[एकविंशोऽध्यायः]
भागसूचना
गुण-दोष-व्यवस्थाका स्वरूप और रहस्य
श्लोक-१
मूलम् (वचनम्)
श्रीभगवानुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
य एतान् मत्पथो हित्वा भक्तिज्ञानक्रियात्मकान्।
क्षुद्रान् कामांश्चलैः प्राणैर्जुषन्तः संसरन्ति ते॥
मूलम्
य एतान् मत्पथो हित्वा भक्तिज्ञानक्रियात्मकान्।
क्षुद्रान् कामांश्चलैः प्राणैर्जुषन्तः संसरन्ति ते॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं—प्रिय उद्धव! मेरी प्राप्तिके तीन मार्ग हैं—भक्तियोग, ज्ञानयोग और कर्मयोग। जो इन्हें छोड़कर चंचल इन्द्रियोंके द्वारा क्षुद्र भोग भोगते रहते हैं, वे बार-बार जन्म-मृत्युरूप संसारके चक्करमें भटकते रहते हैं॥ १॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
एष एव परिहारोऽनन्तराध्याये स्फुटतरमुच्यते, प्राणैरिति । प्राणशब्देनेन्द्रियविषयाः शब्दादयो लक्ष्यन्ते प्राणैरिन्द्रियैर्वा स्वे इति विपर्ययः अधिकाराननुगुणा निष्ठा यथाशूद्रस्य ब्राह्मणधर्मः अविरक्तस्य संन्यासिधर्मश्च दोषः ब्राह्मणस्य विरक्तस्य च गुणः ॥ १-२ ॥
श्लोक-२
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वे स्वेऽधिकारे या निष्ठा स गुणः परिकीर्तितः।
विपर्ययस्तु दोषः स्यादुभयोरेष निश्चयः॥
मूलम्
स्वे स्वेऽधिकारे या निष्ठा स गुणः परिकीर्तितः।
विपर्ययस्तु दोषः स्यादुभयोरेष निश्चयः॥
अनुवाद (हिन्दी)
अपने-अपने अधिकारके अनुसार धर्ममें दृढ़ निष्ठा रखना ही गुण कहा गया है और इसके विपरीत अनधिकार चेष्टा करना दोष है। तात्पर्य यह कि गुण और दोष दोनोंकी व्यवस्था अधिकारके अनुसार की जाती है, किसी वस्तुके अनुसार नहीं॥ २॥
श्लोक-३
विश्वास-प्रस्तुतिः
शुद्ध्यशुद्धी विधीयेते समानेष्वपि वस्तुषु।
द्रव्यस्य विचिकित्सार्थं गुणदोषौ शुभाशुभौ॥
मूलम्
शुद्ध्यशुद्धी विधीयेते समानेष्वपि वस्तुषु।
द्रव्यस्य विचिकित्सार्थं गुणदोषौ शुभाशुभौ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वस्तुओंके समान होनेपर भी शुद्धि-अशुद्धि, गुण-दोष और शुभ-अशुभ आदिका जो विधान किया जाता है, उसका अभिप्राय यह है कि पदार्थका ठीक-ठीक निरीक्षण-परीक्षण हो सके और उनमें सन्देह उत्पन्न करके ही यह योग्य है कि अयोग्य, स्वाभाविक प्रवृत्तिको नियन्त्रित—संकुचित किया जा सके॥ ३॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
समानेष्विति भौतिकत्वाद्याकारेण समानत्वं शुद्ध्यशुद्धी एव गुणदोषौ तौ च शुभाशुभौ कर्मनिष्पादनयोग्यत्वायोग्यत्वरूपौ विधीयेते द्रव्यस्य विचिकित्सार्थं दुष्टस्य शूद्रस्य जिहासार्थं गुणदोषविधानमित्यर्थः ॥ ३-४ ॥
श्लोक-४
विश्वास-प्रस्तुतिः
धर्मार्थं व्यवहारार्थं यात्रार्थमिति चानघ।
दर्शितोऽयं मयाऽऽचारो धर्ममुद्वहतां धुरम्॥
मूलम्
धर्मार्थं व्यवहारार्थं यात्रार्थमिति चानघ।
दर्शितोऽयं मयाऽऽचारो धर्ममुद्वहतां धुरम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके द्वारा धर्म-सम्पादन कर सके, समाजका व्यवहार ठीक-ठीक चला सके और अपने व्यक्तिगत जीवनके निर्वाहमें भी सुविधा हो। इससे यह लाभ भी है कि मनुष्य अपनी वासनामूलक सहज प्रवृत्तियोंके द्वारा इनके जालमें न फँसकर शास्त्रानुसार अपने जीवनको नियन्त्रित और मनको वशीभूत कर लेता है। निष्पाप उद्धव! यह आचार मैंने ही मनु आदिका रूप धारण करके धर्मका भार ढोनेवाले कर्म जडोंके लिये उपदेश किया है॥ ४॥
श्लोक-५
विश्वास-प्रस्तुतिः
भूम्यम्ब्वग्न्यनिलाकाशा भूतानां पञ्च धातवः।
आब्रह्मस्थावरादीनां शारीरा आत्मसंयुताः॥
मूलम्
भूम्यम्ब्वग्न्यनिलाकाशा भूतानां पञ्च धातवः।
आब्रह्मस्थावरादीनां शारीरा आत्मसंयुताः॥
अनुवाद (हिन्दी)
पृथ्वी, जल, तेज, वायु , आकाश—ये पंचभूत ही ब्रह्मासे लेकर पर्वत-वृक्षपर्यन्त सभी प्राणियोंके शरीरोंके मूलकारण हैं। इस तरह वे सब शरीरकी दृष्टिसे तो समान हैं ही, सबका आत्मा भी एक ही है॥ ५॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
धर्मार्थं दुष्टद्रव्यवर्जनेन धर्माख्यप्रयोजनसिद्धिः व्यवहार अर्थार्जनादिः यात्रा देहधारणं धर्माविरोधार्थार्जनदेहधारणादिकमपि शुद्ध्यशुद्धी कर्मानुष्ठाने सत्येव सत्ये भवत इत्यर्थः । शारीराशरीरसम्बन्धिनो भूतानां धातवः ॥ ५ ॥
श्लोक-६
विश्वास-प्रस्तुतिः
वेदेन नामरूपाणि विषमाणि समेष्वपि।
धातुषूद्धव कल्प्यन्ते एतेषां स्वार्थसिद्धये॥
मूलम्
वेदेन नामरूपाणि विषमाणि समेष्वपि।
