०६ वेदशाखाप्रणयनम्

[षष्ठोऽध्यायः]

भागसूचना

परीक्षित् की परमगति, जनमेजय सर्पसत्र और वेदोंके शाखाभेद

श्लोक-१

मूलम् (वचनम्)

सूत उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतन्निशम्य मुनिनाभिहितं परीक्षिद्
व्यासात्मजेन निखिलात्मदृशा समेन।
तत्पादमूलमुपसृत्य नतेन मूर्ध्ना
बद्धाञ्जलिस्तमिदमाह स विष्णुरातः॥

मूलम्

एतन्निशम्य मुनिनाभिहितं परीक्षिद्
व्यासात्मजेन निखिलात्मदृशा समेन।
तत्पादमूलमुपसृत्य नतेन मूर्ध्ना
बद्धाञ्जलिस्तमिदमाह स विष्णुरातः॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीसूतजी कहते हैं—शौनकादि ऋषियो! व्यासनन्दन श्रीशुकदेव मुनि समस्त चराचर जगत‍्को अपनी आत्माके रूपमें अनुभव करते हैं और व्यवहारमें सबके प्रति समदृष्टि रखते हैं। भगवान‍्के शरणागत एवं उनके द्वारा सुरक्षित राजर्षि परीक्षित् ने उनका सम्पूर्ण उपदेश बड़े ध्यानसे श्रवण किया। अब वे सिर झुकाकर उनके चरणोंके तनिक और पास खिसक आये तथा अंजलि बाँधकर उनसे यह प्रार्थना करने लगे॥ १॥

श्लोक-२

मूलम् (वचनम्)

राजोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

सिद्धोऽस्म्यनुगृहीतोऽस्मि भवता करुणात्मना।
श्रावितो यच्च मे साक्षादनादिनिधनो हरिः॥

मूलम्

सिद्धोऽस्म्यनुगृहीतोऽस्मि भवता करुणात्मना।
श्रावितो यच्च मे साक्षादनादिनिधनो हरिः॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा परीक्षित् ने कहा—भगवन्! आप करुणाके मूर्तिमान् स्वरूप हैं। आपने मुझपर परम कृपा करके अनादि-अनन्त, एकरस, सत्य भगवान् श्रीहरिके स्वरूप और लीलाओंका वर्णन किया है। अब मैं आपकी कृपासे परम अनुगृहीत और कृतकृत्य हो गया हूँ॥ २॥

श्लोक-३

विश्वास-प्रस्तुतिः

नात्यद‍्भुतमहं मन्ये महतामच्युतात्मनाम्।
अज्ञेषु तापतप्तेषु भूतेषु यदनुग्रहः॥

मूलम्

नात्यद‍्भुतमहं मन्ये महतामच्युतात्मनाम्।
अज्ञेषु तापतप्तेषु भूतेषु यदनुग्रहः॥

अनुवाद (हिन्दी)

संसारके प्राणी अपने स्वार्थ और परमार्थके ज्ञानसे शून्य हैं और विभिन्न प्रकारके दुःखोंके दावानलसे दग्ध हो रहे हैं। उनके ऊपर भगवन्मय महात्माओंका अनुग्रह होना कोई नयी घटना अथवा आश्चर्यकी बात नहीं है। यह तो उनके लिये स्वाभाविक ही है॥ ३॥

श्लोक-४

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुराणसंहितामेतामश्रौष्म भवतो वयम्।
यस्यां खलूत्तमश्लोको भगवाननुवर्ण्यते॥

मूलम्

पुराणसंहितामेतामश्रौष्म भवतो वयम्।
यस्यां खलूत्तमश्लोको भगवाननुवर्ण्यते॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैंने और मेरे साथ और बहुत-से लोगोंने आपके मुखारविन्दसे इस श्रीमद‍्भागवतमहापुराणका श्रवण किया है। इस पुराणमें पद-पदपर भगवान् श्रीहरिके उस स्वरूप और उन लीलाओंका वर्णन हुआ है, जिसके गानमें बड़े-बड़े आत्माराम पुरुष रमते रहते हैं॥ ४॥

श्लोक-५

विश्वास-प्रस्तुतिः

भगवंस्तक्षकादिभ्यो मृत्युभ्यो न बिभेम्यहम्।
प्रविष्टो ब्रह्म निर्वाणमभयं दर्शितं त्वया॥

मूलम्

भगवंस्तक्षकादिभ्यो मृत्युभ्यो न बिभेम्यहम्।
प्रविष्टो ब्रह्म निर्वाणमभयं दर्शितं त्वया॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवन्! आपने मुझे अभयपदका, ब्रह्म और आत्माकी एकताका साक्षात्कार करा दिया है। अब मैं परम शान्तिस्वरूप ब्रह्ममें स्थित हूँ। अब मुझे तक्षक आदि किसी भी मृत्युके निमित्तसे अथवा दल-के-दल मृत्युओंसे भी भय नहीं है। मैं अभय हो गया हूँ॥ ५॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

॥ १-४ ॥ ब्रह्मनिर्वाणम् आनन्दरूपं ब्रह्म ॥ ५- १० ॥

श्लोक-६

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनुजानीहि मां ब्रह्मन् वाचं यच्छाम्यधोक्षजे।
मुक्तकामाशयं चेतः प्रवेश्य विसृजाम्यसून्॥

मूलम्

अनुजानीहि मां ब्रह्मन् वाचं यच्छाम्यधोक्षजे।
मुक्तकामाशयं चेतः प्रवेश्य विसृजाम्यसून्॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्मन्! अब आप मुझे आज्ञा दीजिये कि मैं अपनी वाणी बंद कर लूँ, मौन हो जाऊँ और साथ ही कामनाओंके संस्कारसे भी रहित चित्तको इन्द्रियातीत परमात्माके स्वरूपमें विलीन करके अपने प्राणोंका त्याग कर दूँ॥ ६॥

श्लोक-७

विश्वास-प्रस्तुतिः

अज्ञानं च निरस्तं मे ज्ञानविज्ञाननिष्ठया।
भवता दर्शितं क्षेमं परं भगवतः पदम्॥

मूलम्

अज्ञानं च निरस्तं मे ज्ञानविज्ञाननिष्ठया।
भवता दर्शितं क्षेमं परं भगवतः पदम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

आपके द्वारा उपदेश किये हुए ज्ञान और विज्ञानमें परिनिष्ठित हो जानेसे मेरा अज्ञान सर्वदाके लिये नष्ट हो गया। आपने भगवान‍्के परम कल्याणमय स्वरूपका मुझे साक्षात्कार करा दिया है॥ ७॥

श्लोक-८

मूलम् (वचनम्)

सूत उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्तस्तमनुज्ञाप्य भगवान् बादरायणिः।
जगाम भिक्षुभिः साकं नरदेवेन पूजितः॥

मूलम्

इत्युक्तस्तमनुज्ञाप्य भगवान् बादरायणिः।
जगाम भिक्षुभिः साकं नरदेवेन पूजितः॥

अनुवाद (हिन्दी)

सूतजी कहते हैं—शौनकादि ऋषियो! राजा परीक्षित् ने भगवान् श्रीशुकदेवजीसे इस प्रकार कहकर बड़े प्रेमसे उनकी पूजा की। अब वे परीक्षित् से विदा लेकर समागत त्यागी महात्माओं, भिक्षुओंके साथ वहाँसे चले गये॥ ८॥

श्लोक-९

विश्वास-प्रस्तुतिः

परीक्षिदपि राजर्षिरात्मन्यात्मानमात्मना।
समाधाय परं दध्यावस्पन्दासुर्यथा तरुः॥

मूलम्

परीक्षिदपि राजर्षिरात्मन्यात्मानमात्मना।
समाधाय परं दध्यावस्पन्दासुर्यथा तरुः॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजर्षि परीक्षित् ने भी बिना किसी बाह्य सहायताके स्वयं ही अपने अन्तरात्माको परमात्माके चिन्तनमें समाहित किया और ध्यानमग्न हो गये। उस समय उनका श्वास-प्रश्वास भी नहीं चलता था, ऐसा जान पड़ता था मानो कोई वृक्षका ठूँठ हो॥ ९॥

श्लोक-१०

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्राक्कूले बर्हिष्यासीनो गङ्गाकूल उदङ्मुखः।
ब्रह्मभूतो महायोगी निःसङ्गश्छिन्नसंशयः॥

मूलम्

प्राक्कूले बर्हिष्यासीनो गङ्गाकूल उदङ्मुखः।
ब्रह्मभूतो महायोगी निःसङ्गश्छिन्नसंशयः॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने गंगाजीके तटपर कुशोंको इस प्रकार बिछा रखा था, जिसमें उनका अग्रभाग पूर्वकी ओर हो और उनपर स्वयं उत्तर मुँह होकर बैठे हुए थे। उनकी आसक्ति और संशय तो पहले ही मिट चुके थे। अब वे ब्रह्म और आत्माकी एकतारूप महायोगमें स्थित होकर ब्रह्मस्वरूप हो गये॥ १०॥

श्लोक-११

विश्वास-प्रस्तुतिः

तक्षकः प्रहितो विप्राः क्रुद्धेन द्विजसूनुना।
हन्तुकामो नृपं गच्छन् ददर्श पथि कश्यपम्॥

