२९

[एकोनत्रिंशोऽध्यायः]

भागसूचना

भागवतधर्मोंका निरूपण और उद्धवजीका बदरिकाश्रमगमन

श्लोक-१

मूलम् (वचनम्)

उद्धव उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुदुश्चरामिमां मन्ये योगचर्यामनात्मनः।
यथाञ्जसा पुमान् सिद्ध्येत् तन्मे ब्रूह्यञ्जसाच्युत॥

मूलम्

सुदुश्चरामिमां मन्ये योगचर्यामनात्मनः।
यथाञ्जसा पुमान् सिद्ध्येत् तन्मे ब्रूह्यञ्जसाच्युत॥

अनुवाद (हिन्दी)

उद्धवजीने कहा—अच्युत! जो अपना मन वशमें नहीं कर सका है, उसके लिये आपकी बतलायी हुई इस योगसाधनाको तो मैं बहुत ही कठिन समझता हूँ। अतः अब आप कोई ऐसा सरल और सुगमसाधन बतलाइये, जिससे मनुष्य अनायास ही परमपद प्राप्त कर सके॥ १॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

॥ १-२ ॥

श्लोक-२

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रायशः पुण्डरीकाक्ष युञ्जन्तो योगिनो मनः।
विषीदन्त्यसमाधानान्मनोनिग्रहकर्शिताः॥

मूलम्

प्रायशः पुण्डरीकाक्ष युञ्जन्तो योगिनो मनः।
विषीदन्त्यसमाधानान्मनोनिग्रहकर्शिताः॥

अनुवाद (हिन्दी)

कमलनयन! आप जानते ही हैं कि अधिकांश योगी जब अपने मनको एकाग्र करने लगते हैं, तब वे बार-बार चेष्टा करनेपर भी सफल न होनेके कारण हार मान लेते हैं और उसे वशमें न कर पानेके कारण दुःखी हो जाते हैं॥ २॥

श्लोक-३

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथात आनन्ददुघं पदाम्बुजं
हंसाः श्रयेरन्नरविन्दलोचन।
सुखं नु विश्वेश्वर योगकर्मभि-
स्त्वन्माययामी विहता न मानिनः॥

मूलम्

अथात आनन्ददुघं पदाम्बुजं
हंसाः श्रयेरन्नरविन्दलोचन।
सुखं नु विश्वेश्वर योगकर्मभि-
स्त्वन्माययामी विहता न मानिनः॥

अनुवाद (हिन्दी)

पद्मलोचन! आप विश्वेश्वर हैं! आपके ही द्वारा सारे संसारका नियमन होता है। इसीसे सारासार-विचारमें चतुर मनुष्य आपके आनन्दवर्षी चरणकमलोंकी शरण लेते हैं और अनायास ही सिद्धि प्राप्त कर लेते हैं। आपकी माया उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकती; क्योंकि उन्हें योगसाधन और कर्मानुष्ठानका अभिमान नहीं होता। परन्तु जो आपके चरणोंका आश्रय नहीं लेते, वे योगी और कर्मी अपने साधनके घमंडसे फूल जाते हैं; अवश्य ही आपकी मायाने उनकी मति हर ली है॥ ३॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

तव पादाम्बुजं हंसा योगकर्मभिः सुखेन श्रयेरन् त्वन्मायया न विहताः किन्तु मानिन एवं विहताः ॥ ३ ॥

श्लोक-४

विश्वास-प्रस्तुतिः

किं चित्रमच्युत तवैतदशेषबन्धो
दासेष्वनन्यशरणेषु यदात्मसात्त्वम्।
योऽरोचयत् सह मृगैः स्वयमीश्वराणां
श्रीमत्किरीटतटपीडितपादपीठः॥

मूलम्

किं चित्रमच्युत तवैतदशेषबन्धो
दासेष्वनन्यशरणेषु यदात्मसात्त्वम्।
योऽरोचयत् सह मृगैः स्वयमीश्वराणां
श्रीमत्किरीटतटपीडितपादपीठः॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभो! आप सबके हितैषी सुहृद् हैं। आप अपने अनन्य शरणागत बलि आदि सेवकोंके अधीन हो जायँ, यह आपके लिये कोई आश्चर्यकी बात नहीं है; क्योंकि आपने रामावतार ग्रहण करके प्रेमवश वानरोंसे भी मित्रताका निर्वाह किया। यद्यपि ब्रह्मा आदि लोकेश्वरगण भी अपने दिव्य किरीटोंको आपके चरणकमल रखनेकी चौकीपर रगड़ते रहते हैं॥ ४॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

मृगैः सहेति वासमिति शेषः वृन्दावने हि मृगा अव्याकृष्टा वंशस्वनेन ॥ ४ ॥

श्लोक-५

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं त्वाखिलात्मदयितेश्वरमाश्रितानां
सर्वार्थदं स्वकृतविद् विसृजेत को नु।
को वा भजेत् किमपि विस्मृतयेऽनु भूत्यै
किं वा भवेन्न तव पादरजोजुषां नः॥

मूलम्

तं त्वाखिलात्मदयितेश्वरमाश्रितानां
सर्वार्थदं स्वकृतविद् विसृजेत को नु।
को वा भजेत् किमपि विस्मृतयेऽनु भूत्यै
किं वा भवेन्न तव पादरजोजुषां नः॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभो! आप सबके प्रियतम, स्वामी और आत्मा हैं। आप अपने अनन्य शरणागतोंको सब कुछ दे देते हैं। आपने बलि-प्रह्लाद आदि अपने भक्तोंको जो कुछ दिया है, उसे जानकर ऐसा कौन पुरुष होगा जो आपको छोड़ देगा? यह बात किसी प्रकार बुद्धिमें ही नहीं आती कि भला, कोई विचारवान् विस्मृतिके गर्तमें डालनेवाले तुच्छ विषयोंमें ही फँसा रखनेवाले भोगोंको क्यों चाहेगा? हमलोग आपके चरणकमलोंकी रजके उपासक हैं। हमारे लिये दुर्लभ ही क्या है?॥ ५॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

