०२

[द्वितीयोऽध्यायः]

भागसूचना

कलियुगके धर्म

श्लोक-१

मूलम् (वचनम्)

श्रीशुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततश्चानुदिनं धर्मः सत्यं शौचं क्षमा दया।
कालेन बलिना राजन् नङ्क्ष्यत्यायुर्बलं स्मृतिः॥

मूलम्

ततश्चानुदिनं धर्मः सत्यं शौचं क्षमा दया।
कालेन बलिना राजन् नङ्क्ष्यत्यायुर्बलं स्मृतिः॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! समय बड़ा बलवान् है; ज्यों-ज्यों घोर कलियुग आता जायगा, त्यों-त्यों उत्तरोत्तर धर्म, सत्य, पवित्रता, क्षमा, दया, आयु, बल और स्मरणशक्तिका लोप होता जायगा॥ १॥

श्लोक-२

विश्वास-प्रस्तुतिः

वित्तमेव कलौ नॄणां जन्माचारगुणोदयः।
धर्मन्यायव्यवस्थायां कारणं बलमेव हि॥

मूलम्

वित्तमेव कलौ नॄणां जन्माचारगुणोदयः।
धर्मन्यायव्यवस्थायां कारणं बलमेव हि॥

अनुवाद (हिन्दी)

कलियुगमें जिसके पास धन होगा, उसीको लोग कुलीन, सदाचारी और सद‍्गुणी मानेंगे। जिसके हाथमें शक्ति होगी वही धर्म और न्यायकी व्यवस्था अपने अनुकूल करा सकेगा॥ २॥

श्लोक-३

विश्वास-प्रस्तुतिः

दाम्पत्येऽभिरुचिर्हेतुर्मायैव व्यावहारिके।
स्त्रीत्वे पुंस्त्वे च हि रतिर्विप्रत्वे सूत्रमेव हि॥

मूलम्

दाम्पत्येऽभिरुचिर्हेतुर्मायैव व्यावहारिके।
स्त्रीत्वे पुंस्त्वे च हि रतिर्विप्रत्वे सूत्रमेव हि॥

अनुवाद (हिन्दी)

विवाह-सम्बन्धके लिये कुल-शील-योग्यता आदिकी परख-निरख नहीं रहेगी, युवक-युवतीकी पारस्परिक रुचिसे ही सम्बन्ध हो जायगा। व्यवहारकी निपुणता सच्चाई और ईमानदारीमें नहीं रहेगी; जो जितना छल-कपट कर सकेगा, वह उतना ही व्यवहारकुशल माना जायगा। स्त्री और पुरुषकी श्रेष्ठताका आधार उनका शील-संयम न होकर केवल रतिकौशल ही रहेगा। ब्राह्मणकी पहचान उसके गुण-स्वभावसे नहीं यज्ञोपवीतसे हुआ करेगी॥ ३॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

रुचिहेतुः नत्वाभिज्यात्यादि सा च व्यावहारिकी लोकव्यवहारसिद्धा मायैव विवेकप्रतिबन्धिनी स्त्रीत्वे चेति स्त्रीत्वपुंस्त्वयोर्हेतुर्नास्ति स्त्रीत्वपुंस्त्वैकान्तगुणवृत्तयोगो हेतुः किन्तु अभिरतिरेव सम्भोग एव इत्यर्थः ॥ ३ ॥

श्लोक-४

विश्वास-प्रस्तुतिः

लिङ्गमेवाश्रमख्यातावन्योन्यापत्तिकारणम्।
अवृत्त्या न्यायदौर्बल्यं पाण्डित्ये चापलं वचः॥

मूलम्

लिङ्गमेवाश्रमख्यातावन्योन्यापत्तिकारणम्।
अवृत्त्या न्यायदौर्बल्यं पाण्डित्ये चापलं वचः॥

अनुवाद (हिन्दी)

वस्त्र, दण्ड-कमण्डलु आदिसे ही ब्रह्मचारी, संन्यासी आदि आश्रमियोंकी पहचान होगी और एक-दूसरेका चिह्न स्वीकार कर लेना ही एकसे दूसरे आश्रममें प्रवेशका स्वरूप होगा। जो घूस देने या धन खर्च करनेमें असमर्थ होगा, उसे अदालतोंसे ठीक-ठीक न्याय न मिल सकेगा। जो बोलचालमें जितना चालाक होगा, उसे उतना ही बड़ा पण्डित माना जायगा॥ ४॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

अवृत्तिः दारिद्र्यम् ॥ ४ ॥

श्लोक-५

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनाढ्यतैवासाधुत्वे साधुत्वे दम्भ एव तु।
स्वीकार एव चोद्वाहे स्नानमेव प्रसाधनम्॥

