[सप्तविंशोऽध्यायः]
भागसूचना
क्रियायोगका वर्णन
श्लोक-१
मूलम् (वचनम्)
उद्धव उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्रियायोगं समाचक्ष्व भवदाराधनं प्रभो।
यस्मात्त्वां ये यथार्चन्ति सात्वताः सात्वतर्षभ॥
मूलम्
क्रियायोगं समाचक्ष्व भवदाराधनं प्रभो।
यस्मात्त्वां ये यथार्चन्ति सात्वताः सात्वतर्षभ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उद्धवजीने पूछा—भक्तवत्सल श्रीकृष्ण! जिस क्रियायोगका आश्रय लेकर जो भक्तजन जिस प्रकारसे जिस उद्देश्यसे आपकी अर्चा-पूजा करते हैं, आप अपने उस आराधनरूप क्रियायोगका वर्णन कीजिये॥ १॥
श्लोक-२
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतद् वदन्ति मुनयो मुहुर्निःश्रेयसं नृणाम्।
नारदो भगवान् व्यास आचार्योऽङ्गिरसः सुतः॥
मूलम्
एतद् वदन्ति मुनयो मुहुर्निःश्रेयसं नृणाम्।
नारदो भगवान् व्यास आचार्योऽङ्गिरसः सुतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवर्षि नारद, भगवान् व्यासदेव और आचार्य बृहस्पति आदि बड़े-बड़े ऋषि-मुनि यह बात बार-बार कहते हैं कि क्रियायोगके द्वारा आपकी आराधना ही मनुष्योंके परम कल्याणकी साधना है॥ २॥
श्लोक-३
विश्वास-प्रस्तुतिः
निःसृतं ते मुखाम्भोजाद्यदाह भगवानजः।
पुत्रेभ्यो भृगुमुख्येभ्यो देव्यै च भगवान् भवः॥
मूलम्
निःसृतं ते मुखाम्भोजाद्यदाह भगवानजः।
पुत्रेभ्यो भृगुमुख्येभ्यो देव्यै च भगवान् भवः॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह क्रियायोग पहले-पहल आपके मुखारविन्दसे ही निकला था। आपसे ही ग्रहण करके इसे ब्रह्माजीने अपने पुत्र भृगु आदि महर्षियोंको और भगवान् शंकरने अपनी अर्द्धांगिनी भगवती पार्वतीजीको उपदेश किया था॥ ३॥
श्लोक-४
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतद् वै सर्ववर्णानामाश्रमाणां च सम्मतम्।
श्रेयसामुत्तमं मन्ये स्त्रीशूद्राणां च मानद॥
मूलम्
एतद् वै सर्ववर्णानामाश्रमाणां च सम्मतम्।
श्रेयसामुत्तमं मन्ये स्त्रीशूद्राणां च मानद॥
अनुवाद (हिन्दी)
मर्यादारक्षक प्रभो! यह क्रियायोग ब्राह्मण-क्षत्रिय आदि वर्णों और ब्रह्मचारी-गृहस्थ आदि आश्रमोंके लिये भी परम कल्याणकारी है। मैं तो ऐसा समझता हूँ कि स्त्री-शूद्रादिके लिये भी यही सबसे श्रेष्ठ साधना-पद्धति है॥ ४॥
श्लोक-५
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतत् कमलपत्राक्ष कर्मबन्धविमोचनम्।
भक्ताय चानुरक्ताय ब्रूहि विश्वेश्वरेश्वर॥
मूलम्
एतत् कमलपत्राक्ष कर्मबन्धविमोचनम्।
भक्ताय चानुरक्ताय ब्रूहि विश्वेश्वरेश्वर॥
अनुवाद (हिन्दी)
कमलनयन श्यामसुन्दर! आप शंकर आदि जगदीश्वरोंके भी ईश्वर हैं और मैं आपके चरणोंका प्रेमी भक्त हूँ। आप कृपा करके मुझे यह कर्मबन्धनसे मुक्त करने-वाली विधि बतलाइये॥ ५॥
श्लोक-६
मूलम् (वचनम्)
श्रीभगवानुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
न ह्यन्तोऽनन्तपारस्य कर्मकाण्डस्य चोद्धव।
संक्षिप्तं वर्णयिष्यामि यथावदनुपूर्वशः॥
मूलम्
न ह्यन्तोऽनन्तपारस्य कर्मकाण्डस्य चोद्धव।
संक्षिप्तं वर्णयिष्यामि यथावदनुपूर्वशः॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् श्रीकृष्णने कहा—उद्धवजी! कर्मकाण्डका इतना विस्तार है कि उसकी कोई सीमा नहीं है; इसलिये मैं उसे थोड़ेमें ही पूर्वापर-क्रमसे विधिपूर्वक वर्णन करता हूँ॥ ६॥
श्लोक-७
विश्वास-प्रस्तुतिः
वैदिकस्तान्त्रिको मिश्र इति मे त्रिविधो मखः।
त्रयाणामीप्सितेनैव विधिना मां समर्चयेत्॥
मूलम्
वैदिकस्तान्त्रिको मिश्र इति मे त्रिविधो मखः।
त्रयाणामीप्सितेनैव विधिना मां समर्चयेत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
मेरी पूजाकी तीन विधियाँ हैं—वैदिक, तान्त्रिक और मिश्रित। इन तीनोंमेंसे मेरे भक्तको जो भी अपने अनुकूल जान पड़े, उसी विधिसे मेरी आराधना करनी चाहिये॥ ७॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
वैदिक इति यद्यपि पावरात्रिको धर्मः एकायनशाखा मूलतया परमवैदिकस्तथापि वैदिकशब्दो गोवलीवर्दन्यायात् त्रयीधर्मेषु वर्त्तते ॥ ७-१९ ॥
