[पञ्चविंशोऽध्यायः]
भागसूचना
तीनों गुणोंकी वृत्तियोंका निरूपण
श्लोक-१
मूलम् (वचनम्)
श्रीभगवानुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुणानामसमिश्राणां पुमान् येन यथा भवेत्।
तन्मे पुरुषवर्येदमुपधारय शंसतः॥
मूलम्
गुणानामसमिश्राणां पुमान् येन यथा भवेत्।
तन्मे पुरुषवर्येदमुपधारय शंसतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं—पुरुषप्रवर उद्धवजी! प्रत्येक व्यक्तिमें अलग-अलग गुणोंका प्रकाश होता है। उनके कारण प्राणियोंके स्वभावमें भी भेद हो जाता है। अब मैं बतलाता हूँ कि किस गुणसे कैसा-कैसा स्वभाव बनता है। तुम सावधानीसे सुनो॥ १॥
श्लोक-२
विश्वास-प्रस्तुतिः
शमो दमस्तितिक्षेक्षा तपः सत्यं दया स्मृतिः।
तुष्टिस्त्यागोऽस्पृहा श्रद्धा ह्रीर्दयादिः स्वनिर्वृतिः॥
मूलम्
शमो दमस्तितिक्षेक्षा तपः सत्यं दया स्मृतिः।
तुष्टिस्त्यागोऽस्पृहा श्रद्धा ह्रीर्दयादिः स्वनिर्वृतिः॥
अनुवाद (हिन्दी)
सत्त्वगुणकी वृत्तियाँ हैं—शम (मनःसंयम), दम (इन्द्रियनिग्रह), तितिक्षा (सहिष्णुता), विवेक, तप, सत्य, दया, स्मृति, सन्तोष, त्याग, विषयोंके प्रति अनिच्छा, श्रद्धा, लज्जा (पाप करनेमें स्वाभाविक संकोच), आत्मरति, दान, विनय और सरलता आदि॥ २॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
शमादयः सात्त्विकाः ॥ १ -२ ॥
श्लोक-३
विश्वास-प्रस्तुतिः
काम ईहा मदस्तृष्णा स्तम्भ आशीर्भिदा सुखम्।
मदोत्साहो यशःप्रीतिर्हास्यं वीर्यं बलोद्यमः॥
मूलम्
काम ईहा मदस्तृष्णा स्तम्भ आशीर्भिदा सुखम्।
मदोत्साहो यशःप्रीतिर्हास्यं वीर्यं बलोद्यमः॥
अनुवाद (हिन्दी)
रजोगुणकी वृत्तियाँ हैं—इच्छा, प्रयत्न, घमंड, तृष्णा (असन्तोष), ऐंठ या अकड़, देवताओंसे धन आदिकी याचना, भेदबुद्धि, विषयभोग, युद्धादिके लिये मदजनित उत्साह, अपने यशमें प्रेम, हास्य, पराक्रम और हठपूर्वक उद्योग करना आदि॥ ३॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
कामादयो राजसाः ॥ ३ ॥
श्लोक-४
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्रोधो लोभोऽनृतं हिंसा याच्ञा दम्भः क्लमः कलिः।
शोकमोहौ विषादार्ती निद्राऽऽशा भीरनुद्यमः॥
मूलम्
क्रोधो लोभोऽनृतं हिंसा याच्ञा दम्भः क्लमः कलिः।
शोकमोहौ विषादार्ती निद्राऽऽशा भीरनुद्यमः॥
अनुवाद (हिन्दी)
तमोगुणकी वृत्तियाँ हैं—क्रोध (असहिष्णुता), लोभ, मिथ्याभाषण, हिंसा, याचना, पाखण्ड, श्रम, कलह, शोक, मोह, विषाद, दीनता, निद्रा, आशा, भय और अकर्मण्यता आदि॥ ४॥
श्लोक-५
विश्वास-प्रस्तुतिः
सत्त्वस्य रजसश्चैतास्तमसश्चानुपूर्वशः।
वृत्तयो वर्णितप्रायाः सन्निपातमथो शृणु॥
मूलम्
सत्त्वस्य रजसश्चैतास्तमसश्चानुपूर्वशः।
वृत्तयो वर्णितप्रायाः सन्निपातमथो शृणु॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार क्रमसे सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुणकी अधिकांश वृत्तियोंका पृथक्-पृथक् वर्णन किया गया। अब उनके मेलसे होनेवाली वृत्तियोंका वर्णन सुनो॥ ५॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
