[तृतीयोऽध्यायः]
भागसूचना
राज्य, युगधर्म और कलियुगके दोषोंसे बचनेका उपाय—नामसंकीर्तन
श्लोक-१
मूलम् (वचनम्)
श्रीशुक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
दृष्ट्वाऽऽत्मनि जये व्यग्रान् नृपान् हसति भूरियम्।
अहो मा विजिगीषन्ति मृत्योः क्रीडनका नृपाः॥
मूलम्
दृष्ट्वाऽऽत्मनि जये व्यग्रान् नृपान् हसति भूरियम्।
अहो मा विजिगीषन्ति मृत्योः क्रीडनका नृपाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! जब पृथ्वी देखती है कि राजा लोग मुझपर विजय प्राप्त करनेके लिये उतावले हो रहे हैं, तब वह हँसने लगती है और कहती है—‘‘कितने आश्चर्यकी बात है कि ये राजा लोग,जो स्वयं मौतके खिलौने हैं, मुझे जीतना चाहते हैं॥ १॥
श्लोक-२
विश्वास-प्रस्तुतिः
काम एष नरेन्द्राणां मोघः स्याद् विदुषामपि।
येन फेनोपमे पिण्डे येऽतिविश्रम्भिता नृपाः॥
मूलम्
काम एष नरेन्द्राणां मोघः स्याद् विदुषामपि।
येन फेनोपमे पिण्डे येऽतिविश्रम्भिता नृपाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजाओंसे यह बात छिपी नहीं है कि वे एक-न-एक दिन मर जायँगे, फिर भी वे व्यर्थमें ही मुझे जीतनेकी कामना करते हैं। सचमुच इस कामनासे अंधे होनेके कारण ही वे पानीके बुलबुलेके समान क्षणभंगुर शरीरपर विश्वास कर बैठते हैं और धोखा खाते हैं॥ २॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
पिण्डे शरीरे ॥ १-२ ॥
श्लोक-३
विश्वास-प्रस्तुतिः
पूर्वं निर्जित्य षड्वर्गं जेष्यामो राजमन्त्रिणः।
ततः सचिवपौराप्तकरीन्द्रानस्य कण्टकान्॥
मूलम्
पूर्वं निर्जित्य षड्वर्गं जेष्यामो राजमन्त्रिणः।
ततः सचिवपौराप्तकरीन्द्रानस्य कण्टकान्॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे सोचते हैं कि ‘हम पहले मनके सहित अपनी पाँचों इन्द्रियोंपर विजय प्राप्त करेंगे—अपने भीतरी शत्रुओंको वशमें करेंगे; क्योंकि इनको जीते बिना बाहरी शत्रुओंको जीतना कठिन है। उसके बाद अपने शत्रुके मन्त्रियों, अमात्यों, नागरिकों, नेताओं और समस्त सेनाको भी वशमें कर लेंगे। जो भी हमारे विजयमार्गमें काँटे बोयेगा, उसे हम अवश्य जीत लेंगे॥ ३॥
श्लोक-४
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं क्रमेण जेष्यामः पृथ्वीं सागरमेखलाम्।
इत्याशाबद्धहृदया न पश्यन्त्यन्तिकेऽन्तकम्॥
मूलम्
एवं क्रमेण जेष्यामः पृथ्वीं सागरमेखलाम्।
इत्याशाबद्धहृदया न पश्यन्त्यन्तिकेऽन्तकम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार धीरे-धीरे क्रमसे सारी पृथ्वी हमारे अधीन हो जायगी और फिर तो समुद्र ही हमारे राज्यकी खाईंका काम करेगा।’ इस प्रकार वे अपने मनमें अनेकों आशाएँ बाँध लेते हैं और उन्हें यह बात बिलकुल नहीं सूझती कि उनके सिरपर काल सवार है॥ ४॥
श्लोक-५
विश्वास-प्रस्तुतिः
समुद्रावरणां जित्वा मां विशन्त्यब्धिमोजसा।
कियदात्मजयस्यैतन्मुक्तिरात्मजये फलम्॥
मूलम्
समुद्रावरणां जित्वा मां विशन्त्यब्धिमोजसा।
कियदात्मजयस्यैतन्मुक्तिरात्मजये फलम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
यहींतक नहीं, जब एक द्वीप उनके वशमें हो जाता है, तब वे दूसरे द्वीपपर विजय करनेके लिये बड़ी शक्ति और उत्साहके साथ समुद्रयात्रा करते हैं। अपने मनको, इन्द्रियोंको वशमें करके लोग मुक्ति प्राप्त करते हैं, परन्तु ये लोग उनको वशमें करके भी थोड़ा-सा भूभाग ही प्राप्त करते हैं। इतने परिश्रम और आत्मसंयमका यह कितना तुच्छ फल है!’’॥ ५॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
अब्धिं विशन्ति द्वीपान्तरानभिजयन्ति ॥ ३ -१३ ॥
श्लोक-६
विश्वास-प्रस्तुतिः
यां विसृज्यैव मनवस्तत्सुताश्च कुरूद्वह।
गता यथागतं युद्धे तां मां जेष्यन्त्यबुद्धयः॥
मूलम्
यां विसृज्यैव मनवस्तत्सुताश्च कुरूद्वह।
गता यथागतं युद्धे तां मां जेष्यन्त्यबुद्धयः॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! पृथ्वी कहती है कि ‘बड़े-बड़े मनु और उनके वीर पुत्र मुझे ज्यों-की-त्यों छोड़कर जहाँसे आये थे, वहीं खाली हाथ लौट गये, मुझे अपने साथ न ले जा सके। अब ये मूर्ख राजा मुझे युद्धमें जीतकर वशमें करना चाहते हैं॥ ६॥
