[द्वाविंशोऽध्यायः]
भागसूचना
तत्त्वोंकी संख्या और पुरुष-प्रकृति-विवेक
श्लोक-१
मूलम् (वचनम्)
उद्धव उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
कति तत्त्वानि विश्वेश संख्यातान्यृषिभिः प्रभो।
नवैकादश पञ्च त्रीण्यात्थ त्वमिह शुश्रुम॥
मूलम्
कति तत्त्वानि विश्वेश संख्यातान्यृषिभिः प्रभो।
नवैकादश पञ्च त्रीण्यात्थ त्वमिह शुश्रुम॥
अनुवाद (हिन्दी)
उद्धवजीने कहा—प्रभो! विश्वेश्वर! ऋषियोंने तत्त्वोंकी संख्या कितनी बतलायी है? आपने तो अभी (उन्नीसवें अध्यायमें) नौ, ग्यारह, पाँच और तीन अर्थात् कुल अट्ठाईस तत्त्व गिनाये हैं। यह तो हम सुन चुके हैं॥ १॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
कतीति तत्त्वापलापोऽस्ति नवेति प्रश्नाभिप्रायः ॥ १ - ३ ॥
श्लोक-२
विश्वास-प्रस्तुतिः
केचित् षड्विंशतिं प्राहुरपरे पञ्चविंशतिम्।
सप्तैके नव षट् केचिच्चत्वार्येकादशापरे॥
मूलम्
केचित् षड्विंशतिं प्राहुरपरे पञ्चविंशतिम्।
सप्तैके नव षट् केचिच्चत्वार्येकादशापरे॥
अनुवाद (हिन्दी)
किन्तु कुछ लोग छब्बीस तत्त्व बतलाते हैं तो कुछ पचीस; कोई सात, नौ अथवा छः स्वीकार करते हैं, कोई चार बतलाते हैं तो कोई ग्यारह॥ २॥
श्लोक-३
विश्वास-प्रस्तुतिः
केचित् सप्तदश प्राहुः षोडशैके त्रयोदश।
एतावत्त्वं हि संख्यानामृषयो यद्विवक्षया।
गायन्ति पृथगायुष्मन्निदं नो वक्तुमर्हसि॥
मूलम्
केचित् सप्तदश प्राहुः षोडशैके त्रयोदश।
एतावत्त्वं हि संख्यानामृषयो यद्विवक्षया।
गायन्ति पृथगायुष्मन्निदं नो वक्तुमर्हसि॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी प्रकार किन्हीं-किन्हीं ऋषि-मुनियोंके मतमें उनकी संख्या सत्रह है, कोई सोलह और कोई तेरह बतलाते हैं। सनातन श्रीकृष्ण! ऋषि-मुनि इतनी भिन्न संख्याएँ किस अभिप्रायसे बतलाते हैं? आप कृपा करके हमें बतलाइये॥ ३॥
श्लोक-४
मूलम् (वचनम्)
श्रीभगवानुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
युक्तं च सन्ति सर्वत्र भाषन्ते ब्राह्मणा यथा।
मायां मदीयामुद्गृह्य वदतां किं नु दुर्घटम्॥
मूलम्
युक्तं च सन्ति सर्वत्र भाषन्ते ब्राह्मणा यथा।
मायां मदीयामुद्गृह्य वदतां किं नु दुर्घटम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् श्रीकृष्णने कहा—उद्धवजी! वेदज्ञ ब्राह्मण इस विषयमें जो कुछ कहते हैं, वह सभी ठीक है; क्योंकि सभी तत्त्व सबमें अन्तर्भूत हैं। मेरी मायाको स्वीकार करके क्या कहना असम्भव है?॥ ४॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
मायामुद्गृह्य प्रकृतिं स्वीकृत्य किं नु दुर्घटं सर्वमुपपन्नम् अविरुद्धमित्यर्थः ॥ ४ ॥
श्लोक-५
विश्वास-प्रस्तुतिः
नैतदेवं यथाऽऽत्थ त्वं यदहं वच्मि तत्तथा।
एवं विवदतां हेतुं शक्तयो मे दुरत्ययाः॥
मूलम्
नैतदेवं यथाऽऽत्थ त्वं यदहं वच्मि तत्तथा।
एवं विवदतां हेतुं शक्तयो मे दुरत्ययाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जैसा तुम कहते हो, वह ठीक नहीं है, जो मैं कहता हूँ, वही यथार्थ है’—इस प्रकार जगत्के कारणके सम्बन्धमें विवाद इसलिये होता है कि मेरी शक्तियों—सत्त्व, रज आदि गुणों और उनकी वृत्तियोंका रहस्य लोग समझ नहीं पाते; इसलिये वे अपनी-अपनी मनोवृत्तिपर ही आग्रह कर बैठते हैं॥ ५॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
हेतुतयः हेतुसामर्थ्यानि दुरत्ययाः केवलयुक्तयोऽप्रतिष्ठिता इत्यर्थः ॥ ५-६ ॥
श्लोक-६
विश्वास-प्रस्तुतिः
यासां व्यतिकरादासीद् विकल्पो वदतां पदम्।
प्राप्ते शमदमेऽप्येति वादस्तमनुशाम्यति॥
मूलम्
यासां व्यतिकरादासीद् विकल्पो वदतां पदम्।
प्राप्ते शमदमेऽप्येति वादस्तमनुशाम्यति॥
अनुवाद (हिन्दी)
सत्त्व आदि गुणोंके क्षोभसे ही यह विविध कल्पनारूप प्रपंच—जो वस्तु नहीं केवल नाम है—उठ खड़ा हुआ है। यही वाद-विवाद करनेवालोंके विवादका विषय है। जब इन्द्रियाँ अपने वशमें हो जाती हैं तथा चित्त शान्त हो जाता है, तब यह प्रपंच भी निवृत्त हो जाता है और इसकी निवृत्तिके साथ ही सारे वाद-विवाद भी मिट जाते हैं॥ ६॥
श्लोक-७
विश्वास-प्रस्तुतिः
परस्परानुप्रवेशात् तत्त्वानां पुरुषर्षभ।
पौर्वापर्यप्रसंख्यानं यथा वक्तुर्विवक्षितम्॥
मूलम्
परस्परानुप्रवेशात् तत्त्वानां पुरुषर्षभ।
पौर्वापर्यप्रसंख्यानं यथा वक्तुर्विवक्षितम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
पुरुष-शिरोमणे! तत्त्वोंका एक-दूसरेमें अनुप्रवेश है, इसलिये वक्ता तत्त्वोंकी जितनी संख्या बतलाना चाहता है, उसके अनुसार कारणको कार्यमें अथवा कार्यको कारणमें मिलाकर अपनी इच्छित संख्या सिद्ध कर लेता है॥ ७॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
व्यतिकरात् प्राबल्यदौर्बल्याविवेकान् न्यून संख्यावादिनामपि न तत्त्वापलापोऽभिप्रेतः अपि तु उक्तेष्वनुक्ततत्त्वान्तर्भावोऽभिप्रेत इत्यविरोध इति परिहरति । परस्परानुप्रवेशादिति ॥ ७ ॥
श्लोक-८
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकस्मिन्नपि दृश्यन्ते प्रविष्टानीतराणि च।
पूर्वस्मिन् वा परस्मिन् वा तत्त्वे तत्त्वानि सर्वशः॥
मूलम्
एकस्मिन्नपि दृश्यन्ते प्रविष्टानीतराणि च।
पूर्वस्मिन् वा परस्मिन् वा तत्त्वे तत्त्वानि सर्वशः॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसा देखा जाता है कि एक ही तत्त्वमें बहुत-से दूसरे तत्त्वोंका अन्तर्भाव हो गया है। इसका कोई बन्धन नहीं है कि किसका किसमें अन्तर्भाव हो। कभी घट-पट आदि कार्य वस्तुओंका उनके कारण मिट्टी-सूत आदिमें, तो कभी मिट्टी-सूत आदिका घट-पट आदि कार्योंमें अन्तर्भाव हो जाता है॥ ८॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
एकस्मिन् काष्ठादौ अग्न्यादयः प्रविष्टा दृश्यन्ते अतस्तत्त्वान्तर्भावो युक्त इत्याह । पूर्वस्मिन् वैति ॥ ८ ॥
श्लोक-९
विश्वास-प्रस्तुतिः
पौर्वापर्यमतोऽमीषां प्रसंख्यानमभीप्सताम्।
यथा विविक्तं यद्वक्त्रं गृह्णीमो युक्तिसम्भवात्॥
मूलम्
पौर्वापर्यमतोऽमीषां प्रसंख्यानमभीप्सताम्।