सुकृतवित्कृतज्ञः विस्मृतये तद्विस्मरणाय किं स्यात् किञ्चिदपि त्वद्विस्मरणकारणं तव पादरजोजुषां नश्चित्तं किमन्यतो भजेत् न किञ्चिदन्यध्येयमित्यर्थः ॥ ५ ॥

श्लोक-६

विश्वास-प्रस्तुतिः

नैवोपयन्त्यपचितिं कवयस्तवेश
ब्रह्मायुषापि कृतमृद्धमुदः स्मरन्तः।
योऽन्तर्बहिस्तनुभृतामशुभं विधुन्व-
न्नाचार्यचैत्यवपुषा स्वगतिं व्यनक्ति॥

मूलम्

नैवोपयन्त्यपचितिं कवयस्तवेश
ब्रह्मायुषापि कृतमृद्धमुदः स्मरन्तः।
योऽन्तर्बहिस्तनुभृतामशुभं विधुन्व-
न्नाचार्यचैत्यवपुषा स्वगतिं व्यनक्ति॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवन्! आप समस्त प्राणियोंके अन्तःकरणमें अन्तर्यामीरूपसे और बाहर गुरुरूपसे स्थित होकर उनके सारे पाप-ताप मिटा देते हैं और अपने वास्तविक स्वरूपको उनके प्रति प्रकट कर देते हैं। बड़े-बड़े ब्रह्मज्ञानी ब्रह्माजीके समान लंबी आयु पाकर भी आपके उपकारोंका बदला नहीं चुका सकते। इसीसे वे आपके उपकारोंका स्मरण करके क्षण-क्षण अधिकाधिक आनन्दका अनुभव करते रहते हैं॥ ६॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

अपचितिम् अवसानम् आचार्यचैत्यवपुषा बहिराचार्यवपुषा अन्तश्चैत्यवपुषा ध्येयदिव्यविग्रहेण अशुभं विधुन्वन् इत्यर्थः ॥ ६-७ ॥

श्लोक-७

मूलम् (वचनम्)

श्रीशुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युद्धवेनात्यनुरक्तचेतसा
पृष्टो जगत्क्रीडनकः स्वशक्तिभिः।
गृहीतमूर्तित्रय ईश्वरेश्वरो
जगाद सप्रेममनोहरस्मितः॥

मूलम्

इत्युद्धवेनात्यनुरक्तचेतसा
पृष्टो जगत्क्रीडनकः स्वशक्तिभिः।
गृहीतमूर्तित्रय ईश्वरेश्वरो
जगाद सप्रेममनोहरस्मितः॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्ण ब्रह्मादि ईश्वरोंके भी ईश्वर हैं। वे ही सत्त्व-रज आदि गुणोंके द्वारा ब्रह्मा, विष्णु और रुद्रका रूप धारण करके जगत‍्की उत्पत्ति-स्थिति आदिके खेल खेला करते हैं। जब उद्धवजीने अनुरागभरे चित्तसे उनसे यह प्रश्न किया, तब उन्होंने मन्द-मन्द मुसकराकर बड़े प्रेमसे कहना प्रारम्भ किया॥ ७॥

श्लोक-८

मूलम् (वचनम्)

श्रीभगवानुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

हन्त ते कथयिष्यामि मम धर्मान् सुमङ्गलान्।
याञ्छ्रद्धयाऽऽचरन् मर्त्यो मृत्युं जयति दुर्जयम्॥

मूलम्

हन्त ते कथयिष्यामि मम धर्मान् सुमङ्गलान्।
याञ्छ्रद्धयाऽऽचरन् मर्त्यो मृत्युं जयति दुर्जयम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीभगवान‍्ने कहा—प्रिय उद्धव! अब मैं तुम्हें अपने उन मंगलमय भागवतधर्मोंका उपदेश करता हूँ, जिनका श्रद्धापूर्वक आचरण करके मनुष्य संसाररूप दुर्जय मृत्युको अनायास ही जीत लेता है॥ ८॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

मृत्युं संसारम् ॥ ८-१२ ॥

श्लोक-९

विश्वास-प्रस्तुतिः

कुर्यात् सर्वाणि कर्माणि मदर्थं शनकैः स्मरन्।
मय्यर्पितमनश्चित्तो मद्धर्मात्ममनोरतिः॥

मूलम्

कुर्यात् सर्वाणि कर्माणि मदर्थं शनकैः स्मरन्।
मय्यर्पितमनश्चित्तो मद्धर्मात्ममनोरतिः॥

अनुवाद (हिन्दी)

उद्धवजी! मेरे भक्तको चाहिये कि अपने सारे कर्म मेरे लिये ही करे और धीर-धीरे उनको करते समय मेरे स्मरणका अभ्यास बढ़ाये। कुछ ही दिनोंमें उसके मन और चित्त मुझमें समर्पित हो जायँगे। उसके मन और आत्मा मेरे ही धर्मोंमें रम जायँगे॥ ९॥

श्लोक-१०

विश्वास-प्रस्तुतिः

देशान् पुण्यानाश्रयेत मद‍्भक्तैः साधुभिः श्रितान्।
देवासुरमनुष्येषु मद‍्भक्ताचरितानि च॥

मूलम्

देशान् पुण्यानाश्रयेत मद‍्भक्तैः साधुभिः श्रितान्।
देवासुरमनुष्येषु मद‍्भक्ताचरितानि च॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरे भक्त साधुजन जिन पवित्र स्थानोंमें निवास करते हों, उन्हींमें रहे और देवता, असुर अथवा मनुष्योंमें जो मेरे अनन्य भक्त हों, उनके आचरणोंका अनुसरण करे॥ १०॥

श्लोक-११

विश्वास-प्रस्तुतिः

पृथक् सत्रेण वा मह्यं पर्वयात्रामहोत्सवान्।
कारयेद् गीतनृत्याद्यैर्महाराजविभूतिभिः॥

मूलम्

पृथक् सत्रेण वा मह्यं पर्वयात्रामहोत्सवान्।
कारयेद् गीतनृत्याद्यैर्महाराजविभूतिभिः॥

अनुवाद (हिन्दी)

पर्वके अवसरोंपर सबके साथ मिलकर अथवा अकेला ही नृत्य, गान, वाद्य आदि महाराजोचित ठाट-बाटसे मेरी यात्रा आदिके महोत्सव करे॥ ११॥