मूलम्

तक्षकः प्रहितो विप्राः क्रुद्धेन द्विजसूनुना।
हन्तुकामो नृपं गच्छन् ददर्श पथि कश्यपम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

शौनकादि ऋषियो! मुनिकुमार शृंगीने क्रोधित होकर परीक्षित् को शाप दे दिया था। अब उनका भेजा हुआ तक्षक सर्प राजा परीक्षित् को डसनेके लिये उनके पास चला। रास्तेमें उसने कश्यप नामके एक ब्राह्मणको देखा॥ ११॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

विप्रा इति सम्बोधनम् ॥ ११-२९ ॥

श्लोक-१२

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं तर्पयित्वा द्रविणैर्निवर्त्य विषहारिणम्।
द्विजरूपप्रतिच्छन्नः कामरूपोऽदशन्नृपम्॥

मूलम्

तं तर्पयित्वा द्रविणैर्निवर्त्य विषहारिणम्।
द्विजरूपप्रतिच्छन्नः कामरूपोऽदशन्नृपम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

कश्यपब्राह्मण सर्पविषकी चिकित्सा करनेमें बड़े निपुण थे। तक्षकने बहुत-सा धन देकर कश्यपको वहींसे लौटा दिया, उन्हें राजाके पास न जाने दिया। और स्वयं ब्राह्मणके रूपमें छिपकर, क्योंकि वह इच्छानुसार रूप धारण कर सकता था, राजा परीक्षित् के पास गया और उन्हें डस लिया॥ १२॥

श्लोक-१३

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रह्मभूतस्य राजर्षेर्देहोऽहिगरलाग्निना।
बभूव भस्मसात् सद्यः पश्यतां सर्वदेहिनाम्॥

मूलम्

ब्रह्मभूतस्य राजर्षेर्देहोऽहिगरलाग्निना।
बभूव भस्मसात् सद्यः पश्यतां सर्वदेहिनाम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजर्षि परीक्षित् तक्षकके डसनेके पहले ही ब्रह्ममें स्थित हो चुके थे। अब तक्षकके विषकी आगसे उनका शरीर सबके सामने ही जलकर भस्म हो गया॥ १३॥

श्लोक-१४

विश्वास-प्रस्तुतिः

हाहाकारो महानासीद् भुवि खे दिक्षु सर्वतः।
विस्मिता ह्यभवन् सर्वे देवासुरनरादयः॥

मूलम्

हाहाकारो महानासीद् भुवि खे दिक्षु सर्वतः।
विस्मिता ह्यभवन् सर्वे देवासुरनरादयः॥

अनुवाद (हिन्दी)

पृथ्वी, आकाश और सब दिशाओंमें बड़े जोरसे ‘हाय-हाय’ की ध्वनि होने लगी। देवता, असुर, मनुष्य आदि सब-के-सब परीक्षित् की यह परम गति देखकर विस्मित हो गये॥ १४॥

श्लोक-१५

विश्वास-प्रस्तुतिः

देवदुन्दुभयो नेदुर्गन्धर्वाप्सरसो जगुः।
ववृषुः पुष्पवर्षाणि विबुधाः साधुवादिनः॥

मूलम्

देवदुन्दुभयो नेदुर्गन्धर्वाप्सरसो जगुः।
ववृषुः पुष्पवर्षाणि विबुधाः साधुवादिनः॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवताओंकी दुन्दुभियाँ अपने-आप बज उठीं। गन्धर्व और अप्सराएँ गान करने लगीं। देवतालोग ‘साधु-साधु’ के नारे लगाकर पुष्पोंकी वर्षा करने लगे॥ १५॥

श्लोक-१६

विश्वास-प्रस्तुतिः

जनमेजयः स्वपितरं श्रुत्वा तक्षकभक्षितम्।
यथा जुहाव संक्रुद्धो नागान् सत्रे सह द्विजैः॥

मूलम्

जनमेजयः स्वपितरं श्रुत्वा तक्षकभक्षितम्।
यथा जुहाव संक्रुद्धो नागान् सत्रे सह द्विजैः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब जनमेजयने सुना कि तक्षकने मेरे पिताजीको डस लिया है, तो उसे बड़ा क्रोध हुआ। अब वह ब्राह्मणोंके साथ विधिपूर्वक सर्पोंका अग्निकुण्डमें हवन करने लगा॥ १६॥

श्लोक-१७

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्पसत्रे समिद्धाग्नौ दह्यमानान् महोरगान्।
दृष्ट्वेन्द्रं भयसंविग्नस्तक्षकः शरणं ययौ॥

मूलम्

सर्पसत्रे समिद्धाग्नौ दह्यमानान् महोरगान्।
दृष्ट्वेन्द्रं भयसंविग्नस्तक्षकः शरणं ययौ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तक्षकने देखा कि जनमेजयके सर्प-सत्रकी प्रज्वलित अग्निमें बड़े-बड़े महासर्प भस्म होते जा रहे हैं, तब वह अत्यन्त भयभीत होकर देवराज इन्द्रकी शरणमें गया॥ १७॥

श्लोक-१८

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपश्यंस्तक्षकं तत्र राजा पारीक्षितो द्विजान्।
उवाच तक्षकः कस्मान्न दह्येतोरगाधमः॥

मूलम्

अपश्यंस्तक्षकं तत्र राजा पारीक्षितो द्विजान्।
उवाच तक्षकः कस्मान्न दह्येतोरगाधमः॥

अनुवाद (हिन्दी)

बहुत सर्पोंके भस्म होनेपर भी तक्षक न आया, यह देखकर परीक्षित् नन्दन राजा जनमेजयने ब्राह्मणोंसे कहा कि ‘ब्राह्मणो! अबतक सर्पाधम तक्षक क्यों नहीं भस्म हो रहा है?’॥ १८॥

श्लोक-१९

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं गोपायति राजेन्द्र शक्रः शरणमागतम्।
तेन संस्तम्भितः सर्पस्तस्मान्नाग्नौ पतत्यसौ॥

मूलम्

तं गोपायति राजेन्द्र शक्रः शरणमागतम्।
तेन संस्तम्भितः सर्पस्तस्मान्नाग्नौ पतत्यसौ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्राह्मणोंने कहा—‘राजेन्द्र! तक्षक इस समय इन्द्रकी शरणमें चला गया है और वे उसकी रक्षा कर रहे हैं। उन्होंने ही तक्षकको स्तम्भित कर दिया है, इसीसे वह अग्निकुण्डमें गिरकर भस्म नहीं हो रहा है’॥ १९॥

श्लोक-२०

विश्वास-प्रस्तुतिः

पारीक्षित इति श्रुत्वा प्राहर्त्विज उदारधीः।
सहेन्द्रस्तक्षको विप्रा नाग्नौ किमिति पात्यते॥

मूलम्

पारीक्षित इति श्रुत्वा प्राहर्त्विज उदारधीः।
सहेन्द्रस्तक्षको विप्रा नाग्नौ किमिति पात्यते॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित् नन्दन जनमेजय बड़े ही बुद्धिमान् और वीर थे। उन्होंने ब्राह्मणोंकी बात सुनकर ऋत्विजोंसे कहा कि ‘ब्राह्मणो! आपलोग इन्द्रके साथ तक्षकको क्यों नहीं अग्निमें गिरा देते?’॥ २०॥

श्लोक-२१

विश्वास-प्रस्तुतिः

तच्छ्रुत्वाऽऽजुहुवुर्विप्राः सहेन्द्रं तक्षकं मखे।
तक्षकाशु पतस्वेह सहेन्द्रेण मरुत्वता॥

मूलम्

तच्छ्रुत्वाऽऽजुहुवुर्विप्राः सहेन्द्रं तक्षकं मखे।
तक्षकाशु पतस्वेह सहेन्द्रेण मरुत्वता॥

अनुवाद (हिन्दी)

जनमेजयकी बात सुनकर ब्राह्मणोंने उस यज्ञमें इन्द्रके साथ तक्षकका अग्निकुण्डमें आवाहन किया। उन्होंने कहा—‘रे तक्षक! तू मरुद‍्गणके सहचर इन्द्रके साथ इस अग्निकुण्डमें शीघ्र आ पड़’॥ २१॥

श्लोक-२२

विश्वास-प्रस्तुतिः

इति ब्रह्मोदिताक्षेपैः स्थानादिन्द्रः प्रचालितः।
बभूव सम्भ्रान्तमतिः सविमानः सतक्षकः॥

मूलम्

इति ब्रह्मोदिताक्षेपैः स्थानादिन्द्रः प्रचालितः।
बभूव सम्भ्रान्तमतिः सविमानः सतक्षकः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब ब्राह्मणोंने इस प्रकार आकर्षणमन्त्रका पाठ किया, तब तो इन्द्र अपने स्थान—स्वर्गलोकसे विचलित हो गये। विमानपर बैठे हुए इन्द्र तक्षकके साथ ही बहुत घबड़ा गये और उनका विमान भी चक्कर काटने लगा॥ २२॥

श्लोक-२३

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं पतन्तं विमानेन सहतक्षकमम्बरात्।
विलोक्याङ्गिरसः प्राह राजानं तं बृहस्पतिः॥

मूलम्

तं पतन्तं विमानेन सहतक्षकमम्बरात्।
विलोक्याङ्गिरसः प्राह राजानं तं बृहस्पतिः॥

अनुवाद (हिन्दी)

