२०

[विंशोऽध्यायः]

भागसूचना

ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग

श्लोक-१

मूलम् (वचनम्)

उद्धव उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

विधिश्च प्रतिषेधश्च निगमो हीश्वरस्य ते।
अवेक्षतेऽरविन्दाक्ष गुणं दोषं च कर्मणाम्॥

मूलम्

विधिश्च प्रतिषेधश्च निगमो हीश्वरस्य ते।
अवेक्षतेऽरविन्दाक्ष गुणं दोषं च कर्मणाम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

उद्धवजीने कहा—कमलनयन श्रीकृष्ण! आप सर्वशक्तिमान् हैं। आपकी आज्ञा ही वेद है; उसमें कुछ कर्मोंको करनेकी विधि है और कुछके करनेका निषेध है। यह विधि-निषेध कर्मोंके गुण और दोषकी परीक्षा करके ही तो होता है॥ १॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

ते निगमः त्वच्छासनरूपविधिनिषेधात्मकशास्त्रवाक्यं स्वर्गं नरकमेव चेति तव निगमः अपेक्षत इत्यन्वयः ॥ १-२ ॥

श्लोक-२

विश्वास-प्रस्तुतिः

वर्णाश्रमविकल्पं च प्रतिलोमानुलोमजम्।
द्रव्यदेशवयः कालान् स्वर्गं नरकमेव च॥

मूलम्

वर्णाश्रमविकल्पं च प्रतिलोमानुलोमजम्।
द्रव्यदेशवयः कालान् स्वर्गं नरकमेव च॥

अनुवाद (हिन्दी)

वर्णाश्रम-भेद, प्रतिलोम और अनुलोमरूप वर्णसंकर, कर्मोंके उपयुक्त और अनुपयुक्त द्रव्य, देश, आयु और काल तथा स्वर्ग और नरकके भेदोंका बोध भी वेदोंसे ही होता हैै॥ २॥

श्लोक-३

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुणदोषभिदादृष्टिमन्तरेण वचस्तव।
निःश्रेयसं कथं नॄणां निषेधविधिलक्षणम्॥

मूलम्

गुणदोषभिदादृष्टिमन्तरेण वचस्तव।
निःश्रेयसं कथं नॄणां निषेधविधिलक्षणम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसमें सन्देह नहीं कि आपकी वाणी ही वेद है, परन्तु उसमें विधि-निषेध ही तो भरा पड़ा है। यदि उसमें गुण और दोषमें भेद करनेवाली दृष्टि न हो, तो वह प्राणियोंका कल्याण करनेमें समर्थ ही कैसे हो?॥ ३॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

निषेधविधिलक्षणं वचः तव गुणदोषभिदादृष्टिमन्तरेण कथं निःश्रेयसं स्यात् निःश्रेयसप्रतिपादकं स्यात् ॥ ३ ॥

श्लोक-४

विश्वास-प्रस्तुतिः

पितृदेवमनुष्याणां वेदश्चक्षुस्तवेश्वर।
श्रेयस्त्वनुपलब्धेऽर्थे साध्यसाधनयोरपि॥

मूलम्

पितृदेवमनुष्याणां वेदश्चक्षुस्तवेश्वर।
श्रेयस्त्वनुपलब्धेऽर्थे साध्यसाधनयोरपि॥

अनुवाद (हिन्दी)

सर्वशक्तिमान् परमेश्वर! आपकी वाणी वेद ही पितर, देवता और मनुष्योंके लिये श्रेष्ठ मार्गदर्शकका काम करता है; क्योंकि उसीके द्वारा स्वर्ग-मोक्ष आदि अदृष्ट वस्तुओंका बोध होता है और इस लोकमें भी किसका कौन-सा साध्य है और क्या साधन—इसका निर्णय भी उसीसे होता है॥ ४॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

श्रेयसि मोक्षे साध्यसाधनयो: स्वर्गादौ तत्साधने च चक्षुर्वेद इत्यन्वयः ॥ ४ ॥

श्लोक-५

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुणदोषभिदादृष्टिर्निगमात्ते न हि स्वतः।
निगमेनापवादश्च भिदाया इति ह भ्रमः॥

मूलम्

गुणदोषभिदादृष्टिर्निगमात्ते न हि स्वतः।
निगमेनापवादश्च भिदाया इति ह भ्रमः॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभो! इसमें सन्देह नहीं कि गुण और दोषोंमें भेददृष्टि आपकी वाणी वेदके ही अनुसार है, किसीकी अपनी कल्पना नहीं; परन्तु प्रश्न तो यह है कि आपकी वाणी ही भेदका निषेध भी करती है। यह विरोध देखकर मुझे भ्रम हो रहा है। आप कृपा करके मेरा यह भ्रम मिटाइये॥ ५॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

