[षडविंशोऽध्यायः]
भागसूचना
पुरूरवाकी वैराग्योक्ति
श्लोक-१
मूलम् (वचनम्)
श्रीभगवानुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
मल्लक्षणमिमं कायं लब्ध्वा मद्धर्म आस्थितः।
आनन्दं परमात्मानमात्मस्थं समुपैति माम्॥
मूलम्
मल्लक्षणमिमं कायं लब्ध्वा मद्धर्म आस्थितः।
आनन्दं परमात्मानमात्मस्थं समुपैति माम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं—उद्धवजी! यह मनुष्यशरीर मेरे स्वरूपज्ञानकी प्राप्तिका—मेरी प्राप्तिका मुख्य साधन है। इसे पाकर जो मनुष्य सच्चे प्रेमसे मेरी भक्ति करता है, वह अन्तःकरणमें स्थित मुझ आनन्दस्वरूप परमात्माको प्राप्त हो जाता है॥ १॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
मल्लक्षणं मम दर्शनसाधनभूतमानन्दमानन्दमयम् आत्मस्थं जीवात्मनि स्थितम् ॥ १ ॥
श्लोक-२
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुणमय्या जीवयोन्या विमुक्तो ज्ञाननिष्ठया।
गुणेषु मायामात्रेषु दृश्यमानेष्ववस्तुतः।
वर्तमानोऽपि न पुमान् युज्यतेऽवस्तुभिर्गुणैः॥
मूलम्
गुणमय्या जीवयोन्या विमुक्तो ज्ञाननिष्ठया।
गुणेषु मायामात्रेषु दृश्यमानेष्ववस्तुतः।
वर्तमानोऽपि न पुमान् युज्यतेऽवस्तुभिर्गुणैः॥
अनुवाद (हिन्दी)
जीवोंकी सभी योनियाँ, सभी गतियाँ त्रिगुणमयी हैं। जीव ज्ञाननिष्ठाके द्वारा उनसे सदाके लिये मुक्त हो जाता है। सत्त्व-रज आदि गुण जो दीख रहे हैं वे वास्तविक नहीं हैं, मायामात्र हैं। ज्ञान हो जानेके बाद पुरुष उनके बीचमें रहनेपर भी, उनके द्वारा व्यवहार करनेपर भी उनसे बँधता नहीं। इसका कारण यह है कि उन गुणोंकी वास्तविक सत्ता ही नहीं है॥ २॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
जीवयोन्या देवमनुष्यादियोन्या विमुक्तः तत्राभिमानरहितः गुणेषु शब्दादिषु मायामात्रेषु प्रकृतिकार्येषु अवस्तुभिर्हयैः ॥ २ ॥
श्लोक-३
विश्वास-प्रस्तुतिः
सङ्गं न कुर्यादसतां शिश्नोदरतृपां क्वचित्।
तस्यानुगस्तमस्यन्धे पतत्यन्धानुगान्धवत्॥
मूलम्
सङ्गं न कुर्यादसतां शिश्नोदरतृपां क्वचित्।
तस्यानुगस्तमस्यन्धे पतत्यन्धानुगान्धवत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
साधारण लोगोंको इस बातका ध्यान रखना चाहिये कि जो लोग विषयोंके सेवन और उदरपोषणमें ही लगे हुए हैं, उन असत् पुरुषोंका संग कभी न करें; क्योंकि उनका अनुगमन करनेवाले पुरुषकी वैसी ही दुर्दशा होती है, जैसे अंधेके सहारे चलनेवाले अंधेकी। उसे तो घोर अन्धकारमें ही भटकना पड़ता है॥ ३॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
तस्यासज्जनस्य सङ्गस्य वा ॥ ३-४ ॥
श्लोक-४
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऐलः सम्राडिमां गाथामगायत बृहच्छ्रवाः।
उर्वशीविरहान् मुह्यन् निर्विण्णः शोकसंयमे॥
मूलम्
ऐलः सम्राडिमां गाथामगायत बृहच्छ्रवाः।
उर्वशीविरहान् मुह्यन् निर्विण्णः शोकसंयमे॥
