[सप्तमोऽध्यायः]
भागसूचना
अथर्वेदकी शाखाएँ और पुराणोंके लक्षण
श्लोक-१
मूलम् (वचनम्)
सूत उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथर्ववित् सुमन्तुश्च शिष्यमध्यापयत् स्वकाम्।
संहितां सोऽपि पथ्याय वेददर्शाय चोक्तवान्॥
मूलम्
अथर्ववित् सुमन्तुश्च शिष्यमध्यापयत् स्वकाम्।
संहितां सोऽपि पथ्याय वेददर्शाय चोक्तवान्॥
अनुवाद (हिन्दी)
सूतजी कहते हैं—शौनकादि ऋषियो! मैं कह चुका हूँ कि अथर्ववेदके ज्ञाता सुमन्तुमुनि थे। उन्होंने अपनी संहिता अपने प्रिय शिष्य कबन्धको पढ़ायी। कबन्धने उस संहिताके दो भाग करके पथ्य और वेददर्शको उसका अध्ययन कराया॥ १॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
॥ १-१० ॥
श्लोक-२
विश्वास-प्रस्तुतिः
शौक्लायनिर्ब्रह्मबलिर्मोदोषः पिप्पलायनिः।
वेददर्शस्य शिष्यास्ते पथ्यशिष्यानथो शृणु॥
मूलम्
शौक्लायनिर्ब्रह्मबलिर्मोदोषः पिप्पलायनिः।
वेददर्शस्य शिष्यास्ते पथ्यशिष्यानथो शृणु॥
अनुवाद (हिन्दी)
वेददर्शके चार शिष्य हुए—शौक्लायनि, ब्रह्मबलि, मोदोष और पिप्पलायनि। अब पथ्यके शिष्योंके नाम सुनो॥ २॥
श्लोक-३
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुमुदः शुनको ब्रह्मन् जाजलिश्चाप्यथर्ववित्।
बभ्रुः शिष्योऽथाङ्गिरसः सैन्धवायन एव च।
अधीयेतां संहिते द्वे सावर्ण्याद्यास्तथापरे॥
मूलम्
कुमुदः शुनको ब्रह्मन् जाजलिश्चाप्यथर्ववित्।
बभ्रुः शिष्योऽथाङ्गिरसः सैन्धवायन एव च।
अधीयेतां संहिते द्वे सावर्ण्याद्यास्तथापरे॥
श्लोक-४
विश्वास-प्रस्तुतिः
नक्षत्रकल्पः शान्तिश्च कश्यपाङ्गिरसादयः।
एते आथर्वणाचार्याः शृणु पौराणिकान् मुने॥
मूलम्
नक्षत्रकल्पः शान्तिश्च कश्यपाङ्गिरसादयः।
एते आथर्वणाचार्याः शृणु पौराणिकान् मुने॥
अनुवाद (हिन्दी)
शौनकजी! पथ्यके तीन शिष्य थे—कुमुद, शुनक और अथर्ववेत्ता जाजलि। अंगिरा-गोत्रोत्पन्न शुनकके दो शिष्य थे—बभ्रु और सैन्धवायन। उन लोगोंने दो संहिताओंका अध्ययन किया। अथर्ववेदके आचार्योंमें इनके अतिरिक्त सैन्धवायनादिके शिष्य सावर्ण्य आदि तथा नक्षत्रकल्प, शान्ति, कश्यप, आंगिरस आदि कई विद्वान् और भी हुए। अब मैं तुम्हें पौराणिकोंके सम्बन्धमें सुनाता हूँ॥ ३-४॥
श्लोक-५
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रय्यारुणिः कश्यपश्च सावर्णिरकृतव्रणः।
वैशम्पायन हारीतौ षड् वै पौराणिका इमे॥
मूलम्
त्रय्यारुणिः कश्यपश्च सावर्णिरकृतव्रणः।
वैशम्पायन हारीतौ षड् वै पौराणिका इमे॥
अनुवाद (हिन्दी)
शौनकजी! पुराणोंके छः आचार्य प्रसिद्ध हैं—त्रय्यारुणि, कश्यप, सावर्णि, अकृतव्रण, वैशम्पायन और हारीत॥ ५॥
श्लोक-६
विश्वास-प्रस्तुतिः
अधीयन्त व्यासशिष्यात् संहितां मत्पितुर्मुखात्।