धातुषूद्धव कल्प्यन्ते एतेषां स्वार्थसिद्धये॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रिय उद्धव! यद्यपि सबके शरीरोंके पंच-भूत समान हैं, फिर भी वेदोंने इनके वर्णाश्रम आदि अलग-अलग नाम और रूप इसलिये बना दिये हैं कि ये अपनी वासना-मूलक प्रवृत्तियोंको संकुचित करके—नियन्त्रित करके धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष—इन चारों पुरुषार्थोंको सिद्ध कर सकें॥ ६॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
कल्प्यन्ते ज्ञाप्यन्ते एतेषां पुंसां पुरुषार्थसिद्धये ॥ ६ ॥
श्लोक-७
विश्वास-प्रस्तुतिः
देशकालादिभावानां वस्तूनां मम सत्तम।
गुणदोषौ विधीयेते नियमार्थं हि कर्मणाम्॥
मूलम्
देशकालादिभावानां वस्तूनां मम सत्तम।
गुणदोषौ विधीयेते नियमार्थं हि कर्मणाम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
साधुश्रेष्ठ! देश, काल, फल, निमित्त, अधिकारी और धान्य आदि वस्तुओंके गुण-दोषोंका विधान भी मेरे द्वारा इसीलिये किया गया है कि कर्मोंमें लोगोंकी उच्छृंखल प्रवृत्ति न हो, मर्यादाका भंग न होने पावे॥ ७॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
देशकालादिभावानां देशकालादिनिष्पाद्यानां नियमार्थं कर्मणां वर्जनीयवर्जनार्थम् ॥ ७ ॥
श्लोक-८
विश्वास-प्रस्तुतिः
अकृष्णसारो देशानामब्रह्मण्योऽशुचिर्भवेत्।
कृष्णसारोऽप्यसौवीरकीकटासंस्कृतेरिणम्॥
मूलम्
अकृष्णसारो देशानामब्रह्मण्योऽशुचिर्भवेत्।
कृष्णसारोऽप्यसौवीरकीकटासंस्कृतेरिणम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
देशोंमें वह देश अपवित्र है, जिसमें कृष्णसार मृग न हों और जिसके निवासी ब्राह्मण-भक्त न हों। कृष्णसार मृगके होनेपर भी, केवल उन प्रदेशोंको छोड़कर जहाँ संत पुरुष रहते हैं, कीकट देश अपवित्र ही है। संस्काररहित और ऊसर आदि स्थान भी अपवित्र ही होते हैं॥ ८॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
अकृष्णसारः कृष्णमृगप्रधानरहितो देशः कृष्णमृगप्रचारे सत्यपि असौवीरकीकटासंस्कृतेरिणम् असौवीरादिव्यतिरिक्त देश कर्मण्य इतीत्यर्थः । कीकटो मगधकलिङ्गादिः असंस्कृतदेशः म्लेच्छभूयिष्ठदेशः ईरिणम् उषरक्षेत्रम् ॥ ८ ॥
श्लोक-९
विश्वास-प्रस्तुतिः
कर्मण्यो गुणवान् कालो द्रव्यतः स्वत एव वा।
यतो निवर्तते कर्म स दोषोऽकर्मकः स्मृतः॥
मूलम्
कर्मण्यो गुणवान् कालो द्रव्यतः स्वत एव वा।
यतो निवर्तते कर्म स दोषोऽकर्मकः स्मृतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
समय वही पवित्र है, जिसमें कर्म करने-योग्य सामग्री मिल सके तथा कर्म भी हो सके। जिसमें कर्म करनेकी सामग्री न मिले, आगन्तुक दोषोंसे अथवा स्वाभाविक दोषके कारण जिसमें कर्म ही न हो सके, वह समय अशुद्ध है॥ ९॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
गुणवांश्च कालः कर्मण्यः देशकालयोः कर्मण्यता च द्रव्यान्तरसम्बन्धाद्वा स्वतो भवति मथुरादेशस्य जयन्त्यादिकालस्य च भगवज्जन्मयोगात् गुणवत्त्वं यत इति निवर्त्तते अनिवृत्तम् प्रकृतसम्भवं कर्मण्यदोष इत्यर्थः ॥ ९ ॥
श्लोक-१०
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्रव्यस्य शुद्ध्यशुद्धी च द्रव्येण वचनेन च।
संस्कारेणाथ कालेन महत्त्वाल्पतयाथवा॥
मूलम्
द्रव्यस्य शुद्ध्यशुद्धी च द्रव्येण वचनेन च।
संस्कारेणाथ कालेन महत्त्वाल्पतयाथवा॥
अनुवाद (हिन्दी)
पदार्थोंकी शुद्धि और अशुद्धि द्रव्य, वचन, संस्कार, काल, महत्त्व अथवा अल्पत्वसे भी होती है। (जैसे कोई पात्र जलसे शुद्ध और मूत्रादिसे अशुद्ध हो जाता है। किसी वस्तुकी शुद्धि अथवा अशुद्धिमें शंका होनेपर ब्राह्मणोंके वचनसे वह शुद्ध हो जाती है अन्यथा अशुद्ध रहती है। पुष्पादि जल छिड़कनेसे शुद्ध और सूँघनेसे अशुद्ध माने जाते हैं। तत्कालका पकाया हुआ अन्न शुद्ध और बासी अशुद्ध माना जाता है। बड़े सरोवर और नदी आदिका जल शुद्ध और छोटे गड्ढोंका अशुद्ध माना जाता है। इस प्रकार क्रमसे समझ लेना चाहिये।)॥ १०॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
द्रव्येण आतपादिना वचनेन शास्त्रबलेन अल्पकालेन अनतिविप्रकृष्टकालेन वर्त्तते संस्कारेण यथा प्रोक्षेणेन भूशुद्धिः महत्वाल्पतया यथा नदीजलस्य महत्त्वात्पृथिवीजलस्याल्पत्वाच्च तत्संसर्गेऽपि नदीजलस्य शुद्धिः ॥ १० ॥
श्लोक-११
विश्वास-प्रस्तुतिः
शक्त्याशक्त्याथवा बुद्ध्या समृद्ध्या च यदात्मने।
अघं कुर्वन्ति हि यथा देशावस्थानुसारतः॥
मूलम्
शक्त्याशक्त्याथवा बुद्ध्या समृद्ध्या च यदात्मने।