श्लोक-८
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदा स्वनिगमेनोक्तं द्विजत्वं प्राप्य पूरुषः।
यथा यजेत मां भक्त्या श्रद्धया तन्निबोध मे॥
मूलम्
यदा स्वनिगमेनोक्तं द्विजत्वं प्राप्य पूरुषः।
यथा यजेत मां भक्त्या श्रद्धया तन्निबोध मे॥
अनुवाद (हिन्दी)
पहले अपने अधिकारानुसार शास्त्रोक्त विधिसे समयपर यज्ञोपवीत-संस्कारके द्वारा संस्कृत होकर द्विजत्व प्राप्त करे, फिर श्रद्धा और भक्तिके साथ वह किस प्रकार मेरी पूजा करे, इसकी विधि तुम मुझसे सुनो॥ ८॥
श्लोक-९
विश्वास-प्रस्तुतिः
अर्चायां स्थण्डिलेऽग्नौ वा सूर्ये वाप्सु हृदि द्विजे।
द्रव्येण भक्तियुक्तोऽर्चेत् स्वगुरुं माममायया॥
मूलम्
अर्चायां स्थण्डिलेऽग्नौ वा सूर्ये वाप्सु हृदि द्विजे।
द्रव्येण भक्तियुक्तोऽर्चेत् स्वगुरुं माममायया॥
अनुवाद (हिन्दी)
भक्तिपूर्वक निष्कपट भावसे अपने पिता एवं गुरुरूप मुझ परमात्माका पूजाकी सामग्रियोंके द्वारा मूर्तिमें, वेदीमें, अग्निमें, सूर्यमें, जलमें, हृदयमें अथवा ब्राह्मणमें—चाहे किसीमें भी आराधना करे॥९॥
श्लोक-१०
विश्वास-प्रस्तुतिः
पूर्वं स्नानं प्रकुर्वीत धौतदन्तोऽङ्गशुद्धये।
उभयैरपि च स्नानं मन्त्रैर्मृद्ग्रहणादिना॥
मूलम्
पूर्वं स्नानं प्रकुर्वीत धौतदन्तोऽङ्गशुद्धये।
उभयैरपि च स्नानं मन्त्रैर्मृद्ग्रहणादिना॥
अनुवाद (हिन्दी)
उपासकको चाहिये कि प्रातःकाल दतुअन करके पहले शरीरशुद्धिके लिये स्नान करे और फिर वैदिक और तान्त्रिक दोनों प्रकारके मन्त्रोंसे मिट्टी और भस्म आदिका लेप करके पुनः स्नान करे॥ १०॥
श्लोक-११
विश्वास-प्रस्तुतिः
सन्ध्योपास्त्यादिकर्माणि वेदेनाचोदितानि मे।
पूजां तैः कल्पयेत् सम्यक् सङ्कल्पः कर्मपावनीम्॥
मूलम्
सन्ध्योपास्त्यादिकर्माणि वेदेनाचोदितानि मे।
पूजां तैः कल्पयेत् सम्यक् सङ्कल्पः कर्मपावनीम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसके पश्चात् वेदोक्त सन्ध्या-वन्दनादि नित्यकर्म करने चाहिये। उसके बाद मेरी आराधनाका ही सुदृढ़ संकल्प करके वैदिक और तान्त्रिक विधियोंसे कर्मबन्धनोंसे छुड़ानेवाली मेरी पूजा करे॥ ११॥
श्लोक-१२
विश्वास-प्रस्तुतिः
शैली दारुमयी लौही लेप्या लेख्या च सैकती।
मनोमयी मणिमयी प्रतिमाष्टविधा स्मृता॥
मूलम्
शैली दारुमयी लौही लेप्या लेख्या च सैकती।
मनोमयी मणिमयी प्रतिमाष्टविधा स्मृता॥
अनुवाद (हिन्दी)
मेरी मूर्ति आठ प्रकारकी होती है—पत्थरकी, लकड़ीकी, धातुकी, मिट्टी और चन्दन आदिकी, चित्रमयी, बालुकामयी, मनोमयी और मणिमयी॥ १२॥
श्लोक-१३
विश्वास-प्रस्तुतिः
चलाचलेति द्विविधा प्रतिष्ठा जीवमन्दिरम्।
उद्वासावाहने न स्तः स्थिरायामुद्धवार्चने॥
मूलम्
चलाचलेति द्विविधा प्रतिष्ठा जीवमन्दिरम्।
उद्वासावाहने न स्तः स्थिरायामुद्धवार्चने॥
अनुवाद (हिन्दी)
चल और अचल भेदसे दो प्रकारकी प्रतिमा ही मुझ भगवान्का मन्दिर है। उद्धवजी! अचल प्रतिमाके पूजनमें प्रतिदिन आवाहन और विसर्जन नहीं करना चाहिये॥ १३॥
श्लोक-१४
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस्थिरायां विकल्पः स्यात् स्थण्डिले तु भवेद् द्वयम्।
स्नपनं त्वविलेप्यायामन्यत्र परिमार्जनम्॥
मूलम्
अस्थिरायां विकल्पः स्यात् स्थण्डिले तु भवेद् द्वयम्।
स्नपनं त्वविलेप्यायामन्यत्र परिमार्जनम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
चल प्रतिमाके सम्बन्धमें विकल्प है। चाहे करे और चाहे न करे। परन्तु बालुकामयी प्रतिमामें तो आवाहन और विसर्जन प्रतिदिन करना ही चाहिये। मिट्टी और चन्दनकी तथा चित्रमयी प्रतिमाओंको स्नान न करावे, केवल मार्जन कर दे; परन्तु और सबको स्नान कराना चाहिये॥ १४॥
श्लोक-१५
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्रव्यैः प्रसिद्धैर्मद्यागः प्रतिमादिष्वमायिनः।
भक्तस्य च यथालब्धैर्हृदि भावेन चैव हि॥
मूलम्
द्रव्यैः प्रसिद्धैर्मद्यागः प्रतिमादिष्वमायिनः।
भक्तस्य च यथालब्धैर्हृदि भावेन चैव हि॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रसिद्ध-प्रसिद्ध पदार्थोंसे प्रतिमा आदिमें मेरी पूजा की जाती है, परन्तु जो निष्काम भक्त है, वह अनायास प्राप्त पदार्थोंसे और भावनामात्रसे ही हृदयमें मेरी पूजा कर ले॥ १५॥
