०४

[चतुर्थोऽध्यायः]

भागसूचना

चार प्रकारके प्रलय

श्लोक-१

मूलम् (वचनम्)

श्रीशुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

कालस्ते परमाण्वादिर्द्विपरार्धावधिर्नृप।
कथितो युगमानं च शृणु कल्पलयावपि॥

मूलम्

कालस्ते परमाण्वादिर्द्विपरार्धावधिर्नृप।
कथितो युगमानं च शृणु कल्पलयावपि॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! (तीसरे स्कन्धमें) परमाणुसे लेकर द्विपरार्धपर्यन्त कालका स्वरूप और एक-एक युग कितने-कितने वर्षोंका होता है, यह मैं तुम्हें बतला चुका हूँ। अब तुम कल्पकी स्थिति और उसके प्रलयका वर्णन भी सुनो॥ १॥

श्लोक-२

विश्वास-प्रस्तुतिः

चतुर्युगसहस्रं च ब्रह्मणो दिनमुच्यते।
स कल्पो यत्र मनवश्चतुर्दश विशांपते॥

मूलम्

चतुर्युगसहस्रं च ब्रह्मणो दिनमुच्यते।
स कल्पो यत्र मनवश्चतुर्दश विशांपते॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! एक हजार चतुर्युगीका ब्रह्माका एक दिन होता है। ब्रह्माके इस दिनको ही कल्प भी कहते हैं। एक कल्पमें चौदह मनु होते हैं॥ २॥

श्लोक-३

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदन्ते प्रलयस्तावान् ब्राह्मी रात्रिरुदाहृता।
त्रयो लोका इमे तत्र कल्पन्ते प्रलयाय हि॥

मूलम्

तदन्ते प्रलयस्तावान् ब्राह्मी रात्रिरुदाहृता।
त्रयो लोका इमे तत्र कल्पन्ते प्रलयाय हि॥

अनुवाद (हिन्दी)

कल्पके अन्तमें उतने ही समयतक प्रलय भी रहता है। प्रलयको ही ब्रह्माकी रात भी कहते हैं। उस समय ये तीनों लोक लीन हो जाते हैं, उनका प्रलय हो जाता है॥ ३॥

श्लोक-४

विश्वास-प्रस्तुतिः

एष नैमित्तिकः प्रोक्तः प्रलयो यत्र विश्वसृक्।
शेतेऽनन्तासनो विश्वमात्मसात्कृत्य चात्मभूः॥

मूलम्

एष नैमित्तिकः प्रोक्तः प्रलयो यत्र विश्वसृक्।
शेतेऽनन्तासनो विश्वमात्मसात्कृत्य चात्मभूः॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसका नाम नैमित्तिक प्रलय है। इस प्रलयके अवसरपर सारे विश्वको अपने अंदर समेटकर—लीन कर ब्रह्मा और तत्पश्चात् शेषशायी भगवान् नारायण भी शयन कर जाते हैं॥ ४॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

आत्मभूशब्दस्य चतुर्मखपरत्वे तस्यानन्तासनत्वं प्रासादखट्वापर्यङ्कन्यायादुपपद्यते “कृष्णनाभिहृदोद्भूतकमलोदरशायिने” इत्यनन्तशयनभगवन्नाभिपद्मशायित्वं स्मर्यते ब्रह्मणः ॥ ४ ॥

श्लोक-५

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्विपरार्धे त्वतिक्रान्ते ब्रह्मणः परमेष्ठिनः।
तदा प्रकृतयः सप्त कल्पन्ते प्रलयाय वै॥

मूलम्

द्विपरार्धे त्वतिक्रान्ते ब्रह्मणः परमेष्ठिनः।
तदा प्रकृतयः सप्त कल्पन्ते प्रलयाय वै॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार रातके बाद दिन और दिनके बाद रात होते-होते जब ब्रह्माजीकी अपने मानसे सौ वर्षकी और मनुष्योंकी दृष्टिमें दो परार्द्धकी आयु समाप्त हो जाती है, तब महत्तत्त्व, अहंकार और पंचतन्मात्रा—ये सातों प्रकृतियाँ अपने कारण मूल प्रकृतिमें लीन हो जाती हैं॥ ५॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

सप्तप्रकृतयः महदहङ्काराकाशादयः ॥ ५ ॥

श्लोक-६

विश्वास-प्रस्तुतिः

एष प्राकृतिको राजन् प्रलयो यत्र लीयते।
आण्डकोशस्तु सङ्घातो विघात उपसादिते॥

मूलम्

एष प्राकृतिको राजन् प्रलयो यत्र लीयते।
आण्डकोशस्तु सङ्घातो विघात उपसादिते॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! इसीका नाम प्राकृतिक प्रलय है। इस प्रलयमें प्रलयका कारण उपस्थित होनेपर पंचभूतोंके मिश्रणसे बना हुआ ब्रह्माण्ड अपना स्थूलरूप छोड़कर कारणरूपमें स्थित हो जाता है, घुल-मिल जाता है॥ ६॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

यत्र प्रलये अण्डकोशो लीयत इत्यन्वयः । विघाते शैथिल्ये ॥ ६ ॥

श्लोक-७

विश्वास-प्रस्तुतिः

पर्जन्यः शतवर्षाणि भूमौ राजन् न वर्षति।
तदा निरन्ने ह्यन्योन्यं भक्षमाणाः क्षुधार्दिताः॥

मूलम्

पर्जन्यः शतवर्षाणि भूमौ राजन् न वर्षति।
तदा निरन्ने ह्यन्योन्यं भक्षमाणाः क्षुधार्दिताः॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! प्रलयका समय आनेपर सौ वर्षतक मेघ पृथ्वीपर वर्षा नहीं करते। किसीको अन्न नहीं मिलता। उस समय प्रजा भूख-प्याससे व्याकुल होकर एक-दूसरेको खाने लगती है॥ ७॥

श्लोक-८

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्षयं यास्यन्ति शनकैः कालेनोपद्रुताः प्रजाः।
सामुद्रं दैहिकं भौमं रसं सांवर्तको रविः॥

