[पञ्चमोऽध्यायः]
भागसूचना
श्रीशुकदेवजीका अन्तिम उपदेश
श्लोक-१
मूलम् (वचनम्)
श्रीशुक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अत्रानुवर्ण्यतेऽभीक्ष्णं विश्वात्मा भगवान् हरिः।
यस्य प्रसादजो ब्रह्मा रुद्रः क्रोधसमुद्भवः॥
मूलम्
अत्रानुवर्ण्यतेऽभीक्ष्णं विश्वात्मा भगवान् हरिः।
यस्य प्रसादजो ब्रह्मा रुद्रः क्रोधसमुद्भवः॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—प्रिय परीक्षित्! इस श्रीमद्भागवतमहापुराणमें बार-बार और सर्वत्र विश्वात्मा भगवान् श्रीहरिका ही संकीर्तन हुआ है। ब्रह्मा और रुद्र भी श्रीहरिसे पृथक् नहीं हैं, उन्हींकी प्रसाद-लीला और क्रोध-लीलाकी अभिव्यक्ति हैं॥ १॥
श्लोक-२
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वं तु राजन् मरिष्येति पशुबुद्धिमिमां जहि।
न जातः प्रागभूतोऽद्य देहवत्त्वं न नङ्क्ष्यसि॥
मूलम्
त्वं तु राजन् मरिष्येति पशुबुद्धिमिमां जहि।
न जातः प्रागभूतोऽद्य देहवत्त्वं न नङ्क्ष्यसि॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे राजन्! अब तुम यह पशुओंकी-सी अविवेकमूलक धारणा छोड़ दो कि मैं मरूँगा; जैसे शरीर पहले नहीं था और अब पैदा हुआ और फिर नष्ट हो जायगा, वैसे ही तुम भी पहले नहीं थे, तुम्हारा जन्म हुआ, तुम मर जाओगे—यह बात नहीं है॥ २॥
श्लोक-३
विश्वास-प्रस्तुतिः
न भविष्यसि भूत्वा त्वं पुत्रपौत्रादिरूपवान्।
बीजाङ्कुरवद् देहादेर्व्यतिरिक्तो यथानलः॥
मूलम्
न भविष्यसि भूत्वा त्वं पुत्रपौत्रादिरूपवान्।
बीजाङ्कुरवद् देहादेर्व्यतिरिक्तो यथानलः॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे बीजसे अंकुर और अंकुरसे बीजकी उत्पत्ति होती है, वैसे ही एक देहसे दूसरे देहकी और दूसरे देहसे तीसरेकी उत्पत्ति होती है। किन्तु तुम न तो किसीसे उत्पन्न हुए हो और न तो आगे पुत्र-पौत्रादिकोंके शरीरके रूपमें उत्पन्न होओगे। अजी, जैसे आग लकड़ीसे सर्वथा अलग रहती है—लकड़ीकी उत्पत्ति और विनाशसे सर्वथा परे, वैसे ही तुम भी शरीर आदिसे सर्वथा अलग हो॥ ३॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
भूत्वा पुत्रपौत्रादिरूपवान् न च भविष्यसि न पुनर्जननं बीजाङ्कुरन्यायेन सन्तानोत्पादकश्च न भविष्यसीत्यर्थः यथाऽनलः काष्ठादिति शेषः ॥ ३ ॥
श्लोक-४
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वप्ने यथा शिरश्छेदं पञ्चत्वाद्यात्मनः स्वयम्।
यस्मात् पश्यति देहस्य तत आत्मा ह्यजोऽमरः॥
मूलम्
स्वप्ने यथा शिरश्छेदं पञ्चत्वाद्यात्मनः स्वयम्।
यस्मात् पश्यति देहस्य तत आत्मा ह्यजोऽमरः॥
अनुवाद (हिन्दी)
स्वप्नावस्थामें ऐसा मालूम होता है कि मेरा सिर कट गया है और मैं मर गया हूँ, मुझे लोग श्मशानमें जला रहे हैं; परन्तु ये सब शरीरकी ही अवस्थाएँ दीखती हैं, आत्माकी नहीं। देखनेवाला तो उन अवस्थाओंसे सर्वथा परे, जन्म और मृत्युसे रहित, शुद्ध-बुद्ध परमतत्त्वस्वरूप है॥ ४॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
स्वप्ने देहादप्यात्माविलक्षण इत्यर्थः ॥ ४ ॥
श्लोक-५
विश्वास-प्रस्तुतिः
घटे भिन्ने यथाऽऽकाश आकाशः स्याद् यथा पुरा।
एवं देहे मृते जीवो ब्रह्म सम्पद्यते पुनः॥
मूलम्
घटे भिन्ने यथाऽऽकाश आकाशः स्याद् यथा पुरा।