अनुवाद (हिन्दी)
उद्धवजी! पहले तो परम यशस्वी सम्राट् इलानन्दन पुरूरवा उर्वशीके विरहसे अत्यन्त बेसुध हो गया था। पीछे शोक हट जानेपर उसे बड़ा वैराग्य हुआ और तब उसने यह गाथा गायी॥ ४॥
श्लोक-५
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्यक्त्वाऽऽत्मानं व्रजन्तीं तां नग्न उन्मत्तवन्नृपः।
विलपन्नन्वगाज्जाये घोरे तिष्ठेति विक्लवः॥
मूलम्
त्यक्त्वाऽऽत्मानं व्रजन्तीं तां नग्न उन्मत्तवन्नृपः।
विलपन्नन्वगाज्जाये घोरे तिष्ठेति विक्लवः॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा पुरूरवा नग्न होकर पागलकी भाँति अपनेको छोड़कर भागती हुई उर्वशीके पीछे अत्यन्त विह्वल होकर दौड़ने लगा और कहने लगा—‘देवि! निष्ठुर हृदये! थोड़ी देर ठहर जा, भाग मत’॥ ५॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
व्रजन्तीमुर्वशीं वर्षरात्रीम् ॥ ५-६ ॥
श्लोक-६
विश्वास-प्रस्तुतिः
कामानतृप्तोऽनुजुषन् क्षुल्लकान् वर्षयामिनीः।
न वेद यान्तीर्नायान्तीरुर्वश्याकृष्टचेतनः॥
मूलम्
कामानतृप्तोऽनुजुषन् क्षुल्लकान् वर्षयामिनीः।
न वेद यान्तीर्नायान्तीरुर्वश्याकृष्टचेतनः॥
अनुवाद (हिन्दी)
उर्वशीने उनका चित्त आकृष्ट कर लिया था। उन्हें तृप्ति नहीं हुई थी। वे क्षुद्र विषयोंके सेवनमें इतने डूब गये थे कि उन्हें वर्षोंकी रात्रियाँ न जाती मालूम पड़ीं और न तो आतीं॥ ६॥
श्लोक-७
मूलम् (वचनम्)
ऐल उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहो मे मोहविस्तारः कामकश्मलचेतसः।
देव्या गृहीतकण्ठस्य नायुःखण्डा इमे स्मृताः॥
मूलम्
अहो मे मोहविस्तारः कामकश्मलचेतसः।
देव्या गृहीतकण्ठस्य नायुःखण्डा इमे स्मृताः॥
अनुवाद (हिन्दी)
पुरूरवाने कहा—हाय-हाय! भला, मेरी मूढ़ता तो देखो, कामवासनाने मेरे चित्तको कितना कलुषित कर दिया! उर्वशीने अपनी बाहुओंसे मेरा ऐसा गला पकड़ा कि मैंने आयुके न जाने कितने वर्ष खो दिये। ओह! विस्मृतिकी भी एक सीमा होती है॥ ७॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
देव्या देवस्त्रिया ॥ ७ ॥
श्लोक-८
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाहं वेदाभिनिर्मुक्तः सूर्यो वा(ना)भ्युदितोऽमुया।
मुषितो वर्षपूगानां बताहानि गतान्युत॥
मूलम्
नाहं वेदाभिनिर्मुक्तः सूर्यो वा(ना)भ्युदितोऽमुया।
मुषितो वर्षपूगानां बताहानि गतान्युत॥
अनुवाद (हिन्दी)
हाय-हाय! इसने मुझे लूट लिया। सूर्य अस्त हो गया या उदित हुआ—यह भी मैं न जान सका। बड़े खेदकी बात है कि बहुत-से वर्षोंके दिन-पर-दिन बीतते गये और मुझे मालूमतक न पड़ा॥ ८॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
सूर्यो नाभ्युदितः इति काकाक्षिन्यायादन्वयः लुप्तसन्ध्यादयो वयमित्यर्थः ॥ ८-१० ॥
श्लोक-९
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहो मे आत्मसम्मोहो येनात्मा योषितां कृतः।