अघं कुर्वन्ति हि यथा देशावस्थानुसारतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
शक्ति, अशक्ति, बुद्धि और वैभवके अनुसार भी पवित्रता और अपवित्रताकी व्यवस्था होती है। उसमें भी स्थान और उपयोग करनेवालेकी आयुका विचार करते हुए ही अशुद्ध वस्तुओंके व्यवहारका दोष ठीक तरहसे आँका जाता है। (जैसे धनी-दरिद्र, बलवान्-निर्बल, बुद्धिमान्-मूर्ख, उपद्रवपूर्ण और सुखद देश तथा तरुण एवं वृद्धावस्थाके भेदसे शुद्धि और अशुद्धिकी व्यवस्थामें अन्तर पड़ जाता है।)॥ ११॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
शक्तया मन्त्रादिशक्तया शुद्धिः आतुरस्य वाक्यशुद्धिः ब्राह्मणवाक्येन शुद्धिः समृद्ध्या समृद्धिरुत्सवस्ततः शुद्धिः अलं पर्याप्तं देशावस्था राष्ट्रक्षोभः ॥ ११ ॥
श्लोक-१२
विश्वास-प्रस्तुतिः
धान्यदार्वस्थितन्तूनां रसतैजसचर्मणाम्।
कालवाय्वग्निमृत्तोयैः पार्थिवानां युतायुतैः॥
मूलम्
धान्यदार्वस्थितन्तूनां रसतैजसचर्मणाम्।
कालवाय्वग्निमृत्तोयैः पार्थिवानां युतायुतैः॥
अनुवाद (हिन्दी)
अनाज, लकड़ी, हाथीदाँत आदि हड्डी, सूत, मधु, नमक, तेल, घी आदि रस, सोना-पारा आदि तैजस पदार्थ, चाम और घड़ा आदि मिट्टीके बने पदार्थ समयपर अपने-आप हवा लगनेसे, आगमें जलानेसे, मिट्टी लगानेसे अथवा जलमें धोनेसे शुद्ध हो जाते हैं। देश, काल और अवस्थाके अनुसार कहीं जल-मिट्टी आदि शोधक सामग्रीके संयोगसे शुद्धि करनी पड़ती है तो कहीं-कहीं एक-एकसे भी शुद्धि हो जाती है॥ १२॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
धान्येति धान्यस्य वाय्वातपादिना शुद्धिः दारुणो मृत्तोयाभ्याम् अत्यन्तोपहतौ तक्षणाद्वा अस्थ्नामपि वाय्वातपशोषणाच्छुद्धिः तत्र शुद्धिर्यथा आर्द्रस्पर्शतः शुकास्थिस्पर्शं प्रायश्चित्तं न नव्यनिबन्धनं तन्तुशद्धिस्तोये रसस्य क्षीरादेः केशादिसंसर्गेणापि वह्निना क्वाथेन शुद्धिः तेजसस्य कांस्यादेः अग्निना शुद्धिः चर्मणां सलिलेन शुद्धिः पार्थिवानां द्रव्याणां युतायुतैः संयोगासंयोगैः शुद्धिः यथा ओदनस्य केशाद्यपनयनाज्यसंयोगादिना शुद्धिः ॥ १२-१४ ॥
श्लोक-१३
विश्वास-प्रस्तुतिः
अमेध्यलिप्तं यद् येन गन्धं लेपं व्यपोहति।
भजते प्रकृतिं तस्य तच्छौचं तावदिष्यते॥
मूलम्
अमेध्यलिप्तं यद् येन गन्धं लेपं व्यपोहति।
भजते प्रकृतिं तस्य तच्छौचं तावदिष्यते॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि किसी वस्तुमें कोई अशुद्ध पदार्थ लग गया हो तो छीलनेसे या मिट्टी आदि मलनेसे जब उस पदार्थकी गन्ध और लेप न रहे और वह वस्तु अपने पूर्वरूपमें आ जाय, तब उसको शुद्ध समझना चाहिये॥ १३॥
श्लोक-१४
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्नानदानतपोऽवस्थावीर्यसंस्कारकर्मभिः।
मत्स्मृत्या चात्मनः शौचं शुद्धः कर्माचरेद् द्विजः॥
मूलम्
स्नानदानतपोऽवस्थावीर्यसंस्कारकर्मभिः।
मत्स्मृत्या चात्मनः शौचं शुद्धः कर्माचरेद् द्विजः॥
अनुवाद (हिन्दी)
स्नान, दान, तपस्या, वय, सामर्थ्य, संस्कार, कर्म और मेरे स्मरणसे चित्तकी शुद्धि होती है। इनके द्वारा शुद्ध होकर ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यको विहित कर्मोंका आचरण करना चाहिये॥ १४॥
श्लोक-१५
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन्त्रस्य च परिज्ञानं कर्मशुद्धिर्मदर्पणम्।
धर्मः सम्पद्यते षड्भिरधर्मस्तु विपर्ययः॥
मूलम्
मन्त्रस्य च परिज्ञानं कर्मशुद्धिर्मदर्पणम्।
धर्मः सम्पद्यते षड्भिरधर्मस्तु विपर्ययः॥
अनुवाद (हिन्दी)
गुरुमुखसे सुनकर भलीभाँति हृदयंगम कर लेनेसे मन्त्रकी और मुझे समर्पित कर देनेसे कर्मकी शुद्धि होती है। उद्धवजी! इस प्रकार देश, काल, पदार्थ, कर्ता, मन्त्र और कर्म—इन छहोंके शुद्ध होनेसे धर्म और अशुद्ध होनेसे अधर्म होता है॥ १५॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
परिज्ञानं प्रयोगज्ञानं कर्मप्रयोगानुष्ठानं शुद्धिः द्रव्यादिशुद्धिभिः विपर्ययैः मन्त्रवैकल्यादिभिः ॥ १५ ॥
श्लोक-१६
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्वचिद् गुणोऽपि दोषः स्याद् दोषोऽपि विधिना गुणः।
गुणदोषार्थनियमस्तद्भिदामेव बाधते॥
मूलम्
क्वचिद् गुणोऽपि दोषः स्याद् दोषोऽपि विधिना गुणः।
गुणदोषार्थनियमस्तद्भिदामेव बाधते॥
अनुवाद (हिन्दी)