एवं देहे मृते जीवो ब्रह्म सम्पद्यते पुनः॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे घड़ा फूट जानेपर आकाश पहलेकी ही भाँति अखण्ड रहता है, परन्तु घटाकाशताकी निवृत्ति हो जानेसे लोगोंको ऐसा प्रतीत होता है कि वह महाकाशसे मिल गया है—वास्तवमें तो वह मिला हुआ था ही, वैसे ही देहपात हो जानेपर ऐसा मालूम पड़ता है मानो जीव ब्रह्म हो गया। वास्तवमें तो वह ब्रह्म था ही, उसकी अब्रह्मता तो प्रतीतिमात्र थी॥ ५॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
यथा पुरा स्यात् निरुपाधिकः स्यात् एवं जीवो ब्रह्म सम्पद्यते परिशुद्धावस्थो भवतीत्यर्थः । ब्रह्मशब्दोऽत्र मुक्तात्मवाची ‘ब्रह्मभूयाय कल्पते, ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहम्’ इति प्रयोगात् ॥ ५ ॥
श्लोक-६
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनः सृजति वै देहान् गुणान् कर्माणि चात्मनः।
तन्मनः सृजते माया ततो जीवस्य संसृतिः॥
मूलम्
मनः सृजति वै देहान् गुणान् कर्माणि चात्मनः।
तन्मनः सृजते माया ततो जीवस्य संसृतिः॥
अनुवाद (हिन्दी)
मन ही आत्माके लिये शरीर, विषय और कर्मोंकी कल्पना कर लेता है; और उस मनकी सृष्टि करती है माया (अविद्या)। वास्तवमें माया ही जीवके संसार-चक्रमें पड़नेका कारण है॥ ६॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
मनः सृजतीति मनसो देहादिसृष्टिहेतुत्वं पुण्यपापद्वारेत्याह- कर्माणि चेति । माया प्रकृतिः ॥ ६ ॥
श्लोक-७
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्नेहाधिष्ठानवर्त्यग्निसंयोगो यावदीयते।
ततो दीपस्य दीपत्वमेवं देहकृतो भवः।
रजःसत्त्वतमोवृत्त्या जायतेऽथ विनश्यति॥
मूलम्
स्नेहाधिष्ठानवर्त्यग्निसंयोगो यावदीयते।
ततो दीपस्य दीपत्वमेवं देहकृतो भवः।
रजःसत्त्वतमोवृत्त्या जायतेऽथ विनश्यति॥
अनुवाद (हिन्दी)
जबतक तेल, तेल रखनेका पात्र, बत्ती और आगका संयोग रहता है, तभीतक दीपकमें दीपकपना है; वैसे ही उनके ही समान जबतक आत्माका कर्म, मन, शरीर और इनमें रहनेवाले चैतन्याध्यासके साथ सम्बन्ध रहता है तभीतक उसे जन्म-मृत्युके चक्र संसारमें भटकना पड़ता है और रजोगुण, सत्त्वगुण तथा तमोगुणकी वृत्तियोंसे उसे उत्पन्न, स्थित एवं विनष्ट होना पड़ता है॥ ७॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
एवं देहकृतो भव इति कर्मारब्धदेहेन्द्रियावधिको भवति इत्यर्थः । रजः सत्त्वं तमोवृत्त्या गुणत्रयसंसर्गादात्मनो जन्ममरणादिः स्वतस्तु तद्विलक्षणो नित्य इत्यर्थः ॥ ७ ॥
श्लोक-८
विश्वास-प्रस्तुतिः
न तत्रात्मा स्वयंज्योतिर्यो व्यक्ताव्यक्तयोः परः।
आकाश इव चाधारो ध्रुवोऽनन्तोपमस्ततः॥
मूलम्
न तत्रात्मा स्वयंज्योतिर्यो व्यक्ताव्यक्तयोः परः।
आकाश इव चाधारो ध्रुवोऽनन्तोपमस्ततः॥
अनुवाद (हिन्दी)
परन्तु जैसे दीपकके बुझ जानेसे तत्त्वरूप तेजका विनाश नहीं होता, वैसे ही संसारका नाश होनेपर भी स्वयंप्रकाश आत्माका नाश नहीं होता। क्योंकि वह कार्य और कारण, व्यक्त और अव्यक्त सबसे परे है, वह आकाशके समान सबका आधार है, नित्य और निश्चल है, वह अनन्त है। सचमुच आत्माकी उपमा आत्मा ही है॥ ८॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
परो जीवादन्यः ॥ ८ ॥
श्लोक-९
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमात्मानमात्मस्थमात्मनैवामृश प्रभो।
बुद्ध्यानुमानगर्भिण्या वासुदेवानुचिन्तया॥
मूलम्
एवमात्मानमात्मस्थमात्मनैवामृश प्रभो।