मूलम्

अनाढ्यतैवासाधुत्वे साधुत्वे दम्भ एव तु।
स्वीकार एव चोद्वाहे स्नानमेव प्रसाधनम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

असाधुताकी—दोषी होनेकी एक ही पहचान रहेगी—गरीब होना। जो जितना अधिक दम्भ-पाखण्ड कर सकेगा, उसे उतना ही बड़ा साधु समझा जायगा। विवाहके लिये एक-दूसरेकी स्वीकृति ही पर्याप्त होगी, शास्त्रीय विधि-विधानकी—संस्कार आदिकी कोई आवश्यकता न समझी जायगी। बाल आदि सँवारकर कपड़े-लत्तेसे लैस हो जाना ही स्नान समझा जायगा॥ ५॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

स्वीकार एव न तु शास्त्रीयविधिनेत्यर्थः ॥ ५ ॥

श्लोक-६

विश्वास-प्रस्तुतिः

दूरे वार्ययनं तीर्थं लावण्यं केशधारणम्।
उदरम्भरता स्वार्थः सत्यत्वे धार्ष्ट्यमेव हि॥

मूलम्

दूरे वार्ययनं तीर्थं लावण्यं केशधारणम्।
उदरम्भरता स्वार्थः सत्यत्वे धार्ष्ट्यमेव हि॥

अनुवाद (हिन्दी)

लोग दूरके तालाबको तीर्थ मानेंगे और निकटके तीर्थ गंगा-गोमती, माता-पिता आदिकी उपेक्षा करेंगे। सिरपर बड़े-बड़े बाल—काकुल रखाना ही शारीरिक सौन्दर्यका चिह्न समझा जायगा और जीवनका सबसे बड़ा पुरुषार्थ होगा—अपना पेट भर लेना। जो जितनी ढिठाईसे बात कर सकेगा, उसे उतना ही सच्चा समझा जायगा॥ ६॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

उदरमिति उदरपोषणमेव स्वार्थः स्वस्य पुरुषार्थः ॥ ६-१९ ॥

श्लोक-७

विश्वास-प्रस्तुतिः

दाक्ष्यं कुटुम्बभरणं यशोऽर्थे धर्मसेवनम्।
एवं प्रजाभिर्दुष्टाभिराकीर्णे क्षितिमण्डले॥

मूलम्

दाक्ष्यं कुटुम्बभरणं यशोऽर्थे धर्मसेवनम्।
एवं प्रजाभिर्दुष्टाभिराकीर्णे क्षितिमण्डले॥

श्लोक-८

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रह्मविट्क्षत्रशूद्राणां यो बली भविता नृपः।
प्रजा हि लुब्धै राजन्यैर्निर्घृणैर्दस्युधर्मभिः॥

मूलम्

ब्रह्मविट्क्षत्रशूद्राणां यो बली भविता नृपः।
प्रजा हि लुब्धै राजन्यैर्निर्घृणैर्दस्युधर्मभिः॥

श्लोक-९

विश्वास-प्रस्तुतिः

आच्छिन्नदारद्रविणा यास्यन्ति गिरिकाननम्।
शाकमूलामिषक्षौद्रफलपुष्पाष्टिभोजनाः॥

मूलम्

आच्छिन्नदारद्रविणा यास्यन्ति गिरिकाननम्।
शाकमूलामिषक्षौद्रफलपुष्पाष्टिभोजनाः॥

अनुवाद (हिन्दी)

योग्यता चतुराईका सबसे बड़ा लक्षण यह होगा कि मनुष्य अपने कुटुम्बका पालन कर ले। धर्मका सेवन यशके लिये किया जायगा। इस प्रकार जब सारी पृथ्वीपर दुष्टोंका बोलबाला हो जायगा, तब राजा होनेका कोई नियम न रहेगा; ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अथवा शूद्रोंमें जो बली होगा, वही राजा बन बैठेगा। उस समयके नीच राजा अत्यन्त निर्दय एवं क्रूर होंगे; लोभी तो इतने होंगे कि उनमें और लुटेरोंमें कोई अन्तर न किया जा सकेगा। वे प्रजाकी पूँजी एवं पत्नियोंतकको छीन लेंगे। उनसे डरकर प्रजा पहाड़ों और जंगलोंमें भाग जायगी। उस समय प्रजा तरह-तरहके शाक, कन्द-मूल, मांस, मधु, फल-फूल और बीज-गुठली आदि खा-खाकर अपना पेट भरेगी॥ ७—९॥

श्लोक-१०

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनावृष्ट्या विनङ्क्ष्यन्ति दुर्भिक्षकरपीडिताः।
शीतवातातपप्रावृड्हिमैरन्योन्यतः प्रजाः॥

