२८

[अष्टाविंशोऽध्यायः]

भागसूचना

परमार्थनिरूपण

श्लोक-१

मूलम् (वचनम्)

श्रीभगवानुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

परस्वभावकर्माणि न प्रशंसेन्न गर्हयेत्।
विश्वमेकात्मकं पश्यन् प्रकृत्या पुरुषेण च॥

मूलम्

परस्वभावकर्माणि न प्रशंसेन्न गर्हयेत्।
विश्वमेकात्मकं पश्यन् प्रकृत्या पुरुषेण च॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं—उद्धवजी! यद्यपि व्यवहारमें पुरुष और प्रकृति—द्रष्टा और दृश्यके भेदसे दो प्रकारका जगत् जान पड़ता है, तथापि परमार्थदृष्टिसे देखनेपर यह सब एक अधिष्ठान-स्वरूप ही है; इसलिये किसीके शान्त, घोर और मूढ़ स्वभाव तथा उनके अनुसार कर्मोंकी न स्तुति करनी चाहिये और न निन्दा। सर्वदा अद्वैत-दृष्टि रखनी चाहिये॥ १॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

भगवदन्तर्यामिकं पश्येत् अन्यथा प्रकृतिपुरुषयोः परस्परपूर्णत्वेन द्वयात्मकत्वमेव स्यात् नत्वेवं द्वयात्मकत्वं भगवदात्मकत्वज्ञानेन रागद्वेषनिवृत्त्या स्तुतिनिन्दानिवृत्तिः ॥ १ ॥

श्लोक-२

विश्वास-प्रस्तुतिः

परस्वभावकर्माणि यः प्रशंसति निन्दति।
स आशु भ्रश्यते स्वार्थादसत्यभिनिवेशतः॥

मूलम्

परस्वभावकर्माणि यः प्रशंसति निन्दति।
स आशु भ्रश्यते स्वार्थादसत्यभिनिवेशतः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो पुरुष दूसरोंके स्वभाव और उनके कर्मोंकी प्रशंसा अथवा निन्दा करते हैं, वे शीघ्र ही अपने यथार्थ परमार्थ-साधनसे च्युत हो जाते हैं; क्योंकि साधन तो द्वैतके अभिनिवेशका—उसके प्रति सत्यत्व-बुद्धिका निषेध करता है और प्रशंसा तथा निन्दा उसकी सत्यताके भ्रमको और भी दृढ़ करती हैं॥ २॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

असत्याभिनिवेशतः सत्यं भूतहितम् अहिताभिनिवेशत इत्यर्थः । यद्वा देहगतगुणदोषाणामात्मन्यारोपणादसत्यभिनिवेशेन विश्वमिति प्रकृत्या पुरुषेण च युक्तं चिदचिन्मिश्रप्रपञ्चमेकात्मकं पश्येत् एक ईश्वरः ॥ २ ॥

श्लोक-३

विश्वास-प्रस्तुतिः

तैजसे निद्रयाऽऽपन्ने पिण्डस्थो नष्टचेतनः।
मायां प्राप्नोति मृत्युं वा तद्वन्नानार्थदृक् पुमान्॥

मूलम्

तैजसे निद्रयाऽऽपन्ने पिण्डस्थो नष्टचेतनः।
मायां प्राप्नोति मृत्युं वा तद्वन्नानार्थदृक् पुमान्॥

अनुवाद (हिन्दी)

उद्धवजी! सभी इन्द्रियाँ राजस अहंकारके कार्य हैं। जब वे निद्रित हो जाती हैं तब शरीरका अभिमानी जीव चेतनाशून्य हो जाता है; अर्थात् उसे बाहरी शरीरकी स्मृति नहीं रहती। उस समय यदि मन बच रहा, तब तो वह सपनेके झूठे दृश्योंमें भटकने लगता है और वह भी लीन हो गया, तब तो जीव मृत्युके समान गाढ़ निद्रा—सुषुप्तिमें लीन हो जाता है। वैसे ही जब जीव अपने अद्वितीय आत्मस्वरूपको भूलकर नाना वस्तुओंका दर्शन करने लगता है तब वह स्वप्नके समान झूठे दृश्योंमें फँस जाता है; अथवा मृत्युके समान अज्ञानमें लीन हो जाता है॥ ३॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

देहात्माभिमानी प्रबुद्धोऽप्यज्ञः सुप्तप्राय इत्याह । तैजस इति । तैजसशब्दोऽहङ्कारकार्ये देहात्माभिमानं लक्षणया वर्त्तते आपन्नः विनष्टः पिण्डस्थो जीवः नष्टचेतनः सन् ज्ञानलोप हेतुतया मृत्युतुल्यां मायां सूक्ष्मरूपां प्रकृतिं प्राप्नोति प्रकृत्या तिरोहितो भवति नानार्थदृक् देहात्माभिमानी पुरुषः प्रबुद्धोऽपि तद्वत् तत्त्वज्ञानविरहात्सुप्तकल्प इत्यर्थः ॥ ३ ॥

श्लोक-४

विश्वास-प्रस्तुतिः

किं भद्रं किमभद्रं वा द्वैतस्यावस्तुनः कियत्।
वाचोदितं तदनृतं मनसा ध्यातमेव च॥

मूलम्

किं भद्रं किमभद्रं वा द्वैतस्यावस्तुनः कियत्।
वाचोदितं तदनृतं मनसा ध्यातमेव च॥

अनुवाद (हिन्दी)

उद्धवजी! जब द्वैत नामकी कोई वस्तु ही नहीं है, तब उसमें अमुक वस्तु भली है और अमुक बुरी, अथवा इतनी भली और इतनी बुरी है—यह प्रश्न ही नहीं उठ सकता। विश्वकी सभी वस्तुएँ वाणीसे कही जा सकती हैं अथवा मनसे सोची जा सकती हैं; इसलिये दृश्य एवं अनित्य होनेके कारण उनका मिथ्यात्व तो स्पष्ट ही है॥ ४॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

किं भद्रमिति । अवस्तुनो द्वैतस्यात्मवस्तुव्यतिरिक्तत्वाविशेषात् देवादिभेदस्य किं कियद्भद्रं देवशरीराद्यभिमानस्य भ्रान्तिरूपत्वाविशेषेण न भद्रत्वम् अभद्रत्वमित्यर्थः । वाचोदितं मनसा ध्यातम् अहमभिमानं च यह वादिशरीरमनृतं देहगतदेवत्वादिकमात्मन्यसत्यमिति वार्थः ॥ ४ ॥

श्लोक-५

विश्वास-प्रस्तुतिः

छायाप्रत्याह्वयाभासा ह्यसन्तोऽप्यर्थकारिणः।
एवं देहादयो भावा यच्छन्त्यामृत्युतो भयम्॥

मूलम्

छायाप्रत्याह्वयाभासा ह्यसन्तोऽप्यर्थकारिणः।
एवं देहादयो भावा यच्छन्त्यामृत्युतो भयम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

परछाईं, प्रतिध्वनि और सीपी आदिमें चाँदी आदिके आभास यद्यपि हैं तो सर्वथा मिथ्या, परन्तु उनके द्वारा मनुष्यके हृदयमें भय-कम्प आदिका संचार हो जाता है। वैसे ही देहादि सभी वस्तुएँ हैं तो सर्वथा मिथ्या ही, परन्तु जबतक ज्ञानके द्वारा इनकी असत्यताका बोध नहीं हो जाता, इनकी आत्यन्तिक निवृत्ति नहीं हो जाती, तबतक ये भी अज्ञानियोंको भयभीत करती रहती हैं॥ ५॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

अयथावत् गृह्यमाणानामेव देहादीनां भयहेतुत्वं न यथावत् गृह्यमाणानामित्युपपादयति । छायेति । छाया राक्षसत्वेन प्रतीयमाना भयहेतुः नत्वनात्मत्वेनानात्मीयत्वेन च प्रतीयमाना इत्यर्थः ॥ ५ ॥

