२३

[त्रयोविंशोऽध्यायः]

भागसूचना

एक तितिक्षु ब्राह्मणका इतिहास

श्लोक-१

मूलम् (वचनम्)

बादरायणिरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

स एवमाशंसित उद्धवेन
भागवतमुख्येन दाशार्हमुख्यः।
सभाजयन् भृत्यवचो मुकुन्द-
स्तमाबभाषे श्रवणीयवीर्यः॥

मूलम्

स एवमाशंसित उद्धवेन
भागवतमुख्येन दाशार्हमुख्यः।
सभाजयन् भृत्यवचो मुकुन्द-
स्तमाबभाषे श्रवणीयवीर्यः॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! वास्तवमें भगवान‍्की लीलाकथा ही श्रवण करनेयोग्य है। वे ही प्रेम और मुक्तिके दाता हैं। जब उनके परमप्रेमी भक्त उद्धवजीने इस प्रकार प्रार्थना की, तब यदुवंशविभूषण श्रीभगवान‍्ने उनके प्रश्नकी प्रशंसा करके उनसे इस प्रकार कहा—॥ १॥

श्लोक-२

मूलम् (वचनम्)

श्रीभगवानुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

बार्हस्पत्य स वै नात्र साधुर्वै दुर्जनेरितैः।
दुरुक्तैर्भिन्नमात्मानं यः समाधातुमीश्वरः॥

मूलम्

बार्हस्पत्य स वै नात्र साधुर्वै दुर्जनेरितैः।
दुरुक्तैर्भिन्नमात्मानं यः समाधातुमीश्वरः॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् श्रीकृष्णने कहा—देवगुरु बृहस्पतिके शिष्य उद्धवजी! इस संसारमें प्रायः ऐसे संत पुरुष नहीं मिलते, जो दुर्जनोंकी कटुवाणीसे बिंधे हुए अपने हृदयको सँभाल सकें॥ २॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

बार्हस्पत्यः बृहस्पतिशिष्य ईश्वरः समर्थः लुब्धः अर्थाभिनिविष्टः कदर्यः सिद्धेऽपि विभवे विनियोगविमुखः ॥ १-६ ॥

श्लोक-३

विश्वास-प्रस्तुतिः

न तथा तप्यते विद्धः पुमान् बाणैः सुमर्मगैः।
यथा तुदन्ति मर्मस्था ह्यसतां परुषेषवः॥

मूलम्

न तथा तप्यते विद्धः पुमान् बाणैः सुमर्मगैः।
यथा तुदन्ति मर्मस्था ह्यसतां परुषेषवः॥

अनुवाद (हिन्दी)

मनुष्यका हृदय मर्मभेदी बाणोंसे बिंधनेपर भी उतनी पीडाका अनुभव नहीं करता, जितनी पीडा उसे दुष्टजनोंके मर्मान्तक एवं कठोर वाग्बाण पहुँचाते हैं॥ ३॥

श्लोक-४

विश्वास-प्रस्तुतिः

कथयन्ति महत्पुण्यमितिहासमिहोद्धव।
तमहं वर्णयिष्यामि निबोध सुसमाहितः॥

मूलम्

कथयन्ति महत्पुण्यमितिहासमिहोद्धव।
तमहं वर्णयिष्यामि निबोध सुसमाहितः॥

अनुवाद (हिन्दी)

उद्धवजी! इस विषयमें महात्मालोग एक बड़ा पवित्र प्राचीन इतिहास कहा करते हैं; मैं वही तुम्हें सुनाऊँगा, तुम मन लगाकर उसे सुनो॥ ४॥

श्लोक-५

विश्वास-प्रस्तुतिः

केनचिद् भिक्षुणा गीतं परिभूतेन दुर्जनैः।
स्मरता धृतियुक्तेन विपाकं निजकर्मणाम्॥

मूलम्

केनचिद् भिक्षुणा गीतं परिभूतेन दुर्जनैः।
स्मरता धृतियुक्तेन विपाकं निजकर्मणाम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक भिक्षुकको दुष्टोंने बहुत सताया था। उस समय भी उसने अपना धैर्य न छोड़ा और उसे अपने पूर्वजन्मके कर्मोंका फल समझकर कुछ अपने मानसिक उद‍्गार प्रकट किये थे। उन्हींका इस इतिहासमें वर्णन है॥ ५॥

श्लोक-६

विश्वास-प्रस्तुतिः

अवन्तिषु द्विजः कश्चिदासीदाढ्यतमः श्रिया।
वार्तावृत्तिः कदर्यस्तु कामी लुब्धोऽतिकोपनः॥

मूलम्

अवन्तिषु द्विजः कश्चिदासीदाढ्यतमः श्रिया।
वार्तावृत्तिः कदर्यस्तु कामी लुब्धोऽतिकोपनः॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्राचीन समयकी बात है, उज्जैनमें एक ब्राह्मण रहता था। उसने खेती-व्यापार आदि करके बहुत-सी धन-सम्पत्ति इकट्ठी कर ली थी। वह बहुत ही कृपण, कामी और लोभी था। क्रोध तो उसे बात-बातमें आ जाया करता था॥ ६॥

श्लोक-७

विश्वास-प्रस्तुतिः

ज्ञातयोऽतिथयस्तस्य वाङ्मात्रेणापि नार्चिताः।
शून्यावसथ आत्मापि काले कामैरनर्चितः॥

मूलम्

ज्ञातयोऽतिथयस्तस्य वाङ्मात्रेणापि नार्चिताः।
शून्यावसथ आत्मापि काले कामैरनर्चितः॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसने अपने जाति-बन्धु और अतिथियोंको कभी मीठी बातसे भी प्रसन्न नहीं किया, खिलाने-पिलानेकी तो बात ही क्या है। वह धर्म-कर्मसे रीते घरमें रहता और स्वयं भी अपनी धन-सम्पत्तिके द्वारा समयपर अपने शरीरको भी सुखी नहीं करता था॥ ७॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

शून्यावसथे अतिथिपूजारहितगृहे आत्मा शरीरम् ॥ ७-८ ॥

श्लोक-८

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुःशीलस्य कदर्यस्य द्रुह्यन्ते पुत्रबान्धवाः।
दारा दुहितरो भृत्या विषण्णा नाचरन् प्रियम्॥

मूलम्

दुःशीलस्य कदर्यस्य द्रुह्यन्ते पुत्रबान्धवाः।
दारा दुहितरो भृत्या विषण्णा नाचरन् प्रियम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसकी कृपणता और बुरे स्वभावके कारण उसके बेटे-बेटी, भाई-बन्धु, नौकर-चाकर और पत्नी आदि सभी दुःखी रहते और मन-ही-मन उसका अनिष्टचिन्तन किया करते थे। कोई भी उसके मनको प्रिय लगनेवाला व्यवहार नहीं करता था॥ ८॥

श्लोक-९

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्यैवं यक्षवित्तस्य च्युतस्योभयलोकतः।
धर्मकामविहीनस्य चुक्रुधुः पञ्चभागिनः॥

मूलम्

तस्यैवं यक्षवित्तस्य च्युतस्योभयलोकतः।
धर्मकामविहीनस्य चुक्रुधुः पञ्चभागिनः॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह लोक-परलोक दोनोंसे ही गिर गया था। बस, यक्षोंके समान धनकी रखवाली करता रहता था। उस धनसे वह न तो धर्म कमाता था और न भोग ही भोगता था। बहुत दिनोंतक इस प्रकार जीवन बितानेसे उसपर पंचमहायज्ञके भागी देवता बिगड़ उठे॥ ९॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

पञ्चभागिनः देवपितृभूतमनुष्यब्रह्मर्षयः ॥ ९ ॥

श्लोक-१०

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदवध्यानविस्रस्तपुण्यस्कन्धस्य भूरिद।
अर्थोऽप्यगच्छन्निधनं बह्वायासपरिश्रमः॥