मूलम्

अनावृष्ट्या विनङ्क्ष्यन्ति दुर्भिक्षकरपीडिताः।
शीतवातातपप्रावृड्हिमैरन्योन्यतः प्रजाः॥

अनुवाद (हिन्दी)

कभी वर्षा न होगी—सूखा पड़ जायगा; तो कभी कर-पर-कर लगाये जायँगे। कभी कड़ाकेकी सर्दी पड़ेगी तो कभी पाला पड़ेगा, कभी आँधी चलेगी, कभी गरमी पड़ेगी तो कभी बाढ़ आ जायगी। इन उत्पातोंसे तथा आपसके संघर्षसे प्रजा अत्यन्त पीड़ित होगी, नष्ट हो जायगी॥ १०॥

श्लोक-११

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्षुत्तृड्भ्यां व्याधिभिश्चैव सन्तप्स्यन्ते च चिन्तया।
त्रिंशद्विंशतिवर्षाणि परमायुः कलौ नृणाम्॥

मूलम्

क्षुत्तृड्भ्यां व्याधिभिश्चैव सन्तप्स्यन्ते च चिन्तया।
त्रिंशद्विंशतिवर्षाणि परमायुः कलौ नृणाम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

लोग भूख-प्यास तथा नाना प्रकारकी चिन्ताओंसे दुःखी रहेंगे। रोगोंसे तो उन्हें छुटकारा ही न मिलेगा। कलियुगमें मनुष्योंकी परमायु केवल बीस या तीस वर्षकी होगी॥ ११॥

श्लोक-१२

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्षीयमाणेषु देहेषु देहिनां कलिदोषतः।
वर्णाश्रमवतां धर्मे नष्टे वेदपथे नृणाम्॥

मूलम्

क्षीयमाणेषु देहेषु देहिनां कलिदोषतः।
वर्णाश्रमवतां धर्मे नष्टे वेदपथे नृणाम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! कलिकालके दोषसे प्राणियोंके शरीर छोटे-छोटे, क्षीण और रोगग्रस्त होने लगेंगे। वर्ण और आश्रमोंका धर्म बतलानेवाला वेदमार्ग नष्टप्राय हो जायगा॥ १२॥

श्लोक-१३

विश्वास-प्रस्तुतिः

पाखण्डप्रचुरे धर्मे दस्युप्रायेषु राजसु।
चौर्यानृतवृथाहिंसानानावृत्तिषु वै नृषु॥

मूलम्

पाखण्डप्रचुरे धर्मे दस्युप्रायेषु राजसु।
चौर्यानृतवृथाहिंसानानावृत्तिषु वै नृषु॥

अनुवाद (हिन्दी)

धर्ममें पाखण्डकी प्रधानता हो जायगी। राजे-महाराजे डाकू-लुटेरोंके समान हो जायँगे। मनुष्य चोरी, झूठ तथा निरपराध हिंसा आदि नाना प्रकारके कुकर्मोंसे जीविका चलाने लगेंगे॥ १३॥

श्लोक-१४

विश्वास-प्रस्तुतिः

शूद्रप्रायेषु वर्णेषुच्छागप्रायासु धेनुषु।
गृहप्रायेष्वाश्रमेषु यौनप्रायेषु बन्धुषु॥

मूलम्

शूद्रप्रायेषु वर्णेषुच्छागप्रायासु धेनुषु।
गृहप्रायेष्वाश्रमेषु यौनप्रायेषु बन्धुषु॥

अनुवाद (हिन्दी)

चारों वर्णोंके लोग शूद्रोंके समान हो जायँगे। गौएँ बकरियोंकी तरह छोटी-छोटी और कम दूध देनेवाली हो जायँगी। वानप्रस्थी और संन्यासी आदि विरक्त आश्रमवाले भी घर-गृहस्थी जुटाकर गृहस्थोंका-सा व्यापार करने लगेंगे। जिनसे वैवाहिक सम्बन्ध है, उन्हींको अपना सम्बन्धी माना जायगा॥ १४॥

श्लोक-१५

विश्वास-प्रस्तुतिः

अणुप्रायास्वोषधीषु शमीप्रायेषु स्थास्नुषु।
विद्युत्प्रायेषु मेघेषु शून्यप्रायेषु सद्मसु॥

मूलम्

अणुप्रायास्वोषधीषु शमीप्रायेषु स्थास्नुषु।
विद्युत्प्रायेषु मेघेषु शून्यप्रायेषु सद्मसु॥

अनुवाद (हिन्दी)