श्लोक-१२

विश्वास-प्रस्तुतिः

मामेव सर्वभूतेषु बहिरन्तरपावृतम्।
ईक्षेतात्मनि चात्मानं यथा खममलाशयः॥

मूलम्

मामेव सर्वभूतेषु बहिरन्तरपावृतम्।
ईक्षेतात्मनि चात्मानं यथा खममलाशयः॥

अनुवाद (हिन्दी)

शुद्धान्तःकरण पुरुष आकाशके समान बाहर और भीतर परिपूर्ण एवं आवरणशून्य मुझ परमात्माको ही समस्त प्राणियों और अपने हृदयमें स्थित देखे॥ १२॥

श्लोक-१३

विश्वास-प्रस्तुतिः

इति सर्वाणि भूतानि मद‍्भावेन महाद्युते।
सभाजयन् मन्यमानो ज्ञानं केवलमाश्रितः॥

मूलम्

इति सर्वाणि भूतानि मद‍्भावेन महाद्युते।
सभाजयन् मन्यमानो ज्ञानं केवलमाश्रितः॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

केवलं शुद्धं पुण्यक्षेत्रवासः भगवद् गेहाचरितं भगवद्यात्राप्रवर्त्तनादिकं ज्ञानस्य साधकतममित्युक्तं भवति ॥ १३ ॥

श्लोक-१४

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्राह्मणे पुल्कसे स्तेने ब्रह्मण्येऽर्के स्फुलिङ्गके।
अक्रूरे क्रूरके चैव समदृक् पण्डितो मतः॥

मूलम्

ब्राह्मणे पुल्कसे स्तेने ब्रह्मण्येऽर्के स्फुलिङ्गके।
अक्रूरे क्रूरके चैव समदृक् पण्डितो मतः॥

अनुवाद (हिन्दी)

निर्मलबुद्धि उद्धवजी! जो साधक केवल इस ज्ञान-दृष्टिका आश्रय लेकर सम्पूर्ण प्राणियों और पदार्थोंमें मेरा दर्शन करता है और उन्हें मेरा ही रूप मानकर सत्कार करता है तथा ब्राह्मण और चाण्डाल, चोर और ब्राह्मणभक्त, सूर्य और चिनगारी तथा कृपालु और क्रूरमें समान दृष्टि रखता है, उसे ही सच्चा ज्ञानी समझना चाहिये॥ १३-१४॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

सम्यग्ज्ञानवेद्यं च देहातिरिक्तानामात्मना तत्त्वं तेषां भगवदात्मकत्वं चेत्याह । ब्राह्मण इत्यादिश्लोकद्वयेन ॥ १४-१५ ॥

श्लोक-१५

विश्वास-प्रस्तुतिः

नरेष्वभीक्ष्णं मद‍्भावं पुंसो भावयतोऽचिरात्।
स्पर्धासूयातिरस्काराः साहङ्कारा वियन्ति हि॥

मूलम्

नरेष्वभीक्ष्णं मद‍्भावं पुंसो भावयतोऽचिरात्।
स्पर्धासूयातिरस्काराः साहङ्कारा वियन्ति हि॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब निरन्तर सभी नर-नारियोंमें मेरी ही भावना की जाती है, तब थोड़े ही दिनोंमें साधकके चित्तसे स्पर्द्धा (होड़), ईर्ष्या, तिरस्कार और अहंकार आदि दोष दूर हो जाते हैं॥ १५॥

श्लोक-१६

विश्वास-प्रस्तुतिः

विसृज्य स्मयमानान् स्वान् दृशं व्रीडां च दैहिकीम्।
प्रणमेद् दण्डवद् भूमावाश्वचाण्डालगोखरम्॥

मूलम्

विसृज्य स्मयमानान् स्वान् दृशं व्रीडां च दैहिकीम्।
प्रणमेद् दण्डवद् भूमावाश्वचाण्डालगोखरम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

अपने ही लोग यदि हँसी करें तो करने दे, उनकी परवा न करे; ‘मैं अच्छा हूँ, वह बुरा है’ ऐसी देहदृष्टिको और लोक-लज्जाको छोड़ दे और कुत्ते, चाण्डाल, गौ एवं गधेको भी पृथ्वीपर गिरकर साष्टांग दण्डवत् प्रणाम करे॥ १६॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

प्रणमेदिति । भगवदात्मकत्वभावनातिशयकाष्ठा दर्शिता ॥ १६ ॥

श्लोक-१७

विश्वास-प्रस्तुतिः

यावत् सर्वेषु भूतेषु मद‍्भावो नोपजायते।
तावदेवमुपासीत वाङ्मनःकायवृत्तिभिः॥

मूलम्

यावत् सर्वेषु भूतेषु मद‍्भावो नोपजायते।
तावदेवमुपासीत वाङ्मनःकायवृत्तिभिः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जबतक समस्त प्राणियोंमें मेरी भावना—भगवद‍्भावना न होने लगे, तबतक इस प्रकारसे मन, वाणी और शरीरके सभी संकल्पों और कर्मोंद्वारा मेरी उपासना करता रहे॥ १७॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

एवमुपासीत पुण्यदेशवासादिभिः उपासीत । १७ ॥

श्लोक-१८

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वं ब्रह्मात्मकं तस्य विद्ययाऽऽत्ममनीषया।
परिपश्यन्नुपरमेत् सर्वतो मुक्तसंशयः॥

मूलम्

सर्वं ब्रह्मात्मकं तस्य विद्ययाऽऽत्ममनीषया।
परिपश्यन्नुपरमेत् सर्वतो मुक्तसंशयः॥

अनुवाद (हिन्दी)

उद्धवजी! जब इस प्रकार सर्वत्र आत्मबुद्धि—ब्रह्मबुद्धिका अभ्यास किया जाता है, तब थोड़े ही दिनोंमें उसे ज्ञान होकर सब कुछ ब्रह्मस्वरूप दीखने लगता है। ऐसी दृष्टि हो जानेपर सारे संशय-सन्देह अपने-आप निवृत्त हो जाते हैं और वह सब कहीं मेरा साक्षात्कार करके संसारदृष्टिसे उपराम हो जाता है॥ १८॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

