[एकोनविंशोऽध्यायः]
भागसूचना
भक्ति, ज्ञान और यम-नियमादि साधनोंका वर्णन
श्लोक-१
मूलम् (वचनम्)
श्रीभगवानुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
यो विद्याश्रुतसम्पन्न आत्मवान् नानुमानिकः।
मायामात्रमिदं ज्ञात्वा ज्ञानं च मयि संन्यसेत्॥
मूलम्
यो विद्याश्रुतसम्पन्न आत्मवान् नानुमानिकः।
मायामात्रमिदं ज्ञात्वा ज्ञानं च मयि संन्यसेत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं—उद्धवजी! जिसने उपनिषदादि शास्त्रोंके श्रवण, मनन और निदिध्यासनके द्वारा आत्मसाक्षात्कार कर लिया है, जो श्रोत्रिय एवं ब्रह्मनिष्ठ है, जिसका निश्चय केवल युक्तियों और अनुमानोंपर ही निर्भर नहीं करता, दूसरे शब्दोंमें—जो केवल परोक्षज्ञानी नहीं है, वह यह जानकर कि सम्पूर्ण द्वैतप्रपंच और इसकी निवृत्तिका साधन वृत्तिज्ञान मायामात्र है, उन्हें मुझमें लीन कर दे, वे दोनों ही मुझ आत्मामें अध्यस्त हैं, ऐसा जान ले॥ १॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
आनुमानिकः शास्त्राविरुद्धतर्काभिमतः इदं शरीरं मायामात्रं न त्वात्मस्वरूपं मयि संन्यसेत् मदधीनमनुसंदध्यात् ॥ १ ॥
श्लोक-२
विश्वास-प्रस्तुतिः
ज्ञानिनस्त्वहमेवेष्टः स्वार्थो हेतुश्च संमतः।
स्वर्गश्चैवापवर्गश्च नान्योऽर्थो मदृते प्रियः॥
मूलम्
ज्ञानिनस्त्वहमेवेष्टः स्वार्थो हेतुश्च संमतः।
स्वर्गश्चैवापवर्गश्च नान्योऽर्थो मदृते प्रियः॥
अनुवाद (हिन्दी)
ज्ञानी पुरुषका अभीष्ट पदार्थ मैं ही हूँ, उसके साधन-साध्य, स्वर्ग और अपवर्ग भी मैं ही हूँ, मेरे अतिरिक्त और किसी भी पदार्थसे वह प्रेम नहीं करता॥ २॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
स्वार्थं इष्टः स्वस्य पुरुषार्थायेष्टः हेतुः पुरुषार्थप्रदः ॥ २ ॥
श्लोक-३
विश्वास-प्रस्तुतिः
ज्ञानविज्ञानसंसिद्धाः पदं श्रेष्ठं विदुर्मम।
ज्ञानी प्रियतमोऽतो मे ज्ञानेनासौ बिभर्ति माम्॥
मूलम्
ज्ञानविज्ञानसंसिद्धाः पदं श्रेष्ठं विदुर्मम।
ज्ञानी प्रियतमोऽतो मे ज्ञानेनासौ बिभर्ति माम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो ज्ञान और विज्ञानसे सम्पन्न सिद्धपुरुष हैं, वे ही मेरे वास्तविक स्वरूपको जानते हैं। इसीलिये ज्ञानी पुरुष मुझे सबसे प्रिय है। उद्धवजी! ज्ञानी पुरुष अपने ज्ञानके द्वारा निरन्तर मुझे अपने अन्तःकरणमें धारण करता है॥ ३॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
मां बिभर्ति हृदये विभर्त्ति ॥ ३ ॥
श्लोक-४
विश्वास-प्रस्तुतिः
तपस्तीर्थं जपो दानं पवित्राणीतराणि च।
नालं कुर्वन्ति तां सिद्धिं या ज्ञानकलया कृता॥
मूलम्
तपस्तीर्थं जपो दानं पवित्राणीतराणि च।
नालं कुर्वन्ति तां सिद्धिं या ज्ञानकलया कृता॥
अनुवाद (हिन्दी)
