[त्रिंशोऽध्यायः]
भागसूचना
यदुकुलका संहार
श्लोक-१
मूलम् (वचनम्)
राजोवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो महाभागवत उद्धवे निर्गते वनम्।
द्वारवत्यां किमकरोद् भगवान् भूतभावनः॥
मूलम्
ततो महाभागवत उद्धवे निर्गते वनम्।
द्वारवत्यां किमकरोद् भगवान् भूतभावनः॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा परीक्षित् ने पूछा—भगवन्! जब महाभागवत उद्धवजी बदरीवनको चले गये, तब भूतभावन भगवान् श्रीकृष्णने द्वारकामें क्या लीला रची?॥ १॥
श्लोक-२
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रह्मशापोपसंसृष्टे स्वकुले यादवर्षभः।
प्रेयसीं सर्वनेत्राणां तनुं स कथमत्यजत्॥
मूलम्
ब्रह्मशापोपसंसृष्टे स्वकुले यादवर्षभः।
प्रेयसीं सर्वनेत्राणां तनुं स कथमत्यजत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रभो! यदुवंशशिरोमणि भगवान् श्रीकृष्णने अपने कुलके ब्रह्मशापग्रस्त होनेपर सबके नेत्रादि इन्द्रियोंके परम प्रिय अपने दिव्य श्रीविग्रहकी लीलाका संवरण कैसे किया?॥ २॥
श्लोक-३
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रत्याक्रष्टुं नयनमबला
यत्र लग्नं न शेकुः
कर्णाविष्टं न सरति ततो
यत् सतामात्मलग्नम्।
यच्छ्रीर्वाचां जनयति रतिं
किं नु मानं कवीनां
दृष्ट्वा जिष्णोर्युधि रथगतं
यच्च तत्साम्यमीयुः॥
मूलम्
प्रत्याक्रष्टुं नयनमबला
यत्र लग्नं न शेकुः
कर्णाविष्टं न सरति ततो
यत् सतामात्मलग्नम्।
यच्छ्रीर्वाचां जनयति रतिं
किं नु मानं कवीनां
दृष्ट्वा जिष्णोर्युधि रथगतं
यच्च तत्साम्यमीयुः॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवन्! जब स्त्रियोंके नेत्र उनके श्रीविग्रहमें लग जाते थे, तब वे उन्हें वहाँसे हटानेमें असमर्थ हो जाती थीं। जब संत पुरुष उनकी रूपमाधुरीका वर्णन सुनते हैं, तब वह श्रीविग्रह कानोंके रास्ते प्रवेश करके उनके चित्तमें गड़-सा जाता है, वहाँसे हटना नहीं जानता। उसकी शोभा कवियोंकी काव्यरचनामें अनुरागका रंग भर देती है और उनका सम्मान बढ़ा देती है, इसके सम्बन्धमें तो कहना ही क्या है। महाभारत युद्धके समय जब वे हमारे दादा अर्जुनके रथपर बैठे हुए थे, उस समय जिन योद्धाओंने उसे देखते-देखते शरीर-त्याग किया; उन्हें सारूप्यमुक्ति मिल गयी। उन्होंने अपना ऐसा अद्भुत श्रीविग्रह किस प्रकार अन्तर्धान किया?॥ ३॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
यच्छ्रीर्यस्य वपुषः कान्तिः तामत्यजत् पूर्वत्रान्वयः ॥ १-२५ ॥
श्लोक-४
मूलम् (वचनम्)
ऋषिरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
दिवि भुव्यन्तरिक्षे च महोत्पातान् समुत्थितान्।
दृष्ट्वाऽऽसीनान् सुधर्मायां कृष्णः प्राह यदूनिदम्॥
मूलम्
दिवि भुव्यन्तरिक्षे च महोत्पातान् समुत्थितान्।
दृष्ट्वाऽऽसीनान् सुधर्मायां कृष्णः प्राह यदूनिदम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! जब भगवान् श्रीकृष्णने देखा कि आकाश, पृथ्वी और अन्तरिक्षमें बड़े-बड़े उत्पात—अशकुन हो रहे हैं, तब उन्होंने सुधर्मा-सभामें उपस्थित सभी यदुवंशियोंसे यह बात कही—॥ ४॥
श्लोक-५
विश्वास-प्रस्तुतिः
एते घोरा महोत्पाता द्वार्वत्यां यमकेतवः।
मुहूर्त्तमपि न स्थेयमत्र नो यदुपुङ्गवाः॥
मूलम्
एते घोरा महोत्पाता द्वार्वत्यां यमकेतवः।
मुहूर्त्तमपि न स्थेयमत्र नो यदुपुङ्गवाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘श्रेष्ठ यदुवंशियो! यह देखो, द्वारकामें बड़े-बड़े भयंकर उत्पात होने लगे हैं। ये साक्षात् यमराजकी ध्वजाके समान हमारे महान् अनिष्टके सूचक हैं। अब हमें यहाँ घड़ी-दो-घड़ी भी नहीं ठहरना चाहिये॥ ५॥