क्रोधादयस्तामसाः ॥ ५ ॥
श्लोक-६
विश्वास-प्रस्तुतिः
सन्निपातस्त्वहमिति ममेत्युद्धव या मतिः।
व्यवहारः सन्निपातो मनोमात्रेन्द्रियासुभिः॥
मूलम्
सन्निपातस्त्वहमिति ममेत्युद्धव या मतिः।
व्यवहारः सन्निपातो मनोमात्रेन्द्रियासुभिः॥
अनुवाद (हिन्दी)
उद्धवजी! ‘मैं हूँ और यह मेरा है’ इस प्रकारकी बुद्धिमें तीनों गुणोंका मिश्रण है। जिन मन, शब्दादि विषय, इन्द्रिय और प्राणोंके कारण पूर्वोक्त वृत्तियोंका उदय होता है, वे सब-के-सब सात्त्विक, राजस और तामस हैं॥ ६॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
मनोमात्रेति मात्रशब्दः शब्दादिगुणपरः मनआदिभिर्व्यवहारश्च गुणसन्निपातकृतमूल इत्यर्थः ॥ ६-१० ॥
श्लोक-७
विश्वास-प्रस्तुतिः
धर्मे चार्थे च कामे च यदासौ परिनिष्ठितः।
गुणानां सन्निकर्षोऽयं श्रद्धारतिधनावहः॥
मूलम्
धर्मे चार्थे च कामे च यदासौ परिनिष्ठितः।
गुणानां सन्निकर्षोऽयं श्रद्धारतिधनावहः॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब मनुष्य धर्म, अर्थ और काममें संलग्न रहता है, तब उसे सत्त्वगुणसे श्रद्धा, रजोगुणसे रति और तमोगुणसे धनकी प्राप्ति होती है। यह भी गुणोंका मिश्रण ही है॥ ७॥
श्लोक-८
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रवृत्तिलक्षणे निष्ठा पुमान् यर्हि गृहाश्रमे।
स्वधर्मे चानुतिष्ठेत गुणानां समितिर्हि सा॥
मूलम्
प्रवृत्तिलक्षणे निष्ठा पुमान् यर्हि गृहाश्रमे।
स्वधर्मे चानुतिष्ठेत गुणानां समितिर्हि सा॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिस समय मनुष्य सकाम कर्म, गृहस्थाश्रम और स्वधर्माचरणमें अधिक प्रीति रखता है, उस समय भी उसमें तीनों गुणोंका मेल ही समझना चाहिये॥ ८॥
श्लोक-९
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुरुषं सत्त्वसंयुक्तमनुमीयाच्छमादिभिः।
कामादिभी रजोयुक्तं क्रोधाद्यैस्तमसा युतम्॥
मूलम्
पुरुषं सत्त्वसंयुक्तमनुमीयाच्छमादिभिः।
कामादिभी रजोयुक्तं क्रोधाद्यैस्तमसा युतम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
मानसिक शान्ति और जितेन्द्रियता आदि गुणोंसे सत्त्वगुणी पुरुषकी, कामना आदिसे रजोगुणी पुरुषकी और क्रोध-हिंसा आदिसे तमोगुणी पुरुषकी पहचान करे॥ ९॥
श्लोक-१०
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदा भजति मां भक्त्या निरपेक्षः स्वकर्मभिः।
तं सत्त्वप्रकृतिं विद्यात् पुरुषं स्त्रियमेव वा॥
मूलम्
यदा भजति मां भक्त्या निरपेक्षः स्वकर्मभिः।
तं सत्त्वप्रकृतिं विद्यात् पुरुषं स्त्रियमेव वा॥
अनुवाद (हिन्दी)
पुरुष हो, चाहे स्त्री—जब वह निष्काम होकर अपने नित्य-नैमित्तिक कर्मोंद्वारा मेरी आराधना करे, तब उसे सत्त्वगुणी जानना चाहिये॥ १०॥
श्लोक-११
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदा आशिष आशास्य मां भजेत स्वकर्मभिः।