यथा विविक्तं यद्वक्त्रं गृह्णीमो युक्तिसम्भवात्॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसलिये वादी-प्रतिवादियोंमेंसे जिसकी वाणीने जिस कार्यको जिस कारणमें अथवा जिस कारणको जिस कार्यमें अन्तर्भूत करके तत्त्वोंकी जितनी संख्या स्वीकार की है, वह हम निश्चय ही स्वीकार करते हैं; क्योंकि उनका वह उपपादन युक्तिसंगत ही है॥ ९॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
पौर्वापर्यमिति । व्यवहितस्याप्यनन्तरोक्तिर्युक्ता व्यवधायकस्य तत्त्वस्य पूर्वस्मिन्नन्तर्भावात् अत एव संख्यान्यूनाधिकभावाश्चाविरुद्धा इत्यर्थः ॥ ९ ॥
श्लोक-१०
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनाद्यविद्यायुक्तस्य पुरुषस्यात्मवेदनम्।
स्वतो न सम्भवादन्यस्तत्त्वज्ञो ज्ञानदो भवेत्॥
मूलम्
अनाद्यविद्यायुक्तस्य पुरुषस्यात्मवेदनम्।
स्वतो न सम्भवादन्यस्तत्त्वज्ञो ज्ञानदो भवेत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
उद्धवजी! जिन लोगोंने छब्बीस संख्या स्वीकार की है, वे ऐसा कहते हैं कि जीव अनादि कालसे अविद्यासे ग्रस्त हो रहा है। वह स्वयं अपने-आपको नहीं जान सकता। उसे आत्मज्ञान करानेके लिये किसी अन्य सर्वज्ञकी आवश्यकता है। (इसलिये प्रकृतिके कार्यकारणरूप चौबीस तत्त्व, पचीसवाँ पुरुष और छब्बीसवाँ ईश्वर—इस प्रकार कुल छब्बीस तत्त्व स्वीकार करने चाहिये)॥ १०॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
अन्य इति । अन्यः परमात्मा स्वतो ज्ञः स्वत एव च सर्वज्ञः ज्ञानप्रदश्चेत्यर्थः ॥ १० ॥
श्लोक-११
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुरुषेश्वरयोरत्र न वैलक्षण्यमण्वपि।
तदन्यकल्पनापार्था ज्ञानं च प्रकृतेर्गुणः॥
मूलम्
पुरुषेश्वरयोरत्र न वैलक्षण्यमण्वपि।
तदन्यकल्पनापार्था ज्ञानं च प्रकृतेर्गुणः॥
अनुवाद (हिन्दी)
पचीस तत्त्व माननेवाले कहते हैं कि इस शरीरमें जीव और ईश्वरका अणुमात्र भी अन्तर या भेद नहीं है, इसलिये उनमें भेदकी कल्पना व्यर्थ है। रही ज्ञानकी बात, सो तो सत्त्वात्मिका प्रकृतिका गुण है॥ ११॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
यदा जीवः परमात्मप्रसादलब्धज्ञानतया सर्वज्ञः तदा मुक्तावस्थायां जीवपरयोरज्ञत्वसर्वज्ञत्वरूप वैषम्य कल्पना यद्वास्खनिष्टभेदकल्पना अपार्था अर्थशून्या स्वनिष्ठात्मभेदो नास्ति इत्यर्थः । स्वातन्त्र्यग्रह हेतुरज्ञानश्च प्रकृतेः संसर्गोपाधिकम् अतस्तन्निवृत्तावज्ञानं निवर्त्तत इत्यभि प्रायेणाह । अज्ञानं च प्रकृतेर्गुण इति प्रकृतेः कार्यभूतमित्यर्थः । ज्ञानश्चेति पदच्छेदे भ्रान्तिज्ञानमित्यर्थः ॥ ११ ॥
श्लोक-१२
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रकृतिर्गुणसाम्यं वै प्रकृतेर्नात्मनो गुणाः।
सत्त्वं रजस्तम इति स्थित्युत्पत्त्यन्तहेतवः॥
मूलम्
प्रकृतिर्गुणसाम्यं वै प्रकृतेर्नात्मनो गुणाः।
सत्त्वं रजस्तम इति स्थित्युत्पत्त्यन्तहेतवः॥
अनुवाद (हिन्दी)
तीनों गुणोंकी साम्यावस्था ही प्रकृति है; इसलिये सत्त्व, रज आदि गुण आत्माके नहीं, प्रकृतिके ही हैं। इन्हींके द्वारा जगत्की स्थिति, उत्पत्ति और प्रलय हुआ करते हैं। इसलिये ज्ञान आत्माका गुण नहीं, प्रकृतिका ही गुण सिद्ध होता है॥ १२॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
प्रकृतेर्नात्मनो गुणाः ॥ १२ ॥
श्लोक-१३
विश्वास-प्रस्तुतिः
सत्त्वं ज्ञानं रजः कर्म तमोऽज्ञानमिहोच्यते।
गुणव्यतिकरः(गुणव्यत्ययज) कालः स्वभावः सूत्रमेव च॥
मूलम्
सत्त्वं ज्ञानं रजः कर्म तमोऽज्ञानमिहोच्यते।
गुणव्यतिकरः(गुणव्यत्ययज) कालः स्वभावः सूत्रमेव च॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रसंगमें सत्त्वगुण ही ज्ञान है, रजोगुण ही कर्म है और तमोगुण ही अज्ञान कहा गया है। और गुणोंमें क्षोभ उत्पन्न करनेवाला ईश्वर ही काल है और सूत्र अर्थात् महत्तत्त्व ही स्वभाव है। (इसलिये पचीस और छब्बीस तत्त्वोंकी—दोनों ही संख्या युक्तिसंगत है)॥ १३॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
प्रकृतिगुणसत्त्वादेरध्यन्तर्भावं वक्ष्यन् प्रथमं साकल्येन तत्त्वान्याह । गुणव्यत्ययज इति । गुगव्यत्ययजनकः सर्वपदार्थानां कालसम्बन्धस्य नियतत्वात् स्थितिहेतुत्वात् कालस्य स्वभावसूत्रशब्दवाच्यत्वम् ॥ १३ ॥
श्लोक-१४
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुरुषः प्रकृतिर्व्यक्तमहङ्कारो नभोऽनिलः।
ज्योतिरापः क्षितिरिति तत्त्वान्युक्तानि मे नव॥
मूलम्
पुरुषः प्रकृतिर्व्यक्तमहङ्कारो नभोऽनिलः।
ज्योतिरापः क्षितिरिति तत्त्वान्युक्तानि मे नव॥
अनुवाद (हिन्दी)
उद्धवजी! (यदि तीनों गुणोंको प्रकृतिसे अलग मान लिया जाय, जैसा कि उनकी उत्पत्ति और प्रलयको देखते हुए मानना चाहिये, तो तत्त्वोंकी संख्या स्वयं ही अट्ठाईस हो जाती है। उन तीनोंके अतिरिक्त पचीस ये हैं—) पुरुष, प्रकृति, महत्तत्त्व, अहंकार, आकाश, वायु , तेज, जल और पृथ्वी—ये नौ तत्त्व मैं पहले ही गिना चुका हूँ॥ १४॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
पुरुषो जीवः व्यक्तं महान् ॥१४॥
श्लोक-१५
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रोत्रं त्वग्दर्शनं घ्राणो जिह्वेति ज्ञानशक्तयः।
वाक्पाण्युपस्थपाय्वङ्घ्रिकर्माण्यङ्गोभयं मनः॥
मूलम्
श्रोत्रं त्वग्दर्शनं घ्राणो जिह्वेति ज्ञानशक्तयः।
वाक्पाण्युपस्थपाय्वङ्घ्रिकर्माण्यङ्गोभयं मनः॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
ज्ञानशक्तयः ज्ञानजननशक्तानि ज्ञानेन्द्रियाणीत्यर्थः । कर्माणि कर्मेन्द्रियाणि ॥ १५ ॥
श्लोक-१६
विश्वास-प्रस्तुतिः
शब्दः स्पर्शो रसो गन्धो रूपं चेत्यर्थजातयः।
गत्युक्त्युत्सर्गशिल्पानि कर्मायतनसिद्धयः॥
मूलम्
शब्दः स्पर्शो रसो गन्धो रूपं चेत्यर्थजातयः।