श्लोक-१६
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्नानालङ्करणं प्रेष्ठमर्चायामेव तूद्धव।
स्थण्डिले तत्त्वविन्यासो वह्नावाज्यप्लुतं हविः॥
मूलम्
स्नानालङ्करणं प्रेष्ठमर्चायामेव तूद्धव।
स्थण्डिले तत्त्वविन्यासो वह्नावाज्यप्लुतं हविः॥
अनुवाद (हिन्दी)
उद्धवजी! स्नान, वस्त्र, आभूषण आदि तो पाषाण अथवा धातुकी प्रतिमाके पूजनमें ही उपयोगी हैं। बालुकामयी मूर्ति अथवा मिट्टीकी वेदीमें पूजा करनी हो तो उसमें मन्त्रोंके द्वारा अंग और उसके प्रधान देवताओंकी यथास्थान पूजा करनी चाहिये। तथा अग्निमें पूजा करनी हो तो घृतमिश्रित हवन-सामग्रियोंसे आहुति देनी चाहिये॥ १६॥
श्लोक-१७
विश्वास-प्रस्तुतिः
सूर्ये चाभ्यर्हणं प्रेष्ठं सलिले सलिलादिभिः।
श्रद्धयोपाहृतं प्रेष्ठं भक्तेन मम वार्यपि॥
मूलम्
सूर्ये चाभ्यर्हणं प्रेष्ठं सलिले सलिलादिभिः।
श्रद्धयोपाहृतं प्रेष्ठं भक्तेन मम वार्यपि॥
अनुवाद (हिन्दी)
सूर्यको प्रतीक मानकर की जानेवाली उपासनामें मुख्यतः अर्घ्यदान एवं उपस्थान ही प्रिय है और जलमें तर्पण आदिसे मेरी उपासना करनी चाहिये। जब मुझे कोई भक्त हार्दिक श्रद्धासे जल भी चढ़ाता है, तब मैं उसे बड़े प्रेमसे स्वीकार करता हूँ॥ १७॥
श्लोक-१८
विश्वास-प्रस्तुतिः
भूर्यप्यभक्तोपहृतं न मे तोषाय कल्पते।
गन्धो धूपः सुमनसो दीपोऽन्नाद्यं च किं पुनः॥
मूलम्
भूर्यप्यभक्तोपहृतं न मे तोषाय कल्पते।
गन्धो धूपः सुमनसो दीपोऽन्नाद्यं च किं पुनः॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि कोई अभक्त मुझे बहुत-सी सामग्री निवेदन करे तो भी मैं उससे सन्तुष्ट नहीं होता। जब मैं भक्ति-श्रद्धापूर्वक समर्पित जलसे ही प्रसन्न हो जाता हूँ, तब गन्ध, पुष्प, धूप, दीप और नैवेद्य आदि वस्तुओंके समर्पणसे तो कहना ही क्या है॥ १८॥
श्लोक-१९
विश्वास-प्रस्तुतिः
शुचिः सम्भृतसम्भारः प्राग्दर्भैः कल्पितासनः।
आसीनः प्रागुदग् वार्चेदर्चायामथ सम्मुखः॥
मूलम्
शुचिः सम्भृतसम्भारः प्राग्दर्भैः कल्पितासनः।
आसीनः प्रागुदग् वार्चेदर्चायामथ सम्मुखः॥
अनुवाद (हिन्दी)
उपासक पहले पूजाकी सामग्री इकट्ठी कर ले। फिर इस प्रकार कुश बिछाये कि उनके अगले भाग पूर्वकी ओर रहें। तदनन्तर पूर्व या उत्तरकी ओर मुँह करके पवित्रतासे उन कुशोंके आसनपर बैठ जाय। यदि प्रतिमा अचल हो तो उसके सामने ही बैठना चाहिये। इसके बाद पूजाकार्य प्रारम्भ करे॥ १९॥
श्लोक-२०
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृतन्यासः कृतन्यासां मदर्चां पाणिना मृजेत्।
कलशं प्रोक्षणीयं च यथावदुपसाधयेत्॥
मूलम्
कृतन्यासः कृतन्यासां मदर्चां पाणिना मृजेत्।
कलशं प्रोक्षणीयं च यथावदुपसाधयेत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
पहले विधिपूर्वक अंगन्यास और करन्यास कर ले। इसके बाद मूर्तिमें मन्त्रन्यास करे और हाथसे प्रतिमापरसे पूर्वसमर्पित सामग्री हटाकर उसे पोंछ दे। इसके बाद जलसे भरे हुए कलश और प्रोक्षणपात्र आदिकी पूजा गन्ध-पुष्प आदिसे करे॥ २०॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
प्रोक्षणीयमिति कलशविशेषणम् ॥ २०-२१ ॥
श्लोक-२१
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदद्भिर्देवयजनं द्रव्याण्यात्मानमेव च।
प्रोक्ष्य पात्राणि त्रीण्यद्भिस्तैस्तैर्द्रव्यैश्च साधयेत्॥
मूलम्
तदद्भिर्देवयजनं द्रव्याण्यात्मानमेव च।
प्रोक्ष्य पात्राणि त्रीण्यद्भिस्तैस्तैर्द्रव्यैश्च साधयेत्॥
श्लोक-२२
विश्वास-प्रस्तुतिः
पाद्यार्घ्याचमनीयार्थं त्रीणि पात्राणि दैशिकः।
हृदा शीर्ष्णाथ शिखया गायत्र्या चाभिमन्त्रयेत्॥
मूलम्
पाद्यार्घ्याचमनीयार्थं त्रीणि पात्राणि दैशिकः।
