३१

[एकत्रिंशोऽध्यायः]

भागसूचना

श्रीभगवान‍्का स्वधामगमन

श्लोक-१

मूलम् (वचनम्)

श्रीशुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ तत्रागमद् ब्रह्मा भवान्या च समं भवः।
महेन्द्रप्रमुखा देवा मुनयः सप्रजेश्वराः॥

मूलम्

अथ तत्रागमद् ब्रह्मा भवान्या च समं भवः।
महेन्द्रप्रमुखा देवा मुनयः सप्रजेश्वराः॥

श्लोक-२

विश्वास-प्रस्तुतिः

पितरः सिद्धगन्धर्वा विद्याधरमहोरगाः।
चारणाः यक्षरक्षांसि किन्नराप्सरसो द्विजाः॥

मूलम्

पितरः सिद्धगन्धर्वा विद्याधरमहोरगाः।
चारणाः यक्षरक्षांसि किन्नराप्सरसो द्विजाः॥

श्लोक-३

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्रष्टुकामा भगवतो निर्याणं परमोत्सुकाः।
गायन्तश्च गृणन्तश्च शौरेः कर्माणि जन्म च॥

मूलम्

द्रष्टुकामा भगवतो निर्याणं परमोत्सुकाः।
गायन्तश्च गृणन्तश्च शौरेः कर्माणि जन्म च॥

श्लोक-४

विश्वास-प्रस्तुतिः

ववृषुः पुष्पवर्षाणि विमानावलिभिर्नभः।
कुर्वन्तः सङ्कुलं राजन् भक्त्या परमया युताः॥

मूलम्

ववृषुः पुष्पवर्षाणि विमानावलिभिर्नभः।
कुर्वन्तः सङ्कुलं राजन् भक्त्या परमया युताः॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! दारुकके चले जानेपर ब्रह्माजी, शिव-पार्वती, इन्द्रादि लोकपाल, मरीचि आदि प्रजापति, बड़े-बड़े ऋषि-मुनि, पितर-सिद्ध, गन्धर्व-विद्याधर, नाग-चारण, यक्ष-राक्षस, किन्नर-अप्सराएँ तथा गरुड़लोकके विभिन्न पक्षी अथवा मैत्रेय आदि ब्राह्मण भगवान् श्रीकृष्णके परमधाम-प्रस्थानको देखनेके लिये बड़ी उत्सुकतासे वहाँ आये। वे सभी भगवान् श्रीकृष्णके जन्म और लीलाओंका गान अथवा वर्णन कर रहे थे। उनके विमानोंसे सारा आकाश भर-सा गया था। वे बड़ी भक्तिसे भगवान् पर पुष्पोंकी वर्षा कर रहे थे॥ १—४॥

श्लोक-५

विश्वास-प्रस्तुतिः

भगवान् पितामहं वीक्ष्य विभूतीरात्मनो विभुः।
संयोज्यात्मनि चात्मानं पद्मनेत्रे न्यमीलयत्॥

मूलम्

भगवान् पितामहं वीक्ष्य विभूतीरात्मनो विभुः।
संयोज्यात्मनि चात्मानं पद्मनेत्रे न्यमीलयत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

सर्वव्यापक भगवान् श्रीकृष्णने ब्रह्माजी और अपने विभूतिस्वरूप देवताओंको देखकर अपने आत्माको स्वरूपमें स्थित किया और कमलके समान नेत्र बंद कर लिये॥ ५॥

श्लोक-६

विश्वास-प्रस्तुतिः

लोकाभिरामां स्वतनुं धारणाध्यानमङ्गलम्।
योगधारणयाऽऽग्नेय्यादग्ध्वा धामाविशत् स्वकम्॥

मूलम्

लोकाभिरामां स्वतनुं धारणाध्यानमङ्गलम्।
योगधारणयाऽऽग्नेय्यादग्ध्वा धामाविशत् स्वकम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान‍्का श्रीविग्रह उपासकोंके ध्यान और धारणाका मंगलमय आधार और समस्त लोकोंके लिये परम रमणीय आश्रय है; इसलिये उन्होंने (योगियोंके समान) अग्निदेवतासम्बन्धी योगधारणाके द्वारा उसको जलाया नहीं, सशरीर अपने धाममें चले गये॥ ६॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