श्लोक-६

विश्वास-प्रस्तुतिः

आत्मैव तदिदं विश्वं सृज्यते सृजति प्रभुः।
त्रायते त्राति विश्वात्मा ह्रियते हरतीश्वरः॥

मूलम्

आत्मैव तदिदं विश्वं सृज्यते सृजति प्रभुः।
त्रायते त्राति विश्वात्मा ह्रियते हरतीश्वरः॥

अनुवाद (हिन्दी)

उद्धवजी! जो कुछ प्रत्यक्ष या परोक्ष वस्तु है, वह आत्मा ही है। वही सर्वशक्तिमान् भी है। जो कुछ विश्व-सृष्टि प्रतीत हो रही है, इसका वह निमित्त-कारण तो है ही, उपादान-कारण भी है। अर्थात् वही विश्व बनता है और वही बनाता भी है, वही रक्षक है और रक्षित भी वही है। सर्वात्मा भगवान् ही इसका संहार करते हैं और जिसका संहार होता है, वह भी वे ही हैं॥ ६॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

एवं स्तुतिनिन्दाद्देतुभूतरागद्वेषाभावाय चिदचिदात्मके प्रपञ्चे चिदचिद्भेदमुक्त्वा कृत्स्नस्य भगवदात्मकत्वं भगवतः सर्वविधकारणत्वं च प्रतिपादयति । आत्मैवेति । आत्मा परमात्मा सृज्यते सृजतीति उपादानत्वं निमित्तत्वं च दर्शितम् ॥ ६ ॥

श्लोक-७

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मान्न ह्यात्मनोऽन्यस्मादन्यो भावो निरूपितः।
निरूपितेयं त्रिविधा निर्मूला भातिरात्मनि।
इदं गुणमयं विद्धि त्रिविधं मायया कृतम्॥

मूलम्

तस्मान्न ह्यात्मनोऽन्यस्मादन्यो भावो निरूपितः।
निरूपितेयं त्रिविधा निर्मूला भातिरात्मनि।
इदं गुणमयं विद्धि त्रिविधं मायया कृतम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

अवश्य ही व्यवहारदृष्टिसे देखनेपर आत्मा इस विश्वसे भिन्न है; परन्तु आत्मदृष्टिसे उसके अतिरिक्त और कोई वस्तु ही नहीं है। उसके अतिरिक्त जो कुछ प्रतीत हो रहा है, उसका किसी भी प्रकार निर्वचन नहीं किया जा सकता और अनिर्वचनीय तो केवल आत्मस्वरूप ही है; इसलिये आत्मामें सृष्टि-स्थिति-संहार अथवा अध्यात्म, अधिदैव और अधिभूत—ये तीन-तीन प्रकारकी प्रतीतियाँ सर्वथा निर्मूल ही हैं। न होनेपर भी यों ही प्रतीत हो रही हैं। यह सत्त्व, रज और तमके कारण प्रतीत होनेवाली द्रष्टा-दर्शन-दृश्य आदिकी त्रिविधता मायाका खेल है॥ ७॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

तस्मान्नहीति । अब्रह्मात्मकं वस्तु न प्रामाणिक मित्यर्थः । त्रिविधा समवाय्यसमवायिनिमित्तरूपकारण भेदविषया मतिरात्मनि परमात्मनि मूलप्रमाणशून्या तस्यैव सर्वविध कारणत्वादित्यर्थः । परमात्मन एवोपादानत्वे तस्य गुणत्रयकालुष्यव्यावृत्त्यर्थमाह । इदं गुणमयमिति । गुणमयं सर्वं मायया कृतं प्रकृतिपरिणामरूपं परमात्मस्वरूपे प्रकारिणि मयि कृतमित्यर्थः । शरीरभूतचिदचिद्रता गुणत्रयतद्वश्यत्वादिदोषाः परमात्मानं न स्पृशन्तीत्यभिप्रायः ज्ञानविज्ञाननैपुणं प्रकृत्यात्मविवेकज्ञानं ब्रह्मात्मकत्व विज्ञानकौशलम् ॥ ७-८ ॥

श्लोक-८

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतद् विद्वान् मदुदितं ज्ञानविज्ञाननैपुणम्।
न निन्दति न च स्तौति लोके चरति सूर्यवत्॥

मूलम्

एतद् विद्वान् मदुदितं ज्ञानविज्ञाननैपुणम्।
न निन्दति न च स्तौति लोके चरति सूर्यवत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

उद्धवजी! तुमसे मैंने ज्ञान और विज्ञानकी उत्तम स्थितिका वर्णन किया है। जो पुरुष मेरे इन वचनोंका रहस्य जान लेता है वह न तो किसीकी प्रशंसा करता है और न निन्दा। वह जगत‍्में सूर्यके समान समभावसे विचरता रहता है॥ ८॥

श्लोक-९

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रत्यक्षेणानुमानेन निगमेनात्मसंविदा।
आद्यन्तवदसज्ज्ञात्वा निःसङ्गो विचरेदिह॥

मूलम्

प्रत्यक्षेणानुमानेन निगमेनात्मसंविदा।
आद्यन्तवदसज्ज्ञात्वा निःसङ्गो विचरेदिह॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रत्यक्ष, अनुमान, शास्त्र और आत्मानुभूति आदि सभी प्रमाणोंसे यह सिद्ध है कि यह जगत् उत्पत्ति-विनाशशील होनेके कारण अनित्य एवं असत्य है। यह बात जानकर जगत‍्में असंगभावसे विचरना चाहिये॥ ९॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

प्रत्यक्षेण छिन्नानां देहस्याङ्गुल्याद्यवयवानामनात्मत्वं प्रत्यक्षम् एवमेवेत्यनुमानव दवयवान्तराणामनात्मत्वसिद्धिः न जायते म्रियते इत्यादिनिंगमः देहस्यावस्थाभेदे सति अहमित्येक रूपात्मानुभवश्च देहस्यानात्मत्वे हेतुः ॥ ९ ॥

श्लोक-१०

मूलम् (वचनम्)

उद्धव उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

नैवात्मनो न देहस्य संसृतिर्द्रष्टृदृश्ययोः।
अनात्मस्वदृशोरीश कस्य स्यादुपलभ्यते॥

मूलम्

नैवात्मनो न देहस्य संसृतिर्द्रष्टृदृश्ययोः।
अनात्मस्वदृशोरीश कस्य स्यादुपलभ्यते॥

अनुवाद (हिन्दी)

उद्धवजीने पूछा—भगवन्! आत्मा है द्रष्टा और देह है दृश्य। आत्मा स्वयंप्रकाश है और देह है जड। ऐसी स्थितिमें जन्म-मृत्युरूप संसार न शरीरको हो सकता है और न आत्माको। परन्तु इसका होना भी उपलब्ध होता है। तब यह होता किसे है?॥ १०॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

अनात्मस्वदृशोः देहात्मनोः ॥ १० ॥

श्लोक-११

विश्वास-प्रस्तुतिः

आत्माव्ययोऽगुणः शुद्धः स्वयंज्योतिरनावृतः।
अग्निवद्दारुवदचिद्देहः कस्येह संसृतिः॥

मूलम्

आत्माव्ययोऽगुणः शुद्धः स्वयंज्योतिरनावृतः।
अग्निवद्दारुवदचिद्देहः कस्येह संसृतिः॥

अनुवाद (हिन्दी)

आत्मा तो अविनाशी, प्राकृत-अप्राकृत गुणोंसे रहित, शुद्ध, स्वयंप्रकाश और सभी प्रकारके आवरणोंसे रहित है; तथा शरीर विनाशी, सगुण, अशुद्ध, प्रकाश्य और आवृत है। आत्मा अग्निके समान प्रकाशमान है तो शरीर काठकी तरह अचेतन। फिर यह जन्म-मृत्युरूप संसार है किसे?॥ ११॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

अभिप्रेतं विवृणोति । आत्माव्यय इति आत्मस्वरूपस्य परिशुद्धत्वेन शास्त्रैरुपदिष्टत्वात् सुखदुःखानुभवरूपस्य संसारोऽनुपपन्नः देहस्याचित्वान्न दुःखानुभवः तत्कस्थ संसार इत्यर्थः ॥ ११ ॥