श्लोक-७
विश्वास-प्रस्तुतिः
मत्कृते पितृपुत्राणां भ्रातॄणां चापि विग्रहः।
जायते ह्यसतां राज्ये ममताबद्धचेतसाम्॥
मूलम्
मत्कृते पितृपुत्राणां भ्रातॄणां चापि विग्रहः।
जायते ह्यसतां राज्ये ममताबद्धचेतसाम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिनके चित्तमें यह बात दृढ़ मूल हो गयी है कि यह पृथ्वी मेरी है, उन दुष्टोंके राज्यमें मेरे लिये पिता-पुत्र और भाई-भाई भी आपसमें लड़ बैठते हैं॥ ७॥
श्लोक-८
विश्वास-प्रस्तुतिः
ममैवेयं मही कृत्स्ना न ते मूढेति वादिनः।
स्पर्धमाना मिथो घ्नन्ति म्रियन्ते मत्कृते नृपाः॥
मूलम्
ममैवेयं मही कृत्स्ना न ते मूढेति वादिनः।
स्पर्धमाना मिथो घ्नन्ति म्रियन्ते मत्कृते नृपाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे परस्पर इस प्रकार कहते हैं कि ‘ओ मूढ़! यह सारी पृथ्वी मेरी ही है, तेरी नहीं’, इस प्रकार राजा लोग एक-दूसरेको कहते-सुनते हैं, एक-दूसरेसे स्पर्द्धा करते हैं, मेरे लिये एक-दूसरेको मारते हैं और स्वयं मर मिटते हैं॥ ८॥
श्लोक-९
विश्वास-प्रस्तुतिः
पृथुः पुरूरवा गाधिर्नहुषो भरतोऽर्जुनः।
मान्धाता सगरो रामः खट्वाङ्गो धुन्धुहा रघुः॥
मूलम्
पृथुः पुरूरवा गाधिर्नहुषो भरतोऽर्जुनः।
मान्धाता सगरो रामः खट्वाङ्गो धुन्धुहा रघुः॥
श्लोक-१०
विश्वास-प्रस्तुतिः
तृणबिन्दुर्ययातिश्च शर्यातिः शन्तनुर्गयः।
भगीरथः कुवलयाश्वः ककुत्स्थो नैषधो नृगः॥
मूलम्
तृणबिन्दुर्ययातिश्च शर्यातिः शन्तनुर्गयः।
भगीरथः कुवलयाश्वः ककुत्स्थो नैषधो नृगः॥
श्लोक-११
विश्वास-प्रस्तुतिः
हिरण्यकशिपुर्वृत्रो रावणो लोकरावणः।
नमुचिः शम्बरो भौमो हिरण्याक्षोऽथ तारकः॥
मूलम्
हिरण्यकशिपुर्वृत्रो रावणो लोकरावणः।
नमुचिः शम्बरो भौमो हिरण्याक्षोऽथ तारकः॥
श्लोक-१२
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्ये च बहवो दैत्या राजानो ये महेश्वराः।
सर्वे सर्वविदः शूराः सर्वे सर्वजितोऽजिताः॥
मूलम्
अन्ये च बहवो दैत्या राजानो ये महेश्वराः।
सर्वे सर्वविदः शूराः सर्वे सर्वजितोऽजिताः॥
श्लोक-१३
विश्वास-प्रस्तुतिः
ममतां मय्यवर्तन्त कृत्वोच्चैर्मर्त्यधर्मिणः।
कथावशेषाः कालेन ह्यकृतार्थाः कृता विभो॥
मूलम्
ममतां मय्यवर्तन्त कृत्वोच्चैर्मर्त्यधर्मिणः।
कथावशेषाः कालेन ह्यकृतार्थाः कृता विभो॥
अनुवाद (हिन्दी)
पृथु, पुरूरवा, गाधि, नहुष, भरत, सहस्रबाहु, अर्जुन, मान्धाता, सगर, राम, खट्वांग, धुन्धुमार, रघु, तृणबिन्दु, ययाति, शर्याति, शन्तनु, गय, भगीरथ, कुवलयाश्व, ककुत्स्थ, नल, नृग, हिरण्यकशिपु, वृत्रासुर, लोकद्रोही रावण, नमुचि, शम्बर, भौमासुर, हिरण्याक्ष और तारकासुर तथा और बहुत-से दैत्य एवं शक्तिशाली नरपति हो गये। ये सब लोग सब कुछ समझते थे, शूर थे, सभीने दिग्विजयमें दूसरोंको हरा दिया; किन्तु दूसरे लोग इन्हें न जीत सके, परन्तु सब-के-सब मृत्युके ग्रास बन गये। राजन्! उन्होंने अपने पूरे अन्तःकरणसे मुझसे ममता की और समझा कि ‘यह पृथ्वी मेरी है’। परन्तु विकराल कालने उनकी लालसा पूरी न होने दी। अब उनके बल-पौरुष और शरीर आदिका कुछ पता ही नहीं है। केवल उनकी कहानी मात्र शेष रह गयी है॥ ९—१३॥
श्लोक-१४
विश्वास-प्रस्तुतिः
कथा इमास्ते कथिता महीयसां
विताय लोकेषु यशः परेयुषाम्।
विज्ञानवैराग्यविवक्षया विभो
वचोविभूतीर्न तु पारमार्थ्यम्॥
मूलम्
कथा इमास्ते कथिता महीयसां
विताय लोकेषु यशः परेयुषाम्।
विज्ञानवैराग्यविवक्षया विभो
वचोविभूतीर्न तु पारमार्थ्यम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! संसारमें बड़े-बड़े प्रतापी और महान् पुरुष हुए हैं। वे लोकोंमें अपने यशका विस्तार करके यहाँसे चल बसे। मैंने तुम्हें ज्ञान और वैराग्यका उपदेश करनेके लिये ही उनकी कथा सुनायी है। यह सब वाणीका विलास मात्र है। इसमें पारमार्थिक सत्य कुछ भी नहीं है॥ १४॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
न तु पारमार्थ्यात् न तु पुरुषार्थ भूयस्त्वादित्यर्थः ॥ १४ ॥
श्लोक-१५
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्तूत्तमश्लोकगुणानुवादः