अंगिरानन्दन बृहस्पतिजीने देखा कि आकाशसे देवराज इन्द्र विमान और तक्षकके साथ ही अग्निकुण्डमें गिर रहे हैं; तब उन्होंने राजा जनमेजयसे कहा—॥ २३॥

श्लोक-२४

विश्वास-प्रस्तुतिः

नैष त्वया मनुष्येन्द्र वधमर्हति सर्पराट्।
अनेन पीतममृतमथ वा अजरामरः॥

मूलम्

नैष त्वया मनुष्येन्द्र वधमर्हति सर्पराट्।
अनेन पीतममृतमथ वा अजरामरः॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘नरेन्द्र! सर्पराज तक्षकको मार डालना आपके योग्य काम नहीं है। यह अमृत पी चुका है। इसलिये यह अजर और अमर है॥ २४॥

श्लोक-२५

विश्वास-प्रस्तुतिः

जीवितं मरणं जन्तोर्गतिः स्वेनैव कर्मणा।
राजंस्ततोऽन्यो नान्यस्य प्रदाता सुखदुःखयोः॥

मूलम्

जीवितं मरणं जन्तोर्गतिः स्वेनैव कर्मणा।
राजंस्ततोऽन्यो नान्यस्य प्रदाता सुखदुःखयोः॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! जगत‍्के प्राणी अपने-अपने कर्मके अनुसार ही जीवन, मरण और मरणोत्तर गति प्राप्त करते हैं। कर्मके अतिरिक्त और कोई भी किसीको सुख-दुःख नहीं दे सकता॥ २५॥

श्लोक-२६

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्पचौराग्निविद्युद‍्भ्यः क्षुत्तृड्व्याध्यादिभिर्नृप।
पञ्चत्वमृच्छते जन्तुर्भुङ्‍क्त आरब्धकर्म तत्॥

मूलम्

सर्पचौराग्निविद्युद‍्भ्यः क्षुत्तृड्व्याध्यादिभिर्नृप।
पञ्चत्वमृच्छते जन्तुर्भुङ्‍क्त आरब्धकर्म तत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

जनमेजय! यों तो बहुत-से लोगोंकी मृत्यु साँप, चोर, आग, बिजली आदिसे तथा भूख-प्यास, रोग आदि निमित्तोंसे होती है; परन्तु यह तो कहनेकी बात है। वास्तवमें तो सभी प्राणी अपने प्रारब्ध-कर्मका ही उपभोग करते हैं॥ २६॥

श्लोक-२७

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मात् सत्रमिदं राजन् संस्थीयेताभिचारिकम्।
सर्पा अनागसो दग्धा जनैर्दिष्टं हि भुज्यते॥

मूलम्

तस्मात् सत्रमिदं राजन् संस्थीयेताभिचारिकम्।
सर्पा अनागसो दग्धा जनैर्दिष्टं हि भुज्यते॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! तुमने बहुत-से निरपराध सर्पोंको जला दिया है। इस अभिचार-यज्ञका फल केवल प्राणियोंकी हिंसा ही है। इसलिये इसे बन्द कर देना चाहिये। क्योंकि जगत‍्के सभी प्राणी अपने-अपने प्रारब्धकर्मका ही भोग कर रहे हैं॥ २७॥

श्लोक-२८

मूलम् (वचनम्)

सूत उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्तः स तथेत्याह महर्षेर्मानयन् वचः।
सर्पसत्रादुपरतः पूजयामास वाक्पतिम्॥

मूलम्

इत्युक्तः स तथेत्याह महर्षेर्मानयन् वचः।
सर्पसत्रादुपरतः पूजयामास वाक्पतिम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

सूतजी कहते हैं—शौनकादि ऋषियो! महर्षि बृहस्पतिजीकी बातका सम्मान करके जनमेजयने कहा कि ‘आपकी आज्ञा शिरोधार्य है।’ उन्होंने सर्प-सत्र बंद कर दिया और देवगुरु बृहस्पतिजीकी विधिपूर्वक पूजा की॥ २८॥

श्लोक-२९

विश्वास-प्रस्तुतिः

सैषा विष्णोर्महामायाबाध्ययालक्षणा यया।
मुह्यन्त्यस्यैवात्मभूता भूतेषु गुणवृत्तिभिः॥

मूलम्

सैषा विष्णोर्महामायाबाध्ययालक्षणा यया।
मुह्यन्त्यस्यैवात्मभूता भूतेषु गुणवृत्तिभिः॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऋषिगण! (जिससे विद्वान् ब्राह्मणको भी क्रोध आया, राजाको शाप हुआ, मृत्यु हुई, फिर जनमेजयको क्रोध आया, सर्प मारे गये) यह वही भगवान् विष्णुकी महामाया है। यह अनिर्वचनीय है, इसीसे भगवान‍्के स्वरूपभूत जीव क्रोधादि गुणवृत्तियोंके द्वारा शरीरोंमें मोहित हो जाते हैं, एक-दूसरेको दुःख देते और भोगते हैं और अपने प्रयत्नसे इसको निवृत्त नहीं कर सकते॥ २९॥

श्लोक-३०

विश्वास-प्रस्तुतिः

न यत्र दम्भीत्यभया विराजिता
मायाऽऽत्मवादेऽसकृदात्मवादिभिः।
न यद्विवादो विविधस्तदाश्रयो
मनश्च सङ्कल्पविकल्पवृत्ति यत्॥

मूलम्

न यत्र दम्भीत्यभया विराजिता
मायाऽऽत्मवादेऽसकृदात्मवादिभिः।
न यद्विवादो विविधस्तदाश्रयो
मनश्च सङ्कल्पविकल्पवृत्ति यत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

(विष्णुभगवान‍्के स्वरूपका निश्चय करके उनका भजन करनेसे ही मायासे निवृत्ति होती है; इसलिये उनके स्वरूपका निरूपण सुनो—) यह दम्भी है, कपटी है—इत्याकारक बुद्धिमें बार-बार जो दम्भ-कपटका स्फुरण होता है, वही माया है। जब आत्मवादी पुरुष आत्मचर्चा करने लगते हैं, तब वह परमात्माके स्वरूपमें निर्भयरूपसे प्रकाशित नहीं होती; किन्तु भयभीत होकर अपना मोह आदि कार्य न करती हुई ही किसी प्रकार रहती है। इस रूपमें उसका प्रतिपादन किया गया है। मायाके आश्रित नाना प्रकारके विवाद, मतवाद भी परमात्माके स्वरूपमें नहीं हैं; क्योंकि वे विशेषविषयक हैं और परमात्मा निर्विशेष है। केवल वाद-विवादकी तो बात ही क्या, लोक-परलोकके विषयोंके सम्बन्धमें संकल्प-विकल्प करनेवाला मन भी शान्त हो जाता है॥ ३०॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

गम्भीररया दुर्निरूप्यवेगा आत्मवादे आत्मनिरूपणे दुर्विभाव्या वा माया न यत्र यस्मिन् परमात्मनि नास्ति विविधो विवादो न तदाश्रयः परमात्माश्रयः परमात्मा तु साधकबाधकाऽगोचर इत्यर्थः । मनश्च तत्प्रवणं न तदाश्रयमित्यर्थः ॥ ३० ॥

श्लोक-३१

विश्वास-प्रस्तुतिः

न यत्र सृज्यं सृजतोभयोः परं
श्रेयश्च जीवस्त्रिभिरन्वितस्त्वहम्।
तदेतदुत्सादितबाध्यबाधकं
निषिध्य चोर्मीन् विरमेत् स्वयं मुनिः॥

मूलम्

न यत्र सृज्यं सृजतोभयोः परं
श्रेयश्च जीवस्त्रिभिरन्वितस्त्वहम्।
तदेतदुत्सादितबाध्यबाधकं
निषिध्य चोर्मीन् विरमेत् स्वयं मुनिः॥

अनुवाद (हिन्दी)

कर्म, उसके सम्पादनकी सामग्री और उनके द्वारा साध्यकर्म—इन तीनोंसे अन्वित अहंकारात्मक जीव—यह सब जिसमें नहीं हैं, वह आत्मस्वरूप परमात्मा न तो कभी किसीके द्वारा बाधित होता है और न तो किसीका विरोधी ही है। जो पुरुष उस परमपदके स्वरूपका विचार करता है, वह मनकी मायामयी लहरों, अहंकार आदिका बाध करके स्वयं अपने आत्मस्वरूपमें विहार करने लगता है॥ ३१॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

न यत्र सृज्यमिति यत्र परमात्मस्वरूपे सृज्यं शरीरं नास्ति सृजता इति सृज्यशरीरोत्पादकं निमित्तं कर्म च नास्ति उभयोः परं न कर्म तत्कृतदेहाभ्यां जुष्टं यद्वचो देवमनुष्यादिशब्दजातं च यत्र न वर्त्तते त्रिभिरन्वितः गुणत्रयवश्यो जीवश्च यः जीवरूपेणावस्थितो यः तन्मुनिः तादृशपरमात्मरूपमननपरः एवं पृथिव्याचिन्तनं निषिद्ध्य ऊर्मीन् अशनायापिपासाशोकमोहजरामृत्यूंश्च निषिद्ध्य विरमेत् समः समाहितमनस्कतया निवृत्तव्यापारो भवेत् उत्सादितबाध्यबाधकमिति क्रियाविशेषणं परस्परमुद्भवाभिभवहेतुभूतं गुणत्रयं यथा उत्सादितं स्यात्तथा निषिद्ध्येत्यर्थः ॥ ३१ ॥