मूलम्

क्षयं यास्यन्ति शनकैः कालेनोपद्रुताः प्रजाः।
सामुद्रं दैहिकं भौमं रसं सांवर्तको रविः॥

श्लोक-९

विश्वास-प्रस्तुतिः

रश्मिभिः पिबते घोरैः सर्वं नैव विमुञ्चति।
ततः संवर्तको वह्निः सङ्कर्षणमुखोत्थितः॥

मूलम्

रश्मिभिः पिबते घोरैः सर्वं नैव विमुञ्चति।
ततः संवर्तको वह्निः सङ्कर्षणमुखोत्थितः॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार कालके उपद्रवसे पीड़ित होकर धीरे-धीरे सारी प्रजा क्षीण हो जाती है। प्रलयकालीन सांवर्तक सूर्य अपनी प्रचण्ड किरणोंसे समुद्र, प्राणियोंके शरीर और पृथ्वीका सारा रस खींच-खींचकर सोख जाते हैं और फिर उन्हें सदाकी भाँति पृथ्वीपर बरसाते नहीं। उस समय संकर्षण भगवान‍्के मुखसे प्रलयकालीन संवर्तक अग्नि प्रकट होती है॥ ८-९॥

श्लोक-१०

विश्वास-प्रस्तुतिः

दहत्यनिलवेगोत्थः शून्यान् भूविवरानथ।
उपर्यधः समन्ताच्च शिखाभिर्वह्निसूर्ययोः॥

मूलम्

दहत्यनिलवेगोत्थः शून्यान् भूविवरानथ।
उपर्यधः समन्ताच्च शिखाभिर्वह्निसूर्ययोः॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

भूविवराणि पातालादीनि ॥ १० ॥

श्लोक-११

विश्वास-प्रस्तुतिः

दह्यमानं विभात्यण्डं दग्धगोमयपिण्डवत्।
ततः प्रचण्डपवनो वर्षाणामधिकं शतम्॥

मूलम्

दह्यमानं विभात्यण्डं दग्धगोमयपिण्डवत्।
ततः प्रचण्डपवनो वर्षाणामधिकं शतम्॥

श्लोक-१२

विश्वास-प्रस्तुतिः

परः सांवर्तको वाति धूम्रं खं रजसाऽऽवृतम्।
ततो मेघकुलान्यङ्ग चित्रवर्णान्यनेकशः॥

मूलम्

परः सांवर्तको वाति धूम्रं खं रजसाऽऽवृतम्।
ततो मेघकुलान्यङ्ग चित्रवर्णान्यनेकशः॥

श्लोक-१३

विश्वास-प्रस्तुतिः

शतं वर्षाणि वर्षन्ति नदन्ति रभसस्वनैः।
तत एकोदकं विश्वं ब्रह्माण्डविवरान्तरम्॥

मूलम्

शतं वर्षाणि वर्षन्ति नदन्ति रभसस्वनैः।
तत एकोदकं विश्वं ब्रह्माण्डविवरान्तरम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

वायुके वेगसे वह और भी बढ़ जाती है और तल-अतल आदि सातों नीचेके लोकोंको भस्म कर देती है। वहाँके प्राणी तो पहले ही मर चुके होते हैं नीचेसे आगकी करारी लपटें और ऊपरसे सूर्यकी प्रचण्ड गरमी! उस समय ऊपर-नीचे, चारों ओर यह ब्रह्माण्ड जलने लगता है और ऐसा जान पड़ता है, मानो गोबरका उपला जलकर अंगारेके रूपमें दहक रहा हो। इसके बाद प्रलयकालीन अत्यन्त प्रचण्ड सांवर्तक वायु सैकड़ों वर्षोंतक चलती रहती है। उस समयका आकाश धूएँ और धूलसे तो भरा ही रहता है, उसके बाद असंख्यों रंग-बिरंगे बादल आकाशमें मँडराने लगते हैं और बड़ी भयंकरताके साथ गरज-गरजकर सैकड़ों वर्षोंतक वर्षा करते रहते हैं। उस समय ब्रह्माण्डके भीतरका सारा संसार एक समुद्र हो जाता है, सब कुछ जलमग्न हो जाता है॥ १०—१३॥

श्लोक-१४

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदा भूमेर्गन्धगुणं ग्रसन्त्याप उदप्लवे।
ग्रस्तगन्धा तु पृथिवी प्रलयत्वाय कल्पते॥

मूलम्

तदा भूमेर्गन्धगुणं ग्रसन्त्याप उदप्लवे।
ग्रस्तगन्धा तु पृथिवी प्रलयत्वाय कल्पते॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार जब जल-प्रलय हो जाता है, तब जल पृथ्वीके विशेष गुण गन्धको ग्रस लेता है—अपनेमें लीन कर लेता है। गन्ध गुणके जलमें लीन हो जानेपर पृथ्वीका प्रलय हो जाता है, वह जलमें घुल-मिलकर जलरूप बन जाती है॥ १४॥

श्लोक-१५

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपां रसमथो तेजस्ता लीयन्तेऽथ नीरसाः।
ग्रसते तेजसो रूपं वायुस्तद्रहितं तदा॥

मूलम्

अपां रसमथो तेजस्ता लीयन्तेऽथ नीरसाः।
ग्रसते तेजसो रूपं वायुस्तद्रहितं तदा॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

तेजः ग्रसतीत्यन्वयः । ता आपः ॥ १५ ॥

श्लोक-१६

विश्वास-प्रस्तुतिः

लीयते चानिले तेजो वायोः खं ग्रसते गुणम्।
स वै विशति खं राजंस्ततश्च नभसो गुणम्॥

मूलम्

लीयते चानिले तेजो वायोः खं ग्रसते गुणम्।
स वै विशति खं राजंस्ततश्च नभसो गुणम्॥

श्लोक-१७

विश्वास-प्रस्तुतिः

शब्दं ग्रसति भूतादिर्नभस्तमनुलीयते।
तैजसश्चेन्द्रियाण्यङ्ग देवान् वैकारिको गुणैः॥