एकैकामहमेतेषां शिष्यः सर्वाः समध्यगाम्॥
मूलम्
अधीयन्त व्यासशिष्यात् संहितां मत्पितुर्मुखात्।
एकैकामहमेतेषां शिष्यः सर्वाः समध्यगाम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन लोगोंने मेरे पिताजीसे एक-एक पुराणसंहिता पढ़ी थी और मेरे पिताजीने स्वयं भगवान् व्याससे उन संहिताओंका अध्ययन किया था। मैंने उन छहों आचार्योंसे सभी संहिताओंका अध्ययन किया था॥ ६॥
श्लोक-७
विश्वास-प्रस्तुतिः
कश्यपोऽहं च सावर्णी रामशिष्योऽकृतव्रणः।
अधीमहि व्यासशिष्याच्चतस्रो मूलसंहिताः॥
मूलम्
कश्यपोऽहं च सावर्णी रामशिष्योऽकृतव्रणः।
अधीमहि व्यासशिष्याच्चतस्रो मूलसंहिताः॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन छः संहिताओंके अतिरिक्त और भी चार मूलसंहिताएँ थीं। उन्हें भी कश्यप, सावर्णि, परशुरामजीके शिष्य अकृतव्रण और उन सबके साथ मैंने व्यासजीके शिष्य श्रीरोमहर्षणजीसे, जो मेरे पिता थे, अध्ययन किया था॥ ७॥
श्लोक-८
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुराणलक्षणं ब्रह्मन् ब्रह्मर्षिभिर्निरूपितम्।
शृणुष्व बुद्धिमाश्रित्य वेदशास्त्रानुसारतः॥
मूलम्
पुराणलक्षणं ब्रह्मन् ब्रह्मर्षिभिर्निरूपितम्।
शृणुष्व बुद्धिमाश्रित्य वेदशास्त्रानुसारतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
शौनकजी! महर्षियोंने वेद और शास्त्रोंके अनुसार पुराणोंके लक्षण बतलाये हैं। अब तुम स्वस्थ होकर सावधानीसे उनका वर्णन सुनो॥ ८॥
श्लोक-९
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्गोऽस्याथ विसर्गश्च वृत्ती रक्षान्तराणि च।
वंशो वंशानुचरितं संस्था हेतुरपाश्रयः॥
मूलम्
सर्गोऽस्याथ विसर्गश्च वृत्ती रक्षान्तराणि च।
वंशो वंशानुचरितं संस्था हेतुरपाश्रयः॥
श्लोक-१०
विश्वास-प्रस्तुतिः
दशभिर्लक्षणैर्युक्तं पुराणं तद्विदो विदुः।
केचित् पञ्चविधं ब्रह्मन् महदल्पव्यवस्थया॥
मूलम्
दशभिर्लक्षणैर्युक्तं पुराणं तद्विदो विदुः।
केचित् पञ्चविधं ब्रह्मन् महदल्पव्यवस्थया॥
अनुवाद (हिन्दी)
शौनकजी! पुराणोंके पारदर्शी विद्वान् बतलाते हैं कि पुराणोंके दस लक्षण हैं—विश्वसर्ग, विसर्ग, वृत्ति, रक्षा, मन्वन्तर, वंश, वंशानुचरित, संस्था (प्रलय), हेतु (ऊति) और अपाश्रय। कोई-कोई आचार्य पुराणोंके पाँच ही लक्षण मानते हैं। दोनों ही बातें ठीक हैं, क्योंकि महापुराणोंमें दस लक्षण होते हैं और छोटे पुराणोंमें पाँच। विस्तार करके दस बतलाते हैं और संक्षेप करके पाँच॥ ९-१०॥
श्लोक-११
विश्वास-प्रस्तुतिः
अव्याकृतगुणक्षोभान्महतस्त्रिवृतोऽहमः।
भूतमात्रेन्द्रियार्थानां सम्भवः सर्ग उच्यते॥
मूलम्
अव्याकृतगुणक्षोभान्महतस्त्रिवृतोऽहमः।