श्लोक-१२

मूलम् (वचनम्)

श्रीभगवानुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यावद् देहेन्द्रियप्राणैरात्मनः सन्निकर्षणम्।
संसारः फलवांस्तावदपार्थोऽप्यविवेकिनः॥

मूलम्

यावद् देहेन्द्रियप्राणैरात्मनः सन्निकर्षणम्।
संसारः फलवांस्तावदपार्थोऽप्यविवेकिनः॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् श्रीकृष्णने कहा—वस्तुतः प्रिय उद्धव! संसारका अस्तित्व नहीं है तथापि जबतक देह, इन्द्रिय और प्राणोंके साथ आत्माकी सम्बन्ध-भ्रान्ति है तबतक अविवेकी पुरुषको वह सत्य-सा स्फुरित होता है॥ १२॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

स्वतः शुद्धस्यात्मनः प्रकृतिसम्बन्धेनाशुद्धत्वात्संसार इति परिहरति । यावदिति । सन्निकर्षणं सन्निकर्षः संसर्गः अपार्थोऽपि आत्मनि स्वत एवाविद्यमानोऽपि अविवेकतः अहङ्कारममकारकृतपुण्यपापाधीनप्रकृतिसम्बन्धात्संसार इत्यभिप्रायः अविद्यासञ्चितं कर्मेति वचनान्तरादविवेकस्य प्रकृतिसम्बन्धहेतुत्वं कर्मद्वारा ॥ १२ ॥

श्लोक-१३

विश्वास-प्रस्तुतिः

अर्थे ह्यविद्यमानेऽपि संसृतिर्न निवर्तते।
ध्यायतो विषयानस्य स्वप्नेऽनर्थागमो यथा॥

मूलम्

अर्थे ह्यविद्यमानेऽपि संसृतिर्न निवर्तते।
ध्यायतो विषयानस्य स्वप्नेऽनर्थागमो यथा॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे स्वप्नमें अनेकों विपत्तियाँ आती हैं पर वास्तवमें वे हैं नहीं, फिर भी स्वप्न टूटनेतक उनका अस्तित्व नहीं मिटता, वैसे ही संसारके न होनेपर भी जो उसमें प्रतीत होनेवाले विषयोंका चिन्तन करते रहते हैं, उनके जन्म-मृत्युरूप संसारकी निवृत्ति नहीं होती॥ १३॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

अर्थे हीति । देवत्वाद्याकारे आत्मन्यविद्यमानेऽपि स्थूलोऽहमित्याद्यभ्यासात्संसारः विषयान् ध्यायतः पूर्वानुभवसंस्कारतः स्वप्ने स्वाप्नदेहस्यानात्मत्वं सम्प्रतिपन्नं तथापि तस्यात्मन्यध्यासात्तादात्विक दुःखानुभवस्तद्वदित्यर्थः ॥ १३ ॥

श्लोक-१४

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा ह्यप्रतिबुद्धस्य प्रस्वापो बह्वनर्थभृत्।
स एव प्रतिबुद्धस्य न वै मोहाय कल्पते॥

मूलम्

यथा ह्यप्रतिबुद्धस्य प्रस्वापो बह्वनर्थभृत्।
स एव प्रतिबुद्धस्य न वै मोहाय कल्पते॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब मनुष्य स्वप्न देखता रहता है, तब नींद टूटनेके पहले उसे बड़ी-बड़ी विपत्तियोंका सामना करना पड़ता है; परन्तु जब उसकी नींद टूट जाती है, वह जग पड़ता है, तब न तो स्वप्नकी विपत्तियाँ रहती हैं और न उनके कारण होनेवाले मोह आदि विकार॥ १४॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

प्रबोधदशायां स्वप्नदेहस्यानात्मत्वसंप्रतिपत्तिं तद्देहापगमेन तदभिमानप्रयुक्तदुःखाभावं च दर्शयति । यथाहीति । प्रस्वापशब्दः स्वप्नपरः देहात्माभिमानद्वारा बह्वनर्थकृत्त्वं विवक्षितं न मोहाय कल्पते आत्माभिमानप्रयुक्तानथय न प्रकल्पत इति भावः ॥ १४ ॥

श्लोक-१५

विश्वास-प्रस्तुतिः

शोकहर्षभयक्रोधलोभमोहस्पृहादयः।
अहङ्कारस्य दृश्यन्ते जन्म मृत्युश्च नात्मनः॥

मूलम्

शोकहर्षभयक्रोधलोभमोहस्पृहादयः।
अहङ्कारस्य दृश्यन्ते जन्म मृत्युश्च नात्मनः॥

अनुवाद (हिन्दी)

उद्धवजी! अहंकार ही शोक, हर्ष, भय, क्रोध, लोभ, मोह, स्पृहा और जन्म-मृत्युका शिकार बनता है। आत्मासे तो इनका कोई सम्बन्ध ही नहीं है॥ १५॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

अहङ्कारस्य दृश्यन्ते इत्युपचारात् व्यपदेशः दुःखाज्ञानमलाः धर्माः प्रकृतेस्ते नचात्मन इतिवत् अनात्मन्यात्माभिमानप्रयुक्ताः शोकादयः न त्वात्मनः स्वाभाविका इत्यर्थः ॥ १५ ॥

श्लोक-१६

विश्वास-प्रस्तुतिः

देहेन्द्रियप्राणमनोऽभिमानो
जीवोऽन्तरात्मा गुणकर्ममूर्तिः।
सूत्रं महानित्युरुधेव गीतः
संसार आधावति कालतन्त्रः॥

मूलम्

देहेन्द्रियप्राणमनोऽभिमानो
जीवोऽन्तरात्मा गुणकर्ममूर्तिः।
सूत्रं महानित्युरुधेव गीतः
संसार आधावति कालतन्त्रः॥

अनुवाद (हिन्दी)

उद्धवजी! देह, इन्द्रिय, प्राण और मनमें स्थित आत्मा ही जब उनका अभिमान कर बैठता है—उन्हें अपना स्वरूप मान लेता है—तब उसका नाम ‘जीव’ हो जाता है। उस सूक्ष्मातिसूक्ष्म आत्माकी मूर्ति है—गुण और कर्मोंका बना हुआ लिंगशरीर। उसे ही कहीं सूत्रात्मा कहा जाता है और कहीं महत्तत्त्व। उसके और भी बहुत-से नाम हैं। वही कालरूप परमेश्वरके अधीन होकर जन्म-मृत्युरूप संसारमें इधर-उधर भटकता रहता है॥ १६॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

संसारस्य हेतुत्वे अहंकारस्य प्राधान्यमुक्तं संसृतिहेतून सङ्कलय्य दर्शयति । देहेन्द्रियेति । अभिमानः अनात्मन्यात्मबुद्धिः जीवस्य संसृतिहेतुत्वं कर्मानुष्ठातृतया अन्तरात्मा परमात्मा तस्य संसृतिहेतुत्वं कर्मफलप्रदातृतया गुणकर्ममूर्तिः गुणाश्च कर्माणि च मूर्तिवद्यस्य विधेयानि स गुणकर्ममूर्तिरिति अन्तरात्म विशेषणं गुणकर्म मूर्तीति पाठे गुणाश्च कर्माणि च मूर्तिश्च गुणकर्ममूर्त्तिः मूर्त्तिशब्दो मनुष्यत्वादिजातिपरः देहस्य प्रथममुक्तत्वात् सूत्रं महान् सूत्रभूताहंकारादिकार्यत्वाच्च धारकभूतो महान् ॥ १६ ॥

श्लोक-१७

विश्वास-प्रस्तुतिः

अमूलमेतद् बहुरूपरूपितं
मनोवचःप्राणशरीरकर्म।
ज्ञानासिनोपासनया शितेन-
च्छित्त्वा मुनिर्गां विचरत्यतृष्णः॥