तं रजःप्रकृतिं विद्याद्धिंसामाशास्य तामसम्॥
मूलम्
यदा आशिष आशास्य मां भजेत स्वकर्मभिः।
तं रजःप्रकृतिं विद्याद्धिंसामाशास्य तामसम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
सकामभावसे अपने कर्मोंके द्वारा मेरा भजन-पूजन करनेवाला रजोगुणी है और जो अपने शत्रुकी मृत्यु आदिके लिये मेरा भजन-पूजन करे, उसे तमोगुणी समझना चाहिये॥ ११॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
आशिषः स्वाभ्युदयरूपाः हिंसामाशास्येति तामस इत्यन्वयः ॥ ११ ॥
श्लोक-१२
विश्वास-प्रस्तुतिः
सत्त्वं रजस्तम इति गुणा जीवस्य नैव मे।
चित्तजा यैस्तु भूतानां सज्जमानो निबध्यते॥
मूलम्
सत्त्वं रजस्तम इति गुणा जीवस्य नैव मे।
चित्तजा यैस्तु भूतानां सज्जमानो निबध्यते॥
अनुवाद (हिन्दी)
सत्त्व, रज और तम—इन तीनों गुणोंका कारण जीवका चित्त है। उनसे मेरा कोई सम्बन्ध नहीं है। इन्हीं गुणोंके द्वारा जीव शरीर अथवा धन आदिमें आसक्त होकर बन्धनमें पड़ जाता है॥ १२॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
अभ्युदयादिप्रदातुरीश्वरस्य गुणसङ्गाभावमाह । सत्त्वं रजस्ततम इति जीवस्य चित्तजा इत्यन्त्रयः ॥ १२-१५ ॥
श्लोक-१३
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदेतरौ जयेत् सत्त्वं भास्वरं विशदं शिवम्।
तदा सुखेन युज्येत धर्मज्ञानादिभिः पुमान्॥
मूलम्
यदेतरौ जयेत् सत्त्वं भास्वरं विशदं शिवम्।
तदा सुखेन युज्येत धर्मज्ञानादिभिः पुमान्॥
अनुवाद (हिन्दी)
सत्त्वगुण प्रकाशक, निर्मल और शान्त है। जिस समय वह रजोगुण और तमोगुणको दबाकर बढ़ता है, उस समय पुरुष सुख, धर्म और ज्ञान आदिका भाजन हो जाता है॥ १३॥
श्लोक-१४
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदा जयेत्तमः सत्त्वं रजः सङ्गं भिदा चलम्।
तदा दुःखेन युज्येत कर्मणा यशसा श्रिया॥
मूलम्
यदा जयेत्तमः सत्त्वं रजः सङ्गं भिदा चलम्।
तदा दुःखेन युज्येत कर्मणा यशसा श्रिया॥
अनुवाद (हिन्दी)
रजोगुण भेदबुद्धिका कारण है। उसका स्वभाव है आसक्ति और प्रवृत्ति। जिस समय तमोगुण और सत्त्वगुणको दबाकर रजोगुण बढ़ता है, उस समय मनुष्य दुःख, कर्म, यश और लक्ष्मीसे सम्पन्न होता है॥ १४॥
श्लोक-१५
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदा जयेद् रजः सत्त्वं तमो मूढं लयं जडम्।
युज्येत शोकमोहाभ्यां निद्रया हिंसयाऽऽशया॥
मूलम्
यदा जयेद् रजः सत्त्वं तमो मूढं लयं जडम्।
युज्येत शोकमोहाभ्यां निद्रया हिंसयाऽऽशया॥
अनुवाद (हिन्दी)
तमोगुणका स्वरूप है अज्ञान। उसका स्वभाव है आलस्य और बुद्धिकी मूढ़ता। जब वह बढ़कर सत्त्वगुण और रजोगुणको दबा लेता है, तब प्राणी तरह-तरहकी आशाएँ करता है, शोक-मोहमें पड़ जाता है, हिंसा करने लगता है अथवा निद्रा-आलस्यके वशीभूत होकर पड़ रहता है॥ १५॥
श्लोक-१६
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदा चित्तं प्रसीदेत इन्द्रियाणां च निर्वृतिः।
देहेऽभयं मनोऽसङ्गं तत् सत्त्वं विद्धि मत्पदम्॥