हृदा शीर्ष्णाथ शिखया गायत्र्या चाभिमन्त्रयेत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रोक्षणपात्रके जलसे पूजासामग्री और अपने शरीरका प्रोक्षण कर ले। तदनन्तर पाद्य, अर्घ्य और आचमनके लिये तीन पात्रोंमें कलशमेंसे जल भरकर रख ले और उनमें पूजा-पद्धतिके अनुसार सामग्री डाले। (पाद्यपात्रमें श्यामाक—साँवेके दाने, दूब, कमल, विष्णुक्रान्ता और चन्दन, तुलसीदल आदि; अर्घ्यपात्रमें गन्ध,पुष्प, अक्षत, जौ, कुश, तिल, सरसों और दूब तथा आचमनपात्रमें जायफल, लौंग आदि डाले।) इसके बाद पूजा करनेवालेको चाहिये कि तीनों पात्रोंको क्रमशः हृदयमन्त्र, शिरोमन्त्र और शिखामन्त्रसे अभिमन्त्रित करके अन्तमें गायत्रीमन्त्रसे तीनोंको अभिमन्त्रित करे॥ २१-२२॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
हृदा शीर्ष्णा च शिखया हृदयशिरः शिखामन्त्रैः ॥ २२ ॥
श्लोक-२३
विश्वास-प्रस्तुतिः
पिण्डे वाय्वग्निसंशुद्धे हृत्पद्मस्थां परां मम।
अण्वीं जीवकलां ध्यायेन्नादान्ते सिद्धभाविताम्॥
मूलम्
पिण्डे वाय्वग्निसंशुद्धे हृत्पद्मस्थां परां मम।
अण्वीं जीवकलां ध्यायेन्नादान्ते सिद्धभाविताम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसके बाद प्राणायामके द्वारा प्राण-वायु और भावनाओंद्वारा शरीरस्थ अग्निके शुद्ध हो जानेपर हृदयकमलमें परम सूक्ष्म और श्रेष्ठ दीपशिखाके समान मेरी जीवकलाका ध्यान करे। बड़े-बड़े सिद्ध ऋषि-मुनि ॐकारके अकार, उकार, मकार, बिन्दु और नाद—इन पाँच कलाओंके अन्तमें उसी जीव-कलाका ध्यान करते हैं॥ २३॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
पिण्ड इति । प्लावनस्याप्युपलक्षणार्थौ वाय्वग्निशब्दौ शोषणदाहनप्लावनैः शोधिते शरीरे इत्यर्थः । मम अण्वीं जीवकलां ध्यायेदिति देहादिविलक्षणामण्वीं जीवकलां मदीयां ध्यायेत् ॥ २३-२४ ॥
श्लोक-२४
विश्वास-प्रस्तुतिः
तयाऽऽत्मभूतया पिण्डे व्याप्ते सम्पूज्य तन्मयः।
आवाह्यार्चादिषु स्थाप्य न्यस्ताङ्गं मां प्रपूजयेत्॥
मूलम्
तयाऽऽत्मभूतया पिण्डे व्याप्ते सम्पूज्य तन्मयः।
आवाह्यार्चादिषु स्थाप्य न्यस्ताङ्गं मां प्रपूजयेत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह जीवकला आत्मस्वरूपिणी है। जब उसके तेजसे सारा अन्तःकरण और शरीर भर जाय तब मानसिक उपचारोंसे मन-ही-मन उसकी पूजा करनी चाहिये। तदनन्तर तन्मय होकर मेरा आवाहन करे और प्रतिमा आदिमें स्थापना करे। फिर मन्त्रोंके द्वारा अंगन्यास करके उसमें मेरी पूजा करे॥ २४॥
श्लोक-२५
विश्वास-प्रस्तुतिः
पाद्योपस्पर्शार्हणादीनुपचारान् प्रकल्पयेत्।
धर्मादिभिश्च नवभिः कल्पयित्वाऽऽसनं मम॥
मूलम्
पाद्योपस्पर्शार्हणादीनुपचारान् प्रकल्पयेत्।
धर्मादिभिश्च नवभिः कल्पयित्वाऽऽसनं मम॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
धर्मादिभिश्च नवभिरिति । धर्मादिभिरष्टभिः विमलादिभिर्नवभिः ॥ २५-४१ ॥
श्लोक-२६
विश्वास-प्रस्तुतिः
पद्ममष्टदलं तत्र कर्णिकाकेसरोज्ज्वलम्।
उभाभ्यां वेदतन्त्राभ्यां मह्यं तूभयसिद्धये॥
मूलम्
पद्ममष्टदलं तत्र कर्णिकाकेसरोज्ज्वलम्।
उभाभ्यां वेदतन्त्राभ्यां मह्यं तूभयसिद्धये॥
अनुवाद (हिन्दी)
उद्धवजी! मेरे आसनमें धर्म आदि गुणों और विमला आदि शक्तियोंकी भावना करे। अर्थात् आसनके चारों कोनोंमें धर्म, ज्ञान, वैराग्य और ऐश्वर्यरूप चार पाये हैं; अधर्म, अज्ञान, अवैराग्य और अनैश्वर्य—ये चार चारों दिशाओंमें डंडे हैं; सत्त्व-रज-तम-रूप तीन पटरियोंकी बनी हुई पीठ है; उसपर विमला, उत्कर्षिणी, ज्ञाना, क्रिया, योगा, प्रह्वी, सत्या, ईशाना और अनुग्रहा—ये नौ शक्तियाँ विराजमान हैं। उस आसनपर एक अष्टदल कमल है, उसकी कर्णिका अत्यन्त प्रकाशमान है और पीली-पीली केसरोंकी छटा निराली ही है। आसनके सम्बन्धमें ऐसी भावना करके पाद्य, आचमनीय और अर्घ्य आदि उपचार प्रस्तुत करे। तदनन्तर भोग और मोक्षकी सिद्धिके लिये वैदिक और तान्त्रिक विधिसे मेरी पूजा करे॥ २५-२६॥
श्लोक-२७
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुदर्शनं पाञ्चजन्यं गदासीषुधनुर्हलान्।
मुसलं कौस्तुभं मालां श्रीवत्सं चानुपूजयेत्॥
मूलम्
सुदर्शनं पाञ्चजन्यं गदासीषुधनुर्हलान्।
मुसलं कौस्तुभं मालां श्रीवत्सं चानुपूजयेत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