क्रीडामृगश्चक्रवर्ती नरदेवशिखामणिः॥
मूलम्
अहो मे आत्मसम्मोहो येनात्मा योषितां कृतः।
क्रीडामृगश्चक्रवर्ती नरदेवशिखामणिः॥
अनुवाद (हिन्दी)
अहो! आश्चर्य है! मेरे मनमें इतना मोह बढ़ गया, जिसने नरदेव-शिखामणि चक्रवर्ती सम्राट् मुझ पुरूरवाको भी स्त्रियोंका क्रीडामृग (खिलौना) बना दिया॥ ९॥
श्लोक-१०
विश्वास-प्रस्तुतिः
सपरिच्छदमात्मानं हित्वा तृणमिवेश्वरम्।
यान्तीं स्त्रियं चान्वगमं नग्न उन्मत्तवद् रुदन्॥
मूलम्
सपरिच्छदमात्मानं हित्वा तृणमिवेश्वरम्।
यान्तीं स्त्रियं चान्वगमं नग्न उन्मत्तवद् रुदन्॥
अनुवाद (हिन्दी)
देखो, मैं प्रजाको मर्यादामें रखनेवाला सम्राट् हूँ। वह मुझे और मेरे राजपाटको तिनकेकी तरह छोड़कर जाने लगी और मैं पागल होकर नंग-धड़ंग रोता-बिलखता उस स्त्रीके पीछे दौड़ पड़ा। हाय! हाय! यह भी कोई जीवन है॥ १०॥
श्लोक-११
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुतस्तस्यानुभावः स्यात् तेज ईशत्वमेव वा।
योऽन्वगच्छं स्त्रियं यान्तीं खरवत् पादताडितः॥
मूलम्
कुतस्तस्यानुभावः स्यात् तेज ईशत्वमेव वा।
योऽन्वगच्छं स्त्रियं यान्तीं खरवत् पादताडितः॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं गधेकी तरह दुलत्तियाँ सहकर भी स्त्रीके पीछे-पीछे दौड़ता रहा; फिर मुझमें प्रभाव, तेज और स्वामित्व भला कैसे रह सकता है॥ ११॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
तस्येति । ममेति शेषः तेजः पराभिभवसामर्थ्यम् ईशित्वं नियन्तृत्वम् ॥ ११-१६ ॥
श्लोक-१२
विश्वास-प्रस्तुतिः
किं विद्यया किं तपसा किं त्यागेन श्रुतेन वा।
किं विविक्तेन मौनेन स्त्रीभिर्यस्य मनो हृतम्॥
मूलम्
किं विद्यया किं तपसा किं त्यागेन श्रुतेन वा।
किं विविक्तेन मौनेन स्त्रीभिर्यस्य मनो हृतम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
स्त्रीने जिसका मन चुरा लिया, उसकी विद्या व्यर्थ है। उसे तपस्या, त्याग और शास्त्राभ्याससे भी कोई लाभ नहीं। और इसमें सन्देह नहीं कि उसका एकान्तसेवन और मौन भी निष्फल है॥ १२॥
श्लोक-१३
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वार्थस्याकोविदं धिङ् मां मूर्खं पण्डितमानिनम्।
योऽहमीश्वरतां प्राप्य स्त्रीभिर्गोखरवज्जितः॥
मूलम्
स्वार्थस्याकोविदं धिङ् मां मूर्खं पण्डितमानिनम्।
योऽहमीश्वरतां प्राप्य स्त्रीभिर्गोखरवज्जितः॥
अनुवाद (हिन्दी)
मुझे अपनी ही हानि-लाभका पता नहीं, फिर भी अपनेको बहुत बड़ा पण्डित मानता हूँ। मुझ मूर्खको धिक्कार है! हाय! हाय! मैं चक्रवर्ती सम्राट् होकर भी गधे और बैलकी तरह स्त्रीके फंदेमें फँस गया॥ १३॥
श्लोक-१४
विश्वास-प्रस्तुतिः
सेवतो वर्षपूगान् मे उर्वश्या अधरासवम्।
न तृप्यत्यात्मभूः कामो वह्निराहुतिभिर्यथा॥
मूलम्
सेवतो वर्षपूगान् मे उर्वश्या अधरासवम्।