तत्त्वज्ञानके लेशमात्रका उदय होनेसे जो सिद्धि प्राप्त होती है, वह तपस्या, तीर्थ, जप, दान अथवा अन्तःकरणशुद्धिके और किसी भी साधनसे पूर्णतया नहीं हो सकती॥ ४॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
नालङ्कुर्वन्ति ॥ ४-६ ॥
श्लोक-५
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्माज्ज्ञानेन सहितं ज्ञात्वा स्वात्मानमुद्धव।
ज्ञानविज्ञानसम्पन्नो भज मां भक्तिभावितः॥
मूलम्
तस्माज्ज्ञानेन सहितं ज्ञात्वा स्वात्मानमुद्धव।
ज्ञानविज्ञानसम्पन्नो भज मां भक्तिभावितः॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसलिये मेरे प्यारे उद्धव! तुम ज्ञानके सहित अपने आत्मस्वरूपको जान लो और फिर ज्ञान-विज्ञानसे सम्पन्न होकर भक्तिभावसे मेरा भजन करो॥ ५॥
श्लोक-६
विश्वास-प्रस्तुतिः
ज्ञानविज्ञानयज्ञेन मामिष्ट्वाऽऽत्मानमात्मनि।
सर्वयज्ञपतिं मां वै संसिद्धिं मुनयोऽगमन्॥
मूलम्
ज्ञानविज्ञानयज्ञेन मामिष्ट्वाऽऽत्मानमात्मनि।
सर्वयज्ञपतिं मां वै संसिद्धिं मुनयोऽगमन्॥
अनुवाद (हिन्दी)
बड़े-बड़े ऋषि-मुनियोंने ज्ञान-विज्ञानरूप यज्ञके द्वारा अपने अन्तःकरणमें मुझ सब यज्ञोंके अधिपति आत्माका यजन करके परम सिद्धि प्राप्त की है॥ ६॥
श्लोक-७
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वय्युद्धवाश्रयति यस्त्रिविधो विकारो
मायान्तराऽऽपतति नाद्यपवर्गयोर्यत्।
जन्मादयोऽस्य यदमी तव तस्य किं स्यु-
राद्यन्तयोर्यदसतोऽस्ति तदेव मध्ये॥
मूलम्
त्वय्युद्धवाश्रयति यस्त्रिविधो विकारो
मायान्तराऽऽपतति नाद्यपवर्गयोर्यत्।
जन्मादयोऽस्य यदमी तव तस्य किं स्यु-
राद्यन्तयोर्यदसतोऽस्ति तदेव मध्ये॥
अनुवाद (हिन्दी)
उद्धव! आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक—इन तीन विकारोंकी समष्टि ही शरीर है और वह सर्वथा तुम्हारे आश्रित है। यह पहले नहीं था और अन्तमें नहीं रहेगा; केवल बीचमें ही दीख रहा है। इसलिये इसे जादूके खेलके समान माया ही समझना चाहिये। इसके जो जन्मना, रहना, बढ़ना, बदलना, घटना और नष्ट होना—ये छः भावविकार हैं, इनसे तुम्हारा कोई सम्बन्ध नहीं है। यही नहीं, ये विकार उसके भी नहीं हैं; क्योंकि वह स्वयं असत् है। असत् वस्तु तो पहले नहीं थी, बादमें भी नहीं रहेगी; इसलिये बीचमें भी उसका कोई अस्तित्व नहीं होता॥ ७॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
त्वयीति । त्वयि मायान्तः प्रकृत्यन्तर्वर्त्तमाने संसारिणि त्वयि यस्त्रिविधो जन्मादिविकार आपतति आद्यपवर्गयोः शरीरसंबन्धात् पूर्वकाले तदवसानकाले च त्वयि नास्ति यतः अमी जन्मादयः अस्य शरीरस्योपलभ्यन्त इति यत्तस्मात्तव किंस्विज्जन्मादयः तव न स्युरित्यर्थः ॥ ७-९ ॥
श्लोक-८
मूलम् (वचनम्)