धारणाध्यानमङ्गलं धारणाध्यानयोः शुभाश्रयम् आग्नेय्या अग्निसंधुक्षणकारिण्या दग्ध्वेति ॥ १-१० ॥

श्लोक-७

विश्वास-प्रस्तुतिः

दिवि दुन्दुभयो नेदुः पेतुः सुमनसश्च खात्।
सत्यं धर्मो धृतिर्भूमेः कीर्तिः श्रीश्चानु तं ययुः॥

मूलम्

दिवि दुन्दुभयो नेदुः पेतुः सुमनसश्च खात्।
सत्यं धर्मो धृतिर्भूमेः कीर्तिः श्रीश्चानु तं ययुः॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय स्वर्गमें नगारे बजने लगे और आकाशसे पुष्पोंकी वर्षा होने लगी। परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्णके पीछे-पीछे इस लोकसे सत्य, धर्म, धैर्य, कीर्ति और श्रीदेवी भी चली गयीं॥ ७॥

श्लोक-८

विश्वास-प्रस्तुतिः

देवादयो ब्रह्ममुख्या न विशन्तं स्वधामनि।
अविज्ञातगतिं कृष्णं ददृशुश्चातिविस्मिताः॥

मूलम्

देवादयो ब्रह्ममुख्या न विशन्तं स्वधामनि।
अविज्ञातगतिं कृष्णं ददृशुश्चातिविस्मिताः॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् श्रीकृष्णकी गति मन और वाणीके परे है; तभी तो जब भगवान् अपने धाममें प्रवेश करने लगे, तब ब्रह्मादि देवता भी उन्हें न देख सके। इस घटनासे उन्हें बड़ा ही विस्मय हुआ॥ ८॥

श्लोक-९

विश्वास-प्रस्तुतिः

सौदामन्या यथाऽऽकाशे यान्त्या हित्वाभ्रमण्डलम्।
गतिर्न लक्ष्यते मर्त्यैस्तथा कृष्णस्य दैवतैः॥

मूलम्

सौदामन्या यथाऽऽकाशे यान्त्या हित्वाभ्रमण्डलम्।
गतिर्न लक्ष्यते मर्त्यैस्तथा कृष्णस्य दैवतैः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे बिजली मेघमण्डलको छोड़कर जब आकाशमें प्रवेश करती है, तब मनुष्य उसकी चाल नहीं देख पाते, वैसे ही बड़े-बड़े देवता भी श्रीकृष्णकी गतिके सम्बन्धमें कुछ न जान सके॥ ९॥

श्लोक-१०

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रह्मरुद्रादयस्ते तु दृष्ट्वा योगगतिं हरेः।
विस्मितास्तां प्रशंसन्तः स्वं स्वं लोकं ययुस्तदा॥

मूलम्

ब्रह्मरुद्रादयस्ते तु दृष्ट्वा योगगतिं हरेः।
विस्मितास्तां प्रशंसन्तः स्वं स्वं लोकं ययुस्तदा॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्माजी और भगवान् शंकर आदि देवता भगवान‍्की यह परमयोगमयी गति देखकर बड़े विस्मयके साथ उसकी प्रशंसा करते अपने-अपने लोकमें चले गये॥ १०॥

श्लोक-११

विश्वास-प्रस्तुतिः

राजन् परस्य तनुभृज्जननाप्ययेहा
मायाविडम्बनमवेहि यथा नटस्य।
सृष्ट्वाऽऽत्मनेदमनुविश्य विहृत्य चान्ते
संहृत्य चात्ममहिमोपरतः स आस्ते॥