सुदर्शनचक्र, पाञ्चजन्य शंख, कौमोदकी गदा, खड्ग, बाण, धनुष, हल, मूसल—इन आठ आयुधोंकी पूजा आठ दिशाओंमें करे और कौस्तुभमणि, वैजयन्ती-माला तथा श्रीवत्सचिह्नकी वक्षःस्थलपर यथास्थान पूजा करे॥ २७॥
श्लोक-२८
विश्वास-प्रस्तुतिः
नन्दं सुनन्दं गरुडं प्रचण्डं चण्डमेव च।
महाबलं बलं चैव कुमुदं कुमुदेक्षणम्॥
मूलम्
नन्दं सुनन्दं गरुडं प्रचण्डं चण्डमेव च।
महाबलं बलं चैव कुमुदं कुमुदेक्षणम्॥
श्लोक-२९
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुर्गां विनायकं व्यासं विष्वक्सेनं गुरून् सुरान्।
स्वे स्वे स्थाने त्वभिमुखान् पूजयेत् प्रोक्षणादिभिः॥
मूलम्
दुर्गां विनायकं व्यासं विष्वक्सेनं गुरून् सुरान्।
स्वे स्वे स्थाने त्वभिमुखान् पूजयेत् प्रोक्षणादिभिः॥
अनुवाद (हिन्दी)
नन्द, सुनन्द, प्रचण्ड, चण्ड, महाबल, बल, कुमुद और कुमुदेक्षण—इन आठ पार्षदोंकी आठ दिशाओंमें; गरुड़की सामने; दुर्गा, विनायक, व्यास और विष्वक्सेनकी चारों कोनोंमें स्थापना करके पूजन करे। बायीं ओर गुरुकी और यथाक्रम पूर्वादि दिशाओंमें इन्द्रादि आठ लोकपालोंकी स्थापना करके प्रोक्षण, अर्घ्यदान आदि क्रमसे उनकी पूजा करनी चाहिये॥ २८-२९॥
श्लोक-३०
विश्वास-प्रस्तुतिः
चन्दनोशीरकर्पूरकुङ्कुमागुरुवासितैः।
सलिलैः स्नापयेन्मन्त्रैर्नित्यदा विभवे सति॥
मूलम्
चन्दनोशीरकर्पूरकुङ्कुमागुरुवासितैः।
सलिलैः स्नापयेन्मन्त्रैर्नित्यदा विभवे सति॥
श्लोक-३१
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वर्णघर्मानुवाकेन महापुरुषविद्यया।
पौरुषेणापि सूक्तेन सामभी राजनादिभिः॥
मूलम्
स्वर्णघर्मानुवाकेन महापुरुषविद्यया।
पौरुषेणापि सूक्तेन सामभी राजनादिभिः॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रिय उद्धव! यदि सामर्थ्य हो तो प्रतिदिन चन्दन, खस, कपूर, केसर और अरगजा आदि सुगन्धित वस्तुओंद्वारा सुवासित जलसे मुझे स्नान कराये और उस समय ‘सुवर्ण घर्म’ इत्यादि स्वर्णघर्मानुवाक, ‘जितं ते पुण्डरीकाक्ष’ इत्यादि महापुरुषविद्या,‘सहस्रशीर्षा पुरुषः’ इत्यादि पुरुषसूक्त और ‘इन्द्रं नरो नेमधिता हवन्त’ इत्यादि मन्त्रोक्त राजनादि साम-गायनका पाठ भी करता रहे॥ ३०-३१॥
श्लोक-३२
विश्वास-प्रस्तुतिः
वस्त्रोपवीताभरणपत्रस्रग्गन्धलेपनैः।
अलङ्कुर्वीत सप्रेम मद्भक्तो मां यथोचितम्॥
मूलम्
वस्त्रोपवीताभरणपत्रस्रग्गन्धलेपनैः।
अलङ्कुर्वीत सप्रेम मद्भक्तो मां यथोचितम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
मेरा भक्त वस्त्र, यज्ञोपवीत, आभूषण, पत्र, माला, गन्ध और चन्दनादिसे प्रेमपूर्वक यथावत् मेरा शृंगार करे॥ ३२॥
श्लोक-३३
विश्वास-प्रस्तुतिः
पाद्यमाचमनीयं च गन्धं सुमनसोऽक्षतान्।
धूपदीपोपहार्याणि दद्यान्मे श्रद्धयार्चकः॥
मूलम्
पाद्यमाचमनीयं च गन्धं सुमनसोऽक्षतान्।
धूपदीपोपहार्याणि दद्यान्मे श्रद्धयार्चकः॥
अनुवाद (हिन्दी)
उपासक श्रद्धाके साथ मुझे पाद्य, आचमन, चन्दन, पुष्प, अक्षत, धूप, दीप आदि सामग्रियाँ समर्पित करे॥ ३३॥
श्लोक-३४
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुडपायससर्पींषि शष्कुल्यापूपमोदकान्।
संयावदधिसूपांश्च नैवेद्यं सति कल्पयेत्॥
मूलम्
गुडपायससर्पींषि शष्कुल्यापूपमोदकान्।
संयावदधिसूपांश्च नैवेद्यं सति कल्पयेत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि हो सके तो गुड़, खीर, घृत, पूड़ी, पूए, लड्डू, हलुआ, दही और दाल आदि विविध व्यंजनोंका नैवेद्य लगावे॥ ३४॥
श्लोक-३५
विश्वास-प्रस्तुतिः
अभ्यङ्गोन्मर्दनादर्शदन्तधावाभिषेचनम्।
अन्नाद्यगीतनृत्यादि पर्वणि स्युरुतान्वहम्॥
मूलम्
अभ्यङ्गोन्मर्दनादर्शदन्तधावाभिषेचनम्।
अन्नाद्यगीतनृत्यादि पर्वणि स्युरुतान्वहम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान्के विग्रहको दतुअन कराये, उबटन लगाये, पञ्चामृत आदिसे स्नान कराये, सुगन्धित पदार्थोंका लेप करे, दर्पण दिखाये, भोग लगाये और शक्ति हो तो प्रतिदिन अथवा पर्वोंके अवसरपर नाचने-गाने आदिका भी प्रबन्ध करे॥ ३५॥
श्लोक-३६
विश्वास-प्रस्तुतिः
विधिना विहिते कुण्डे मेखलागर्तवेदिभिः।
अग्निमाधाय परितः समूहेत् पाणिनोदितम्॥