मूलम्

शब्दं ग्रसति भूतादिर्नभस्तमनुलीयते।
तैजसश्चेन्द्रियाण्यङ्ग देवान् वैकारिको गुणैः॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! इसके बाद जलके गुण रसको तेजस‍्तत्त्व ग्रस लेता है और जल नीरस होकर तेजमें समा जाता है। तदनन्तर वायु तेजके गुण रूपको ग्रस लेता है और तेज रूपरहित होकर वायुमें लीन हो जाता है। अब आकाश वायुके गुण स्पर्शको अपनेमें मिला लेता है और वायु स्पर्शहीन होकर आकाशमें शान्त हो जाता है। इसके बाद तामस अहंकार आकाशके गुण शब्दको ग्रस लेता है और आकाश शब्दहीन होकर तामस अहंकारमें लीन हो जाता है। इसी प्रकार तैजस अहंकार इन्द्रियोंको और वैकारिक (सात्त्विक) अहंकार इन्द्रियाधिष्ठातृदेवता और इन्द्रियवृत्तियोंको अपनेमें लीन कर लेता है॥ १५—१७॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

देवान् ज्ञानेन्द्रियाणि अहङ्कारो ग्रसतीत्यध्याहारः गुणा ग्रसन्तीत्युपचारः गुणमयी प्रकृतिरेव ग्रसति महान्तमव्याकृतं गुणान् ग्रसतीतिविषमान् गुणान् समीकरोतीत्यर्थः ॥ १७ - १८॥

श्लोक-१८

विश्वास-प्रस्तुतिः

महान् ग्रसत्यहङ्कारं गुणाः सत्त्वादयश्च तम्।
ग्रसतेऽव्याकृतं राजन् गुणान् कालेन चोदितम्॥

मूलम्

महान् ग्रसत्यहङ्कारं गुणाः सत्त्वादयश्च तम्।
ग्रसतेऽव्याकृतं राजन् गुणान् कालेन चोदितम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् महत्तत्त्व अहंकारको और सत्त्व आदि गुण महत्तत्त्वको ग्रस लेते हैं। परीक्षित्! यह सब कालकी महिमा है। उसीकी प्रेरणासे अव्यक्त प्रकृति गुणोंको ग्रस लेती है और तब केवल प्रकृति-ही-प्रकृति शेष रह जाती है॥ १८॥

श्लोक-१९

विश्वास-प्रस्तुतिः

न तस्य कालावयवैः परिणामादयो गुणाः।
अनाद्यनन्तमव्यक्तं नित्यं कारणमव्ययम्॥

मूलम्

न तस्य कालावयवैः परिणामादयो गुणाः।
अनाद्यनन्तमव्यक्तं नित्यं कारणमव्ययम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

वही चराचर जगत‍्का मूल कारण है। वह अव्यक्त, अनादि, अनन्त, नित्य और अविनाशी है। जब वह अपने कार्योंको लीन करके प्रलयके समय साम्यावस्थाको प्राप्त हो जाती है, तब कालके अवयव वर्ष, मास, दिन-रात क्षण आदिके कारण उसमें परिणाम, क्षय, वृद्धि आदि किसी प्रकारके विकार नहीं होते॥ १९॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

परिणामशब्दो वृद्धेः पूर्वावस्थापरः ॥ १९ ॥

श्लोक-२०

विश्वास-प्रस्तुतिः

न यत्र वाचो न मनो न सत्त्वं
तमो रजो वा महदादयोऽमी।
न प्राणबुद्धीन्द्रियदेवता वा
न सन्निवेशः खलु लोककल्पः॥

मूलम्

न यत्र वाचो न मनो न सत्त्वं
तमो रजो वा महदादयोऽमी।
न प्राणबुद्धीन्द्रियदेवता वा
न सन्निवेशः खलु लोककल्पः॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय प्रकृतिमें स्थूल अथवा सूक्ष्मरूपसे वाणी, मन, सत्त्वगुण, रजोगुण, तमोगुण, महत्तत्त्व आदि विकार, प्राण, बुद्धि, इन्द्रिय और उनके देवता आदि कुछ नहीं रहते। सृष्टिके समय रहनेवाले लोकोंकी कल्पना और उनकी स्थिति भी नहीं रहती॥ २०॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

न यत्रेति जाग्रत् इत्यादि वचस्तद्गोचरं मनश्च न प्रवर्त्तत इत्यर्थः । सत्त्वादिशब्दे विषमावस्थं गुणत्रयं विवक्षितम् ॥ २० ॥

श्लोक-२१

विश्वास-प्रस्तुतिः

न स्वप्नजाग्रन्न च तत् सुषुप्तं
न खं जलं भूरनिलोऽग्निरर्कः।
संसुप्तवच्छून्यवदप्रतर्क्यं
तन्मूलभूतं पदमामनन्ति॥

मूलम्

न स्वप्नजाग्रन्न च तत् सुषुप्तं
न खं जलं भूरनिलोऽग्निरर्कः।
संसुप्तवच्छून्यवदप्रतर्क्यं
तन्मूलभूतं पदमामनन्ति॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय स्वप्न, जाग्रत् और सुषुप्ति—ये तीन अवस्थाएँ नहीं रहतीं। आकाश, जल, पृथ्वी, वायु, अग्नि और सूर्य भी नहीं रहते। सब कुछ सोये हुए के समान शून्य-सा रहता है। उस अवस्थाका तर्कके द्वारा अनुमान करना भी असम्भव है। उस अव्यक्तको ही जगत‍्का मूलभूत तत्त्व कहते हैं॥ २१॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

पदं लयस्थानम् ॥ २१ ॥

श्लोक-२२

विश्वास-प्रस्तुतिः

लयः प्राकृतिको ह्येष पुरुषाव्यक्तयोर्यदा।
शक्तयः सम्प्रलीयन्ते विवशाः कालविद्रुताः॥

मूलम्

लयः प्राकृतिको ह्येष पुरुषाव्यक्तयोर्यदा।
शक्तयः सम्प्रलीयन्ते विवशाः कालविद्रुताः॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी अवस्थाका नाम ‘प्राकृत प्रलय’ है। उस समय पुरुष और प्रकृति दोनोंकी शक्तियाँ कालके प्रभावसे क्षीण हो जाती हैं और विवश होकर अपने मूल-स्वरूपमें लीन हो जाती हैं॥ २२॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