मूलम्

अमूलमेतद् बहुरूपरूपितं
मनोवचःप्राणशरीरकर्म।
ज्ञानासिनोपासनया शितेन-
च्छित्त्वा मुनिर्गां विचरत्यतृष्णः॥

अनुवाद (हिन्दी)

वास्तवमें मन, वाणी, प्राण और शरीर अहंकारके ही कार्य हैं। यह है तो निर्मूल, परन्तु देवता, मनुष्य आदि अनेक रूपोंमें इसीकी प्रतीति होती है। मननशील पुरुष उपासनाकी शानपर चढ़ाकर ज्ञानकी तलवारको अत्यन्त तीखी बना लेता है और उसके द्वारा देहाभिमानका—अहंकारका मूलोच्छेद करके पृथ्वीमें निर्द्वन्द्व होकर विचरता है। फिर उसमें किसी प्रकारकी आशा-तृष्णा नहीं रहती॥ १७॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

मनावचः प्राणशरीरकर्म मनआदिभिः कृतं कर्म ज्ञानासिना छित्त्वा अमूलमिति छिदिक्रियाविशेषणममूलं यथा भवति तथा छित्त्वेत्यर्थः ॥ १७ ॥

श्लोक-१८

विश्वास-प्रस्तुतिः

ज्ञानं विवेको निगमस्तपश्च
प्रत्यक्षमैतिह्यमथानुमानम्।
आद्यन्तयोरस्य यदेव केवलं
कालश्च हेतुश्च तदेव मध्ये॥

मूलम्

ज्ञानं विवेको निगमस्तपश्च
प्रत्यक्षमैतिह्यमथानुमानम्।
आद्यन्तयोरस्य यदेव केवलं
कालश्च हेतुश्च तदेव मध्ये॥

अनुवाद (हिन्दी)

आत्मा और अनात्माके स्वरूपको पृथक्-पृथक् भलीभाँति समझ लेना ही ज्ञान है, क्योंकि विवेक होते ही द्वैतका अस्तित्व मिट जाता है। उसका साधन है तपस्याके द्वारा हृदयको शुद्ध करके वेदादि शास्त्रोंका श्रवण करना। इनके अतिरिक्त श्रवणानुकूल युक्तियाँ, महापुरुषोंके उपदेश और इन दोनोंसे अविरुद्ध स्वानुभूति भी प्रमाण हैं। सबका सार यही निकलता है कि इस संसारके आदिमें जो था तथा अन्तमें जो रहेगा, जो इसका मूल कारण और प्रकाशक है, वही अद्वितीय, उपाधिशून्य परमात्मा बीचमें भी है। उसके अतिरिक्त और कोई वस्तु नहीं है॥ १८॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

ज्ञानासिनेत्युक्तज्ञानस्य हेतून कथयति । ज्ञानं विवेको निगम इति । कार्यकारणभावाभिप्रायं नित्यत्वादिभिरात्म परमात्मनोः परस्परव्यावर्तकधर्मेण निरूपणं विवेकः तपः कर्मयोगः आत्मानात्मनोरहन्तयो ममतया चानुभवः प्रत्यक्षं विवेकादिज्ञानं विवेकादिभिरेव ज्ञानं निष्पाद्यत इत्यर्थः । आद्यन्तयोरिति । देहस्याद्यन्तयोः यत्केवलं शरीररहितं मध्येऽपि तदेवात्मस्वरूपं नतु शरीरमात्मेत्यर्थः ॥ १८ ॥

श्लोक-१९

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा हिरण्यं स्वकृतं पुरस्तात्
पश्चाच्च सर्वस्य हिरण्मयस्य।
तदेव मध्ये व्यवहार्यमाणं
नानापदेशैरहमस्य तद्वत्॥

मूलम्

यथा हिरण्यं स्वकृतं पुरस्तात्
पश्चाच्च सर्वस्य हिरण्मयस्य।
तदेव मध्ये व्यवहार्यमाणं
नानापदेशैरहमस्य तद्वत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

उद्धवजी! सोनेसे कंगन, कुण्डल आदि बहुत-से आभूषण बनते हैं; परन्तु जब वे गहने नहीं बने थे, तब भी सोना था और जब नहीं रहेंगे, तब भी सोना रहेगा। इसलिये जब बीचमें उसके कंगन-कुण्डल आदि अनेकों नाम रखकर व्यवहार करते हैं, तब भी वह सोना ही है। ठीक ऐसे ही जगत‍्का आदि, अन्त और मध्य मैं ही हूँ। वास्तवमें मैं ही सत्य तत्त्व हूँ॥ १९॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

तदेव दृष्टान्तेन दर्शयति । यथा हिरण्यमिति । शुद्धमपि हिरण्यं कटकमुकुटादिनिर्माणादिदशायां रजतादिभिर्मिश्रं क्रियते रजतमिश्रमपि भूषणावस्थं हिरण्यमिति व्यपदिश्यते तद्भ्रान्तिमूलं रजतमिश्रणात्पूर्वमग्निसंशोधनात्पश्चाच्च केवलं हिरण्यमेव हिरण्यशब्दवाच्यं तथा केवलं हिरण्यमेव मध्येऽपि हिरण्यशब्दवाच्यं नतु रजतांश इति निरूपकैर्ज्ञायते एवमहमर्थोऽपि देहसंबन्धात्पूर्वापरकालयोरिव मध्येऽपि देहविलक्षण एवं छेदसम्मेलनेनाहमिति प्रतिपत्तिस्तु भ्रान्तिरेवेत्यर्थः । दार्शन्तिकसामर्थ्यात् दृष्टान्तस्य तथात्वमवगम्यते ॥ १९ ॥

श्लोक-२०

विश्वास-प्रस्तुतिः

विज्ञानमेतत्त्रियवस्थमङ्ग
गुणत्रयं कारणकार्यकर्तृ।
समन्वयेन व्यतिरेकतश्च
येनैव तुर्येण तदेव सत्यम्॥

मूलम्

विज्ञानमेतत्त्रियवस्थमङ्ग
गुणत्रयं कारणकार्यकर्तृ।
समन्वयेन व्यतिरेकतश्च
येनैव तुर्येण तदेव सत्यम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

भाई उद्धव! मनकी तीन अवस्थाएँ होती हैं—जाग्रत् , स्वप्न और सुषुप्ति; इन अवस्थाओंके कारण तीन ही गुण हैं सत्त्व, रज और तम, और जगत‍्के तीन भेद हैं—अध्यात्म (इन्द्रियाँ), अधिभूत (पृथिव्यादि) और अधिदैव (कर्ता)। ये सभी त्रिविधताएँ जिसकी सत्तासे सत्यके समान प्रतीत होती हैं और समाधि आदिमें यह त्रिविधता न रहनेपर भी जिसकी सत्ता बनी रहती है, वह तुरीयतत्त्व—इन तीनोंसे परे और इनमें अनुगत चौथा ब्रह्मतत्त्व ही सत्य है॥ २०॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

विज्ञानमिति । गुणत्रयात्मकं कारणमिन्द्रियवर्गः कार्यं शरीरं कर्तृमहत्त्वकार्यमनात्मन्यात्माभिमानहेतुभूतमदङ्कारतत्त्वमिति । त्रियवस्थं विज्ञानमवस्थात्रितयविलक्षणे नयेनान्वयव्यतिरेकाभ्यां प्रवर्तते तदेवात्मस्वरूपं सत्यमपरिणामीत्यर्थः । आत्मनि देहान्तरावस्थिते सति इन्द्रियादीनां प्रवृत्तिः तदपगमे तु न प्रवृत्तिः अन्वयव्यतिरेकसिद्धा ॥ २० ॥

श्लोक-२१

विश्वास-प्रस्तुतिः

न यत् पुरस्तादुत यन्न पश्चा-
न्मध्ये च तन्न व्यपदेशमात्रम्।
भूतं प्रसिद्धं च परेण यद् यत्
तदेव तत् स्यादिति मे मनीषा॥