सर्वं ब्रह्मात्मकमिति लीलाविभूतेर्ब्रह्मात्मकत्वमुक्तत्रिपाद्विभूतेस्तदात्मकत्वमाह । परमे व्योम्नीति ब्रह्म पश्यन्नित्यर्थः । सर्वं ब्रह्मात्मकं पश्यन् मुक्तबन्धनः परमे व्योम्नि तिष्ठेदित्यध्याहृत्य वा योजना ॥ १८-१९ ॥

श्लोक-१९

विश्वास-प्रस्तुतिः

अयं हि सर्वकल्पानां सध्रीचीनो मतो मम।
मद‍्भावः सर्वभूतेषु मनोवाक्कायवृत्तिभिः॥

मूलम्

अयं हि सर्वकल्पानां सध्रीचीनो मतो मम।
मद‍्भावः सर्वभूतेषु मनोवाक्कायवृत्तिभिः॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरी प्राप्तिके जितने साधन हैं, उनमें मैं तो सबसे श्रेष्ठ साधन यही समझता हूँ कि समस्त प्राणियों और पदार्थोंमें मन, वाणी और शरीरकी समस्त वृत्तियोंसे मेरी ही भावना की जाय॥ १९॥

श्लोक-२०

विश्वास-प्रस्तुतिः

न ह्यङ्गोपक्रमे ध्वंसो मद्धर्मस्योद्धवाण्वपि।
मया व्यवसितः सम्यङ्‍‍निर्गुणत्वादनाशिषः॥

मूलम्

न ह्यङ्गोपक्रमे ध्वंसो मद्धर्मस्योद्धवाण्वपि।
मया व्यवसितः सम्यङ्‍‍निर्गुणत्वादनाशिषः॥

अनुवाद (हिन्दी)

उद्धवजी! यही मेरा अपना भागवत-धर्म है; इसको एक बार आरम्भ कर देनेके बाद फिर किसी प्रकारकी विघ्न-बाधासे इसमें रत्तीभर भी अन्तर नहीं पड़ता; क्योंकि यह धर्म निष्काम है और स्वयं मैंने ही इसे निर्गुण होनेके कारण सर्वोत्तम निश्चय किया है॥ २०॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

मद्धर्मस्याण्वपीति क्रियाविशेषणं न ध्वंसः न निष्फलत्वम् अनाशिषो मद्धर्मस्य निर्गुणत्वात् गुणबन्धहेतुत्वाभावात् ॥ २० ॥

श्लोक-२१

विश्वास-प्रस्तुतिः

यो यो मयि परे धर्मः कल्प्यते निष्फलाय चेत्।
तदायासो निरर्थः स्याद् भयादेरिव सत्तम॥

मूलम्

यो यो मयि परे धर्मः कल्प्यते निष्फलाय चेत्।
तदायासो निरर्थः स्याद् भयादेरिव सत्तम॥

अनुवाद (हिन्दी)

भागवतधर्ममें किसी प्रकारकी त्रुटि पड़नी तो दूर रही—यदि इस धर्मका साधक भय-शोक आदिके अवसरपर होनेवाली भावना और रोने-पीटने, भागने-जैसा निरर्थक कर्म भी निष्कामभावसे मुझे समर्पित कर दे तो वे भी मेरी प्रसन्नताके कारण धर्म बन जाते हैं॥ २१॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

तदायासो निरर्थः स्यादिति आयांसस्य निरर्थकतया अनुष्ठानाभावेन शास्त्राप्रामाण्यं स्यादिति भावः ॥ २१ ॥

श्लोक-२२

विश्वास-प्रस्तुतिः

एषा बुद्धिमतां बुद्धिर्मनीषा च मनीषिणाम्।
यत् सत्यमनृतेनेह मर्त्येनाप्नोति मामृतम्॥

मूलम्

एषा बुद्धिमतां बुद्धिर्मनीषा च मनीषिणाम्।
यत् सत्यमनृतेनेह मर्त्येनाप्नोति मामृतम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

विवेकियोंके विवेक और चतुरोंकी चतुराईकी पराकाष्ठा इसीमें है कि वे इस विनाशी और असत्य शरीरके द्वारा मुझ अविनाशी एवं सत्य तत्त्वको प्राप्त कर लें॥ २२॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

अनृतेन अनित्येन शरीरेण ॥ २२-२५ ॥

श्लोक-२३

विश्वास-प्रस्तुतिः

एष तेऽभिहितः कृत्स्नो ब्रह्मवादस्य सङ्ग्रहः।
समासव्यासविधिना देवानामपि दुर्गमः॥

मूलम्

एष तेऽभिहितः कृत्स्नो ब्रह्मवादस्य सङ्ग्रहः।
समासव्यासविधिना देवानामपि दुर्गमः॥

अनुवाद (हिन्दी)

उद्धवजी! यह सम्पूर्ण ब्रह्मविद्याका रहस्य मैंने संक्षेप और विस्तारसे तुम्हें सुना दिया। इस रहस्यको समझना मनुष्योंकी तो कौन कहे, देवताओंके लिये भी अत्यन्त कठिन है॥ २३॥

श्लोक-२४

विश्वास-प्रस्तुतिः

अभीक्ष्णशस्ते गदितं ज्ञानं विस्पष्टयुक्तिमत्।
एतद् विज्ञाय मुच्येत पुरुषो नष्टसंशयः॥

मूलम्

अभीक्ष्णशस्ते गदितं ज्ञानं विस्पष्टयुक्तिमत्।
एतद् विज्ञाय मुच्येत पुरुषो नष्टसंशयः॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैंने जिस सुस्पष्ट और युक्तियुक्त ज्ञानका वर्णन बार-बार किया है, उसके मर्मको जो समझ लेता है, उसके हृदयकी संशय-ग्रन्थियाँ छिन्न-भिन्न हो जाती हैं और वह मुक्त हो जाता है॥ २४॥

श्लोक-२५

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुविविक्तं तव प्रश्नं मयैतदपि धारयेत्।
सनातनं ब्रह्मगुह्यं परं ब्रह्माधिगच्छति॥