गत्युक्त्युत्सर्गशिल्पानि कर्मायतनसिद्धयः॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रोत्र, त्वचा, चक्षु, नासिका और रसना—ये पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ; वाक्, पाणि, पाद, पायु और उपस्थ—ये पाँच कर्मेन्द्रियाँ; तथा मन, जो कर्मेन्द्रिय और ज्ञानेन्द्रिय दोनों ही हैं। इस प्रकार कुल ग्यारह इन्द्रियाँ तथा शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध—ये ज्ञानेन्द्रियोंके पाँच विषय। इस प्रकार तीन, नौ, ग्यारह और पाँच—सब मिलाकर अट्ठाईस तत्त्व होते हैं। कर्मेन्द्रियोंके द्वारा होनेवाले पाँच कर्म—चलना, बोलना, मल त्यागना, पेशाब करना और काम करना—इनके द्वारा तत्त्वोंकी संख्या नहीं बढ़ती। इन्हें कर्मेन्द्रियस्वरूप ही मानना चाहिये॥ १५-१६॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
कर्मायतनसिद्धयः कर्मायतन फलानि न तत्त्वान्तराणीत्यर्थः ॥ १६ ॥
श्लोक-१७
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्गादौ प्रकृतिर्ह्यस्य कार्यकारणरूपिणी।
सत्त्वादिभिर्गुणैर्धत्ते पुरुषोऽव्यक्त ईक्षते॥
मूलम्
सर्गादौ प्रकृतिर्ह्यस्य कार्यकारणरूपिणी।
सत्त्वादिभिर्गुणैर्धत्ते पुरुषोऽव्यक्त ईक्षते॥
अनुवाद (हिन्दी)
सृष्टिके आरम्भमें कार्य (ग्यारह इन्द्रिय और पंचभूत) और कारण (महत्तत्त्व आदि) के रूपमें प्रकृति ही रहती है। वही सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुणकी सहायतासे जगत्की स्थिति, उत्पत्ति और संहारसम्बन्धी अवस्थाएँ धारण करती है। अव्यक्त पुरुष तो प्रकृति और उसकी अवस्थाओंका केवल साक्षीमात्र बना रहता है॥ १७॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
कर्मेन्द्रियाकारेण भूतानि धत्ते पुरुषः परमपुरुषः ॥ १७ ॥
श्लोक-१८
विश्वास-प्रस्तुतिः
व्यक्तादयो विकुर्वाणा धातवः पुरुषेक्षया।
लब्धवीर्याः सृजन्त्यण्डं संहताः प्रकृतेर्बलात्॥
मूलम्
व्यक्तादयो विकुर्वाणा धातवः पुरुषेक्षया।
लब्धवीर्याः सृजन्त्यण्डं संहताः प्रकृतेर्बलात्॥
अनुवाद (हिन्दी)
महत्तत्त्व आदि कारण धातुएँ विकारको प्राप्त होते हुए पुरुषके ईक्षणसे शक्ति प्राप्त करके परस्पर मिल जाते हैं और प्रकृतिका आश्रय लेकर उसीके बलसे ब्रह्माण्डकी सृष्टि करते हैं॥ १८॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
व्यक्तादयः महदादयः एवं सप्तविंशमथापर इतिश्रुत्यनुरोधात् कालेन सह सप्तविंशतितत्त्वान्युक्तानि ॥ १८ ॥
श्लोक-१९
विश्वास-प्रस्तुतिः
सप्तैव धातव इति तत्रार्थाः पञ्च खादयः।
ज्ञानमात्मोभयाधारस्ततो देहेन्द्रियासवः॥
मूलम्
सप्तैव धातव इति तत्रार्थाः पञ्च खादयः।
ज्ञानमात्मोभयाधारस्ततो देहेन्द्रियासवः॥
अनुवाद (हिन्दी)
उद्धवजी! जो लोग तत्त्वोंकी संख्या सात स्वीकार करते हैं, उनके विचारसे आकाश, वायु, तेज, जल और पृथ्वी—ये पाँच भूत, छठा जीव और सातवाँ परमात्मा—जो साक्षी जीव और साक्ष्य जगत् दोनोंका अधिष्ठान है—ये ही तत्त्व हैं। देह, इन्द्रिय और प्राणादिकी उत्पत्ति तो पंचभूतोंसे ही हुई है [इसलिये वे इन्हें अलग नहीं गिनते]॥ १९॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
अथ संख्यातारतम्यविवक्षां कथयति । सप्तैवैति ज्ञानं ज्ञानस्वरूपो जीवः आत्मा परमात्मा उभयाधारः चिदचिदाधारः ततो देहेन्द्रियासवः इन्द्रियाणि देहान्तभूतानि देहश्व धातुभ्यः अतो देहारम्भकदेहविवक्षायां सप्तत्वोक्तिरित्यर्थः । तत्रान्तर्भाव एवं विवक्षितः नापलाप इत्याह । नैकमिति ॥१९॥
श्लोक-२०
विश्वास-प्रस्तुतिः
षडित्यत्रापि भूतानि पञ्च षष्ठः परः पुमान्।
तैर्युक्त आत्मसम्भूतैः सृष्ट्वेदं समुपाविशत्॥
मूलम्
षडित्यत्रापि भूतानि पञ्च षष्ठः परः पुमान्।
तैर्युक्त आत्मसम्भूतैः सृष्ट्वेदं समुपाविशत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो लोग केवल छः तत्त्व स्वीकार करते हैं, वे कहते हैं कि पाँच भूत हैं और छठा है परमपुरुष परमात्मा। वह परमात्मा अपने बनाये हुए पंचभूतोंसे युक्त होकर देह आदिकी सृष्टि करता है और उनमें जीवरूपसे प्रवेश करता है (इस मतके अनुसार जीवका परमात्मामें और शरीर आदिका पंचभूतोंमें समावेश हो जाता है)॥ २०॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
षडिति शरीरत्वेन परशरीरत्वात्परमात्मन्यन्तर्भावो विवक्षितः ॥ २० ॥
श्लोक-२१
विश्वास-प्रस्तुतिः
चत्वार्येवेति तत्रापि तेज आपोऽन्नमात्मनः।
जातानि तैरिदं जातं जन्मावयविनः खलु॥
मूलम्
चत्वार्येवेति तत्रापि तेज आपोऽन्नमात्मनः।
जातानि तैरिदं जातं जन्मावयविनः खलु॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो लोग कारणके रूपमें चार ही तत्त्व स्वीकार करते हैं, वे कहते हैं कि आत्मासे तेज, जल और पृथ्वीकी उत्पत्ति हुई है और जगत्में जितने पदार्थ हैं, सब इन्हींसे उत्पन्न होते हैं। वे सभी कार्योंका इन्हींमें समावेश कर लेते हैं॥ २१॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
अन्नं पृथिवी अवयविन इति भावः ॥ २१-२३ ॥
श्लोक-२२
विश्वास-प्रस्तुतिः
संख्याने सप्तदशके भूतमात्रेन्द्रियाणि च।
पञ्च पञ्चैकमनसा आत्मा सप्तदशः स्मृतः॥
मूलम्
संख्याने सप्तदशके भूतमात्रेन्द्रियाणि च।
पञ्च पञ्चैकमनसा आत्मा सप्तदशः स्मृतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो लोग तत्त्वोंकी संख्या सत्रह बतलाते हैं, वे इस प्रकार गणना करते हैं—पाँच भूत, पाँच तन्मात्राएँ, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, एक मन और एक आत्मा॥ २२॥
श्लोक-२३
विश्वास-प्रस्तुतिः
तद्वत् षोडशसंख्याने आत्मैव मन उच्यते।
भूतेन्द्रियाणि पञ्चैव मन आत्मा त्रयोदश॥
मूलम्
तद्वत् षोडशसंख्याने आत्मैव मन उच्यते।
भूतेन्द्रियाणि पञ्चैव मन आत्मा त्रयोदश॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो लोग तत्त्वोंकी संख्या सोलह बतलाते हैं, उनकी गणना भी इसी प्रकार है। अन्तर केवल इतना ही है कि वे आत्मामें मनका भी समावेश कर लेते हैं और इस प्रकार उनकी तत्त्व संख्या सोलह रह जाती है। जो लोग तेरह तत्त्व मानते हैं, वे कहते हैं कि आकाशादि पाँच भूत, श्रोत्रादि पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, एक मन, एक जीवात्मा और परमात्मा—ये तेरह तत्त्व हैं॥ २३॥