श्लोक-६
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्त्रियो बालाश्च वृद्धाश्च शङ्खोद्धारं व्रजन्त्वितः।
वयं प्रभासं यास्यामो यत्र प्रत्यक् सरस्वती॥
मूलम्
स्त्रियो बालाश्च वृद्धाश्च शङ्खोद्धारं व्रजन्त्वितः।
वयं प्रभासं यास्यामो यत्र प्रत्यक् सरस्वती॥
अनुवाद (हिन्दी)
स्त्रियाँ, बच्चे और बूढ़े यहाँसे शंखोद्धारक्षेत्रमें चले जायँ और हमलोग प्रभासक्षेत्रमें चलें। आप सब जानते हैं कि वहाँ सरस्वती पश्चिमकी ओर बहकर समुद्रमें जा मिली हैं॥ ६॥
श्लोक-७
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्राभिषिच्य शुचय उपोष्य सुसमाहिताः।
देवताः पूजयिष्यामः स्नपनालेपनार्हणैः॥
मूलम्
तत्राभिषिच्य शुचय उपोष्य सुसमाहिताः।
देवताः पूजयिष्यामः स्नपनालेपनार्हणैः॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ हम स्नान करके पवित्र होंगे, उपवास करेंगे और एकाग्रचित्तसे स्नान एवं चन्दन आदि सामग्रियोंसे देवताओंकी पूजा करेंगे॥ ७॥
श्लोक-८
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्राह्मणांस्तु महाभागान् कृतस्वस्त्ययना वयम्।
गोभूहिरण्यवासोभिर्गजाश्वरथवेश्मभिः॥
मूलम्
ब्राह्मणांस्तु महाभागान् कृतस्वस्त्ययना वयम्।
गोभूहिरण्यवासोभिर्गजाश्वरथवेश्मभिः॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ स्वस्तिवाचनके बाद हमलोग गौ, भूमि, सोना, वस्त्र, हाथी, घोड़े, रथ और घर आदिके द्वारा महात्मा ब्राह्मणोंका सत्कार करेंगे॥ ८॥
श्लोक-९
विश्वास-प्रस्तुतिः
विधिरेष ह्यरिष्टघ्नो मङ्गलायनमुत्तमम्।
देवद्विजगवां पूजा भूतेषु परमो भवः॥
मूलम्
विधिरेष ह्यरिष्टघ्नो मङ्गलायनमुत्तमम्।
देवद्विजगवां पूजा भूतेषु परमो भवः॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह विधि सब प्रकारके अमंगलोंका नाश करनेवाली और परम मंगलकी जननी है। श्रेष्ठ यदुवंशियो! देवता, ब्राह्मण और गौओंकी पूजा ही प्राणियोंके जन्मका परम लाभ है’॥ ९॥
श्लोक-१०
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति सर्वे समाकर्ण्य यदुवृद्धा मधुद्विषः।
तथेति नौभिरुत्तीर्य प्रभासं प्रययू रथैः॥
मूलम्
इति सर्वे समाकर्ण्य यदुवृद्धा मधुद्विषः।
तथेति नौभिरुत्तीर्य प्रभासं प्रययू रथैः॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! सभी वृद्ध यदुवंशियोंने भगवान् श्रीकृष्णकी यह बात सुनकर ‘तथास्तु’ कहकर उसका अनुमोदन किया और तुरंत नौकाओंसे समुद्र पार करके रथोंद्वारा प्रभासक्षेत्रकी यात्रा की॥ १०॥
श्लोक-११
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मिन् भगवताऽऽदिष्टं यदुदेवेन यादवाः।
चक्रुः परमया भक्त्या सर्वश्रेयोपबृंहितम्॥
मूलम्
तस्मिन् भगवताऽऽदिष्टं यदुदेवेन यादवाः।
चक्रुः परमया भक्त्या सर्वश्रेयोपबृंहितम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ पहुँचकर यादवोंने यदुवंशशिरोमणि भगवान् श्रीकृष्णके आदेशानुसार बड़ी श्रद्धा और भक्तिसे शान्तिपाठ आदि तथा और भी सब प्रकारके मंगलकृत्य किये॥ ११॥
श्लोक-१२
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तस्मिन् महापानं पपुर्मैरेयकं मधु।
दिष्टविभ्रंशितधियो यद्द्रवैर्भ्रश्यते मतिः॥
मूलम्
ततस्तस्मिन् महापानं पपुर्मैरेयकं मधु।
दिष्टविभ्रंशितधियो यद्द्रवैर्भ्रश्यते मतिः॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह सब तो उन्होंने किया; परन्तु दैवने उनकी बुद्धि हर ली और वे उस मैरेयक नामक मदिराका पान करने लगे, जिसके नशेसे बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है। वह पीनेमें तो अवश्य मीठी लगती है, परन्तु परिणाममें सर्वनाश करनेवाली है॥ १२॥