धान, जौ, गेहूँ आदि धान्योंके पौधे छोटे-छोटे होने लगेंगे। वृक्षोंमें अधिकांश शमीके समान छोटे और कँटीले वृक्ष ही रह जायँगे। बादलोंमें बिजली तो बहुत चमकेगी, परन्तु वर्षा कम होगी। गृहस्थोंके घर अतिथि-सत्कार या वेदध्वनिसे रहित होनेके कारण अथवा जनसंख्या घट जानेके कारण सूने-सूने हो जायँगे॥ १५॥

श्लोक-१६

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्थं कलौ गतप्राये जने तु खरधर्मिणि।
धर्मत्राणाय सत्त्वेन भगवानवतरिष्यति॥

मूलम्

इत्थं कलौ गतप्राये जने तु खरधर्मिणि।
धर्मत्राणाय सत्त्वेन भगवानवतरिष्यति॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! अधिक क्या कहें—कलियुगका अन्त होते-होते मनुष्योंका स्वभाव गधों-जैसा दुःसह बन जायगा, लोग प्रायः गृहस्थीका भार ढोनेवाले और विषयी हो जायँगे। ऐसी स्थितिमें धर्मकी रक्षा करनेके लिये सत्त्वगुण स्वीकार करके स्वयं भगवान् अवतार ग्रहण करेंगे॥ १६॥

श्लोक-१७

विश्वास-प्रस्तुतिः

चराचरगुरोर्विष्णोरीश्वरस्याखिलात्मनः।
धर्मत्राणाय साधूनां जन्म कर्मापनुत्तये॥

मूलम्

चराचरगुरोर्विष्णोरीश्वरस्याखिलात्मनः।
धर्मत्राणाय साधूनां जन्म कर्मापनुत्तये॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रिय परीक्षित्! सर्वव्यापक भगवान् विष्णु सर्वशक्तिमान् हैं। वे सर्वस्वरूप होनेपर भी चराचर जगत‍्के सच्चे शिक्षक—सद‍्गुरु हैं। वे साधु—सज्जन पुरुषोंके धर्मकी रक्षाके लिये, उनके कर्मका बन्धन काटकर उन्हें जन्म-मृत्युके चक्रसे छुड़ानेके लिये अवतार ग्रहण करते हैं॥ १७॥

श्लोक-१८

विश्वास-प्रस्तुतिः

सम्भलग्राममुख्यस्य ब्राह्मणस्य महात्मनः।
भवने विष्णुयशसः कल्किः प्रादुर्भविष्यति॥

मूलम्

सम्भलग्राममुख्यस्य ब्राह्मणस्य महात्मनः।
भवने विष्णुयशसः कल्किः प्रादुर्भविष्यति॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन दिनों शम्भल-ग्राममें विष्णुयश नामके एक श्रेष्ठ ब्राह्मण होंगे। उनका हृदय बड़ा उदार एवं भगवद‍्भक्तिसे पूर्ण होगा। उन्हींके घर कल्किभगवान् अवतार ग्रहण करेंगे॥ १८॥

श्लोक-१९

विश्वास-प्रस्तुतिः

अश्वमाशुगमारुह्य देवदत्तं जगत्पतिः।
असिनासाधुदमनमष्टैश्वर्यगुणान्वितः॥

मूलम्

अश्वमाशुगमारुह्य देवदत्तं जगत्पतिः।
असिनासाधुदमनमष्टैश्वर्यगुणान्वितः॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीभगवान् ही अष्टसिद्धियोंके और समस्त सद‍्गुणोंके एकमात्र आश्रय हैं। समस्त चराचर जगत‍्के वे ही रक्षक और स्वामी हैं। वे देवदत्त नामक शीघ्रगामी घोड़ेपर सवार होकर दुष्टोंको तलवारके घाट उतारकर ठीक करेंगे॥ १९॥

श्लोक-२०

विश्वास-प्रस्तुतिः

विचरन्नाशुना क्षोण्यां हयेनाप्रतिमद्युतिः।
नृपलिङ्गच्छदो दस्यून् कोटिशो निहनिष्यति॥

मूलम्

विचरन्नाशुना क्षोण्यां हयेनाप्रतिमद्युतिः।
नृपलिङ्गच्छदो दस्यून् कोटिशो निहनिष्यति॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनके रोम-रोमसे अतुलनीय तेजकी किरणें छिटकती होंगी। वे अपने शीघ्रगामी घोड़ेसे पृथ्वीपर सर्वत्र विचरण करेंगे और राजाके वेषमें छिपकर रहनेवाले कोटि-कोटि डाकुओंका संहार करेंगे॥ २०॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

