चल रहे थे, उसके चारों ओर बहुत-सी स्वर्गीय अप्सराएँ चल रही थीं और अकेला काम ही सबका नायक था। उसके हाथमें पुष्पोंका धनुष और उसपर सम्मोहन आदि बाण चढ़े हुए थे॥ २२॥
श्लोक-२३
विश्वास-प्रस्तुतिः
हुत्वाग्निं समुपासीनं ददृशुः शक्रकिङ्कराः।
मीलिताक्षं दुराधर्षं मूर्तिमन्तमिवानलम्॥
मूलम्
हुत्वाग्निं समुपासीनं ददृशुः शक्रकिङ्कराः।
मीलिताक्षं दुराधर्षं मूर्तिमन्तमिवानलम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय मार्कण्डेय मुनि अग्निहोत्र करके भगवान्की उपासना कर रहे थे। उनके नेत्र बंद थे। वे इतने तेजस्वी थे, मानो स्वयं अग्निदेव ही मूर्तिमान् होकर बैठे हों! उनको देखनेसे ही मालूम हो जाता था कि इनको पराजित कर सकना बहुत ही कठिन है। इन्द्रके आज्ञाकारी सेवकोंने मार्कण्डेय मुनिको इसी अवस्थामें देखा॥ २३॥
श्लोक-२४
विश्वास-प्रस्तुतिः
ननृतुस्तस्य पुरतः स्त्रियोऽथो गायका जगुः।
मृदङ्गवीणापणवैर्वाद्यं चक्रुर्मनोरमम्॥
मूलम्
ननृतुस्तस्य पुरतः स्त्रियोऽथो गायका जगुः।
मृदङ्गवीणापणवैर्वाद्यं चक्रुर्मनोरमम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
अब अप्सराएँ उनके सामने नाचने लगीं। कुछ गन्धर्व मधुर गान करने लगे तो कुछ मृदंग, वीणा, ढोल आदि बाजे बड़े मनोहर स्वरमें बजाने लगे॥ २४॥
श्लोक-२५
विश्वास-प्रस्तुतिः
सन्दधेऽस्त्रं स्वधनुषि कामः पञ्चमुखं तदा।
मधुर्मनो रजस्तोक इन्द्रभृत्या व्यकम्पयन्॥
मूलम्
सन्दधेऽस्त्रं स्वधनुषि कामः पञ्चमुखं तदा।
मधुर्मनो रजस्तोक इन्द्रभृत्या व्यकम्पयन्॥
अनुवाद (हिन्दी)
शौनकजी! अब कामदेवने अपने पुष्पनिर्मित धनुषपर पंचमुख बाण चढ़ाया। उसके बाणके पाँच मुख हैं—शोषण, दीपन, सम्मोहन, तापन और उन्मादन। जिस समय वह निशाना लगानेकी ताकमें था, उस समय इन्द्रके सेवक वसन्त और लोभ मार्कण्डेयमुनिका मन विचलित करनेके लिये प्रयत्नशील थे॥ २५॥
श्लोक-२६
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्रीडन्त्याः पुञ्जिकस्थल्याः कन्दुकैः स्तनगौरवात्।
भृशमुद्विग्नमध्यायाः केशविस्रंसितस्रजः॥
मूलम्
क्रीडन्त्याः पुञ्जिकस्थल्याः कन्दुकैः स्तनगौरवात्।
भृशमुद्विग्नमध्यायाः केशविस्रंसितस्रजः॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके सामने ही पुंजिकस्थली नामकी सुन्दरी अप्सरा गेंद खेल रही थी। स्तनोंके भारसे बार-बार उसकी कमर लचक जाया करती थी। साथ ही उसकी चोटियोंमें गुँथे हुए सुन्दर-सुन्दर पुष्प और मालाएँ बिखरकर धरतीपर गिरती जा रही थीं॥ २६॥
श्लोक-२७
विश्वास-प्रस्तुतिः
इतस्ततो भ्रमद्दृष्टेश्चलन्त्या अनुकन्दुकम्।