मूलम्

तदवध्यानविस्रस्तपुण्यस्कन्धस्य भूरिद।
अर्थोऽप्यगच्छन्निधनं बह्वायासपरिश्रमः॥

अनुवाद (हिन्दी)

उदार उद्धवजी! पंचमहायज्ञके भागियोंके तिरस्कारसे उसके पूर्व-पुण्योंका सहारा—जिसके बलसे अबतक धन टिका हुआ था—जाता रहा और जिसे उसने बड़े उद्योग और परिश्रमसे इकट्ठा किया था, वह धन उसकी आँखोंके सामने ही नष्ट-भ्रष्ट हो गया॥ १०॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

वह्वायासपरिश्रम इति बहुलायासपरिश्रमसाध्य इत्यर्थः ॥ १० ॥

श्लोक-११

विश्वास-प्रस्तुतिः

ज्ञातयो जगृहुः किञ्चित् किञ्चिद् दस्यव उद्धव।
दैवतः कालतः किञ्चिद् ब्रह्मबन्धोर्नृपार्थिवात्॥

मूलम्

ज्ञातयो जगृहुः किञ्चित् किञ्चिद् दस्यव उद्धव।
दैवतः कालतः किञ्चिद् ब्रह्मबन्धोर्नृपार्थिवात्॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस नीच ब्राह्मणका कुछ धन तो उसके कुटुम्बियोंने ही छीन लिया, कुछ चोर चुरा ले गये। कुछ आग लग जाने आदि दैवी कोपसे नष्ट हो गया, कुछ समयके फेरसे मारा गया। कुछ साधारण मनुष्योंने ले लिया और बचा-खुचा कर और दण्डके रूपमें शासकोंने हड़प लिया॥ ११॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

ब्रह्मबन्धोरिति । धनमिति शेषः । दैवतः किञ्चिदिति नष्टमिति शेषः ॥ ११-१२ ॥

श्लोक-१२

विश्वास-प्रस्तुतिः

स एवं द्रविणे नष्टे धर्मकामविवर्जितः।
उपेक्षितश्च स्वजनैश्चिन्तामाप दुरत्ययाम्॥

मूलम्

स एवं द्रविणे नष्टे धर्मकामविवर्जितः।
उपेक्षितश्च स्वजनैश्चिन्तामाप दुरत्ययाम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

उद्धवजी! इस प्रकार उसकी सारी सम्पत्ति जाती रही। न तो उसने धर्म ही कमाया और न भोग ही भोगे। इधर उसके सगे-सम्बन्धियोंने भी उसकी ओरसे मुँह मोड़ लिया। अब उसे बड़ी भयानक चिन्ताने घेर लिया॥ १२॥

श्लोक-१३

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्यैवं ध्यायतो दीर्घं नष्टरायस्तपस्विनः।
खिद्यतो बाष्पकण्ठस्य निर्वेदः सुमहानभूत्॥

मूलम्

तस्यैवं ध्यायतो दीर्घं नष्टरायस्तपस्विनः।
खिद्यतो बाष्पकण्ठस्य निर्वेदः सुमहानभूत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

धनके नाशसे उसके हृदयमें बड़ी जलन हुई। उसका मन खेदसे भर गया। आँसुओंके कारण गला रुँध गया। परन्तु इस तरह चिन्ता करते-करते ही उसके मनमें संसारके प्रति महान् दुःखबुद्धि और उत्कट वैराग्यका उदय हो गया॥ १३॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

नष्टरायो नष्टधनस्य ईदृश आत्मा इत्यन्वयः ॥ १३ ॥

श्लोक-१४

विश्वास-प्रस्तुतिः

स चाहेदमहो कष्टं वृथाऽऽत्मा मेऽनुतापितः।
न धर्माय न कामाय यस्यार्थायास ईदृशः॥

मूलम्

स चाहेदमहो कष्टं वृथाऽऽत्मा मेऽनुतापितः।
न धर्माय न कामाय यस्यार्थायास ईदृशः॥

अनुवाद (हिन्दी)

अब वह ब्राह्मण मन-ही-मन कहने लगा—‘हाय! हाय!! बड़े खेदकी बात है, मैंने इतने दिनोंतक अपनेको व्यर्थ ही इस प्रकार सताया। जिस धनके लिये मैंने सरतोड़ परिश्रम किया, वह न तो धर्मकर्ममें लगा और न मेरे सुखभोगके ही काम आया॥ १४॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

नार्थाय अर्थाय च नासीत् अर्थस्यापि विनाशादित्यर्थः ॥ १४- १६ ॥

श्लोक-१५

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रायेणार्थाः कदर्याणां न सुखाय कदाचन।
इह चात्मोपतापाय मृतस्य नरकाय च॥

मूलम्

प्रायेणार्थाः कदर्याणां न सुखाय कदाचन।
इह चात्मोपतापाय मृतस्य नरकाय च॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रायः देखा जाता है कि कृपण पुरुषोंको धनसे कभी सुख नहीं मिलता। इस लोकमें तो वे धन कमाने और रक्षाकी चिन्तासे जलते रहते हैं और मरनेपर धर्म न करनेके कारण नरकमें जाते हैं॥ १५॥

श्लोक-१६

विश्वास-प्रस्तुतिः

यशो यशस्विनां शुद्धं श्लाघ्या ये गुणिनां गुणाः।
लोभः स्वल्पोऽपि तान् हन्ति श्वित्रो रूपमिवेप्सितम्॥

मूलम्

यशो यशस्विनां शुद्धं श्लाघ्या ये गुणिनां गुणाः।
लोभः स्वल्पोऽपि तान् हन्ति श्वित्रो रूपमिवेप्सितम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे थोड़ा-सा भी कोढ़ सर्वांगसुन्दर स्वरूपको बिगाड़ देता है, वैसे ही तनिक-सा भी लोभ यशस्वियोंके शुद्ध यश और गुणियोंके प्रशंसनीय गुणोंपर पानी फेर देता है॥ १६॥

श्लोक-१७

विश्वास-प्रस्तुतिः

अर्थस्य साधने सिद्धे उत्कर्षे रक्षणे व्यये।
नाशोपभोग आयासस्त्रासश्चिन्ता भ्रमो नृणाम्॥

मूलम्

अर्थस्य साधने सिद्धे उत्कर्षे रक्षणे व्यये।
नाशोपभोग आयासस्त्रासश्चिन्ता भ्रमो नृणाम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

धन कमानेमें, कमा लेनेपर उसको बढ़ाने, रखने एवं खर्च करनेमें तथा उसके नाश और उपभोगमें—जहाँ देखो वहीं निरन्तर परिश्रम, भय, चिन्ता और भ्रमका ही सामना करना पड़ता है॥ १७॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

उत्कर्षे सिद्धस्य वर्द्धने साधनादिदशासु नाशादयः क्रमेण भवन्ति साधनमर्जनं तदा नाशः समुद्रयानादिभिः व्ययचिन्ता भ्रमः भेदः बन्धुहानिः अदम्भ इति पदं मनसो नियमनाभावः यद्वा परै: प्रबलैर्दमनं दण्डापादनं वैरम् अकारणविरोधः व्यसनानि व्यसनशब्देन सप्तसु व्यसनेषु द्यूतपानवाक्पारुष्याणि विवक्षितानि अन्येषु पौनरुक्त्यायोग्यत्वाभ्यां विवक्षानुपपत्तेः । १७ - १९ ॥

श्लोक-१८

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्तेयं हिंसानृतं दम्भः कामः क्रोधः स्मयो मदः।
भेदो वैरमविश्वासः संस्पर्धा व्यसनानि च॥