श्लोक-२४
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकादशत्व आत्मासौ महाभूतेन्द्रियाणि च।
अष्टौ प्रकृतयश्चैव पुरुषश्च नवेत्यथ॥
मूलम्
एकादशत्व आत्मासौ महाभूतेन्द्रियाणि च।
अष्टौ प्रकृतयश्चैव पुरुषश्च नवेत्यथ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ग्यारह संख्या माननेवालोंने पाँच भूत, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ और इनके अतिरिक्त एक आत्माका अस्तित्व स्वीकार किया है। जो लोग नौ तत्त्व मानते हैं, वे आकाशादि पाँच भूत और मन, बुद्धि, अहंकार—ये आठ प्रकृतियाँ और नवाँ पुरुष—इन्हींको तत्त्व मानते हैं॥ २४॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
एकादशत्वे एकादशसंख्यायामात्मैव मनः इति आत्मन्यन्तः करणस्यान्तर्भाव इत्यर्थः ॥ २४-२५ ॥
श्लोक-२५
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति नानाप्रसंख्यानं तत्त्वानामृषिभिः कृतम्।
सर्वं न्याय्यं युक्तिमत्त्वाद् विदुषां किमशोभनम्॥
मूलम्
इति नानाप्रसंख्यानं तत्त्वानामृषिभिः कृतम्।
सर्वं न्याय्यं युक्तिमत्त्वाद् विदुषां किमशोभनम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
उद्धवजी! इस प्रकार ऋषि-मुनियोंने भिन्न-भिन्न प्रकारसे तत्त्वोंकी गणना की है। सबका कहना उचित ही है, क्योंकि सबकी संख्या युक्तियुक्त है। जो लोग तत्त्वज्ञानी हैं, उन्हें किसी भी मतमें बुराई नहीं दीखती। उनके लिये तो सब कुछ ठीक ही है॥ २५॥
श्लोक-२६
मूलम् (वचनम्)
उद्धव उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रकृतिः पुरुषश्चोभौ यद्यप्यात्मविलक्षणौ।
अन्योन्यापाश्रयात् कृष्ण दृश्यते न भिदा तयोः॥
मूलम्
प्रकृतिः पुरुषश्चोभौ यद्यप्यात्मविलक्षणौ।
अन्योन्यापाश्रयात् कृष्ण दृश्यते न भिदा तयोः॥
अनुवाद (हिन्दी)
उद्धवजीने कहा—श्यामसुन्दर! यद्यपि स्वरूपतः प्रकृति और पुरुष—दोनों एक-दूसरेसे सर्वथा भिन्न हैं, तथापि वे आपसमें इतने घुल-मिल गये हैं कि साधारणतः उनका भेद नहीं जान पड़ता। प्रकृतिमें पुरुष और पुरुषमें प्रकृति अभिन्न-से प्रतीत होते हैं। इनकी भिन्नता स्पष्ट कैसे हो?॥ २६॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
आत्मविलक्षणौ विलक्षणात्मानौ विलक्षणस्वरूपौ स्वतो विलक्षणौ इति वा ॥ २६-२७ ॥
श्लोक-२७
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रकृतौ लक्ष्यते ह्यात्मा प्रकृतिश्च तथाऽऽत्मनि।
एवं मे पुण्डरीकाक्ष महान्तं संशयं हृदि।
छेत्तुमर्हसि सर्वज्ञ वचोभिर्नयनैपुणैः॥
मूलम्
प्रकृतौ लक्ष्यते ह्यात्मा प्रकृतिश्च तथाऽऽत्मनि।
एवं मे पुण्डरीकाक्ष महान्तं संशयं हृदि।
छेत्तुमर्हसि सर्वज्ञ वचोभिर्नयनैपुणैः॥
अनुवाद (हिन्दी)
कमलनयन श्रीकृष्ण! मेरे हृदयमें इनकी भिन्नता और अभिन्नताको लेकर बहुत बड़ा सन्देह है। आप तो सर्वज्ञ हैं, अपनी युक्तियुक्त वाणीसे मेरे सन्देहका निवारण कर दीजिये॥ २७॥
श्लोक-२८
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वत्तो ज्ञानं हि जीवानां प्रमोषस्तेऽत्र शक्तितः।
त्वमेव ह्यात्ममायाया गतिं वेत्थ न चापरः॥
मूलम्
त्वत्तो ज्ञानं हि जीवानां प्रमोषस्तेऽत्र शक्तितः।
त्वमेव ह्यात्ममायाया गतिं वेत्थ न चापरः॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवन्! आपकी ही कृपासे जीवोंको ज्ञान होता है और आपकी माया-शक्तिसे ही उनके ज्ञानका नाश होता है। अपनी आत्मस्वरूपिणी मायाकी विचित्र गति आप ही जानते हैं और कोई नहीं जानता। अतएव आप ही मेरा सन्देह मिटानेमें समर्थ हैं॥ २८॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
श्रोतृशक्तितः श्रोतॄणामस्मरणशक्तितः ॥ २८ ॥
श्लोक-२९
मूलम् (वचनम्)
श्रीभगवानुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रकृतिः पुरुषश्चेति विकल्पः पुरुषर्षभ।
एष वैकारिकः सर्गो गुणव्यतिकरात्मकः॥
मूलम्
प्रकृतिः पुरुषश्चेति विकल्पः पुरुषर्षभ।
एष वैकारिकः सर्गो गुणव्यतिकरात्मकः॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् श्रीकृष्णने कहा—उद्धवजी! प्रकृति और पुरुष, शरीर और आत्मा—इन दोनोंमें अत्यन्त भेद है। इस प्राकृत जगत्में जन्म-मरण एवं वृद्धि-ह्रास आदि विकार लगे ही रहते हैं। इसका कारण यह है कि यह गुणोंके क्षोभसे ही बना है॥ २९॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
विकल्पः भेद एवेत्यर्थः । एष सर्गः प्रपञ्चः वैकारिकः विकारारब्धः ॥ २९-३० ॥
श्लोक-३०
विश्वास-प्रस्तुतिः
ममाङ्ग माया गुणमय्यनेकधा
विकल्पबुद्धीश्च गुणैर्विधत्ते।
वैकारिकस्त्रिविधोऽध्यात्ममेक-
मथाधिदैवमधिभूतमन्यत्॥
मूलम्
ममाङ्ग माया गुणमय्यनेकधा
विकल्पबुद्धीश्च गुणैर्विधत्ते।
वैकारिकस्त्रिविधोऽध्यात्ममेक-
मथाधिदैवमधिभूतमन्यत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रिय मित्र! मेरी माया त्रिगुणात्मिका है। वही अपने सत्त्व, रज आदि गुणोंसे अनेकों प्रकारकी भेदवृत्तियाँ पैदा कर देती है। यद्यपि इसका विस्तार असीम है, फिर भी इस विकारात्मक सृष्टिको तीन भागोंमें बाँट सकते हैं। वे तीन भाग हैं—अध्यात्म, अधिदैव और अधिभूत॥ ३०॥
श्लोक-३१
विश्वास-प्रस्तुतिः
दृग् रूपमार्कं वपुरत्र रन्ध्रे
परस्परं सिध्यति यः स्वतः खे।
आत्मा यदेषामपरो य आद्यः
स्वयानुभूत्याखिलसिद्धसिद्धिः।
एवं त्वगादि श्रवणादि चक्षु-
र्जिह्वादि नासादि च चित्तयुक्तम्॥
मूलम्
दृग् रूपमार्कं वपुरत्र रन्ध्रे
परस्परं सिध्यति यः स्वतः खे।
आत्मा यदेषामपरो य आद्यः
स्वयानुभूत्याखिलसिद्धसिद्धिः।
एवं त्वगादि श्रवणादि चक्षु-
र्जिह्वादि नासादि च चित्तयुक्तम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