वायुर्जहार तद्वासः सूक्ष्मं त्रुटितमेखलम्॥
मूलम्
इतस्ततो भ्रमद्दृष्टेश्चलन्त्या अनुकन्दुकम्।
वायुर्जहार तद्वासः सूक्ष्मं त्रुटितमेखलम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
कभी-कभी वह तिरछी चितवनसे इधर-उधर देख लिया करती थी। उसके नेत्र कभी गेंदके साथ आकाशकी ओर जाते, कभी धरतीकी ओर और कभी हथेलियोंकी ओर। वह बड़े हाव-भावके साथ गेंदकी ओर दौड़ती थी। उसी समय उसकी करधनी टूट गयी और वायुने उसकी झीनी-सी साड़ीको शरीरसे अलग कर दिया॥ २७॥
श्लोक-२८
विश्वास-प्रस्तुतिः
विससर्ज तदा बाणं मत्वा तं स्वजितं स्मरः।
सर्वं तत्राभवन्मोघमनीशस्य यथोद्यमः॥
मूलम्
विससर्ज तदा बाणं मत्वा तं स्वजितं स्मरः।
सर्वं तत्राभवन्मोघमनीशस्य यथोद्यमः॥
अनुवाद (हिन्दी)
कामदेवने अपना उपयुक्त अवसर देखकर और यह समझकर कि अब मार्कण्डेय मुनिको मैंने जीत लिया, उनके ऊपर अपना बाण छोड़ा। परन्तु उसकी एक न चली। मार्कण्डेय मुनिपर उसका सारा उद्योग निष्फल हो गया—ठीक वैसे ही, जैसे असमर्थ और अभागे पुरुषोंके प्रयत्न विफल हो जाते हैं॥ २८॥
श्लोक-२९
विश्वास-प्रस्तुतिः
त इत्थमपकुर्वन्तो मुनेस्तत्तेजसा मुने।
दह्यमाना निववृतुः प्रबोध्याहिमिवार्भकाः॥
मूलम्
त इत्थमपकुर्वन्तो मुनेस्तत्तेजसा मुने।
दह्यमाना निववृतुः प्रबोध्याहिमिवार्भकाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
शौनकजी! मार्कण्डेय मुनि अपरिमित तेजस्वी थे। काम, वसन्त आदि आये तो थे इसलिये कि उन्हें तपस्यासे भ्रष्ट कर दें; परन्तु अब उनके तेजसे जलने लगे और ठीक उसी प्रकार भाग गये, जैसे छोटे-छोटे बच्चे सोते हुए साँपको जगाकर भाग जाते हैं॥ २९॥
श्लोक-३०
विश्वास-प्रस्तुतिः
इतीन्द्रानुचरैर्ब्रह्मन् धर्षितोऽपि महामुनिः।
यन्नागादहमो भावं न तच्चित्रं महत्सु हि॥
मूलम्
इतीन्द्रानुचरैर्ब्रह्मन् धर्षितोऽपि महामुनिः।
यन्नागादहमो भावं न तच्चित्रं महत्सु हि॥
अनुवाद (हिन्दी)
शौनकजी! इन्द्रके सेवकोंने इस प्रकार मार्कण्डेयजीको पराजित करना चाहा, परन्तु वे रत्तीभर भी विचलित न हुए। इतना ही नहीं, उनके मनमें इस बातको लेकर तनिक भी अहंकारका भाव न हुआ। सच है, महापुरुषोंके लिये यह कौन-सी आश्चर्यकी बात है॥ ३०॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
अहमो भावं अहङ्कारं रागात् न प्राप्तः ॥ ३०-३९॥
श्लोक-३१
विश्वास-प्रस्तुतिः
दृष्ट्वा निस्तेजसं कामं सगणं भगवान् स्वराट्।
श्रुत्वानुभावं ब्रह्मर्षेर्विस्मयं समगात् परम्॥
मूलम्
दृष्ट्वा निस्तेजसं कामं सगणं भगवान् स्वराट्।