आशुना आशुगतिना ॥ २० -२७ ॥

श्लोक-२१

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ तेषां भविष्यन्ति मनांसि विशदानि वै।
वासुदेवाङ्गरागातिपुण्यगन्धानिलस्पृशाम्।
पौरजानपदानां वै हतेष्वखिलदस्युषु॥

मूलम्

अथ तेषां भविष्यन्ति मनांसि विशदानि वै।
वासुदेवाङ्गरागातिपुण्यगन्धानिलस्पृशाम्।
पौरजानपदानां वै हतेष्वखिलदस्युषु॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रिय परीक्षित्! जब सब डाकुओंका संहार हो चुकेगा, तब नगरकी और देशकी सारी प्रजाका हृदय पवित्रतासे भर जायगा; क्योंकि भगवान् कल्किके शरीरमें लगे हुए अंगरागका स्पर्श पाकर अत्यन्त पवित्र हुई वायु उनका स्पर्श करेगी और इस प्रकार वे भगवान‍्के श्रीविग्रहकी दिव्य गन्ध प्राप्त कर सकेंगे॥ २१॥

श्लोक-२२

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेषां प्रजाविसर्गश्च स्थविष्ठः सम्भविष्यति।
वासुदेवे भगवति सत्त्वमूर्तौ हृदि स्थिते॥

मूलम्

तेषां प्रजाविसर्गश्च स्थविष्ठः सम्भविष्यति।
वासुदेवे भगवति सत्त्वमूर्तौ हृदि स्थिते॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनके पवित्र हृदयोंमें सत्त्वमूर्ति भगवान् वासुदेव विराजमान होंगे और फिर उनकी सन्तान पहलेकी भाँति हृष्ट-पुष्ट और बलवान् होने लगेगी॥ २२॥

श्लोक-२३

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदावतीर्णो भगवान् कल्किर्धर्मपतिर्हरिः।
कृतं भविष्यति तदा प्रजासूतिश्च सात्त्विकी॥

मूलम्

यदावतीर्णो भगवान् कल्किर्धर्मपतिर्हरिः।
कृतं भविष्यति तदा प्रजासूतिश्च सात्त्विकी॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रजाके नयन-मनोहारी हरि ही धर्मके रक्षक और स्वामी हैं। वे ही भगवान् जब कल्किके रूपमें अवतार ग्रहण करेंगे, उसी समय सत्ययुगका प्रारम्भ हो जायगा और प्रजाकी सन्तान-परम्परा स्वयं ही सत्त्वगुणसे युक्त हो जायगी॥ २३॥

श्लोक-२४

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदा चन्द्रश्च सूर्यश्च तथा तिष्यबृहस्पती।
एकराशौ समेष्यन्ति तदा भवति तत् कृतम्॥

मूलम्

यदा चन्द्रश्च सूर्यश्च तथा तिष्यबृहस्पती।
एकराशौ समेष्यन्ति तदा भवति तत् कृतम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिस समय चन्द्रमा, सूर्य और बृहस्पति एक ही समय एक ही साथ पुष्य नक्षत्रके प्रथम पलमें प्रवेश करके एक राशिपर आते हैं, उसी समय सत्ययुगका प्रारम्भ होता है॥ २४॥

श्लोक-२५

विश्वास-प्रस्तुतिः

येऽतीता वर्तमाना ये भविष्यन्ति च पार्थिवाः।
ते त उद्देशतः प्रोक्ता वंशीयाः सोमसूर्ययोः॥

मूलम्

येऽतीता वर्तमाना ये भविष्यन्ति च पार्थिवाः।
ते त उद्देशतः प्रोक्ता वंशीयाः सोमसूर्ययोः॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! चन्द्रवंश और सूर्यवंशमें जितने राजा हो गये हैं या होंगे, उन सबका मैंने संक्षेपसे वर्णन कर दिया॥ २५॥

श्लोक-२६

विश्वास-प्रस्तुतिः

आरभ्य भवतो जन्म यावन्नन्दाभिषेचनम्।
एतद् वर्षसहस्रं तु शतं पञ्चदशोत्तरम्॥

मूलम्

आरभ्य भवतो जन्म यावन्नन्दाभिषेचनम्।
एतद् वर्षसहस्रं तु शतं पञ्चदशोत्तरम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुम्हारे जन्मसे लेकर राजा नन्दके अभिषेकतक एक हजार एक सौ पंद्रह वर्षका समय लगेगा॥ २६॥

श्लोक-२७

विश्वास-प्रस्तुतिः

सप्तर्षीणां तु यौ पूर्वौ दृश्येते उदितौ दिवि।
तयोस्तु मध्ये नक्षत्रं दृश्यते यत् समं निशि॥