मूलम्
विधिना विहिते कुण्डे मेखलागर्तवेदिभिः।
अग्निमाधाय परितः समूहेत् पाणिनोदितम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
उद्धवजी! तदनन्तर पूजाके बाद शास्त्रोक्त विधिसे बने हुए कुण्डमें अग्निकी स्थापना करे। वह कुण्ड मेखला, गर्त और वेदीसे शोभायमान हो। उसमें हाथकी हवासे अग्नि प्रज्वलित करके उसका परिसमूहन करे, अर्थात् उसे एकत्र कर दे॥ ३६॥
श्लोक-३७
विश्वास-प्रस्तुतिः
परिस्तीर्याथ पर्युक्षेदन्वाधाय यथाविधि।
प्रोक्षण्याऽऽसाद्य द्रव्याणि प्रोक्ष्याग्नौ भावयेत माम्॥
मूलम्
परिस्तीर्याथ पर्युक्षेदन्वाधाय यथाविधि।
प्रोक्षण्याऽऽसाद्य द्रव्याणि प्रोक्ष्याग्नौ भावयेत माम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
वेदीके चारों ओर कुशकण्डिका करके अर्थात् चारों ओर बीस-बीस कुश बिछाकर मन्त्र पढ़ता हुआ उनपर जल छिड़के। इसके बाद विधिपूर्वक समिधाओंका आधानरूप अन्वाधान कर्म करके अग्निके उत्तर भागमें होमोपयोगी सामग्री रखे और प्रोक्षणीपात्रके जलसे प्रोक्षण करे। तदनन्तर अग्निमें मेरा इस प्रकार ध्यान करे॥ ३७॥
श्लोक-३८
विश्वास-प्रस्तुतिः
तप्तजाम्बूनदप्रख्यं शङ्खचक्रगदाम्बुजैः।
लसच्चतुर्भुजं शान्तं पद्मकिञ्जल्कवाससम्॥
मूलम्
तप्तजाम्बूनदप्रख्यं शङ्खचक्रगदाम्बुजैः।
लसच्चतुर्भुजं शान्तं पद्मकिञ्जल्कवाससम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मेरी मूर्ति तपाये हुए सोनेके समान दम-दम दमक रही है। रोम-रोमसे शान्तिकी वर्षा हो रही है। लंबी और विशाल चार भुजाएँ शोभायमान हैं। उनमें शंख, चक्र, गदा, पद्म विराजमान हैं। कमलकी केसरके समान पीला-पीला वस्त्र फहरा रहा है॥ ३८॥
श्लोक-३९
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्फुरत्किरीटकटककटिसूत्रवराङ्गदम्।
श्रीवत्सवक्षसं भ्राजत्कौस्तुभं वनमालिनम्॥
मूलम्
स्फुरत्किरीटकटककटिसूत्रवराङ्गदम्।
श्रीवत्सवक्षसं भ्राजत्कौस्तुभं वनमालिनम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
सिरपर मुकुट, कलाइयोंमें कंगन, कमरमें करधनी और बाँहोंमें बाजूबंद झिलमिला रहे हैं। वक्षःस्थलपर श्रीवत्सका चिह्न है। गलेमें कौस्तुभमणि जगमगा रही है। घुटनोंतक वनमाला लटक रही है’॥ ३९॥
श्लोक-४०
विश्वास-प्रस्तुतिः
ध्यायन्नभ्यर्च्य दारूणि हविषाभिघृतानि च।
प्रास्याज्यभागावाघारौ दत्त्वा चाज्यप्लुतं हविः॥
मूलम्
ध्यायन्नभ्यर्च्य दारूणि हविषाभिघृतानि च।
प्रास्याज्यभागावाघारौ दत्त्वा चाज्यप्लुतं हविः॥
अनुवाद (हिन्दी)
अग्निमें मेरी इस मूर्तिका ध्यान करके पूजा करनी चाहिये। इसके बाद सूखी समिधाओंको घृतमें डुबोकर आहुति दे और आज्यभाग और आघार नामक दो-दो आहुतियोंसे और भी हवन करे। तदनन्तर घीसे भिगोकर अन्य हवन-सामग्रियोंसे आहुति दे॥ ४०॥
श्लोक-४१
विश्वास-प्रस्तुतिः
जुहुयान्मूलमन्त्रेण षोडशर्चावदानतः।
धर्मादिभ्यो यथान्यायं मन्त्रैः स्विष्टकृतं बुधः॥
मूलम्
जुहुयान्मूलमन्त्रेण षोडशर्चावदानतः।
धर्मादिभ्यो यथान्यायं मन्त्रैः स्विष्टकृतं बुधः॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसके बाद अपने इष्टमन्त्रसे अथवा ‘ॐ नमो नारायणाय’ इस अष्टाक्षर मन्त्रसे तथा पुरुषसूक्तके सोलह मन्त्रोंसे हवन करे। बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि धर्मादि देवताओंके लिये भी विधिपूर्वक मन्त्रोंसे हवन करे और स्विष्टकृत् आहुति भी दे॥ ४१॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
धर्मादिमन्त्रैः धर्मादिभ्यश्च यथान्यायं हविर्जुहुयादिति शेषः पुनः स्विष्टकृतं कुर्यात् ॥ ४१ ॥
श्लोक-४२
विश्वास-प्रस्तुतिः
अभ्यर्च्याथ नमस्कृत्य पार्षदेभ्यो बलिं हरेत्।
मूलमन्त्रं जपेद् ब्रह्म स्मरन्नारायणात्मकम्॥
मूलम्
अभ्यर्च्याथ नमस्कृत्य पार्षदेभ्यो बलिं हरेत्।
मूलमन्त्रं जपेद् ब्रह्म स्मरन्नारायणात्मकम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार अग्निमें अन्तर्यामीरूपसे स्थित भगवान्की पूजा करके उन्हें नमस्कार करे और नन्द-सुनन्द आदि पार्षदोंको आठों दिशाओंमें हवनकर्मांग बलि दे। तदनन्तर प्रतिमाके सम्मुख बैठकर परब्रह्मस्वरूप भगवान् नारायणका स्मरण करे और भगवत्स्वरूप मूलमन्त्र ‘ॐ नमो नारायणाय’ का जप करे॥ ४२॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