संगीयतेऽभीक्ष्णममङ्गलघ्नः।
तमेव नित्यं शृणुयादभीक्ष्णं
कृष्णेऽमलां भक्तिमभीप्समानः॥
मूलम्
यस्तूत्तमश्लोकगुणानुवादः
संगीयतेऽभीक्ष्णममङ्गलघ्नः।
तमेव नित्यं शृणुयादभीक्ष्णं
कृष्णेऽमलां भक्तिमभीप्समानः॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् श्रीकृष्णका गुणानुवाद समस्त अमंगलोंका नाश करनेवाला है, बड़े-बड़े महात्मा उसीका गान करते रहते हैं। जो भगवान् श्रीकृष्णके चरणोंमें अनन्य प्रेममयी भक्तिकी लालसा रखता हो, उसे नित्य-निरन्तर भगवान्के दिव्य गुणानुवादका ही श्रवण करते रहना चाहिये॥ १५॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
वहित्वति तथा विशेष्यम् ॥ १५-१९ ॥
श्लोक-१६
मूलम् (वचनम्)
राजोवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
केनोपायेन भगवन् कलेर्दोषान् कलौ जनाः।
विधमिष्यन्त्युपचितांस्तन्मे ब्रूहि यथा मुने॥
मूलम्
केनोपायेन भगवन् कलेर्दोषान् कलौ जनाः।
विधमिष्यन्त्युपचितांस्तन्मे ब्रूहि यथा मुने॥
श्लोक-१७
विश्वास-प्रस्तुतिः
युगानि युगधर्मांश्च मानं प्रलयकल्पयोः।
कालस्येश्वररूपस्य गतिं विष्णोर्महात्मनः॥
मूलम्
युगानि युगधर्मांश्च मानं प्रलयकल्पयोः।
कालस्येश्वररूपस्य गतिं विष्णोर्महात्मनः॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा परीक्षित् ने पूछा—भगवन्! मुझे तो कलियुगमें राशि-राशि दोष ही दिखायी दे रहे हैं। उस समय लोग किस उपायसे उन दोषोंका नाश करेंगे। इसके अतिरिक्त युगोंका स्वरूप, उनके धर्म, कल्पकी स्थिति और प्रलयकालके मान एवं सर्वव्यापक सर्वशक्तिमान् भगवान्के कालरूपका भी यथावत् वर्णन कीजिये॥ १६-१७॥
श्लोक-१८
मूलम् (वचनम्)
श्रीशुक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृते प्रवर्तते धर्मश्चतुष्पात्तज्जनैर्धृतः।
सत्यं दया तपो दानमिति पादा विभोर्नृप॥
मूलम्
कृते प्रवर्तते धर्मश्चतुष्पात्तज्जनैर्धृतः।
सत्यं दया तपो दानमिति पादा विभोर्नृप॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! सत्ययुगमें धर्मके चार चरण होते हैं; वे चरण हैं—सत्य, दया, तप और दान। उस समयके लोग पूरी निष्ठाके साथ अपने-अपने धर्मका पालन करते हैं। धर्म स्वयं भगवान्का स्वरूप है॥ १८॥
श्लोक-१९
विश्वास-प्रस्तुतिः
सन्तुष्टाः करुणा मैत्राः शान्ता दान्तास्तितिक्षवः।
आत्मारामाः समदृशः प्रायशः श्रमणा जनाः॥
मूलम्
सन्तुष्टाः करुणा मैत्राः शान्ता दान्तास्तितिक्षवः।
आत्मारामाः समदृशः प्रायशः श्रमणा जनाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
सत्ययुगके लोग बड़े सन्तोषी और दयालु होते हैं। वे सबसे मित्रताका व्यवहार करते और शान्त रहते हैं। इन्द्रियाँ और मन उनके वशमें रहते हैं और सुख-दुःख आदि द्वन्द्वोंको वे समान भावसे सहन करते हैं। अधिकांश लोग तो समदर्शी और आत्माराम होते हैं और बाकी लोग स्वरूप-स्थितिके लिये अभ्यासमें तत्पर रहते हैं॥ १९॥
श्लोक-२०
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रेतायां धर्मपादानां तुर्यांशो हीयते शनैः।
अधर्मपादैरनृतहिंसासन्तोषविग्रहैः॥
मूलम्
त्रेतायां धर्मपादानां तुर्यांशो हीयते शनैः।
अधर्मपादैरनृतहिंसासन्तोषविग्रहैः॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! धर्मके समान अधर्मके भी चार चरण हैं—असत्य, हिंसा, असन्तोष और कलह। त्रेतायुगमें इनके प्रभावसे धीरे-धीरे धर्मके सत्य आदि चरणोंका चतुर्थांश क्षीण हो जाता है॥ २०॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
अधर्मपादैरिति असन्तोषो नाम लोभकार्यो दानप्रतिभटः क्रोधकार्यो विग्रहः, तत्प्रतिभटः कामविकाराणामप्युपलक्षणार्थो विग्रहः कामस्यापि तपः प्रतिभटत्वात् ॥ २० - २१ ॥
श्लोक-२१
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदा क्रियातपोनिष्ठा नातिहिंस्रा न लम्पटाः।
त्रैवर्गिकास्त्रयीवृद्धा वर्णा ब्रह्मोत्तरा नृप॥
मूलम्
तदा क्रियातपोनिष्ठा नातिहिंस्रा न लम्पटाः।