उदाहरणार्थ—नेत्रेन्द्रिय अध्यात्म है, उसका विषय रूप अधिभूत है और नेत्र-गोलकमें स्थित सूर्यदेवताका अंश अधिदैव है। ये तीनों परस्पर एक-दूसरेके आश्रयसे सिद्ध होते हैं। और इसलिये अध्यात्म, अधिदैव और अधिभूत—ये तीनों ही परस्पर सापेक्ष हैं। परन्तु आकाशमें स्थित सूर्यमण्डल इन तीनोंकी अपेक्षासे मुक्त है, क्योंकि वह स्वतःसिद्ध है। इसी प्रकार आत्मा भी उपर्युक्त तीनों भेदोंका मूलकारण, उनका साक्षी और उनसे परे है। वही अपने स्वयंसिद्ध प्रकाशसे समस्त सिद्ध पदार्थोंकी मूलसिद्धि है। उसीके द्वारा सबका प्रकाश होता है। जिस प्रकार चक्षुके तीन भेद बताये गये, उसी प्रकार त्वचा, श्रोत्र, जिह्वा, नासिका और चित्त आदिके भी तीन-तीन भेद हैं*॥ ३१॥
पादटिप्पनी
- यथा—त्वचा, स्पर्श और वायु; श्रवण, शब्द और दिशा; जिह्वा, रस और वरुण; नासिका, गन्ध और अश्विनीकुमार; चित्त, चिन्तनका विषय और वासुदेव; मन, मनका विषय और चन्द्रमा; अहंकार, अहंकारका विषय और रुद्र; बुद्धि, समझनेका विषय और ब्रह्मा—इन सभी त्रिविध तत्त्वोंसे आत्माका कोई सम्बन्ध नहीं है।
श्रीसुदर्शनसूरिः
अध्यात्मादिकं विवृणोति ! दृगिति दृक्चक्षुरध्यात्मं रूपमधिभूतं तदुभयमार्कं वपुःअधिदैवमर्कः तत्सम्बन्ध्यार्क परस्परात्सिध्यति, परस्परोपकार्योपकारकभावात् कार्यकरं भवति आत्मा तु स्वतः सिध्यति स्वप्रकाशः दृगाद्युपरमेऽपि स्थितः अखिलसिद्धिसिद्धः अखिलप्रकाश्यप्रकाशकः इत्युक्तं परस्परोपकारादिकमिन्द्रियान्तरादिष्वतिदिशति । एवं त्वगादीति । आदिशब्दैरधिभूतं विषयः अधिदैवं च विवक्षितम् ॥ ३१ ॥
श्लोक-३२
विश्वास-प्रस्तुतिः
योऽसौ गुणक्षोभकृतो विकारः
प्रधानमूलान्महतः प्रसूतः।
अहं त्रिवृन्मोहविकल्पहेतु-
र्वैकारिकस्तामस ऐन्द्रियश्च॥
मूलम्
योऽसौ गुणक्षोभकृतो विकारः
प्रधानमूलान्महतः प्रसूतः।
अहं त्रिवृन्मोहविकल्पहेतु-
र्वैकारिकस्तामस ऐन्द्रियश्च॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रकृतिसे महत्तत्त्व बनता है और महत्तत्त्वसे अहंकार। इस प्रकार यह अहंकार गुणोंके क्षोभसे उत्पन्न हुआ प्रकृतिका ही एक विकार है। अहंकारके तीन भेद हैं—सात्त्विक, तामस और राजस। यह अहंकार ही अज्ञान और सृष्टिकी विविधताका मूलकारण है॥ ३२॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
अहङ्कारस्य देहात्मभ्रमहेतुत्वं वदन् प्रश्नोत्तरं निगमयति योऽसाविति । यः स अहङ्कारः सात्त्विया सात्त्विकादिभेदेन त्रिवृत् ऐन्द्रियः राजसः मोहविकल्पहेतुः देवत्वाद्याकारारोपहेतुः ॥ ३२ ॥
श्लोक-३३
विश्वास-प्रस्तुतिः
आत्मा परिज्ञानमयो विवादो
ह्यस्तीति नास्तीति भिदार्थनिष्ठः।
व्यर्थोऽपि नैवोपरमेत पुंसां
मत्तः परावृत्तधियां स्वलोकात्॥
मूलम्
आत्मा परिज्ञानमयो विवादो
ह्यस्तीति नास्तीति भिदार्थनिष्ठः।
व्यर्थोऽपि नैवोपरमेत पुंसां
मत्तः परावृत्तधियां स्वलोकात्॥
अनुवाद (हिन्दी)
आत्मा ज्ञानस्वरूप है; उसका इन पदार्थोंसे न तो कोई सम्बन्ध है और न उसमें कोई विवादकी ही बात है! अस्ति-नास्ति (है-नहीं), सगुण-निर्गुण, भाव-अभाव, सत्य-मिथ्या आदि रूपसे जितने भी वाद-विवाद हैं, सबका मूलकारण भेददृष्टि ही है। इसमें सन्देह नहीं कि इस विवादका कोई प्रयोजन नहीं है; यह सर्वथा व्यर्थ है तथापि जो लोग मुझसे—अपने वास्तविक स्वरूपसे विमुख हैं, वे इस विवादसे मुक्त नहीं हो सकते॥ ३३॥
श्लोक-३४
मूलम् (वचनम्)
उद्धव उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वत्तः परावृत्तधियः स्वकृतैः कर्मभिः प्रभो।
उच्चावचान् यथा देहान् गृह्णन्ति विसृजन्ति च॥
मूलम्
त्वत्तः परावृत्तधियः स्वकृतैः कर्मभिः प्रभो।
उच्चावचान् यथा देहान् गृह्णन्ति विसृजन्ति च॥
अनुवाद (हिन्दी)
उद्धवजीने पूछा—भगवन्! आपसे विमुख जीव अपने किये हुए पुण्य-पापोंके फलस्वरूप ऊँची-नीची योनियोंमें जाते-आते रहते हैं। अब प्रश्न यह है कि व्यापक आत्माका एक शरीरसे दूसरे शरीरमें जाना, अकर्ताका कर्म करना और नित्य-वस्तुका जन्म-मरण कैसे सम्भव है?॥ ३४॥
श्लोक-३५
विश्वास-प्रस्तुतिः
तन्ममाख्याहि गोविन्द दुर्विभाव्यमनात्मभिः।
न ह्येतत् प्रायशो लोके विद्वांसः सन्ति वञ्चिताः॥
मूलम्
तन्ममाख्याहि गोविन्द दुर्विभाव्यमनात्मभिः।
न ह्येतत् प्रायशो लोके विद्वांसः सन्ति वञ्चिताः॥
अनुवाद (हिन्दी)
गोविन्द! जो लोग आत्मज्ञानसे रहित हैं, वे तो इस विषयको ठीक-ठीक सोच भी नहीं सकते। और इस विषयके विद्वान् संसारमें प्रायः मिलते नहीं, क्योंकि सभी लोग आपकी मायाकी भूल-भुलैयामें पड़े हुए हैं। इसलिये आप ही कृपा करके मुझे इसका रहस्य समझाइये॥ ३५॥
श्लोक-३६
मूलम् (वचनम्)
श्रीभगवानुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनः कर्ममयं नॄणामिन्द्रियैः पञ्चभिर्युतम्।
लोकाल्लोकं प्रयात्यन्य आत्मा तदनुवर्तते॥
मूलम्
मनः कर्ममयं नॄणामिन्द्रियैः पञ्चभिर्युतम्।
लोकाल्लोकं प्रयात्यन्य आत्मा तदनुवर्तते॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् श्रीकृष्णने कहा—प्रिय उद्धव! मनुष्योंका मन कर्म-संस्कारोंका पुंज है। उन संस्कारोंके अनुसार भोग प्राप्त करनेके लिये उसके साथ पाँच इन्द्रियाँ भी लगी हुई हैं। इसीका नाम है लिंगशरीर। वही कर्मोंके अनुसार एक शरीरसे दूसरे शरीरमें, एक लोकसे दूसरे लोकमें आता-जाता रहता है। आत्मा इस लिंगशरीरसे सर्वथा पृथक् है। उसका आना-जाना नहीं होता; परन्तु जब वह अपनेको लिंगशरीर ही समझ बैठता है, उसीमें अहंकार कर लेता है, तब उसे भी अपना जाना-आना प्रतीत होने लगता है॥ ३६॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
इन्द्रियैरिति । भूतसूक्ष्माणामप्युपलक्षणं लोकाल्लोकान्तरं शरीराच्छरीरान्तरम् ॥ ३६ ॥
श्लोक-३७
विश्वास-प्रस्तुतिः
ध्यायन् मनोऽनु विषयान् दृष्टान् वानुश्रुतानथ।
उद्यत् सीदत् कर्मतन्त्रं स्मृतिस्तदनु शाम्यति॥
मूलम्
ध्यायन् मनोऽनु विषयान् दृष्टान् वानुश्रुतानथ।
उद्यत् सीदत् कर्मतन्त्रं स्मृतिस्तदनु शाम्यति॥
अनुवाद (हिन्दी)
मन कर्मोंके अधीन है। वह देखे हुए या सुने हुए विषयोंका चिन्तन करने लगता है और क्षणभरमें ही उनमें तदाकार हो जाता है तथा उन्हीं पूर्वचिन्तित विषयोंमें लीन हो जाता है। धीरे-धीरे उसकी स्मृति, पूर्वापरका अनुसन्धान भी नष्ट हो जाता है॥ ३७॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