नहि स्वतः स्वोत्प्रेक्षया न भवतीत्यर्थः । गुणेति, विधिनिषेधवशात् गुणदोषभेददोषः सिद्धः तथापि गुणदोषापवादं शृण्वतो मम चित्तं भ्राम्यतीत्यर्थः । अस्य चोद्यस्य परिहारः उपरिष्ठात् भविष्यति ॥ ५-६ ॥

श्लोक-६

मूलम् (वचनम्)

श्रीभगवानुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

योगास्त्रयो मया प्रोक्ता नृणां श्रेयोविधित्सया।
ज्ञानं कर्म च भक्तिश्च नोपायोऽन्योऽस्ति कुत्रचित्॥

मूलम्

योगास्त्रयो मया प्रोक्ता नृणां श्रेयोविधित्सया।
ज्ञानं कर्म च भक्तिश्च नोपायोऽन्योऽस्ति कुत्रचित्॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् श्रीकृष्णने कहा—प्रिय उद्धव! मैंने ही वेदोंमें एवं अन्यत्र भी मनुष्योंका कल्याण करनेके लिये अधिकारिभेदसे तीन प्रकारके योगोंका उपदेश किया है। वे हैं—ज्ञान, कर्म और भक्ति। मनुष्यके परम कल्याणके लिये इनके अतिरिक्त और कोई उपाय कहीं नहीं है॥ ६॥

श्लोक-७

विश्वास-प्रस्तुतिः

निर्विण्णानां ज्ञानयोगो न्यासिनामिह कर्मसु।
तेष्वनिर्विण्णचित्तानां कर्मयोगस्तु कामिनाम्॥

मूलम्

निर्विण्णानां ज्ञानयोगो न्यासिनामिह कर्मसु।
तेष्वनिर्विण्णचित्तानां कर्मयोगस्तु कामिनाम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

उद्धवजी! जो लोग कर्मों तथा उनके फलोंसे विरक्त हो गये हैं और उनका त्याग कर चुके हैं, वे ज्ञानयोगके अधिकारी हैं। इसके विपरीत जिनके चित्तमें कर्मों और उनके फलोंसे वैराग्य नहीं हुआ है, उनमें दुःखबुद्धि नहीं हुई है, वे सकाम व्यक्ति कर्मयोगके अधिकारी हैं॥ ७॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

निर्विण्णानामर्थाजनादिक्लेशनिर्विण्णानां पञ्चमहायज्ञादिकमन्तरेण न ज्ञानयोगसिद्धिरिह विवक्षिता वचनान्तरैकार्थ्यात् ‘ते त्वघं भुञ्जते पापाः’ इति गृह्याचारस्यावर्जनीयत्वं ह्युच्यते स्वधर्मस्थ इति कामिनामिति इदानीं फलकामित्वमिह न विवक्षितं किन्तु पूर्वकामनाप्रयुक्तकर्मानुष्ठानवासनया इदानीमपि कर्मणि श्रद्धालूनामित्यर्थः । अनिर्विण्णचित्तानाम् अर्थोपार्जनादिक्लेशसहत्वादनिर्वेदः ॥ ७ ॥

श्लोक-८

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदृच्छया मत्कथादौ जातश्रद्धस्तु यः पुमान्।
न निर्विण्णो नातिसक्तो भक्तियोगोऽस्य सिद्धिदः॥

मूलम्

यदृच्छया मत्कथादौ जातश्रद्धस्तु यः पुमान्।
न निर्विण्णो नातिसक्तो भक्तियोगोऽस्य सिद्धिदः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो पुरुष न तो अत्यन्त विरक्त है और न अत्यन्त आसक्त ही है तथा किसी पूर्वजन्मके शुभकर्मसे सौभाग्यवश मेरी लीला-कथा आदिमें उसकी श्रद्धा हो गयी है, वह भक्तियोगका अधिकारी है। उसे भक्तियोगके द्वारा ही सिद्धि मिल सकती है॥ ८॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

यदृच्छयेति । न निर्विण्णः धनार्जनादिक्लेशसहः नातिसक्तः सामग्रीसम्भवे त्वनुतिष्ठामीति प्रतिपत्तिमान् ॥ ८ ॥

श्लोक-९

विश्वास-प्रस्तुतिः

तावत् कर्माणि कुर्वीत न निर्विद्येत यावता।
मत्कथाश्रवणादौ वा श्रद्धा यावन्न जायते॥

मूलम्

तावत् कर्माणि कुर्वीत न निर्विद्येत यावता।
मत्कथाश्रवणादौ वा श्रद्धा यावन्न जायते॥

अनुवाद (हिन्दी)