श्लोक-३२

विश्वास-प्रस्तुतिः

परं पदं वैष्णवमामनन्ति तद्
यन्नेति नेतीत्यतदुत्सिसृक्षवः।
विसृज्य दौरात्म्यमनन्यसौहृदा
हृदोपगुह्यावसितं समाहितैः॥

मूलम्

परं पदं वैष्णवमामनन्ति तद्
यन्नेति नेतीत्यतदुत्सिसृक्षवः।
विसृज्य दौरात्म्यमनन्यसौहृदा
हृदोपगुह्यावसितं समाहितैः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो मुमुक्षु एवं विचारशील पुरुष परमपदके अतिरिक्त वस्तुका परित्याग करते हुए ‘नेति-नेति’ के द्वारा उसका निषेध करके ऐसी वस्तु प्राप्त करते हैं, जिसका कभी निषेध नहीं हो सकता और न तो कभी त्याग ही, वही विष्णुभगवान‍्का परमपद है; यह बात सभी महात्मा और श्रुतियाँ एक मतसे स्वीकार करती हैं। अपने चित्तको एकाग्र करनेवाले पुरुष अन्तःकरणकी अशुद्धियोंको, अनात्म-भावनाओंको सदा-सर्वदाके लिये मिटाकर अनन्य प्रेमभावसे परिपूर्ण हृदयके द्वारा उसी परमपदका आलिंगन करते हैं और उसीमें समा जाते हैं॥ ३२॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

समाधिदशायामनुसन्ध्येयं परस्वरूपमित्याह - परम्पदमिति । पद्यते इति पदं स्वरूपं नेति नेतीति प्राकृतेति जडाजडवस्तु यादृशं तादृङ् न भवतीत्याह - आमनन्तीति । सर्वं चिदचिद्वैलक्षण्यात् उत्सिसृक्षवः तद्वयतिरिक्तं चेतनाचेतनं व्यावर्त्त्य त्यक्तुमिच्छवः दौरात्म्यं रागद्वेषादि अन्यत्र भगवत्सौहृदव्यतिरिक्तं सौहृदं येषां नास्ति तैः अनन्यसौहृदैः तैः अवसितं निश्चितम् अनुभूतम् ॥ ३२-३३ ॥

श्लोक-३३

विश्वास-प्रस्तुतिः

त एतदधिगच्छन्ति विष्णोर्यत् परमं पदम्।
अहं ममेति दौर्जन्यं न येषां देहगेहजम्॥

मूलम्

त एतदधिगच्छन्ति विष्णोर्यत् परमं पदम्।
अहं ममेति दौर्जन्यं न येषां देहगेहजम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

विष्णुभगवान‍्का यही वास्तविक स्वरूप है, यही उनका परमपद है। इसकी प्राप्ति उन्हीं लोगोंको होती है, जिनके अन्तःकरणमें शरीरके प्रति अहंभाव नहीं है और न तो इसके सम्बन्धी गृह आदि पदार्थोंमें ममता ही। सचमुच जगत‍्की वस्तुओंमें मैंपन और मेरेपनका आरोप बहुत बड़ी दुर्जनता है॥ ३३॥

श्लोक-३४

विश्वास-प्रस्तुतिः

अतिवादांस्तितिक्षेत नावमन्येत कञ्चन।
न चेमं देहमाश्रित्य वैरं कुर्वीत केनचित्॥

मूलम्

अतिवादांस्तितिक्षेत नावमन्येत कञ्चन।
न चेमं देहमाश्रित्य वैरं कुर्वीत केनचित्॥

अनुवाद (हिन्दी)

शौनकजी! जिसे इस परमपदकी प्राप्ति अभीष्ट है, उसे चाहिये कि वह दूसरोंकी कटु वाणी सहन कर ले और बदलेमें किसीका अपमान न करे। इस क्षणभंगुर शरीरमें अहंता-ममता करके किसी भी प्राणीसे कभी वैर न करे॥ ३४॥

श्लोक-३५

विश्वास-प्रस्तुतिः

नमो भगवते तस्मै कृष्णायाकुण्ठमेधसे।
यत्पादाम्बुरुहध्यानात् संहितामध्यगामिमाम्॥

मूलम्

नमो भगवते तस्मै कृष्णायाकुण्ठमेधसे।
यत्पादाम्बुरुहध्यानात् संहितामध्यगामिमाम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् श्रीकृष्णका ज्ञान अनन्त है। उन्हींके चरणकमलोंके ध्यानसे मैंने इस श्रीमद‍्भागवत-महापुराणका अध्ययन किया है। मैं अब उन्हींको नमस्कार करके यह पुराण समाप्त करता हूँ॥ ३५॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

कृष्णाय व्यासाय अकुण्ठमेधसे अप्रतिहतज्ञानाय ॥ ३५-३६ ॥

श्लोक-३६

मूलम् (वचनम्)

शौनक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

पैलादिभिर्व्यासशिष्यैर्वेदाचार्यैर्महात्मभिः।
वेदाश्च कतिधा व्यस्ता एतत् सौम्याभिधेहि नः॥

मूलम्

पैलादिभिर्व्यासशिष्यैर्वेदाचार्यैर्महात्मभिः।
वेदाश्च कतिधा व्यस्ता एतत् सौम्याभिधेहि नः॥

अनुवाद (हिन्दी)

शौनकजीने पूछा—साधुशिरोमणि सूतजी! वेदव्यासजीके शिष्य पैल आदि महर्षि बड़े महात्मा और वेदोंके आचार्य थे। उन लोगोंने कितने प्रकारसे वेदोंका विभाजन किया, यह बात आप कृपा करके हमें सुनाइये॥ ३६॥

श्लोक-३७

मूलम् (वचनम्)

सूत उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

समाहितात्मनो ब्रह्मन् ब्रह्मणः परमेष्ठिनः।
हृद्याकाशादभून्नादो वृत्तिरोधाद् विभाव्यते॥

मूलम्

समाहितात्मनो ब्रह्मन् ब्रह्मणः परमेष्ठिनः।
हृद्याकाशादभून्नादो वृत्तिरोधाद् विभाव्यते॥

अनुवाद (हिन्दी)

सूतजीने कहा—ब्रह्मन्! जिस समय परमेष्ठी ब्रह्माजी पूर्वसृष्टिका ज्ञान सम्पादन करनेके लिये एकाग्रचित्त हुए, उस समय उनके हृदयाकाशसे कण्ठ-तालु आदि स्थानोंके संघर्षसे रहित एक अत्यन्त विलक्षण अनाहत नाद प्रकट हुआ। जब जीव अपनी मनोवृत्तियोंको रोक लेता है, तब उसे भी उस अनाहत नादका अनुभव होता है॥ ३७॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

नादः आकाशगुणभूतः शब्दः ॥ ३७ ॥

श्लोक-३८

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदुपासनया ब्रह्मन् योगिनो मलमात्मनः।
द्रव्यक्रियाकारकाख्यं धूत्वा यान्त्यपुनर्भवम्॥

मूलम्

यदुपासनया ब्रह्मन् योगिनो मलमात्मनः।
द्रव्यक्रियाकारकाख्यं धूत्वा यान्त्यपुनर्भवम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

शौनकजी! बड़े-बड़े योगी उसी अनाहत नादकी उपासना करते हैं और उसके प्रभावसे अन्तःकरणके द्रव्य (अधिभूत), क्रिया (अध्यात्म) और कारक (अधिदैव) रूप मलको नष्ट करके वह परमगतिरूप मोक्ष प्राप्त करते हैं, जिसमें जन्म-मृत्युरूप संसारचक्र नहीं है॥ ३८॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

यदुपासनया अपुनर्भवं यान्तीति ज्ञानोत्पादनद्वारेणेति भावः । द्रव्यं शरीरं क्रियाकारकशब्दाभ्यां बन्धकं कर्म विविक्षितम् ॥ ३८ ॥

श्लोक-३९

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽभूत्त्रिवृदोङ्कारो योऽव्यक्तप्रभवः स्वराट्।
यत्तल्लिङ्गं भगवतो ब्रह्मणः परमात्मनः॥

मूलम्

ततोऽभूत्त्रिवृदोङ्कारो योऽव्यक्तप्रभवः स्वराट्।
यत्तल्लिङ्गं भगवतो ब्रह्मणः परमात्मनः॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसी अनाहत नादसे ‘अ’ कार, ‘उ’ कार और ‘म’ काररूप तीन मात्राओंसे युक्त ॐकार प्रकट हुआ। इस ॐकारकी शक्तिसे ही प्रकृति अव्यक्तसे व्यक्तरूपमें परिणत हो जाती है। ॐकार स्वयं भी अव्यक्त एवं अनादि है और परमात्मस्वरूप होनेके कारण स्वयंप्रकाश भी है। जिस परम वस्तुको भगवान् ब्रह्म अथवा परमात्माके नामसे कहा जाता है, उसके स्वरूपका बोध भी ॐकारके द्वारा ही होता है॥ ३९॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