मूलम्

सुविविक्तं तव प्रश्नं मयैतदपि धारयेत्।
सनातनं ब्रह्मगुह्यं परं ब्रह्माधिगच्छति॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैंने तुम्हारे प्रश्नका भलीभाँति खुलासा कर दिया; जो पुरुष हमारे प्रश्नोत्तरको विचारपूर्वक धारण करेगा, वह वेदोंके भी परम रहस्य सनातन परब्रह्मको प्राप्त कर लेगा॥ २५॥

श्लोक-२६

विश्वास-प्रस्तुतिः

य एतन्मम भक्तेषु सम्प्रदद्यात् सुपुष्कलम्।
तस्याहं ब्रह्मदायस्य ददाम्यात्मानमात्मना॥

मूलम्

य एतन्मम भक्तेषु सम्प्रदद्यात् सुपुष्कलम्।
तस्याहं ब्रह्मदायस्य ददाम्यात्मानमात्मना॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो पुरुष मेरे भक्तोंको इसे भलीभाँति स्पष्ट करके समझायेगा, उस ज्ञानदाताको मैं प्रसन्न मनसे अपना स्वरूपतक दे डालूँगा, उसे आत्मज्ञान करा दूँगा॥ २६॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

ब्रह्मदायस्य ज्ञानप्रदीपकस्य ॥ २६-३२ ॥

श्लोक-२७

विश्वास-प्रस्तुतिः

य एतत् समधीयीत पवित्रं परमं शुचि।
स पूयेताहरहर्मां ज्ञानदीपेन दर्शयन्॥

मूलम्

य एतत् समधीयीत पवित्रं परमं शुचि।
स पूयेताहरहर्मां ज्ञानदीपेन दर्शयन्॥

अनुवाद (हिन्दी)

उद्धवजी! यह तुम्हारा और मेरा संवाद स्वयं तो परम पवित्र है ही, दूसरोंको भी पवित्र करनेवाला है। जो प्रतिदिन इसका पाठ करेगा और दूसरोंको सुनायेगा, वह इस ज्ञानदीपके द्वारा दूसरोंको मेरा दर्शन करानेके कारण पवित्र हो जायगा॥ २७॥

श्लोक-२८

विश्वास-प्रस्तुतिः

य एतच्छ्रद्धया नित्यमव्यग्रः शृणुयान्नरः।
मयि भक्तिं परां कुर्वन् कर्मभिर्न स बध्यते॥

मूलम्

य एतच्छ्रद्धया नित्यमव्यग्रः शृणुयान्नरः।
मयि भक्तिं परां कुर्वन् कर्मभिर्न स बध्यते॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो कोई एकाग्र चित्तसे इसे श्रद्धापूर्वक नित्य सुनेगा, उसे मेरी पराभक्ति प्राप्त होगी और वह कर्मबन्धनसे मुक्त हो जायगा॥ २८॥

श्लोक-२९

विश्वास-प्रस्तुतिः

अप्युद्धव त्वया ब्रह्म सखे समवधारितम्।
अपि ते विगतो मोहः शोकश्चासौ मनोभवः॥

मूलम्

अप्युद्धव त्वया ब्रह्म सखे समवधारितम्।
अपि ते विगतो मोहः शोकश्चासौ मनोभवः॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रिय सखे! तुमने भलीभाँति ब्रह्मका स्वरूप समझ लिया न? और तुम्हारे चित्तका मोह एवं शोक तो दूर हो गया न?॥ २९॥

श्लोक-३०

विश्वास-प्रस्तुतिः

नैतत्त्वया दाम्भिकाय नास्तिकाय शठाय च।
अशुश्रूषोरभक्ताय दुर्विनीताय दीयताम्॥

मूलम्

नैतत्त्वया दाम्भिकाय नास्तिकाय शठाय च।
अशुश्रूषोरभक्ताय दुर्विनीताय दीयताम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुम इसे दाम्भिक, नास्तिक, शठ, अश्रद्धालु, भक्तिहीन और उद्धत पुरुषको कभी मत देना॥ ३०॥

श्लोक-३१

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतैर्दोषैर्विहीनाय ब्रह्मण्याय प्रियाय च।
साधवे शुचये ब्रूयाद् भक्तिः स्याच्छूद्रयोषिताम्॥

मूलम्

एतैर्दोषैर्विहीनाय ब्रह्मण्याय प्रियाय च।
साधवे शुचये ब्रूयाद् भक्तिः स्याच्छूद्रयोषिताम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो इन दोषोंसे रहित हो, ब्राह्मणभक्त हो, प्रेमी हो, साधुस्वभाव हो और जिसका चरित्र पवित्र हो, उसीको यह प्रसंग सुनाना चाहिये। यदि शूद्र और स्त्री भी मेरे प्रति प्रेम-भक्ति रखते हों तो उन्हें भी इसका उपदेश करना चाहिये॥ ३१॥

श्लोक-३२

विश्वास-प्रस्तुतिः

नैतद् विज्ञाय जिज्ञासोर्ज्ञातव्यमवशिष्यते।
पीत्वा पीयूषममृतं पातव्यं नावशिष्यते॥

मूलम्

नैतद् विज्ञाय जिज्ञासोर्ज्ञातव्यमवशिष्यते।
पीत्वा पीयूषममृतं पातव्यं नावशिष्यते॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे दिव्य अमृतपान कर लेनेपर कुछ भी पीना शेष नहीं रहता, वैसे ही यह जान लेनेपर जिज्ञासुके लिये और कुछ भी जानना शेष नहीं रहता॥ ३२॥

श्लोक-३३

विश्वास-प्रस्तुतिः

ज्ञाने कर्मणि योगे च वार्तायां दण्डधारणे।
यावानर्थो नृणां तात तावांस्तेऽहं चतुर्विधः॥

मूलम्

ज्ञाने कर्मणि योगे च वार्तायां दण्डधारणे।
यावानर्थो नृणां तात तावांस्तेऽहं चतुर्विधः॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्यारे उद्धव! मनुष्योंको ज्ञान, कर्म, योग, वाणिज्य और राजदण्डादिसे क्रमशः मोक्ष, धर्म, काम और अर्थरूप फल प्राप्त होते हैं; परन्तु तुम्हारे-जैसे अनन्य भक्तोंके लिये वह चारों प्रकारका फल केवल मैं ही हूँ॥ ३३॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