कर्मके सम्बन्धमें जितने भी विधि-निषेध हैं, उनके अनुसार तभीतक कर्म करना चाहिये, जबतक कर्ममय जगत् और उससे प्राप्त होनेवाले स्वर्गादि सुखोंसे वैराग्य न हो जाय अथवा जबतक मेरी लीला-कथाके श्रवण-कीर्तन आदिमें श्रद्धा न हो जाय॥ ९॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

तावत्कर्माणीति । बह्वर्थायाससाध्यकर्माणि विवक्षितानि सर्वावस्थास्वपि पञ्चमहायज्ञादीनामपरित्याज्यत्वात् स्वधर्मस्थ इत्युच्यते ॥ ९ ॥

श्लोक-१०

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वधर्मस्थो यजन् यज्ञैरनाशीः काम उद्धव।
न याति स्वर्गनरकौ यद्यन्यन्न समाचरेत्॥

मूलम्

स्वधर्मस्थो यजन् यज्ञैरनाशीः काम उद्धव।
न याति स्वर्गनरकौ यद्यन्यन्न समाचरेत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

उद्धव! इस प्रकार अपने वर्ण और आश्रमके अनुकूल धर्ममें स्थित रहकर यज्ञोंके द्वारा बिना किसी आशा और कामनाके मेरी आराधना करता रहे और निषिद्ध कर्मोंसे दूर रहकर केवल विहित कर्मोंका ही आचरण करे तो उसे स्वर्ग या नरकमें नहीं जाना पड़ता॥ १०॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

स्वधर्मस्य इति सन्ध्योपासनाद्याचारनिष्ठा ॥ १० ॥

श्लोक-११

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस्मिल्ँलोके वर्तमानः स्वधर्मस्थोऽनघः शुचिः।
ज्ञानं विशुद्धमाप्नोति मद‍्भक्तिं वा यदृच्छया॥

मूलम्

अस्मिल्ँलोके वर्तमानः स्वधर्मस्थोऽनघः शुचिः।
ज्ञानं विशुद्धमाप्नोति मद‍्भक्तिं वा यदृच्छया॥

अनुवाद (हिन्दी)

अपने धर्ममें निष्ठा रखनेवाला पुरुष इस शरीरमें रहते-रहते ही निषिद्ध कर्मका परित्याग कर देता है और रागादि मलोंसे भी मुक्त—पवित्र हो जाता है। इसीसे अनायास ही उसे आत्मसाक्षात्काररूप विशुद्ध तत्त्वज्ञान अथवा द्रुत-चित्त होनेपर मेरी भक्ति प्राप्त होती है॥ ११॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

अनघः निषिद्धान्निवृत्तः शुचिः ज्ञानं मद्भक्तिं चेति ज्ञानविपाकमनपेक्ष्य प्रथमत एव मद्भक्तिमाप्नोतीत्यर्थः ॥ ११ ॥

श्लोक-१२

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वर्गिणोऽप्येतमिच्छन्ति लोकं निरयिणस्तथा।
साधकं ज्ञानभक्तिभ्यामुभयं तदसाधकम्॥

मूलम्

स्वर्गिणोऽप्येतमिच्छन्ति लोकं निरयिणस्तथा।
साधकं ज्ञानभक्तिभ्यामुभयं तदसाधकम्॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

ज्ञानभक्तिभ्यां पुरुषार्थसाधकं लोकमिच्छन्तीत्यन्वयः ! उभयं स्वर्गनरकम् ॥ १२ ॥

श्लोक-१३

विश्वास-प्रस्तुतिः

न नरः स्वर्गतिं कांक्षेन्नारकीं वा विचक्षणः।
नेमं लोकं च कांक्षेत देहावेशात् प्रमाद्यति॥

मूलम्

न नरः स्वर्गतिं कांक्षेन्नारकीं वा विचक्षणः।
नेमं लोकं च कांक्षेत देहावेशात् प्रमाद्यति॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह विधि-निषेधरूप कर्मका अधिकारी मनुष्य-शरीर बहुत ही दुर्लभ है। स्वर्ग और नरक दोनों ही लोकोंमें रहनेवाले जीव इसकी अभिलाषा करते रहते हैं; क्योंकि इसी शरीरमें अन्तःकरणकी शुद्धि होनेपर ज्ञान अथवा भक्तिकी प्राप्ति हो सकती है, स्वर्ग अथवा नरकका भोगप्रधान शरीर किसी भी साधनके उपयुक्त नहीं है। बुद्धिमान् पुरुषको न तो स्वर्गकी अभिलाषा करनी चाहिये और न नरककी ही। और तो क्या, इस मनुष्य-शरीरकी भी कामना न करनी चाहिये; क्योंकि किसी भी शरीरमें गुणबुद्धि और अभिमान हो जानेसे अपने वास्तविक स्वरूपकी प्राप्तिके साधनमें प्रमाद होने लगता है॥ १२-१३॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