श्लोक-१३
विश्वास-प्रस्तुतिः
महापानाभिमत्तानां वीराणां दृप्तचेतसाम्।
कृष्णमायाविमूढानां सङ्घर्षः सुमहानभूत्॥
मूलम्
महापानाभिमत्तानां वीराणां दृप्तचेतसाम्।
कृष्णमायाविमूढानां सङ्घर्षः सुमहानभूत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस तीव्र मदिराके पानसे सब-के-सब उन्मत्त हो गये और वे घमंडी वीर एक-दूसरेसे लड़ने-झगड़ने लगे। सच पूछो तो श्रीकृष्णकी मायासे वे मूढ़ हो रहे थे॥ १३॥
श्लोक-१४
विश्वास-प्रस्तुतिः
युयुधुः क्रोधसंरब्धा वेलायामाततायिनः।
धनुर्भिरसिभिर्भल्लैर्गदाभिस्तोमरर्ष्टिभिः॥
मूलम्
युयुधुः क्रोधसंरब्धा वेलायामाततायिनः।
धनुर्भिरसिभिर्भल्लैर्गदाभिस्तोमरर्ष्टिभिः॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय वे क्रोधसे भरकर एक-दूसरेपर आक्रमण करने लगे और धनुष-बाण, तलवार, भाले, गदा, तोमर और ऋष्टि आदि अस्त्र-शस्त्रोंसे वहाँ समुद्रतटपर ही एक-दूसरेसे भिड़ गये॥ १४॥
श्लोक-१५
विश्वास-प्रस्तुतिः
पतत्पताकै रथकुञ्जरादिभिः
खरोष्ट्रगोभिर्महिषैर्नरैरपि।
मिथः समेत्याश्वतरैः सुदुर्मदा
न्यहञ्छरैर्दद्भिरिव द्विपा वने॥
मूलम्
पतत्पताकै रथकुञ्जरादिभिः
खरोष्ट्रगोभिर्महिषैर्नरैरपि।
मिथः समेत्याश्वतरैः सुदुर्मदा
न्यहञ्छरैर्दद्भिरिव द्विपा वने॥
अनुवाद (हिन्दी)
मतवाले यदुवंशी रथों, हाथियों, घोड़ों, गधों, ऊँटों, खच्चरों, बैलों, भैंसों और मनुष्योंपर भी सवार होकर एक-दूसरेको बाणोंसे घायल करने लगे—मानो जंगली हाथी एक-दूसरेपर दाँतोंसे चोट कर रहे हों। सबकी सवारियोंपर ध्वजाएँ फहरा रही थीं, पैदल सैनिक भी आपसमें उलझ रहे थे॥ १५॥
श्लोक-१६
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रद्युम्नसाम्बौ युधि रूढमत्सरा-
वक्रूरभोजावनिरुद्धसात्यकी।
सुभद्रसङ्ग्रामजितौ सुदारुणौ
गदौ सुमित्रासुरथौ समीयतुः॥
मूलम्
प्रद्युम्नसाम्बौ युधि रूढमत्सरा-
वक्रूरभोजावनिरुद्धसात्यकी।
सुभद्रसङ्ग्रामजितौ सुदारुणौ
गदौ सुमित्रासुरथौ समीयतुः॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रद्युम्न साम्बसे, अक्रूर भोजसे, अनिरुद्ध सात्यकिसे, सुभद्र संग्रामजित् से, भगवान् श्रीकृष्णके भाई गद उसी नामके उनके पुत्रसे और सुमित्र सुरथसे युद्ध करने लगे। ये सभी बड़े भयंकर योद्धा थे और क्रोधमें भरकर एक-दूसरेका नाश करनेपर तुल गये थे॥ १६॥
श्लोक-१७
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्ये च ये वै निशठोल्मुकादयः
सहस्रजिच्छतजिद्भानुमुख्याः।
अन्योन्यमासाद्य मदान्धकारिता
जघ्नुर्मुकुन्देन विमोहिता भृशम्॥
मूलम्
अन्ये च ये वै निशठोल्मुकादयः
सहस्रजिच्छतजिद्भानुमुख्याः।
अन्योन्यमासाद्य मदान्धकारिता
जघ्नुर्मुकुन्देन विमोहिता भृशम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
इनके अतिरिक्त निशठ, उल्मुक, सहस्रजित् , शतजित् और भानु आदि यादव भी एक-दूसरेसे गुँथ गये। भगवान् श्रीकृष्णकी मायाने तो इन्हें अत्यन्त मोहित कर ही रखा था, इधर मदिराके नशेने भी इन्हें अंधा बना दिया था॥ १७॥
श्लोक-१८
विश्वास-प्रस्तुतिः
दाशार्हवृष्ण्यन्धकभोजसात्वता
मध्वर्बुदा माथुरशूरसेनाः।
विसर्जनाः कुकुराः कुन्तयश्च
मिथस्ततस्तेऽथ विसृज्य सौहृदम्॥
मूलम्
दाशार्हवृष्ण्यन्धकभोजसात्वता
मध्वर्बुदा माथुरशूरसेनाः।
विसर्जनाः कुकुराः कुन्तयश्च
मिथस्ततस्तेऽथ विसृज्य सौहृदम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
दाशार्ह, वृष्णि, अन्धक, भोज, सात्वत, मधु, अर्बुद, माथुर, शूरसेन, विसर्जन, कुकुर और कुन्ति आदि वंशोंके लोग सौहार्द और प्रेमको भुलाकर आपसमें मार-काट करने लगे॥ १८॥