मूलम्

राजन् परस्य तनुभृज्जननाप्ययेहा
मायाविडम्बनमवेहि यथा नटस्य।
सृष्ट्वाऽऽत्मनेदमनुविश्य विहृत्य चान्ते
संहृत्य चात्ममहिमोपरतः स आस्ते॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! जैसे नट अनेकों प्रकारके स्वाँग बनाता है, परन्तु रहता है उन सबसे निर्लेप; वैसे ही भगवान‍्का मनुष्योंके समान जन्म लेना, लीला करना और फिर उसे संवरण कर लेना उनकी मायाका विलासमात्र है—अभिनयमात्र है। वे स्वयं ही इस जगत‍्की सृष्टि करके इसमें प्रवेश करके विहार करते हैं और अन्तमें संहार-लीला करके अपने अनन्त महिमामय स्वरूपमें ही स्थित हो जाते हैं॥ ११॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

जगन्मोहनमेव विवृणोति । राजन् ! परस्येत्यादिना । तनुभृज्जननाप्ययेहा इतरभूततुल्यजननाप्ययेहा जन्मनो गर्भसम्बन्धः सापेक्षत्वे देहप्रहाणं च मोहनमित्यर्थः । ११-१२ ॥

श्लोक-१२

विश्वास-प्रस्तुतिः

मर्त्येन यो गुरुसुतं यमलोकनीतं
त्वां चानयच्छरणदः परमास्त्रदग्धम्।
जिग्येऽन्तकान्तकमपीशमसावनीशः
किं स्वावने स्वरनयन्मृगयुं सदेहम्॥

मूलम्

मर्त्येन यो गुरुसुतं यमलोकनीतं
त्वां चानयच्छरणदः परमास्त्रदग्धम्।
जिग्येऽन्तकान्तकमपीशमसावनीशः
किं स्वावने स्वरनयन्मृगयुं सदेहम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

सान्दीपनि गुरुका पुत्र यमपुरी चला गया था, परन्तु उसे वे मनुष्य-शरीरके साथ लौटा लाये। तुम्हारा ही शरीर ब्रह्मास्त्रसे जल चुका था; परन्तु उन्होंने तुम्हें जीवित कर दिया। वास्तवमें उनकी शरणागतवत्सलता ऐसी ही है। और तो क्या कहूँ, उन्होंने कालोंके महाकाल भगवान् शंकरको भी युद्धमें जीत लिया और अत्यन्त अपराधी—अपने शरीरपर ही प्रहार करनेवाले व्याधको भी सदेह स्वर्ग भेज दिया। प्रिय परीक्षित्! ऐसी स्थितिमें क्या वे अपने शरीरको सदाके लिये यहाँ नहीं रख सकते थे? अवश्य ही रख सकते थे॥ १२॥

श्लोक-१३

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथाप्यशेषस्थितिसम्भवाप्यये-
ष्वनन्यहेतुर्यदशेषशक्तिधृक्।
नैच्छत् प्रणेतुं वपुरत्र शेषितं
मर्त्येन किं स्वस्थगतिं प्रदर्शयन्॥

मूलम्

तथाप्यशेषस्थितिसम्भवाप्यये-
ष्वनन्यहेतुर्यदशेषशक्तिधृक्।
नैच्छत् प्रणेतुं वपुरत्र शेषितं
मर्त्येन किं स्वस्थगतिं प्रदर्शयन्॥

अनुवाद (हिन्दी)

यद्यपि भगवान् श्रीकृष्ण सम्पूर्ण जगत‍्की स्थिति, उत्पत्ति और संहारके निरपेक्ष कारण हैं और सम्पूर्ण शक्तियोंके धारण करनेवाले हैं तथापि उन्होंने अपने शरीरको इस संसारमें बचा रखनेकी इच्छा नहीं की। इससे उन्होंने यह दिखाया कि इस मनुष्य-शरीरसे मुझे क्या प्रयोजन है? आत्मनिष्ठ पुरुषोंके लिये यही आदर्श है कि वे शरीर रखनेकी चेष्टा न करें॥ १३॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

नैच्छत्प्रणेतुमिति । इतरमविलक्षणप्रकारेण नेतुं नैच्छत् वपुरत्र शेषितं वपुरेकदेशतुल्यद्रव्यान्तरपरिकल्पनेन मोहनं कृतं तस्य प्रयोजनं शरीरस्योपेक्षणीयत्वज्ञापनमित्याह । मन्त्येनेति । मर्त्स्न्येन शरीरेण रश्मेश्वाग्निसम्बन्धेन तिरोधानमात्रं नतु इतरस जाती यतुल्यदेह प्राणमित्यर्थः ॥ १३-२७ ॥