पुरुषस्य लयोऽत्यन्तज्ञानसङ्कोचः अव्यक्तस्य लयो नाम अविभक्ततमोऽवस्थापत्तिः शक्तयः परमात्मनोऽपृथक्सिद्धविशेषणतया शक्तिशब्दवाच्याः सर्वपदार्थाः ॥ २२ ॥

श्लोक-२३

विश्वास-प्रस्तुतिः

बुद्धीन्द्रियार्थरूपेण ज्ञानं भाति तदाश्रयम्।
दृश्यत्वाव्यतिरेकाभ्यामाद्यन्तवदवस्तु यत्॥

मूलम्

बुद्धीन्द्रियार्थरूपेण ज्ञानं भाति तदाश्रयम्।
दृश्यत्वाव्यतिरेकाभ्यामाद्यन्तवदवस्तु यत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! (अब आत्यन्तिक प्रलय अर्थात् मोक्षका स्वरूप बतलाया जाता है।) बुद्धि, इन्द्रिय और उनके विषयोंके रूपमें उनका अधिष्ठान, ज्ञानस्वरूप वस्तु ही भासित हो रही है। उन सबका तो आदि भी है और अन्त भी। इसलिये वे सब सत्य नहीं हैं। वे दृश्य हैं और अपने अधिष्ठानसे भिन्न उनकी सत्ता भी नहीं है। इसलिये वे सर्वथा मिथ्या—मायामात्र हैं॥ २३॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

बुद्धीन्द्रियार्थरूपेणेत्यादिबुद्धीन्द्रियार्थेति पूर्वश्लोके शक्तिशब्देनोक्तसर्वपदार्थानां परमात्मन्यपृथक्सिद्भविशेषणत्वमेव प्रपञ्चयत्यनेन श्लोकन ज्ञानशब्दः परमात्मवाची ‘सत्यं ज्ञानम्’ इति प्रयोगात् । बुद्धयादिसर्ववस्त्वाश्रयः परमात्मा बुद्धीन्द्रियादिसर्ववस्तुशरीरतया भाति प्रामाणिकैस्तथा ज्ञायत इत्यर्थः । तत्र हेतुमाह - दृश्यत्वाव्यतिरेकाभ्यामिति । परमात्मशरीरत्वेन ‘यस्य चक्षुः शरीरम्’ इत्यादि प्रमाणैर्ज्ञायमानत्वात् अतएव परमात्मानं विना अवस्थानायोगाच्च स एव तत्तच्छरीरको भातीत्यर्थः । परमात्मशरीरत्वेऽपि शरीरशरीरिणोः स्वभावभेदमाह - आद्यन्तवदस्तु तदिति । बुद्धीन्द्रियादिकं न परमात्मस्वरूपवन्नित्यम् अपि त्वाद्यन्तवत् तस्मादचिद्वस्तुसृष्टयन्तर्भूतमित्यर्थः ॥ २३ ॥

श्लोक-२४

विश्वास-प्रस्तुतिः

दीपश्चक्षुश्च रूपं च ज्योतिषो न पृथग् भवेत्।
एवं धीः खानि मात्राश्च न स्युरन्यतमादृतात्॥

मूलम्

दीपश्चक्षुश्च रूपं च ज्योतिषो न पृथग् भवेत्।
एवं धीः खानि मात्राश्च न स्युरन्यतमादृतात्॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे दीपक, नेत्र और रूप—ये तीनों तेजसे भिन्न नहीं हैं, वैसे ही बुद्धि इन्द्रिय और इनके विषय तन्मात्राएँ भी अपने अधिष्ठानस्वरूप ब्रह्मसे भिन्न नहीं हैं यद्यपि वह इनसे सर्वथा भिन्न है; (जैसे रज्जुरूप अधिष्ठानमें अध्यस्त सर्प अपने अधिष्ठानसे पृथक् नहीं है, परन्तु अध्यस्त सर्पसे अधिष्ठानका कोई सम्बन्ध नहीं है)॥ २४॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

एवं सर्ववस्तु- शरीरत्वादपृथक भाव उक्तः विश्वशरीरस्य तस्य कारणत्वादुपकारकत्वादाधारत्वाच्च अव्यतिरेकमाह - दीप इति । तेजः कार्यं दीपः तेजोऽनुग्राह्यञ्चक्षुः इन्द्रियाणि ह्यहङ्कारकाणि तेजस्याश्रितं रूपम् अतो दीपादेर्न तेजो हित्वाऽवस्थानं धीशब्दोपलक्षितं बुद्धिरूपान्तःकरणं बुद्धीन्द्रियार्थरूपेणेति पूर्वमुक्तत्वात् एवमिन्द्रियान्तःकरणविषयाणां परमात्मसृष्टत्वात् तदनुग्राह्यत्वात् तदाश्रितत्वाच्च अन्यतमात् बुद्धयादिभ्यो विलक्षणतमात् ज्योतिः शब्दवाच्यात् परमात्मनः ऋते तेषां नाऽवस्थानमित्यर्थः ॥ २४ ॥

श्लोक-२५

विश्वास-प्रस्तुतिः

बुद्धेर्जागरणं स्वप्नः सुषुप्तिरिति चोच्यते।
मायामात्रमिदं राजन् नानात्वं प्रत्यगात्मनि॥

मूलम्

बुद्धेर्जागरणं स्वप्नः सुषुप्तिरिति चोच्यते।
मायामात्रमिदं राजन् नानात्वं प्रत्यगात्मनि॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! जाग्रत् , स्वप्न और सुषुप्ति—ये तीनों अवस्थाएँ बुद्धिकी ही हैं। अतः इनके कारण अन्तरात्मामें जो विश्व, तैजस और प्राज्ञरूप नानात्वकी प्रतीति होती है, वह केवल मायामात्र है। बुद्धिगत नानात्वका एकमात्र सत्य आत्मासे कोई सम्बन्ध नहीं है॥ २५॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