न तृप्यत्यात्मभूः कामो वह्निराहुतिभिर्यथा॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं वर्षोंतक उर्वशीके होठोंकी मादक मदिरा पीता रहा, पर मेरी कामवासना तृप्त न हुई। सच है, कहीं आहुतियोंसे अग्निकी तृप्ति हुई है॥ १४॥
श्लोक-१५
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुंश्चल्यापहृतं चित्तं को न्वन्यो मोचितुं प्रभुः।
आत्मारामेश्वरमृते भगवन्तमधोक्षजम्॥
मूलम्
पुंश्चल्यापहृतं चित्तं को न्वन्यो मोचितुं प्रभुः।
आत्मारामेश्वरमृते भगवन्तमधोक्षजम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस कुलटाने मेरा चित्त चुरा लिया। आत्माराम जीवन्मुक्तोंके स्वामी इन्द्रियातीत भगवान्को छोड़कर और ऐसा कौन है, जो मुझे उसके फंदेसे निकाल सके॥ १५॥
श्लोक-१६
विश्वास-प्रस्तुतिः
बोधितस्यापि देव्या मे सूक्तवाक्येन दुर्मतेः।
मनोगतो महामोहो नापयात्यजितात्मनः॥
मूलम्
बोधितस्यापि देव्या मे सूक्तवाक्येन दुर्मतेः।
मनोगतो महामोहो नापयात्यजितात्मनः॥
अनुवाद (हिन्दी)
उर्वशीने तो मुझे वैदिक सूक्तके वचनोंद्वारा यथार्थ बात कहकर समझाया भी था; परन्तु मेरी बुद्धि ऐसी मारी गयी कि मेरे मनका वह भयंकर मोह तब भी मिटा नहीं। जब मेरी इन्द्रियाँ ही मेरे हाथके बाहर हो गयीं, तब मैं समझता भी कैसे॥ १६॥
श्लोक-१७
विश्वास-प्रस्तुतिः
किमेतया नोऽपकृतं रज्ज्वा वा सर्पचेतसः।
रज्जुस्वरूपाविदुषो योऽहं यदजितेन्द्रियः॥
मूलम्
किमेतया नोऽपकृतं रज्ज्वा वा सर्पचेतसः।
रज्जुस्वरूपाविदुषो योऽहं यदजितेन्द्रियः॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो रस्सीके स्वरूपको न जानकर उसमें सर्पकी कल्पना कर रहा है और दुखी हो रहा है, रस्सीने उसका क्या बिगाड़ा है? इसी प्रकार इस उर्वशीने भी हमारा क्या बिगाड़ा? क्योंकि स्वयं मैं ही अजितेन्द्रिय होनेके कारण अपराधी हूँ॥ १७॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
सर्पचेतसः सर्पभ्रान्तिमतः रज्वा किमपकृतं स्वरूपमविदुषः स्वदोष एवापकारीत्यर्थः । अजितेन्द्रियोऽहमिति यत्तस्मात् किमेतयापकृतमित्यन्वयः ॥ १७-१९ ॥
श्लोक-१८
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्वायं मलीमसः कायो दौर्गन्ध्याद्यात्मकोऽशुचिः।
क्व गुणाः सौमनस्याद्या ह्यध्यासोऽविद्यया कृतः॥
मूलम्
क्वायं मलीमसः कायो दौर्गन्ध्याद्यात्मकोऽशुचिः।
क्व गुणाः सौमनस्याद्या ह्यध्यासोऽविद्यया कृतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
कहाँ तो यह मैला-कुचैला, दुर्गन्धसे भरा अपवित्र शरीर और कहाँ सुकुमारता, पवित्रता, सुगन्ध आदि पुष्पोचित गुण! परन्तु मैंने अज्ञानवश असुन्दरमें सुन्दरका आरोप कर लिया॥ १८॥
श्लोक-१९
विश्वास-प्रस्तुतिः
पित्रोः किं स्वं नु भार्यायाः स्वामिनोऽग्नेः श्वगृध्रयोः।
किमात्मनः किं सुहृदामिति यो नावसीयते॥
मूलम्
पित्रोः किं स्वं नु भार्यायाः स्वामिनोऽग्नेः श्वगृध्रयोः।