उद्धव उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ज्ञानं विशुद्धं विपुलं यथैत-
द्वैराग्यविज्ञानयुतं पुराणम्।
आख्याहि विश्वेश्वर विश्वमूर्ते
त्वद्भक्तियोगं च महद्विमृग्यम्॥
मूलम्
ज्ञानं विशुद्धं विपुलं यथैत-
द्वैराग्यविज्ञानयुतं पुराणम्।
आख्याहि विश्वेश्वर विश्वमूर्ते
त्वद्भक्तियोगं च महद्विमृग्यम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
उद्धवजीने कहा—विश्वरूप परमात्मन्! आप ही विश्वके स्वामी हैं। आपका यह वैराग्य और विज्ञानसे युक्त सनातन एवं विशुद्ध ज्ञान जिस प्रकार सुदृढ़ हो जाय, उसी प्रकार मुझे स्पष्ट करके समझाइये और उस अपने भक्तियोगका भी वर्णन कीजिये, जिसे ब्रह्मा आदि महापुरुष भी ढूँढ़ा करते हैं॥ ८॥
श्लोक-९
विश्वास-प्रस्तुतिः
तापत्रयेणाभिहतस्य घोरे
संतप्यमानस्य भवाध्वनीश।
पश्यामि नान्यच्छरणं तवाङ्घ्रि-
द्वन्द्वातपत्रादमृताभिवर्षात्॥
मूलम्
तापत्रयेणाभिहतस्य घोरे
संतप्यमानस्य भवाध्वनीश।
पश्यामि नान्यच्छरणं तवाङ्घ्रि-
द्वन्द्वातपत्रादमृताभिवर्षात्॥
अनुवाद (हिन्दी)
मेरे स्वामी! जो पुरुष इस संसारके विकट मार्गमें तीनों तापोंके थपेड़े खा रहे हैं और भीतर-बाहर जल-भुन रहे हैं, उनके लिये आपके अमृतवर्षी युगल चरणारविन्दोंकी छत्र-छायाके अतिरिक्त और कोई भी आश्रय नहीं दीखता॥ ९॥
श्लोक-१०
विश्वास-प्रस्तुतिः
दष्टं जनं संपतितं बिलेऽस्मिन्
कालाहिना क्षुद्रसुखोरुतर्षम्।
समुद्धरैनं कृपयाऽऽपवर्ग्यै-
र्वचोभिरासिञ्च महानुभाव॥
मूलम्
दष्टं जनं संपतितं बिलेऽस्मिन्
कालाहिना क्षुद्रसुखोरुतर्षम्।
समुद्धरैनं कृपयाऽऽपवर्ग्यै-
र्वचोभिरासिञ्च महानुभाव॥
अनुवाद (हिन्दी)
महानुभाव! आपका यह अपना सेवक अँधेरे कुएँमें पड़ा हुआ है, कालरूपी सर्पने इसे डस रखा है; फिर भी विषयोंके क्षुद्र सुख-भोगोंकी तीव्र तृष्णा मिटती नहीं, बढ़ती ही जा रही है। आप कृपा करके इसका उद्धार कीजिये और इससे मुक्त करनेवाली वाणीकी सुधा-धारासे इसे सराबोर कर दीजिये॥ १०॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
बिले संसारगर्ते अपवर्गैः करणे घञ् अपवर्गहेतुभिः ॥ १०-१३ ॥
श्लोक-११
मूलम् (वचनम्)
श्रीभगवानुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्थमेतत् पुरा राजा भीष्मं धर्मभृतां वरम्।
अजातशत्रुः पप्रच्छ सर्वेषां नोऽनुशृण्वताम्॥
मूलम्
इत्थमेतत् पुरा राजा भीष्मं धर्मभृतां वरम्।
अजातशत्रुः पप्रच्छ सर्वेषां नोऽनुशृण्वताम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् श्रीकृष्णने कहा—उद्धवजी! जो प्रश्न तुमने मुझसे किया है, यही प्रश्न धर्मराज युधिष्ठिरने धार्मिकशिरोमणि भीष्मपितामहसे किया था। उस समय हम सभी लोग वहाँ विद्यमान थे॥ ११॥
श्लोक-१२
विश्वास-प्रस्तुतिः
निवृत्ते भारते युद्धे सुहृन्निधनविह्वलः।