त्रैवर्गिकास्त्रयीवृद्धा वर्णा ब्रह्मोत्तरा नृप॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! उस समय वर्णोंमें ब्राह्मणोंकी प्रधानता अक्षुण्ण रहती है। लोगोंमें अत्यन्त हिंसा और लम्पटताका अभाव रहता है। सभी लोग कर्मकाण्ड और तपस्यामें निष्ठा रखते हैं और अर्थ, धर्म एवं कामरूप त्रिवर्गका सेवन करते हैं। अधिकांश लोग कर्मप्रतिपादक वेदोंके पारदर्शी विद्वान् होते हैं॥ २१॥
श्लोक-२२
विश्वास-प्रस्तुतिः
तपःसत्यदयादानेष्वर्धं ह्रसति द्वापरे।
हिंसातुष्ट्यनृतद्वेषैर्धर्मस्याधर्मलक्षणैः॥
मूलम्
तपःसत्यदयादानेष्वर्धं ह्रसति द्वापरे।
हिंसातुष्ट्यनृतद्वेषैर्धर्मस्याधर्मलक्षणैः॥
अनुवाद (हिन्दी)
द्वापरयुगमें हिंसा, असन्तोष, झूठ और द्वेष—अधर्मके इन चरणोंकी वृद्धि हो जाती है एवं इनके कारण धर्मके चारों चरण—तपस्या, सत्य, दया और दान आधे-आधे क्षीण हो जाते हैं॥ २२॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
हिंसातुष्ट्यनृतद्वेषैरिति अतुष्टिरभिसन्धिः द्वैधं विग्रहमूलमन्तर्भेदम् ॥ २२ ॥
श्लोक-२३
विश्वास-प्रस्तुतिः
यशस्विनो महाशालाः स्वाध्यायाध्ययने रताः।
आढ्याः कुटुम्बिनो हृष्टा वर्णाः क्षत्रद्विजोत्तराः॥
मूलम्
यशस्विनो महाशालाः स्वाध्यायाध्ययने रताः।
आढ्याः कुटुम्बिनो हृष्टा वर्णाः क्षत्रद्विजोत्तराः॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समयके लोग बड़े यशस्वी, कर्मकाण्डी और वेदोंके अध्ययन-अध्यापनमें बड़े तत्पर होते हैं। लोगोंके कुटुम्ब बड़े-बड़े होते हैं, प्रायः लोग धनाढ्य एवं सुखी होते हैं। उस समय वर्णोंमें क्षत्रिय और ब्राह्मण दो वर्णोंकी प्रधानता रहती है॥ २३॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
महाशाला महागृहाः ॥ २३-४३ ॥
श्लोक-२४
विश्वास-प्रस्तुतिः
कलौ तु धर्महेतूनां तुर्यांशोऽधर्महेतुभिः।
एधमानैः क्षीयमाणो ह्यन्ते सोऽपि विनङ्क्ष्यति॥
मूलम्
कलौ तु धर्महेतूनां तुर्यांशोऽधर्महेतुभिः।
एधमानैः क्षीयमाणो ह्यन्ते सोऽपि विनङ्क्ष्यति॥
अनुवाद (हिन्दी)
कलियुगमें तो अधर्मके चारों चरण अत्यन्त बढ़ जाते हैं। उनके कारण धर्मके चारों चरण क्षीण होने लगते हैं और उनका चतुर्थांश ही बच रहता है। अन्तमें तो उस चतुर्थांशका भी लोप हो जाता है॥ २४॥
श्लोक-२५
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मिल्ँलुब्धा दुराचारा निर्दयाः शुष्कवैरिणः।
दुर्भगा भूरितर्षाश्च शूद्रदाशोत्तराः प्रजाः॥
मूलम्
तस्मिल्ँलुब्धा दुराचारा निर्दयाः शुष्कवैरिणः।
दुर्भगा भूरितर्षाश्च शूद्रदाशोत्तराः प्रजाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
कलियुगमें लोग लोभी, दुराचारी और कठोरहृदय होते हैं। वे झूठमूठ एक-दूसरेसे वैर मोल ले लेते हैं, एवं लालसा-तृष्णाकी तरंगोंमें बहते रहते हैं। उस समयके अभागे लोगोंमें शूद्र, केवट आदिकी ही प्रधानता रहती है॥ २५॥
श्लोक-२६
विश्वास-प्रस्तुतिः
सत्त्वं रजस्तम इति दृश्यन्ते पुरुषे गुणाः।
कालसञ्चोदितास्ते वै परिवर्तन्त आत्मनि॥
मूलम्
सत्त्वं रजस्तम इति दृश्यन्ते पुरुषे गुणाः।
कालसञ्चोदितास्ते वै परिवर्तन्त आत्मनि॥
अनुवाद (हिन्दी)
सभी प्राणियोंमें तीन गुण होते हैं—सत्त्व, रज और तम। कालकी प्रेरणासे समय-समयपर शरीर, प्राण और मनमें उनका ह्रास और विकास भी हुआ करता है॥ २६॥
श्लोक-२७
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रभवन्ति यदा सत्त्वे मनोबुद्धीन्द्रियाणि च।
तदा कृतयुगं विद्याज्ज्ञाने तपसि यद् रुचिः॥
मूलम्
प्रभवन्ति यदा सत्त्वे मनोबुद्धीन्द्रियाणि च।
तदा कृतयुगं विद्याज्ज्ञाने तपसि यद् रुचिः॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिस समय मन, बुद्धि और इन्द्रियाँ सत्त्वगुणमें स्थित होकर अपना-अपना काम करने लगती हैं, उस समय सत्ययुग समझना चाहिये। सत्त्वगुणकी प्रधानताके समय मनुष्य ज्ञान और तपस्यासे अधिक प्रेम करने लगता है॥ २७॥
श्लोक-२८
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदा धर्मार्थकामेषु भक्तिर्भवति देहिनाम्।
तदा त्रेता रजोवृत्तिरिति जानीहि बुद्धिमन्॥
मूलम्
यदा धर्मार्थकामेषु भक्तिर्भवति देहिनाम्।