मूलम्

सप्तर्षीणां तु यौ पूर्वौ दृश्येते उदितौ दिवि।
तयोस्तु मध्ये नक्षत्रं दृश्यते यत् समं निशि॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिस समय आकाशमें सप्तर्षियोंका उदय होता है, उस समय पहले उनमेंसे दो ही तारे दिखायी पड़ते हैं। उनके बीचमें दक्षिणोत्तर रेखापर समभागमें अश्विनी आदि नक्षत्रोंमेंसे एक नक्षत्र दिखायी पड़ता है॥ २७॥

श्लोक-२८

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेनैत ऋषयो युक्तास्तिष्ठन्त्यब्दशतं नृणाम्।
ये त्वदीये द्विजाः काले अधुना चाश्रिता मघाः॥

मूलम्

तेनैत ऋषयो युक्तास्तिष्ठन्त्यब्दशतं नृणाम्।
ये त्वदीये द्विजाः काले अधुना चाश्रिता मघाः॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस नक्षत्रके साथ सप्तर्षिगण मनुष्योंकी गणनासे सौ वर्षतक रहते हैं। वे तुम्हारे जन्मके समय और इस समय भी मघा नक्षत्रपर स्थित हैं॥ २८॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

ते द्विजाः सप्तर्षयः ॥ २८ ॥

श्लोक-२९

विश्वास-प्रस्तुतिः

विष्णोर्भगवतो भानुः कृष्णाख्योऽसौ दिवं गतः।
तदाविशत् कलिर्लोकं पापे यद् रमते जनः॥

मूलम्

विष्णोर्भगवतो भानुः कृष्णाख्योऽसौ दिवं गतः।
तदाविशत् कलिर्लोकं पापे यद् रमते जनः॥

अनुवाद (हिन्दी)

स्वयं सर्वव्यापक सर्वशक्तिमान् भगवान् ही शुद्ध सत्त्वमय विग्रहके साथ श्रीकृष्णके रूपमें प्रकट हुए थे। वे जिस समय अपनी लीला संवरण करके परमधामको पधार गये, उसी समय कलियुगने संसारमें प्रवेश किया। उसीके कारण मनुष्योंकी मति-गति पापकी ओर ढुलक गयी॥ २९॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

तेषु मघासु वर्तमानेषु सत्सु यदा विष्णोर्भानुः शुद्धसत्त्वात्मको देहः दिवं वैकुण्ठं गतः यदा कलियुगोऽविशत् यत् यस्मिन् युगे जनः पापे रमते इति कलियुगस्य लक्षणम् ॥ २९-४४ ॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे द्वादशस्कन्धव्याख्याने श्रीसुदर्शनसूरिकृतशुकपक्षीये द्वितीयोऽध्यायः ॥ २ ॥

श्लोक-३०

विश्वास-प्रस्तुतिः

यावत् स पादपद्माभ्यां स्पृशन्नास्ते रमापतिः।
तावत् कलिर्वै पृथिवीं पराक्रान्तुं न चाशकत्॥

मूलम्

यावत् स पादपद्माभ्यां स्पृशन्नास्ते रमापतिः।
तावत् कलिर्वै पृथिवीं पराक्रान्तुं न चाशकत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

जबतक लक्ष्मीपति भगवान् श्रीकृष्ण अपने चरणकमलोंसे पृथ्वीका स्पर्श करते रहे, तबतक कलियुग पृथ्वीपर अपना पैर न जमा सका॥ ३०॥

श्लोक-३१

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदा देवर्षयः सप्त मघासु विचरन्ति हि।
तदा प्रवृत्तस्तु कलिर्द्वादशाब्दशतात्मकः॥

मूलम्

यदा देवर्षयः सप्त मघासु विचरन्ति हि।
तदा प्रवृत्तस्तु कलिर्द्वादशाब्दशतात्मकः॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! जिस समय सप्तर्षि मघानक्षत्रपर विचरण करते रहते हैं, उसी समय कलियुगका प्रारम्भ होता है। कलियुगकी आयु देवताओंकी वर्षगणनासे बारह सौ वर्षोंकी अर्थात् मनुष्योंकी गणनाके अनुसार चार लाख बत्तीस हजार वर्षकी है॥ ३१॥

श्लोक-३२

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदा मघाभ्यो यास्यन्ति पूर्वाषाढां महर्षयः।
तदा नन्दात् प्रभृत्येष कलिर्वृद्धिं गमिष्यति॥

मूलम्

यदा मघाभ्यो यास्यन्ति पूर्वाषाढां महर्षयः।
तदा नन्दात् प्रभृत्येष कलिर्वृद्धिं गमिष्यति॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिस समय सप्तर्षि मघासे चलकर पूर्वाषाढ़ानक्षत्रमें जा चुके होंगे, उस समय राजा नन्दका राज्य रहेगा। तभीसे कलियुगकी वृद्धि शुरू होगी॥ ३२॥