श्रुत्वा धर्मान् बहून् पश्चान्मोक्षधर्मानपृच्छत॥
मूलम्
निवृत्ते भारते युद्धे सुहृन्निधनविह्वलः।
श्रुत्वा धर्मान् बहून् पश्चान्मोक्षधर्मानपृच्छत॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब भारतीय महायुद्ध समाप्त हो चुका था और धर्मराज युधिष्ठिर अपने स्वजन-सम्बन्धियोंके संहारसे शोक-विह्वल हो रहे थे, तब उन्होंने भीष्मपितामहसे बहुत-से धर्मोंका विवरण सुननेके पश्चात् मोक्षके साधनोंके सम्बन्धमें प्रश्न किया था॥ १२॥
श्लोक-१३
विश्वास-प्रस्तुतिः
तानहं तेऽभिधास्यामि देवव्रतमुखाच्छ्रुतान्।
ज्ञानवैराग्यविज्ञानश्रद्धाभक्त्युपबृंहितान्॥
मूलम्
तानहं तेऽभिधास्यामि देवव्रतमुखाच्छ्रुतान्।
ज्ञानवैराग्यविज्ञानश्रद्धाभक्त्युपबृंहितान्॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय भीष्मपितामहके मुखसे सुने हुए मोक्षधर्म मैं तुम्हें सुनाऊँगा; क्योंकि वे ज्ञान, वैराग्य, विज्ञान, श्रद्धा और भक्तिके भावोंसे परिपूर्ण हैं॥ १३॥
श्लोक-१४
विश्वास-प्रस्तुतिः
नवैकादश पञ्च त्रीन् भावान् भूतेषु येन वै।
ईक्षेताथैकमप्येषु तज्ज्ञानं मम निश्चितम्॥
मूलम्
नवैकादश पञ्च त्रीन् भावान् भूतेषु येन वै।
ईक्षेताथैकमप्येषु तज्ज्ञानं मम निश्चितम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
उद्धवजी! जिस ज्ञानसे प्रकृति, पुरुष, महत्तत्त्व, अहंकार और पंचतन्मात्रा—ये नौ, पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच कर्मेन्द्रिय और एक मन—ये ग्यारह, पाँच महाभूत और तीन गुण अर्थात् इन अट्ठाईस तत्त्वोंको ब्रह्मासे लेकर तृणतक सम्पूर्ण कार्योंमें देखा जाता है और इनमें भी एक परमात्मतत्त्वको अनुगत रूपसे देखा जाता है—वह परोक्षज्ञान है, ऐसा मेरा निश्चय है॥ १४॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
शब्दस्पर्शरूपरसगन्धा विसर्गशिल्पगत्युक्तयश्च नव भावा एकादश इन्द्रियाणि पश्च महाभूतानि त्रयः सत्त्वादयो गुणाः एकं ज्ञानैकाकारमात्मवस्तु जातावेकवचनं यदेषु कारणतयानुगतं प्रकृतितवं वा ॥ १४ ॥
श्लोक-१५
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतदेव हि विज्ञानं न तथैकेन येन यत्।
स्थित्युत्पत्त्यप्ययान् पश्येद् भावानां त्रिगुणात्मनाम्॥
मूलम्
एतदेव हि विज्ञानं न तथैकेन येन यत्।
स्थित्युत्पत्त्यप्ययान् पश्येद् भावानां त्रिगुणात्मनाम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब जिस एक तत्त्वसे अनुगत एकात्मक तत्त्वोंको पहले देखता था, उनको पहलेके समान न देखे, किन्तु एक परम कारण ब्रह्मको ही देखे, तब यही निश्चित विज्ञान (अपरोक्षज्ञान) कहा जाता है। (इस ज्ञान और विज्ञानको प्राप्त करनेकी युक्ति यह है कि) यह शरीर आदि जितने भी त्रिगुणात्मक सावयव पदार्थ हैं, उनकी स्थिति, उत्पत्ति और प्रलयका विचार करे॥ १५॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