श्रुत्वानुभावं ब्रह्मर्षेर्विस्मयं समगात् परम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब देवराज इन्द्रने देखा कि कामदेव अपनी सेनाके साथ निस्तेज—हतप्रभ होकर लौटा है और सुना कि ब्रह्मर्षि मार्कण्डेयजी परम प्रभावशाली हैं, तब उन्हें बड़ा ही आश्चर्य हुआ॥ ३१॥
श्लोक-३२
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्यैवं युञ्जतश्चित्तं तपःस्वाध्यायसंयमैः।
अनुग्रहायाविरासीन्नरनारायणो हरिः॥
मूलम्
तस्यैवं युञ्जतश्चित्तं तपःस्वाध्यायसंयमैः।
अनुग्रहायाविरासीन्नरनारायणो हरिः॥
अनुवाद (हिन्दी)
शौनकजी! मार्कण्डेय मुनि तपस्या, स्वाध्याय, धारणा, ध्यान और समाधिके द्वारा भगवान्में चित्त लगानेका प्रयत्न करते रहते थे। अब उनपर कृपाप्रसादकी वर्षा करनेके लिये मुनिजन-नयन-मनोहारी नरोत्तम नर और भगवान् नारायण प्रकट हुए॥ ३२॥
श्लोक-३३
विश्वास-प्रस्तुतिः
तौ शुक्लकृष्णौ नवकञ्जलोचनौ
चतुर्भुजौ रौरववल्कलाम्बरौ।
पवित्रपाणी उपवीतकं त्रिवृत्
कमण्डलुं दण्डमृजुं च वैणवम्॥
मूलम्
तौ शुक्लकृष्णौ नवकञ्जलोचनौ
चतुर्भुजौ रौरववल्कलाम्बरौ।
पवित्रपाणी उपवीतकं त्रिवृत्
कमण्डलुं दण्डमृजुं च वैणवम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन दोनोंमें एकका शरीर गौरवर्ण था और दूसरेका श्याम। दोनोंके ही नेत्र तुरंतके खिले हुए कमलके समान कोमल और विशाल थे। चार-चार भुजाएँ थीं। एक मृगचर्म पहने हुए थे तो दूसरे वृक्षकी छाल। हाथोंमें कुश लिये हुए थे और गलेमें तीन-तीन सूतके यज्ञोपवीत शोभायमान थे। वे कमण्डलु और बाँसका सीधा दण्ड ग्रहण किये हुए थे॥ ३३॥
श्लोक-३४
विश्वास-प्रस्तुतिः
पद्माक्षमालामुत जन्तुमार्जनं
वेदं च साक्षात्तप एव रूपिणौ।
तपत्तडिद्वर्णपिशङ्गरोचिषा
प्रांशू दधानौ विबुधर्षभार्चितौ॥
मूलम्
पद्माक्षमालामुत जन्तुमार्जनं
वेदं च साक्षात्तप एव रूपिणौ।
तपत्तडिद्वर्णपिशङ्गरोचिषा
प्रांशू दधानौ विबुधर्षभार्चितौ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कमलगट्टेकी माला और जीवोंको हटानेके लिये वस्त्रकी कूँची भी रखे हुए थे। ब्रह्मा, इन्द्र आदिके भी पूज्य भगवान् नर-नारायण कुछ ऊँचे कदके थे और वेद धारण किये हुए थे। उनके शरीरसे चमकती हुई बिजलीके समान पीले-पीले रंगकी कान्ति निकल रही थी। वे ऐसे मालूम होते थे, मानो स्वयं तप ही मूर्तिमान् हो गया हो॥ ३४॥
श्लोक-३५
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते वै भगवतो रूपे नरनारायणावृषी।
दृष्ट्वोत्थायादरेणोच्चैर्ननामाङ्गेन दण्डवत्॥
मूलम्
ते वै भगवतो रूपे नरनारायणावृषी।