श्लोक-१४

विश्वास-प्रस्तुतिः

य एतां प्रातरुत्थाय कृष्णस्य पदवीं पराम्।
प्रयतः कीर्तयेद् भक्त्या तामेवाप्नोत्यनुत्तमाम्॥

मूलम्

य एतां प्रातरुत्थाय कृष्णस्य पदवीं पराम्।
प्रयतः कीर्तयेद् भक्त्या तामेवाप्नोत्यनुत्तमाम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो पुरुष प्रातःकाल उठकर भगवान् श्रीकृष्णके परमधामगमनकी इस कथाका एकाग्रता और भक्तिके साथ कीर्तन करेगा, उसे भगवान‍्का वही सर्वश्रेष्ठ परमपद प्राप्त होगा॥ १४॥

श्लोक-१५

विश्वास-प्रस्तुतिः

दारुको द्वारकामेत्य वसुदेवोग्रसेनयोः।
पतित्वा चरणावस्रैर्न्यषिञ्चत् कृष्णविच्युतः॥

मूलम्

दारुको द्वारकामेत्य वसुदेवोग्रसेनयोः।
पतित्वा चरणावस्रैर्न्यषिञ्चत् कृष्णविच्युतः॥

अनुवाद (हिन्दी)

इधर दारुक भगवान् श्रीकृष्णके विरहसे व्याकुल होकर द्वारका आया और वसुदेवजी तथा उग्रसेनके चरणोंपर गिर-गिरकर उन्हें आँसुओंसे भिगोने लगा॥ १५॥

श्लोक-१६

विश्वास-प्रस्तुतिः

कथयामास निधनं वृष्णीनां कृत्स्नशो नृप।
तच्छ्रुत्वोद्विग्नहृदया जनाः शोकविमूर्च्छिताः॥

मूलम्

कथयामास निधनं वृष्णीनां कृत्स्नशो नृप।
तच्छ्रुत्वोद्विग्नहृदया जनाः शोकविमूर्च्छिताः॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! उसने अपनेको सँभालकर यदुवंशियोंके विनाशका पूरा-पूरा विवरण कह सुनाया। उसे सुनकर लोग बहुत ही दुःखी हुए और मारे शोकके मूर्च्छित हो गये॥ १६॥

श्लोक-१७

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्र स्म त्वरिता जग्मुः कृष्णविश्लेषविह्वलाः।
व्यसवः शेरते यत्र ज्ञातयो घ्नन्त आननम्॥

मूलम्

तत्र स्म त्वरिता जग्मुः कृष्णविश्लेषविह्वलाः।
व्यसवः शेरते यत्र ज्ञातयो घ्नन्त आननम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् श्रीकृष्णके वियोगसे विह्वल होकर वे लोग सिर पीटते हुए वहाँ तुरंत पहुँचे, जहाँ उनके भाई-बन्धु निष्प्राण होकर पड़े हुए थे॥ १७॥

श्लोक-१८

विश्वास-प्रस्तुतिः

देवकी रोहिणी चैव वसुदेवस्तथा सुतौ।
कृष्णरामावपश्यन्तः शोकार्ता विजहुः स्मृतिम्॥

मूलम्

देवकी रोहिणी चैव वसुदेवस्तथा सुतौ।
कृष्णरामावपश्यन्तः शोकार्ता विजहुः स्मृतिम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवकी, रोहिणी और वसुदेवजी अपने प्यारे पुत्र श्रीकृष्ण और बलरामको न देखकर शोककी पीड़ासे बेहोश हो गये॥ १८॥

श्लोक-१९

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्राणांश्च विजहुस्तत्र भगवद्विरहातुराः।
उपगुह्य पतींस्तात चितामारुरुहुः स्त्रियः॥

मूलम्

प्राणांश्च विजहुस्तत्र भगवद्विरहातुराः।
उपगुह्य पतींस्तात चितामारुरुहुः स्त्रियः॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने भगवद्विरहसे व्याकुल होकर वहीं अपने प्राण छोड़ दिये। स्त्रियोंने अपने-अपने पतियोंके शव पहचानकर उन्हें हृदयसे लगा लिया और उनके साथ चितापर बैठकर भस्म हो गयीं॥ १९॥