तदा त्रेता रजोवृत्तिरिति जानीहि बुद्धिमन्॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिस समय मनुष्योंकी प्रवृत्ति और रुचि धर्म, अर्थ और लौकिक-पारलौकिक सुख-भोगोंकी ओर होती है तथा शरीर, मन एवं इन्द्रियाँ रजोगुणमें स्थित होकर काम करने लगती हैं—बुद्धिमान् परीक्षित्! समझना चाहिये कि उस समय त्रेतायुग अपना काम कर रहा है॥ २८॥
श्लोक-२९
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदा लोभस्त्वसन्तोषो मानो दम्भोऽथ मत्सरः।
कर्मणां चापि काम्यानां द्वापरं तद् रजस्तमः॥
मूलम्
यदा लोभस्त्वसन्तोषो मानो दम्भोऽथ मत्सरः।
कर्मणां चापि काम्यानां द्वापरं तद् रजस्तमः॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिस समय लोभ, असन्तोष, अभिमान, दम्भ और मत्सर आदि दोषोंका बोलबाला हो और मनुष्य बड़े उत्साह तथा रुचिके साथ सकाम कर्मोंमें लगना चाहे, उस समय द्वापरयुग समझना चाहिये। अवश्य ही रजोगुण और तमोगुणकी मिश्रित प्रधानताका नाम ही द्वापरयुग है॥ २९॥
श्लोक-३०
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदा मायानृतं तन्द्रा निद्रा हिंसा विषादनम्।
शोको मोहो भयं दैन्यं स कलिस्तामसः स्मृतः॥
मूलम्
यदा मायानृतं तन्द्रा निद्रा हिंसा विषादनम्।
शोको मोहो भयं दैन्यं स कलिस्तामसः स्मृतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिस समय झूठ-कपट, तन्द्रा-निद्रा, हिंसा-विषाद, शोक-मोह, भय और दीनताकी प्रधानता हो, उसे तमोगुण-प्रधान कलियुग समझना चाहिये॥ ३०॥
श्लोक-३१
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्मात् क्षुद्रदृशो मर्त्याः क्षुद्रभाग्या महाशनाः।
कामिनो वित्तहीनाश्च स्वैरिण्यश्च स्त्रियोऽसतीः॥
मूलम्
यस्मात् क्षुद्रदृशो मर्त्याः क्षुद्रभाग्या महाशनाः।
कामिनो वित्तहीनाश्च स्वैरिण्यश्च स्त्रियोऽसतीः॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब कलियुगका राज्य होता है, तब लोगोंकी दृष्टि क्षुद्र हो जाती है; अधिकांश लोग होते तो हैं अत्यन्त निर्धन, परन्तु खाते हैं बहुत अधिक। उनका भाग्य तो होता है बहुत ही मन्द और चित्तमें कामनाएँ होती हैं बहुत बड़ी-बड़ी। स्त्रियोंमें दुष्टता और कुलटापनकी वृद्धि हो जाती है॥ ३१॥
श्लोक-३२
विश्वास-प्रस्तुतिः
दस्यूत्कृष्टा जनपदा वेदाः पाखण्डदूषिताः।
राजानश्च प्रजाभक्षाः शिश्नोदरपरा द्विजाः॥
मूलम्
दस्यूत्कृष्टा जनपदा वेदाः पाखण्डदूषिताः।
राजानश्च प्रजाभक्षाः शिश्नोदरपरा द्विजाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
सारे देशमें, गाँव-गाँवमें लुटेरोंकी प्रधानता एवं प्रचुरता हो जाती है। पाखण्डी लोग अपने नये-नये मत चलाकर मनमाने ढंगसे वेदोंका तात्पर्य निकालने लगते हैं और इस प्रकार उन्हें कलंकित करते हैं। राजा कहलानेवाले लोग प्रजाकी सारी कमाई हड़पकर उन्हें चूसने लगते हैं। ब्राह्मणनामधारी जीव पेट भरने और जननेन्द्रियको तृप्त करनेमें ही लग जाते हैं॥ ३२॥
श्लोक-३३
विश्वास-प्रस्तुतिः
अव्रता वटवोऽशौचा भिक्षवश्च कुटुम्बिनः।
तपस्विनो ग्रामवासा न्यासिनोऽत्यर्थलोलुपाः॥
मूलम्
अव्रता वटवोऽशौचा भिक्षवश्च कुटुम्बिनः।
तपस्विनो ग्रामवासा न्यासिनोऽत्यर्थलोलुपाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्मचारी लोग ब्रह्मचर्यव्रतसे रहित और अपवित्र रहने लगते हैं। गृहस्थ दूसरोंको भिक्षा देनेके बदले स्वयं भीख माँगने लगते हैं, वानप्रस्थी गाँवोंमें बसने लगते हैं और संन्यासी धनके अत्यन्त लोभी—अर्थपिशाच हो जाते हैं॥ ३३॥
श्लोक-३४
विश्वास-प्रस्तुतिः
ह्रस्वकाया महाहारा भूर्यपत्या गतह्रियः।
शश्वत्कटुकभाषिण्यश्चौर्यमायोरुसाहसाः॥
मूलम्
ह्रस्वकाया महाहारा भूर्यपत्या गतह्रियः।
शश्वत्कटुकभाषिण्यश्चौर्यमायोरुसाहसाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
स्त्रियोंका आकार तो छोटा हो जाता है, पर भूख बढ़ जाती है। उन्हें सन्तान बहुत अधिक होती है और वे अपनी कुल-मर्यादाका उल्लंघन करके लाज-हया—जो उनका भूषण है—छोड़ बैठती हैं। वे सदा-सर्वदा कड़वी बात कहती रहती हैं और चोरी तथा कपटमें बड़ी निपुण हो जाती हैं। उनमें साहस भी बहुत बढ़ जाता है॥ ३४॥
श्लोक-३५
विश्वास-प्रस्तुतिः