श्लोक-१९
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुत्रा अयुध्यन् पितृभिर्भ्रातृभिश्च
स्वस्रीयदौहित्रपितृव्यमातुलैः।
मित्राणि मित्रैः सुहृदः सुहृद्भि-
र्ज्ञातींस्त्वहञ्ज्ञातय एव मूढाः॥
मूलम्
पुत्रा अयुध्यन् पितृभिर्भ्रातृभिश्च
स्वस्रीयदौहित्रपितृव्यमातुलैः।
मित्राणि मित्रैः सुहृदः सुहृद्भि-
र्ज्ञातींस्त्वहञ्ज्ञातय एव मूढाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
मूढ़तावश पुत्र पिताका, भाई भाईका, भानजा मामाका, नाती नानाका, मित्र मित्रका, सुहृद् सुहृद्का, चाचा भतीजेका तथा एक गोत्रवाले आपसमें एक-दूसरेका खून करने लगे॥ १९॥
श्लोक-२०
विश्वास-प्रस्तुतिः
शरेषु क्षीयमाणेषु भज्यमानेषु धन्वसु।
शस्त्रेषु क्षीयमाणेषु मुष्टिभिर्जह्रुरेरकाः॥
मूलम्
शरेषु क्षीयमाणेषु भज्यमानेषु धन्वसु।
शस्त्रेषु क्षीयमाणेषु मुष्टिभिर्जह्रुरेरकाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
अन्तमें जब उनके सब बाण समाप्त हो गये, धनुष टूट गये और शस्त्रास्त्र नष्ट-भ्रष्ट हो गये तब उन्होंने अपने हाथोंसे समुद्रतटपर लगी हुई एरका नामकी घास उखाड़नी शुरू की। यह वही घास थी, जो ऋषियोंके शापके कारण उत्पन्न हुए लोहमय मूसलके चूरेसे पैदा हुई थी॥ २०॥
श्लोक-२१
विश्वास-प्रस्तुतिः
ता वज्रकल्पा ह्यभवन् परिघा मुष्टिना भृताः।
जघ्नुर्द्विषस्तैः कृष्णेन वार्यमाणास्तु तं च ते॥
मूलम्
ता वज्रकल्पा ह्यभवन् परिघा मुष्टिना भृताः।
जघ्नुर्द्विषस्तैः कृष्णेन वार्यमाणास्तु तं च ते॥
श्लोक-२२
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रत्यनीकं मन्यमाना बलभद्रं च मोहिताः।
हन्तुं कृतधियो राजन्नापन्ना आततायिनः॥
मूलम्
प्रत्यनीकं मन्यमाना बलभद्रं च मोहिताः।
हन्तुं कृतधियो राजन्नापन्ना आततायिनः॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे राजन्! उनके हाथोंमें आते ही वह घास वज्रके समान कठोर मुद्गरोंके रूपमें परिणत हो गयी। अब वे रोषमें भरकर उसी घासके द्वारा अपने विपक्षियोंपर प्रहार करने लगे। भगवान् श्रीकृष्णने उन्हें मना किया, तो उन्होंने उनको और बलरामजीको भी अपना शत्रु समझ लिया। उन आततायियोंकी बुद्धि ऐसी मूढ़ हो रही थी कि वे उन्हें मारनेके लिये उनकी ओर दौड़ पड़े॥ २१-२२॥
श्लोक-२३
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ तावपि सङ्क्रुद्धावुद्यम्य कुरुनन्दन।
एरकामुष्टिपरिघौ चरन्तौ जघ्नतुर्युधि॥
मूलम्
अथ तावपि सङ्क्रुद्धावुद्यम्य कुरुनन्दन।
एरकामुष्टिपरिघौ चरन्तौ जघ्नतुर्युधि॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुरुनन्दन! अब भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजी भी क्रोधमें भरकर युद्धभूमिमें इधर-उधर विचरने और मुट्ठी-की-मुट्ठी एरका घास उखाड़-उखाड़कर उन्हें मारने लगे। एरका घासकी मुट्ठी ही मुद्गरके समान चोट करती थी॥ २३॥
श्लोक-२४
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रह्मशापोपसृष्टानां कृष्णमायावृतात्मनाम्।
स्पर्धा क्रोधः क्षयं निन्ये वैणवोऽग्निर्यथा वनम्॥
मूलम्
ब्रह्मशापोपसृष्टानां कृष्णमायावृतात्मनाम्।
स्पर्धा क्रोधः क्षयं निन्ये वैणवोऽग्निर्यथा वनम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे बाँसोंकी रगड़से उत्पन्न होकर दावानल बाँसोंको ही भस्म कर देता है, वैसे ही ब्रह्मशापसे ग्रस्त और भगवान् श्रीकृष्णकी मायासे मोहित यदुवंशियोंके स्पर्द्धामूलक क्रोधने उनका ध्वंस कर दिया॥ २४॥
श्लोक-२५
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं नष्टेषु सर्वेषु कुलेषु स्वेषु केशवः।