१ [अविवादः अहंप्रत्ययेन सर्वसंप्रतिपन्नः ] उद्यत्सीदत्कर्मतन्त्रं स्मृतिः उद्यदपि विषयप्रावण्यात् सीदत् कर्मतन्त्रं स्मृतिर्यस्य सः ॥ ३७ ॥
श्लोक-३८
विश्वास-प्रस्तुतिः
विषयाभिनिवेशेन नात्मानं यत् स्मरेत् पुनः।
जन्तोर्वै कस्यचिद्धेतोर्मृत्युरत्यन्तविस्मृतिः॥
मूलम्
विषयाभिनिवेशेन नात्मानं यत् स्मरेत् पुनः।
जन्तोर्वै कस्यचिद्धेतोर्मृत्युरत्यन्तविस्मृतिः॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन देवादि शरीरोंमें इसका इतना अभिनिवेश, इतनी तल्लीनता हो जाती है कि जीवको अपने पूर्व शरीरका स्मरण भी नहीं रहता। किसी भी कारणसे शरीरको सर्वथा भूल जाना ही मृत्यु है॥ ३८॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
मृत्युरत्यन्तविस्मृतिः मरणकाले अत्यन्तज्ञानलोपो भवतीत्यर्थः ॥ ३८ ॥
श्लोक-३९
विश्वास-प्रस्तुतिः
जन्म त्वात्मतया पुंसः सर्वभावेन भूरिद।
विषयस्वीकृतिं प्राहुर्यथा स्वप्नमनोरथः॥
मूलम्
जन्म त्वात्मतया पुंसः सर्वभावेन भूरिद।
विषयस्वीकृतिं प्राहुर्यथा स्वप्नमनोरथः॥
अनुवाद (हिन्दी)
उदार उद्धव! जब यह जीव किसी भी शरीरको अभेद-भावसे ‘मैं’ के रूपमें स्वीकार कर लेता है, तब उसे ही जन्म कहते हैं, ठीक वैसे ही जैसे स्वप्नकालीन और मनोरथकालीन शरीरमें अभिमान करना ही स्वप्न और मनोरथ कहा जाता है॥ ३९॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
जन्मत्विति । सवभावन सर्वविधमनोवृत्त्या आत्मतया विषयस्वीकृतिम् आत्मत्वेन देहात्माभिमानिनो जन्मकालप्रभृतिदेहात्मभ्रमेण स्यात् देहात्माभिमानस्य भ्रान्तित्वे दृष्टान्तमाह । यथा स्वप्नमनोरथ इति ॥ ३९ ॥
श्लोक-४०
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वप्नं मनोरथं चेत्थं प्राक्तनं न स्मरत्यसौ।
तत्र पूर्वमिवात्मानमपूर्वं चानुपश्यति॥
मूलम्
स्वप्नं मनोरथं चेत्थं प्राक्तनं न स्मरत्यसौ।
तत्र पूर्वमिवात्मानमपूर्वं चानुपश्यति॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह वर्तमान देहमें स्थित जीव जैसे पूर्व देहका स्मरण नहीं करता, वैसे ही स्वप्न या मनोरथमें स्थित जीव भी पहलेके स्वप्न और मनोरथको स्मरण नहीं करता, प्रत्युत उस वर्तमान स्वप्न और मनोरथमें पूर्व सिद्ध होनेपर भी अपनेको नवीन-सा ही समझता है॥ ४०॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
तस्मादिति । तस्मात् मरणस्यात्यन्तज्ञानलोपहेतुत्वादित्यर्थः । प्राक्तनं मनोरथं मनोवृत्तिं तद्देहात्माभिमानिनमिह जन्मनि न स्मरतीत्यर्थः । तत्रेति इवशब्द उपर्य्यन्वेति पूर्वस्मिन् जन्मनि सन्तमप्यात्मानमपूर्वमिव पूर्वमसन्तमिदानीं सञ्जातमिव पश्यतीत्यर्थः ॥ ४० ॥
श्लोक-४१
विश्वास-प्रस्तुतिः
इन्द्रियायनसृष्ट्येदं त्रैविध्यं भाति वस्तुनि।
बहिरन्तर्भिदाहेतुर्जनोऽसज्जनकृद् यथा॥
मूलम्
इन्द्रियायनसृष्ट्येदं त्रैविध्यं भाति वस्तुनि।
बहिरन्तर्भिदाहेतुर्जनोऽसज्जनकृद् यथा॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन्द्रियोंके आश्रय मन या शरीरकी सृष्टिसे आत्मवस्तुमें यह उत्तम, मध्यम और अधमकी त्रिविधता भासती है। उनमें अभिमान करनेसे ही आत्मा बाह्य और आभ्यन्तर भेदोंका हेतु मालूम पड़ने लगता है, जैसे दुष्ट पुत्रको उत्पन्न करनेवाला पिता पुत्रके शत्रु-मित्र आदिके लिये भेदका हेतु हो जाता है॥ ४१॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
इन्द्रियार्थाविति अर्थशब्दो भौतिकदेहपरः शरीरमिन्द्रियमन्तःकरणं चेति त्रैविध्यमस्ति तन्मन एवात्मवस्तुनि बाह्याभ्यन्तरदेवत्वमनुष्यत्वशोकभयादिहेतुः असज्जनकृत् यथा असत्पुत्रोत्पादकः पुरुष इव असत्पुत्रो ह्यनर्थहेतुः एवं बाह्यान्तर्भेदानुभावो ह्यनर्थहेतुः अतस्तदुत्पादकतुल्यं मन इत्यर्थः ॥ ४१ ॥
श्लोक-४२
विश्वास-प्रस्तुतिः
नित्यदा ह्यङ्ग भूतानि भवन्ति न भवन्ति च।
कालेनालक्ष्यवेगेन सूक्ष्मत्वात्तन्न दृश्यते॥
मूलम्
नित्यदा ह्यङ्ग भूतानि भवन्ति न भवन्ति च।
कालेनालक्ष्यवेगेन सूक्ष्मत्वात्तन्न दृश्यते॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्यारे उद्धव! कालकी गति सूक्ष्म है। उसे साधारणतः देखा नहीं जा सकता। उसके द्वारा प्रतिक्षण ही शरीरोंकी उत्पत्ति और नाश होते रहते हैं। सूक्ष्म होनेके कारण ही प्रतिक्षण होनेवाले जन्म-मरण नहीं दीख पड़ते॥ ४२॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
नित्यदेति । भवन्ति परिणामान्तरं यान्ति न भवन्ति पूर्वावस्थां त्यजन्ति ॥ ४२ ॥
श्लोक-४३
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथार्चिषां स्रोतसां च फलानां वा वनस्पतेः।
तथैव सर्वभूतानां वयोऽवस्थादयः कृताः॥
मूलम्
यथार्चिषां स्रोतसां च फलानां वा वनस्पतेः।
तथैव सर्वभूतानां वयोऽवस्थादयः कृताः॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे कालके प्रभावसे दियेकी लौ, नदियोंके प्रवाह अथवा वृक्षके फलोंकी विशेष-विशेष अवस्थाएँ बदलती रहती हैं, वैसे ही समस्त प्राणियोंके शरीरोंकी आयु, अवस्था आदि भी बदलती रहती है॥ ४३॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
कालकृतानां संस्थानां सूक्ष्मतया दुर्दर्शत्वे दृष्टान्तमाह । यथेति यत्कृताः येन कृताः तेनेति पूर्वेणान्वयः । अर्चिषां धीः अर्चिर्विषया सोऽयं दीप इति धीः स्त्रोतोविषया तदिदं जलमिति धीश्चयद्वन्मृषायुषाम् अस्थिराणां नृणां मनुष्यशरीराणां गीः मनुष्यशरीरगोचरा सोऽयं पुमानितिधीस्तद्वत् भ्रान्तिमूलेत्यर्थः ॥ ४३-४४ ॥
श्लोक-४४
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोऽयं दीपोऽर्चिषां यद्वत्स्रोतसां तदिदं जलम्।
सोऽयं पुमानिति नृणां मृषा गीर्धीर्मृषायुषाम्॥
मूलम्
सोऽयं दीपोऽर्चिषां यद्वत्स्रोतसां तदिदं जलम्।