एवं सर्वस्य परमात्माधीनत्वे स्थिते जीवगतावस्थानामपि तथात्वं सिद्धं तत्राधिकविशेषमाह - बुद्धेरिति । अत्र बुद्धिशब्दो जीवात्मधर्मभूतज्ञानपरः । जीवस्य ज्ञानविकाससङ्कोचविशेषरूपज्ञानाद्यवस्थानानात्वं मायामात्रं प्रकृतिसम्बन्धमात्रकृतम् ॥ २५ ॥

श्लोक-२६

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा जलधरा व्योम्नि भवन्ति न भवन्ति च।
ब्रह्मणीदं तथा विश्वमवयव्युदयाप्ययात्॥

मूलम्

यथा जलधरा व्योम्नि भवन्ति न भवन्ति च।
ब्रह्मणीदं तथा विश्वमवयव्युदयाप्ययात्॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह विश्व उत्पत्ति और प्रलयसे ग्रस्त है, इसलिये अनेक अवयवोंका समूह अवयवी है। अतः यह कभी ब्रह्ममें होता है और कभी नहीं होता, ठीक वैसे ही जैसे आकाशमें मेघमाला कभी होती है और कभी नहीं होती॥ २६॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

एवम्विधाः दोषाः सर्वाधारमपि परमात्मानं न स्पृशन्तीत्याह-यथा जलधरा इति । इदन्तया जलधरा इव इदन्तया भासमानं प्रत्यक्षादि प्रमाणगम्यं विश्वं स्थित्यादीन्प्राप्नोतीत्यध्याहारेण योजना ॥ २६ ॥

श्लोक-२७

विश्वास-प्रस्तुतिः

सत्यं ह्यवयवः प्रोक्तः सर्वावयविनामिह।
विनार्थेन प्रतीयेरन् पटस्येवाङ्ग तन्तवः॥

मूलम्

सत्यं ह्यवयवः प्रोक्तः सर्वावयविनामिह।
विनार्थेन प्रतीयेरन् पटस्येवाङ्ग तन्तवः॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! जगत‍्के व्यवहारमें जितने भी अवयवी पदार्थ होते हैं, उनके न होनेपर भी उनके भिन्न-भिन्न अवयव सत्य माने जाते हैं। क्योंकि वे उनके कारण हैं। जैसे वस्त्ररूप अवयवीके न होनेपर भी उसके कारणरूप सूतका अस्तित्व माना ही जाता है, उसी प्रकार कार्यरूप जगत‍्के अभावमें भी इस जगत‍्के कारणरूप अवयवकी स्थिति हो सकती है॥ २७॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

सत्यमिति । पाणिपादाद्यपलम्भेऽप्यात्मनोऽनु- पलभ्यत्वमुच्यते अवयविनां देवमनुष्यादीनां पाणिपादाद्यवयवाः प्रोक्ताः सन्ति, ज्ञात्वा व्यवह्रियन्ते तेतु अर्थेन पुरुषार्थभूतेनात्मस्वरूपेण दोषादिव्यावृत्तधर्मोपेताः विना प्रतीयेरन् विना प्रतीतिः सर्वेषां सम्भवति पटस्येवाङ्ग तन्तव इति जीवानधिष्ठितपटावयववत् जीवाधिष्ठितदेहावयवाश्चेतनेन विना प्रतीयन्त इत्यर्थः । यद्वा जगतो ब्रह्मकार्यत्वं पूर्वश्लोकेन प्रकृत तत्प्रसङ्गेनासत्कार्यवादनिरास उच्यते अवयविनामवयवास्तावत्सन्ति अवयवी न तेभ्योऽतिरिक्तः अतिरेके देवदत्ते न दग्धावयविनोऽवयवा उपलभ्येरन् न च तथोपलभ्यन्ते नहि पटद्रव्यातिरेकेण तन्तव उपलभ्यन्त इत्यर्थः । पूर्वयोजनाऽत्रोपरितनश्लाकसङ्गता ॥ २७ ॥

श्लोक-२८

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत् सामान्यविशेषाभ्यामुपलभ्येत स भ्रमः।
अन्योन्यापाश्रयात् सर्वमाद्यन्तवदवस्तु यत्॥

मूलम्

यत् सामान्यविशेषाभ्यामुपलभ्येत स भ्रमः।
अन्योन्यापाश्रयात् सर्वमाद्यन्तवदवस्तु यत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

परन्तु ब्रह्ममें यह कार्य-कारणभाव भी वास्तविक नहीं है। क्योंकि देखो, कारण तो सामान्य वस्तु है और कार्य विशेष वस्तु। इस प्रकारका जो भेद दिखायी देता है, वह केवल भ्रम ही है। इसका हेतु यह है कि सामान्य और विशेष भाव आपेक्षिक हैं, अन्योन्याश्रित हैं। विशेषके बिना सामान्य और सामान्यके बिना विशेषकी स्थिति नहीं हो सकती। कार्य और कारणभावका आदि और अन्त दोनों ही मिलते हैं, इसलिये भी वह स्वाप्निक भेद-भावके समान सर्वथा अवस्तु है॥ २८॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

आत्मनो देहाद्यव्यावृततया प्रतीतिर्भ्रम इत्याह-यत्सामान्येति । साधारणाकाराकारेणारोपितविशेषतया च यदुपलम्भः सम्भ्रमः साधारणाकारस्यारोपितविशेषस्य चान्योन्यापाश्रयात् अन्योन्यसम्बन्धात् अविरोधादित्यर्थः । आत्मस्वरूपा देहस्य व्यावृत्ताकारमाह्सर्वमिति । सर्वशरीरस्याद्यन्तवत्त्वान्न स्थिरमित्यर्थः ॥ २८ ॥

श्लोक-२९

विश्वास-प्रस्तुतिः

विकारः ख्यायमानोऽपि प्रत्यगात्मानमन्तरा।
न निरूप्योऽस्त्यणुरपि स्याच्चेच्चित्सम आत्मवत्॥