पणयिष्यन्ति वै क्षुद्राः किराटाः कूटकारिणः।
अनापद्यपि मंस्यन्ते वार्तां साधुजुगुप्सिताम्॥
मूलम्
पणयिष्यन्ति वै क्षुद्राः किराटाः कूटकारिणः।
अनापद्यपि मंस्यन्ते वार्तां साधुजुगुप्सिताम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
व्यापारियोंके हृदय अत्यन्त क्षुद्र हो जाते हैं। वे कौड़ी—कौड़ीसे लिपटे रहते और छदाम-छदामके लिये धोखाधड़ी करने लगते हैं। और तो क्या—आपत्तिकाल न होनेपर तथा धनी होनेपर भी वे निम्नश्रेणीके व्यापारोंको, जिनकी सत्पुरुष निन्दा करते हैं, ठीक समझने और अपनाने लगते हैं॥ ३५॥
श्लोक-३६
विश्वास-प्रस्तुतिः
पतिं त्यक्ष्यन्ति निर्द्रव्यं भृत्या अप्यखिलोत्तमम्।
भृत्यं विपन्नं पतयः कौलं गाश्चापयस्विनीः॥
मूलम्
पतिं त्यक्ष्यन्ति निर्द्रव्यं भृत्या अप्यखिलोत्तमम्।
भृत्यं विपन्नं पतयः कौलं गाश्चापयस्विनीः॥
अनुवाद (हिन्दी)
स्वामी चाहे सर्वश्रेष्ठ ही क्यों न हों—जब सेवक लोग देखते हैं कि इसके पास धन-दौलत नहीं रही, तब उसे छोड़कर भाग जाते हैं। सेवक चाहे कितना ही पुराना क्यों न हो—परन्तु जब वह किसी विपत्तिमें पड़ जाता है, तब स्वामी उसे छोड़ देते हैं,। और तो क्या, जब गौएँ बकेन हो जाती हैं—दूध देना बन्द कर देती हैं, तब लोग उनका भी परित्याग कर देते हैं॥ ३६॥
श्लोक-३७
विश्वास-प्रस्तुतिः
पितृभ्रातृसुहृज्ज्ञातीन् हित्वा सौरतसौहृदाः।
ननान्दृश्यालसंवादा दीनाः स्त्रैणाः कलौ नराः॥
मूलम्
पितृभ्रातृसुहृज्ज्ञातीन् हित्वा सौरतसौहृदाः।
ननान्दृश्यालसंवादा दीनाः स्त्रैणाः कलौ नराः॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रिय परीक्षित्! कलियुगके मनुष्य बड़े ही लम्पट हो जाते हैं, वे अपनी कामवासनाको तृप्त करनेके लिये ही किसीसे प्रेम करते हैं। वे विषयवासनाके वशीभूत होकर इतने दीन हो जाते हैं कि माता-पिता, भाई-बन्धु और मित्रोंको भी छोड़कर केवल अपनी साली और सालोंसे ही सलाह लेने लगते हैं॥ ३७॥
श्लोक-३८
विश्वास-प्रस्तुतिः
शूद्राः प्रतिग्रहीष्यन्ति तपोवेषोपजीविनः।
धर्मं वक्ष्यन्त्यधर्मज्ञा अधिरुह्योत्तमासनम्॥
मूलम्
शूद्राः प्रतिग्रहीष्यन्ति तपोवेषोपजीविनः।
धर्मं वक्ष्यन्त्यधर्मज्ञा अधिरुह्योत्तमासनम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
शूद्र तपस्वियोंका वेष बनाकर अपना पेट भरते और दान लेने लगते हैं। जिन्हें धर्मका रत्तीभर भी ज्ञान नहीं है, वे ऊँचे सिंहासनपर विराजमान होकर धर्मका उपदेश करने लगते हैं॥ ३८॥
श्लोक-३९
विश्वास-प्रस्तुतिः
नित्यमुद्विग्नमनसो दुर्भिक्षकरकर्शिता।
निरन्ने भूतले राजन्ननावृष्टिभयातुराः॥
मूलम्
नित्यमुद्विग्नमनसो दुर्भिक्षकरकर्शिता।
निरन्ने भूतले राजन्ननावृष्टिभयातुराः॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रिय परीक्षित्! कलियुगकी प्रजा सूखा पड़नेके कारण अत्यन्त भयभीत और आतुर हो जाती है। एक तो दुर्भिक्ष और दूसरे शासकोंकी कर-वृद्धि! प्रजाके शरीरमें केवल अस्थिपंजर और मनमें केवल उद्वेग शेष रह जाता है। प्राणरक्षाके लिये रोटीका टुकड़ा मिलना भी कठिन हो जाता है॥ ३९॥
श्लोक-४०
विश्वास-प्रस्तुतिः
वासोऽन्नपानशयनव्यवायस्नानभूषणैः।
हीनाः पिशाचसन्दर्शा भविष्यन्ति कलौ प्रजाः॥
मूलम्
वासोऽन्नपानशयनव्यवायस्नानभूषणैः।
हीनाः पिशाचसन्दर्शा भविष्यन्ति कलौ प्रजाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
कलियुगमें प्रजा शरीर ढकनेके लिये वस्त्र और पेटकी ज्वाला शान्त करनेके लिये रोटी, पीनेके लिये पानी और सोनेके लिये दो हाथ जमीनसे भी वंचित हो जाती है। उसे दाम्पत्य-जीवन, स्नान और आभूषण पहननेतककी सुविधा नहीं रहती। लोगोंकी आकृति, प्रकृति और चेष्टाएँ पिशाचोंकी-सी हो जाती हैं॥ ४०॥
श्लोक-४१
विश्वास-प्रस्तुतिः
कलौ काकिणिकेऽप्यर्थे विगृह्य त्यक्तसौहृदाः।
त्यक्ष्यन्ति च प्रियान् प्राणान् हनिष्यन्ति स्वकानपि॥
मूलम्
कलौ काकिणिकेऽप्यर्थे विगृह्य त्यक्तसौहृदाः।
त्यक्ष्यन्ति च प्रियान् प्राणान् हनिष्यन्ति स्वकानपि॥
अनुवाद (हिन्दी)