कहीं-कहीं शास्त्रविधिसे गुण दोष हो जाता है और दोष गुण। (जैसे ब्राह्मणके लिये सन्ध्या-वन्दन, गायत्री-जप आदि गुण हैं; परन्तु शूद्रके लिये दोष हैं। और दूध आदिका व्यापार वैश्यके लिये विहित है; परन्तु ब्राह्मणके लिये अत्यन्त निषिद्ध है।) एक ही वस्तुके विषयमें किसीके लिये गुण और किसीके लिये दोषका विधान गुण और दोषोंकी वास्तविकताका खण्डन कर देता है और इससे यह निश्चय होता है कि गुण-दोषका यह भेद कल्पित है॥ १६॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
गुणेति स्नानातुरादेर्निषिद्धत्वाद्दोषः दोषोऽपि हिंसा विहितत्वात् यज्ञेषु गुणः गुणदोषार्थनियमः विशेषशास्त्रेण गुणदोषनियमः तद्भिदां बाधते ॥ १६ ॥
श्लोक-१७
विश्वास-प्रस्तुतिः
समानकर्माचरणं पतितानां न पातकम्।
औत्पत्तिको गुणः सङ्गो न शयानः पतत्यधः॥
मूलम्
समानकर्माचरणं पतितानां न पातकम्।
औत्पत्तिको गुणः सङ्गो न शयानः पतत्यधः॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो लोग पतित हैं, वे पतितोंका-सा आचरण करते हैं तो उन्हें पाप नहीं लगता, जब कि श्रेष्ठ पुरुषोंके लिये वह सर्वथा त्याज्य होता है। जैसे गृहस्थोंके लिये स्वाभाविक होनेके कारण अपनी पत्नीका संग पाप नहीं है; परन्तु संन्यासीके लिये घोर पाप है। उद्धवजी! बात तो यह है कि जो नीचे सोया हुआ है, वह गिरेगा कहाँ? वैसे ही जो पहलेसे ही पतित हैं, उनका अब और पतन क्या होगा?॥ १७॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
सामान्यशास्त्रप्राप्तगुणदोषविभागमपवदति । समानकर्माचरणमिति । समानकर्माचराणां समानकर्मभिः पतितैः सम्व्यवहारे पतितानां न पातकं किंत्वपतितानामेव पातकं स्यात् गुणैः संगः संगाख्यो गुणः जन्मसिद्धः सर्वप्राणिनां नाशाय भवति अतो जन्तुरधः पतति निरयं प्रविशति ॥ १७ ॥
श्लोक-१८
विश्वास-प्रस्तुतिः
यतो यतो निवर्तेत विमुच्येत ततस्ततः।
एष धर्मो नृणां क्षेमः शोकमोहभयापहः॥
मूलम्
यतो यतो निवर्तेत विमुच्येत ततस्ततः।
एष धर्मो नृणां क्षेमः शोकमोहभयापहः॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिन-जिन दोषों और गुणोंसे मनुष्यका चित्त उपरत हो जाता है, उन्हीं वस्तुओंके बन्धनसे वह मुक्त हो जाता है। मनुष्योंके लिये यह निवृत्तिरूप धर्म ही परम कल्याणका साधन है; क्योंकि यही शोक, मोह और भयको मिटानेवाला है॥ १८॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
एष धर्मः असंगरूपधर्मः ॥ १८ ॥
श्लोक-१९
विश्वास-प्रस्तुतिः
विषयेषु गुणाध्यासात् पुंसः सङ्गस्ततो भवेत्।
सङ्गात्तत्र भवेत् कामः कामादेव कलिर्नृणाम्॥
मूलम्
विषयेषु गुणाध्यासात् पुंसः सङ्गस्ततो भवेत्।
सङ्गात्तत्र भवेत् कामः कामादेव कलिर्नृणाम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
उद्धवजी! विषयोंमें कहीं भी गुणोंका आरोप करनेसे उस वस्तुके प्रति आसक्ति हो जाती है। आसक्ति होनेसे उसे अपने पास रखनेकी कामना हो जाती है और इस कामनाकी पूर्तिमें किसी प्रकारकी बाधा पड़नेपर लोगोंमें परस्पर कलह होने लगता है॥ १९॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
संगात् भोग्य इति बुद्ध्या कामः भोक्तुरभिनिवेशः कलिः कलहः ॥ १९-२० ॥
श्लोक-२०
विश्वास-प्रस्तुतिः
कलेर्दुर्विषहः क्रोधस्तमस्तमनुवर्तते।
तमसा ग्रस्यते पुंसश्चेतना व्यापिनी द्रुतम्॥
मूलम्
कलेर्दुर्विषहः क्रोधस्तमस्तमनुवर्तते।
तमसा ग्रस्यते पुंसश्चेतना व्यापिनी द्रुतम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
कलहसे असह्य क्रोधकी उत्पत्ति होती है और क्रोधके समय अपने हित-अहितका बोध नहीं रहता, अज्ञान छा जाता है। इस अज्ञानसे शीघ्र ही मनुष्यकी कार्याकार्यका निर्णय करनेवाली व्यापक चेतनाशक्ति लुप्त हो जाती है॥ २०॥
श्लोक-२१
विश्वास-प्रस्तुतिः
तया विरहितः साधो जन्तुः शून्याय कल्पते।
ततोऽस्य स्वार्थविभ्रंशो मूर्च्छितस्य मृतस्य च॥
मूलम्
तया विरहितः साधो जन्तुः शून्याय कल्पते।
ततोऽस्य स्वार्थविभ्रंशो मूर्च्छितस्य मृतस्य च॥
अनुवाद (हिन्दी)
साधो! चेतना-शक्ति अर्थात् स्मृतिके लुप्त हो जानेपर मनुष्यमें मनुष्यता नहीं रह जाती, पशुता आ जाती है और वह शून्यके समान अस्तित्वहीन हो जाता है। अब उसकी अवस्था वैसी ही हो जाती है, जैसे कोई मूर्च्छित या मुर्दा हो। ऐसी स्थितिमें न तो उसका स्वार्थ बनता है और न तो परमार्थ॥ २१॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
शून्याय शून्यत्वाय स्वार्थे विभ्रंशः मूर्छितस्य मृततुल्यस्य ज्ञानभावनिरन्वयनाशः इत्यभिप्रायः ॥ २१-२२ ॥
श्लोक-२२
विश्वास-प्रस्तुतिः
विषयाभिनिवेशेन नात्मानं वेद नापरम्।
वृक्षजीविकया जीवन् व्यर्थं भस्त्रेव यः श्वसन्॥
मूलम्
विषयाभिनिवेशेन नात्मानं वेद नापरम्।