श्लोक-२०

विश्वास-प्रस्तुतिः

रामपत्न्यश्च तद्देहमुपगुह्याग्निमाविशन्।
वसुदेवपत्न्यस्तद‍्गात्रं प्रद्युम्नादीन् हरेः स्नुषाः।
कृष्णपत्न्योऽविशन्नग्निं रुक्मिण्याद्यास्तदात्मिकाः॥

मूलम्

रामपत्न्यश्च तद्देहमुपगुह्याग्निमाविशन्।
वसुदेवपत्न्यस्तद‍्गात्रं प्रद्युम्नादीन् हरेः स्नुषाः।
कृष्णपत्न्योऽविशन्नग्निं रुक्मिण्याद्यास्तदात्मिकाः॥

अनुवाद (हिन्दी)

बलरामजीकी पत्नियाँ उनके शरीरको, वसुदेवजीकी पत्नियाँ उनके शवको और भगवान‍्की पुत्रवधुएँ अपने पतियोंकी लाशोंको लेकर अग्निमें प्रवेश कर गयीं। भगवान् श्रीकृष्णकी रुक्मिणी आदि पटरानियाँ उनके ध्यानमें मग्न होकर अग्निमें प्रविष्ट हो गयीं॥ २०॥

श्लोक-२१

विश्वास-प्रस्तुतिः

अर्जुनः प्रेयसः सख्युः कृष्णस्य विरहातुरः।
आत्मानं सान्त्वयामास कृष्णगीतैः सदुक्तिभिः॥

मूलम्

अर्जुनः प्रेयसः सख्युः कृष्णस्य विरहातुरः।
आत्मानं सान्त्वयामास कृष्णगीतैः सदुक्तिभिः॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! अर्जुन अपने प्रियतम और सखा भगवान् श्रीकृष्णके विरहसे पहले तो अत्यन्त व्याकुल हो गये; फिर उन्होंने उन्हींके गीतोक्त सदुपदेशोंका स्मरण करके अपने मनको सँभाला॥ २१॥

श्लोक-२२

विश्वास-प्रस्तुतिः

बन्धूनां नष्टगोत्राणामर्जुनः साम्परायिकम्।
हतानां कारयामास यथावदनुपूर्वशः॥

मूलम्

बन्धूनां नष्टगोत्राणामर्जुनः साम्परायिकम्।
हतानां कारयामास यथावदनुपूर्वशः॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदुवंशके मृत व्यक्तियोंमें जिनको कोई पिण्ड देनेवाला न था, उनका श्राद्ध अर्जुनने क्रमशः विधिपूर्वक करवाया॥ २२॥

श्लोक-२३

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्वारकां हरिणा त्यक्तां समुद्रोऽप्लावयत् क्षणात्।
वर्जयित्वा महाराज श्रीमद‍्भगवदालयम्॥

मूलम्

द्वारकां हरिणा त्यक्तां समुद्रोऽप्लावयत् क्षणात्।
वर्जयित्वा महाराज श्रीमद‍्भगवदालयम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! भगवान‍्के न रहनेपर समुद्रने एकमात्र भगवान् श्रीकृष्णका निवासस्थान छोड़कर एक ही क्षणमें सारी द्वारका डुबो दी॥ २३॥

श्लोक-२४

विश्वास-प्रस्तुतिः

नित्यं सन्निहितस्तत्र भगवान् मधुसूदनः।
स्मृत्याशेषाशुभहरं सर्वमङ्गलमङ्गलम्॥

मूलम्

नित्यं सन्निहितस्तत्र भगवान् मधुसूदनः।
स्मृत्याशेषाशुभहरं सर्वमङ्गलमङ्गलम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् श्रीकृष्ण वहाँ अब भी सदा-सर्वदा निवास करते हैं। वह स्थान स्मरणमात्रसे ही सारे पाप-तापोंका नाश करनेवाला और सर्वमंगलोंको भी मंगल बनानेवाला है॥ २४॥