दृष्ट्वोत्थायादरेणोच्चैर्ननामाङ्गेन दण्डवत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब मार्कण्डेय मुनिने देखा कि भगवान्के साक्षात् स्वरूप नर-नारायण ऋषि पधारे हैं, तब वे बड़े आदरभावसे उठकर खड़े हो गये और धरतीपर दण्डवत् लोटकर साष्टांग प्रणाम किया॥ ३५॥
श्लोक-३६
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तत्सन्दर्शनानन्दनिर्वृतात्मेन्द्रियाशयः।
हृष्टरोमाश्रुपूर्णाक्षो न सेहे तावुदीक्षितुम्॥
मूलम्
स तत्सन्दर्शनानन्दनिर्वृतात्मेन्द्रियाशयः।
हृष्टरोमाश्रुपूर्णाक्षो न सेहे तावुदीक्षितुम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान्के दिव्य दर्शनसे उन्हें इतना आनन्द हुआ कि उनका रोम-रोम, उनकी सारी इन्द्रियाँ एवं अन्तःकरण शान्तिके समुद्रमें गोता खाने लगे। शरीर पुलकित हो गया। नेत्रोंमें आँसू उमड़ आये, जिनके कारण वे उन्हें भर आँख देख भी न सकते॥ ३६॥
श्लोक-३७
विश्वास-प्रस्तुतिः
उत्थाय प्राञ्जलिः प्रह्व औत्सुक्यादाश्लिषन्निव।
नमो नम इतीशानौ बभाषे गद्गदाक्षरः॥
मूलम्
उत्थाय प्राञ्जलिः प्रह्व औत्सुक्यादाश्लिषन्निव।
नमो नम इतीशानौ बभाषे गद्गदाक्षरः॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर वे हाथ जोड़कर उठ खड़े हुए। उनका अंग-अंग भगवान्के सामने झुका जा रहा था। उनके हृदयमें उत्सुकता तो इतनी थी, मानो वे भगवान्का आलिंगन कर लेंगे। उनसे और कुछ तो बोला न गया, गद्गद वाणीसे केवल इतना ही कहा—‘नमस्कार! नमस्कार’॥ ३७॥
श्लोक-३८
विश्वास-प्रस्तुतिः
तयोरासनमादाय पादयोरवनिज्य च।
अर्हणेनानुलेपेन धूपमाल्यैरपूजयत्॥
मूलम्
तयोरासनमादाय पादयोरवनिज्य च।
अर्हणेनानुलेपेन धूपमाल्यैरपूजयत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसके बाद उन्होंने दोनोंको आसनपर बैठाया, बड़े प्रेमसे उनके चरण पखारे और अर्घ्य, चन्दन, धूप और माला आदिसे उनकी पूजा करने लगे॥ ३८॥
श्लोक-३९
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुखमासनमासीनौ प्रसादाभिमुखौ मुनी।
पुनरानम्य पादाभ्यां गरिष्ठाविदमब्रवीत्॥
मूलम्
सुखमासनमासीनौ प्रसादाभिमुखौ मुनी।
पुनरानम्य पादाभ्यां गरिष्ठाविदमब्रवीत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् नर-नारायण सुखपूर्वक आसनपर विराजमान थे और मार्कण्डेयजीपर कृपा-प्रसादकी वर्षा कर रहे थे। पूजाके अनन्तर मार्कण्डेय मुनिने उन सर्वश्रेष्ठ मुनिवेषधारी नर-नारायणके चरणोंमें प्रणाम किया और यह स्तुति की॥ ३९॥
श्लोक-४०
मूलम् (वचनम्)
मार्कण्डेय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
किं वर्णये तव विभो यदुदीरितोऽसुः
संस्पन्दते तमनु वाङ्मनइन्द्रियाणि।
स्पन्दन्ति वै तनुभृतामजशर्वयोश्च
स्वस्याप्यथापि भजतामसि भावबन्धुः॥