मूलम्

न यत् पुरस्तादुत यन्न पश्चा-
न्मध्ये च तन्न व्यपदेशमात्रम्।
भूतं प्रसिद्धं च परेण यद् यत्
तदेव तत् स्यादिति मे मनीषा॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो उत्पत्तिसे पहले नहीं था और प्रलयके पश्चात् भी नहीं रहेगा, ऐसा समझना चाहिये कि बीचमें भी वह है नहीं—केवल कल्पनामात्र, नाममात्र ही है। यह निश्चित सत्य है कि जो पदार्थ जिससे बनता है और जिसके द्वारा प्रकाशित होता है, वही उसका वास्तविक स्वरूप है, वही उसकी परमार्थ-सत्ता है—यह मेरा दृढ़ निश्चय है॥ २१॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

न यदिति । यत् शरीरं पुरस्तात् उत्पत्तेः पूर्वकाले नात्मा भवति मरणात्पश्चाच्च नात्मा भवति तन्मध्येऽपि नात्मा भवति स्थूलोऽहमिति व्यपदेशमात्रं भ्रान्तिमूलं देहस्थपूर्वापरकालयोरपि भूतं विद्यमानमिति यत्परेण प्रमाणेन प्रसिद्धं तदेव तत् स्यात् तदात्मस्वरूपं स्यादित्यर्थः ॥ २१ ॥

श्लोक-२२

विश्वास-प्रस्तुतिः

अविद्यमानोऽप्यवभासते यो
वैकारिको राजससर्ग एषः।
ब्रह्म स्वयंज्योतिरतो विभाति
ब्रह्मेन्द्रियार्थात्मविकारचित्रम्॥

मूलम्

अविद्यमानोऽप्यवभासते यो
वैकारिको राजससर्ग एषः।
ब्रह्म स्वयंज्योतिरतो विभाति
ब्रह्मेन्द्रियार्थात्मविकारचित्रम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह जो विकारमयी राजस सृष्टि है, यह न होनेपर भी दीख रही है। यह स्वयंप्रकाश ब्रह्म ही है। इसलिये इन्द्रिय, विषय, मन और पञ्चभूतादि जितने चित्र-विचित्र नामरूप हैं उनके रूपमें ब्रह्म ही प्रतीत हो रहा है॥ २२॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

अविद्यमानोऽपीति । वैकारिकः प्रकृतिविकारभूतो राजससर्गः रजोगुणोद्रिक्ततया प्रवृत्तिकर एष सर्गः शरीररूप सृज्यपदार्थः आत्मनि स्वत एवाविद्यमानोऽप्यवभासते ब्रह्म परिशुद्धजीवात्मस्वरूपं स्वयं जडदेहाद्विलक्षणं तथापि तज्जीवात्मस्वरूपमिन्द्रियतगोचरं शरीरविकारं चित्रं भांति अतो भाति पूर्वार्द्धप्रकृतदेहसंसर्गात् तन्मिश्रतया भाति न तु व्यावर्त्तकतयावभासत इत्यर्थः । ब्रह्मभूयाय कल्पते ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहमिति परिशुद्धात्मनि ब्रह्मशब्दः प्रयुज्यते ॥ २२ ॥

श्लोक-२३

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं स्फुटं ब्रह्मविवेकहेतुभिः
परापवादेन विशारदेन।
छित्त्वाऽऽत्मसन्देहमुपारमेत
स्वानन्दतुष्टोऽखिलकामुकेभ्यः॥

मूलम्

एवं स्फुटं ब्रह्मविवेकहेतुभिः
परापवादेन विशारदेन।
छित्त्वाऽऽत्मसन्देहमुपारमेत
स्वानन्दतुष्टोऽखिलकामुकेभ्यः॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्मविचारके साधन हैं—श्रवण, मनन, निदिध्यासन और स्वानुभूति। उनमें सहायक हैं—आत्मज्ञानी गुरुदेव! इनके द्वारा विचार करके स्पष्टरूपसे देहादि अनात्म पदार्थोंका निषेध कर देना चाहिये। इस प्रकार निषेधके द्वारा आत्मविषयक सन्देहोंको छिन्न-भिन्न करके अपने आनन्दस्वरूप आत्मामें ही मग्न हो जाय और सब प्रकारकी विषयवासनाओंसे रहित हो जाय॥ २३॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

एवमिति । स्फुट ब्रह्मविवेकधीः विवेकहेतुज्ञानं स्फुटतर परिशुद्धात्मस्वरूपज्ञानवान् परापवादेन देहेन्द्रियप्राणानामात्मत्वापनादनेन अखिलकामुकेभ्यः उपायभेदफलकामिभिः सङ्गं न कुर्यात् ॥ २३ ॥

श्लोक-२४

विश्वास-प्रस्तुतिः

नात्मा वपुः पार्थिवमिन्द्रियाणि
देवा ह्यसुर्वायुजलं हुताशः।
मनोऽन्नमात्रं धिषणा च सत्त्व-
महङ्कृतिः खं क्षितिरर्थसाम्यम्॥

मूलम्

नात्मा वपुः पार्थिवमिन्द्रियाणि
देवा ह्यसुर्वायुजलं हुताशः।
मनोऽन्नमात्रं धिषणा च सत्त्व-
महङ्कृतिः खं क्षितिरर्थसाम्यम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

निषेध करनेकी प्रक्रिया यह है कि पृथ्वीका विकार होनेके कारण शरीर आत्मा नहीं है। इन्द्रिय, उनके अधिष्ठातृ-देवता, प्राण, वायु, जल, अग्नि एवं मन भी आत्मा नहीं हैं; क्योंकि इनका धारण-पोषण शरीरके समान ही अन्नके द्वारा होता है। बुद्धि, चित्त, अहंकार, आकाश, पृथ्वी, शब्दादि विषय और गुणोंकी साम्यावस्था प्रकृति भी आत्मा नहीं हैं; क्योंकि ये सब-के-सब दृश्य एवं जड हैं॥ २४॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

परापवादमेव विवृणोति । नात्मा वपुरिति पार्थिवं वपुर्नात्मा देवशब्दवाच्यानीन्द्रियाणि नात्मेत्येव योजनीयं मनोऽन्नमात्रमन्नाप्यायितं नात्मा “अन्नमयं हि सौम्य ! मन” इति हि श्रुतिः धिषणा ज्ञानं सत्त्वं बुद्धयाख्यमन्तःकरणम् अर्थसाम्यं वपुरादीनामर्थतः साम्यमस्ति अनात्मत्वेन साम्यमस्तीत्यर्थः ॥ २४ ॥

श्लोक-२५

विश्वास-प्रस्तुतिः

समाहितैः कः करणैर्गुणात्मभि-
र्गुणो भवेन्मत्सुविविक्तधाम्नः।
विक्षिप्यमाणैरुत किं नु दूषणं
घनैरुपेतैर्विगतै रवेः किम्॥

मूलम्

समाहितैः कः करणैर्गुणात्मभि-
र्गुणो भवेन्मत्सुविविक्तधाम्नः।
विक्षिप्यमाणैरुत किं नु दूषणं
घनैरुपेतैर्विगतै रवेः किम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

उद्धवजी! जिसे मेरे स्वरूपका भलीभाँति ज्ञान हो गया है, उसकी वृत्तियाँ और इन्द्रियाँ यदि समाहित रहती हैं तो उसे उनसे लाभ क्या है? और यदि वे विक्षिप्त रहती हैं तो उनसे हानि भी क्या है? क्योंकि अन्तःकरण और बाह्यकरण—सभी गुणमय हैं और आत्मासे इनका कोई सम्बन्ध नहीं है। भला, आकाशमें बादलोंके छा जाने अथवा तितर-बितर हो जानेसे सूर्यका क्या बनता-बिगड़ता है?॥ २५॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

साक्षात्कृतपरिशुद्धात्मस्वरूपस्य प्रतिपत्तिमाह । समाहितैरिति समाधिदशायामात्मनि नापूर्वगुणाधानं पूर्वमध्यात्मनि न दोषाधानं दोषाणामौपाधिकत्वात् अतः सर्वावस्थास्वेकरूप एवात्मेत्यर्थः ॥२५॥