मूलम्

विकारः ख्यायमानोऽपि प्रत्यगात्मानमन्तरा।
न निरूप्योऽस्त्यणुरपि स्याच्चेच्चित्सम आत्मवत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसमें सन्देह नहीं कि यह प्रपंचरूप विकार स्वाप्निक विकारके समान ही प्रतीत हो रहा है, तो भी यह अपने अधिष्ठान ब्रह्मस्वरूप आत्मासे भिन्न नहीं है। कोई चाहे भी तो आत्मासे भिन्न रूपमें अणुमात्र भी इसका निरूपण नहीं कर सकता। यदि आत्मासे पृथक् इसकी सत्ता मानी भी जाय तो यह भी चिद‍‍्रूप आत्माके समान स्वयंप्रकाश होगा, और ऐसी स्थितिमें वह आत्माकी भाँति ही एकरूप सिद्ध होगा॥ २९॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

देहाकारा आत्मनि न सन्तीत्याह - विकार इति । जातिगुणक्रियाऽपचयजन्मवृद्ध्यादिरूपः अल्पोऽपि विकारो न निरूप्यः आत्मधर्मतया न चिन्त्यः तथा निरूप्यत इति मन्यमानोऽस्मद्बुद्ध्या नात्मविदित्यर्थः ॥ २९ ॥

श्लोक-३०

विश्वास-प्रस्तुतिः

नहि सत्यस्य नानात्वमविद्वान् यदि मन्यते।
नानात्वं छिद्रयोर्यद्वज्ज्योतिषोर्वातयोरिव॥

मूलम्

नहि सत्यस्य नानात्वमविद्वान् यदि मन्यते।
नानात्वं छिद्रयोर्यद्वज्ज्योतिषोर्वातयोरिव॥

अनुवाद (हिन्दी)

परन्तु इतना तो सर्वथा निश्चित है कि परमार्थ-सत्य वस्तुमें नानात्व नहीं है। यदि कोई अज्ञानी परमार्थ-सत्य वस्तुमें नानात्व स्वीकार करता है, तो उसका वह मानना वैसा ही है, जैसा महाकाश और घटाकाशका, आकाशस्थित सूर्य और जलमें प्रतिबिम्बित सूर्यका तथा बाह्य वायु और आन्तर वायुका भेद मानना॥ ३०॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

औपाधिकानां जात्यादिभेदानां जीवात्मन्यविद्यमानत्वमाह नहीति । सत्यशब्दो जीवपर: ‘तदनुप्रविश्य सच्च त्यच्चाऽभवत्, सत्यं चाऽनृतं च सत्यमभवत्’ इति प्रयोगात् ‘प्राणा वै सत्यम्’ इति प्रयोगाच्च नहि परिशुद्धजीवात्मस्वरूपस्य देवमनुष्यादिनानात्वमिति अस्तीति जानन्नविद्वानेव, औपाधिकभेदस्य स्वरूपस्पर्शित्वे तेजोवायुज्योतिश्छिद्राणि दृष्टान्तयति - नानात्वमिति । पूर्वापरदेहवर्त्तितयाभिन्नत्वेन प्रतीयमानयोरात्मनोरभेदे दृष्टान्तः छिद्रयोरिति द्विवचनात् इयान् विशेषः भिन्नकलोपाधिकृतभेदराहित्ये तुल्यकालोपाधिकृतभेदरहितवस्तु दृष्टान्तितमिति केषुचित् कोशेषु दृष्टत्वात् बुद्धीन्द्रियार्थरूपेणेति श्लोकाष्टकं व्याख्यातम् ॥ ३० ॥

श्लोक-३१

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा हिरण्यं बहुधा समीयते
नृभिः क्रियाभिर्व्यवहारवर्त्मसु।
एवं वचोभिर्भगवानधोक्षजो
व्याख्यायते लौकिकवैदिकैर्जनैः॥

मूलम्

यथा हिरण्यं बहुधा समीयते
नृभिः क्रियाभिर्व्यवहारवर्त्मसु।
एवं वचोभिर्भगवानधोक्षजो
व्याख्यायते लौकिकवैदिकैर्जनैः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे व्यवहारमें मनुष्य एक ही सोनेको अनेकों रूपोंमें गढ़-गलाकर तैयार कर लेते हैं और वह कंगन, कुण्डल, कड़ा आदि अनेकों रूपोंमें मिलता है; इसी प्रकार व्यवहारमें निपुण विद्वान् लौकिक और वैदिक वाणीके द्वारा इन्द्रियातीत आत्मस्वरूप भगवान‍्का भी अनेकों रूपोंमें वर्णन करते हैं॥ ३१॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

व्यावहारिकेष्वर्थं क्रियार्हपरिणामदृष्टान्तेन परिहरति-यथा हिरण्यमिति । यथा क्रियार्हत्वात् हिरण्यबहुत्वं सत्यम् एवं प्रमाणिकत्वात्वरमात्मबहुत्वमपि सत्यमित्यर्थः ॥ ३१ ॥

श्लोक-३२

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा घनोऽर्कप्रभवोऽर्कदर्शितो
ह्यर्कांशभूतस्य च चक्षुषस्तमः।
एवं त्वहं ब्रह्मगुणस्तदीक्षितो
ब्रह्मांशकस्यात्मन आत्मबन्धनः॥

मूलम्

यथा घनोऽर्कप्रभवोऽर्कदर्शितो
ह्यर्कांशभूतस्य च चक्षुषस्तमः।
एवं त्वहं ब्रह्मगुणस्तदीक्षितो
ब्रह्मांशकस्यात्मन आत्मबन्धनः॥

अनुवाद (हिन्दी)

देखो न, बादल सूर्यसे उत्पन्न होता है और सूर्यसे ही प्रकाशित। फिर भी वह सूर्यके ही अंश नेत्रोंके लिये सूर्यका दर्शन होनेमें बाधक बन बैठता है। इसी प्रकार अहंकार भी ब्रह्मसे ही उत्पन्न होता, ब्रह्मसे ही प्रकाशित होता और ब्रह्मके अंश जीवके लिये ब्रह्मस्वरूपके साक्षात्कारमें बाधक बन बैठता है॥ ३२॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