श्लोक-३३

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्मिन् कृष्णो दिवं यातस्तस्मिन्नेव तदाहनि।
प्रतिपन्नं कलियुगमिति प्राहुः पुराविदः॥

मूलम्

यस्मिन् कृष्णो दिवं यातस्तस्मिन्नेव तदाहनि।
प्रतिपन्नं कलियुगमिति प्राहुः पुराविदः॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुरातत्त्ववेत्ता ऐतिहासिक विद्वानोंका कहना है कि जिस दिन भगवान् श्रीकृष्णने अपने परम-धामको प्रयाण किया, उसी दिन, उसी समय कलियुगका प्रारम्भ हो गया॥ ३३॥

श्लोक-३४

विश्वास-प्रस्तुतिः

दिव्याब्दानां सहस्रान्ते चतुर्थे तु पुनः कृतम्।
भविष्यति यदा नॄणां मन आत्मप्रकाशकम्॥

मूलम्

दिव्याब्दानां सहस्रान्ते चतुर्थे तु पुनः कृतम्।
भविष्यति यदा नॄणां मन आत्मप्रकाशकम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! जब देवताओंकी वर्षगणनाके अनुसार एक हजार वर्ष बीत चुकेंगे, तब कलियुगके अन्तिम दिनोंमें फिरसे कल्किभगवान‍्की कृपासे मनुष्योंके मनमें सात्त्विकताका संचार होगा, लोग अपने वास्तविक स्वरूपको जान सकेंगे और तभीसे सत्ययुगका प्रारम्भ भी होगा॥ ३४॥

श्लोक-३५

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्येष मानवो वंशो यथा संख्यायते भुवि।
तथा विट्शूद्रविप्राणां तास्ता ज्ञेया युगे युगे॥

मूलम्

इत्येष मानवो वंशो यथा संख्यायते भुवि।
तथा विट्शूद्रविप्राणां तास्ता ज्ञेया युगे युगे॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! मैंने तो तुमसे केवल मनुवंशका, सो भी संक्षेपसे वर्णन किया है। जैसे मनुवंशकी गणना होती है, वैसे ही प्रत्येक युगमें ब्राह्मण, वैश्य और शूद्रोंकी भी वंशपरम्परा समझनी चाहिये॥ ३५॥

श्लोक-३६

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतेषां नामलिङ्गानां पुरुषाणां महात्मनाम्।
कथामात्रावशिष्टानां र्कीतिरेव स्थिता भुवि॥

मूलम्

एतेषां नामलिङ्गानां पुरुषाणां महात्मनाम्।
कथामात्रावशिष्टानां र्कीतिरेव स्थिता भुवि॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! जिन पुरुषों और महात्माओंका वर्णन मैंने तुमसे किया है, अब केवल नामसे ही उनकी पहचान होती है। अब वे नहीं हैं, केवल उनकी कथा रह गयी है। अब उनकी कीर्ति ही पृथ्वीपर जहाँ-तहाँ सुननेको मिलती है॥ ३६॥

श्लोक-३७

विश्वास-प्रस्तुतिः

देवापिः शन्तनोर्भ्राता मरुश्चेक्ष्वाकुवंशजः।
कलापग्राम आसाते महायोगबलान्वितौ॥

मूलम्

देवापिः शन्तनोर्भ्राता मरुश्चेक्ष्वाकुवंशजः।
कलापग्राम आसाते महायोगबलान्वितौ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मपितामहके पिता राजा शन्तनुके भाई देवापि और इक्ष्वाकुवंशी मरु इस समय कलाप-ग्राममें स्थित हैं। वे बहुत बड़े योगबलसे युक्त हैं॥ ३७॥

श्लोक-३८

विश्वास-प्रस्तुतिः

ताविहैत्य कलेरन्ते वासुदेवानुशिक्षितौ।
वर्णाश्रमयुतं धर्मं पूर्ववत् प्रथयिष्यतः॥

मूलम्

ताविहैत्य कलेरन्ते वासुदेवानुशिक्षितौ।
वर्णाश्रमयुतं धर्मं पूर्ववत् प्रथयिष्यतः॥

अनुवाद (हिन्दी)

कलियुगके अन्तमें कल्किभगवान‍्की आज्ञासे वे फिर यहाँ आयेंगे और पहलेकी भाँति ही वर्णाश्रमधर्मका विस्तार करेंगे॥ ३८॥