अवतारितो भुवो भार इति मेनेऽवशेषितः॥
मूलम्
एवं नष्टेषु सर्वेषु कुलेषु स्वेषु केशवः।
अवतारितो भुवो भार इति मेनेऽवशेषितः॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब भगवान् श्रीकृष्णने देखा कि समस्त यदुवंशियोंका संहार हो चुका, तब उन्होंने यह सोचकर सन्तोषकी साँस ली कि पृथ्वीका बचा-खुचा भार भी उतर गया॥ २५॥
श्लोक-२६
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामः समुद्रवेलायां योगमास्थाय पौरुषम्।
तत्याज लोकं मानुष्यं संयोज्यात्मानमात्मनि॥
मूलम्
रामः समुद्रवेलायां योगमास्थाय पौरुषम्।
तत्याज लोकं मानुष्यं संयोज्यात्मानमात्मनि॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! बलरामजीने समुद्रतटपर बैठकर एकाग्र-चित्तसे परमात्मचिन्तन करते हुए अपने आत्माको आत्मस्वरूपमें ही स्थिर कर लिया और मनुष्यशरीर छोड़ दिया॥ २६॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
पौरुषं मनुष्यसन्निवेशं पिप्पलमश्वत्थम् ॥ २६-३६ ॥
श्लोक-२७
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामनिर्याणमालोक्य भगवान् देवकीसुतः।
निषसाद धरोपस्थे तूष्णीमासाद्य पिप्पलम्॥
मूलम्
रामनिर्याणमालोक्य भगवान् देवकीसुतः।
निषसाद धरोपस्थे तूष्णीमासाद्य पिप्पलम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब भगवान् श्रीकृष्णने देखा कि मेरे बड़े भाई बलरामजी परमपदमें लीन हो गये, तब वे एक पीपलके पेड़के तले जाकर चुपचाप धरतीपर ही बैठ गये॥ २७॥
श्लोक-२८
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिभ्रच्चतुर्भुजं रूपं भ्राजिष्णु प्रभया स्वया।
दिशो वितिमिराः कुर्वन् विधूम इव पावकः॥
मूलम्
बिभ्रच्चतुर्भुजं रूपं भ्राजिष्णु प्रभया स्वया।
दिशो वितिमिराः कुर्वन् विधूम इव पावकः॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् श्रीकृष्णने उस समय अपनी अंगकान्तिसे देदीप्यमान चतुर्भुज रूप धारण कर रखा था और धूमसे रहित अग्निके समान दिशाओंको अन्धकाररहित—प्रकाशमान बना रहे थे॥ २८॥
श्लोक-२९
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रीवत्साङ्कं घनश्यामं तप्तहाटकवर्चसम्।
कौशेयाम्बरयुग्मेन परिवीतं सुमङ्गलम्॥
मूलम्
श्रीवत्साङ्कं घनश्यामं तप्तहाटकवर्चसम्।
कौशेयाम्बरयुग्मेन परिवीतं सुमङ्गलम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
वर्षाकालीन मेघके समान साँवले शरीरसे तपे हुए सोनेके समान ज्योति निकल रही थी। वक्षःस्थलपर श्रीवत्सका चिह्न शोभायमान था। वे रेशमी पीताम्बरकी धोती और वैसा ही दुपट्टा धारण किये हुए थे। बड़ा ही मंगलमय रूप था॥ २९॥
श्लोक-३०
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुन्दरस्मितवक्त्राब्जं नीलकुन्तलमण्डितम्।
पुण्डरीकाभिरामाक्षं स्फुरन्मकरकुण्डलम्॥
मूलम्
सुन्दरस्मितवक्त्राब्जं नीलकुन्तलमण्डितम्।
पुण्डरीकाभिरामाक्षं स्फुरन्मकरकुण्डलम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
मुखकमलपर सुन्दर मुसकान और कपोलोंपर नीली-नीली अलकें बड़ी ही सुहावनी लगती थीं। कमलके समान सुन्दर-सुन्दर एवं सुकुमार नेत्र थे। कानोंमें मकराकृत कुण्डल झिलमिला रहे थे॥ ३०॥
श्लोक-३१
विश्वास-प्रस्तुतिः
कटिसूत्रब्रह्मसूत्रकिरीटकटकाङ्गदैः।
हारनूपुरमुद्राभिः कौस्तुभेन विराजितम्॥
मूलम्
कटिसूत्रब्रह्मसूत्रकिरीटकटकाङ्गदैः।
हारनूपुरमुद्राभिः कौस्तुभेन विराजितम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
कमरमें करधनी, कंधेपर यज्ञोपवीत, माथेपर मुकुट, कलाइयोंमें कंगन, बाँहोंमें बाजूबंद, वक्षःस्थलपर हार, चरणोंमें नूपुर, अँगुलियोंमें अँगूठियाँ और गलेमें कौस्तुभमणि शोभायमान हो रही थी॥ ३१॥