नारकींवेति नारकीमिवेति भावः ॥ १३ ॥

श्लोक-१४

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतद् विद्वान् पुरा मृत्योरभवाय घटेत सः।
अप्रमत्त इदं ज्ञात्वा मर्त्यमप्यर्थसिद्धिदम्॥

मूलम्

एतद् विद्वान् पुरा मृत्योरभवाय घटेत सः।
अप्रमत्त इदं ज्ञात्वा मर्त्यमप्यर्थसिद्धिदम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

यद्यपि यह मनुष्य-शरीर है तो मृत्युग्रस्त ही, परन्तु इसके द्वारा परमार्थकी—सत्य वस्तुकी प्राप्ति हो सकती है। बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि यह बात जानकर मृत्यु होनेके पूर्व ही सावधान होकर ऐसी साधना कर ले, जिससे वह जन्म-मृत्युके चक्करसे सदाके लिये छूट जाय—मुक्त हो जाय॥ १४॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

मृत्योः पुरा तत्क्षणात् प्रागेव अभवाय मोक्षाय ॥ १४ ॥

श्लोक-१५

विश्वास-प्रस्तुतिः

छिद्यमानं यमैरेतैः कृतनीडं वनस्पतिम्।
खगः स्वकेतमुत्सृज्य क्षेमं याति ह्यलम्पटः॥

मूलम्

छिद्यमानं यमैरेतैः कृतनीडं वनस्पतिम्।
खगः स्वकेतमुत्सृज्य क्षेमं याति ह्यलम्पटः॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह शरीर एक वृक्ष है। इसमें घोंसला बनाकर जीवरूप पक्षी निवास करता है। इसे यमराजके दूत प्रतिक्षण काट रहे हैं। जैसे पक्षी कटते हुए वृक्षको छोड़कर उड़ जाता है, वैसे ही अनासक्त जीव भी इस शरीरको छोड़कर मोक्षका भागी बन जाता है। परन्तु आसक्त जीव दुःख ही भोगता रहता है॥ १५॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

इदं शरीरं कृतनीडं कृतकृत्यघ्ननीडं वनस्पतिं शरीरं खगः पक्षितुल्यः जीवः अलम्पटः निष्कामः ॥ १५-२० ॥

श्लोक-१६

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहोरात्रैश्छिद्यमानं बुद्‍ध्वाऽऽयुर्भयवेपथुः।
मुक्तसङ्गः परं बुद्‍ध्वा निरीह उपशाम्यति॥

मूलम्

अहोरात्रैश्छिद्यमानं बुद्‍ध्वाऽऽयुर्भयवेपथुः।
मुक्तसङ्गः परं बुद्‍ध्वा निरीह उपशाम्यति॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रिय उद्धव! ये दिन और रात क्षण-क्षणमें शरीरकी आयुको क्षीण कर रहे हैं। यह जानकर जो भयसे काँप उठता है, वह व्यक्ति इसमें आसक्ति छोड़कर परमतत्त्वका ज्ञान प्राप्त कर लेता है और फिर इसके जीवन-मरणसे निरपेक्ष होकर अपने आत्मामें ही शान्त हो जाता है॥ १६॥

श्लोक-१७

विश्वास-प्रस्तुतिः

नृदेहमाद्यं सुलभं सुदुर्लभं
प्लवं सुकल्पं गुरुकर्णधारम्।
मयानुकूलेन नभस्वतेरितं
पुमान् भवाब्धिं न तरेत् स आत्महा॥

मूलम्

नृदेहमाद्यं सुलभं सुदुर्लभं
प्लवं सुकल्पं गुरुकर्णधारम्।
मयानुकूलेन नभस्वतेरितं
पुमान् भवाब्धिं न तरेत् स आत्महा॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह मनुष्य-शरीर समस्त शुभ फलोंकी प्राप्तिका मूल है और अत्यन्त दुर्लभ होनेपर भी अनायास सुलभ हो गया है। इस संसार-सागरसे पार जानेके लिये यह एक सुदृढ़ नौका है। शरण-ग्रहणमात्रसे ही गुरुदेव इसके केवट बनकर पतवारका संचालन करने लगते हैं और स्मरणमात्रसे ही मैं अनुकूल वायुके रूपमें इसे लक्ष्यकी ओर बढ़ाने लगता हूँ। इतनी सुविधा होनेपर भी जो इस शरीरके द्वारा संसार-सागरसे पार नहीं हो जाता, वह तो अपने हाथों अपने आत्माका हनन—अधःपतन कर रहा है॥ १७॥