भूतमात्रेन्द्रियार्थानां सम्भवः सर्ग उच्यते॥
अनुवाद (हिन्दी)
(अब इनके लक्षण सुनो) जब मूल प्रकृतिमें लीन गुण क्षुब्ध होते हैं, तब महत्तत्त्वकी उत्पत्ति होती है। महत्तत्त्वसे तामस, राजस और वैकारिक (सात्त्विक)—तीन प्रकारके अहंकार बनते हैं। त्रिविध अहंकारसे ही पंचतन्मात्रा, इन्द्रिय और विषयोंकी उत्पत्ति होती है। इसी उत्पत्तिक्रमका नाम ‘सर्ग’ है॥ ११॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
अव्याकृतगुणक्षोभात् मूलप्रकृतेर्गुणक्षोभात् अहमः अहङ्कारस्य ॥ ११ ॥
श्लोक-१२
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुरुषानुगृहीतानामेतेषां वासनामयः।
विसर्गोऽयं समाहारो बीजाद् बीजं चराचरम्॥
मूलम्
पुरुषानुगृहीतानामेतेषां वासनामयः।
विसर्गोऽयं समाहारो बीजाद् बीजं चराचरम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
परमेश्वरके अनुग्रहसे सृष्टिका सामर्थ्य प्राप्त करके महत्तत्त्व आदि पूर्वकर्मोंके अनुसार अच्छी और बुरी वासनाओंकी प्रधानतासे जो यह चराचर शरीरात्मक जीवकी उपाधिकी सृष्टि करते हैं, एक बीजसे दूसरे बीजके समान, इसीको विसर्ग कहते हैं॥ १२॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
विसर्गोऽयमिति तत्त्वसमुदायात्मकं बीजात् बीजकारणादिति कारणरूपेण सन्तन्यमानं स्थावरजङ्गमात्मकं च यत्कार्यजातं स विसर्ग इत्यर्थः ॥ १२ ॥
श्लोक-१३
विश्वास-प्रस्तुतिः
वृत्तिर्भूतानि भूतानां चराणामचराणि च।
कृता स्वेन नृणां तत्र कामाच्चोदनयापि वा॥
मूलम्
वृत्तिर्भूतानि भूतानां चराणामचराणि च।
कृता स्वेन नृणां तत्र कामाच्चोदनयापि वा॥
अनुवाद (हिन्दी)
चर प्राणियोंकी अचर-पदार्थ ‘वृत्ति’ अर्थात् जीवन-निर्वाहकी सामग्री है। चर प्राणियोंके दुग्ध आदि भी इनमेंसे मनुष्योंने कुछ तो स्वभाववश कामनाके अनुसार निश्चित कर ली है और कुछने शास्त्रके आज्ञानुसार॥ १३॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
वृत्तिरिति । चराणां भूतानाम् अचराणि भूतानि वृत्तिर्जीवनोपाय इत्यर्थः । कृतेति सा च वृत्तिः केवलं रागप्राप्ता शास्त्राविरुद्धा चेत्यर्थः ॥ १३ ॥
श्लोक-१४
विश्वास-प्रस्तुतिः
रक्षाच्युतावतारेहा विश्वस्यानु युगे युगे।
तिर्यङ्मर्त्यर्षिदेवेषु हन्यन्ते यैस्त्रयीद्विषः॥
मूलम्
रक्षाच्युतावतारेहा विश्वस्यानु युगे युगे।
तिर्यङ्मर्त्यर्षिदेवेषु हन्यन्ते यैस्त्रयीद्विषः॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् युग-युगमें पशु-पक्षी, मनुष्य, ऋषि, देवता आदिके रूपमें अवतार ग्रहण करके अनेकों लीलाएँ करते हैं। इन्हीं अवतारोंमें वे वेदधर्मके विरोधियोंका संहार भी करते हैं। उनकी यह अवतार-लीला विश्वकी रक्षाके लिये ही होती है, इसीलिये उसका नाम ‘रक्षा’ है॥ १४॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