मूलम्
यदा चित्तं प्रसीदेत इन्द्रियाणां च निर्वृतिः।
देहेऽभयं मनोऽसङ्गं तत् सत्त्वं विद्धि मत्पदम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब चित्त प्रसन्न हो, इन्द्रियाँ शान्त हों, देह निर्भय हो और मनमें आसक्ति न हो, तब सत्त्वगुणकी वृद्धि समझनी चाहिये। सत्त्वगुण मेरी प्राप्तिका साधन है॥ १६॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
इन्द्रियाणां निवृत्तिः स्वस्वविषयाभिनिवेशज्वरविरहः अभयमिति पदं सत्त्वमेवं पद्यत इति व्युत्पत्त्या पदम् ॥ १६ ॥
श्लोक-१७
विश्वास-प्रस्तुतिः
विकुर्वन् क्रियया चाधीरनिर्वृत्तिश्च चेतसाम्।
गात्रास्वास्थ्यं मनो भ्रान्तं रज एतैर्निशामय॥
मूलम्
विकुर्वन् क्रियया चाधीरनिर्वृत्तिश्च चेतसाम्।
गात्रास्वास्थ्यं मनो भ्रान्तं रज एतैर्निशामय॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब काम करते-करते जीवकी बुद्धि चंचल, ज्ञानेन्द्रियाँ असन्तुष्ट, कर्मेन्द्रियाँ विकारयुक्त, मन भ्रान्त और शरीर अस्वस्थ हो जाय, तब समझना चाहिये कि रजोगुण जोर पकड़ रहा है॥ १७॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
चेतसामिति । चेतःशब्दो निरूपणपरः ॥ १७ ॥
श्लोक-१८
विश्वास-प्रस्तुतिः
सीदच्चित्तं विलीयेत चेतसो ग्रहणेऽक्षमम्।
मनो नष्टं तमो ग्लानिस्तमस्तदुपधारय॥
मूलम्
सीदच्चित्तं विलीयेत चेतसो ग्रहणेऽक्षमम्।
मनो नष्टं तमो ग्लानिस्तमस्तदुपधारय॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब चित्त ज्ञानेन्द्रियोंके द्वारा शब्दादि विषयोंको ठीक-ठीक समझनेमें असमर्थ हो जाय और खिन्न होकर लीन होने लगे, मन सूना-सा हो जाय तथा अज्ञान और विषादकी वृद्धि हो, तब समझना चाहिये कि तमोगुण वृद्धिपर है॥ १८॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
चित्तं चिन्तनम् अक्षिप्तं तमः शब्दः सङ्कल्पादिव्यापारपरः ॥ १८-१९ ॥
श्लोक-१९
विश्वास-प्रस्तुतिः
एधमाने गुणे सत्त्वे देवानां बलमेधते।
असुराणां च रजसि तमस्युद्धव रक्षसाम्॥
मूलम्
एधमाने गुणे सत्त्वे देवानां बलमेधते।
असुराणां च रजसि तमस्युद्धव रक्षसाम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
उद्धवजी! सत्त्वगुणके बढ़नेपर देवताओंका, रजोगुणके बढ़नेपर असुरोंका और तमोगुणके बढ़नेपर राक्षसोंका बल बढ़ जाता है। (वृत्तियोंमें भी क्रमशः सत्त्वादि गुणोंकी अधिकता होनेपर देवत्व, असुरत्व और राक्षसत्व-प्रधान निवृत्ति, प्रवृत्ति अथवा मोहकी प्रधानता हो जाती है)॥ १९॥
श्लोक-२०
विश्वास-प्रस्तुतिः
सत्त्वाज्जागरणं विद्याद् रजसा स्वप्नमादिशेत्।
प्रस्वापं तमसा जन्तोस्तुरीयं त्रिषु सन्ततम्॥
मूलम्
सत्त्वाज्जागरणं विद्याद् रजसा स्वप्नमादिशेत्।
प्रस्वापं तमसा जन्तोस्तुरीयं त्रिषु सन्ततम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