श्लोक-२६

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा नभो वाय्वनलाम्बुभूगुणै-
र्गतागतैर्वर्तुगुणैर्न सज्जते।
तथाक्षरं सत्त्वरजस्तमोमलै-
रहंमतेः संसृतिहेतुभिः परम्॥

मूलम्

यथा नभो वाय्वनलाम्बुभूगुणै-
र्गतागतैर्वर्तुगुणैर्न सज्जते।
तथाक्षरं सत्त्वरजस्तमोमलै-
रहंमतेः संसृतिहेतुभिः परम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे वायु आकाशको सुखा नहीं सकती, आग जला नहीं सकती, जल भिगो नहीं सकता, धूल-धुएँ मटमैला नहीं कर सकते और ऋतुओंके गुण गरमी-सर्दी आदि उसे प्रभावित नहीं कर सकते—क्योंकि ये सब आने-जानेवाले क्षणिक भाव हैं और आकाश इन सबका एकरस अधिष्ठान है—वैसे ही सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुणकी वृत्तियाँ तथा कर्म अविनाशी आत्माका स्पर्श नहीं कर पाते; वह तो इनसे सर्वथा परे है। इनके द्वारा तो केवल वही संसारमें भटकता है जो इनमें अहंकार कर बैठता है॥ २६॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

अहंमतेः अक्षरमहंशब्दवाच्यमात्मतत्त्वं संसृतिहेतुत्वेन मतैः सत्त्वादिभिर्न सम्बध्यत इत्यर्थः । यद्वा अहंगतैरनात्मन्यात्माभिमान विषयभूतैः ॥ २६ ॥

श्लोक-२७

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथापि सङ्गः परिवर्जनीयो
गुणेषु मायारचितेषु तावत्।
मद‍्भक्तियोगेन दृढेन यावद्
रजो निरस्येत मनःकषायः॥

मूलम्

तथापि सङ्गः परिवर्जनीयो
गुणेषु मायारचितेषु तावत्।
मद‍्भक्तियोगेन दृढेन यावद्
रजो निरस्येत मनःकषायः॥

अनुवाद (हिन्दी)

उद्धवजी! ऐसा होनेपर भी तबतक इन मायानिर्मित गुणों और उनके कार्योंका संग सर्वथा त्याग देना चाहिये, जबतक मेरे सुदृढ़ भक्तियोगके द्वारा मनका रजोगुणरूप मल एकदम निकल न जाय॥ २७॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

गुणेषु शब्दादिगुणेषु मायारचितेषु प्रकृत्युपपादितेषु ॥ २७ ॥

श्लोक-२८

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथाऽऽमयोऽसाधुचिकित्सितो नृणां
पुनः पुनः संतुदति प्ररोहन्।
एवं मनोऽपक्वकषायकर्म
कुयोगिनं विध्यति सर्वसङ्गम्॥

मूलम्

यथाऽऽमयोऽसाधुचिकित्सितो नृणां
पुनः पुनः संतुदति प्ररोहन्।
एवं मनोऽपक्वकषायकर्म
कुयोगिनं विध्यति सर्वसङ्गम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

उद्धवजी! जैसे भलीभाँति चिकित्सा न करनेपर रोगका समूल नाश नहीं होता, वह बार-बार उभरकर मनुष्यको सताया करता है; वैसे ही जिस मनकी वासनाएँ और कर्मोंके संस्कार मिट नहीं गये हैं, जो स्त्री-पुत्र आदिमें आसक्त है, वह बार-बार अधूरे योगीको बेधता रहता है और उसे कई बार योगभ्रष्ट भी कर देता है॥ २८॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

संतुदति व्यथयति कर्मसङ्गं कर्मणि सङ्गयुक्तम् ॥ २८ ॥

श्लोक-२९

विश्वास-प्रस्तुतिः

कुयोगिनो ये विहितान्तरायै-
र्मनुष्यभूतैस्त्रिदशोपसृष्टैः।
ते प्राक्तनाभ्यासबलेन भूयो
युञ्जन्ति योगं न तु कर्मतन्त्रम्॥

मूलम्

कुयोगिनो ये विहितान्तरायै-
र्मनुष्यभूतैस्त्रिदशोपसृष्टैः।
ते प्राक्तनाभ्यासबलेन भूयो
युञ्जन्ति योगं न तु कर्मतन्त्रम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवताओंके द्वारा प्रेरित शिष्य-पुत्र आदिके द्वारा किये हुए विघ्नोंसे यदि कदाचित् अधूरा योगी मार्गच्युत हो जाय तो भी वह अपने पूर्वाभ्यासके कारण पुनः योगाभ्यासमें ही लग जाता है। कर्म आदिमें उसकी प्रवृत्ति नहीं होती॥ २९॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

त्रिदशोपसृष्टः दैविकैः उपसगैः उपद्रवेः ते प्राक्तनेति प्राक्तनवासनाबलेन योगं न युञ्जन्ति अपितु कर्मतन्त्रमेव युज्जन्तीत्यर्थः ॥ २९ ॥

श्लोक-३०

विश्वास-प्रस्तुतिः

करोति कर्म क्रियते च जन्तुः
केनाप्यसौ चोदित आनिपातात्।
न तत्र विद्वान् प्रकृतौ स्थितोऽपि
निवृत्ततृष्णः स्वसुखानुभूत्या॥

मूलम्

करोति कर्म क्रियते च जन्तुः
केनाप्यसौ चोदित आनिपातात्।
न तत्र विद्वान् प्रकृतौ स्थितोऽपि
निवृत्ततृष्णः स्वसुखानुभूत्या॥

अनुवाद (हिन्दी)

उद्धवजी! जीव संस्कार आदिसे प्रेरित होकर जन्मसे लेकर मृत्युपर्यन्त कर्ममें ही लगा रहता है और उनमें इष्ट-अनिष्ट-बुद्धि करके हर्ष-विषाद आदि विकारोंको प्राप्त होता रहता है। परन्तु जो तत्त्वका साक्षात्कार कर लेता है, वह प्रकृतिमें स्थित रहनेपर भी संस्कारानुसार कर्म होते रहनेपर भी उनमें इष्ट-अनिष्ट-बुद्धि करके हर्ष-विषाद आदि विकारोंसे युक्त नहीं होता; क्योंकि आनन्दस्वरूप आत्माके साक्षात्कारसे उसकी संसारसम्बन्धी सभी आशा-तृष्णाएँ पहले ही नष्ट हो चुकी होती हैं॥ ३०॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

क्रियते कार्यते आनिपातात् आशरीरपातात् प्रकृतौ स्थितोऽपि निवृत्ततृष्णो विद्वान् तथा न कार्यत इत्यर्थः ॥ ३० ॥

श्लोक-३१

विश्वास-प्रस्तुतिः

तिष्ठन्तमासीनमुत व्रजन्तं
शयानमुक्षन्तमदन्तमन्नम्।
स्वभावमन्यत् किमपीहमान-
मात्मानमात्मस्थमतिर्न वेद॥

मूलम्

तिष्ठन्तमासीनमुत व्रजन्तं
शयानमुक्षन्तमदन्तमन्नम्।
स्वभावमन्यत् किमपीहमान-
मात्मानमात्मस्थमतिर्न वेद॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो अपने स्वरूपमें स्थित हो गया है, उसे इस बातका भी पता नहीं रहता कि शरीर खड़ा है या बैठा, चल रहा है या सो रहा है, मल-मूत्र त्याग रहा है, भोजन कर रहा है अथवा और कोई स्वाभाविक कर्म कर रहा है; क्योंकि उसकी वृत्ति तो आत्मस्वरूपमें स्थित—ब्रह्माकार रहती है॥ ३१॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

शयनासनादिषु तथा क्रियमाणेष्वपि कथं कर्तृत्वाभाव इत्यत आह । तिष्ठन्तमिति । स्वदेहगत स्थित्यागमनादिव्यापारमात्मस्थत्वेन न वेद ॥३१॥