ज्ञानकर्मादीनां यावानर्थः तावानर्थो नाम चतुर्विधः पुरुषार्थचतुष्टयादन्यत्प्रयोजनान्तरं नास्तीत्यर्थः ॥ ३३ ॥

श्लोक-३४

विश्वास-प्रस्तुतिः

मर्त्यो यदा त्यक्तसमस्तकर्मा
निवेदितात्मा विचिकीर्षितो मे।
तदामृतत्वं प्रतिपद्यमानो
मयाऽऽत्मभूयाय च कल्पते वै॥

मूलम्

मर्त्यो यदा त्यक्तसमस्तकर्मा
निवेदितात्मा विचिकीर्षितो मे।
तदामृतत्वं प्रतिपद्यमानो
मयाऽऽत्मभूयाय च कल्पते वै॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिस समय मनुष्य समस्त कर्मोंका परित्याग करके मुझे आत्मसमर्पण कर देता है, उस समय वह मेरा विशेष माननीय हो जाता है और मैं उसे उसके जीवत्वसे छुड़ाकर अमृतस्वरूप मोक्षकी प्राप्ति करा देता हूँ और वह मुझसे मिलकर मेरा स्वरूप हो जाता है॥ ३४॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

आत्मभूयाय आत्मभावाय भावश्च स्वभावः मत्साम्यायेत्यर्थः । यद्वा । आत्मशब्दः स्वभाववाची भूयाय शरीरसम्बन्धविरहेणावस्थानाय मोक्षायेत्यर्थः ॥ ३३-३५ ॥

श्लोक-३५

मूलम् (वचनम्)

श्रीशुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

स एवमादर्शितयोगमार्ग-
स्तदोत्तमश्लोकवचो निशम्य।
बद्धाञ्जलिः प्रीत्युपरुद्धकण्ठो
न किञ्चिदूचेऽश्रुपरिप्लुताक्षः॥

मूलम्

स एवमादर्शितयोगमार्ग-
स्तदोत्तमश्लोकवचो निशम्य।
बद्धाञ्जलिः प्रीत्युपरुद्धकण्ठो
न किञ्चिदूचेऽश्रुपरिप्लुताक्षः॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! अब उद्धवजी योगमार्गका पूरा-पूरा उपदेश प्राप्त कर चुके थे। भगवान् श्रीकृष्णकी बात सुनकर उनकी आँखोंमें आँसू उमड़ आये। प्रेमकी बाढ़से गला रुँध गया, चुपचाप हाथ जोड़े रह गये और वाणीसे कुछ बोला न गया॥ ३५॥

श्लोक-३६

विश्वास-प्रस्तुतिः

विष्टभ्य चित्तं प्रणयावघूर्णं
धैर्येण राजन् बहु मन्यमानः।
कृताञ्जलिः प्राह यदुप्रवीरं
शीर्ष्णा स्पृशंस्तच्चरणारविन्दम्॥

मूलम्

विष्टभ्य चित्तं प्रणयावघूर्णं
धैर्येण राजन् बहु मन्यमानः।
कृताञ्जलिः प्राह यदुप्रवीरं
शीर्ष्णा स्पृशंस्तच्चरणारविन्दम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनका चित्त प्रेमावेशसे विह्वल हो रहा था, उन्होंने धैर्यपूर्वक उसे रोका और अपनेको अत्यन्त सौभाग्यशाली अनुभव करते हुए सिरसे यदुवंशशिरोमणि भगवान् श्रीकृष्णके चरणोंको स्पर्श किया तथा हाथ जोड़कर उनसे यह प्रार्थना की॥ ३६॥

श्लोक-३७

मूलम् (वचनम्)

उद्धव उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

विद्रावितो मोहमहान्धकारो
य आश्रितो मे तव सन्निधानात्।
विभावसोः किं नु समीपगस्य
शीतं तमो भीः प्रभवन्त्यजाद्य॥

मूलम्

विद्रावितो मोहमहान्धकारो
य आश्रितो मे तव सन्निधानात्।
विभावसोः किं नु समीपगस्य
शीतं तमो भीः प्रभवन्त्यजाद्य॥

अनुवाद (हिन्दी)

उद्धवजीने कहा—प्रभो! आप माया और ब्रह्मा आदिके भी मूल कारण हैं। मैं मोहके महान् अन्धकारमें भटक रहा था। आपके सत्संगसे वह सदाके लिये भाग गया। भला, जो अग्निके पास पहुँच गया उसके सामने क्या शीत, अन्धकार और उसके कारण होनेवाला भय ठहर सकते हैं?॥ ३७॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

अन्धकारः किमागमिष्यतीति भावः ॥ ३६-३८ ॥

श्लोक-३८

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रत्यर्पितो मे भवतानुकम्पिना
भृत्याय विज्ञानमयः प्रदीपः।
हित्वा कृतज्ञस्तव पादमूलं
कोऽन्यत् समीयाच्छरणं त्वदीयम्॥

मूलम्

प्रत्यर्पितो मे भवतानुकम्पिना
भृत्याय विज्ञानमयः प्रदीपः।
हित्वा कृतज्ञस्तव पादमूलं
कोऽन्यत् समीयाच्छरणं त्वदीयम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवन्! आपकी मोहिनी मायाने मेरा ज्ञानदीपक छीन लिया था, परन्तु आपने कृपा करके वह फिर अपने सेवकको लौटा दिया। आपने मेरे ऊपर महान् अनुग्रहकी वर्षा की है। ऐसा कौन होगा, जो आपके इस कृपा-प्रसादका अनुभव करके भी आपके चरणकमलोंकी शरण छोड़ दे और किसी दूसरेका सहारा ले?॥ ३८॥

श्लोक-३९

विश्वास-प्रस्तुतिः

वृक्णश्च मे सुदृढः स्नेहपाशो
दाशार्हवृष्ण्यन्धकसात्वतेषु।
प्रसारितः सृष्टिविवृद्धये त्वया
स्वमायया ह्यात्मसुबोधहेतिना॥