मूलम्
किं वर्णये तव विभो यदुदीरितोऽसुः
संस्पन्दते तमनु वाङ्मनइन्द्रियाणि।
स्पन्दन्ति वै तनुभृतामजशर्वयोश्च
स्वस्याप्यथापि भजतामसि भावबन्धुः॥
अनुवाद (हिन्दी)
मार्कण्डेय मुनिने कहा—भगवन्! मैं अल्पज्ञ जीव भला, आपकी अनन्त महिमाका कैसे वर्णन करूँ? आपकी प्रेरणासे ही सम्पूर्ण प्राणियों—ब्रह्मा, शंकर तथा मेरे शरीरमें भी प्राणशक्तिका संचार होता है और फिर उसीके कारण वाणी, मन तथा इन्द्रियोंमें भी बोलने, सोचने-विचारने और करने-जाननेकी शक्ति आती है। इस प्रकार सबके प्रेरक और परम स्वतन्त्र होनेपर भी आप अपना भजन करनेवाले भक्तोंके प्रेम-बन्धनमें बँधे हुए हैं॥ ४०॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
यदुदीरितो येन प्रेरितः असुः प्राणः स्वस्यापि तथापि सर्वस्मात्परोपि ॥ ४०-४२ ॥
श्लोक-४१
विश्वास-प्रस्तुतिः
मूर्ती इमे भगवतो भगवंस्त्रिलोक्याः
क्षेमाय तापविरमाय च मृत्युजित्यै।
नाना बिभर्ष्यवितुमन्यतनूर्यथेदं
सृष्ट्वा पुनर्ग्रससि सर्वमिवोर्णनाभिः॥
मूलम्
मूर्ती इमे भगवतो भगवंस्त्रिलोक्याः
क्षेमाय तापविरमाय च मृत्युजित्यै।
नाना बिभर्ष्यवितुमन्यतनूर्यथेदं
सृष्ट्वा पुनर्ग्रससि सर्वमिवोर्णनाभिः॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रभो! आपने केवल विश्वकी रक्षाके लिये ही जैसे मत्स्य-कूर्म आदि अनेकों अवतार ग्रहण किये हैं, वैसे ही आपने ये दोनों रूप भी त्रिलोकीके कल्याण, उसकी दुःख-निवृत्ति और विश्वके प्राणियोंको मृत्युपर विजय प्राप्त करानेके लिये ग्रहण किया है। आप रक्षा तो करते ही हैं, मकड़ीके समान अपनेसे ही इस विश्वको प्रकट करते हैं और फिर स्वयं अपनेमें ही लीन भी कर लेते हैं॥ ४१॥
श्लोक-४२
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्यावितुः स्थिरचरेशितुरङ्घ्रिमूलं
यत्स्थं न कर्मगुणकालरुजः स्पृशन्ति।
यद् वै स्तुवन्ति निनमन्ति यजन्त्यभीक्ष्णं
ध्यायन्ति वेदहृदया मुनयस्तदाप्त्यै॥
मूलम्
तस्यावितुः स्थिरचरेशितुरङ्घ्रिमूलं
यत्स्थं न कर्मगुणकालरुजः स्पृशन्ति।
यद् वै स्तुवन्ति निनमन्ति यजन्त्यभीक्ष्णं
ध्यायन्ति वेदहृदया मुनयस्तदाप्त्यै॥
अनुवाद (हिन्दी)
आप चराचरका पालन और नियमन करनेवाले हैं। मैं आपके चरणकमलोंमें प्रणाम करता हूँ। जो आपके चरणकमलोंकी शरण ग्रहण कर लेते हैं, उन्हें कर्म, गुण और कालजनित क्लेश स्पर्श भी नहीं कर सकते। वेदके मर्मज्ञ ऋषि-मुनि आपकी प्राप्तिके लिये निरन्तर आपका स्तवन, वन्दन, पूजन और ध्यान किया करते हैं॥ ४२॥
श्लोक-४३
विश्वास-प्रस्तुतिः
नान्यं तवाङ्घ्र्युपनयादपवर्गमूर्तेः
क्षेमं जनस्य परितोभिय ईश विद्मः।