अवतारेहा अवतारचेष्टा यैः अवतारैः ॥ १४ ॥
श्लोक-१५
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन्वन्तरं मनुर्देवा मनुपुत्राः सुरेश्वरः।
ऋषयोंऽशावतारश्च हरेः षड्विधमुच्यते॥
मूलम्
मन्वन्तरं मनुर्देवा मनुपुत्राः सुरेश्वरः।
ऋषयोंऽशावतारश्च हरेः षड्विधमुच्यते॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनु, देवता, मनुपुत्र, इन्द्र, सप्तर्षि और भगवान्के अंशावतार—इन्हीं छः बातोंकी विशेषतासे युक्त समयको ‘मन्वन्तर’ कहते हैं॥ १५॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
मन्वन्तरमेव मन्वादिभिः षड़्विधं वंशधराः पुत्रपौत्रादयः ॥ १५-१८ ॥
श्लोक-१६
विश्वास-प्रस्तुतिः
राज्ञां ब्रह्मप्रसूतानां वंशस्त्रैकालिकोऽन्वयः।
वंशानुचरितं तेषां वृत्तं वंशधराश्च ये॥
मूलम्
राज्ञां ब्रह्मप्रसूतानां वंशस्त्रैकालिकोऽन्वयः।
वंशानुचरितं तेषां वृत्तं वंशधराश्च ये॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्माजीसे जितने राजाओंकी सृष्टि हुई है, उनकी भूत, भविष्य और वर्तमानकालीन सन्तान-परम्पराको ‘वंश’ कहते हैं। उन राजाओंके तथा उनके वंशधरोंके चरित्रका नाम ‘वंशानुचरित’ है॥ १६॥
श्लोक-१७
विश्वास-प्रस्तुतिः
नैमित्तिकः प्राकृतिको नित्य आत्यन्तिको लयः।
संस्थेति कविभिः प्रोक्ता चतुर्धास्य स्वभावतः॥
मूलम्
नैमित्तिकः प्राकृतिको नित्य आत्यन्तिको लयः।
संस्थेति कविभिः प्रोक्ता चतुर्धास्य स्वभावतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस विश्वब्रह्माण्डका स्वभावसे ही प्रलय हो जाता है। उसके चार भेद हैं—नैमित्तिक, प्राकृतिक, नित्य और आत्यन्तिक। तत्त्वज्ञ विद्वानोंने इन्हींको ‘संस्था’ कहा है॥ १७॥
श्लोक-१८
विश्वास-प्रस्तुतिः
हेतुर्जीवोऽस्य सर्गादेरविद्याकर्मकारकः।
यं चानुशयिनं प्राहुरव्याकृतमुतापरे॥
मूलम्
हेतुर्जीवोऽस्य सर्गादेरविद्याकर्मकारकः।
यं चानुशयिनं प्राहुरव्याकृतमुतापरे॥
अनुवाद (हिन्दी)
पुराणोंके लक्षणमें ‘हेतु’ नामसे जिसका व्यवहार होता है, वह जीव ही है; क्योंकि वास्तवमें वही सर्ग-विसर्ग आदिका हेतु है और अविद्यावश अनेकों प्रकारके कर्मकलापमें उलझ गया है। जो लोग उसे चैतन्यप्रधानकी दृष्टिसे देखते हैं, वे उसे अनुशयी अर्थात् प्रकृतिमें शयन करनेवाला कहते हैं; और जो उपाधिकी दृष्टिसे कहते हैं, वे उसे अव्याकृत अर्थात् प्रकृतिरूप कहते हैं॥ १८॥
श्लोक-१९
विश्वास-प्रस्तुतिः
व्यतिरेकान्वयो यस्य जाग्रत्स्वप्नसुषुप्तिषु।
मायामयेषु तद् ब्रह्म जीववृत्तिष्वपाश्रयः॥
मूलम्
व्यतिरेकान्वयो यस्य जाग्रत्स्वप्नसुषुप्तिषु।