मूलम्

वृक्णश्च मे सुदृढः स्नेहपाशो
दाशार्हवृष्ण्यन्धकसात्वतेषु।
प्रसारितः सृष्टिविवृद्धये त्वया
स्वमायया ह्यात्मसुबोधहेतिना॥

अनुवाद (हिन्दी)

आपने अपनी मायासे सृष्टिवृद्धिके लिये दाशार्ह, वृष्णि, अन्धक और सात्वतवंशी यादवोंके साथ मुझे सुदृढ़ स्नेह-पाशसे बाँध दिया था। आज आपने आत्मबोधकी तीखी तलवारसे उस बन्धनको अनायास ही काट डाला॥ ३९॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

अयं प्रसारितः स्नेहपाशः आत्मसुबोध हेतिना आत्मज्ञानशस्त्रेण वृक्णः छिन्नः ॥ ३९-४१ ॥

श्लोक-४०

विश्वास-प्रस्तुतिः

नमोऽस्तु ते महायोगिन् प्रपन्नमनुशाधि माम्।
यथा त्वच्चरणाम्भोजे रतिः स्यादनपायिनी॥

मूलम्

नमोऽस्तु ते महायोगिन् प्रपन्नमनुशाधि माम्।
यथा त्वच्चरणाम्भोजे रतिः स्यादनपायिनी॥

अनुवाद (हिन्दी)

महायोगेश्वर! मेरा आपको नमस्कार है। अब आप कृपा करके मुझ शरणागतको ऐसी आज्ञा दीजिये, जिससे आपके चरणकमलोंमें मेरी अनन्य भक्ति बनी रहे॥ ४०॥

श्लोक-४१

मूलम् (वचनम्)

श्रीभगवानुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

गच्छोद्धव मयाऽऽदिष्टो बदर्याख्यं ममाश्रमम्।
तत्र मत्पादतीर्थोदे स्नानोपस्पर्शनैः शुचिः॥

मूलम्

गच्छोद्धव मयाऽऽदिष्टो बदर्याख्यं ममाश्रमम्।
तत्र मत्पादतीर्थोदे स्नानोपस्पर्शनैः शुचिः॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् श्रीकृष्णने कहा—उद्धवजी! अब तुम मेरी आज्ञासे बदरीवनमें चले जाओ। वह मेरा ही आश्रम है। वहाँ मेरे चरणकमलोंके धोवन गंगाजलका स्नानपानके द्वारा सेवन करके तुम पवित्र हो जाओगे॥ ४१॥

श्लोक-४२

विश्वास-प्रस्तुतिः

ईक्षयालकनन्दाया विधूताशेषकल्मषः।
वसानो वल्कलान्यङ्ग वन्यभुक् सुखनिःस्पृहः॥

मूलम्

ईक्षयालकनन्दाया विधूताशेषकल्मषः।
वसानो वल्कलान्यङ्ग वन्यभुक् सुखनिःस्पृहः॥

अनुवाद (हिन्दी)

अलकनन्दाके दर्शनमात्रसे तुम्हारे सारे पाप-ताप नष्ट हो जायँगे। प्रिय उद्धव! तुम वहाँ वृक्षोंकी छाल पहनना, वनके कन्द-मूल-फल खाना और किसी भोगकी अपेक्षा न रखकर निःस्पृह-वृत्तिसे अपने-आपमें मस्त रहना॥ ४२॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

अलकनन्दात्र गङ्गा ॥४२-४३ ॥

श्लोक-४३

विश्वास-प्रस्तुतिः

तितिक्षुर्द्वन्द्वमात्राणां सुशीलः संयतेन्द्रियः।
शान्तः समाहितधिया ज्ञानविज्ञानसंयुतः॥

मूलम्

तितिक्षुर्द्वन्द्वमात्राणां सुशीलः संयतेन्द्रियः।
शान्तः समाहितधिया ज्ञानविज्ञानसंयुतः॥

अनुवाद (हिन्दी)

सर्दी-गरमी, सुख-दुःख—जो कुछ आ पड़े, उसे सम रहकर सहना। स्वभाव सौम्य रखना, इन्द्रियोंको वशमें रखना। चित्त शान्त रहे। बुद्धि समाहित रहे और तुम स्वयं मेरे स्वरूपके ज्ञान और अनुभवमें डूबे रहना॥ ४३॥

श्लोक-४४

विश्वास-प्रस्तुतिः

मत्तोऽनुशिक्षितं यत्ते विविक्तमनुभावयन्।
मय्यावेशितवाक्चित्तो मद्धर्मनिरतो भव।
अतिव्रज्य गतीस्तिस्रो मामेष्यसि ततः परम्॥

मूलम्

मत्तोऽनुशिक्षितं यत्ते विविक्तमनुभावयन्।
मय्यावेशितवाक्चित्तो मद्धर्मनिरतो भव।
अतिव्रज्य गतीस्तिस्रो मामेष्यसि ततः परम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैंने तुम्हें जो कुछ शिक्षा दी है, उसका एकान्तमें विचारपूर्वक अनुभव करते रहना। अपनी वाणी और चित्त मुझमें ही लगाये रहना और मेरे बतलाये हुए भागवतधर्ममें प्रेमसे रम जाना। अन्तमें तुम त्रिगुण और उनसे सम्बन्ध रखनेवाली गतियोंको पार करके उनसे परे मेरे परमार्थस्वरूपमें मिल जाओगे॥ ४४॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

तिस्रो गतीः साविकराजसतामसीः ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्था इत्याद्युक्ताः ॥ ४४-४६ ॥

श्लोक-४५

मूलम् (वचनम्)

श्रीशुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

स एवमुक्तो हरिमेधसोद्धवः
प्रदक्षिणं तं परिसृत्य पादयोः।
शिरो निधायाश्रुकलाभिरार्द्रधी-
र्न्यषिञ्चदद्वन्द्वपरोऽप्यपक्रमे॥