श्लोक-३२
विश्वास-प्रस्तुतिः
वनमालापरीताङ्गं मूर्तिमद्भिर्निजायुधैः।
कृत्वोरौ दक्षिणे पादमासीनं पङ्कजारुणम्॥
मूलम्
वनमालापरीताङ्गं मूर्तिमद्भिर्निजायुधैः।
कृत्वोरौ दक्षिणे पादमासीनं पङ्कजारुणम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
घुटनोंतक वनमाला लटकी हुई थी। शंख, चक्र, गदा आदि आयुध मूर्तिमान् होकर प्रभुकी सेवा कर रहे थे। उस समय भगवान् अपनी दाहिनी जाँघपर बायाँ चरण रखकर बैठे हुए थे, लाल-लाल तलवा रक्त कमलके समान चमक रहा था॥ ३२॥
श्लोक-३३
विश्वास-प्रस्तुतिः
मुसलावशेषायःखण्डकृतेषुर्लुब्धको जरा।
मृगास्याकारं तच्चरणं विव्याध मृगशङ्कया॥
मूलम्
मुसलावशेषायःखण्डकृतेषुर्लुब्धको जरा।
मृगास्याकारं तच्चरणं विव्याध मृगशङ्कया॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! जरा नामका एक बहेलिया था। उसने मूसलके बचे हुए टुकड़ेसे अपने बाणकी गाँसी बना ली थी। उसे दूरसे भगवान्का लाल-लाल तलवा हरिनके मुखके समान जान पड़ा। उसने उसे सचमुच हरिन समझकर अपने उसी बाणसे बींध दिया॥ ३३॥
श्लोक-३४
विश्वास-प्रस्तुतिः
चतुर्भुजं तं पुरुषं दृष्ट्वा स कृतकिल्बिषः।
भीतः पपात शिरसा पादयोरसुरद्विषः॥
मूलम्
चतुर्भुजं तं पुरुषं दृष्ट्वा स कृतकिल्बिषः।
भीतः पपात शिरसा पादयोरसुरद्विषः॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब वह पास आया, तब उसने देखा कि ‘अरे! ये तो चतुर्भुज पुरुष हैं।’ अब तो वह अपराध कर चुका था, इसलिये डरके मारे काँपने लगा और दैत्यदलन भगवान् श्रीकृष्णके चरणोंपर सिर रखकर धरतीपर गिर पड़ा॥ ३४॥
श्लोक-३५
विश्वास-प्रस्तुतिः
अजानता कृतमिदं पापेन मधुसूदन।
क्षन्तुमर्हसि पापस्य उत्तमश्लोक मेऽनघ॥
मूलम्
अजानता कृतमिदं पापेन मधुसूदन।
क्षन्तुमर्हसि पापस्य उत्तमश्लोक मेऽनघ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसने कहा—‘हे मधुसूदन! मैंने अनजानमें यह पाप किया है। सचमुच मैं बहुत बड़ा पापी हूँ; परन्तु आप परमयशस्वी और निर्विकार हैं। आप कृपा करके मेरा अपराध क्षमा कीजिये॥ ३५॥
श्लोक-३६
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्यानुस्मरणं नॄणामज्ञानध्वान्तनाशनम्।
वदन्ति तस्य ते विष्णो मयासाधु कृतं प्रभो॥
मूलम्
यस्यानुस्मरणं नॄणामज्ञानध्वान्तनाशनम्।
वदन्ति तस्य ते विष्णो मयासाधु कृतं प्रभो॥
अनुवाद (हिन्दी)
सर्वव्यापक सर्वशक्तिमान् प्रभो! महात्मालोग कहा करते हैं कि आपके स्मरणमात्रसे मनुष्योंका अज्ञानान्धकार नष्ट हो जाता है। बड़े खेदकी बात है कि मैंने स्वयं आपका ही अनिष्ट कर दिया॥ ३६॥
श्लोक-३७
विश्वास-प्रस्तुतिः
तन्माऽऽशु जहि वैकुण्ठ पाप्मानं मृगलुब्धकम्।
यथा पुनरहं त्वेवं न कुर्यां सदतिक्रमम्॥
मूलम्
तन्माऽऽशु जहि वैकुण्ठ पाप्मानं मृगलुब्धकम्।
यथा पुनरहं त्वेवं न कुर्यां सदतिक्रमम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैकुण्ठनाथ! मैं निरपराध हरिणोंको मारनेवाला महापापी हूँ। आप मुझे अभी-अभी मार डालिये, क्योंकि मर जानेपर मैं फिर कभी आप-जैसे महापुरुषोंका ऐसा अपराध न करूँगा॥ ३७॥
श्लोक-३८
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्यात्मयोगरचितं न विदुर्विरिञ्चो
रुद्रादयोऽस्य तनयाः पतयो गिरां ये।
त्वन्मायया पिहितदृष्टय एतदञ्जः
किं तस्य ते वयमसद्गतयो गृणीमः॥
मूलम्
यस्यात्मयोगरचितं न विदुर्विरिञ्चो
रुद्रादयोऽस्य तनयाः पतयो गिरां ये।
त्वन्मायया पिहितदृष्टय एतदञ्जः