एतदेव हि विज्ञानं न तथैकेन यत् स्थितमिति तथाशब्दः पूर्वग्रन्थस्य प्रकृतिप्राकृतगोचरज्ञानप्रकारपरामर्शी एकेन विशिष्टं नान्येन अधिगोचरज्ञानविलक्षणमात्मैकगोचरं समाधिदशायां ज्ञानं विज्ञानमित्यर्थः ॥ १५ ॥
श्लोक-१६
विश्वास-प्रस्तुतिः
आदावन्ते च मध्ये च सृज्यात् सृज्यं यदन्वियात्।
पुनस्तत्प्रतिसंक्रामे यच्छिष्येत तदेव सत्॥
मूलम्
आदावन्ते च मध्ये च सृज्यात् सृज्यं यदन्वियात्।
पुनस्तत्प्रतिसंक्रामे यच्छिष्येत तदेव सत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो तत्त्ववस्तु सृष्टिके प्रारम्भमें और अन्तमें कारणरूपसे स्थित रहती है, वही मध्यमें भी रहती है और वही प्रतीयमान कार्यसे प्रतीयमान कार्यान्तरमें अनुगत भी होती है। फिर उन कार्योंका प्रलय अथवा बाध होनेपर उसके साक्षी एवं अधिष्ठान रूपसे शेष रह जाती है। वही सत्य परमार्थ वस्तु है, ऐसा समझे॥ १६॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
सृज्यात् सृज्यं शरीरात् शरीरान्तरं तत्प्रति संक्रामे शरीरप्रलये यच्छिष्यते एकरूपं स्थितं तदेवात्मस्वरूपं सत् अपरिणामि ॥ १६ ॥
श्लोक-१७
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रुतिः प्रत्यक्षमैतिह्यमनुमानं चतुष्टयम्।
प्रमाणेष्वनवस्थानाद् विकल्पात् स विरज्यते॥
मूलम्
श्रुतिः प्रत्यक्षमैतिह्यमनुमानं चतुष्टयम्।
प्रमाणेष्वनवस्थानाद् विकल्पात् स विरज्यते॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रुति, प्रत्यक्ष, ऐतिह्य (महापुरुषोंमें प्रसिद्धि) और अनुमान—प्रमाणोंमें यह चार मुख्य हैं। इनकी कसौटीपर कसनेसे दृश्य प्रपंच अस्थिर, नश्वर एवं विकारी होनेके कारण सत्य सिद्ध नहीं होता, इसलिये विवेकी पुरुष इस विविध कल्पनारूप अथवा शब्दमात्र प्रपंचसे विरक्त हो जाता है॥ १७॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
श्रुतिः वेदपूर्वभागः अनवस्थानात् अनवस्थानमस्थैर्यं दृढो निश्चयः वेदान्तव्यतिरिक्तप्रमाणेषु अन्यपरतया तत्त्वनिश्चयामाचादित्यर्थः विकल्पात्पुत्रपश्वन्नादिफलवैविध्यात् ॥ १७- १९ ॥
श्लोक-१८
विश्वास-प्रस्तुतिः
कर्मणां परिणामित्वादाविरिञ्चादमङ्गलम्।
विपश्चिन्नश्वरं पश्येददृष्टमपि दृष्टवत्॥
मूलम्
कर्मणां परिणामित्वादाविरिञ्चादमङ्गलम्।
विपश्चिन्नश्वरं पश्येददृष्टमपि दृष्टवत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
विवेकी पुरुषको चाहिये कि वह स्वर्गादि फल देनेवाले यज्ञादि कर्मोंके परिणामी—नश्वर होनेके कारण ब्रह्मलोकपर्यन्त स्वर्गादि सुख—अदृष्टको भी इस प्रत्यक्ष विषय-सुखके समान ही अमंगल, दुःखदायी एवं नाशवान् समझे॥ १८॥