कलियुगमें लोग, अधिक धनकी तो बात ही क्या, कुछ कौड़ियोंके लिये आपसमें वैर-विरोध करने लगते और बहुत दिनोंके सद्भाव तथा मित्रताको तिलांजलि दे देते हैं। इतना ही नहीं, वे दमड़ी-दमड़ीके लिये अपने सगे-सम्बन्धियोंतककी हत्या कर बैठते और अपने प्रिय प्राणोंसे भी हाथ धो बैठते हैं॥ ४१॥
श्लोक-४२
विश्वास-प्रस्तुतिः
न रक्षिष्यन्ति मनुजाः स्थविरौ पितरावपि।
पुत्रान् सर्वार्थकुशलान् क्षुद्राः शिश्नोदरम्भराः॥
मूलम्
न रक्षिष्यन्ति मनुजाः स्थविरौ पितरावपि।
पुत्रान् सर्वार्थकुशलान् क्षुद्राः शिश्नोदरम्भराः॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! कलियुगके क्षुद्र प्राणी केवल कामवासनाकी पूर्ति और पेट भरनेकी धुनमें ही लगे रहते हैं। पुत्र अपने बूढ़े मा-बापकी भी रक्षा—पालन-पोषण नहीं करते, उनकी उपेक्षा कर देते हैं और पिता अपने निपुण-से-निपुण, सब कामोंमें योग्य पुत्रोंकी भी परवा नहीं करते, उन्हें अलग कर देते हैं॥ ४२॥
श्लोक-४३
विश्वास-प्रस्तुतिः
कलौ न राजञ्जगतां परं गुरुं
त्रिलोकनाथानतपादपङ्कजम्।
प्रायेण मर्त्या भगवन्तमच्युतं
यक्ष्यन्ति पाखण्डविभिन्नचेतसः॥
मूलम्
कलौ न राजञ्जगतां परं गुरुं
त्रिलोकनाथानतपादपङ्कजम्।
प्रायेण मर्त्या भगवन्तमच्युतं
यक्ष्यन्ति पाखण्डविभिन्नचेतसः॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! श्रीभगवान् ही चराचर जगत्के परम पिता और परम गुरु हैं। इन्द्र-ब्रह्मा आदि त्रिलोकाधिपति उनके चरणकमलोंमें अपना सिर झुकाकर सर्वस्व समर्पण करते रहते हैं। उनका ऐश्वर्य अनन्त है और वे एकरस अपने स्वरूपमें स्थित हैं। परन्तु कलियुगमें लोगोंमें इतनी मूढ़ता फैल जाती है, पाखण्डियोंके कारण लोगोंका चित्त इतना भटक जाता है कि प्रायः लोग अपने कर्म और भावनाओंके द्वारा भगवान्की पूजासे भी विमुख हो जाते हैं॥ ४३॥
श्लोक-४४
विश्वास-प्रस्तुतिः
यन्नामधेयं म्रियमाण आतुरः
पतन् स्खलन् वा विवशो गृणन् पुमान्।
विमुक्तकर्मार्गल(कर्माशयः) उत्तमां गतिं
प्राप्नोति यक्ष्यन्ति न तं कलौ जनाः॥
मूलम्
यन्नामधेयं म्रियमाण आतुरः
पतन् स्खलन् वा विवशो गृणन् पुमान्।
विमुक्तकर्मार्गल(कर्माशयः) उत्तमां गतिं
प्राप्नोति यक्ष्यन्ति न तं कलौ जनाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनुष्य मरनेके समय आतुरताकी स्थितिमें अथवा गिरते या फिसलते समय विवश होकर भी यदि भगवान्के किसी एक नामका उच्चारण कर ले, तो उसके सारे कर्मबन्धन छिन्न-भिन्न हो जाते हैं और उसे उत्तम-से-उत्तम गति प्राप्त होती है। परन्तु हाय रे कलियुग! कलियुगसे प्रभावित होकर लोग उन भगवान्की आराधनासे भी विमुख हो जाते हैं॥ ४४॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
विमुक्तकर्माशयः विमुक्तकर्मवासनः ॥ ४४-४६ ॥
श्लोक-४५
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुंसां कलिकृतान् दोषान् द्रव्यदेशात्मसम्भवान्।
सर्वान् हरति चित्तस्थो भगवान् पुरुषोत्तमः॥
मूलम्
पुंसां कलिकृतान् दोषान् द्रव्यदेशात्मसम्भवान्।
सर्वान् हरति चित्तस्थो भगवान् पुरुषोत्तमः॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! कलियुगके अनेकों दोष हैं। कुल वस्तुएँ दूषित हो जाती हैं, स्थानोंमें भी दोषकी प्रधानता हो जाती है। सब दोषोंका मूल स्रोत तो अन्तःकरण है ही, परन्तु जब पुरुषोत्तमभगवान् हृदयमें आ विराजते हैं, तब उनकी सन्निधिमात्रसे ही सब-के-सब दोष नष्ट हो जाते हैं॥ ४५॥
श्लोक-४६
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रुतः सङ्कीर्तितो ध्यातः पूजितश्चादृतोऽपि वा।
नृणां धुनोति भगवान् हृत्स्थो जन्मायुताशुभम्॥
मूलम्
श्रुतः सङ्कीर्तितो ध्यातः पूजितश्चादृतोऽपि वा।
नृणां धुनोति भगवान् हृत्स्थो जन्मायुताशुभम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान्के रूप, गुण, लीला, धाम और नामके श्रवण, संकीर्तन, ध्यान, पूजन और आदरसे वे मनुष्यके हृदयमें आकर विराजमान हो जाते हैं। और एक-दो जन्मके पापोंकी तो बात ही क्या, हजारों जन्मोंके पापके ढेर-के-ढेर भी क्षणभरमें भस्म कर देते हैं॥ ४६॥
श्लोक-४७
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा हेम्नि स्थितो वह्निर्दुर्वर्णं हन्ति धातुजम्।