वृक्षजीविकया जीवन् व्यर्थं भस्त्रेव यः श्वसन्॥
अनुवाद (हिन्दी)
विषयोंका चिन्तन करते-करते वह विषयरूप हो जाता है। उसका जीवन वृक्षोंके समान जड हो जाता है। उसके शरीरमें उसी प्रकार व्यर्थ श्वास चलता रहता है, जैसे लुहारकी धौंकनीकी हवा। उसे न अपना ज्ञान रहता है और न किसी दूसरेका। वह सर्वथा आत्मवञ्चित हो जाता है॥ २२॥
श्लोक-२३
विश्वास-प्रस्तुतिः
फलश्रुतिरियं नॄणां न श्रेयो रोचनं परम्।
श्रेयोविवक्षया प्रोक्तं यथा भैषज्यरोचनम्॥
मूलम्
फलश्रुतिरियं नॄणां न श्रेयो रोचनं परम्।
श्रेयोविवक्षया प्रोक्तं यथा भैषज्यरोचनम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
उद्धवजी! यह स्वर्गादिरूप फलका वर्णन करनेवाली श्रुति मनुष्योंके लिये उन-उन लोकोंको परम पुरुषार्थ नहीं बतलाती; परन्तु बहिर्मुख पुरुषोंके लिये अन्तःकरणशुद्धिके द्वारा परम कल्याणमय मोक्षकी विवक्षासे ही कर्मोंमें रुचि उत्पन्न करनेके लिये वैसा वर्णन करती है। जैसे बच्चोंसे ओषधिमें रुचि उत्पन्न करनेके लिये रोचक वाक्य कहे जाते हैं। (बेटा! प्रेमसे गिलोयका काढ़ा पी लो तो तुम्हारी चोटी बढ़ जायगी)॥ २३॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
फलश्रुतिः श्रूयमाणं स्वर्गादि न श्रेयः पुरुषार्थत्वेन प्रतिपिपादयिषितः किन्तु रोचनार्थं गुडजिह्निकन्यायेन शास्त्रे श्रद्धाजननार्थं भैषज्यरोचनं गुडशर्करादिपुरस्कारेण भैषज्ये श्रद्धाजननम् ॥ २३ ॥
श्लोक-२४
विश्वास-प्रस्तुतिः
उत्पत्त्यैव हि कामेषु प्राणेषु स्वजनेषु च।
आसक्तमनसो मर्त्या आत्मनोऽनर्थहेतुषु॥
मूलम्
उत्पत्त्यैव हि कामेषु प्राणेषु स्वजनेषु च।
आसक्तमनसो मर्त्या आत्मनोऽनर्थहेतुषु॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसमें सन्देह नहीं कि संसारके विषय-भोगोंमें, प्राणोंमें और सगे-सम्बन्धियोंमें सभी मनुष्य जन्मसे ही आसक्त हैं और उन वस्तुओंकी आसक्ति उनकी आत्मोन्नतिमें बाधक एवं अनर्थका कारण है॥ २४॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
उत्पत्त्यैव जन्मप्रभृति ॥ २४ ॥
श्लोक-२५
विश्वास-प्रस्तुतिः
न तानविदुषः स्वार्थं भ्राम्यतो वृजिनाध्वनि।
कथं युञ्ज्यात् पुनस्तेषु तांस्तमो विशतो बुधः॥
मूलम्
न तानविदुषः स्वार्थं भ्राम्यतो वृजिनाध्वनि।
कथं युञ्ज्यात् पुनस्तेषु तांस्तमो विशतो बुधः॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे अपने परम पुरुषार्थको नहीं जानते, इसलिये स्वर्गादिका जो वर्णन मिलता है, वह ज्यों-का-त्यों सत्य है—ऐसा विश्वास करके देवादि योनियोंमें भटकते रहते हैं और फिर वृक्ष आदि योनियोंके घोर अन्धकारमें आ पड़ते हैं। ऐसी अवस्थामें कोई भी विद्वान् अथवा वेद फिरसे उन्हें उन्हीं विषयोंमें क्यों प्रवृत्त करेगा?॥ २५॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
न तान् तेषु प्रह्वान् स्वार्थमविदुषः तान् कथमनर्थहेतुषु तेषु युञ्ज्यात् ॥ २५-२६ ॥
श्लोक-२६
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं व्यवसितं केचिदविज्ञाय कुबुद्धयः।
फलश्रुतिं कुसुमितां न वेदज्ञा वदन्ति हि॥
मूलम्
एवं व्यवसितं केचिदविज्ञाय कुबुद्धयः।
फलश्रुतिं कुसुमितां न वेदज्ञा वदन्ति हि॥
अनुवाद (हिन्दी)
दुर्बुद्धिलोग (कर्मवादी) वेदोंका यह अभिप्राय न समझकर कर्मासक्तिवश पुष्पोंके समान स्वर्गादि लोकोंका वर्णन देखते हैं और उन्हींको परम फल मानकर भटक जाते हैं। परन्तु वेदवेत्ता लोग श्रुतियोंका ऐसा तात्पर्य नहीं बतलाते॥ २६॥
श्लोक-२७
विश्वास-प्रस्तुतिः
कामिनः कृपणा लुब्धाः पुष्पेषु फलबुद्धयः।
अग्निमुग्धा धूमतान्ताः स्वं लोकं न विदन्ति ते॥
मूलम्
कामिनः कृपणा लुब्धाः पुष्पेषु फलबुद्धयः।
अग्निमुग्धा धूमतान्ताः स्वं लोकं न विदन्ति ते॥
अनुवाद (हिन्दी)
विषय-वासनाओंमें फँसे हुए दीन-हीन, लोभी पुरुष रंग-बिरंगे पुष्पोंके समान स्वर्गादि लोकोंको ही सब कुछ समझ बैठते हैं, अग्निके द्वारा सिद्ध होनेवाले यज्ञ-यागादि कर्मोंमें ही मुग्ध हो जाते हैं। उन्हें अन्तमें देवलोक, पितृलोक आदिकी ही प्राप्ति होती है। दूसरी ओर भटक जानेके कारण उन्हें अपने निजधाम आत्मपदका पता नहीं लगता॥ २७॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
पुष्पेषु फलबुद्धयः पुष्पस्थानीयफलकर्मसु फलबुद्धयः अग्निमुग्धाः अग्निकार्येषु अभिनिविष्टाः स्वं लोकं लोक्यते इति लोकः प्रत्यगात्मस्वरूपम् ॥ २७ ॥
श्लोक-२८
विश्वास-प्रस्तुतिः
न ते मामङ्ग जानन्ति हृदिस्थं य इदं यतः।