आत्यन्तिकं प्रलयं वक्तुमुपक्रमते यथा घन इति । धूमादिमिश्रतमोद्रव्यारब्धत्वात् मेघस्यार्कप्रभवत्वम् आदित्याधिष्ठितत्वात् चक्षुषः आदित्यांशत्वं तम इति तिरोधायकत्वमुच्यते अहंशब्दोऽहमभिमानविषयदेहपरः उत्तरत्राहङ्कारशब्देन निर्देशात् ब्रह्मगुणः परमात्मविशेषणभूतः आत्मबन्धनः ज्ञानप्रतिबन्धकः यथार्कांशस्य चक्षुषोऽर्कदर्शनं तत्प्रभवो मेघः प्रतिबध्नाति एवं परमात्मांशभूतस्य जीवस्य परमात्मदर्शनं तद्गुणभूतो देहः प्रतिबध्नातीत्यर्थः ॥ ३२ ॥

श्लोक-३३

विश्वास-प्रस्तुतिः

घनो यदार्कप्रभवो विदीर्यते
चक्षुः स्वरूपं रविमीक्षते तदा।
यदा ह्यहङ्कार उपाधिरात्मनो
जिज्ञासया नश्यति तर्ह्यनुस्मरेत्॥

मूलम्

घनो यदार्कप्रभवो विदीर्यते
चक्षुः स्वरूपं रविमीक्षते तदा।
यदा ह्यहङ्कार उपाधिरात्मनो
जिज्ञासया नश्यति तर्ह्यनुस्मरेत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब सूर्यसे प्रकट होनेवाला बादल तितर-बितर हो जाता है, तब नेत्र अपने स्वरूप सूर्यका दर्शन करनेमें समर्थ होते हैं। ठीक वैसे ही, जब जीवके हृदयमें जिज्ञासा जगती है, तब आत्माकी उपाधि अहंकार नष्ट हो जाता है और उसे अपने स्वरूपका साक्षात्कार हो जाता है॥ ३३॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

मेघविनाशे चक्षुषो रविदर्शनवद्देहतिरोधानविगमे जीवस्य परमात्माऽवलोकनमित्याह - घनो यदेति । यदा ह्यहमिति । अत्राप्यहङ्कारशब्दोऽहम्बुद्धिगोचरदेहपरः ‘मायामयाहङ्करणात्मबन्धनम्’ इत्यनन्तरोक्तेः ॥ ३३ ॥

श्लोक-३४

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदैवमेतेन विवेकहेतिना
मायामयाहङ्करणात्मबन्धनम्।
छित्त्वाच्युतात्मानुभवोऽवतिष्ठते
तमाहुरात्यन्तिकमङ्ग सम्प्लवम्॥

मूलम्

यदैवमेतेन विवेकहेतिना
मायामयाहङ्करणात्मबन्धनम्।
छित्त्वाच्युतात्मानुभवोऽवतिष्ठते
तमाहुरात्यन्तिकमङ्ग सम्प्लवम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रिय परीक्षित्! जब जीव विवेकके खड्गसे मायामय अहंकारका बन्धन काट देता है, तब यह अपने एकरस आत्मस्वरूपके साक्षात्कारमें स्थित हो जाता है। आत्माकी यह मायामुक्त वास्तविक स्थिति ही आत्यन्तिक प्रलय कही जाती है॥ ३४॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

अच्युतेति अच्युते स्वान्तरात्मनि अनुभवो यस्य सोऽच्युतात्माऽनुभवः आत्यन्तिकः सम्प्लवः प्रलयः मोक्षः ॥ ३४ ॥

श्लोक-३५

विश्वास-प्रस्तुतिः

नित्यदा सर्वभूतानां ब्रह्मादीनां परंतप।
उत्पत्तिप्रलयावेके सूक्ष्मज्ञाः सम्प्रचक्षते॥

मूलम्

नित्यदा सर्वभूतानां ब्रह्मादीनां परंतप।
उत्पत्तिप्रलयावेके सूक्ष्मज्ञाः सम्प्रचक्षते॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे शत्रुदमन! तत्त्वदर्शी लोग कहते हैं कि ब्रह्मासे लेकर तिनकेतक जितने प्राणी या पदार्थ हैं, सभी हर समय पैदा होते और मरते रहते हैं। अर्थात् नित्यरूपसे उत्पत्ति और प्रलय होता ही रहता है॥ ३५॥

श्रीसुदर्शनसूरिः नित्यदेति सूक्ष्मपरिणामयोगः प्रलयः मोक्षः ॥ ३५ ॥

श्लोक-३६

विश्वास-प्रस्तुतिः

कालस्रोतोजवेनाशु ह्रियमाणस्य नित्यदा।
परिणामिनामवस्थास्ता जन्मप्रलयहेतवः॥

मूलम्

कालस्रोतोजवेनाशु ह्रियमाणस्य नित्यदा।
परिणामिनामवस्थास्ता जन्मप्रलयहेतवः॥

अनुवाद (हिन्दी)

संसारके परिणामी पदार्थ नदी-प्रवाह और दीप-शिखा आदि क्षण-क्षण बदलते रहते हैं। उनकी बदलती हुई अवस्थाओंको देखकर यह निश्चय होता है कि देह आदि भी कालरूप सोतेके वेगमें बहते-बदलते जा रहे हैं। इसलिये क्षण-क्षणमें उनकी उत्पत्ति और प्रलय हो रहा है॥ ३६॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

नित्यदेति सूक्ष्मपरिणामयोगः प्रलयो विवक्षितः परिणामिशब्देन शरीरं विशेष्यम् ॥ ३५ ॥

श्लोक-३७

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनाद्यन्तवतानेन कालेनेश्वरमूर्तिना।
अवस्था नैव दृश्यन्ते वियति ज्योतिषामिव॥

मूलम्

अनाद्यन्तवतानेन कालेनेश्वरमूर्तिना।
अवस्था नैव दृश्यन्ते वियति ज्योतिषामिव॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे आकाशमें तारे हर समय चलते ही रहते हैं, परन्तु उनकी गति स्पष्टरूपसे नहीं दिखायी पड़ती, वैसे ही भगवान‍्के स्वरूपभूत अनादि-अनन्त कालके कारण प्राणियोंकी प्रतिक्षण होनेवाली उत्पत्ति और प्रलयका भी पता नहीं चलता॥ ३७॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