किं तस्य ते वयमसद्गतयो गृणीमः॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवन्! सम्पूर्ण विद्याओंके पारदर्शी ब्रह्माजी और उनके पुत्र रुद्र आदि भी आपकी योगमायाका विलास नहीं समझ पाते; क्योंकि उनकी दृष्टि भी आपकी मायासे आवृत है। ऐसी अवस्थामें हमारे-जैसे पापयोनि लोग उसके विषयमें कह ही क्या सकते हैं?॥ ३८॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
अञ्जः अञ्जसा असद्गतयः तादृशबुद्धिरहिताः ॥ ३८-५० ॥
इति श्रीमद्भागवतव्याख्याने एकादशस्कन्धीये श्रीसुदर्शनसूरिकृतशुकपक्षीये त्रिंशोऽध्यायः ॥ ३० ॥
श्लोक-३९
मूलम् (वचनम्)
श्रीभगवानुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
मा भैर्जरे त्वमुत्तिष्ठ काम एष कृतो हि मे।
याहि त्वं मदनुज्ञातः स्वर्गं सुकृतिनां पदम्॥
मूलम्
मा भैर्जरे त्वमुत्तिष्ठ काम एष कृतो हि मे।
याहि त्वं मदनुज्ञातः स्वर्गं सुकृतिनां पदम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् श्रीकृष्णने कहा—हे जरे! तू डर मत, उठ-उठ! यह तो तूने मेरे मनका काम किया है। जा, मेरी आज्ञासे तू उस स्वर्गमें निवास कर, जिसकी प्राप्ति बड़े-बड़े पुण्यवानोंको होती है॥ ३९॥
श्लोक-४०
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्यादिष्टो भगवता कृष्णेनेच्छाशरीरिणा।
त्रिः परिक्रम्य तं नत्वा विमानेन दिवं ययौ॥
मूलम्
इत्यादिष्टो भगवता कृष्णेनेच्छाशरीरिणा।
त्रिः परिक्रम्य तं नत्वा विमानेन दिवं ययौ॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्ण तो अपनी इच्छासे शरीर धारण करते हैं। जब उन्होंने जरा व्याधको यह आदेश दिया, तब उसने उनकी तीन बार परिक्रमा की, नमस्कार किया और विमानपर सवार होकर स्वर्गको चला गया॥ ४०॥
श्लोक-४१
विश्वास-प्रस्तुतिः
दारुकः कृष्णपदवीमन्विच्छन्नधिगम्य ताम्।
वायुं तुलसिकामोदमाघ्रायाभिमुखं ययौ॥
मूलम्
दारुकः कृष्णपदवीमन्विच्छन्नधिगम्य ताम्।
वायुं तुलसिकामोदमाघ्रायाभिमुखं ययौ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् श्रीकृष्णका सारथि दारुक उनके स्थानका पता लगाता हुआ उनके द्वारा धारण की हुई तुलसीकी गन्धसे युक्त वायु सूँघकर और उससे उनके होनेके स्थानका अनुमान लगाकर सामनेकी ओर गया॥ ४१॥
श्लोक-४२
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं तत्र तिग्मद्युभिरायुधैर्वृतं
ह्यश्वत्थमूले कृतकेतनं पतिम्।
स्नेहप्लुतात्मा निपपात पादयो
रथादवप्लुत्य सबाष्पलोचनः॥
मूलम्
तं तत्र तिग्मद्युभिरायुधैर्वृतं
ह्यश्वत्थमूले कृतकेतनं पतिम्।
स्नेहप्लुतात्मा निपपात पादयो
रथादवप्लुत्य सबाष्पलोचनः॥
अनुवाद (हिन्दी)
दारुकने वहाँ जाकर देखा कि भगवान् श्रीकृष्ण पीपलके वृक्षके नीचे आसन लगाये बैठे हैं। असह्य तेजवाले आयुध मूर्तिमान् होकर उनकी सेवामें संलग्न हैं। उन्हें देखकर दारुकके हृदयमें प्रेमकी बाढ़ आ गयी। नेत्रोंसे आँसुओंकी धारा बहने लगी। वह रथसे कूदकर भगवान्के चरणोंपर गिर पड़ा॥ ४२॥
श्लोक-४३
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपश्यतस्त्वच्चरणाम्बुजं प्रभो
दृष्टिः प्रणष्टा तमसि प्रविष्टा।
दिशो न जाने न लभे च शान्तिं
यथा निशायामुडुपे प्रणष्टे॥
मूलम्
अपश्यतस्त्वच्चरणाम्बुजं प्रभो
दृष्टिः प्रणष्टा तमसि प्रविष्टा।
दिशो न जाने न लभे च शान्तिं
यथा निशायामुडुपे प्रणष्टे॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसने भगवान्से प्रार्थना की—‘प्रभो! रात्रिके समय चन्द्रमाके अस्त हो जानेपर राह चलनेवालेकी जैसी दशा हो जाती है, आपके चरणकमलोंका दर्शन न पाकर मेरी भी वैसी ही दशा हो गयी है। मेरी दृष्टि नष्ट हो गयी है, चारों ओर अँधेरा छा गया है। अब न तो मुझे दिशाओंका ज्ञान है और न मेरे हृदयमें शान्ति ही है’॥ ४३॥