मूलम्

स्तेयं हिंसानृतं दम्भः कामः क्रोधः स्मयो मदः।
भेदो वैरमविश्वासः संस्पर्धा व्यसनानि च॥

श्लोक-१९

विश्वास-प्रस्तुतिः

एते पञ्चदशानर्था ह्यर्थमूला मता नृणाम्।
तस्मादनर्थमर्थाख्यं श्रेयोऽर्थी दूरतस्त्यजेत्॥

मूलम्

एते पञ्चदशानर्था ह्यर्थमूला मता नृणाम्।
तस्मादनर्थमर्थाख्यं श्रेयोऽर्थी दूरतस्त्यजेत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

चोरी, हिंसा, झूठ बोलना, दम्भ, काम, क्रोध, गर्व, अहंकार, भेदबुद्धि, वैर, अविश्वास, स्पर्द्धा, लम्पटता, जूआ और शराब—ये पन्द्रह अनर्थ मनुष्योंमें धनके कारण ही माने गये हैं। इसलिये कल्याणकामी पुरुषको चाहिये कि स्वार्थ एवं परमार्थके विरोधी अर्थनामधारी अनर्थको दूरसे ही छोड़ दे॥ १८-१९॥

श्लोक-२०

विश्वास-प्रस्तुतिः

भिद्यन्ते भ्रातरो दाराः पितरः सुहृदस्तथा।
एकास्निग्धाः काकिणिना सद्यः सर्वेऽरयः कृताः॥

मूलम्

भिद्यन्ते भ्रातरो दाराः पितरः सुहृदस्तथा।
एकास्निग्धाः काकिणिना सद्यः सर्वेऽरयः कृताः॥

अनुवाद (हिन्दी)

भाई-बन्धु, स्त्री-पुत्र, माता-पिता, सगे-सम्बन्धी—जो स्नेहबन्धनसे बँधकर बिलकुल एक हुए रहते हैं—सब-के-सब कौड़ीके कारण इतने फट जाते हैं कि तुरंत एक-दूसरेके शत्रु बन जाते हैं॥ २०॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

काकिणिना ककिणिकामात्रेण ॥ २०-२२ ॥

श्लोक-२१

विश्वास-प्रस्तुतिः

अर्थेनाल्पीयसा ह्येते संरब्धा दीप्तमन्यवः।
त्यजन्त्याशु स्पृधो घ्नन्ति सहसोत्सृज्य सौहृदम्॥

मूलम्

अर्थेनाल्पीयसा ह्येते संरब्धा दीप्तमन्यवः।
त्यजन्त्याशु स्पृधो घ्नन्ति सहसोत्सृज्य सौहृदम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

ये लोग थोड़े-से धनके लिये भी क्षुब्ध और क्रुद्ध हो जाते हैं। बात-की-बातमें सौहार्द-सम्बन्ध छोड़ देते हैं, लाग-डाँट रखने लगते हैं और एकाएक प्राण लेने-देनेपर उतारू हो जाते हैं। यहाँतक कि एक-दूसरेका सर्वनाश कर डालते हैं॥ २१॥

श्लोक-२२

विश्वास-प्रस्तुतिः

लब्ध्वा जन्मामरप्रार्थ्यं मानुष्यं तद् द्विजाग्र्यताम्।
तदनादृत्य ये स्वार्थं घ्नन्ति यान्त्यशुभां गतिम्॥

मूलम्

लब्ध्वा जन्मामरप्रार्थ्यं मानुष्यं तद् द्विजाग्र्यताम्।
तदनादृत्य ये स्वार्थं घ्नन्ति यान्त्यशुभां गतिम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवताओंके भी प्रार्थनीय मनुष्य-जन्मको और उसमें भी श्रेष्ठ ब्राह्मण-शरीर प्राप्त करके जो उसका अनादर करते हैं और अपने सच्चे स्वार्थ-परमार्थका नाश करते हैं, वे अशुभ गतिको प्राप्त होते हैं॥ २२॥

श्लोक-२३

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वर्गापवर्गयोर्द्वारं प्राप्य लोकमिमं पुमान्।
द्रविणे कोऽनुषज्जेत मर्त्योऽनर्थस्य धामनि॥

मूलम्

स्वर्गापवर्गयोर्द्वारं प्राप्य लोकमिमं पुमान्।
द्रविणे कोऽनुषज्जेत मर्त्योऽनर्थस्य धामनि॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह मनुष्य-शरीर मोक्ष और स्वर्गका द्वार है, इसको पाकर भी ऐसा कौन बुद्धिमान् मनुष्य है जो अनर्थोंके धाम धनके चक्करमें फँसा रहे॥ २३॥

श्लोक-२४

विश्वास-प्रस्तुतिः

देवर्षिपितृभूतानि ज्ञातीन् बन्धूंश्च भागिनः।
असंविभज्य चात्मानं यक्षवित्तः पतत्यधः॥

मूलम्

देवर्षिपितृभूतानि ज्ञातीन् बन्धूंश्च भागिनः।
असंविभज्य चात्मानं यक्षवित्तः पतत्यधः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो मनुष्य देवता, ऋषि, पितर, प्राणी, जाति-भाई, कुटुम्बी और धनके दूसरे भागीदारोंको उनका भाग देकर सन्तुष्ट नहीं रखता और न स्वयं ही उसका उपभोग करता है, वह यक्षके समान धनकी रखवाली करनेवाला कृपण तो अवश्य ही अधोगतिको प्राप्त होता है॥ २४॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

यक्षवित्तः ॥ २४-२७ ॥

श्लोक-२५

विश्वास-प्रस्तुतिः

व्यर्थयार्थेहया वित्तं प्रमत्तस्य वयो बलम्।
कुशला येन सिध्यन्ति जरठः किं नु साधये॥

मूलम्

व्यर्थयार्थेहया वित्तं प्रमत्तस्य वयो बलम्।
कुशला येन सिध्यन्ति जरठः किं नु साधये॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं अपने कर्तव्यसे च्युत हो गया हूँ। मैंने प्रमादमें अपनी आयु, धन और बल-पौरुष खो दिये। विवेकीलोग जिन साधनोंसे मोक्षतक प्राप्त कर लेते हैं,उन्हींको मैंने धन इकट्ठा करनेकी व्यर्थ चेष्टामें खो दिया। अब बुढ़ापेमें मैं कौन-सा साधन करूँगा॥ २५॥

श्लोक-२६

विश्वास-प्रस्तुतिः

कस्मात् संक्लिश्यते विद्वान् व्यर्थयार्थेहयासकृत्।
कस्यचिन्मायया नूनं लोकोऽयं सुविमोहितः॥

मूलम्

कस्मात् संक्लिश्यते विद्वान् व्यर्थयार्थेहयासकृत्।
कस्यचिन्मायया नूनं लोकोऽयं सुविमोहितः॥

अनुवाद (हिन्दी)

मुझे मालूम नहीं होता कि बड़े-बड़े विद्वान् भी धनकी व्यर्थ तृष्णासे निरन्तर क्यों दुःखी रहते हैं? हो-न-हो, अवश्य ही यह संसार किसीकी मायासे अत्यन्त मोहित हो रहा है॥ २६॥

श्लोक-२७

विश्वास-प्रस्तुतिः

किं धनैर्धनदैर्वा किं कामैर्वा कामदैरुत।
मृत्युना ग्रस्यमानस्य कर्मभिर्वोत जन्मदैः॥

मूलम्

किं धनैर्धनदैर्वा किं कामैर्वा कामदैरुत।
मृत्युना ग्रस्यमानस्य कर्मभिर्वोत जन्मदैः॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह मनुष्य-शरीर कालके विकराल गालमें पड़ा हुआ है। इसको धनसे, धन देनेवाले देवताओं और लोगोंसे, भोगवासनाओं और उनको पूर्ण करनेवालोंसे तथा पुनः-पुनः जन्म-मृत्युके चक्करमें डालनेवाले सकाम कर्मोंसे लाभ ही क्या है?॥ २७॥