किमात्मनः किं सुहृदामिति यो नावसीयते॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह शरीर माता-पिताका सर्वस्व है अथवा पत्नीकी सम्पत्ति? यह स्वामीकी मोल ली हुई वस्तु है, आगका ईंधन है अथवा कुत्ते और गीधोंका भोजन? इसे अपना कहें अथवा सुहृद्-सम्बन्धियोंका? बहुत सोचने-विचारनेपर भी कोई निश्चय नहीं होता॥ १९॥
श्लोक-२०
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मिन् कलेवरेऽमेध्ये तुच्छनिष्ठे विषज्जते।
अहो सुभद्रं सुनसं सुस्मितं च मुखं स्त्रियः॥
मूलम्
तस्मिन् कलेवरेऽमेध्ये तुच्छनिष्ठे विषज्जते।
अहो सुभद्रं सुनसं सुस्मितं च मुखं स्त्रियः॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह शरीर मल-मूत्रसे भरा हुआ अत्यन्त अपवित्र है। इसका अन्त यही है कि पक्षी खाकर विष्ठा कर दें, इसके सड़ जानेपर इसमें कीड़े पड़ जायँ अथवा जला देनेपर यह राखका ढेर हो जाय। ऐसे शरीरपर लोग लट्टू हो जाते हैं और कहने लगते हैं—‘अहो! इस स्त्रीका मुखड़ा कितना सुन्दर है! नाक कितनी सुघड़ है और मन्द-मन्द मुसकान कितनी मनोहर है॥ २०॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
तुच्छत्वं भावो निष्ठा यस्य तत् तुच्छनिष्ठम् ॥ २०-२२ ॥
श्लोक-२१
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वङ्मांसरुधिरस्नायुमेदोमज्जास्थिसंहतौ।
विण्मूत्रपूये रमतां कृमीणां कियदन्तरम्॥
मूलम्
त्वङ्मांसरुधिरस्नायुमेदोमज्जास्थिसंहतौ।
विण्मूत्रपूये रमतां कृमीणां कियदन्तरम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह शरीर त्वचा, मांस, रुधिर, स्नायु, मेदा, मज्जा और हड्डियोंका ढेर और मल-मूत्र तथा पीबसे भरा हुआ है। यदि मनुष्य इसमें रमता है तो मल-मूत्रके कीड़ोंमें और उसमें अन्तर ही क्या है॥ २१॥
श्लोक-२२
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथापि नोपसज्जेत स्त्रीषु स्त्रैणेषु चार्थवित्।
विषयेन्द्रियसंयोगान्मनः क्षुभ्यति नान्यथा॥
मूलम्
अथापि नोपसज्जेत स्त्रीषु स्त्रैणेषु चार्थवित्।
विषयेन्द्रियसंयोगान्मनः क्षुभ्यति नान्यथा॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसलिये अपनी भलाई समझनेवाले विवेकी मनुष्यको चाहिये कि स्त्रियों और स्त्री-लम्पट पुरुषोंका संग न करे। विषय और इन्द्रियोंके संयोगसे ही मनमें विकार होता है; अन्यथा विकारका कोई अवसर ही नहीं है॥ २२॥
श्लोक-२३
विश्वास-प्रस्तुतिः
अदृष्टादश्रुताद् भावान्न भाव उपजायते।
असम्प्रयुञ्जतः प्राणान् शाम्यति स्तिमितं मनः॥
मूलम्
अदृष्टादश्रुताद् भावान्न भाव उपजायते।
असम्प्रयुञ्जतः प्राणान् शाम्यति स्तिमितं मनः॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो वस्तु कभी देखी या सुनी नहीं गयी है, उसके लिये मनमें विकार नहीं होता। जो लोग विषयोंके साथ इन्द्रियोंका संयोग नहीं होने देते, उनका मन अपने-आप निश्चल होकर शान्त हो जाता है॥ २३॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