नारायणात्मकं मूलमन्त्रमष्टाक्षरम् ॥ ४२-४६ ॥
श्लोक-४३
विश्वास-प्रस्तुतिः
दत्त्वाऽऽचमनमुच्छेषं विष्वक्सेनाय कल्पयेत्।
मुखवासं सुरभिमत् ताम्बूलाद्यमथार्हयेत्॥
मूलम्
दत्त्वाऽऽचमनमुच्छेषं विष्वक्सेनाय कल्पयेत्।
मुखवासं सुरभिमत् ताम्बूलाद्यमथार्हयेत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसके बाद भगवान्को आचमन करावे और उनका प्रसाद विष्वक्सेनको निवेदन करे। इसके पश्चात् अपने इष्टदेवकी सेवामें सुगन्धित ताम्बूल आदि मुखवास उपस्थित करे तथा पुष्पाञ्जलि समर्पित करे॥ ४३॥
श्लोक-४४
विश्वास-प्रस्तुतिः
उपगायन् गृणन् नृत्यन् कर्माण्यभिनयन् मम।
मत्कथाः श्रावयञ्छृण्वन् मुहूर्तं क्षणिको भवेत्॥
मूलम्
उपगायन् गृणन् नृत्यन् कर्माण्यभिनयन् मम।
मत्कथाः श्रावयञ्छृण्वन् मुहूर्तं क्षणिको भवेत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
मेरी लीलाओंको गावे, उनका वर्णन करे और मेरी ही लीलाओंका अभिनय करे। यह सब करते समय प्रेमोन्मत्त होकर नाचने लगे। मेरी लीला-कथाएँ स्वयं सुने और दूसरोंको सुनावे। कुछ समयतक संसार और उसके रगड़ों-झगड़ोंको भूलकर मुझमें ही तन्मय हो जाय॥ ४४॥
श्लोक-४५
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्तवैरुच्चावचैः स्तोत्रैः पौराणैः प्राकृतैरपि।
स्तुत्वा प्रसीद भगवन्निति वन्देत दण्डवत्॥
मूलम्
स्तवैरुच्चावचैः स्तोत्रैः पौराणैः प्राकृतैरपि।
स्तुत्वा प्रसीद भगवन्निति वन्देत दण्डवत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्राचीन ऋषियोंके द्वारा अथवा प्राकृत भक्तोंके द्वारा बनाये हुए छोटे-बड़े स्तव और स्तोत्रोंसे मेरी स्तुति करके प्रार्थना करे—‘भगवन्! आप मुझपर प्रसन्न हों। मुझे अपने कृपाप्रसादसे सराबोर कर दें।’ तदनन्तर दण्डवत् प्रणाम करे॥ ४५॥
श्लोक-४६
विश्वास-प्रस्तुतिः
शिरोमत्पादयोः कृत्वा बाहुभ्यां च परस्परम्।
प्रपन्नं पाहि मामीश भीतं मृत्युग्रहार्णवात्॥
मूलम्
शिरोमत्पादयोः कृत्वा बाहुभ्यां च परस्परम्।
प्रपन्नं पाहि मामीश भीतं मृत्युग्रहार्णवात्॥
अनुवाद (हिन्दी)
अपना सिर मेरे चरणोंपर रख दे और अपने दोनों हाथोंसे—दायेंसे दाहिना और बायेंसे बायाँ चरण पकड़कर कहे—‘भगवन्! इस संसार-सागरमें मैं डूब रहा हूँ। मृत्युरूप मगर मेरा पीछा कर रहा है। मैं डरकर आपकी शरणमें आया हूँ। प्रभो! आप मेरी रक्षा कीजिये’॥ ४६॥
श्लोक-४७
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति शेषां मया दत्तां शिरस्याधाय सादरम्।
उद्वासयेच्चेदुद्वास्यं ज्योतिर्ज्योतिषि तत् पुनः॥
मूलम्
इति शेषां मया दत्तां शिरस्याधाय सादरम्।
उद्वासयेच्चेदुद्वास्यं ज्योतिर्ज्योतिषि तत् पुनः॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार स्तुति करके मुझे समर्पित की हुई माला आदरके साथ अपने सिरपर रखे और उसे मेरा दिया हुआ प्रसाद समझे। यदि विसर्जन करना हो तो ऐसी भावना करनी चाहिये कि प्रतिमामेंसे एक दिव्य ज्योति निकली है और वह मेरी हृदयस्थ ज्योतिमें लीन हो गयी है। बस, यही विसर्जन है॥ ४७॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
ज्योतिरर्च्चारूपं ज्योतिः ज्योतिषि अन्तरात्मनि ॥ ४७-५१ ॥
श्लोक-४८
विश्वास-प्रस्तुतिः
अर्चादिषु यदा यत्र श्रद्धा मां तत्र चार्चयेत्।
सर्वभूतेष्वात्मनि च सर्वात्माहमवस्थितः॥
मूलम्
अर्चादिषु यदा यत्र श्रद्धा मां तत्र चार्चयेत्।
सर्वभूतेष्वात्मनि च सर्वात्माहमवस्थितः॥
अनुवाद (हिन्दी)
उद्धवजी! प्रतिमा आदिमें जब जहाँ श्रद्धा हो तब, तहाँ मेरी पूजा करनी चाहिये, क्योंकि मैं सर्वात्मा हूँ और समस्त प्राणियोंमें तथा अपने हृदयमें भी स्थित हूँ॥ ४८॥
श्लोक-४९
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं क्रियायोगपथैः पुमान् वैदिकतान्त्रिकैः।
अर्चन्नुभयतः सिद्धं मत्तो विन्दत्यभीप्सिताम्॥
मूलम्