श्लोक-२५

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्त्रीबालवृद्धानादाय हतशेषान् धनञ्जयः।
इन्द्रप्रस्थं समावेश्य वज्रं तत्राभ्यषेचयत्॥

मूलम्

स्त्रीबालवृद्धानादाय हतशेषान् धनञ्जयः।
इन्द्रप्रस्थं समावेश्य वज्रं तत्राभ्यषेचयत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रिय परीक्षित्! पिण्डदानके अनन्तर बची-खुची स्त्रियों, बच्चों और बूढ़ोंको लेकर अर्जुन इन्द्रप्रस्थ आये। वहाँ सबको यथायोग्य बसाकर अनिरुद्धके पुत्र वज्रका राज्याभिषेक कर दिया॥ २५॥

श्लोक-२६

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रुत्वा सुहृद्वधं राजन्नर्जुनात्ते पितामहाः।
त्वां तु वंशधरं कृत्वा जग्मुः सर्वे महापथम्॥

मूलम्

श्रुत्वा सुहृद्वधं राजन्नर्जुनात्ते पितामहाः।
त्वां तु वंशधरं कृत्वा जग्मुः सर्वे महापथम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! तुम्हारे दादा युधिष्ठिर आदि पाण्डवोंको अर्जुनसे ही यह बात मालूम हुई कि यदुवंशियोंका संहार हो गया है। तब उन्होंने अपने वंशधर तुम्हें राज्यपदपर अभिषिक्त करके हिमालयकी वीरयात्रा की॥ २६॥

श्लोक-२७

विश्वास-प्रस्तुतिः

य एतद् देवदेवस्य विष्णोः कर्माणि जन्म च।
कीर्तयेच्छ्रद्धया मर्त्यः सर्वपापैः प्रमुच्यते॥

मूलम्

य एतद् देवदेवस्य विष्णोः कर्माणि जन्म च।
कीर्तयेच्छ्रद्धया मर्त्यः सर्वपापैः प्रमुच्यते॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैंने तुम्हें देवताओंके भी आराध्यदेव भगवान् श्रीकृष्णकी जन्मलीला और कर्मलीला सुनायी। जो मनुष्य श्रद्धाके साथ इसका कीर्तन करता है, वह समस्त पापोंसे मुक्त हो जाता है॥ २७॥

श्लोक-२८

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्थं हरेर्भगवतो रुचिरावतार-
वीर्याणि बालचरितानि च शन्तमानि।
अन्यत्र चेह च श्रुतानि गृणन् मनुष्यो
भक्तिं परां परमहंसगतौ लभेत॥

मूलम्

इत्थं हरेर्भगवतो रुचिरावतार-
वीर्याणि बालचरितानि च शन्तमानि।
अन्यत्र चेह च श्रुतानि गृणन् मनुष्यो
भक्तिं परां परमहंसगतौ लभेत॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! जो मनुष्य इस प्रकार भक्तभयहारी निखिल सौन्दर्य-माधुर्यनिधि श्रीकृष्णचन्द्रके अवतार-सम्बन्धी रुचिर पराक्रम और इस श्रीमद‍्भागवतमहापुराणमें तथा दूसरे पुराणोंमें वर्णित परमानन्दमयी बाललीला, कैशोरलीला आदिका संकीर्तन करता है, वह परमहंस मुनीन्द्रोंके अन्तिम प्राप्तव्य श्रीकृष्णके चरणोंमें पराभक्ति प्राप्त करता है॥ २८॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

परमहंसगतौ परमहंसानामाचारे स्थित इतिशेषः ॥ २८ ॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे एकादशस्कन्धव्याख्याने श्रीसुदर्शनसूरिकृतशुकपक्षीये एकत्रिंशोऽध्यायः ॥ ३१ ॥

अनुवाद (समाप्ति)

इति श्रीमद‍्भागवते महापुराणे वैयासिक्यामष्टादशसाहस्र्यां पारमहंस्यां संहितायामेकादशस्कन्धे एकत्रिंशोऽध्यायः॥ ३१॥
॥ इत्येकादशः स्कन्धः समाप्तः॥
॥ हरिः ॐ तत्सत्॥