उक्थशस्त्रा ह्यसुतृपो यथा नीहारचक्षुषः॥
मूलम्
न ते मामङ्ग जानन्ति हृदिस्थं य इदं यतः।
उक्थशस्त्रा ह्यसुतृपो यथा नीहारचक्षुषः॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्यारे उद्धव! उनके पास साधना है तो केवल कर्मकी और उसका कोई फल है तो इन्द्रियोंकी तृप्ति। उनकी आँखें धुँधली हो गयी हैं; इसीसे वे यह बात नहीं जानते कि जिससे इस जगत्की उत्पत्ति हुई है, जो स्वयं इस जगत्के रूपमें है, वह परमात्मा मैं उनके हृदयमें ही हूँ॥ २८॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
ईश्वरमपि न जानन्ति इत्याह । न ते मामिति । यत इदं जगत्तं मामित्यन्वयः उक्थशस्त्राः कर्मविधिप्रेरिताः यतः इदमासोत् य इदं जगत् असुतृपः प्राणतर्प्पकाः नीहारचक्षुषः परोक्षं दुरवगममिति भावः ॥ २८ ॥
श्लोक-२९
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते मे मतमविज्ञाय परोक्षं विषयात्मकाः।
हिंसायां यदि रागः स्याद् यज्ञ एव न चोदना॥
मूलम्
ते मे मतमविज्ञाय परोक्षं विषयात्मकाः।
हिंसायां यदि रागः स्याद् यज्ञ एव न चोदना॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
वृथा पशूनिति यागमुपद्दिश्य मांसभक्षणार्थं पशून् हिंसन्तो नास्तिकाः तैः पशुभिस्ते हिंस्यन्ते इत्यर्थः ॥ २९ ॥
श्लोक-३०
विश्वास-प्रस्तुतिः
हिंसाविहारा ह्यालब्धैः पशुभिः स्वसुखेच्छया।
यजन्ते देवता यज्ञैः पितृभूतपतीन् खलाः॥
मूलम्
हिंसाविहारा ह्यालब्धैः पशुभिः स्वसुखेच्छया।
यजन्ते देवता यज्ञैः पितृभूतपतीन् खलाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि हिंसा और उसके फल मांस-भक्षणमें राग ही हो, उसका त्याग न किया जा सकता हो, तो यज्ञमें ही करे—यह परिसंख्या विधि है, स्वाभाविक प्रवृत्तिका संकोच है, सन्ध्यावन्दनादिके समान अपूर्व विधि नहीं है। इस प्रकार मेरे परोक्ष अभिप्रायको न जानकर विषयलोलुप पुरुष हिंसाका खिलवाड़ खेलते हैं और दुष्टतावश अपनी इन्द्रियोंकी तृप्तिके लिये वध किये हुए पशुओंके मांससे यज्ञ करके देवता, पितर तथा भूतपतियोंके यजनका ढोंग करते हैं॥ २९-३०॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
तदेव विवृणोति । हिंसाविहारा इति । यजन्ते मांसभक्षणार्थं सुखेच्छया यागो व्याजीकृत इति भावः ॥ ३० ॥
श्लोक-३१
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वप्नोपमममुं लोकमसन्तं श्रवणप्रियम्।
आशिषो हृदि सङ्कल्प्य त्यजन्त्यर्थान् यथा वणिक्॥
मूलम्
स्वप्नोपमममुं लोकमसन्तं श्रवणप्रियम्।
आशिषो हृदि सङ्कल्प्य त्यजन्त्यर्थान् यथा वणिक्॥
अनुवाद (हिन्दी)
उद्धवजी! स्वर्गादि परलोक स्वप्नके दृश्योंके समान हैं, वास्तवमें वे असत् हैं, केवल उनकी बातें सुननेमें बहुत मीठी लगती हैं। सकाम पुरुष वहाँके भोगोंके लिये मन-ही-मन अनेकों प्रकारके संकल्प कर लेते हैं और जैसे व्यापारी अधिक लाभकी आशासे मूलधनको भी खो बैठता है, वैसे ही वे सकाम यज्ञोंद्वारा अपने धनका नाश करते हैं॥ ३१॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
एवं नास्तिकानां फलमुक्तम् अथास्तिकेष्वपि फलकामानां प्रवृत्तिं दर्शयति । स्वप्नोपममिति ॥ ३१-३२ ॥
श्लोक-३२
विश्वास-प्रस्तुतिः
रजःसत्त्वतमोनिष्ठा रजःसत्त्वतमोजुषः।
उपासत इन्द्रमुख्यान् देवादीन् न तथैव माम्॥
मूलम्
रजःसत्त्वतमोनिष्ठा रजःसत्त्वतमोजुषः।
उपासत इन्द्रमुख्यान् देवादीन् न तथैव माम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे स्वयं रजोगुण, सत्त्वगुण या तमोगुणमें स्थित रहते हैं और रजोगुणी, सत्त्वगुणी अथवा तमोगुणी इन्द्रादि देवताओंकी उपासना करते हैं। वे उन्हीं सामग्रियोंसे उतने ही परिश्रमसे मेरी पूजा नहीं करते॥ ३२॥
श्लोक-३३
विश्वास-प्रस्तुतिः
इष्ट्वेह देवता यज्ञैर्गत्वा रंस्यामहे दिवि।
तस्यान्त इह भूयास्म महाशाला महाकुलाः॥
मूलम्
इष्ट्वेह देवता यज्ञैर्गत्वा रंस्यामहे दिवि।
तस्यान्त इह भूयास्म महाशाला महाकुलाः॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
महाशालाः महागृहपतयः ॥ ३३-३४ ॥
श्लोक-३४
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं पुष्पितया वाचा व्याक्षिप्तमनसां नृणाम्।
मानिनां चातिस्तब्धानां मद्वार्तापि न रोचते॥
मूलम्
एवं पुष्पितया वाचा व्याक्षिप्तमनसां नृणाम्।