ततोऽभूत त्रिवृदोङ्कार इति प्रथमं धारणरूपेण प्रतिपन्नः शब्दः प्रणवो व्यक्तोऽभूदित्यर्थः । अव्यक्तप्रभवः अयोगिभिर्ज्ञातुमशक्यप्रभवः स्वयमेव राजते स्वराट् लिङ्गं ज्ञापकं वाचकम् ॥ ३९ ॥

श्लोक-४०

विश्वास-प्रस्तुतिः

शृणोति य इमं स्फोटं सुप्तश्रोत्रे च शून्यदृक्।
येन वाग् व्यज्यते यस्य व्यक्तिराकाश आत्मनः॥

मूलम्

शृणोति य इमं स्फोटं सुप्तश्रोत्रे च शून्यदृक्।
येन वाग् व्यज्यते यस्य व्यक्तिराकाश आत्मनः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब श्रवणेन्द्रियकी शक्ति लुप्त हो जाती है, तब भी इस ॐकारको—समस्त अर्थोंको प्रकाशित करनेवाले स्फोट तत्त्वको जो सुनता है और सुषुप्ति एवं समाधि-अवस्थाओंमें सबके अभावको भी जानता है, वही परमात्माका विशुद्ध स्वरूप है। वही ॐकार परमात्मासे हृदयाकाशमें प्रकट होकर वेदरूपा वाणीको अभिव्यक्त करता है॥ ४०॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

इदं स्फोटं प्रणवरूपं यः शून्यदृक् अर्थान्तरज्ञानरहितः शृणोतीत्यन्वयः । येनेति । येन परमात्मना विश्वं कार्यं व्यज्यते सृज्यते यस्यात्मनः आकाशो व्यक्तकार्यभूतः आकाशादिप्रपञ्चकारणस्य तस्य ब्रह्मणो वाचक इत्यन्वयः । यद्वा, येन प्रणवेन परमात्मा व्यज्यते यस्य प्रणवस्य व्यक्तिरात्मनः आकाशे परमात्मनः स्थाने हृदयकाशे ॥ ४०-४१ ॥

श्लोक-४१

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वधाम्नो ब्रह्मणः साक्षाद् वाचकः परमात्मनः।
स सर्वमन्त्रोपनिषद्वेदबीजं सनातनम्॥

मूलम्

स्वधाम्नो ब्रह्मणः साक्षाद् वाचकः परमात्मनः।
स सर्वमन्त्रोपनिषद्वेदबीजं सनातनम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

ॐकार अपने आश्रय परमात्मा परब्रह्मका साक्षात् वाचक है और ॐकार ही सम्पूर्ण मन्त्र, उपनिषद् और वेदोंका सनातन बीज है॥ ४१॥

श्लोक-४२

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य ह्यासंस्त्रयो वर्णा अकाराद्या भृगूद्वह।
धार्यन्ते यैस्त्रयो भावा गुणनामार्थवृत्तयः॥

मूलम्

तस्य ह्यासंस्त्रयो वर्णा अकाराद्या भृगूद्वह।
धार्यन्ते यैस्त्रयो भावा गुणनामार्थवृत्तयः॥

अनुवाद (हिन्दी)

शौनकजी! ॐकारके तीन वर्ण हैं —‘अ’, ‘उ’, और ‘म’। ये ही तीनों वर्ण सत्त्व, रज, तम—इन तीन गुणों; ऋक्, यजुः, साम—इन तीन नामों; भूः, भुवः, स्वः—इन तीन अर्थों और जाग्रत् , स्वप्न, सुषुप्ति—इन तीन वृत्तियोंके रूपमें तीन-तीनकी संख्यावाले भावोंको धारण करते हैं॥ ४२॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

यैरकारादिभिः त्रयो भावाः सृष्ट्यादयः तेन गुणत्रयव्यापारभूताः ॥ ४२ ॥

श्लोक-४३

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽक्षरसमाम्नायमसृजद् भगवानजः।
अन्तःस्थोष्मस्वरस्पर्शह्रस्वदीर्घादिलक्षणम्॥

मूलम्

ततोऽक्षरसमाम्नायमसृजद् भगवानजः।
अन्तःस्थोष्मस्वरस्पर्शह्रस्वदीर्घादिलक्षणम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके बाद सर्वशक्तिमान् ब्रह्माजीने ॐकारसे ही अन्तःस्थ (य, र, ल, व), ऊष्म (श, ष, स, ह), स्वर (‘अ’ से ‘औ’ तक), स्पर्श (‘क से ‘म’ तक) तथा ह्रस्व और दीर्घ आदि लक्षणोंसे युक्त अक्षर-समाम्नाय अर्थात् वर्णमालाकी रचना की॥ ४३॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

ततः प्रणवात् अन्तस्था यरलवाः ऊष्माणः शषसहाः स्वरा अचः स्पर्शाः कादयो मावसानाः वर्णाः ॥ ४३ ॥

श्लोक-४४

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेनासौ चतुरो वेदांश्चतुर्भिवदनैर्विभुः।
सव्याहृतिकान् सोङ्कारांश्चातुर्होत्रविवक्षया॥

मूलम्

तेनासौ चतुरो वेदांश्चतुर्भिवदनैर्विभुः।
सव्याहृतिकान् सोङ्कारांश्चातुर्होत्रविवक्षया॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

चातुर्होत्रविवक्षया यज्ञप्रकाशनेच्छया ॥ ४४-६० ॥

श्लोक-४५

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुत्रानध्यापयत्तांस्तु ब्रह्मर्षीन् ब्रह्मकोविदान्।
ते तु धर्मोपदेष्टारः स्वपुत्रेभ्यः समादिशन्॥

मूलम्

पुत्रानध्यापयत्तांस्तु ब्रह्मर्षीन् ब्रह्मकोविदान्।
ते तु धर्मोपदेष्टारः स्वपुत्रेभ्यः समादिशन्॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसी वर्णमालाद्वारा उन्होंने अपने चार मुखोंसे होता, अध्वर्यु, उद‍्गाता और ब्रह्मा—इन चार ऋत्विजोंके कर्म बतलानेके लिये ॐकार और व्याहृतियोंके सहित चार वेद प्रकट किये और अपने पुत्र ब्रह्मर्षि मरीचि आदिको वेदाध्ययनमें कुशल देखकर उन्हें वेदोंकी शिक्षा दी। वे सभी जब धर्मका उपदेश करनेमें निपुण हो गये, तब उन्होंने अपने पुत्रोंको उनका अध्ययन कराया॥ ४४-४५॥

श्लोक-४६

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते परम्परया प्राप्तास्तत्तच्छिष्यैर्धृतव्रतैः।
चतुर्युगेष्वथ व्यस्ता द्वापरादौ महर्षिभिः॥

मूलम्

ते परम्परया प्राप्तास्तत्तच्छिष्यैर्धृतव्रतैः।
चतुर्युगेष्वथ व्यस्ता द्वापरादौ महर्षिभिः॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर, उन्हीं लोगोंके नैष्ठिक ब्रह्मचारी शिष्य-प्रशिष्योंके द्वारा चारों युगोंमें सम्प्रदायके रूपमें वेदोंकी रक्षा होती रही। द्वापरके अन्तमें महर्षियोंने उनका विभाजन भी किया॥ ४६॥

श्लोक-४७

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्षीणायुषः क्षीणसत्त्वान् दुर्मेधान् वीक्ष्य कालतः।
वेदान् ब्रह्मर्षयो व्यस्यन् हृदिस्थाच्युतचोदिताः॥

मूलम्

क्षीणायुषः क्षीणसत्त्वान् दुर्मेधान् वीक्ष्य कालतः।
वेदान् ब्रह्मर्षयो व्यस्यन् हृदिस्थाच्युतचोदिताः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब ब्रह्मवेत्ता ऋषियोंने देखा कि समयके फेरसे लोगोंकी आयु , शक्ति और बुद्धि क्षीण हो गयी है, तब उन्होंने अपने हृदय-देशमें विराजमान परमात्माकी प्रेरणासे वेदोंके अनेकों विभाग कर दिये॥ ४७॥

श्लोक-४८

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस्मिन्नप्यन्तरे ब्रह्मन् भगवाल्ँ‍लोकभावनः।
ब्रह्मेशाद्यैर्लोकपालैर्याचितो धर्मगुप्तये॥

मूलम्

अस्मिन्नप्यन्तरे ब्रह्मन् भगवाल्ँ‍लोकभावनः।
ब्रह्मेशाद्यैर्लोकपालैर्याचितो धर्मगुप्तये॥

श्लोक-४९

विश्वास-प्रस्तुतिः

पराशरात् सत्यवत्यामंशांशकलया विभुः।
अवतीर्णो महाभाग वेदं चक्रे चतुर्विधम्॥

मूलम्

पराशरात् सत्यवत्यामंशांशकलया विभुः।
अवतीर्णो महाभाग वेदं चक्रे चतुर्विधम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

शौनकजी! इस वैवस्वत मन्वन्तरमें भी ब्रह्मा-शंकर आदि लोकपालोंकी प्रार्थनासे अखिल विश्वके जीवनदाता भगवान‍्ने धर्मकी रक्षाके लिये महर्षि पराशरद्वारा सत्यवतीके गर्भसे अपने अंशांश-कलास्वरूप व्यासके रूपमें अवतार ग्रहण किया है। परम भाग्यवान् शौनकजी! उन्होंने ही वर्तमान युगमें वेदके चार विभाग किये हैं॥ ४८-४९॥