श्लोक-४४
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति ब्रुवति सूते वै रथो गरुडलाञ्छनः।
खमुत्पपात राजेन्द्र साश्वध्वज उदीक्षतः॥
मूलम्
इति ब्रुवति सूते वै रथो गरुडलाञ्छनः।
खमुत्पपात राजेन्द्र साश्वध्वज उदीक्षतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! अभी दारुक इस प्रकार कह ही रहा था कि उसके सामने ही भगवान्का गरुड़-ध्वज रथ पताका और घोड़ोंके साथ आकाशमें उड़ गया॥ ४४॥
श्लोक-४५
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमन्वगच्छन् दिव्यानि विष्णुप्रहरणानि च।
तेनातिविस्मितात्मानं सूतमाह जनार्दनः॥
मूलम्
तमन्वगच्छन् दिव्यानि विष्णुप्रहरणानि च।
तेनातिविस्मितात्मानं सूतमाह जनार्दनः॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसके पीछे-पीछे भगवान्के दिव्य आयुध भी चले गये। यह सब देखकर दारुकके आश्चर्यकी सीमा न रही। तब भगवान्ने उससे कहा—॥ ४५॥
श्लोक-४६
विश्वास-प्रस्तुतिः
गच्छ द्वारवतीं सूत ज्ञातीनां निधनं मिथः।
सङ्कर्षणस्य निर्याणं बन्धुभ्यो ब्रूहि मद्दशाम्॥
मूलम्
गच्छ द्वारवतीं सूत ज्ञातीनां निधनं मिथः।
सङ्कर्षणस्य निर्याणं बन्धुभ्यो ब्रूहि मद्दशाम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘दारुक! अब तुम द्वारका चले जाओ और वहाँ यदुवंशियोंके पारस्परिक संहार, भैया बलरामजीकी परम गति और मेरे स्वधामगमनकी बात कहो’॥ ४६॥
श्लोक-४७
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्वारकायां च न स्थेयं भवद्भिश्च स्वबन्धुभिः।
मया त्यक्तां यदुपुरीं समुद्रः प्लावयिष्यति॥
मूलम्
द्वारकायां च न स्थेयं भवद्भिश्च स्वबन्धुभिः।
मया त्यक्तां यदुपुरीं समुद्रः प्लावयिष्यति॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनसे कहना कि ‘अब तुमलोगोंको अपने परिवारवालोंके साथ द्वारकामें नहीं रहना चाहिये। मेरे न रहनेपर समुद्र उस नगरीको डुबो देगा॥ ४७॥
श्लोक-४८
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वं स्वं परिग्रहं सर्वे आदाय पितरौ च नः।
अर्जुनेनाविताः सर्व इन्द्रप्रस्थं गमिष्यथ॥
मूलम्
स्वं स्वं परिग्रहं सर्वे आदाय पितरौ च नः।
अर्जुनेनाविताः सर्व इन्द्रप्रस्थं गमिष्यथ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सब लोग अपनी-अपनी धन-सम्पत्ति, कुटुम्ब और मेरे माता-पिताको लेकर अर्जुनके संरक्षणमें इन्द्रप्रस्थ चले जायँ॥ ४८॥
श्लोक-४९
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वं तु मद्धर्ममास्थाय ज्ञाननिष्ठ उपेक्षकः।
मन्मायारचनामेतां विज्ञायोपशमं व्रज॥
मूलम्
त्वं तु मद्धर्ममास्थाय ज्ञाननिष्ठ उपेक्षकः।
मन्मायारचनामेतां विज्ञायोपशमं व्रज॥
अनुवाद (हिन्दी)
दारुक! तुम मेरे द्वारा उपदिष्ट भागवतधर्मका आश्रय लो और ज्ञाननिष्ठ होकर सबकी उपेक्षा कर दो तथा इस दृश्यको मेरी मायाकी रचना समझकर शान्त हो जाओ’॥ ४९॥
श्लोक-५०
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्तस्तं परिक्रम्य नमस्कृत्य पुनः पुनः।
तत्पादौ शीर्ष्ण्युपाधाय दुर्मनाः प्रययौ पुरीम्॥
मूलम्
इत्युक्तस्तं परिक्रम्य नमस्कृत्य पुनः पुनः।
तत्पादौ शीर्ष्ण्युपाधाय दुर्मनाः प्रययौ पुरीम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान्का यह आदेश पाकर दारुकने उनकी परिक्रमा की और उनके चरणकमल अपने सिरपर रखकर बारम्बार प्रणाम किया। तदनन्तर वह उदास मनसे द्वारकाके लिये चल पड़ा॥ ५०॥
अनुवाद (समाप्ति)
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायामेकादशस्कन्धे त्रिंशोऽध्यायः॥ ३०॥