श्लोक-३२

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदि स्म पश्यत्यसदिन्द्रियार्थं
नानानुमानेन विरुद्धमन्यत्।
न मन्यते वस्तुतया मनीषी
स्वाप्नं यथोत्थाय तिरोदधानम्॥

मूलम्

यदि स्म पश्यत्यसदिन्द्रियार्थं
नानानुमानेन विरुद्धमन्यत्।
न मन्यते वस्तुतया मनीषी
स्वाप्नं यथोत्थाय तिरोदधानम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि ज्ञानी पुरुषकी दृष्टिमें इन्द्रियोंके विविध बाह्य विषय, जो कि असत् हैं, आते भी हैं तो वह उन्हें अपने आत्मासे भिन्न नहीं मानता, क्योंकि वे युक्तियों, प्रमाणों और स्वानुभूतिसे सिद्ध नहीं होते। जैसे नींद टूट जानेपर स्वप्नमें देखे हुए और जागनेपर तिरोहित हुए पदार्थोंको कोई सत्य नहीं मानता, वैसे ही ज्ञानी पुरुष भी अपनेसे भिन्न प्रतीयमान पदार्थोंको सत्य नहीं मानते॥ ३२॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

नाभिमन्यते तथाभिमानरूपमज्ञानम् ॥३२॥

श्लोक-३३

विश्वास-प्रस्तुतिः

पूर्वं गृहीतं गुणकर्मचित्र-
मज्ञानमात्मन्यविविक्तमङ्ग।
निवर्तते तत् पुनरीक्षयैव
न गृह्यते नापि विसृज्य आत्मा॥

मूलम्

पूर्वं गृहीतं गुणकर्मचित्र-
मज्ञानमात्मन्यविविक्तमङ्ग।
निवर्तते तत् पुनरीक्षयैव
न गृह्यते नापि विसृज्य आत्मा॥

अनुवाद (हिन्दी)

उद्धवजी! (इसका यह अर्थ नहीं है कि अज्ञानीने आत्माका त्याग कर दिया है और ज्ञानी उसको ग्रहण करता है। इसका तात्पर्य केवल इतना ही है कि) अनेकों प्रकारके गुण और कर्मोंसे युक्त देह, इन्द्रिय आदि पदार्थ पहले अज्ञानके कारण आत्मासे अभिन्न मान लिये गये थे, उनका विवेक नहीं था। अब आत्मदृष्टि होनेपर अज्ञान और उसके कार्योंकी निवृत्ति हो जाती है। इसलिये अज्ञानकी निवृत्ति ही अभीष्ट है। वृत्तियोंके द्वारा न तो आत्माका ग्रहण हो सकता है और न त्याग॥ ३३॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

आत्मा न गृह्यते पूर्वमिव स्थूलोऽहमित्यादि देहाकारो न गृह्यते नापि विसृज्यः न च सर्गसंहारादिभाक् स्यात् ॥ ३३ ॥

श्लोक-३४

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा हि भानोरुदयो नृचक्षुषां
तमो निहन्यान्न तु सद् विधत्ते।
एवं समीक्षा निपुणा सती मे
हन्यात्तमिस्रं पुरुषस्य बुद्धेः॥

मूलम्

यथा हि भानोरुदयो नृचक्षुषां
तमो निहन्यान्न तु सद् विधत्ते।
एवं समीक्षा निपुणा सती मे
हन्यात्तमिस्रं पुरुषस्य बुद्धेः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे सूर्य उदय होकर मनुष्योंके नेत्रोंके सामनेसे अन्धकारका परदा हटा देते हैं, किसी नयी वस्तुका निर्माण नहीं करते, वैसे ही मेरे स्वरूपका दृढ़ अपरोक्षज्ञान पुरुषके बुद्धिगत अज्ञानका आवरण नष्ट कर देता है। वह इदंरूपसे किसी वस्तुका अनुभव नहीं कराता॥ ३४॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

नतु सन्निधत्ते सम्यक् निधन्ते तमो नावस्थापयति किन्तु हन्यादेव मे समीक्षा मद्विषयज्ञानम् ॥ ३४ ॥

श्लोक-३५

विश्वास-प्रस्तुतिः

एष स्वयंज्योतिरजोऽप्रमेयो
महानुभूतिः सकलानुभूतिः।
एकोऽद्वितीयो वचसां विरामे
येनेषिता वागसवश्चरन्ति॥

मूलम्

एष स्वयंज्योतिरजोऽप्रमेयो
महानुभूतिः सकलानुभूतिः।
एकोऽद्वितीयो वचसां विरामे
येनेषिता वागसवश्चरन्ति॥

अनुवाद (हिन्दी)

उद्धवजी! आत्मा नित्य अपरोक्ष है, उसकी प्राप्ति नहीं करनी पड़ती। वह स्वयंप्रकाश है। उसमें अज्ञान आदि किसी प्रकारके विकार नहीं हैं। वह जन्मरहित है अर्थात् कभी किसी प्रकार भी वृत्तिमें आरूढ़ नहीं होता। इसलिये अप्रमेय है। ज्ञान आदिके द्वारा उसका संस्कार भी नहीं किया जा सकता। आत्मामें देश, काल और वस्तुकृत परिच्छेद न होनेके कारण अस्तित्व, वृद्धि, परिवर्तन, ह्रास और विनाश उसका स्पर्श भी नहीं कर सकते। सबकी और सब प्रकारकी अनुभूतियाँ आत्मस्वरूप ही हैं। जब मन और वाणी आत्माको अपना अविषय समझकर निवृत्त हो जाते हैं, तब वही सजातीय, विजातीय और स्वगत भेदसे शून्य एक अद्वितीय रह जाता है। व्यवहारदृष्टिसे उसके स्वरूपका वाणी और प्राण आदिके प्रवर्तकके रूपमें निरूपण किया जाता है॥ ३५॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

परिशुद्धो जीवात्मा महानुभूतिः अपरिच्छिन्नधर्मभूतज्ञानः सकलानुभूतिः सर्वार्थगोचरज्ञानवान् एकः अनेकात्मकत्वाभावादेकः अद्वितीयः अत एव वचसा विरामः देवमनुष्यादिशब्दानामविषयतया तद्विरतिद्देतुभूतः ईहता चेष्टमानेन वागसवः वागिन्द्रियाणि प्राणश्च चरन्ति व्याप्रियन्ते ॥ ३५ ॥

श्लोक-३६

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतावानात्मसंमोहो यद् विकल्पस्तु केवले।
आत्मन्नृते स्वमात्मानमवलम्बो न यस्य हि॥

मूलम्

एतावानात्मसंमोहो यद् विकल्पस्तु केवले।
आत्मन्नृते स्वमात्मानमवलम्बो न यस्य हि॥

अनुवाद (हिन्दी)

उद्धवजी! अद्वितीय आत्मतत्त्वमें अर्थहीन नामोंके द्वारा विविधता मान लेना ही मनका भ्रम है, अज्ञान है। सचमुच यह बहुत बड़ा मोह है, क्योंकि अपने आत्माके अतिरिक्त उस भ्रमका भी और कोई अधिष्ठान नहीं है। अधिष्ठान-सत्तामें अध्यस्तकी सत्ता है ही नहीं। इसलिये सब कुछ आत्मा ही है॥ ३६॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

केवले शरीररहिते आत्मनि विकल्पः देवत्वमनुष्यत्वाद्याकारो वा तस्यात्मनः अवलम्बः प्रकृत्यवलम्बो नास्ति तमात्मानं मानाहते प्रमाणादृते न पश्यतीत्यर्थः ॥ ३६ ॥

श्लोक-३७

विश्वास-प्रस्तुतिः

यन्नामाकृतिभिर्ग्राह्यं पञ्चवर्णमबाधितम्।
व्यर्थेनाप्यर्थवादोऽयं द्वयं पण्डितमानिनाम्॥