श्लोक-२८

विश्वास-प्रस्तुतिः

नूनं मे भगवांस्तुष्टः सर्वदेवमयो हरिः।
येन नीतो दशामेतां निर्वेदश्चात्मनः प्लवः॥

मूलम्

नूनं मे भगवांस्तुष्टः सर्वदेवमयो हरिः।
येन नीतो दशामेतां निर्वेदश्चात्मनः प्लवः॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसमें सन्देह नहीं कि सर्वदेवस्वरूप भगवान् मुझपर प्रसन्न हैं। तभी तो उन्होंने मुझे इस दशामें पहुँचाया है और मुझे जगत‍्के प्रति यह दुःख-बुद्धि और वैराग्य दिया है। वस्तुतः वैराग्य ही इस संसार-सागरसे पार होनेके लिये नौकाके समान है॥ २८॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

निर्वेदश्चासीदिति शेषः ॥ २८-३१ ॥

श्लोक-२९

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोऽहं कालावशेषेण शोषयिष्येऽङ्गमात्मनः।
अप्रमत्तोऽखिलस्वार्थे यदि स्यात् सिद्ध आत्मनि॥

मूलम्

सोऽहं कालावशेषेण शोषयिष्येऽङ्गमात्मनः।
अप्रमत्तोऽखिलस्वार्थे यदि स्यात् सिद्ध आत्मनि॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं अब ऐसी अवस्थामें पहुँच गया हूँ। यदि मेरी आयु शेष हो तो मैं आत्मलाभमें ही सन्तुष्ट रहकर अपने परमार्थके सम्बन्धमें सावधान हो जाऊँगा और अब जो समय बच रहा है, उसमें अपने शरीरको तपस्याके द्वारा सुखा डालूँगा॥ २९॥

श्लोक-३०

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्र मामनुमोदेरन् देवास्त्रिभुवनेश्वराः।
मुहूर्तेन ब्रह्मलोकं खट्वाङ्गः समसाधयत्॥

मूलम्

तत्र मामनुमोदेरन् देवास्त्रिभुवनेश्वराः।
मुहूर्तेन ब्रह्मलोकं खट्वाङ्गः समसाधयत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

तीनों लोकोंके स्वामी देवगण मेरे इस संकल्पका अनुमोदन करें। अभी निराश होनेकी कोई बात नहीं है, क्योंकि राजा खट्वांगने तो दो घड़ीमें ही भगवद्धामकी प्राप्ति कर ली थी॥ ३०॥

श्लोक-३१

मूलम् (वचनम्)

श्रीभगवानुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्यभिप्रेत्य मनसा ह्यावन्त्यो द्विजसत्तमः।
उन्मुच्य हृदयग्रन्थीन् शान्तो भिक्षुरभून्मुनिः॥

मूलम्

इत्यभिप्रेत्य मनसा ह्यावन्त्यो द्विजसत्तमः।
उन्मुच्य हृदयग्रन्थीन् शान्तो भिक्षुरभून्मुनिः॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं—उद्धवजी! उस उज्जैननिवासी ब्राह्मणने मन-ही-मन इस प्रकार निश्चय करके ‘मैं’ और ‘मेरे’ पनकी गाँठ खोल दी। इसके बाद वह शान्त होकर मौनी संन्यासी हो गया॥ ३१॥

श्लोक-३२

विश्वास-प्रस्तुतिः

स चचार महीमेतां संयतात्मेन्द्रियानिलः।
भिक्षार्थं नगरग्रामानसङ्गोऽलक्षितोऽविशत्॥

मूलम्

स चचार महीमेतां संयतात्मेन्द्रियानिलः।
भिक्षार्थं नगरग्रामानसङ्गोऽलक्षितोऽविशत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

अब उसके चित्तमें किसी भी स्थान, वस्तु या व्यक्तिके प्रति आसक्ति न रही। उसने अपने मन, इन्द्रिय और प्राणोंको वशमें कर लिया। वह पृथ्वीपर स्वच्छन्दरूपसे विचरने लगा। वह भिक्षाके लिये नगर और गाँवोंमें जाता अवश्य था, परन्तु इस प्रकार जाता था कि कोई उसे पहचान न पाता था॥ ३२॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

निर्वेदं भिक्षान्नस्य धारणम् ॥ ३२-४२ ॥

श्लोक-३३

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं वै प्रवयसं भिक्षुमवधूतमसज्जनाः।
दृष्ट्वा पर्यभवन् भद्र बह्वीभिः परिभूतिभिः॥

मूलम्

तं वै प्रवयसं भिक्षुमवधूतमसज्जनाः।
दृष्ट्वा पर्यभवन् भद्र बह्वीभिः परिभूतिभिः॥

अनुवाद (हिन्दी)

उद्धवजी! वह भिक्षुक अवधूत बहुत बूढ़ा हो गया था। दुष्ट उसे देखते ही टूट पड़ते और तरह-तरहसे उसका तिरस्कार करके उसे तंग करते॥ ३३॥

श्लोक-३४

विश्वास-प्रस्तुतिः

केचित्त्रिवेणुं जगृहुरेके पात्रं कमण्डलुम्।
पीठं चैकेऽक्षसूत्रं च कन्थां चीराणि केचन॥

मूलम्

केचित्त्रिवेणुं जगृहुरेके पात्रं कमण्डलुम्।
पीठं चैकेऽक्षसूत्रं च कन्थां चीराणि केचन॥

अनुवाद (हिन्दी)

कोई उसका दण्ड छीन लेता, तो कोई भिक्षापात्र ही झटक ले जाता। कोई कमण्डलु उठा ले जाता तो कोई आसन, रुद्राक्षमाला और कन्था ही लेकर भाग जाता। कोई तो उसकी लँगोटी और वस्त्रको ही इधर-उधर डाल देते॥ ३४॥

श्लोक-३५

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रदाय च पुनस्तानि दर्शितान्याददुर्मुनेः।
अन्नं च भैक्ष्यसम्पन्नं भुञ्जानस्य सरित्तटे॥

मूलम्

प्रदाय च पुनस्तानि दर्शितान्याददुर्मुनेः।
अन्नं च भैक्ष्यसम्पन्नं भुञ्जानस्य सरित्तटे॥

श्लोक-३६

विश्वास-प्रस्तुतिः

मूत्रयन्ति च पापिष्ठाः ष्ठीवन्त्यस्य च मूर्धनि।
यतवाचं वाचयन्ति ताडयन्ति न वक्ति चेत्॥

मूलम्

मूत्रयन्ति च पापिष्ठाः ष्ठीवन्त्यस्य च मूर्धनि।
यतवाचं वाचयन्ति ताडयन्ति न वक्ति चेत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

कोई-कोई वे वस्तुएँ देकर और कोई दिखला-दिखलाकर फिर छीन लेते। जब वह अवधूत मधुकरी माँगकर लाता और बाहर नदी-तटपर भोजन करने बैठता, तो पापी लोग कभी उसके सिरपर मूत देते, तो कभी थूक देते। वे लोग उस मौनी अवधूतको तरह-तरहसे बोलनेके लिये विवश करते और जब वह इसपर भी न बोलता तो उसे पीटते॥ ३५-३६॥

श्लोक-३७

विश्वास-प्रस्तुतिः

तर्जयन्त्यपरे वाग्भिः स्तेनोऽयमिति वादिनः।
बध्नन्ति रज्ज्वा तं केचिद् बध्यतां बध्यतामिति॥