मानिनां चातिस्तब्धानां मद्वार्तापि न रोचते॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे जब इस प्रकारकी पुष्पिता वाणी—रंग-बिरंगी मीठी-मीठी बातें सुनते हैं कि ‘हमलोग इस लोकमें यज्ञोंके द्वारा देवताओंका यजन करके स्वर्गमें जायँगे और वहाँ दिव्य आनन्द भोगेंगे, उसके बाद जब फिर हमारा जन्म होगा, तब हम बड़े कुलीन परिवारमें पैदा होंगे, हमारे बड़े-बड़े महल होंगे और हमारा कुटुम्ब बहुत सुखी और बहुत बड़ा होगा’ तब उनका चित्त क्षुब्ध हो जाता है और उन हेकड़ी जतानेवाले घमंडियोंको मेरे सम्बन्धकी बातचीत भी अच्छी नहीं लगती॥ ३३-३४॥
श्लोक-३५
विश्वास-प्रस्तुतिः
वेदा ब्रह्मात्मविषयास्त्रिकाण्डविषया इमे।
परोक्षवादा ऋषयः परोक्षं मम च प्रियम्॥
मूलम्
वेदा ब्रह्मात्मविषयास्त्रिकाण्डविषया इमे।
परोक्षवादा ऋषयः परोक्षं मम च प्रियम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
उद्धवजी! वेदोंमें तीन काण्ड हैं—कर्म, उपासना और ज्ञान। इन तीनों काण्डोंके द्वारा प्रतिपादित विषय है ब्रह्म और आत्माकी एकता, सभी मन्त्र और मन्त्र-द्रष्टा ऋषि इस विषयको खोलकर नहीं, गुप्तभावसे बतलाते हैं और मुझे भी इस बातको गुप्तरूपसे कहना ही अभीष्ट है*॥ ३५॥
पादटिप्पनी
- क्योंकि सब लोग इसके अधिकारी नहीं हैं, अन्तःकरण शुद्ध होनेपर ही यह बात समझमें आती है।
श्रीसुदर्शनसूरिः
वेदा इति । वेदाः कार्त्स्न्येन सर्वान्तरात्मभूतब्रह्मविषयाः अथापि त्रिकाण्डविषया इव इमे कर्मकाण्डदेवताकाण्डज्ञानकाण्डरूपावच्छेदवन्त इति प्रतिभान्तीत्यर्थः । ऋषयः वेदाः परोक्षवादाः दुरवगमवाक्यवृत्तयः ॥ ३५ ॥
श्लोक-३६
विश्वास-प्रस्तुतिः
शब्दब्रह्म सुदुर्बोधं प्राणेन्द्रियमनोमयम्।
अनन्तपारं गम्भीरं दुर्विगाह्यं समुद्रवत्॥
मूलम्
शब्दब्रह्म सुदुर्बोधं प्राणेन्द्रियमनोमयम्।
अनन्तपारं गम्भीरं दुर्विगाह्यं समुद्रवत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
वेदोंका नाम है शब्दब्रह्म। वे मेरी मूर्त्ति हैं, इसीसे उनका रहस्य समझना अत्यन्त कठिन है। वह शब्दब्रह्म परा, पश्यन्ती और मध्यमा वाणीके रूपमें प्राण, मन और इन्द्रियमय है। समुद्रके समान सीमारहित और गहरा है। उसकी थाह लगाना अत्यन्त कठिन है। (इसीसे जैमिनि आदि बड़े-बड़े विद्वान् भी उसके तात्पर्यका ठीक-ठीक निर्णय नहीं कर पाते)॥ ३६॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
वेदोच्चारणसिध्यर्थं शब्दतत्त्वं प्रपञ्चयति । शब्दब्रह्मेति । शब्द एव ब्रह्म प्रपञ्चनाय बृहत्त्वयोगात् ब्रह्मेत्युक्तं सुदुर्बोधस्वरूपं प्राणेन्द्रियमनोमयं सम्बन्धमात्रे मयट् मनःप्राणसहकृतवागिन्द्रियोच्चार्य गम्भीरं दुरवगमार्थं दुर्विगाह्यं युक्तिभिरपि निरूपयितुमशक्त्यार्थम् ॥ ३६ ॥
श्लोक-३७
विश्वास-प्रस्तुतिः
मयोपबृंहितं भूम्ना ब्रह्मणानन्तशक्तिना।
भूतेषु घोषरूपेण बिसेषूर्णेव लक्ष्यते॥
मूलम्
मयोपबृंहितं भूम्ना ब्रह्मणानन्तशक्तिना।
भूतेषु घोषरूपेण बिसेषूर्णेव लक्ष्यते॥
अनुवाद (हिन्दी)
उद्धव! मैं अनन्त-शक्ति-सम्पन्न एवं स्वयं अनन्त ब्रह्म हूँ। मैंने ही वेदवाणीका विस्तार किया है। जैसे कमलनालमें पतला-सा सूत होता है, वैसे ही वह वेदवाणी प्राणियोंके अन्तःकरणमें अनाहतनादके रूपमें प्रकट होती है॥ ३७॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
उपबृहितं विस्तारिते घोषरूपेण कर्णौ पिधाय श्रूयमाणेन घोषरूपेण ॥ ३७ ॥
श्लोक-३८
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथोर्णनाभिर्हृदयादूर्णामुद्वमते मुखात्।
आकाशाद् घोषवान् प्राणो मनसा स्पर्शरूपिणा॥
मूलम्
यथोर्णनाभिर्हृदयादूर्णामुद्वमते मुखात्।
आकाशाद् घोषवान् प्राणो मनसा स्पर्शरूपिणा॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
आकाशादिति घोषेण सह वर्त्तमानः प्राणः स्पर्शरूपिणा मनसा स्पर्शसंयोगविशिष्टेन मनसा सह कृतः ॥ ३८ ॥
श्लोक-३९
विश्वास-प्रस्तुतिः
छन्दोमयोऽमृतमयः सहस्रपदवीं प्रभुः।
ओङ्काराद् व्यञ्जितस्पर्शस्वरोष्मान्तःस्थभूषिताम्॥
मूलम्
छन्दोमयोऽमृतमयः सहस्रपदवीं प्रभुः।
ओङ्काराद् व्यञ्जितस्पर्शस्वरोष्मान्तःस्थभूषिताम्॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
छन्दोमय इति श्रुतिसिद्धवैभवः अमृतस्थायी प्राणः सृजतीत्यन्वयः ओङ्काराद्व्यञ्जितस्य शान्तस्य प्रकृतिलीनस्येति प्रकारेण प्रणवप्रकृतिभूताकाराद्व्यञ्जिताः कादयो मावसानाः स्पर्शाः अचः स्वराः शषसहा ऊष्माणः यरलवाः अन्तस्थाः ॥ ३९ ॥
श्लोक-४०
विश्वास-प्रस्तुतिः
विचित्रभाषाविततां छन्दोभिश्चतुरुत्तरैः।
अनन्तपारां बृहतीं सृजत्याक्षिपते स्वयम्॥
मूलम्
विचित्रभाषाविततां छन्दोभिश्चतुरुत्तरैः।