प्राणान् इन्द्रियाणि असंप्रयुञ्जतः विषयेष्वयोजयतः ॥ २३ ॥
श्लोक-२४
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मात् सङ्गो न कर्तव्यः स्त्रीषु स्त्रैणेषु चेन्द्रियैः।
विदुषां चाप्यविश्रब्धः षड्वर्गः किमु मादृशाम्॥
मूलम्
तस्मात् सङ्गो न कर्तव्यः स्त्रीषु स्त्रैणेषु चेन्द्रियैः।
विदुषां चाप्यविश्रब्धः षड्वर्गः किमु मादृशाम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः वाणी, कान और मन आदि इन्द्रियोंसे स्त्रियों और स्त्रीलम्पटोंका संग कभी नहीं करना चाहिये। मेरे-जैसे लोगोंकी तो बात ही क्या, बड़े-बड़े विद्वानोंके लिये भी अपनी इन्द्रियाँ और मन विश्वसनीय नहीं हैं॥ २४॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
अविश्रब्धः अविश्रम्भणीयः ॥ २४-२५ ॥
श्लोक-२५
मूलम् (वचनम्)
श्रीभगवानुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं प्रगायन् नृपदेवदेवः
स उर्वशीलोकमथो विहाय।
आत्मानमात्मन्यवगम्य मां वै
उपारमज्ज्ञानविधूतमोहः॥
मूलम्
एवं प्रगायन् नृपदेवदेवः
स उर्वशीलोकमथो विहाय।
आत्मानमात्मन्यवगम्य मां वै
उपारमज्ज्ञानविधूतमोहः॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं—उद्धवजी! राजराजेश्वर पुरूरवाके मनमें जब इस तरहके उद्गार उठने लगे, तब उसने उर्वशीलोकका परित्याग कर दिया। अब ज्ञानोदय होनेके कारण उसका मोह जाता रहा और उसने अपने हृदयमें ही आत्मस्वरूपसे मेरा साक्षात्कार कर लिया और वह शान्तभावमें स्थित हो गया॥ २५॥
श्लोक-२६
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो दुःसङ्गमुत्सृज्य सत्सु सज्जेत बुद्धिमान्।
सन्त एतस्य च्छिन्दन्ति मनोव्यासङ्गमुक्तिभिः॥
मूलम्
ततो दुःसङ्गमुत्सृज्य सत्सु सज्जेत बुद्धिमान्।
सन्त एतस्य च्छिन्दन्ति मनोव्यासङ्गमुक्तिभिः॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसलिये बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि पुरूरवाकी भाँति कुसंग छोड़कर सत्पुरुषोंका संग करे। संत पुरुष अपने सदुपदेशोंसे उसके मनकी आसक्ति नष्ट कर देंगे॥ २६॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
एतस्य पुरूरवसः उक्तिभिः ॥ २६-३० ॥
श्लोक-२७
विश्वास-प्रस्तुतिः
सन्तोऽनपेक्षा मच्चित्ताः प्रशान्ताः समदर्शिनः।
निर्ममा निरहङ्कारा निर्द्वन्द्वा निष्परिग्रहाः॥
मूलम्
सन्तोऽनपेक्षा मच्चित्ताः प्रशान्ताः समदर्शिनः।
निर्ममा निरहङ्कारा निर्द्वन्द्वा निष्परिग्रहाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