श्लोक-५०

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऋगथर्वयजुःसाम्नां राशीनुद्‍धृत्य वर्गशः।
चतस्रः संहिताश्चक्रे मन्त्रैर्मणिगणा इव॥

मूलम्

ऋगथर्वयजुःसाम्नां राशीनुद्‍धृत्य वर्गशः।
चतस्रः संहिताश्चक्रे मन्त्रैर्मणिगणा इव॥

श्लोक-५१

विश्वास-प्रस्तुतिः

तासां स चतुरः शिष्यानुपाहूय महामतिः।
एकैकां संहितां ब्रह्मन्नेकैकस्मै ददौ विभुः॥

मूलम्

तासां स चतुरः शिष्यानुपाहूय महामतिः।
एकैकां संहितां ब्रह्मन्नेकैकस्मै ददौ विभुः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे मणियोंके समूहमेंसे विभिन्न जातिकी मणियाँ छाँटकर अलग-अलग कर दी जाती हैं, वैसे ही महामति भगवान् व्यासदेवने मन्त्र-समुदायमेंसे भिन्न-भिन्न प्रकरणोंके अनुसार मन्त्रोंका संग्रह करके उनसे ऋग्, यजुः, साम और अथर्व—ये चार संहिताएँ बनायीं और अपने चार शिष्योंको बुलाकर प्रत्येकको एक-एक संहिताकी शिक्षा दी॥ ५०-५१॥

श्लोक-५२

विश्वास-प्रस्तुतिः

पैलाय संहितामाद्यां बह्वृचाख्यामुवाच ह।
वैशम्पायनसंज्ञाय निगदाख्यं यजुर्गणम्॥

मूलम्

पैलाय संहितामाद्यां बह्वृचाख्यामुवाच ह।
वैशम्पायनसंज्ञाय निगदाख्यं यजुर्गणम्॥

श्लोक-५३

विश्वास-प्रस्तुतिः

साम्नां जैमिनये प्राह तथा छन्दोगसंहिताम्।
अथर्वाङ्गिरसीं नाम स्वशिष्याय सुमन्तवे॥

मूलम्

साम्नां जैमिनये प्राह तथा छन्दोगसंहिताम्।
अथर्वाङ्गिरसीं नाम स्वशिष्याय सुमन्तवे॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने ‘बह्वृच’ नामकी पहली ऋक्संहिता पैलको, ‘निगद’ नामकी दूसरी यजुःसंहिता वैशम्पायनको, सामश्रुतियोंकी ‘छन्दोग-संहिता’ जैमिनिको और अपने शिष्य सुमन्तुको ‘अथर्वांगिरससंहिता’ का अध्ययन कराया॥ ५२-५३॥

श्लोक-५४

विश्वास-प्रस्तुतिः

पैलः स्वसंहितामूचे इन्द्रप्रमितये मुनिः।
बाष्कलाय च सोऽप्याह शिष्येभ्यः संहितां स्वकाम्॥

मूलम्

पैलः स्वसंहितामूचे इन्द्रप्रमितये मुनिः।
बाष्कलाय च सोऽप्याह शिष्येभ्यः संहितां स्वकाम्॥

श्लोक-५५

विश्वास-प्रस्तुतिः

चतुर्धा व्यस्य बोध्याय याज्ञवल्क्याय भार्गव।
पराशरायाग्निमित्रे इन्द्रप्रमितिरात्मवान्॥

मूलम्

चतुर्धा व्यस्य बोध्याय याज्ञवल्क्याय भार्गव।
पराशरायाग्निमित्रे इन्द्रप्रमितिरात्मवान्॥

श्लोक-५६

विश्वास-प्रस्तुतिः

अध्यापयत् संहितां स्वां माण्डूकेयमृषिं कविम्।
तस्य शिष्यो देवमित्रः सौभर्यादिभ्य ऊचिवान्॥

मूलम्

अध्यापयत् संहितां स्वां माण्डूकेयमृषिं कविम्।
तस्य शिष्यो देवमित्रः सौभर्यादिभ्य ऊचिवान्॥

अनुवाद (हिन्दी)

शौनकजी! पैल मुनिने अपनी संहिताके दो विभाग करके एकका अध्ययन इन्द्रप्रमितिको और दूसरेका बाष्कलको कराया। बाष्कलने भी अपनी शाखाके चार विभाग करके उन्हें अलग-अलग अपने शिष्य बोध, याज्ञवल्क्य, पराशर और अग्निमित्रको पढ़ाया। परमसंयमी इन्द्रप्रमितिने प्रतिभाशाली माण्डूकेय ऋषिको अपनी संहिताका अध्ययन कराया। माण्डूकेयके शिष्य थे—देवमित्र। उन्होंने सौभरि आदि ऋषियोंको वेदोंका अध्ययन कराया॥ ५४—५६॥

श्लोक-५७

विश्वास-प्रस्तुतिः

शाकल्यस्तत्सुतः स्वां तु पञ्चधा व्यस्य संहिताम्।
वात्स्यमुद‍्गलशालीयगोखल्यशिशिरेष्वधात्॥

मूलम्

शाकल्यस्तत्सुतः स्वां तु पञ्चधा व्यस्य संहिताम्।
वात्स्यमुद‍्गलशालीयगोखल्यशिशिरेष्वधात्॥

अनुवाद (हिन्दी)

माण्डूकेयके पुत्रका नाम था शाकल्य। उन्होंने अपनी संहिताके पाँच विभाग करके उन्हें वात्स्य, मुद‍्गल, शालीय, गोखल्य और शिशिर नामक शिष्योंको पढ़ाया॥ ५७॥

श्लोक-५८

विश्वास-प्रस्तुतिः

जातूकर्ण्यश्च तच्छिष्यः सनिरुक्तां स्वसंहिताम्।
बलाकपैजवैतालविरजेभ्यो ददौ मुनिः॥

मूलम्

जातूकर्ण्यश्च तच्छिष्यः सनिरुक्तां स्वसंहिताम्।
बलाकपैजवैतालविरजेभ्यो ददौ मुनिः॥

अनुवाद (हिन्दी)

शाकल्यके एक और शिष्य थे—जातूकर्ण्यमुनि। उन्होंने अपनी संहिताके तीन विभाग करके तत्सम्बन्धी निरुक्तके साथ अपने शिष्य बलाक, पैज, वैताल और विरजको पढ़ाया॥ ५८॥

श्लोक-५९

विश्वास-प्रस्तुतिः

बाष्कलिः प्रतिशाखाभ्यो बालखिल्याख्यसंहिताम्।
चक्रे बालायनिर्भज्यः कासारश्चैव तां दधुः॥

मूलम्

बाष्कलिः प्रतिशाखाभ्यो बालखिल्याख्यसंहिताम्।
चक्रे बालायनिर्भज्यः कासारश्चैव तां दधुः॥

अनुवाद (हिन्दी)

बाष्कलके पुत्र बाष्कलिने सब शाखाओंसे एक ‘वालखिल्य’ नामकी शाखा रची। उसे बालायनि, भज्य एवं कासारने ग्रहण किया॥ ५९॥

श्लोक-६०

विश्वास-प्रस्तुतिः

बह्वृचाः संहिता ह्येता एभिर्ब्रह्मर्षिभिर्धृताः।
श्रुत्वैतच्छन्दसां व्यासं सर्वपापैः प्रमुच्यते॥

मूलम्

बह्वृचाः संहिता ह्येता एभिर्ब्रह्मर्षिभिर्धृताः।
श्रुत्वैतच्छन्दसां व्यासं सर्वपापैः प्रमुच्यते॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन ब्रह्मर्षियोंने पूर्वोक्त सम्प्रदायके अनुसार ऋग्वेदसम्बन्धी बह्वृच शाखाओंको धारण किया। जो मनुष्य यह वेदोंके विभाजनका इतिहास श्रवण करता है, वह सब पापोंसे छूट जाता है॥ ६०॥

श्लोक-६१

विश्वास-प्रस्तुतिः

वैशम्पायनशिष्या वै चरकाध्वर्यवोऽभवन्।
यच्चेरुर्ब्रह्महत्यांहः क्षपणं स्वगुरोर्व्रतम्॥

मूलम्

वैशम्पायनशिष्या वै चरकाध्वर्यवोऽभवन्।
यच्चेरुर्ब्रह्महत्यांहः क्षपणं स्वगुरोर्व्रतम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

शौनकजी! वैशम्पायनके कुछ शिष्योंका नाम था चरकाध्वर्यु। इन लोगोंने अपने गुरुदेवके ब्रह्महत्याजनित पापका प्रायश्चित्त करनेके लिये एक व्रतका अनुष्ठान किया। इसीलिये इनका नाम ‘चरकाध्वर्यु’ पड़ा॥ ६१॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

चरकाध्वर्यवः अध्वर्युशाखाध्ययनादध्वर्यवः चरकशब्दनिरुक्तये चेरुरिति ॥ ६१ ॥

श्लोक-६२

विश्वास-प्रस्तुतिः

याज्ञवल्क्यश्च तच्छिष्य आहाहो भगवन् कियत्।
चरितेनाल्पसाराणां चरिष्येऽहं सुदुश्चरम्॥