श्लोक-१८

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदाऽऽरम्भेषु निर्विण्णो विरक्तः संयतेन्द्रियः।
अभ्यासेनात्मनो योगी धारयेदचलं मनः॥

मूलम्

यदाऽऽरम्भेषु निर्विण्णो विरक्तः संयतेन्द्रियः।
अभ्यासेनात्मनो योगी धारयेदचलं मनः॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रिय उद्धव! जब पुरुष दोषदर्शनके कारण कर्मोंसे उद्विग्न और विरक्त हो जाय, तब जितेन्द्रिय होकर वह योगमें स्थित हो जाय और अभ्यास—आत्मानुसन्धानके द्वारा अपना मन मुझ परमात्मामें निश्चलरूपसे धारण करे॥ १८॥

श्लोक-१९

विश्वास-प्रस्तुतिः

धार्यमाणं मनो यर्हि भ्राम्यदाश्वनवस्थितम्।
अतन्द्रितोऽनुरोधेन मार्गेणात्मवशं नयेत्॥

मूलम्

धार्यमाणं मनो यर्हि भ्राम्यदाश्वनवस्थितम्।
अतन्द्रितोऽनुरोधेन मार्गेणात्मवशं नयेत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब स्थिर करते समय मन चंचल होकर इधर-उधर भटकने लगे, तब झटपट बड़ी सावधानीसे उसे मनाकर, समझा-बुझाकर, फुसलाकर अपने वशमें कर ले॥ १९॥

श्लोक-२०

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनोगतिं न विसृजेज्जितप्राणो जितेन्द्रियः।
सत्त्वसम्पन्नया बुद्ध्या मन आत्मवशं नयेत्॥

मूलम्

मनोगतिं न विसृजेज्जितप्राणो जितेन्द्रियः।
सत्त्वसम्पन्नया बुद्ध्या मन आत्मवशं नयेत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन्द्रियों और प्राणोंको अपने वशमें रखे और मनको एक क्षणके लिये भी स्वतन्त्र न छोड़े। उसकी एक-एक चाल, एक-एक हरकतको देखता रहे। इस प्रकार सत्त्वसम्पन्न बुद्धिके द्वारा धीरे-धीरे मनको अपने वशमें कर लेना चाहिये॥ २०॥

श्लोक-२१

विश्वास-प्रस्तुतिः

एष वै परमो योगो मनसः संग्रहः स्मृतः।
हृदयज्ञत्वमन्विच्छन् दम्यस्येवार्वतो मुहुः॥

मूलम्

एष वै परमो योगो मनसः संग्रहः स्मृतः।
हृदयज्ञत्वमन्विच्छन् दम्यस्येवार्वतो मुहुः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे सवार घोड़ेको अपने वशमें करते समय उसे अपने मनोभावकी पहचान कराना चाहता है—अपनी इच्छाके अनुसार उसे चलाना चाहता है और बार-बार फुसलाकर उसे अपने वशमें कर लेता है, वैसे ही मनको फुसलाकर, उसे मीठी-मीठी बातें सुना-कर वशमें कर लेना भी परम योग है॥ २१॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

हृदयज्ञत्वस्वमनोभिप्रायवेदितृत्वं मनः क्रुध्यति असूयते उत्पथं गन्तुमिच्छति शाम्यतीत्येवमालोचनगम्यस्प्रबलीवर्दस्य उत्पत्तिप्रतिलोमक्रमेणान्वयः ॥२२॥

श्लोक-२२

विश्वास-प्रस्तुतिः

सांख्येन सर्वभावानां प्रतिलोमानुलोमतः।
भवाप्ययावनुध्यायेन्मनो यावत् प्रसीदति॥

मूलम्

सांख्येन सर्वभावानां प्रतिलोमानुलोमतः।
भवाप्ययावनुध्यायेन्मनो यावत् प्रसीदति॥

अनुवाद (हिन्दी)

सांख्यशास्त्रमें प्रकृतिसे लेकर शरीरपर्यन्त सृष्टिका जो क्रम बतलाया गया है, उसके अनुसार सृष्टि-चिन्तन करना चाहिये और जिस क्रमसे शरीर आदिका प्रकृतिमें लय बताया गया है, उस प्रकार लय-चिन्तन करना चाहिये। यह क्रम तबतक जारी रखना चाहिये, जबतक मन शान्त—स्थिर न हो जाय॥ २२॥

श्लोक-२३

विश्वास-प्रस्तुतिः

निर्विण्णस्य विरक्तस्य पुरुषस्योक्तवेदिनः।
मनस्त्यजति दौरात्म्यं चिन्तितस्यानुचिन्तया॥