सोऽयं पुमानिति नृणां मृषा गीर्धीर्मृषायुषाम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे यह उन्हीं ज्योतियोंका वही दीपक है, प्रवाहका यह वही जल है—ऐसा समझना और कहना मिथ्या है, वैसे ही विषय-चिन्तनमें व्यर्थ आयु बितानेवाले अविवेकी पुरुषोंका ऐसा कहना और समझना कि यह वही पुरुष है, सर्वथा मिथ्या है॥ ४४॥
श्लोक-४५
विश्वास-प्रस्तुतिः
मा स्वस्य कर्मबीजेन जायते सोऽप्ययं पुमान्।
म्रियते वामरो भ्रान्त्या यथाग्निर्दारुसंयुतः॥
मूलम्
मा स्वस्य कर्मबीजेन जायते सोऽप्ययं पुमान्।
म्रियते वामरो भ्रान्त्या यथाग्निर्दारुसंयुतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
यद्यपि वह भ्रान्त पुरुष भी अपने कर्मोंके बीजद्वारा न पैदा होता है और न तो मरता ही है; वह भी अजन्मा और अमर ही है, फिर भी भ्रान्तिसे वह उत्पन्न होता है और मरता-सा भी है, जैसे कि काष्ठसे युक्त अग्नि पैदा होता और नष्ट होता दिखायी पड़ता है॥ ४५॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
अथ शरीरात्पूर्वमपि विद्यमानः पुमान् भ्रान्त्या जायते आत्मनः उत्पत्तिभ्रान्तिसिद्धेत्यर्थः । एवमुत्तरत्रापि यथाग्निरिति दारुगताग्नेरपि पूर्वं विद्यमानत्वान्मथनेनोपलब्धिरेव नोत्पतिः तद्वत् ॥ ४५-४६ ॥
श्लोक-४६
विश्वास-प्रस्तुतिः
निषेकगर्भजन्मानि बाल्यकौमारयौवनम्।
वयोमध्यं जरा मृत्युरित्यवस्थास्तनोर्नव॥
मूलम्
निषेकगर्भजन्मानि बाल्यकौमारयौवनम्।
वयोमध्यं जरा मृत्युरित्यवस्थास्तनोर्नव॥
अनुवाद (हिन्दी)
उद्धवजी! गर्भाधान, गर्भवृद्धि, जन्म, बाल्यावस्था, कुमारावस्था, जवानी, अधेड़ अवस्था, बुढ़ापा और मृत्यु—ये नौ अवस्थाएँ शरीरकी ही हैं॥ ४६॥
श्लोक-४७
विश्वास-प्रस्तुतिः
एता मनोरथमयीर्ह्यन्यस्योच्चावचास्तनूः।
गुणसङ्गादुपादत्ते क्वचित् कश्चिज्जहाति च॥
मूलम्
एता मनोरथमयीर्ह्यन्यस्योच्चावचास्तनूः।
गुणसङ्गादुपादत्ते क्वचित् कश्चिज्जहाति च॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह शरीर जीवसे भिन्न है और ये ऊँची-नीची अवस्थाएँ उसके मनोरथके अनुसार ही हैं; परन्तु वह अज्ञानवश गुणोंके संगसे इन्हें अपनी मानकर भटकने लगता है और कभी-कभी विवेक हो जानेपर इन्हें छोड़ भी देता है॥ ४७॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
मनोरथमयीः मनोरथो मनोवृत्तिः यं यं वापि स्मरन् भागं त्यजत्यन्ते कलेवरं तं तमेवैति कौन्तेयेति न्यायादन्तिमप्रत्ययानुगुणास्तनूरित्यर्थः ॥ ४७ ॥
श्लोक-४८
विश्वास-प्रस्तुतिः
आत्मनः पितृपुत्राभ्यामनुमेयौ भवाप्ययौ।
न भवाप्ययवस्तूनामभिज्ञो द्वयलक्षणः॥
मूलम्
आत्मनः पितृपुत्राभ्यामनुमेयौ भवाप्ययौ।
न भवाप्ययवस्तूनामभिज्ञो द्वयलक्षणः॥
अनुवाद (हिन्दी)
पिताको पुत्रके जन्मसे और पुत्रको पिताकी मृत्युसे अपने-अपने जन्म-मरणका अनुमान कर लेना चाहिये। जन्म-मृत्युसे युक्त देहोंका द्रष्टा जन्म और मृत्युसे युक्त शरीर नहीं है॥ ४८॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
आत्मन इति । अद्वयलक्षणः जन्ममरणाद्यवस्थाभेदविलक्षणः स्वभावाध्ययावस्थानामनभिज्ञः स जन्ममरणानां न प्रत्ययिता तदानीं मोहप्रस्तत्वात अतः स्वभवाप्यः यावनुमेयौ कथमित्यत्राह । पितृपुत्राभ्यामिति । पुत्रोत्पत्तिदर्शनात्स्वोत्पत्तिरनुमेया पितृमरणान्मरणमनुमेयमित्यर्थः ॥ ४८ ॥
श्लोक-४९
विश्वास-प्रस्तुतिः
तरोर्बीजविपाकाभ्यां यो विद्वाञ्जन्मसंयमौ।
तरोर्विलक्षणो द्रष्टा एवं द्रष्टा तनोः पृथक्॥
मूलम्
तरोर्बीजविपाकाभ्यां यो विद्वाञ्जन्मसंयमौ।
तरोर्विलक्षणो द्रष्टा एवं द्रष्टा तनोः पृथक्॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे जौ-गेहूँ आदिकी फसल बोनेपर उग आती है और पक जानेपर काट दी जाती है, किन्तु जो पुरुष उनके उगने और काटनेका जाननेवाला साक्षी है, वह उनसे सर्वथा पृथक् है; वैसे ही जो शरीर और उसकी अवस्थाओंका साक्षी है, वह शरीरसे सर्वथा पृथक् है॥ ४९॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
तरोरिति बीजविपाकः फलकालपरिणामः यस्योत्पत्तिविनाशावनुमेयौ तस्मादात्मा भिन्नः यथा वृक्षोत्पत्त्यभिज्ञो देवदेत्तो वृक्षाद्भिन्नः तद्वद्देहोत्पत्तिविनाशाभिज्ञो देवदत्तो देहाद्भिन्नः इत्यर्थः ॥ ४९-५१ ॥
श्लोक-५०
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रकृतेरेवमात्मानमविविच्याबुधः पुमान्।
तत्त्वेन स्पर्शसम्मूढः संसारं प्रतिपद्यते॥
मूलम्
प्रकृतेरेवमात्मानमविविच्याबुधः पुमान्।
तत्त्वेन स्पर्शसम्मूढः संसारं प्रतिपद्यते॥
अनुवाद (हिन्दी)
अज्ञानी पुरुष इस प्रकार प्रकृति और शरीरसे आत्माका विवेचन नहीं करते। वे उसे उनसे तत्त्वतः अलग अनुभव नहीं करते और विषयभोगमें सच्चा सुख मानने लगते हैं तथा उसीमें मोहित हो जाते हैं। इसीसे उन्हें जन्म-मृत्युरूप संसारमें भटकना पड़ता है॥ ५०॥
श्लोक-५१
विश्वास-प्रस्तुतिः
सत्त्वसङ्गादृषीन् देवान् रजसासुरमानुषान्।
तमसा भूततिर्यक्त्वं भ्रामितो याति कर्मभिः॥
मूलम्
सत्त्वसङ्गादृषीन् देवान् रजसासुरमानुषान्।
तमसा भूततिर्यक्त्वं भ्रामितो याति कर्मभिः॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब अविवेकी जीव अपने कर्मोंके अनुसार जन्म-मृत्युके चक्रमें भटकने लगता है, तब सात्त्विक कर्मोंकी आसक्तिसे वह ऋषिलोक और देवलोकमें राजसिक कर्मोंकी आसक्तिसे मनुष्य और असुरयोनियोंमें तथा तामसी कर्मोंकी आसक्तिसे भूत-प्रेत एवं पशु-पक्षी आदि योनियोंमें जाता है॥ ५१॥
श्लोक-५२
विश्वास-प्रस्तुतिः
नृत्यतो गायतः पश्यन् यथैवानुकरोति तान्।
एवं बुद्धिगुणान् पश्यन्ननीहोऽप्यनुकार्यते॥
मूलम्
नृत्यतो गायतः पश्यन् यथैवानुकरोति तान्।
एवं बुद्धिगुणान् पश्यन्ननीहोऽप्यनुकार्यते॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब मनुष्य किसीको नाचते-गाते देखता है, तब वह स्वयं भी उसका अनुकरण करने—तान तोड़ने लगता है। वैसे ही जब जीव बुद्धिके गुणोंको देखता है, तब स्वयं निष्क्रिय होनेपर भी उसका अनुकरण करनेके लिये बाध्य हो जाता है॥ ५२॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
अनुकरोति स्वयमपि नृत्यन्निव भवति बुद्धिगुणान् बुद्धयुपस्थापितान् देहगुणान् स्थूलादीन् ॥ ५२ ॥