मूलम्

याज्ञवल्क्यश्च तच्छिष्य आहाहो भगवन् कियत्।
चरितेनाल्पसाराणां चरिष्येऽहं सुदुश्चरम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनके एक शिष्य याज्ञवल्क्यमुनि भी थे। उन्होंने अपने गुरुदेवसे कहा—‘अहो भगवन्! ये चरकाध्वर्यु ब्राह्मण तो बहुत ही थोड़ी शक्ति रखते हैं। इनके व्रतपालनसे लाभ ही कितना है? मैं आपके प्रायश्चित्तके लिये बहुत ही कठिन तपस्या करूँगा’॥ ६२॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

अल्पसाराणां अल्पतपसामितरशिष्याणाम् ॥ ६२-६६ ॥

श्लोक-६३

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्तो गुरुरप्याह कुपितो याह्यलं त्वया।
विप्रावमन्त्रा शिष्येण मदधीतं त्यजाश्विति॥

मूलम्

इत्युक्तो गुरुरप्याह कुपितो याह्यलं त्वया।
विप्रावमन्त्रा शिष्येण मदधीतं त्यजाश्विति॥

अनुवाद (हिन्दी)

याज्ञवल्क्यमुनिकी यह बात सुनकर वैशम्पायनमुनिको क्रोध आ गया। उन्होंने कहा—‘बस-बस’, चुप रहो। तुम्हारे-जैसे ब्राह्मणोंका अपमान करनेवाले शिष्यकी मुझे कोई आवश्यकता नहीं है। देखो, अबतक तुमने मुझसे जो कुछ अध्ययन किया है उसका शीघ्र-से-शीघ्र त्याग कर दो और यहाँसे चले जाओ॥ ६३॥

श्लोक-६४

विश्वास-प्रस्तुतिः

देवरातसुतः सोऽपिच्छर्दित्वा यजुषां गणम्।
ततो गतोऽथ मुनयो ददृशुस्तान् यजुर्गणान्॥

मूलम्

देवरातसुतः सोऽपिच्छर्दित्वा यजुषां गणम्।
ततो गतोऽथ मुनयो ददृशुस्तान् यजुर्गणान्॥

श्लोक-६५

विश्वास-प्रस्तुतिः

यजूंषि तित्तिरा भूत्वा तल्लोलुपतयाऽऽददुः।
तैत्तिरीया इति यजुःशाखा आसन् सुपेशलाः॥

मूलम्

यजूंषि तित्तिरा भूत्वा तल्लोलुपतयाऽऽददुः।
तैत्तिरीया इति यजुःशाखा आसन् सुपेशलाः॥

अनुवाद (हिन्दी)

याज्ञवल्क्यजी देवरातके पुत्र थे। उन्होंने गुरुजीकी आज्ञा पाते ही उनके पढ़ाये हुए यजुर्वेदका वमन कर दिया और वे वहाँसे चले गये। जब मुनियोंने देखा कि याज्ञवल्क्यने तो यजुर्वेदका वमन कर दिया, तब उनके चित्तमें इस बातके लिये बड़ा लालच हुआ कि हमलोग किसी प्रकार इसको ग्रहण कर लें। परन्तु ब्राह्मण होकर उगले हुए मन्त्रोंको ग्रहण करना अनुचित है, ऐसा सोचकर वे तीतर बन गये और उस संहिताको चुग लिया। इसीसे यजुर्वेदकी वह परम रमणीय शाखा ‘तैत्तिरीय’ के नामसे प्रसिद्ध हुई॥ ६४-६५॥

श्लोक-६६

विश्वास-प्रस्तुतिः

याज्ञवल्क्यस्ततो ब्रह्मन् छन्दांस्यधिगवेषयन्।
गुरोरविद्यमानानि सूपतस्थेऽर्कमीश्वरम्॥

मूलम्

याज्ञवल्क्यस्ततो ब्रह्मन् छन्दांस्यधिगवेषयन्।
गुरोरविद्यमानानि सूपतस्थेऽर्कमीश्वरम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

शौनकजी! अब याज्ञवल्क्यने सोचा कि मैं ऐसी श्रुतियाँ प्राप्त करूँ, जो मेरे गुरुजीके पास भी न हों। इसके लिये वे सूर्यभगवान‍्का उपस्थान करने लगे॥ ६६॥

श्लोक-६७

मूलम् (वचनम्)

याज्ञवल्क्य उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ॐ नमो भगवते आदित्यायाखिलजगतामात्मस्वरूपेण कालस्वरूपेण चतुर्विधभूतनिकायानां ब्रह्मादिस्तम्बपर्यन्तानामन्तर्हृदयेषु बहिरपि चाकाश इवोपाधिनाव्यवधीयमानो भवानेक एव क्षणलवनिमेषावयवोपचितसंवत्सरगणेनापामादानविसर्गाभ्यामिमां लोकयात्रामनुवहति॥

मूलम्

ॐ नमो भगवते आदित्यायाखिलजगतामात्मस्वरूपेण कालस्वरूपेण चतुर्विधभूतनिकायानां ब्रह्मादिस्तम्बपर्यन्तानामन्तर्हृदयेषु बहिरपि चाकाश इवोपाधिनाव्यवधीयमानो भवानेक एव क्षणलवनिमेषावयवोपचितसंवत्सरगणेनापामादानविसर्गाभ्यामिमां लोकयात्रामनुवहति॥

अनुवाद (हिन्दी)

याज्ञवल्क्यजी इस प्रकार उपस्थान करते हैं—मैं ॐकारस्वरूप भगवान् सूर्यको नमस्कार करता हूँ। आप सम्पूर्ण जगत‍्के आत्मा और कालस्वरूप हैं। ब्रह्मासे लेकर तृणपर्यन्त जितने भी जरायुज, अण्डज, स्वेदज और उद‍्भिज्ज—चार प्रकारके प्राणी हैं, उन सबके हृदयदेशमें और बाहर आकाशके समान व्याप्त रहकर भी आप उपाधिके धर्मोंसे असंग रहनेवाले अद्वितीय भगवान् ही हैं। आप ही क्षण, लव, निमेष आदि अवयवोंसे संघटित संवत्सरोंके द्वारा एवं जलके आकर्षण-विकर्षण—आदान-प्रदानके द्वारा समस्त लोकोंकी जीवनयात्रा चलाते हैं॥ ६७॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

नम इत्यादि आदित्यमण्डलान्तर्वर्तिभगवतस्तुतिः ॥ ६७ ॥

श्लोक-६८

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदु ह वाव विबुधर्षभ सवितरदस्तपत्यनुसवनमहरहराम्नायविधिनोपतिष्ठमानानामखिलदुरितवृजिनबीजावभर्जन भगवतः समभिधीमहि तपनमण्डलम्॥

मूलम्

यदु ह वाव विबुधर्षभ सवितरदस्तपत्यनुसवनमहरहराम्नायविधिनोपतिष्ठमानानामखिलदुरितवृजिनबीजावभर्जन भगवतः समभिधीमहि तपनमण्डलम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभो! आप समस्त देवताओंमें श्रेष्ठ हैं। जो लोग प्रतिदिन तीनों समय वेद-विधिसे आपकी उपासना करते हैं, उनके सारे पाप और दुःखोंके बीजोंको आप भस्म कर देते हैं। सूर्यदेव! आप सारी सृष्टिके मूल कारण एवं समस्त ऐश्वर्योंके स्वामी हैं। इसलिये हम आपके इस तेजोमय मण्डलका पूरी एकाग्रताके साथ ध्यान करते हैं॥ ६८॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

यदुहेति । यन्मण्डलन्तपति इह स्थितोऽन्तर्यामी देहेन्द्रियासुगणाननात्मनश्च प्रचोदयतीत्यन्वयः ॥ ६८ ॥

श्लोक-६९

विश्वास-प्रस्तुतिः

य इह वाव स्थिरचरनिकराणां निजनिकेतनानां मनइन्द्रियासुगणाननात्मनः स्वयमात्मान्तर्यामी प्रचोदयति॥

मूलम्

य इह वाव स्थिरचरनिकराणां निजनिकेतनानां मनइन्द्रियासुगणाननात्मनः स्वयमात्मान्तर्यामी प्रचोदयति॥

अनुवाद (हिन्दी)

आप सबके आत्मा और अन्तर्यामी हैं। जगत‍्में जितने चराचर प्राणी हैं, सब आपके ही आश्रित हैं। आप ही उनके अचेतन मन, इन्द्रिय और प्राणोंके प्रेरक हैं*॥ ६९॥

पादटिप्पनी
  • ६७, ६८, ६९—इन तीनों वाक्योंद्वारा क्रमशः गायत्रीमन्त्रके ‘तत्सवितुर्वरेण्यम्,’ ‘भर्गो देवस्य धीमहि’ और ‘धियो यो नः प्रचोदयात् ’—इन तीन चरणोंकी व्याख्या करते हुए भगवान् सूर्यकी स्तुति की गयी है।
श्रीसुदर्शनसूरिः

स्थिरचरनिकराणामित्यादिष्टकर्मावस्था य एवेति तस्य तव चरणयुगलमुपसरामीत्यन्वयः ॥ ६९-८० ॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे द्वादशस्कन्धव्याख्याने श्रीसुदर्शनसूरिकृतशुकपक्षीये षष्ठोऽध्यायः ॥ ६ ॥