मूलम्

निर्विण्णस्य विरक्तस्य पुरुषस्योक्तवेदिनः।
मनस्त्यजति दौरात्म्यं चिन्तितस्यानुचिन्तया॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो पुरुष संसारसे विरक्त हो गया है और जिसे संसारके पदार्थोंमें दुःख-बुद्धि हो गयी है, वह अपने गुरुजनोंके उपदेशको भलीभाँति समझकर बार-बार अपने स्वरूपके ही चिन्तनमें संलग्न रहता है। इस अभ्याससे बहुत शीघ्र ही उसका मन अपनी वह चंचलता, जो अनात्मा शरीर आदिमें आत्मबुद्धि करनेसे हुई है, छोड़ देता है॥ २३॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

सृष्टिः प्रलयादेः चिन्तितस्यानुचिन्तनं भूयोभूयोवासना ॥ २३ ॥

श्लोक-२४

विश्वास-प्रस्तुतिः

यमादिभिर्योगपथैरान्वीक्षिक्या च विद्यया।
ममार्चोपासनाभिर्वा नान्यैर्योग्यं स्मरेन्मनः॥

मूलम्

यमादिभिर्योगपथैरान्वीक्षिक्या च विद्यया।
ममार्चोपासनाभिर्वा नान्यैर्योग्यं स्मरेन्मनः॥

अनुवाद (हिन्दी)

यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि आदि योगमार्गोंसे, वस्तुतत्त्वका निरीक्षण-परीक्षण करनेवाली आत्मविद्यासे तथा मेरी प्रतिमाकी उपासनासे—अर्थात् कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोगसे मन परमात्माका चिन्तन करने लगता है; और कोई उपाय नहीं है॥ २४॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

न स्मरत न बुध्येत् ॥२४-२५॥

श्लोक-२५

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदि कुर्यात् प्रमादेन योगी कर्म विगर्हितम्।
योगेनैव दहेदंहो नान्यत्तत्र कदाचन॥

मूलम्

यदि कुर्यात् प्रमादेन योगी कर्म विगर्हितम्।
योगेनैव दहेदंहो नान्यत्तत्र कदाचन॥

अनुवाद (हिन्दी)

उद्धवजी! वैसे तो योगी कभी कोई निन्दित कर्म करता ही नहीं; परन्तु यदि कभी उससे प्रमादवश कोई अपराध बन जाय तो योगके द्वारा ही उस पापको जला डाले, कृच्छ्र-चान्द्रायण आदि दूसरे प्रायश्चित्त कभी न करे॥ २५॥

श्लोक-२६

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वे स्वेऽधिकारे या निष्ठा स गुणः परिकीर्तितः।
कर्मणां जात्यशुद्धानामनेन नियमः कृतः।
गुणदोषविधानेन सङ्गानां त्याजनेच्छया॥

मूलम्

स्वे स्वेऽधिकारे या निष्ठा स गुणः परिकीर्तितः।
कर्मणां जात्यशुद्धानामनेन नियमः कृतः।
गुणदोषविधानेन सङ्गानां त्याजनेच्छया॥

अनुवाद (हिन्दी)

अपने-अपने अधिकारमें जो निष्ठा है, वही गुण कहा गया है। इस गुण-दोष और विधि-निषेधके विधानसे यही तात्पर्य निकलता है कि किसी प्रकार विषयासक्तिका परित्याग हो जाय; क्योंकि कर्म तो जन्मसे ही अशुद्ध हैं, अनर्थके मूल हैं। शास्त्रका तात्पर्य उनका नियन्त्रण, नियम ही है। जहाँतक हो सके प्रवृत्तिका संकोच ही करना चाहिये॥ २६॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

स्वे स्वे वर्णाश्रमानुरूपे जात्या शुद्धानां स्वतः शुद्धानां गुणदोषविधानेन निष्कामसकामत्वप्रतिपादने नियमः कृतः व्यवस्था कृता ॥ २६ ॥

श्लोक-२७

विश्वास-प्रस्तुतिः

जातश्रद्धो मत्कथासु निर्विण्णः सर्वकर्मसु।
वेद दुःखात्मकान् कामान् परित्यागेऽप्यनीश्वरः॥

मूलम्

जातश्रद्धो मत्कथासु निर्विण्णः सर्वकर्मसु।
वेद दुःखात्मकान् कामान् परित्यागेऽप्यनीश्वरः॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

सङ्गानां काम्यकर्मश्रद्धानां त्याज्यने छाया इन्द्रियजयात्यवस्थस्यापि भगवत्सत्तया इन्द्रियजयातिसिद्धिमाह- जातश्रद्ध इत्यादिभिः ॥ २७-३२ ॥