मायामयेषु तद् ब्रह्म जीववृत्तिष्वपाश्रयः॥
अनुवाद (हिन्दी)
जीवकी वृत्तियोंके तीन विभाग हैं—जाग्रत् , स्वप्न और सुषुप्ति। जो इन अवस्थाओंमें इनके अभिमानी विश्व, तैजस और प्राज्ञके मायामय रूपोंमें प्रतीत होता है और इन अवस्थाओंसे परे तुरीयतत्त्वके रूपमें भी लक्षित होता है, वही ब्रह्म है; उसीको यहाँ ‘अपाश्रय’ शब्दसे कहा गया है॥ १९॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
व्यतिरेकेति । मायामयेषु प्रकृतिसम्बन्धः कार्येषु जाग्रदाद्यवस्थाविशेषेषु यस्य ब्रह्मणो जीववृत्त्या अन्वयव्यतिरेकौ अवस्थानिर्वाहकतया अवस्थानादन्वयः अवस्थाभिरस्पृष्टत्वात् व्यतिरेकः सर्वाधारत्वात् व्यपाश्रय इत्यर्थः ॥ १९ ॥
श्लोक-२०
विश्वास-प्रस्तुतिः
पदार्थेषु यथा द्रव्यं सन्मात्रं रूपनामसु।
बीजादिपञ्चतान्तासु ह्यवस्थासु युतायुतम्॥
मूलम्
पदार्थेषु यथा द्रव्यं सन्मात्रं रूपनामसु।
बीजादिपञ्चतान्तासु ह्यवस्थासु युतायुतम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
नामविशेष और रूपविशेषसे युक्त पदार्थोंपर विचार करें तो वे सत्तामात्र वस्तुके रूपमें सिद्ध होते हैं। उनकी विशेषताएँ लुप्त हो जाती हैं। असलमें वह सत्ता ही उन विशेषताओंके रूपमें प्रतीत भी हो रही है और उनसे पृथक् भी है। ठीक इसी न्यायसे शरीर और विश्वब्रह्माण्डकी उत्पत्तिसे लेकर मृत्यु और महाप्रलयपर्यन्त जितनी भी विशेष अवस्थाएँ हैं, उनके रूपमें परम सत्यस्वरूप ब्रह्म ही प्रतीत हो रहा है और वह उनसे सर्वथा पृथक् भी है। यही वाक्यभेदसे अधिष्ठान और साक्षीके रूपमें ब्रह्म ही पुराणोक्त आश्रयतत्त्व है॥ २०॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
ब्रह्मणस्तत्तश्चिदचिद्विशिष्टस्वरूपेण सर्वावस्थान्वयः । स्वेन रूपेण ताभिर्व्यतिरेकश्चेत्युक्तं भवति । पदार्थेष्विति बीजादिपञ्चतान्तासु जन्मादिविशरणान्तावस्थानामरूपान्वितेषु घटपटादिपदार्थेषु द्रव्यमात्र जन्माद्यवस्थाभिः युतायुतं द्रव्यं घटत्वादि विशिष्टरूपेण जन्मादियुतं तद्विग्रहाणदशायां विशेष्यमात्ररूपेण जन्मादिरहितत्वं तद्वदित्यर्थः । नहि कटकविनाशे कनकोत्पत्तिविनाशः ॥ २० ॥
श्लोक-२१
विश्वास-प्रस्तुतिः
विरमेत यदा चित्तं हित्वा वृत्तित्रयं स्वयम्।
योगेन वा तदाऽऽत्मानं वेदेहाया निवर्तते॥
मूलम्
विरमेत यदा चित्तं हित्वा वृत्तित्रयं स्वयम्।
योगेन वा तदाऽऽत्मानं वेदेहाया निवर्तते॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब चित्त स्वयं आत्मविचार अथवा योगाभ्यासके द्वारा सत्त्वगुण-रजोगुण-तमोगुण-सम्बन्धी व्यावहारिक वृत्तियों और जाग्रत्-स्वप्न आदि स्वाभाविक वृत्तियोंका त्याग करके उपराम हो जाता है, तब शान्तवृत्तिमें ‘तत्त्वमसि’ आदि महावाक्योंके द्वारा आत्मज्ञानका उदय होता है। उस समय आत्मवेत्ता पुरुष अविद्याजनित कर्मवासना और कर्मप्रवृत्तिसे निवृत्त हो जाता है॥ २१॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