मूलम्

यन्नामाकृतिभिर्ग्राह्यं पञ्चवर्णमबाधितम्।
व्यर्थेनाप्यर्थवादोऽयं द्वयं पण्डितमानिनाम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

बहुत-से पण्डिताभिमानी लोग ऐसा कहते हैं कि यह पाञ्चभौतिक द्वैत विभिन्न नामों और रूपोंके रूपमें इन्द्रियोंके द्वारा ग्रहण किया जाता है, इसलिये सत्य है। परन्तु यह तो अर्थहीन वाणीका आडम्बरमात्र है; क्योंकि तत्त्वतः तो इन्द्रियोंकी पृथक् सत्ता ही सिद्ध नहीं होती, फिर वे किसीको प्रमाणित कैसे करेंगी?॥ ३७॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

पञ्चवर्णं पञ्चभूतारब्धत्वात्पञ्चविधं देवादिनामरूपेण ग्राह्यं शरीरम् अर्थेनात्यर्थवादोऽयम् अर्थः स्वर्गादिपुरुषार्थः शरीरं च भोग्यविषयैः सह अबाधितं नित्यमिति द्वयमित्यर्थः । शरीरनित्यत्वं भोगनित्यत्वं चार्थवादमात्रं वस्तुतस्तदुभयमपि न नित्यमित्यर्थः ॥ ३७-३९ ॥

श्लोक-३८

विश्वास-प्रस्तुतिः

योगिनोऽपक्वयोगस्य युञ्जतः काय उत्थितैः।
उपसर्गैर्विहन्येत तत्रायं विहितो विधिः॥

मूलम्

योगिनोऽपक्वयोगस्य युञ्जतः काय उत्थितैः।
उपसर्गैर्विहन्येत तत्रायं विहितो विधिः॥

अनुवाद (हिन्दी)

उद्धवजी! यदि योगसाधना पूर्ण होनेके पहले ही किसी साधकका शरीर रोगादि उपद्रवोंसे पीड़ित हो, तो उसे इन उपायोंका आश्रय लेना चाहिये॥ ३८॥

श्लोक-३९

विश्वास-प्रस्तुतिः

योगधारणया कांश्चिदासनैर्धारणान्वितैः।
तपोमन्त्रौषधैः कांश्चिदुपसर्गान् विनिर्दहेत्॥

मूलम्

योगधारणया कांश्चिदासनैर्धारणान्वितैः।
तपोमन्त्रौषधैः कांश्चिदुपसर्गान् विनिर्दहेत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

गरमी-ठंडक आदिको चन्द्रमा-सूर्य आदिकी धारणाके द्वारा, वात आदि रोगोंको वायुधारणायुक्त आसनोंके द्वारा और ग्रह-सर्पादिकृत विघ्नोंको तपस्या, मन्त्र एवं ओषधिके द्वारा नष्ट कर डालना चाहिये॥ ३९॥

श्लोक-४०

विश्वास-प्रस्तुतिः

कांश्चिन्ममानुध्यानेन नामसङ्कीर्तनादिभिः।
योगेश्वरानुवृत्त्या वा हन्यादशुभदाञ्छनैः॥

मूलम्

कांश्चिन्ममानुध्यानेन नामसङ्कीर्तनादिभिः।
योगेश्वरानुवृत्त्या वा हन्यादशुभदाञ्छनैः॥

अनुवाद (हिन्दी)

काम-क्रोध आदि विघ्नोंको मेरे चिन्तन और नाम-संकीर्तन आदिके द्वारा नष्ट करना चाहिये। तथा पतनकी ओर ले जानेवाले दम्भ-मद आदि विघ्नोंको धीरे-धीरे महापुरुषोंकी सेवाके द्वारा दूर कर देना चाहिये॥ ४०॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

योगेश्वरानुवृत्त्या योगनिष्ठसदाचारानुवृत्त्या ॥ ४० ॥

श्लोक-४१

विश्वास-प्रस्तुतिः

केचिद् देहमिमं धीराः सुकल्पं वयसि स्थिरम्।
विधाय विविधोपायैरथ युञ्जन्ति सिद्धये॥

मूलम्

केचिद् देहमिमं धीराः सुकल्पं वयसि स्थिरम्।
विधाय विविधोपायैरथ युञ्जन्ति सिद्धये॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

केचिदिति । वयसि स्थितं वृद्धशरीरमपि मन्त्रौषधादिभिः पटुतरं विधाय युञ्जन्ति ॥ ४१ ॥

श्लोक-४२

विश्वास-प्रस्तुतिः

न हि तत् कुशलादृत्यं तदायासो ह्यपार्थकः।
अन्तवत्त्वाच्छरीरस्य फलस्येव वनस्पतेः॥

मूलम्

न हि तत् कुशलादृत्यं तदायासो ह्यपार्थकः।
अन्तवत्त्वाच्छरीरस्य फलस्येव वनस्पतेः॥

अनुवाद (हिन्दी)

कोई-कोई मनस्वी योगी विविध उपायोंके द्वारा इस शरीरको सुदृढ़ और युवावस्थामें स्थिर करके फिर अणिमा आदि सिद्धियोंके लिये योगसाधन करते हैं, परन्तु बुद्धिमान् पुरुष ऐसे विचारका समर्थन नहीं करते, क्योंकि यह तो एक व्यर्थ प्रयास है। वृक्षमें लगे हुए फलके समान इस शरीरका नाश तो अवश्यम्भावी है॥ ४१-४२॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

नहि तत्कुशलं तन्न कुशलं न तत्कुशला इति पाठे तत्र न कुशला इत्यर्थः । यदायासः देहस्थितिकरणायासः अनर्थकः निष्फलः ॥ ४२ ॥

श्लोक-४३

विश्वास-प्रस्तुतिः

योगं निषेवतो नित्यं कायश्चेत् कल्पतामियात्।
तच्छ्रद्दध्यान्न मतिमान् योगमुत्सृज्य मत्परः॥

मूलम्

योगं निषेवतो नित्यं कायश्चेत् कल्पतामियात्।
तच्छ्रद्दध्यान्न मतिमान् योगमुत्सृज्य मत्परः॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि कदाचित् बहुत दिनोंतक निरन्तर और आदरपूर्वक योगसाधना करते रहनेपर शरीर सुदृढ़ भी हो जाय, तब भी बुद्धिमान् पुरुषको अपनी साधना छोड़कर उतनेमें ही सन्तोष नहीं कर लेना चाहिये। उसे तो सर्वदा मेरी प्राप्तिके लिये ही संलग्न रहना चाहिये॥ ४३॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

करणपाटवसद्भावेऽप्यायुषो मन्त्रौषधादिभिः संपाद्यत्वाभावात् अदेहदृढीकरणं कालक्षेपमपहाय तस्मिन्नपि कालेऽपि योगः कर्तव्य इत्यर्थः ॥ ४३ - ४४ ॥

इति श्रीमद्भागवतव्याख्याने एकादशस्कन्धीये श्रीसुदर्शनसूरिकृतशुकपक्षीये अष्टाविंशोऽध्यायः ॥ २८ ॥

श्लोक-४४

विश्वास-प्रस्तुतिः

योगचर्यामिमां योगी विचरन् मदपाश्रयः।
नान्तरायैर्विहन्येत निःस्पृहः स्वसुखानुभूः॥

मूलम्

योगचर्यामिमां योगी विचरन् मदपाश्रयः।
नान्तरायैर्विहन्येत निःस्पृहः स्वसुखानुभूः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो साधक मेरा आश्रय लेकर मेरे द्वारा कही हुई योगसाधनामें संलग्न रहता है, उसे कोई भी विघ्न-बाधा डिगा नहीं सकती। उसकी सारी कामनाएँ नष्ट हो जाती हैं और वह आत्मानन्दकी अनुभूतिमें मग्न हो जाता है॥ ४४॥

अनुवाद (समाप्ति)

इति श्रीमद‍्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायामेकादशस्कन्धेऽष्टाविंशोऽध्यायः॥ २८॥