सत्त्वगुणसे जाग्रत्-अवस्था, रजोगुणसे स्वप्नावस्था और तमोगुणसे सुषुप्ति-अवस्था होती है। तुरीय इन तीनोंमें एक-सा व्याप्त रहता है। वही शुद्ध और एकरस आत्मा है॥ २०॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
तुरीयं प्रलयावस्था मुक्त्यवस्था वा ॥ २०-२१ ॥
श्लोक-२१
विश्वास-प्रस्तुतिः
उपर्युपरि गच्छन्ति सत्त्वेन ब्राह्मणा जनाः।
तमसाधोऽध आमुख्याद् रजसान्तरचारिणः॥
मूलम्
उपर्युपरि गच्छन्ति सत्त्वेन ब्राह्मणा जनाः।
तमसाधोऽध आमुख्याद् रजसान्तरचारिणः॥
अनुवाद (हिन्दी)
वेदोंके अभ्यासमें तत्पर ब्राह्मण सत्त्वगुणके द्वारा उत्तरोत्तर ऊपरके लोकोंमें जाते हैं। तमोगुणसे जीवोंको वृक्षादिपर्यन्त अधोगति प्राप्त होती है और रजोगुणसे मनुष्य-शरीर मिलता है॥ २१॥
श्लोक-२२
विश्वास-प्रस्तुतिः
सत्त्वे प्रलीनाः स्वर्यान्ति नरलोकं रजोलयाः।
तमोलयास्तु निरयं यान्ति मामेव निर्गुणाः॥
मूलम्
सत्त्वे प्रलीनाः स्वर्यान्ति नरलोकं रजोलयाः।
तमोलयास्तु निरयं यान्ति मामेव निर्गुणाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसकी मृत्यु सत्त्वगुणोंकी वृद्धिके समय होती है, उसे स्वर्गकी प्राप्ति होती है; जिसकी रजोगुणकी वृद्धिके समय होती है, उसे मनुष्य-लोक मिलता है और जो तमोगुणकी वृद्धिके समय मरता है, उसे नरककी प्राप्ति होती है। परन्तु जो पुरुष त्रिगुणातीत—जीवन्मुक्त हो गये हैं, उन्हें मेरी ही प्राप्ति होती है॥ २२॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
सत्त्वे प्रलीनाः सच्वे कृष्णे सति लीनाः ॥ २२ ॥
श्लोक-२३
विश्वास-प्रस्तुतिः
मदर्पणं निष्फलं वा सात्त्विकं निजकर्म तत्।
राजसं फलसङ्कल्पं हिंसाप्रायादि तामसम्॥
मूलम्
मदर्पणं निष्फलं वा सात्त्विकं निजकर्म तत्।
राजसं फलसङ्कल्पं हिंसाप्रायादि तामसम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब अपने धर्मका आचरण मुझे समर्पित करके अथवा निष्कामभावसे किया जाता है तब वह सात्त्विक होता है। जिस कर्मके अनुष्ठानमें किसी फलकी कामना रहती है, वह राजसिक होता है और जिस कर्ममें किसीको सताने अथवा दिखाने आदिका भाव रहता है, वह तामसिक होता है॥ २३॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
निष्फलं फलरहितं फलसङ्कल्परहितम् फलसङ्कल्पमभ्युदयसंकल्पवत् ॥ २३ ॥
श्लोक-२४
विश्वास-प्रस्तुतिः
कैवल्यं सात्त्विकं ज्ञानं रजो वैकल्पिकं च यत्।
प्राकृतं तामसं ज्ञानं मन्निष्ठं निर्गुणं स्मृतम्॥
मूलम्
कैवल्यं सात्त्विकं ज्ञानं रजो वैकल्पिकं च यत्।
प्राकृतं तामसं ज्ञानं मन्निष्ठं निर्गुणं स्मृतम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
शुद्ध आत्माका ज्ञान सात्त्विक है। उसको कर्ता-भोक्ता समझना राजस ज्ञान है और उसे शरीर समझना तो सर्वथा तामसिक है। इन तीनोंसे विलक्षण मेरे स्वरूपका वास्तविक ज्ञान निर्गुण ज्ञान है॥ २४॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
कैवल्यं केवलं आरोपिताकारविधुरं वैकल्पिकम् आरोपिताकारविषयं प्राकृतं यत् किश्चिदित्यविभक्तविषयं मन्निष्ठं मुक्तिदशायां मद्गोचरम् ॥ २४ ॥