मूलम्

तर्जयन्त्यपरे वाग्भिः स्तेनोऽयमिति वादिनः।
बध्नन्ति रज्ज्वा तं केचिद् बध्यतां बध्यतामिति॥

अनुवाद (हिन्दी)

कोई उसे चोर कहकर डाँटने-डपटने लगता। कोई कहता ‘इसे बाँध लो, बाँध लो’ और फिर उसे रस्सीसे बाँधने लगते॥ ३७॥

श्लोक-३८

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्षिपन्त्येकेऽवजानन्त एष धर्मध्वजः शठः।
क्षीणवित्त इमां वृत्तिमग्रहीत् स्वजनोज्झितः॥

मूलम्

क्षिपन्त्येकेऽवजानन्त एष धर्मध्वजः शठः।
क्षीणवित्त इमां वृत्तिमग्रहीत् स्वजनोज्झितः॥

अनुवाद (हिन्दी)

कोई उसका तिरस्कार करके इस प्रकार ताना कसते कि ‘देखो-देखो, अब इस कृपणने धर्मका ढोंग रचा है। धन-सम्पत्ति जाती रही, स्त्री-पुत्रोंने घरसे निकाल दिया; तब इसने भीख माँगनेका रोजगार लिया है॥ ३८॥

श्लोक-३९

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहो एष महासारो धृतिमान् गिरिराडिव।
मौनेन साधयत्यर्थं बकवद् दृढनिश्चयः॥

मूलम्

अहो एष महासारो धृतिमान् गिरिराडिव।
मौनेन साधयत्यर्थं बकवद् दृढनिश्चयः॥

अनुवाद (हिन्दी)

ओहो! देखो तो सही, यह मोटा-तगड़ा भिखारी धैर्यमें बड़े भारी पर्वतके समान है। यह मौन रहकर अपना काम बनाना चाहता है। सचमुच यह बगुलेसे भी बढ़कर ढोंगी और दृढ़निश्चयी है’॥ ३९॥

श्लोक-४०

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्येके विहसन्त्येनमेके दुर्वातयन्ति च।
तं बबन्धुर्निरुरुधुर्यथा क्रीडनकं द्विजम्॥

मूलम्

इत्येके विहसन्त्येनमेके दुर्वातयन्ति च।
तं बबन्धुर्निरुरुधुर्यथा क्रीडनकं द्विजम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

कोई उस अवधूतकी हँसी उड़ाता, तो कोई उसपर अधोवायु छोड़ता। जैसे लोग तोता-मैना आदि पालतू पक्षियोंको बाँध लेते या पिंजड़ेमें बंद कर लेते हैं, वैसे ही उसे भी वे लोग बाँध देते और घरोंमें बंद कर देते॥ ४०॥

श्लोक-४१

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं स भौतिकं दुःखं दैविकं दैहिकं च यत्।
भोक्तव्यमात्मनो दिष्टं प्राप्तं प्राप्तमबुध्यत॥

मूलम्

एवं स भौतिकं दुःखं दैविकं दैहिकं च यत्।
भोक्तव्यमात्मनो दिष्टं प्राप्तं प्राप्तमबुध्यत॥

अनुवाद (हिन्दी)

किन्तु वह सब कुछ चुपचाप सह लेता। उसे कभी ज्वर आदिके कारण दैहिक पीड़ा सहनी पड़ती, कभी गरमी-सर्दी आदिसे दैवी कष्ट उठाना पड़ता और कभी दुर्जनलोग अपमान आदिके द्वारा उसे भौतिक पीड़ा पहुँचाते; परन्तु भिक्षुकके मनमें इससे कोई विकार न होता। वह समझता कि यह सब मेरे पूर्वजन्मके कर्मोंका फल है और इसे मुझे अवश्य भोगना पड़ेगा॥ ४१॥

श्लोक-४२

विश्वास-प्रस्तुतिः

परिभूत इमां गाथामगायत नराधमैः।
पातयद‍्भिः स्वधर्मस्थो धृतिमास्थाय सात्त्विकीम्॥

मूलम्

परिभूत इमां गाथामगायत नराधमैः।
पातयद‍्भिः स्वधर्मस्थो धृतिमास्थाय सात्त्विकीम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

यद्यपि नीच मनुष्य तरह-तरहके तिरस्कार करके उसे उसके धर्मसे गिरानेकी चेष्टा किया करते, फिर भी वह बड़ी दृढ़तासे अपने धर्ममें स्थिर रहता और सात्त्विक धैर्यका आश्रय लेकर कभी-कभी ऐसे उद‍्गार प्रकट किया करता॥ ४२॥

श्लोक-४३

मूलम् (वचनम्)

द्विज उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

नायं जनो मे सुखदुःखहेतु-
र्न देवताऽऽत्मा ग्रहकर्मकालाः।
मनः परं कारणमामनन्ति
संसारचक्रं परिवर्तयेद् यत्॥

मूलम्

नायं जनो मे सुखदुःखहेतु-
र्न देवताऽऽत्मा ग्रहकर्मकालाः।
मनः परं कारणमामनन्ति
संसारचक्रं परिवर्तयेद् यत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्राह्मण कहता—मेरे सुख अथवा दुःखका कारण न ये मनुष्य हैं, न देवता हैं, न शरीर है और न ग्रह, कर्म एवं काल आदि ही हैं। श्रुतियाँ और महात्माजन मनको ही इसका परम कारण बताते हैं और मन ही इस सारे संसार-चक्रको चला रहा है॥ ४३॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

आत्मा शरीरम् मनः केवलं सुखदुःखयोः कारणं वदन्ति ‘मनसा ह्येव पश्यति मनसा शृणोति इत्यादि श्रुतेः मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः इति स्मृतेश्च ॥ ४३ ॥

श्लोक-४४

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनो गुणान् वै सृजते बलीय-
स्ततश्च कर्माणि विलक्षणानि।
शुक्लानि कृष्णान्यथ लोहितानि
तेभ्यः सवर्णाः सृतयो भवन्ति॥

मूलम्

मनो गुणान् वै सृजते बलीय-
स्ततश्च कर्माणि विलक्षणानि।
शुक्लानि कृष्णान्यथ लोहितानि
तेभ्यः सवर्णाः सृतयो भवन्ति॥

अनुवाद (हिन्दी)

सचमुच यह मन बहुत बलवान् है। इसीने विषयों, उनके कारण गुणों और उनसे सम्बन्ध रखनेवाली वृत्तियोंकी सृष्टि की है। उन वृत्तियोंके अनुसार ही सात्त्विक, राजस और तामस—अनेकों प्रकारके कर्म होते हैं और कर्मोंके अनुसार ही जीवकी विविध गतियाँ होती हैं॥ ४४॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

गुणान् रागद्वेषादीन् शुक्लकृष्णलोहितानि पुण्यपापमिश्ररूपाणि सवर्णाः सदृशः अनुरूपाः ॥ ४४ ॥

श्लोक-४५

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनीह आत्मा मनसा समीहता
हिरण्मयो मत्सख उद्विचष्टे।
मनः स्वलिङ्गं परिगृह्य कामान्
जुषन् निबद्धो गुणसङ्गतोऽसौ॥

मूलम्

अनीह आत्मा मनसा समीहता
हिरण्मयो मत्सख उद्विचष्टे।
मनः स्वलिङ्गं परिगृह्य कामान्
जुषन् निबद्धो गुणसङ्गतोऽसौ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मन ही समस्त चेष्टाएँ करता है। उसके साथ रहनेपर भी आत्मा निष्क्रिय ही है। वह ज्ञानशक्तिप्रधान है, मुझ जीवका सनातन सखा है और अपने अलुप्त ज्ञानसे सब कुछ देखता रहता है। मनके द्वारा ही उसकी अभिव्यक्ति होती है। जब वह मनको स्वीकार करके उसके द्वारा विषयोंका भोक्ता बन बैठता है, तब कर्मोंके साथ आसक्ति होनेके कारण वह उनसे बँध जाता है॥ ४५॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