श्लोक-७०

विश्वास-प्रस्तुतिः

य एवेमं लोकमतिकरालवदनान्धकारसंज्ञाजगरग्रहगिलितं मृतकमिव विचेतनमवलोक्यानुकम्पया परमकारुणिक ईक्षयैवोत्थाप्याहरहरनुसवनं श्रेयसि स्वधर्माख्यात्मावस्थाने प्रवर्तयत्यवनिपतिरिवासाधूनां भयमुदीरयन्नटति॥

मूलम्

य एवेमं लोकमतिकरालवदनान्धकारसंज्ञाजगरग्रहगिलितं मृतकमिव विचेतनमवलोक्यानुकम्पया परमकारुणिक ईक्षयैवोत्थाप्याहरहरनुसवनं श्रेयसि स्वधर्माख्यात्मावस्थाने प्रवर्तयत्यवनिपतिरिवासाधूनां भयमुदीरयन्नटति॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह लोक प्रतिदिन अन्धकाररूप अजगरके विकराल मुँहमें पड़कर अचेत और मुर्दा-सा हो जाता है। आप परम करुणास्वरूप हैं, इसलिये कृपा करके अपनी दृष्टिमात्रसे ही इसे सचेत कर देते हैं और परम कल्याणके साधन समय-समयके धर्मानुष्ठानोंमें लगाकर आत्माभिमुख करते हैं। जैसे राजा दुष्टोंको भयभीत करता हुआ अपने राज्यमें विचरण करता है, वैसे ही आप चोर-जार आदि दुष्टोंको भयभीत करते हुए विचरते रहते हैं॥ ७०॥

श्लोक-७१

विश्वास-प्रस्तुतिः

परित आशापालैस्तत्र तत्र कमलकोशाञ्जलिभिरुपहृतार्हणः॥

मूलम्

परित आशापालैस्तत्र तत्र कमलकोशाञ्जलिभिरुपहृतार्हणः॥

अनुवाद (हिन्दी)

चारों ओर सभी दिक्पाल स्थान-स्थानपर अपनी कमलकी कलीके समान अंजलियोंसे आपको उपहार समर्पित करते हैं॥ ७१॥

श्लोक-७२

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ ह भगवंस्तव चरणनलिनयुगलं त्रिभुवनगुरुभिर्वन्दितमहमयातयामयजुःकाम उपसरामीति॥

मूलम्

अथ ह भगवंस्तव चरणनलिनयुगलं त्रिभुवनगुरुभिर्वन्दितमहमयातयामयजुःकाम उपसरामीति॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवन्! आपके दोनों चरणकमल तीनों लोकोंके गुरु-सदृश महानुभावोंसे भी वन्दित हैं। मैंने आपके युगल चरणकमलोंकी इसलिये शरण ली है कि मुझे ऐसे यजुर्वेदकी प्राप्ति हो, जो अबतक किसीको न मिला हो॥ ७२॥

श्लोक-७३

मूलम् (वचनम्)

सूत उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं स्तुतः स भगवान् वाजिरूपधरो हरिः।
यजूंष्ययातयामानि मुनयेऽदात् प्रसादितः॥

मूलम्

एवं स्तुतः स भगवान् वाजिरूपधरो हरिः।
यजूंष्ययातयामानि मुनयेऽदात् प्रसादितः॥

अनुवाद (हिन्दी)

सूतजी कहते हैं—शौकनादि ऋषियो! जब याज्ञवल्क्यमुनिने भगवान् सूर्यकी इस प्रकार स्तुति की, तब वे प्रसन्न होकर उनके सामने अश्वरूपसे प्रकट हुए और उन्हें यजुर्वेदके उन मन्त्रोंका उपदेश किया, जो अबतक किसीको प्राप्त न हुए थे॥ ७३॥

श्लोक-७४

विश्वास-प्रस्तुतिः

यजुर्भिरकरोच्छाखा दशपञ्च शतैर्विभुः।
जगृहुर्वाजसन्यस्ताः काण्वमाध्यन्दिनादयः॥

मूलम्

यजुर्भिरकरोच्छाखा दशपञ्च शतैर्विभुः।
जगृहुर्वाजसन्यस्ताः काण्वमाध्यन्दिनादयः॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके बाद याज्ञवल्क्यमुनिने यजुर्वेदके असंख्य मन्त्रोंसे उसकी पंद्रह शाखाओंकी रचना की। वही वाजसनेय शाखाके नामसे प्रसिद्ध हैं। उन्हें कण्व, माध्यन्दिन आदि ऋषियोंने ग्रहण किया॥ ७४॥

श्लोक-७५

विश्वास-प्रस्तुतिः

जैमिनेः सामगस्यासीत् सुमन्तुस्तनयो मुनिः।
सुन्वांस्तु तत्सुतस्ताभ्यामेकैकां प्राह संहिताम्॥

मूलम्

जैमिनेः सामगस्यासीत् सुमन्तुस्तनयो मुनिः।
सुन्वांस्तु तत्सुतस्ताभ्यामेकैकां प्राह संहिताम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह बात मैं पहले ही कह चूका हूँ कि महर्षि श्रीकृष्णद्वैपायनने जैमिनिमुनिको सामसंहिताका अध्ययन कराया। उनके पुत्र थे सुमन्तुमुनि और पौत्र थे सुन्वान्। जैमिनिमुनिने अपने पुत्र और पौत्रको एक-एक संहिता पढ़ायी॥ ७५॥

श्लोक-७६

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुकर्मा चापि तच्छिष्यः सामवेदतरोर्महान्।
सहस्रसंहिताभेदं चक्रे साम्नां ततो द्विजः॥

मूलम्

सुकर्मा चापि तच्छिष्यः सामवेदतरोर्महान्।
सहस्रसंहिताभेदं चक्रे साम्नां ततो द्विजः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैमिनिमुनिके एक शिष्यका नाम था सुकर्मा। वह एक महान् पुरुष था। जैसे एक वृक्षमें बहुत-सी डालियाँ होती हैं, वैसे ही सुकर्माने सामवेदकी एक हजार संहिताएँ बना दीं॥ ७६॥

श्लोक-७७

विश्वास-प्रस्तुतिः

हिरण्यनाभः कौसल्यः पौष्यञ्जिश्च सुकर्मणः।
शिष्यौ जगृहतुश्चान्य आवन्त्यो ब्रह्मवित्तमः॥

मूलम्

हिरण्यनाभः कौसल्यः पौष्यञ्जिश्च सुकर्मणः।
शिष्यौ जगृहतुश्चान्य आवन्त्यो ब्रह्मवित्तमः॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुकर्माके शिष्य कोसलदेश निवासी हिरण्यनाभ, पौष्यंजि और ब्रह्मवेत्ताओंमें श्रेष्ठ आवन्त्यने उन शाखाओंको ग्रहण किया॥ ७७॥

श्लोक-७८

विश्वास-प्रस्तुतिः

उदीच्याः सामगाः शिष्या आसन् पञ्चशतानि वै।
पौष्यञ्‍ज्‍यावन्त्ययोश्चापि तांश्च प्राच्यान् प्रचक्षते॥

मूलम्

उदीच्याः सामगाः शिष्या आसन् पञ्चशतानि वै।
पौष्यञ्‍ज्‍यावन्त्ययोश्चापि तांश्च प्राच्यान् प्रचक्षते॥

अनुवाद (हिन्दी)

पौष्यंजि और आवन्त्यके पाँच सौ शिष्य थे। वे उत्तर दिशाके निवासी होनेके कारण औदीच्य सामवेदी कहलाते थे। उन्हींको प्राच्य सामवेदी भी कहते हैं। उन्होंने एक-एक संहिताका अध्ययन किया॥ ७८॥

श्लोक-७९

विश्वास-प्रस्तुतिः

लौगाक्षिर्माङ्गलिः कुल्यः कुसीदः कुक्षिरेव च।
पौष्यञ्जिशिष्या जगृहुः संहितास्ते शतं शतम्॥

मूलम्

लौगाक्षिर्माङ्गलिः कुल्यः कुसीदः कुक्षिरेव च।
पौष्यञ्जिशिष्या जगृहुः संहितास्ते शतं शतम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

पौष्यंजिके और भी शिष्य थे—लौगाक्षि, मांगलि, कुल्य, कुसीद और कुक्षि। इसमेंसे प्रत्येक ने सौ-सौ संहिताओंका अध्ययन किया॥ ७९॥

श्लोक-८०

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृतो हिरण्यनाभस्य चतुर्विंशतिसंहिताः।
शिष्य ऊचे स्वशिष्येभ्यः शेषा आवन्त्य आत्मवान्॥

मूलम्

कृतो हिरण्यनाभस्य चतुर्विंशतिसंहिताः।
शिष्य ऊचे स्वशिष्येभ्यः शेषा आवन्त्य आत्मवान्॥

अनुवाद (हिन्दी)

हिरण्यनाभका शिष्य था—कृत। उसने अपने शिष्योंको चौबीस संहिताएँ पढ़ायीं। शेष संहिताएँ परम संयमी आवन्त्यने अपने शिष्योंको दीं। इस प्रकार सामवेदका विस्तार हुआ॥ ८०॥

अनुवाद (समाप्ति)

इति श्रीमद‍्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां द्वादशस्कन्धे वेदशाखाप्रणयनं नाम षष्ठोऽध्यायः॥ ६॥