श्लोक-२५
विश्वास-प्रस्तुतिः
वनं तु सात्त्विको वासो ग्रामो राजस उच्यते।
तामसं द्यूतसदनं मन्निकेतं तु निर्गुणम्॥
मूलम्
वनं तु सात्त्विको वासो ग्रामो राजस उच्यते।
तामसं द्यूतसदनं मन्निकेतं तु निर्गुणम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
वनमें रहना सात्त्विक निवास है, गाँवमें रहना राजस है और जूआघरमें रहना तामसिक है। इन सबसे बढ़कर मेरे मन्दिरमें रहना निर्गुण निवास है॥ २५॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
सात्त्विकावासः सत्त्वविवृद्धिहेतुवासः निर्गुणमगुणं गुणत्रयप्रतिभटं तन्निवृत्तिहेतुरिति यावत् ॥ २५ ॥
श्लोक-२६
विश्वास-प्रस्तुतिः
सात्त्विकः कारकोऽसङ्गी रागान्धो राजसः स्मृतः।
तामसः स्मृतिविभ्रष्टो निर्गुणो मदपाश्रयः॥
मूलम्
सात्त्विकः कारकोऽसङ्गी रागान्धो राजसः स्मृतः।
तामसः स्मृतिविभ्रष्टो निर्गुणो मदपाश्रयः॥
अनुवाद (हिन्दी)
अनासक्तभावसे कर्म करनेवाला सात्त्विक है, रागान्ध होकर कर्म करनेवाला राजसिक है और पूर्वापर विचारसे रहित होकर करनेवाला तामसिक है। इनके अतिरिक्त जो पुरुष केवल मेरी शरणमें रहकर बिना अहंकारके कर्म करता है, वह निर्गुण कर्ता है॥ २६॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
सात्विकः कारकोऽसङ्गीति यज्ञादिषु कतृत्वमविवक्षितं सात्त्विकः सत्त्वविवृद्धिकर्ता निर्गुणः त्रिगुणनिरासकः मदुपाश्रयः मद्ध्यानादिगोचरः कर्त्ता ॥ २६ ॥
श्लोक-२७
विश्वास-प्रस्तुतिः
सात्त्विक्याध्यात्मिकी श्रद्धा कर्मश्रद्धा तु राजसी।
तामस्यधर्मे या श्रद्धा मत्सेवायां तु निर्गुणा॥
मूलम्
सात्त्विक्याध्यात्मिकी श्रद्धा कर्मश्रद्धा तु राजसी।
तामस्यधर्मे या श्रद्धा मत्सेवायां तु निर्गुणा॥
अनुवाद (हिन्दी)
आत्मज्ञानविषयक श्रद्धा सात्त्विक श्रद्धा है, कर्मविषयक श्रद्धा राजस है और जो श्रद्धा अधर्ममें होती है, वह तामस है तथा मेरी सेवामें जो श्रद्धा है, वह निर्गुण श्रद्धा है॥ २७॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
आध्यात्मिकी अध्यात्मशास्त्रविषया ॥ २७-२८ ॥
श्लोक-२८
विश्वास-प्रस्तुतिः
पथ्यं पूतमनायस्तमाहार्यं सात्त्विकं स्मृतम्।
राजसं चेन्द्रियप्रेष्ठं तामसं चार्तिदाशुचि॥
मूलम्
पथ्यं पूतमनायस्तमाहार्यं सात्त्विकं स्मृतम्।
राजसं चेन्द्रियप्रेष्ठं तामसं चार्तिदाशुचि॥
अनुवाद (हिन्दी)
आरोग्यदायक, पवित्र और अनायास प्राप्त भोजन सात्त्विक है। रसनेन्द्रियको रुचिकर और स्वादकी दृष्टिसे युक्त आहार राजस है तथा दुःखदायी और अपवित्र आहार तामस है॥ २८॥
श्लोक-२९
विश्वास-प्रस्तुतिः
सात्त्विकं सुखमात्मोत्थं विषयोत्थं तु राजसम्।
तामसं मोहदैन्योत्थं निर्गुणं मदपाश्रयम्॥
मूलम्
सात्त्विकं सुखमात्मोत्थं विषयोत्थं तु राजसम्।
तामसं मोहदैन्योत्थं निर्गुणं मदपाश्रयम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