हिरण्यमयः परमपुरुषः मत्सखः मम जीवस्य सखीभूतः द्वासुपर्णा सयुजा सखाया’ इति श्रुतिः मनप्ता समीहितं सम्यगीहितमुद्विचष्टे पश्यति असौ जीवः स्वलिङ्गं करणतया चिह्नभूतं विनश्येत् सः इति शेषः ॥ ४५-४७ ॥

श्लोक-४६

विश्वास-प्रस्तुतिः

दानं स्वधर्मो नियमो यमश्च
श्रुतं च कर्माणि च सद्‍व्रतानि।
सर्वे मनोनिग्रहलक्षणान्ताः
परो हि योगो मनसः समाधिः॥

मूलम्

दानं स्वधर्मो नियमो यमश्च
श्रुतं च कर्माणि च सद्‍व्रतानि।
सर्वे मनोनिग्रहलक्षणान्ताः
परो हि योगो मनसः समाधिः॥

अनुवाद (हिन्दी)

दान, अपने धर्मका पालन, नियम, यम, वेदाध्ययन, सत्कर्म और ब्रह्मचर्यादि श्रेष्ठ व्रत—इन सबका अन्तिम फल यही है कि मन एकाग्र हो जाय, भगवान‍्में लग जाय। मनका समाहित हो जाना ही परम योग है॥ ४६॥

श्लोक-४७

विश्वास-प्रस्तुतिः

समाहितं यस्य मनः प्रशान्तं
दानादिभिः किं वद तस्य कृत्यम्।
असंयतं यस्य मनो विनश्यद्
दानादिभिश्चेदपरं किमेभिः॥

मूलम्

समाहितं यस्य मनः प्रशान्तं
दानादिभिः किं वद तस्य कृत्यम्।
असंयतं यस्य मनो विनश्यद्
दानादिभिश्चेदपरं किमेभिः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसका मन शान्त और समाहित है, उसे दान आदि समस्त सत्कर्मोंका फल प्राप्त हो चुका है। अब उनसे कुछ लेना बाकी नहीं है। और जिसका मन चंचल है अथवा आलस्यसे अभिभूत हो रहा है, उसको इन दानादि शुभकर्मोंसे अबतक कोई लाभ नहीं हुआ॥ ४७॥

श्लोक-४८

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनोवशेऽन्ये ह्यभवन् स्म देवा
मनश्च नान्यस्य वशं समेति।
भीष्मो हि देवः सहसः सहीयान्
युञ्‍ज्‍याद् वशे तं स हि देवदेवः॥

मूलम्

मनोवशेऽन्ये ह्यभवन् स्म देवा
मनश्च नान्यस्य वशं समेति।
भीष्मो हि देवः सहसः सहीयान्
युञ्‍ज्‍याद् वशे तं स हि देवदेवः॥

अनुवाद (हिन्दी)

सभी इन्द्रियाँ मनके वशमें हैं। मन किसी भी इन्द्रियके वशमें नहीं है। यह मन बलवान् से भी बलवान्, अत्यन्त भयंकर देव है। जो इसको अपने वशमें कर लेता है, वही देव-देव—इन्द्रियोंका विजेता है॥ ४८॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

मनोवशे मनसो वशे देवाः इन्द्रियाणि अन्यस्य जनस्य अदान्तमनसः भयङ्करः देव ईश्वरः युञ्ज्यात् सहसः सहीयान् बलिनोऽपि बलवत्तरः ईश्वरप्रसादान्मनोवशीकार इत्यर्थः ॥ ४८ ॥

श्लोक-४९

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं दुर्जयं शत्रुमसह्यवेग-
मरुन्तुदं तन्न विजित्य केचित्।
कुर्वन्त्यसद्विग्रहमत्र मर्त्यै-
र्मित्राण्युदासीनरिपून् विमूढाः॥

मूलम्

तं दुर्जयं शत्रुमसह्यवेग-
मरुन्तुदं तन्न विजित्य केचित्।
कुर्वन्त्यसद्विग्रहमत्र मर्त्यै-
र्मित्राण्युदासीनरिपून् विमूढाः॥

अनुवाद (हिन्दी)

सचमुच मन बहुत बड़ा शत्रु है। इसका आक्रमण असह्य है। यह बाहरी शरीरको ही नहीं, हृदयादि मर्मस्थानोंको भी बेधता रहता है। इसे जीतना बहुत ही कठिन है। मनुष्योंको चाहिये कि सबसे पहले इसी शत्रुपर विजय प्राप्त करे; परन्तु होता है यह कि मूर्ख लोग इसे तो जीतनेका प्रयत्न करते नहीं, दूसरे मनुष्योंसे झूठमूठ झगड़ा-बखेड़ा करते रहते हैं और इस जगत‍्के लोगोंको ही मित्र-शत्रु-उदासीन बना लेते हैं॥ ४९॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

असद्विग्रहं निष्फलविरोधं मित्रायुदासीनरिपूनिति पूर्व कुर्वन्तीत्यर्थः ॥ ४९ ॥

श्लोक-५०

विश्वास-प्रस्तुतिः

देहं मनोमात्रमिमं गृहीत्वा
ममाहमित्यन्धधियो मनुष्याः।
एषोऽहमन्योऽयमिति भ्रमेण
दुरन्तपारे तमसि भ्रमन्ति॥

मूलम्

देहं मनोमात्रमिमं गृहीत्वा
ममाहमित्यन्धधियो मनुष्याः।
एषोऽहमन्योऽयमिति भ्रमेण
दुरन्तपारे तमसि भ्रमन्ति॥

अनुवाद (हिन्दी)

साधारणतः मनुष्योंकी बुद्धि अंधी हो रही है। तभी तो वे इस मनःकल्पित शरीरको ‘मैं’ और ‘मेरा’ मान बैठते हैं और फिर इस भ्रमके फंदेमें फँस जाते हैं कि ‘यह मैं हूँ और यह दूसरा।’ इसका परिणाम यह होता है कि वे इस अनन्त अज्ञानान्धकारमें ही भटकते रहते हैं॥ ५०॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

मनोमात्रं मनसि मात्रा यस्य तं तन्मनसापरिच्छेद्यम् एषोऽहं ब्राह्मणोऽहं मनुष्योऽहम् अन्योऽयं शूद्रोऽयम् ॥ ५० ॥

श्लोक-५१

विश्वास-प्रस्तुतिः

जनस्तु हेतुः सुखदुःखयोश्चेत्
किमात्मनश्चात्र ह भौमयोस्तत्।
जिह्वां क्वचित् संदशति स्वदद‍्भि-
स्तद्वेदनायां कतमाय कुप्येत्॥

मूलम्

जनस्तु हेतुः सुखदुःखयोश्चेत्
किमात्मनश्चात्र ह भौमयोस्तत्।
जिह्वां क्वचित् संदशति स्वदद‍्भि-
स्तद्वेदनायां कतमाय कुप्येत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि मान लें कि मनुष्य ही सुख-दुःखका कारण है, तो भी उनसे आत्माका क्या सम्बन्ध? क्योंकि सुख-दुःख पहुँचानेवाला भी मिट्टीका शरीर है और भोगनेवाला भी। कभी भोजन आदिके समय यदि अपने दाँतोंसे ही अपनी जीभ कट जाय और उससे पीड़ा होने लगे, तो मनुष्य किसपर क्रोध करेगा?॥ ५१॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