ब्रह्मा बिभेत्यलमतो द्विपरार्धधिष्ण्यः
कालस्य ते किमुत तत्कृतभौतिकानाम्॥
मूलम्
नान्यं तवाङ्घ्र्युपनयादपवर्गमूर्तेः
क्षेमं जनस्य परितोभिय ईश विद्मः।
ब्रह्मा बिभेत्यलमतो द्विपरार्धधिष्ण्यः
कालस्य ते किमुत तत्कृतभौतिकानाम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रभो! जीवके चारों ओर भय-ही-भयका बोलबाला है। औरोंकी तो बात ही क्या, आपके कालरूपसे स्वयं ब्रह्मा भी अत्यन्त भयभीत रहते हैं; क्योंकि उनकी आयु भी सीमित—केवल दो परार्धकी है। फिर उनके बनाये हुए भौतिक शरीरवाले प्राणियोंके सम्बन्धमें तो कहना ही क्या है। ऐसी अवस्थामें आपके चरणकमलोंकी शरण ग्रहण करनेके अतिरिक्त और कोई भी परम कल्याण तथा सुख-शान्तिका उपाय हमारी समझमें नहीं आता; क्योंकि आप स्वयं ही मोक्षस्वरूप हैं॥ ४३॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
परितोभियः सर्वमुखभयस्य जनस्य द्विपरार्द्धकालस्यापि लोकाः कालस्य कालरूपस्य ते त्वत्तः ॥ ४३ ॥
श्लोक-४४
विश्वास-प्रस्तुतिः
तद् वै भजाम्यृतधियस्तव पादमूलं
हित्वेदमात्मच्छदि चात्मगुरोः परस्य।
देहाद्यपार्थमसदन्त्यमभिज्ञमात्रं
विन्देत ते तर्हि सर्वमनीषितार्थम्॥
मूलम्
तद् वै भजाम्यृतधियस्तव पादमूलं
हित्वेदमात्मच्छदि चात्मगुरोः परस्य।
देहाद्यपार्थमसदन्त्यमभिज्ञमात्रं
विन्देत ते तर्हि सर्वमनीषितार्थम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवन्! आप समस्त जीवोंके परम गुरु, सबसे श्रेष्ठ और सत्य ज्ञानस्वरूप हैं। इसलिये आत्मस्वरूपको ढक देनेवाले देह-गेह आदि निष्फल, असत्य, नाशवान् और प्रतीतिमात्र पदार्थोंको त्याग कर मैं आपके चरणकमलोंकी ही शरण ग्रहण करता हूँ। कोई भी प्राणी यदि आपकी शरण ग्रहण कर लेता है तो वह उससे अपने सारे अभीष्ट पदार्थ प्राप्त कर लेता है॥ ४४॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
ऋतधियः सत्यसङ्कल्पस्य परस्यात्मगुरोस्तव पादमूलम् आत्माभिमतं मूलं भजामि सर्वाभीष्टपुरुषार्थरूपं यत्पादं मुमुक्षुः जनो देहादिकमपास्य विन्देत ॥ ४४ ॥
श्लोक-४५
विश्वास-प्रस्तुतिः
सत्त्वं रजस्तम इतीश तवात्मबन्धो
मायामयाः स्थितिलयोदयहेतवोऽस्य।
लीला धृता यदपि सत्त्वमयी प्रशान्त्यै
नान्ये नृणां व्यसनमोहभियश्च याभ्याम्॥
मूलम्
सत्त्वं रजस्तम इतीश तवात्मबन्धो
मायामयाः स्थितिलयोदयहेतवोऽस्य।
लीला धृता यदपि सत्त्वमयी प्रशान्त्यै
नान्ये नृणां व्यसनमोहभियश्च याभ्याम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