अन्तर्मुखतासे—आत्मचिन्तनसे प्राप्त होनेवाला सुख सात्त्विक है। बहिर्मुखतासे—विषयोंसे प्राप्त होनेवाला राजस है तथा अज्ञान और दीनतासे प्राप्त होनेवाला सुख तामस है और जो सुख मुझसे मिलता है, वह तो गुणातीत और अप्राकृत है॥ २९॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
आत्मोत्थम् आत्मन्येवोत्थं न बाह्यार्थविषयसन्तोषोत्थमित्यर्थः । मदपाश्रयं मुक्तिदशायां मदनुभवोत्थम् ॥ २९ ॥
श्लोक-३०
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्रव्यं देशः फलं कालो ज्ञानं कर्म च कारकः।
श्रद्धावस्थाऽऽकृतिर्निष्ठा त्रैगुण्यः सर्व एव हि॥
मूलम्
द्रव्यं देशः फलं कालो ज्ञानं कर्म च कारकः।
श्रद्धावस्थाऽऽकृतिर्निष्ठा त्रैगुण्यः सर्व एव हि॥
अनुवाद (हिन्दी)
उद्धवजी! द्रव्य (वस्तु), देश (स्थान), फल, काल, ज्ञान, कर्म, कर्ता, श्रद्धा, अवस्था, देव-मनुष्य-तिर्यगादि शरीर और निष्ठा—सभी त्रिगुणात्मक हैं॥ ३०॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
त्रैगुण्यः त्रिगुणयुक्तः ॥ ३० ॥
श्लोक-३१
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वे गुणमया भावाः पुरुषाव्यक्तधिष्ठिताः।
दृष्टं श्रुतमनुध्यातं बुद्ध्या वा पुरुषर्षभ॥
मूलम्
सर्वे गुणमया भावाः पुरुषाव्यक्तधिष्ठिताः।
दृष्टं श्रुतमनुध्यातं बुद्ध्या वा पुरुषर्षभ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नररत्न! पुरुष और प्रकृतिके आश्रित जितने भी भाव हैं, सभी गुणमय हैं—वे चाहे नेत्रादि इन्द्रियोंसे अनुभव किये हुए हों, शास्त्रोंके द्वारा लोक-लोकान्तरोंके सम्बन्धमें सुने गये हों अथवा बुद्धिके द्वारा सोचे-विचारे गये हों॥ ३१॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
दृष्टं श्रुतमिति गुणमयमित्यर्थः ॥ ३१ ॥
श्लोक-३२
विश्वास-प्रस्तुतिः
एताः संसृतयः पुंसो गुणकर्मनिबन्धनाः।
येनेमे निर्जिताः सौम्य गुणा जीवेन चित्तजाः।
भक्तियोगेन मन्निष्ठो मद्भावाय प्रपद्यते॥
मूलम्
एताः संसृतयः पुंसो गुणकर्मनिबन्धनाः।
येनेमे निर्जिताः सौम्य गुणा जीवेन चित्तजाः।
भक्तियोगेन मन्निष्ठो मद्भावाय प्रपद्यते॥
अनुवाद (हिन्दी)
जीवको जितनी भी योनियाँ अथवा गतियाँ प्राप्त होती हैं, वे सब उनके गुणों और कर्मोंके अनुसार ही होती हैं। हे सौम्य! सब-के-सब गुण चित्तसे ही सम्बन्ध रखते हैं (इसलिये जीव उन्हें अनायास ही जीत सकता है) जो जीव उनपर विजय प्राप्त कर लेता है, वह भक्तियोगके द्वारा मुझमें ही परिनिष्ठित हो जाता है और अन्ततः मेरा वास्तविक स्वरूप, जिसे मोक्ष भी कहते हैं, प्राप्त कर लेता है॥ ३२॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
येनेम इति सत्त्वादिगुणाः सकार्याः ॥ ३२ ॥
श्लोक-३३
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्माद् देहमिमं लब्ध्वा ज्ञानविज्ञानसम्भवम्।
गुणसङ्गं विनिर्धूय मां भजन्तु विचक्षणाः॥
मूलम्
तस्माद् देहमिमं लब्ध्वा ज्ञानविज्ञानसम्भवम्।