जनः इति सुखदुःखशब्दाभ्यां तद्धेतुभूता चन्दनालेपन-खड्गप्रहारादिरूपदेहोपचारापाचारौ लक्ष्येते आत्मनः जीवस्य पार्थिवयोः स्वपरशरीरयोर्हि तत् मानापामानादि यद्यप्यात्मनस्तथापि न कोपः कार्य इत्याह । जिह्वामिति ॥ ५१ ॥

श्लोक-५२

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुःखस्य हेतुर्यदि देवतास्तु
किमात्मनस्तत्र विकारयोस्तत्।
यदङ्गमङ्गेन निहन्यते क्वचित्
क्रुध्येत कस्मै पुरुषः स्वदेहे॥

मूलम्

दुःखस्य हेतुर्यदि देवतास्तु
किमात्मनस्तत्र विकारयोस्तत्।
यदङ्गमङ्गेन निहन्यते क्वचित्
क्रुध्येत कस्मै पुरुषः स्वदेहे॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि ऐसा मान लें कि देवता ही दुःखके कारण हैं तो भी इस दुःखसे आत्माकी क्या हानि? क्योंकि यदि दुःखके कारण देवता हैं, तो इन्द्रियाभिमानी देवताओंके रूपमें उनके भोक्ता भी तो वे ही हैं। और देवता सभी शरीरोंमें एक हैं; जो देवता एक शरीरमें हैं; वे ही दूसरेमें भी हैं। ऐसी दशामें यदि अपने ही शरीरके किसी एक अंगसे दूसरे अंगको चोट लग जाय तो भला, किसपर क्रोध किया जायगा?॥ ५२॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

दुःखस्य वधादेः देवता ईश्वरः विकारयोः स्वपरदेहयोः ॥ ५२ ॥

श्लोक-५३

विश्वास-प्रस्तुतिः

आत्मा यदि स्यात् सुखदुःखहेतुः
किमन्यतस्तत्र निजस्वभावः।
न ह्यात्मनोऽन्यद् यदि तन्मृषा स्यात्
क्रुध्येत कस्मान्न सुखं न दुःखम्॥

मूलम्

आत्मा यदि स्यात् सुखदुःखहेतुः
किमन्यतस्तत्र निजस्वभावः।
न ह्यात्मनोऽन्यद् यदि तन्मृषा स्यात्
क्रुध्येत कस्मान्न सुखं न दुःखम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि ऐसा मानें कि आत्मा ही सुख-दुःखका कारण है तो वह तो अपना आप ही है, कोई दूसरा नहीं; क्योंकि आत्मासे भिन्न कुछ और है ही नहीं। यदि दूसरा कुछ प्रतीत होता है तो वह मिथ्या है। इसलिये न सुख है, न दुःख; फिर क्रोध कैसा? क्रोधका निमित्त ही क्या?॥ ५३॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

आत्मा देही स्वयमेव हेतुश्चेत् किमन्यतः किंक्षेपे नान्यतः किन्तु स्वस्वभाव एव स्यात् नह्यात्मनोऽन्यदिति तत् मृषा स्यादिति आत्मनोऽन्यद्दुःखादिहेतुश्चेत्तन्मृषा स्यात् स्वहेतुकत्वविरोधादन्यहेतुकत्वं मृषा स्यादित्यर्थः । न सुखं न दुःखं विलेपनादिकं प्रहारादिकं च नात्मनि भवत इत्यर्थः ॥ ५३ ॥

श्लोक-५४

विश्वास-प्रस्तुतिः

ग्रहा निमित्तं सुखदुःखयोश्चेत्
किमात्मनोऽजस्य जनस्य ते वै।
ग्रहैर्ग्रहस्यैव वदन्ति पीडां
क्रुध्येत कस्मै पुरुषस्ततोऽन्यः॥

मूलम्

ग्रहा निमित्तं सुखदुःखयोश्चेत्
किमात्मनोऽजस्य जनस्य ते वै।
ग्रहैर्ग्रहस्यैव वदन्ति पीडां
क्रुध्येत कस्मै पुरुषस्ततोऽन्यः॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि ग्रहोंको सुख-दुःखका निमित्त मानें, तो उनसे भी अजन्मा आत्माकी क्या हानि? उनका प्रभाव भी जन्म-मृत्युशील शरीरपर ही होता है। ग्रहोंकी पीड़ा तो उनका प्रभाव ग्रहण करनेवाले शरीरको ही होती है और आत्मा उन ग्रहों और शरीरोंसे सर्वथा परे है। तब भला वह किसपर क्रोध करे?॥ ५४॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

ग्रहैरादित्यादिभिः ग्रहस्यैव द्वेषानुष्ठातुः आदित्यादेरेव वा ॥ ५४ ॥

श्लोक-५५

विश्वास-प्रस्तुतिः

कर्मास्तु हेतुः सुखदुःखयोश्चेत्
किमात्मनस्तद्धि जडाजडत्वे।
देहस्त्वचित् पुरुषोऽयं सुपर्णः
क्रुध्येत कस्मै न हि कर्ममूलम्॥

मूलम्

कर्मास्तु हेतुः सुखदुःखयोश्चेत्
किमात्मनस्तद्धि जडाजडत्वे।
देहस्त्वचित् पुरुषोऽयं सुपर्णः
क्रुध्येत कस्मै न हि कर्ममूलम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि कर्मोंको ही सुख-दुःखका कारण मानें, तो उनसे आत्माका क्या प्रयोजन? क्योंकि वे तो एक पदार्थके जड और चेतन—उभयरूप होनेपर ही हो सकते हैं। (जो वस्तु विकारयुक्त और अपना हिताहित जाननेवाली होती है, उसीसे कर्म हो सकते हैं; अतः वह विकारयुक्त होनेके कारण जड होनी चाहिये और हिताहितका ज्ञान रखनेके कारण चेतन।) किन्तु देह तो अचेतन है और उसमें पक्षीरूपसे रहनेवाला आत्मा सर्वथा निर्विकार और साक्षीमात्र है। इस प्रकार कर्मोंका तो कोई आधार ही सिद्ध नहीं होता। फिर क्रोध किसपर करें?॥ ५५॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

कर्माणीति । किमात्मनः क्षतादिकं नामेत्यर्थः । आत्मनश्चेत् देहस्यात्मत्वं प्रसज्येदित्यर्थः । तद्धीति । जडस्याजडत्वे जडस्य देहस्यात्मत्वे सति हि तत्स्यात् चतादेरात्मगतत्वं संभवेदित्यर्थः । जडाजडयोरैक्यमनुपपन्नमित्याह । देहस्त्विति । सुपर्णः सुपर्णवत्प्रकाशरूपः । नहि वर्गमूलानि । कर्म च नात्मनः क्षतादिमूलमित्यर्थः ॥ ५५ ॥

श्लोक-५६

विश्वास-प्रस्तुतिः

कालस्तु हेतुः सुखदुःखयोश्चेत्
किमात्मनस्तत्र तदात्मकोऽसौ।
नाग्नेर्हि तापो न हिमस्य तत् स्यात्
क्रुध्येत कस्मै न परस्य द्वन्द्वम्॥

मूलम्

कालस्तु हेतुः सुखदुःखयोश्चेत्
किमात्मनस्तत्र तदात्मकोऽसौ।
नाग्नेर्हि तापो न हिमस्य तत् स्यात्
क्रुध्येत कस्मै न परस्य द्वन्द्वम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि ऐसा मानें कि काल ही सुख-दुःखका कारण है, तो आत्मापर उसका क्या प्रभाव? क्योंकि काल तो आत्मस्वरूप ही है। जैसे आग आगको नहीं जला सकती और बर्फ बर्फको नहीं गला सकता, वैसे ही आत्मस्वरूप काल अपने आत्माको ही सुख-दुःख नहीं पहुँचा सकता। फिर किसपर क्रोध किया जाय? आत्मा शीत-उष्ण, सुख-दुःख आदि द्वन्द्वोंसे सर्वथा अतीत है॥ ५६॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