श्लोक-२८

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो भजेत मां प्रीतः श्रद्धालुर्दृढनिश्चयः।
जुषमाणश्च तान् कामान् दुःखोदर्कांश्च गर्हयन्॥

मूलम्

ततो भजेत मां प्रीतः श्रद्धालुर्दृढनिश्चयः।
जुषमाणश्च तान् कामान् दुःखोदर्कांश्च गर्हयन्॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो साधक समस्त कर्मोंसे विरक्त हो गया हो, उनमें दुःखबुद्धि रखता हो, मेरी लीलाकथाके प्रति श्रद्धालु हो और यह भी जानता हो कि सभी भोग और भोगवासनाएँ दुःखरूप हैं, किन्तु इतना सब जानकर भी जो उनके परित्यागमें समर्थ न हो, उसे चाहिये कि उन भोगोंको तो भोग ले; परन्तु उन्हें सच्चे हृदयसे दुःखजनक समझे और मन-ही-मन उनकी निन्दा करे तथा उसे अपना दुर्भाग्य ही समझे। साथ ही इस दुविधाकी स्थितिसे छुटकारा पानेके लिये श्रद्धा, दृढ़ निश्चय और प्रेमसे मेरा भजन करे॥ २७-२८॥

श्लोक-२९

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रोक्तेन भक्तियोगेन भजतो मासकृन्मुनेः।
कामा हृदय्या नश्यन्ति सर्वे मयि हृदि स्थिते॥

मूलम्

प्रोक्तेन भक्तियोगेन भजतो मासकृन्मुनेः।
कामा हृदय्या नश्यन्ति सर्वे मयि हृदि स्थिते॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार मेरे बतलाये हुए भक्तियोगके द्वारा निरन्तर मेरा भजन करनेसे मैं उस साधकके हृदयमें आकर बैठ जाता हूँ और मेरे विराजमान होते ही उसके हृदयकी सारी वासनाएँ अपने संस्कारोंके साथ नष्ट हो जाती हैं॥ २९॥

श्लोक-३०

विश्वास-प्रस्तुतिः

भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः।
क्षीयन्ते चास्य कर्माणि मयि दृष्टेऽखिलात्मनि॥

मूलम्

भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः।
क्षीयन्ते चास्य कर्माणि मयि दृष्टेऽखिलात्मनि॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस तरह जब उसे मुझ सर्वात्माका साक्षात्कार हो जाता है, तब तो उसके हृदयकी गाँठ टूट जाती है, उसके सारे संशय छिन्न-भिन्न हो जाते हैं और कर्म-वासनाएँ सर्वथा क्षीण हो जाती हैं॥ ३०॥

श्लोक-३१

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मान्मद‍्भक्तियुक्तस्य योगिनो वै मदात्मनः।
न ज्ञानं न च वैराग्यं प्रायः श्रेयो भवेदिह॥

मूलम्

तस्मान्मद‍्भक्तियुक्तस्य योगिनो वै मदात्मनः।
न ज्ञानं न च वैराग्यं प्रायः श्रेयो भवेदिह॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसीसे जो योगी मेरी भक्तिसे युक्त और मेरे चिन्तनमें मग्न रहता है, उसके लिये ज्ञान अथवा वैराग्यकी आवश्यकता नहीं होती। उसका कल्याण तो प्रायः मेरी भक्तिके द्वारा ही हो जाता है॥ ३१॥

श्लोक-३२

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत् कर्मभिर्यत्तपसा ज्ञानवैराग्यतश्च यत्।
योगेन दानधर्मेण श्रेयोभिरितरैरपि॥

मूलम्

यत् कर्मभिर्यत्तपसा ज्ञानवैराग्यतश्च यत्।
योगेन दानधर्मेण श्रेयोभिरितरैरपि॥

श्लोक-३३

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वं मद‍्भक्तियोगेन मद‍्भक्तो लभतेऽञ्जसा।
स्वर्गापवर्गं मद्धाम कथञ्चिद् यदि वाञ्छति॥

मूलम्

सर्वं मद‍्भक्तियोगेन मद‍्भक्तो लभतेऽञ्जसा।
स्वर्गापवर्गं मद्धाम कथञ्चिद् यदि वाञ्छति॥

अनुवाद (हिन्दी)

कर्म, तपस्या, ज्ञान, वैराग्य, योगाभ्यास, दान, धर्म और दूसरे कल्याणसाधनोंसे जो कुछ स्वर्ग, अपवर्ग, मेरा परम धाम अथवा कोई भी वस्तु प्राप्त होती है, वह सब मेरा भक्त मेरे भक्तियोगके प्रभावसे ही, यदि चाहे तो, अनायास प्राप्त कर लेता है॥ ३२-३३॥