बुद्ध्यानुमानगर्भिण्या वासुदेवानुचिन्तया॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे राजन्! तुम अपनी विशुद्ध एवं विवेकवती बुद्धिको परमात्माके चिन्तनसे भरपूर कर लो और स्वयं ही अपने अन्तरमें स्थित परमात्माका साक्षात्कार करो॥ ९॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
परमात्मानं जीवम् आत्मस्थं परमात्मस्थम् ॥ ९ ॥
श्लोक-१०
विश्वास-प्रस्तुतिः
चोदितो विप्रवाक्येन न त्वां धक्ष्यति तक्षकः।
मृत्यवो नोपधक्ष्यन्ति मृत्यूनां मृत्युमीश्वरम्॥
मूलम्
चोदितो विप्रवाक्येन न त्वां धक्ष्यति तक्षकः।
मृत्यवो नोपधक्ष्यन्ति मृत्यूनां मृत्युमीश्वरम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
देखो, तुम मृत्युओंकी भी मृत्यु हो! तुम स्वयं ईश्वर हो। ब्राह्मणके शापसे प्रेरित तक्षक तुम्हें भस्म न कर सकेगा। अजी, तक्षककी तो बात ही क्या, स्वयं मृत्यु और मृत्युओंका समूह भी तुम्हारे पासतक न फटक सकेंगे॥ १०॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
न त्वां धक्ष्यति तव दाहवेदना भविष्यतीत्यर्थः । मृत्यव इति ईश्वरो मृत्युः मृत्युं तं यथा मृत्युर्धक्ष्यति एवं तद्भक्तानपि नेत्यर्थः ॥ १० ॥
श्लोक-११
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहं ब्रह्म परं धाम ब्रह्माहं परमं पदम्।
एवं समीक्षन्नात्मानमात्मन्याधाय निष्कले॥
मूलम्
अहं ब्रह्म परं धाम ब्रह्माहं परमं पदम्।
एवं समीक्षन्नात्मानमात्मन्याधाय निष्कले॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुम इस प्रकार अनुसंधान—चिन्तन करो कि ‘मैं ही सर्वाधिष्ठान परब्रह्म हूँ। सर्वाधिष्ठान ब्रह्म मैं ही हूँ।’ इस प्रकार तुम अपने-आपको अपने वास्तविक एकरस अनन्त अखण्ड स्वरूपमें स्थित कर लो॥ ११॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
अहं ब्रह्मेति ब्रह्माहमिति च तात्पर्यभेदेन विशेषणप्रधानो विशेष्यप्रधानश्च निर्देशभेदः परं पदं परमप्राप्यम् ॥ ११ ॥
श्लोक-१२
विश्वास-प्रस्तुतिः
दशन्तं तक्षकं पादे लेलिहानं विषाननैः।
न द्रक्ष्यसि शरीरं च विश्वं च पृथगात्मनः॥
मूलम्
दशन्तं तक्षकं पादे लेलिहानं विषाननैः।
न द्रक्ष्यसि शरीरं च विश्वं च पृथगात्मनः॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय अपनी विषैली जीभ लपलपाता हुआ, अपने होठोंके कोने चाटता हुआ तक्षक आये और अपने विषपूर्ण मुखोंसे तुम्हारे पैरोंमें डस ले—कोई परवा नहीं। तुम अपने आत्मस्वरूपमें स्थित होकर इस शरीरको—और तो क्या, सारे विश्वको भी अपनेसे पृथक् न देखोगे॥ १२॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
न द्रक्ष्यसीति भगवत्स्मृत्यादितत्पदं न तथा दुःखादेर्हेतुभूतमन्यन्नवेत्स्यसीत्यर्थः ॥ १२ -१३ ॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे द्वादशस्कन्धव्याख्याने श्रीसुदर्शनसूरिकृतशुकपक्षीये पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५ ॥
श्लोक-१३
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतत्ते कथितं तात यथाऽऽत्मा पृष्टवान् नृप।
हरेर्विश्वात्मनश्चेष्टां किं भूयः श्रोतुमिच्छसि॥
मूलम्
एतत्ते कथितं तात यथाऽऽत्मा पृष्टवान् नृप।
हरेर्विश्वात्मनश्चेष्टां किं भूयः श्रोतुमिच्छसि॥
अनुवाद (हिन्दी)
आत्मस्वरूप बेटा परीक्षित्! तुमने विश्वात्मा भगवान्की लीलाके सम्बन्धमें जो प्रश्न किया था, उसका उत्तर मैंने दे दिया, अब और क्या सुनना चाहते हो?॥ १३॥
अनुवाद (समाप्ति)
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां द्वादशस्कन्धे ब्रह्मोपदेशो नाम पञ्चमोऽध्यायः॥ ५ ॥