अवस्था जन्मप्रलयहेतवः ॥ ३७ ॥

ईश्वरमूर्तिना ईश्वरमूर्त्या पुल्लिङ्ग आर्षः सूक्ष्मावस्थानां दुर्दर्शत्वे दृष्टान्तमाह – ज्योतिषामिवेति । नक्षत्रादीनां प्रतिक्षणे स्पन्दो यथा दुर्दर्शस्तद्वदित्यर्थः ॥ ३७ ॥

श्लोक-३८

विश्वास-प्रस्तुतिः

नित्यो नैमित्तिकश्चैव तथा प्राकृतिको लयः।
आत्यन्तिकश्च कथितः कालस्य गतिरीदृशी॥

मूलम्

नित्यो नैमित्तिकश्चैव तथा प्राकृतिको लयः।
आत्यन्तिकश्च कथितः कालस्य गतिरीदृशी॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! मैंने तुमसे चार प्रकारके प्रलयका वर्णन किया; उनके नाम हैं—नित्य प्रलय, नैमित्तिक प्रलय, प्राकृतिक प्रलय और आत्यन्तिक प्रलय। वास्तवमें कालकी सूक्ष्म गति ऐसी ही है॥ ३८॥

श्लोक-३९

विश्वास-प्रस्तुतिः

एताः कुरुश्रेष्ठ जगद्विधातु-
र्नारायणस्याखिलसत्त्वधाम्नः।
लीलाकथास्ते कथिताः समासतः
कात्‍स्‍न्‍‍‍र्येन नाजोऽप्यभिधातुमीशः॥

मूलम्

एताः कुरुश्रेष्ठ जगद्विधातु-
र्नारायणस्याखिलसत्त्वधाम्नः।
लीलाकथास्ते कथिताः समासतः
कात्‍स्‍न्‍‍‍र्येन नाजोऽप्यभिधातुमीशः॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे कुरुश्रेष्ठ! विश्वविधाता भगवान् नारायण ही समस्त प्राणियों और शक्तियोंके आश्रय हैं। जो कुछ मैंने संक्षेपसे कहा है, वह सब उन्हींकी लीला-कथा है। भगवान‍्की लीलाओंका पूर्ण वर्णन तो स्वयं ब्रह्माजी भी नहीं कर सकते॥ ३९॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

अजोऽपि ब्रह्माऽपि ॥ ३९ - ४३॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे द्वादशस्कन्धव्याख्याने श्रीसुदर्शनसूरिकृतशुकपक्षीये चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४ ॥

श्लोक-४०

विश्वास-प्रस्तुतिः

संसारसिन्धुमतिदुस्तरमुत्तितीर्षो-
र्नान्यः प्लवो भगवतः पुरुषोत्तमस्य।
लीलाकथारसनिषेवणमन्तरेण
पुंसो भवेद् विविधदुःखदवार्दितस्य॥

मूलम्

संसारसिन्धुमतिदुस्तरमुत्तितीर्षो-
र्नान्यः प्लवो भगवतः पुरुषोत्तमस्य।
लीलाकथारसनिषेवणमन्तरेण
पुंसो भवेद् विविधदुःखदवार्दितस्य॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो लोग अत्यन्त दुस्तर संसार-सागरसे पार जाना चाहते हैं अथवा जो लोग अनेकों प्रकारके दुःख-दावानलसे दग्ध हो रहे हैं, उनके लिये पुषोत्तमभगवान‍्की लीला-कथारूप रसके सेवनके अतिरिक्त और कोई साधन, कोई नौका नहीं है। ये केवल लीला-रसायनका सेवन करके ही अपना मनोरथ सिद्ध कर सकते हैं॥ ४०॥

श्लोक-४१

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुराणसंहितामेतामृषिर्नारायणोऽव्ययः।
नारदाय पुरा प्राह कृष्णद्वैपायनाय सः॥

मूलम्

पुराणसंहितामेतामृषिर्नारायणोऽव्ययः।
नारदाय पुरा प्राह कृष्णद्वैपायनाय सः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो कुछ मैंने तुम्हें सुनाया है, यही श्रीमद‍्भागवतपुराण है। इसे सनातन ऋषि नर-नारायणने पहले देवर्षि नारदको सुनाया था और उन्होंने मेरे पिता महर्षि कृष्णद्वैपायनको॥ ४१॥

श्लोक-४२

विश्वास-प्रस्तुतिः

स वै मह्यं महाराज भगवान् बादरायणः।
इमां भागवतीं प्रीतः संहितां वेदसम्मिताम्॥

मूलम्

स वै मह्यं महाराज भगवान् बादरायणः।
इमां भागवतीं प्रीतः संहितां वेदसम्मिताम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! उन्हीं बदरीवनविहारी भगवान् श्रीकृष्णद्वैपायनने प्रसन्न होकर मुझे इस वेदतुल्य श्रीभागवतसंहिताका उपदेश किया॥ ४२॥

श्लोक-४३

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतां वक्ष्यत्यसौ सूत ऋषिभ्यो नैमिषालये।
दीर्घसत्रे कुरुश्रेष्ठ सम्पृष्टः शौनकादिभिः॥

मूलम्

एतां वक्ष्यत्यसौ सूत ऋषिभ्यो नैमिषालये।
दीर्घसत्रे कुरुश्रेष्ठ सम्पृष्टः शौनकादिभिः॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुरुश्रेष्ठ! आगे चलकर जब शौनकादि ऋषि नैमिषारण्य क्षेत्रमें बहुत बड़ा सत्र करेंगे, तब उनके प्रश्न करनेपर पौराणिक वक्ता श्रीसूतजी उन लोगोंको इस संहिताका श्रवण करायेंगे॥ ४३॥

अनुवाद (समाप्ति)

इति श्रीमद‍्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां द्वादशस्कन्धे चतुर्थोऽध्यायः॥ ४॥