संत पुरुषोंका लक्षण यह है कि उन्हें कभी किसी वस्तुकी अपेक्षा नहीं होती। उनका चित्त मुझमें लगा रहता है। उनके हृदयमें शान्तिका अगाध समुद्र लहराता रहता है। वे सदा-सर्वदा सर्वत्र सबमें सब रूपसे स्थित भगवान्का ही दर्शन करते हैं। उनमें अहंकारका लेश भी नहीं होता, फिर ममताकी तो सम्भावना ही कहाँ है। वे सर्दी-गरमी, सुख-दुःख आदि द्वन्द्वोंमें एकरस रहते हैं तथा बौद्धिक, मानसिक, शारीरिक और पदार्थ-सम्बन्धी किसी प्रकारका भी परिग्रह नहीं रखते॥ २७॥
श्लोक-२८
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेषु नित्यं महाभाग महाभागेषु मत्कथाः।
सम्भवन्ति हिता नॄणां जुषतां प्रपुनन्त्यघम्॥
मूलम्
तेषु नित्यं महाभाग महाभागेषु मत्कथाः।
सम्भवन्ति हिता नॄणां जुषतां प्रपुनन्त्यघम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
परमभाग्यवान् उद्धवजी! संतोंके सौभाग्यकी महिमा कौन कहे? उनके पास सदा-सर्वदा मेरी लीला-कथाएँ हुआ करती हैं। मेरी कथाएँ मनुष्योंके लिये परम हितकर हैं; जो उनका सेवन करते हैं, उनके सारे पाप-तापोंको वे धो डालती हैं॥ २८॥
श्लोक-२९
विश्वास-प्रस्तुतिः
ता ये शृण्वन्ति गायन्ति ह्यनुमोदन्ति चादृताः।
मत्पराः श्रद्दधानाश्च भक्तिं विन्दन्ति ते मयि॥
मूलम्
ता ये शृण्वन्ति गायन्ति ह्यनुमोदन्ति चादृताः।
मत्पराः श्रद्दधानाश्च भक्तिं विन्दन्ति ते मयि॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो लोग आदर और श्रद्धासे मेरी लीला-कथाओंका श्रवण, गान और अनुमोदन करते हैं, वे मेरे परायण हो जाते हैं और मेरी अनन्य प्रेममयी भक्ति प्राप्त कर लेते हैं॥ २९॥
श्लोक-३०
विश्वास-प्रस्तुतिः
भक्तिं लब्धवतः साधोः किमन्यदवशिष्यते।
मय्यनन्तगुणे ब्रह्मण्यानन्दानुभवात्मनि॥
मूलम्
भक्तिं लब्धवतः साधोः किमन्यदवशिष्यते।
मय्यनन्तगुणे ब्रह्मण्यानन्दानुभवात्मनि॥
अनुवाद (हिन्दी)
उद्धवजी! मैं अनन्त अचिन्त्य कल्याणमय गुणगणोंका आश्रय हूँ। मेरा स्वरूप है—केवल आनन्द, केवल अनुभव, विशुद्ध आत्मा। मैं साक्षात् परब्रह्म हूँ। जिसे मेरी भक्ति मिल गयी, वह तो संत हो गया। अब उसे कुछ भी पाना शेष नहीं है॥ ३०॥
श्लोक-३१
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथोपश्रयमाणस्य भगवन्तं विभावसुम्।
शीतं भयं तमोऽप्येति साधून् संसेवतस्तथा॥
मूलम्
यथोपश्रयमाणस्य भगवन्तं विभावसुम्।
शीतं भयं तमोऽप्येति साधून् संसेवतस्तथा॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनकी तो बात ही क्या—जिसने उन संत पुरुषोंकी शरण ग्रहण कर ली उसकी भी कर्मजडता, संसारभय और अज्ञान आदि सर्वथा निवृत्त हो जाते हैं। भला, जिसने अग्निभगवान्का आश्रय ले लिया उसे शीत, भय अथवा अन्धकारका दुःख हो सकता है?॥ ३१॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
भयम् अन्धकारजनितभयं तमो विभागः किमप्येतीत्यर्थः । देहात्मनामैक्यनिर्विशेषत्वज्ञाने तदेव तमः किमप्यनिर्वाच्यं ज्ञानावरकमप्येत्यपगच्छतीत्यर्थः ॥ ३१-३२ ॥
श्लोक-३२
विश्वास-प्रस्तुतिः
निमज्ज्योन्मज्जतां घोरे भवाब्धौ परमायनम्।