आत्मनोऽसौ शरीरस्यासौ सुखदुःखहेतुः स्यात् तदेव विवृणोति । नाग्नेरिति । अग्निकार्यतापस्फोटजननादिकं हि देहस्यैव नात्मनः तथा हिमकार्य हेमन्ते क्लेदरोमहर्षादिकं देहस्यैव नात्मनः तस्मात् देहात्परस्यात्मनो न द्वन्द्वमित्यर्थः ॥ ५६ ॥

श्लोक-५७

विश्वास-प्रस्तुतिः

न केनचित् क्वापि कथञ्चनास्य
द्वन्द्वोपरागः परतः परस्य।
यथाहमः संसृतिरूपिणः स्या-
देवं प्रबुद्धो न बिभेति भूतैः॥

मूलम्

न केनचित् क्वापि कथञ्चनास्य
द्वन्द्वोपरागः परतः परस्य।
यथाहमः संसृतिरूपिणः स्या-
देवं प्रबुद्धो न बिभेति भूतैः॥

अनुवाद (हिन्दी)

आत्मा प्रकृतिके स्वरूप, धर्म, कार्य, लेश, सम्बन्ध और गन्धसे भी रहित है। उसे कभी कहीं किसीके द्वारा किसी भी प्रकारसे द्वन्द्वका स्पर्श ही नहीं होता। वह तो जन्म-मृत्युके चक्रमें भटकनेवाले अहंकारको ही होता है। जो इस बातको जान लेता है, वह फिर किसी भी भयके निमित्तसे भयभीत नहीं होता॥ ५७॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

छेदनदहनादेर्देहगतत्वेऽपि तत्कार्यं सुखदुःखानुभवस्तु आत्मन एव भवतीति शङ्कायां सुखदुःखानुभव औपाधिकः स च संसारावस्थायामेव नतु मुक्तावस्थायामित्याह । न केनचिदिति । परतः परस्य सूक्ष्मदेहादपि परस्य अहमः जीवस्य संसृतिरूपिणः संसृतिदशायां यथा द्वन्द्वोपरागः स्यात् न तथा स्थूलसूक्ष्मप्रकृतिप्रहाणलक्षणायां मुक्तिदशायामित्यर्थः । अत आगमापायित्वात्सर्वं सोढव्यमित्यभिप्रायः ॥ ५७-५९ ॥

श्लोक-५८

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतां स आस्थाय परात्मनिष्ठा-
मध्यासितां पूर्वतमैर्महर्षिभिः।
अहं तरिष्यामि दुरन्तपारं
तमो मुकुन्दाङ्घ्रिनिषेवयैव॥

मूलम्

एतां स आस्थाय परात्मनिष्ठा-
मध्यासितां पूर्वतमैर्महर्षिभिः।
अहं तरिष्यामि दुरन्तपारं
तमो मुकुन्दाङ्घ्रिनिषेवयैव॥

अनुवाद (हिन्दी)

बड़े-बड़े प्राचीन ऋषि-मुनियोंने इस परमात्मनिष्ठाका आश्रय ग्रहण किया है। मैं भी इसीका आश्रय ग्रहण करूँगा और मुक्ति तथा प्रेमके दाता भगवान‍्के चरणकमलोंकी सेवाके द्वारा ही इस दुरन्त अज्ञानसागरको अनायास ही पार कर लूँगा॥ ५८॥

श्लोक-५९

मूलम् (वचनम्)

श्रीभगवानुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

निर्विद्य नष्टद्रविणो गतक्लमः
प्रव्रज्य गां पर्यटमान इत्थम्।
निराकृतोऽसद‍्भिरपि स्वधर्मा-
दकम्पितोऽमुं मुनिराह गाथाम्॥

मूलम्

निर्विद्य नष्टद्रविणो गतक्लमः
प्रव्रज्य गां पर्यटमान इत्थम्।
निराकृतोऽसद‍्भिरपि स्वधर्मा-
दकम्पितोऽमुं मुनिराह गाथाम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं—उद्धवजी! उस ब्राह्मणका धन क्या नष्ट हुआ, उसका सारा क्लेश ही दूर हो गया। अब वह संसारसे विरक्त हो गया था और संन्यास लेकर पृथ्वीमें स्वच्छन्द विचर रहा था। यद्यपि दुष्टोंने उसे बहुत सताया, फिर भी वह अपने धर्ममें अटल रहा, तनिक भी विचलित न हुआ। उस समय वह मौनी अवधूत मन-ही-मन इस प्रकारका गीत गाया करता था॥ ५९॥

श्लोक-६०

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुखदुःखप्रदो नान्यः पुरुषस्यात्मविभ्रमः।
मित्रोदासीनरिपवः संसारस्तमसः कृतः॥

मूलम्

सुखदुःखप्रदो नान्यः पुरुषस्यात्मविभ्रमः।
मित्रोदासीनरिपवः संसारस्तमसः कृतः॥

अनुवाद (हिन्दी)

उद्धवजी! इस संसारमें मनुष्यको कोई दूसरा सुख या दुःख नहीं देता, यह तो उसके चित्तका भ्रममात्र है। यह सारा संसार और इसके भीतर मित्र, उदासीन और शत्रुके भेद अज्ञानकल्पित हैं॥ ६०॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

सुखदुःखेति । सुखदुःखप्रदोऽन्यो हेतुर्न किंतु आत्मविभ्रमः देहात्माभिमान एव हेतुः मित्रोदासीनरिपवश्च स एव देहात्मभ्रमकार्यत्वात् तस्मादहंकारममकारकारणं मन एव संसारकारणमित्यर्थः ॥ ६०-६२ ॥

इति श्रीमद्भागवतव्याख्याने एकादशस्कन्धीये श्रीसुदर्शनसूरिकृतशुकपक्षीये त्रयोविंशोऽध्यायः ॥ २३ ॥

श्लोक-६१

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मात् सर्वात्मना तात निगृहाण मनो धिया।
मय्यावेशितया युक्त एतावान् योगसंग्रहः॥

मूलम्

तस्मात् सर्वात्मना तात निगृहाण मनो धिया।
मय्यावेशितया युक्त एतावान् योगसंग्रहः॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसलिये प्यारे उद्धव! अपनी वृत्तियोंको मुझमें तन्मय कर दो और इस प्रकार अपनी सारी शक्ति लगाकर मनको वशमें कर लो और फिर मुझमें ही नित्ययुक्त होकर स्थित हो जाओ। बस, सारे योगसाधनका इतना ही सार-संग्रह है॥ ६१॥

श्लोक-६२

विश्वास-प्रस्तुतिः

य एतां भिक्षुणा गीतां ब्रह्मनिष्ठां समाहितः।
धारयञ्छ्रावयञ्छृण्वन् द्वन्द्वैर्नैवाभिभूयते॥

मूलम्

य एतां भिक्षुणा गीतां ब्रह्मनिष्ठां समाहितः।
धारयञ्छ्रावयञ्छृण्वन् द्वन्द्वैर्नैवाभिभूयते॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह भिक्षुकका गीत क्या है, मूर्तिमान् ब्रह्मज्ञान-निष्ठा ही है। जो पुरुष एकाग्रचित्तसे इसे सुनता, सुनाता और धारण करता है वह कभी सुख-दुःखादि द्वन्द्वोंके वशमें नहीं होता। उनके बीचमें भी वह सिंहके समान दहाड़ता रहता है॥ ६२॥

अनुवाद (समाप्ति)

इति श्रीमद‍्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायामेकादशस्कन्धे त्रयोविंशोऽध्यायः॥ २३॥