श्लोक-३९

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृतं त्रेता द्वापरं च कलिश्चेति चतुर्युगम्।
अनेन क्रमयोगेन भुवि प्राणिषु वर्तते॥

मूलम्

कृतं त्रेता द्वापरं च कलिश्चेति चतुर्युगम्।
अनेन क्रमयोगेन भुवि प्राणिषु वर्तते॥

अनुवाद (हिन्दी)

सत्ययुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग—ये ही चार युग हैं; ये पूर्वोक्त क्रमके अनुसार अपने-अपने समयमें पृथ्वीके प्राणियोंपर अपना प्रभाव दिखाते रहते हैं॥ ३९॥

श्लोक-४०

विश्वास-प्रस्तुतिः

राजन्नेते मया प्रोक्ता नरदेवास्तथापरे।
भूमौ ममत्वं कृत्वान्ते हित्वेमां निधनं गताः॥

मूलम्

राजन्नेते मया प्रोक्ता नरदेवास्तथापरे।
भूमौ ममत्वं कृत्वान्ते हित्वेमां निधनं गताः॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! मैंने तुमसे जिन राजाओंका वर्णन किया है, वे सब और उनके अतिरिक्त दूसरे राजा भी इस पृथ्वीको ‘मेरी-मेरी’ करते रहे, परन्तु अन्तमें मरकर धूलमें मिल गये॥ ४०॥

श्लोक-४१

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृमिविड्भस्मसंज्ञान्ते राजनाम्नोऽपि यस्य च।
भूतध्रुक् तत्कृते स्वार्थं किं वेद निरयो यतः॥

मूलम्

कृमिविड्भस्मसंज्ञान्ते राजनाम्नोऽपि यस्य च।
भूतध्रुक् तत्कृते स्वार्थं किं वेद निरयो यतः॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस शरीरको भले ही कोई राजा कह ले; परन्तु अन्तमें यह कीड़ा, विष्ठा अथवा राखके रूपमें ही परिणत होगा, राख ही होकर रहेगा। इसी शरीरके या इसके सम्बन्धियोंके लिये जो किसी भी प्राणीको सताता है, वह न तो अपना स्वार्थ जानता है और न तो परमार्थ। क्योंकि प्राणियोंको सताना तो नरकका द्वार है॥ ४१॥

श्लोक-४२

विश्वास-प्रस्तुतिः

कथं सेयमखण्डा भूः पूर्वैर्मे पुरुषैर्धृता।
मत्पुत्रस्य च पौत्रस्य मत्पूर्वा वंशजस्य वा॥

मूलम्

कथं सेयमखण्डा भूः पूर्वैर्मे पुरुषैर्धृता।
मत्पुत्रस्य च पौत्रस्य मत्पूर्वा वंशजस्य वा॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे लोग यही सोचा करते हैं कि मेरे दादा-परदादा इस अखण्ड भूमण्डलका शासन करते थे; अब यह मेरे अधीन किस प्रकार रहे और मेरे बाद मेरे बेटे-पोते, मेरे वंशज किस प्रकार इसका उपभोग करें॥ ४२॥

श्लोक-४३

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेजोऽबन्नमयं कायं गृहीत्वाऽऽत्मतयाबुधाः।
महीं ममतया चोभौ हित्वान्तेऽदर्शनं गताः॥

मूलम्

तेजोऽबन्नमयं कायं गृहीत्वाऽऽत्मतयाबुधाः।
महीं ममतया चोभौ हित्वान्तेऽदर्शनं गताः॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे मूर्ख इस आग, पानी और मिट्टीके शरीरको अपना आपा मान बैठते हैं और बड़े अभिमानके साथ डींग हाँकते हैं कि यह पृथ्वी मेरी है। अन्तमें वे शरीर और पृथ्वी दोनोंको छोड़कर स्वयं ही अदृश्य हो जाते हैं॥ ४३॥

श्लोक-४४

विश्वास-प्रस्तुतिः

ये ये भूपतयो राजन् भुञ्जते भुवमोजसा।
कालेन ते कृताः सर्वे कथामात्राः कथासु च॥

मूलम्

ये ये भूपतयो राजन् भुञ्जते भुवमोजसा।
कालेन ते कृताः सर्वे कथामात्राः कथासु च॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रिय परीक्षित्! जो-जो नरपति बड़े उत्साह और बल-पौरुषसे इस पृथ्वीके उपभोगमें लगे रहे, उन सबको कालने अपने विकराल गालमें धर दबाया। अब केवल इतिहासमें उनकी कहानी ही शेष रह गयी है॥ ४४॥

अनुवाद (समाप्ति)

इति श्रीमद‍्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां द्वादशस्कन्धे द्वितीयोऽध्यायः॥ २॥