अनन्तपारां बृहतीं सृजत्याक्षिपते स्वयम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् हिरण्यगर्भ स्वयं वेदमूर्ति एवं अमृतमय हैं। उनकी उपाधि है प्राण और स्वयं अनाहत शब्दके द्वारा ही उनकी अभिव्यक्ति हुई है। जैसे मकड़ी अपने हृदयसे मुखद्वारा जाला उगलती और फिर निगल लेती है, वैसे ही वे स्पर्श आदि वर्णोंका संकल्प करनेवाले मनरूप निमित्तकारणके द्वारा हृदयाकाशसे अनन्त अपार अनेकों मार्गोंवाली वैखरीरूप वेदवाणीको स्वयं ही प्रकट करते हैं और फिर उसे अपनेमें लीन कर लेते हैं। वह वाणी हृद्गत सूक्ष्म ओंकारके द्वारा अभिव्यक्त स्पर्श (‘क’ से लेकर ‘म’ तक-२५),स्वर ( ‘अ’ से ‘औ’ तक-९), ऊष्मा (श, ष, स, ह) और अन्तःस्थ (य, र, ल, व)—इन वर्णोंसे विभूषित है। उसमें ऐसे छन्द हैं, जिनमें उत्तरोत्तर चार-चार वर्ण बढ़ते जाते हैं और उनके द्वारा विचित्र भाषाके रूपमें वह विस्तृत हुई है॥ ३८—४०॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
छन्दोभिश्चतुरुत्तरैश्चतुरुत्तराधिकैः गायत्र्यादिषु छन्दस्सु पूर्वपूर्वच्छन्दोपेक्षया उत्तरोत्तरच्छन्दः एकैकस्मिन्पादे एकैकाक्षरवृद्ध्या चतुरुत्तराधिकं भवति तैरित्यर्थः । बृहतीं बृहत्त्ववतीम् आक्षिपते प्राणः स्वव्यापारोपरमेणानभिव्यक्तां करोति ॥ ४०-४२ ॥
श्लोक-४१
विश्वास-प्रस्तुतिः
गायत्र्युष्णिगनुष्टुप् च बृहती पङ्क्तिरेव च।
त्रिष्टुब्जगत्यतिच्छन्दो ह्यत्यष्ट्यतिजगद् विराट्॥
मूलम्
गायत्र्युष्णिगनुष्टुप् च बृहती पङ्क्तिरेव च।
त्रिष्टुब्जगत्यतिच्छन्दो ह्यत्यष्ट्यतिजगद् विराट्॥
अनुवाद (हिन्दी)
(चार-चार अधिक वर्णोंवाले छन्दोंमेंसे कुछ ये हैं—) गायत्री, उष्णिक्, अनुष्टुप्, बृहती, पंक्ति, त्रिष्टुप्, जगती, अतिच्छन्द, अत्यष्टि, अतिजगती और विराट्॥ ४१॥
श्लोक-४२
विश्वास-प्रस्तुतिः
किं विधत्ते किमाचष्टे किमनूद्य विकल्पयेत्।
इत्यस्या हृदयं लोके नान्यो मद् वेद कश्चन॥
मूलम्
किं विधत्ते किमाचष्टे किमनूद्य विकल्पयेत्।
इत्यस्या हृदयं लोके नान्यो मद् वेद कश्चन॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह वेदवाणी कर्मकाण्डमें क्या विधान करती है, उपासनाकाण्डमें किन देवताओंका वर्णन करती है और ज्ञानकाण्डमें किन प्रतीतियोंका अनुवाद करके उनमें अनेकों प्रकारके विकल्प करती है—इन बातोंको इस सम्बन्धमें श्रुतिके रहस्यको मेरे अतिरिक्त और कोई नहीं जानता॥ ४२॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
किमनूद्य कर्म विधते किन्तत्त्वमाचष्टे इत्यर्थः । विकल्पयेदित्युपलक्षणं किम्विकल्पेन विधत्ते किं समुच्चित्य विधत्ते किंसामान्यतो विधत्ते किञ्चापवर्ग इति वार्थः मत् अस्मत्तः ॥ ४२ ॥
श्लोक-४३
विश्वास-प्रस्तुतिः
मां विधत्तेऽभिधत्ते मां विकल्प्यापोह्यते त्वहम्।
एतावान् सर्ववेदार्थः शब्द आस्थाय मां भिदाम्।
मायामात्रमनूद्यान्ते प्रतिषिध्य प्रसीदति॥
मूलम्
मां विधत्तेऽभिधत्ते मां विकल्प्यापोह्यते त्वहम्।
एतावान् सर्ववेदार्थः शब्द आस्थाय मां भिदाम्।
मायामात्रमनूद्यान्ते प्रतिषिध्य प्रसीदति॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं तुम्हें स्पष्ट बतला देता हूँ, सभी श्रुतियाँ कर्मकाण्डमें मेरा ही विधान करती हैं, उपासनाकाण्डमें उपास्य देवताओंके रूपमें वे मेरा ही वर्णन करती हैं और ज्ञानकाण्डमें आकाशादिरूपसे मुझमें ही अन्य वस्तुओंका आरोप करके उनका निषेध कर देती हैं। सम्पूर्ण श्रुतियोंका बस, इतना ही तात्पर्य है कि वे मेरा आश्रय लेकर मुझमें भेदका आरोप करती हैं, मायामात्र कहकर उसका अनुवाद करती हैं और अन्तमें सबका निषेध करके मुझमें ही शान्त हो जाती हैं और केवल अधिष्ठानरूपसे मैं ही शेष रह जाता हूँ॥ ४३॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
मां विधत्ते मदाराधनरूपं कर्म विधत्ते विचष्टे मां मां तत्त्वं विचष्टे विकल्प्य ब्रीहियवादिरूपो ऽहमेव विकल्पेन प्रतिपादित इत्यर्थः । अहं व्यपोह्यते व्यपोह्यमानमपि वस्तु मदात्मकमित्यर्थः । शब्दो वेदः मां परमार्थरूपमाश्रित्य भिदां मायामात्रमनूद्य तत्स्वभावं जीवे प्रतिषिध्य जीवं मायाकारञ्च अन्ते काष्ठाभूते मयि प्रतिषिध्य प्रशाम्यति सर्वतत्वविलक्षणमत्प्रतिपादनेन पर्यवसितव्यापारो भवतीत्यर्थः ॥ ४३ ॥
इति श्रीमद्भागवतव्याख्याने एकादशस्कन्धीये श्रीसुदर्शनसूरिकृतशुकपक्षीये एकविंशोऽध्यायः ॥ ११ ॥
अनुवाद (समाप्ति)
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायामेकादशस्कन्धे एकविंशोऽध्यायः॥ २१॥