श्लोक-३४

विश्वास-प्रस्तुतिः

न किञ्चित् साधवो धीरा भक्ता ह्येकान्तिनो मम।
वाञ्छन्त्यपि मया दत्तं कैवल्यमपुनर्भवम्॥

मूलम्

न किञ्चित् साधवो धीरा भक्ता ह्येकान्तिनो मम।
वाञ्छन्त्यपि मया दत्तं कैवल्यमपुनर्भवम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरे अनन्यप्रेमी एवं धैर्यवान् साधु भक्त स्वयं तो कुछ चाहते ही नहीं; यदि मैं उन्हें देना चाहता हूँ और देता भी हूँ तो भी दूसरी वस्तुओंकी तो बात ही क्या—वे कैवल्य-मोक्ष भी नहीं लेना चाहते॥ ३४॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

न वाञ्छन्ति अपवर्गेच्छाविरहे भक्तेः स्वादुत्वकाष्ठा दर्शिता नत्वपवर्गैच्छाया आनर्थ्यहेतुत्वं “रक्षापेक्षां प्रतीक्षते” इति वचनान्तरानुरोधात् ॥ ३४ ॥

श्लोक-३५

विश्वास-प्रस्तुतिः

नैरपेक्ष्यं परं प्राहुर्निःश्रेयसमनल्पकम्।
तस्मान्निराशिषो भक्तिर्निरपेक्षस्य मे भवेत्॥

मूलम्

नैरपेक्ष्यं परं प्राहुर्निःश्रेयसमनल्पकम्।
तस्मान्निराशिषो भक्तिर्निरपेक्षस्य मे भवेत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

उद्धवजी! सबसे श्रेष्ठ एवं महान् निःश्रेयस (परम कल्याण) तो निरपेक्षताका ही दूसरा नाम है। इसलिये जो निष्काम और निरपेक्ष होता है, उसीको मेरी भक्ति प्राप्त होती है॥ ३५॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

मे मत्तः भक्तिप्रदोप्यहमित्यर्थः ॥ ३५ ॥

श्लोक-३६

विश्वास-प्रस्तुतिः

न मय्येकान्तभक्तानां गुणदोषोद‍्भवा गुणाः।
साधूनां समचित्तानां बुद्धेः परमुपेयुषाम्॥

मूलम्

न मय्येकान्तभक्तानां गुणदोषोद‍्भवा गुणाः।
साधूनां समचित्तानां बुद्धेः परमुपेयुषाम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरे अनन्यप्रेमी भक्तोंका और उन समदर्शी महात्माओंका; जो बुद्धिसे अतीत परमतत्त्वको प्राप्त हो चुके हैं, इन विधि और निषेधसे होनेवाले पुण्य और पापसे कोई सम्बन्ध ही नहीं होता॥ ३६॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

गुणदोषोद्भवा गुणाः गुणदोषज्ञानमात्रोद्भवा रागद्वेषादयः पृथगुपायान् येऽनुतिष्ठन्ति विदुरित्यध्याहारयोजना नरकापेक्षया स्वर्गो गुणी मतः आपेक्षिकः गुणदोषविभागः अतो विधिनिषेधशास्त्रप्रवृत्तिनिरूपकस्य तु स्वर्गो नरकमुभयमपि इष्टतममिति गुणदोषभेदापवादः कृतः भक्तियोगस्तु निरूपस्यापि गुणवत्तर इति गुणदोषभेदापवादवचनं न तद्गोचरम् अपि तु सङ्कुचितविषयमिति परिहारः फलितः ॥ ३६-३७ ॥

इति श्रीमद्भागवतव्याख्याने एकादशस्कन्धीये श्रीसुदर्शनसूरिकृतशुकपक्षीये विंशोऽध्यायः ॥ २० ॥

श्लोक-३७

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमेतान् मयाऽऽदिष्टाननुतिष्ठन्ति मे पथः।
क्षेमं विन्दन्ति मत्स्थानं यद् ब्रह्म परमं विदुः॥

मूलम्

एवमेतान् मयाऽऽदिष्टाननुतिष्ठन्ति मे पथः।
क्षेमं विन्दन्ति मत्स्थानं यद् ब्रह्म परमं विदुः॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार जो लोग मेरे बतलाये हुए इन ज्ञान, भक्ति और कर्ममार्गोंका आश्रय लेते हैं, वे मेरे परमकल्याण-स्वरूप धामको प्राप्त होते हैं, क्योंकि वे परब्रह्मतत्त्वको जान लेते हैं॥ ३७॥

अनुवाद (समाप्ति)

इति श्रीमद‍्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायामेकादशस्कन्धे विंशोऽध्यायः॥ २०॥