जीवोंके परम सुहृद् प्रभो! यद्यपि सत्त्व, रज और तम—ये तीनों गुण आपकी ही मूर्ति हैं—इन्हींके द्वारा आप जगत्की उत्पत्ति, स्थिति, लय आदि अनेकों मायामयी लीलाएँ करते हैं फिर भी आपकी सत्त्वगुणमयी मूर्ति ही जीवोंको शान्ति प्रदान करती है। रजोगुणी और तमोगुणी मूर्तियोंसे जीवोंको शान्ति नहीं मिल सकती। उनसे तो दुःख, मोह और भयकी वृद्धि ही होती है॥ ४५॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
मायामयाः प्रकृतिसम्बन्धिन्यस्तनव इत्यध्याहारः शुक्लां तनुमित्यनन्तरोक्तेः लीलाधृता लीलया धृता अन्ये रजस्तमसी न प्रशान्त्ये याभ्यां व्यसनादिः स्यात् ॥ ४५ ॥
श्लोक-४६
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मात्तवेह भगवन्नथ तावकानां
शुक्लां तनुं स्वदयितां कुशला भजन्ति।
यत् सात्वताः पुरुषरूपमुशन्ति सत्त्वं
लोको यतोऽभयमुतात्मसुखं न चान्यत्॥
मूलम्
तस्मात्तवेह भगवन्नथ तावकानां
शुक्लां तनुं स्वदयितां कुशला भजन्ति।
यत् सात्वताः पुरुषरूपमुशन्ति सत्त्वं
लोको यतोऽभयमुतात्मसुखं न चान्यत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवन्! इसलिये बुद्धिमान् पुरुष आपकी और आपके भक्तोंकी परम प्रिय एवं शुद्ध मूर्ति नर-नारायणकी ही उपासना करते हैं। पांचरात्र-सिद्धान्तके अनुयायी विशुद्ध सत्त्वको ही आपका श्रीविग्रह मानते हैं। उसीकी उपासनासे आपके नित्यधाम वैकुण्ठकी प्राप्ति होती है। उस धामकी यह विलक्षणता है कि वह लोक होनेपर भी सर्वथा भयरहित और भोगयुक्त होनेपर भी आत्मानन्दसे परिपूर्ण है। वे रजोगुण और तमोगुणको आपकी मूर्ति स्वीकार नहीं करते॥ ४६॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
यत्सत्त्वं ते रूपं सात्वता उशन्ति तल्लोकाय आत्मज्ञानाय ज्ञानप्रदमित्यर्थः ॥ ४६ ॥ आत्मसुखम् आत्मानुभवमेव चाभयं नान्यत् अन्यत् सुखं मयमिश्रमित्यर्थः ॥ ४७ ॥
श्लोक-४७
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मै नमो भगवते पुरुषाय भूम्ने
विश्वाय विश्वगुरवे परदेवतायै।
नारायणाय ऋषये च नरोत्तमाय
हंसाय संयतगिरे निगमेश्वराय॥
मूलम्
तस्मै नमो भगवते पुरुषाय भूम्ने
विश्वाय विश्वगुरवे परदेवतायै।
नारायणाय ऋषये च नरोत्तमाय
हंसाय संयतगिरे निगमेश्वराय॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवन्! आप अन्तर्यामी, सर्वव्यापक, सर्वस्वरूप, जगद्गुरु परमाराध्य और शुद्धस्वरूप हैं। समस्त लौकिक और वैदिक वाणी आपके अधीन है। आप ही वेदमार्गके प्रवर्तक हैं। मैं आपके इस युगल स्वरूप नरोत्तम नर और ऋषिवर नारायणको नमस्कार करता हूँ॥ ४७॥
श्लोक-४८
विश्वास-प्रस्तुतिः
यं वै न वेद वितथाक्षपथैर्भ्रमद्धीः
सन्तं स्वखेष्वसुषु हृद्यपि दृक्पथेषु।
तन्माययाऽऽवृतमतिः स उ एव साक्षा-