एवमात्मगतो विष्णुर्योगिनामशुभाशयम्॥
मूलम्
यथा हेम्नि स्थितो वह्निर्दुर्वर्णं हन्ति धातुजम्।
एवमात्मगतो विष्णुर्योगिनामशुभाशयम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे सोनेके साथ संयुक्त होकर अग्नि उसके धातुसम्बन्धी मलिनता आदि दोषोंको नष्ट कर देती है, वैसे ही साधकोंके हृदयमें स्थित होकर भगवान् विष्णु उनके अशुभ संस्कारोंको सदाके लिये मिटा देते हैं॥ ४७॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
दुर्वर्णं रजतम् ॥ ४७-४९ ॥
श्लोक-४८
विश्वास-प्रस्तुतिः
विद्यातपःप्राणनिरोधमैत्री-
तीर्थाभिषेकव्रतदानजप्यैः।
नात्यन्तशुद्धिं लभतेऽन्तरात्मा
यथा हृदिस्थे भगवत्यनन्ते॥
मूलम्
विद्यातपःप्राणनिरोधमैत्री-
तीर्थाभिषेकव्रतदानजप्यैः।
नात्यन्तशुद्धिं लभतेऽन्तरात्मा
यथा हृदिस्थे भगवत्यनन्ते॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! विद्या, तपस्या, प्राणायाम, समस्त प्राणियोंके प्रति मित्रभाव, तीर्थस्नान, व्रत, दान और जप आदि किसी भी साधनसे मनुष्यके अन्तःकरणकी वैसी वास्तविक शुद्धि नहीं होती, जैसी शुद्धि भगवान् पुरुषोत्तमके हृदयमें विराजमान हो जानेपर होती है॥ ४८॥
श्लोक-४९
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मात् सर्वात्मना राजन् हृदिस्थं कुरु केशवम्।
म्रियमाणो ह्यवहितस्ततो यासि परां गतिम्॥
मूलम्
तस्मात् सर्वात्मना राजन् हृदिस्थं कुरु केशवम्।
म्रियमाणो ह्यवहितस्ततो यासि परां गतिम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! अब तुम्हारी मृत्युका समय निकट आ गया है। अब सावधान हो जाओ। पूरी शक्तिसे और अन्तःकरणकी सारी वृत्तियोंसे भगवान् श्रीकृष्णको अपने हृदयसिंहासनपर बैठा लो। ऐसा करनेसे अवश्य ही तुम्हें परमगतिकी प्राप्ति होगी॥ ४९॥
श्लोक-५०
विश्वास-प्रस्तुतिः
म्रियमाणैरभिध्येयो भगवान् परमेश्वरः।
आत्मभावं नयत्यङ्ग सर्वात्मा सर्वसंश्रयः॥
मूलम्
म्रियमाणैरभिध्येयो भगवान् परमेश्वरः।
आत्मभावं नयत्यङ्ग सर्वात्मा सर्वसंश्रयः॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो लोग मृत्युके निकट पहुँच रहे हैं, उन्हें सब प्रकारसे परम ऐश्वर्यशाली भगवान्का ही ध्यान करना चाहिये। प्यारे परीक्षित्! सबके परम आश्रय और सर्वात्मा भगवान् अपना ध्यान करनेवालेको अपने स्वरूपमें लीन कर लेते हैं, उसे अपना स्वरूप बना लेते हैं॥ ५०॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
आत्मभावम् आत्मस्वभावं साम्यापत्तिरित्यर्थः । " तद्भावभावमापन्नाः" इत्यादिशास्त्रकार्थ्यात् तत्र हि भावशब्दः स्वभावाची अन्यथा द्वितीयभावशब्दानन्वयात् ॥ ५०-५२ ॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे द्वादशस्कन्धव्याख्याने श्रीसुदर्शनसूरिकृतशुकपक्षीये तृतीयोऽध्यायः ॥ ३॥
श्लोक-५१
विश्वास-प्रस्तुतिः
कलेर्दोषनिधेराजन्नस्ति ह्येको महान् गुणः।
कीर्तनादेव कृष्णस्य मुक्तसङ्गः परं व्रजेत्॥
मूलम्
कलेर्दोषनिधेराजन्नस्ति ह्येको महान् गुणः।
कीर्तनादेव कृष्णस्य मुक्तसङ्गः परं व्रजेत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! यों तो कलियुग दोषोंका खजाना है, परन्तु इसमें एक बहुत बड़ा गुण है। वह गुण यही है कि कलियुगमें केवल भगवान् श्रीकृष्णका संकीर्तन करनेमात्रसे ही सारी आसक्तियाँ छूट जाती हैं और परमात्माकी प्राप्ति हो जाती है॥ ५१॥
श्लोक-५२
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृते यद् ध्यायतो विष्णुं त्रेतायां यजतो मखैः।
द्वापरे परिचर्यायां कलौ तद्धरिकीर्तनात्॥
मूलम्
कृते यद् ध्यायतो विष्णुं त्रेतायां यजतो मखैः।
द्वापरे परिचर्यायां कलौ तद्धरिकीर्तनात्॥
अनुवाद (हिन्दी)
सत्ययुगमें भगवान्का ध्यान करनेसे, त्रेतामें बड़े-बड़े यज्ञोंके द्वारा उनकी आराधना करनेसे और द्वापरमें विधिपूर्वक उनकी पूजा-सेवासे जो फल मिलता है, वह कलियुगमें केवल भगवन्नामका कीर्तन करनेसे ही प्राप्त हो जाता है॥ ५२॥
अनुवाद (समाप्ति)
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां द्वादशस्कन्धे तृतीयोऽध्यायः॥ ३॥