सन्तो ब्रह्मविदः शान्ता नौर्दृढेवाप्सु मज्जताम्॥
मूलम्
निमज्ज्योन्मज्जतां घोरे भवाब्धौ परमायनम्।
सन्तो ब्रह्मविदः शान्ता नौर्दृढेवाप्सु मज्जताम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो इस घोर संसारसागरमें डूब-उतरा रहे हैं, उनके लिये ब्रह्मवेत्ता और शान्त संत ही एकमात्र आश्रय हैं, जैसे जलमें डूब रहे लोगोंके लिये दृढ़ नौका॥ ३२॥
श्लोक-३३
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्नं हि प्राणिनां प्राण आर्तानां शरणं त्वहम्।
धर्मो वित्तं नृणां प्रेत्य सन्तोऽर्वाग् बिभ्यतोऽरणम्॥
मूलम्
अन्नं हि प्राणिनां प्राण आर्तानां शरणं त्वहम्।
धर्मो वित्तं नृणां प्रेत्य सन्तोऽर्वाग् बिभ्यतोऽरणम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे अन्नसे प्राणियोंके प्राणकी रक्षा होती है, जैसे मैं ही दीन-दुखियोंका परम रक्षक हूँ, जैसे मनुष्यके लिये परलोकमें धर्म ही एकमात्र पूँजी है—वैसे ही जो लोग संसारसे भयभीत हैं, उनके लिये संतजन ही परम आश्रय हैं॥ ३३॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
अस्मात् संसारात् अरणं गतिः ॥ ३३ ॥
श्लोक-३४
विश्वास-प्रस्तुतिः
सन्तो दिशन्ति चक्षूंषि बहिरर्कः समुत्थितः।
देवता बान्धवाः सन्तः सन्त आत्माहमेव च॥
मूलम्
सन्तो दिशन्ति चक्षूंषि बहिरर्कः समुत्थितः।
देवता बान्धवाः सन्तः सन्त आत्माहमेव च॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे सूर्य आकाशमें उदय होकर लोगोंको जगत् तथा अपनेको देखनेके लिये नेत्रदान करता है, वैसे ही संत पुरुष अपनेको तथा भगवान्को देखनेके लिये अन्तर्दृष्टि देते हैं। संत अनुग्रहशील देवता हैं। संत अपने हितैषी सुहृद् हैं। संत अपने प्रियतम आत्मा हैं। और अधिक क्या कहूँ, स्वयं मैं ही संतके रूपमें विद्यमान हूँ॥ ३४॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
सन्त आत्माहमेव च सन्तः सर्वे हितैषितुल्याः मया च तुल्या इत्यर्थः ॥ ३४ ॥
श्लोक-३५
विश्वास-प्रस्तुतिः
वैतसेनस्ततोऽप्येवमुर्वश्या लोकनिःस्पृहः।
मुक्तसङ्गो महीमेतामात्मारामश्चचार ह॥
मूलम्
वैतसेनस्ततोऽप्येवमुर्वश्या लोकनिःस्पृहः।
मुक्तसङ्गो महीमेतामात्मारामश्चचार ह॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रिय उद्धव! आत्मसाक्षात्कार होते ही इलानन्दन पुरूरवाको उर्वशीके लोककी स्पृहा न रही। उसकी सारी आसक्तियाँ मिट गयीं और वह आत्माराम होकर स्वच्छन्दरूपसे इस पृथ्वीपर विचरण करने लगा॥ ३५॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
आत्मारामः अध्यात्मनिष्ठायुक्तः ॥ ३५ ॥
इति श्रीमद्भागवतव्याख्याने एकादशस्कन्धीये श्रीसुदर्शनसूरिकृतशुकपक्षीये षड्विंशोऽध्यायः ॥ २६ ॥
अनुवाद (समाप्ति)
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायामेकादशस्कन्धे षड्विंशोऽध्यायः॥ २६॥