गुणसङ्गं विनिर्धूय मां भजन्तु विचक्षणाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह मनुष्यशरीर बहुत ही दुर्लभ है। इसी शरीरमें तत्त्वज्ञान और उसमें निष्ठारूप विज्ञानकी प्राप्ति सम्भव है; इसलिये इसे पाकर बुद्धिमान् पुरुषोंको गुणोंकी आसक्ति हटाकर मेरा भजन करना चाहिये॥ ३३॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
ज्ञानविज्ञानसम्भवं शास्त्रजन्ययोगजन्यज्ञानयोर्हेतुम् ॥ ३३ ॥
श्लोक-३४
विश्वास-प्रस्तुतिः
निःसङ्गो मां भजेद् विद्वानप्रमत्तो जितेन्द्रियः।
रजस्तमश्चाभिजयेत् सत्त्वसंसेवया मुनिः॥
मूलम्
निःसङ्गो मां भजेद् विद्वानप्रमत्तो जितेन्द्रियः।
रजस्तमश्चाभिजयेत् सत्त्वसंसेवया मुनिः॥
अनुवाद (हिन्दी)
विचारशील पुरुषको चाहिये कि बड़ी सावधानीसे सत्त्वगुणके सेवनसे रजोगुण और तमोगुणको जीत ले, इन्द्रियोंको वशमें कर ले और मेरे स्वरूपको समझकर मेरे भजनमें लग जाय। आसक्तिको लेशमात्र भी न रहने दे॥ ३४॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
नैरपेक्ष्येण गुणेष्वन्तर्गतस्य सत्त्वस्याप्यन्ते हातव्यत्वबुद्ध्येत्यर्थः ॥ ३४ ॥
श्लोक-३५
विश्वास-प्रस्तुतिः
सत्त्वं चाभिजयेद् युक्तो नैरपेक्ष्येण शान्तधीः।
सम्पद्यते गुणैर्मुक्तो जीवो जीवं विहाय माम्॥
मूलम्
सत्त्वं चाभिजयेद् युक्तो नैरपेक्ष्येण शान्तधीः।
सम्पद्यते गुणैर्मुक्तो जीवो जीवं विहाय माम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
योगयुक्तिसे चित्तवृत्तियोंको शान्त करके निरपेक्षताके द्वारा सत्त्वगुणपर भी विजय प्राप्त कर ले। इस प्रकार गुणोंसे मुक्त होकर जीव अपने जीवभावको छोड़ देता है और मुझसे एक हो जाता है॥ ३५॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
अजीवं शरीरं विहाय मां सम्पद्यत इत्यन्वयः ॥ ३५ ॥
श्लोक-३६
विश्वास-प्रस्तुतिः
जीवो जीवविनिर्मुक्तो गुणैश्चाशयसम्भवैः।
मयैव ब्रह्मणा पूर्णो न बहिर्नान्तरश्चरेत्॥
मूलम्
जीवो जीवविनिर्मुक्तो गुणैश्चाशयसम्भवैः।
मयैव ब्रह्मणा पूर्णो न बहिर्नान्तरश्चरेत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
जीव लिंगशरीररूप अपनी उपाधि जीवत्वसे तथा अन्तःकरणमें उदय होनेवाली सत्त्वादि गुणोंकी वृत्तियोंसे मुक्त होकर मुझ ब्रह्मकी अनुभूतिसे एकत्वदर्शनसे पूर्ण हो जाता है और वह फिर बाह्य अथवा आन्तरिक किसी भी विषयमें नहीं जाता॥ ३६॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
अजीवेन शरीरेण विनिर्मुक्तो मया पूर्णः व्याप्तः मदन्तर्यामिकत्वं साक्षात्कुर्वन् मन्नित्यकिङ्करः न बहिर्नान्तरश्चरेत् बहिर्न चरेत् संसारनिमित्तकं कर्म न करोति नान्तरं चरेत् मोक्षसाधनं नाचरेदिति मुक्तिदशायां शास्त्रवश्यो न भवतीत्यर्थः ॥ ३६ ॥
इति श्रीमद्भागवतव्याख्याने एकादशस्कन्धीये श्रीसुदर्शनसूरिकृतशुकपक्षीये पञ्चविंशोऽध्यायः ॥ २५ ॥
अनुवाद (समाप्ति)
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायामेकादशस्कन्धे पञ्चविंशोऽध्यायः॥ २५॥