श्लोक-५३
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथाम्भसा प्रचलता तरवोऽपि चला इव।
चक्षुषा भ्राम्यमाणेन दृश्यते भ्रमतीव भूः॥
मूलम्
यथाम्भसा प्रचलता तरवोऽपि चला इव।
चक्षुषा भ्राम्यमाणेन दृश्यते भ्रमतीव भूः॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
यथाम्भसेति ॥ ५३ ॥
श्लोक-५४
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा मनोरथधियो विषयानुभवो मृषा।
स्वप्नदृष्टाश्च दाशार्ह तथा संसार आत्मनः॥
मूलम्
यथा मनोरथधियो विषयानुभवो मृषा।
स्वप्नदृष्टाश्च दाशार्ह तथा संसार आत्मनः॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे नदी-तालाब आदिके जलके हिलने या चंचल होनेपर उसमें प्रतिबिम्बित तटके वृक्ष भी उसके साथ हिलते-डोलते-से जान पड़ते हैं, जैसे घुमाये जानेवाले नेत्रके साथ-साथ पृथ्वी भी घूमती हुई-सी दिखायी देती है, जैसे मनके द्वारा सोचे गये तथा स्वप्नमें देखे गये भोग पदार्थ सर्वथा अलीक ही होते हैं, वैसे ही हे दाशार्ह! आत्माका विषयानुभवरूप संसार भी सर्वथा असत्य है। आत्मा तो नित्य शुद्ध-बुद्ध-मुक्तस्वभाव ही है॥ ५३-५४॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
अन्यधर्मस्यान्यत्राभ्यासे दृष्टान्तः मनोरथधियः मनोरथरूपा स्वप्नदष्टाश्च विषयानुभवाः मृषा मिथ्याविषयाः एवमात्मनः संसारो जन्ममरणादिरपि मृषेत्यर्थः ॥ ५४ ॥
श्लोक-५५
विश्वास-प्रस्तुतिः
अर्थे ह्यविद्यमानेऽपि संसृतिर्न निवर्तते।
ध्यायतो विषयानस्य स्वप्नेऽनर्थागमो यथा॥
मूलम्
अर्थे ह्यविद्यमानेऽपि संसृतिर्न निवर्तते।
ध्यायतो विषयानस्य स्वप्नेऽनर्थागमो यथा॥
अनुवाद (हिन्दी)
विषयोंके सत्य न होनेपर भी जो जीव विषयोंका ही चिन्तन करता रहता है, उसका यह जन्म-मृत्युरूप संसार-चक्र कभी निवृत्त नहीं होता, जैसे स्वप्नमें प्राप्त अनर्थ-परम्परा जागे बिना निवृत्त नहीं होती॥ ५५॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
अर्थे ह्यविद्यमानेऽपि शब्दादिविषयेष्वनुपनतेष्वपि तांश्चेतसा ध्यायतः संसृतिर्न निवर्त्तते स्वप्ने कन्यकाभावेऽपि तद्बुद्धया दुःखावगमादित्यर्थः ॥ ५५ ॥
श्लोक-५६
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मादुद्धव मा भुङ्क्ष्व विषयानसदिन्द्रियैः।
आत्माग्रहणनिर्भातं पश्य वैकल्पिकं भ्रमम्॥
मूलम्
तस्मादुद्धव मा भुङ्क्ष्व विषयानसदिन्द्रियैः।
आत्माग्रहणनिर्भातं पश्य वैकल्पिकं भ्रमम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रिय उद्धव! इसलिये इन दुष्ट (कभी तृप्त न होनेवाली) इन्द्रियोंसे विषयोंको मत भोगो। आत्मविषयक अज्ञानसे प्रतीत होनेवाला सांसारिक भेदभाव भ्रममूलक ही है, ऐसा समझो॥ ५६॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
आत्माग्रहणनिष्पन्नमिति । आत्मग्रहणभावायन्निष्पन्नेनात्मज्ञानविरोधिभूतमित्यर्थः ॥ ५६ ॥
श्लोक-५७
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षिप्तोऽवमानितोऽसद्भिः प्रलब्धोऽसूयितोऽथवा।
ताडितः सन्निबद्धो वा वृत्त्या वा परिहापितः॥
मूलम्
क्षिप्तोऽवमानितोऽसद्भिः प्रलब्धोऽसूयितोऽथवा।
ताडितः सन्निबद्धो वा वृत्त्या वा परिहापितः॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
क्षिप्तः वाचा क्षिप्तः प्रलब्धः विप्रलब्धः असूयितः गुणेष्वारोपितदोषभावः वृत्या द्रव्यरूपेण जीवितेन ॥ ५७-५८ ॥
श्लोक-५८
विश्वास-प्रस्तुतिः
निष्ठितो मूत्रितो वाज्ञैर्बहुधैवं प्रकम्पितः।
श्रेयस्कामः कृच्छ्रगत आत्मनाऽऽत्मानमुद्धरेत्॥
मूलम्
निष्ठितो मूत्रितो वाज्ञैर्बहुधैवं प्रकम्पितः।
श्रेयस्कामः कृच्छ्रगत आत्मनाऽऽत्मानमुद्धरेत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
असाधुपुरुष गर्दन पकड़कर बाहर निकाल दें, वाणीद्वारा अपमान करें, उपहास करें, निन्दा करें, मारें-पीटें, बाँधें, आजीविका छीन लें, ऊपर थूक दें, मूत दें अथवा तरह-तरहसे विचलित करें, निष्ठासे डिगानेकी चेष्टा करें; उनके किसी भी उपद्रवसे क्षुब्ध न होना चाहिये; क्योंकि वे तो बेचारे अज्ञानी हैं, उन्हें परमार्थका तो पता ही नहीं है। अतः जो अपने कल्याणका इच्छुक है, उसे सभी कठिनाइयोंसे अपनी विवेक-बुद्धिद्वारा ही—किसी बाह्य साधनसे नहीं—अपनेको बचा लेना चाहिये। वस्तुतः आत्म-दृष्टि ही समस्त विपत्तियोंसे बचनेका एकमात्र साधन है॥ ५७-५८॥
श्लोक-५९
मूलम् (वचनम्)
उद्धव उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथैवमनुबुध्येयं वद नो वदतां वर।
सुदुःसहमिमं मन्ये आत्मन्यसदतिक्रमम्॥
मूलम्
यथैवमनुबुध्येयं वद नो वदतां वर।
सुदुःसहमिमं मन्ये आत्मन्यसदतिक्रमम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
उद्धवजीने कहा—भगवन्! आप समस्त वक्ताओंके शिरोमणि हैं। मैं इस दुर्जनोंसे किये गये तिरस्कारको अपने मनमें अत्यन्त असह्य समझता हूँ। अतः जैसे मैं इसको समझ सकूँ, आपका उपदेश जीवनमें धारण कर सकूँ, वैसे हमें बतलाइये॥ ५९॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
वदतस्तवानुवृत्त्या त्वन्मतानुसारेणापि दुःसहमसदतिक्रमं मन्ये ॥ ५९-६० ॥
इति श्रीमद्भागवतव्याख्याने एकादशस्कन्धीये श्रीसुदर्शनसूरिकृतशुकपक्षीये द्वाविंशोऽध्यायः ॥ २२ ॥
श्लोक-६०
विश्वास-प्रस्तुतिः
विदुषामपि विश्वात्मन् प्रकृतिर्हि बलीयसी।
ऋते त्वद्धर्मनिरतान् शान्तांस्ते चरणालयान्॥
मूलम्
विदुषामपि विश्वात्मन् प्रकृतिर्हि बलीयसी।
ऋते त्वद्धर्मनिरतान् शान्तांस्ते चरणालयान्॥
अनुवाद (हिन्दी)
विश्वात्मन्! जो आपके भागवतधर्मके आचरणमें प्रेमपूर्वक संलग्न हैं, जिन्होंने आपके चरणकमलोंका ही आश्रय ले लिया है, उन शान्त पुरुषोंके अतिरिक्त बड़े-बड़े विद्वानोंके लिये भी दुष्टोंके द्वारा किया हुआ तिरस्कार सह लेना अत्यन्त कठिन है; क्योंकि प्रकृति अत्यन्त बलवती है॥ ६०॥
अनुवाद (समाप्ति)
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायामेकादशस्कन्धे द्वाविंशोऽध्यायः॥ २२॥