वृत्तित्रयं स्वयम् अयत्नतः योगेन योगाभ्यासयत्नेन वा वैदेहाय विदेहभावाय मोक्षाय ॥ २१ - २५ ॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे द्वादशस्कन्धव्याख्याने श्रीसुदर्शनसूरिकृतशुकपक्षीये सप्तमोऽध्यायः ॥ ७ ॥
श्लोक-२२
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवंलक्षणलक्ष्याणि पुराणानि पुराविदः।
मुनयोऽष्टादश प्राहुः क्षुल्लकानि महान्ति च॥
मूलम्
एवंलक्षणलक्ष्याणि पुराणानि पुराविदः।
मुनयोऽष्टादश प्राहुः क्षुल्लकानि महान्ति च॥
अनुवाद (हिन्दी)
शौनकादि ऋषियो! पुरातत्त्ववेत्ता ऐतिहासिक विद्वानोंने इन्हीं लक्षणोंके द्वारा पुराणोंकी यह पहचान बतलायी है। ऐसे लक्षणोंसे युक्त छोटे-बड़े अठारह पुराण हैं॥ २२॥
श्लोक-२३
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्राह्मं पाद्मं वैष्णवं च शैवं लैङ्गं सगारुडम्।
नारदीयं भागवतमाग्नेयं स्कान्दसंज्ञितम्॥
मूलम्
ब्राह्मं पाद्मं वैष्णवं च शैवं लैङ्गं सगारुडम्।
नारदीयं भागवतमाग्नेयं स्कान्दसंज्ञितम्॥
श्लोक-२४
विश्वास-प्रस्तुतिः
भविष्यं ब्रह्मवैवर्तं मार्कण्डेयं सवामनम्।
वाराहं मात्स्यं कौर्मं च ब्रह्माण्डाख्यमिति त्रिषट्॥
मूलम्
भविष्यं ब्रह्मवैवर्तं मार्कण्डेयं सवामनम्।
वाराहं मात्स्यं कौर्मं च ब्रह्माण्डाख्यमिति त्रिषट्॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके नाम ये हैं —ब्रह्मपुराण, पद्मपुराण, विष्णुपुराण, शिवपुराण, लिंगपुराण, गरुडपुराण, नारदपुराण, भागवतपुराण, अग्निपुराण, स्कन्दपुराण, भविष्यपुराण, ब्रह्मवैवर्तपुराण, मार्कण्डेयपुराण, वामनपुराण, वराहपुराण, मत्स्यपुराण, कूर्मपुराण और ब्रह्माण्डपुराण यह अठारह हैं॥ २३-२४॥
श्लोक-२५
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रह्मन्निदं समाख्यातं शाखाप्रणयनं मुनेः।
शिष्यशिष्यप्रशिष्याणां ब्रह्मतेजोविवर्धनम्॥
मूलम्
ब्रह्मन्निदं समाख्यातं शाखाप्रणयनं मुनेः।
शिष्यशिष्यप्रशिष्याणां ब्रह्मतेजोविवर्धनम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
शौनकजी! व्यासजीकी शिष्य-परम्पराने जिस प्रकार वेदसंहिता और पुराणसंहिताओंका अध्ययन-अध्यापन, विभाजन आदि किया वह मैंने तुम्हें सुना दिया। यह प्रसंग सुनने और पढ़नेवालोंके ब्रह्मतेजकी अभिवृद्धि करता है॥ २५॥
अनुवाद (समाप्ति)
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां द्वादशस्कन्धे सप्तमोऽध्यायः॥ ७॥