एवं क्रियायोगपथैः पुमान् वैदिकतान्त्रिकैः।
अर्चन्नुभयतः सिद्धं मत्तो विन्दत्यभीप्सिताम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
उद्धवजी! जो मनुष्य इस प्रकार वैदिक, तान्त्रिक क्रियायोगके द्वारा मेरी पूजा करता है वह इस लोक और परलोकमें मुझसे अभीष्ट सिद्धि प्राप्त करता है॥ ४९॥
श्लोक-५०
विश्वास-प्रस्तुतिः
मदर्चां सम्प्रतिष्ठाप्य मन्दिरं कारयेद् दृढम्।
पुष्पोद्यानानि रम्याणि पूजायात्रोत्सवाश्रितान्॥
मूलम्
मदर्चां सम्प्रतिष्ठाप्य मन्दिरं कारयेद् दृढम्।
पुष्पोद्यानानि रम्याणि पूजायात्रोत्सवाश्रितान्॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि शक्ति हो तो उपासक सुन्दर और सुदृढ़ मन्दिर बनवाये और उसमें मेरी प्रतिमा स्थापित करे। सुन्दर-सुन्दर फूलोंके बगीचे लगवा दे; नित्यकी पूजा, पर्वकी यात्रा और बड़े-बड़े उत्सवोंकी व्यवस्था कर दे॥ ५०॥
श्लोक-५१
विश्वास-प्रस्तुतिः
पूजादीनां प्रवाहार्थं महापर्वस्वथान्वहम्।
क्षेत्रापणपुरग्रामान् दत्त्वा मत्सार्ष्टितामियात्॥
मूलम्
पूजादीनां प्रवाहार्थं महापर्वस्वथान्वहम्।
क्षेत्रापणपुरग्रामान् दत्त्वा मत्सार्ष्टितामियात्॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो मनुष्य पर्वोंके उत्सव और प्रतिदिनकी पूजा लगातार चलनेके लिये खेत, बाजार, नगर अथवा गाँव मेरे नामपर समर्पित कर देते हैं, उन्हें मेरे समान ऐश्वर्यकी प्राप्ति होती है॥ ५१॥
श्लोक-५२
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रतिष्ठया सार्वभौमं सद्मना भुवनत्रयम्।
पूजादिना ब्रह्मलोकं त्रिभिर्मत्साम्यतामियात्॥
मूलम्
प्रतिष्ठया सार्वभौमं सद्मना भुवनत्रयम्।
पूजादिना ब्रह्मलोकं त्रिभिर्मत्साम्यतामियात्॥
अनुवाद (हिन्दी)
मेरी मूर्तिकी प्रतिष्ठा करनेसे पृथ्वीका एकच्छत्र राज्य, मन्दिर-निर्माणसे त्रिलोकीका राज्य, पूजा आदिकी व्यवस्था करनेसे ब्रह्मलोक और तीनोंके द्वारा मेरी समानता प्राप्त होती है॥ ५२॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
मया साम्यं यस्य स मत्साम्यः तस्य भावो मत्साम्यता नैरपेक्ष्येण ॥ ५२-५३ ॥
श्लोक-५३
विश्वास-प्रस्तुतिः
मामेव नैरपेक्ष्येण भक्तियोगेन विन्दति।
भक्तियोगं स लभते एवं यः पूजयेत माम्॥
मूलम्
मामेव नैरपेक्ष्येण भक्तियोगेन विन्दति।
भक्तियोगं स लभते एवं यः पूजयेत माम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो निष्काम-भावसे मेरी पूजा करता है, उसे मेरा भक्तियोग प्राप्त हो जाता है और उस निरपेक्ष भक्तियोगके द्वारा वह स्वयं मुझे प्राप्त कर लेता है॥ ५३॥
श्लोक-५४
विश्वास-प्रस्तुतिः
यः स्वदत्तां परैर्दत्तां हरेत सुरविप्रयोः।
वृत्तिं स जायते विड्भुग् वर्षाणामयुतायुतम्॥
मूलम्
यः स्वदत्तां परैर्दत्तां हरेत सुरविप्रयोः।
वृत्तिं स जायते विड्भुग् वर्षाणामयुतायुतम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो अपनी दी हुई या दूसरोंकी दी हुई देवता और ब्राह्मणकी जीविका हरण कर लेता है, वह करोड़ों वर्षोंतक विष्ठाका कीड़ा होता है॥ ५४॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
विड्भुग् अमेध्यभोजी ॥ ५४ ॥
श्लोक-५५
विश्वास-प्रस्तुतिः
कर्तुश्च सारथेर्हेतोरनुमोदितुरेव च।
कर्मणां भागिनः प्रेत्य भूयो भूयसि तत् फलम्॥
मूलम्
कर्तुश्च सारथेर्हेतोरनुमोदितुरेव च।
कर्मणां भागिनः प्रेत्य भूयो भूयसि तत् फलम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो लोग ऐसे कामोंमें सहायता, प्रेरणा अथवा अनुमोदन करते हैं, वे भी मरनेके बाद प्राप्त करनेवालेके समान ही फलके भागीदार होते हैं। यदि उनका हाथ अधिक रहा तो फल भी उन्हें अधिक ही मिलता है॥ ५५॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
सारथेर्हेतोः सहकारितया हेतुभूतस्य भूयः भूयिष्ठम् ॥ ५५ ॥
इति श्रीमद्भागवतव्याख्याने एकादशस्कन्धीये श्रीसुदर्शनसूरिकृतशुकपक्षीये सप्तविंशोऽध्यायः ॥ २७ ॥
अनुवाद (समाप्ति)
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायामेकादशस्कन्धे सप्तविंशोऽध्यायः॥ २७॥