दाद्यस्तवाखिलगुरोरुपसाद्य वेदम्॥
मूलम्
यं वै न वेद वितथाक्षपथैर्भ्रमद्धीः
सन्तं स्वखेष्वसुषु हृद्यपि दृक्पथेषु।
तन्माययाऽऽवृतमतिः स उ एव साक्षा-
दाद्यस्तवाखिलगुरोरुपसाद्य वेदम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
आप यद्यपि प्रत्येक जीवकी इन्द्रियों तथा उनके विषयोंमें, प्राणोंमें तथा हृदयमें भी विद्यमान हैं तो भी आपकी मायासे जीवकी बुद्धि इतनी मोहित हो जाती है—ढक जाती है कि वह निष्फल और झूठी इन्द्रियोंके जालमें फँसकर आपकी झाँकीसे वंचित हो जाता है। किन्तु सारे जगत्के गुरु तो आप ही हैं। इसलिये पहले अज्ञानी होनेपर भी जब आपकी कृपासे उसे आपके ज्ञान-भण्डार वेदोंकी प्राप्ति होती है, तब वह आपके साक्षात् दर्शन कर लेता है॥ ४८॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
यं वै इति वितयाक्षपथैः भ्रमद्धीः मौघैरिन्द्रियैः विषयेषु भ्रान्तमना: जन्तुः सर्वपदार्थेषु सन्तमपि न वेद तं त्वामन्यो विलक्षणाधिकारी तवाङ्घ्रिमुपसाद्य त्वां वेद अङ त्रिमित्यध्याहारेण योजना । यद्वा, अखिलगुरोरिति द्वितीयार्थे षष्ठी ॥ ४८ ॥
श्लोक-४९
विश्वास-प्रस्तुतिः
यद्दर्शनं निगम आत्मरहःप्रकाशं
मुह्यन्ति यत्र कवयोऽजपरा यतन्तः।
तं सर्ववादविषयप्रतिरूपशीलं
वन्दे महापुरुषमात्मनिगूढबोधम्॥
मूलम्
यद्दर्शनं निगम आत्मरहःप्रकाशं
मुह्यन्ति यत्र कवयोऽजपरा यतन्तः।
तं सर्ववादविषयप्रतिरूपशीलं
वन्दे महापुरुषमात्मनिगूढबोधम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रभो! वेदमें आपका साक्षात्कार करानेवाला वह ज्ञान पूर्णरूपसे विद्यमान है, जो आपके स्वरूपका रहस्य प्रकट करता है। ब्रह्मा आदि बड़े-बड़े प्रतिभाशाली मनीषी उसे प्राप्त करनेका यत्न करते रहनेपर भी मोहमें पड़ जाते हैं। आप भी ऐसे लीलाविहारी हैं कि विभिन्न मतवाले आपके सम्बन्धमें जैसा सोचते-विचारते हैं, वैसा ही शील-स्वभाव और रूप ग्रहण करके आप उनके सामने प्रकट हो जाते हैं। वास्तवमें आप देह आदि समस्त उपाधियोंमें छिपे हुए विशुद्ध विज्ञानघन ही हैं। हे पुरुषोत्तम! मैं आपकी वन्दना करता हूँ॥ ४९॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
यद्दर्शनमिति यस्य दर्शनोपायभूतो वेदः आत्मरहः प्रकाशमिति निगमविशेषणम् अजो ब्रह्मा येषां परस्तेऽजपराः निगूढबोधं अपरिच्छेद्यज्ञानवैभवम् ॥ ४९ ॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे द्वादशस्कन्धे श्रीसुदर्शनसूरिकृतशुकपक्षीये अष्टमोऽध्यायः ॥ ८ ॥
अनुवाद (समाप्ति)
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां द्वादशस्कन्धेऽष्टमोऽध्यायः॥ ८॥