मूलम्

स एवमुक्तो हरिमेधसोद्धवः
प्रदक्षिणं तं परिसृत्य पादयोः।
शिरो निधायाश्रुकलाभिरार्द्रधी-
र्न्यषिञ्चदद्वन्द्वपरोऽप्यपक्रमे॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्णके स्वरूपका ज्ञान संसारके भेदभ्रमको छिन्न-भिन्न कर देता है। जब उन्होंने स्वयं उद्धवजीको ऐसा उपदेश किया तो उन्होंने उनकी परिक्रमा की और उनके चरणोंपर सिर रख दिया। इसमें सन्देह नहीं कि उद्धवजी संयोग-वियोगसे होनेवाले सुख-दुःखके जोड़ेसे परे थे, क्योंकि वे भगवान‍्के निर्द्वन्द्व चरणोंकी शरण ले चुके थे; फिर भी वहाँसे चलते समय उनका चित्त प्रेमावेशसे भर गया। उन्होंने अपने नेत्रोंकी झरती हुई अश्रुधारासे भगवान‍्के चरणकमलोंको भिगो दिया॥ ४५॥

श्लोक-४६

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुदुस्त्यजस्नेहवियोगकातरो
न शक्नुवंस्तं परिहातुमातुरः।
कृच्छ्रं ययौ मूर्धनि भर्तृपादुके
बिभ्रन्नमस्कृत्य ययौ पुनः पुनः॥

मूलम्

सुदुस्त्यजस्नेहवियोगकातरो
न शक्नुवंस्तं परिहातुमातुरः।
कृच्छ्रं ययौ मूर्धनि भर्तृपादुके
बिभ्रन्नमस्कृत्य ययौ पुनः पुनः॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! भगवान‍्के प्रति प्रेम करके उसका त्याग करना सम्भव नहीं है। उन्हींके वियोगकी कल्पनासे उद्धवजी कातर हो गये, उनका त्याग करनेमें समर्थ न हुए। बार-बार विह्वल होकर मूर्च्छित होने लगे। कुछ समयके बाद उन्होंने भगवान् श्रीकृष्णके चरणोंकी पादुकाएँ अपने सिरपर रख लीं और बार-बार भगवान‍्के चरणोंमें प्रणाम करके वहाँसे प्रस्थान किया॥ ४६॥

श्लोक-४७

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्तमन्तर्हृदि संनिवेश्य
गतो महाभागवतो विशालाम्।
यथोपदिष्टां जगदेकबन्धुना
तपः समास्थाय हरेरगाद् गतिम्॥

मूलम्

ततस्तमन्तर्हृदि संनिवेश्य
गतो महाभागवतो विशालाम्।
यथोपदिष्टां जगदेकबन्धुना
तपः समास्थाय हरेरगाद् गतिम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान‍्के परमप्रेमी भक्त उद्धवजी हृदयमें उनकी दिव्य छबि धारण किये बदरिकाश्रम पहुँचे और वहाँ उन्होंने तपोमय जीवन व्यतीत करके जगत‍्के एकमात्र हितैषी भगवान् श्रीकृष्णके उपदेशानुसार उनकी स्वरूपभूत परमगति प्राप्त की॥ ४७॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

विशालां बदरीम् अनात्मकमिति पाठे अगात् अनुध्यादित्यर्थः ॥ ४७ ॥

श्लोक-४८

विश्वास-प्रस्तुतिः

य एतदानन्दसमुद्रसम्भृतं
ज्ञानामृतं भागवताय भाषितम्।
कृष्णेन योगेश्वरसेविताङ्घ्रिणा
सच्छ्रद्धयाऽऽसेव्य जगद् विमुच्यते॥

मूलम्

य एतदानन्दसमुद्रसम्भृतं
ज्ञानामृतं भागवताय भाषितम्।
कृष्णेन योगेश्वरसेविताङ्घ्रिणा
सच्छ्रद्धयाऽऽसेव्य जगद् विमुच्यते॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् शंकर आदि योगेश्वर भी सच्चिदानन्दस्वरूप भगवान् श्रीकृष्णके चरणोंकी सेवा किया करते हैं। उन्होंने स्वयं श्रीमुखसे अपने परमप्रेमी भक्त उद्धवके लिये इस ज्ञानामृतका वितरण किया। यह ज्ञानामृत आनन्दमहासागरका सार है। जो श्रद्धाके साथ इसका सेवन करता है, वह तो मुक्त हो ही जाता है, उसके संगसे सारा जगत् मुक्त हो जाता है॥ ४८॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

य एतदिति । यः कश्चिदित्यर्थः यद्वा यः स्वदते स आसेव्यमुच्यते इत्यन्वयः ॥ ४८-४९ ॥

इति श्रीमद्भागवतव्याख्याने एकादशस्कन्धीये श्रीसुदर्शनसूरिकृतशुकपक्षीये एकोनत्रिंशोऽध्यायः ॥ २९ ॥

श्लोक-४९

विश्वास-प्रस्तुतिः

भवभयमपहन्तुं ज्ञानविज्ञानसारं
निगमकृदुपजह्रे भृङ्गवद् वेदसारम्।
अमृतमुदधितश्चापाययद् भृत्यवर्गान्
पुरुषमृषभमाद्यं कृष्णसंज्ञं नतोऽस्मि॥

मूलम्

भवभयमपहन्तुं ज्ञानविज्ञानसारं
निगमकृदुपजह्रे भृङ्गवद् वेदसारम्।
अमृतमुदधितश्चापाययद् भृत्यवर्गान्
पुरुषमृषभमाद्यं कृष्णसंज्ञं नतोऽस्मि॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! जैसे भौंरा विभिन्न पुष्पोंसे उनका सार-सार मधु संग्रह कर लेता है, वैसे ही स्वयं वेदोंको प्रकाशित करनेवाले भगवान् श्रीकृष्णने भक्तोंको संसारसे मुक्त करनेके लिये यह ज्ञान और विज्ञानका सार निकाला है। उन्हींने जरा-रोगादि भयकी निवृत्तिके लिये क्षीर-समुद्रसे अमृत भी निकाला था तथा इन्हें क्रमशः अपने निवृत्तिमार्गी और प्रवृत्तिमार्गी भक्तोंको पिलाया, वे ही पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण सारे जगत‍्के मूल कारण हैं। मैं उनके चरणोंमें नमस्कार करता हूँ॥ ४९॥

अनुवाद (समाप्ति)

इति श्रीमद‍्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायामेकादशस्कन्धे एकोनत्रिंशोऽध्यायः॥ २९॥