श्लोक-१९
विश्वास-प्रस्तुतिः
भक्तियोगः पुरैवोक्तः प्रीयमाणाय तेऽनघ।
पुनश्च कथयिष्यामि मद्भक्तेः कारणं परम्॥
मूलम्
भक्तियोगः पुरैवोक्तः प्रीयमाणाय तेऽनघ।
पुनश्च कथयिष्यामि मद्भक्तेः कारणं परम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
निष्पाप उद्धवजी! भक्तियोगका वर्णन मैं तुम्हें पहले ही सुना चुका हूँ; परन्तु उसमें तुम्हारी बहुत प्रीति है, इसलिये मैं तुम्हें फिरसे भक्ति प्राप्त होनेका श्रेष्ठ साधन बतलाता हूँ॥ १९॥
श्लोक-२०
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रद्धामृतकथायां मे शश्वन्मदनुकीर्तनम्।
परिनिष्ठा च पूजायां स्तुतिभिः स्तवनं मम॥
मूलम्
श्रद्धामृतकथायां मे शश्वन्मदनुकीर्तनम्।
परिनिष्ठा च पूजायां स्तुतिभिः स्तवनं मम॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो मेरी भक्ति प्राप्त करना चाहता हो, वह मेरी अमृतमयी कथामें श्रद्धा रखे; निरन्तर मेरे गुण-लीला और नामोंका संकीर्तन करे; मेरी पूजामें अत्यन्त निष्ठा रखे और स्तोत्रोंके द्वारा मेरी स्तुति करे॥ २०॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
मदनुकीर्तनं स्तुतिभिः जन्मकर्मप्रतिपादकवचनम् ॥ २०-२५ ॥
श्लोक-२१
विश्वास-प्रस्तुतिः
आदरः परिचर्यायां सर्वाङ्गैरभिवन्दनम्।
मद्भक्तपूजाभ्यधिका सर्वभूतेषु मन्मतिः॥
मूलम्
आदरः परिचर्यायां सर्वाङ्गैरभिवन्दनम्।
मद्भक्तपूजाभ्यधिका सर्वभूतेषु मन्मतिः॥
अनुवाद (हिन्दी)
मेरी सेवा-पूजामें प्रेम रखे और सामने साष्टांग लोटकर प्रणाम करे; मेरे भक्तोंकी पूजा मेरी पूजासे बढ़कर करे और समस्त प्राणियोंमें मुझे ही देखे॥ २१॥
श्लोक-२२
विश्वास-प्रस्तुतिः
मदर्थेष्वङ्गचेष्टा च वचसा मद्गुणेरणम्।
मय्यर्पणं च मनसः सर्वकामविवर्जनम्॥
मूलम्
मदर्थेष्वङ्गचेष्टा च वचसा मद्गुणेरणम्।
मय्यर्पणं च मनसः सर्वकामविवर्जनम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
अपने एक-एक अंगकी चेष्टा केवल मेरे ही लिये करे, वाणीसे मेरे ही गुणोंका गान करे और अपना मन भी मुझे ही अर्पित कर दे तथा सारी कामनाएँ छोड़ दे॥ २२॥
श्लोक-२३
विश्वास-प्रस्तुतिः
मदर्थेऽर्थपरित्यागो भोगस्य च सुखस्य च।
इष्टं दत्तं हुतं जप्तं मदर्थं यद् व्रतं तपः॥
मूलम्
मदर्थेऽर्थपरित्यागो भोगस्य च सुखस्य च।
इष्टं दत्तं हुतं जप्तं मदर्थं यद् व्रतं तपः॥
अनुवाद (हिन्दी)
मेरे लिये धन, भोग और प्राप्त सुखका भी परित्याग कर दे और जो कुछ यज्ञ, दान, हवन, जप, व्रत और तप किया जाय, वह सब मेरे लिये ही करे॥ २३॥
श्लोक-२४
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं धर्मैर्मनुष्याणामुद्धवात्मनिवेदिनाम्।
मयि सञ्जायते भक्तिः कोऽन्योऽर्थोऽस्यावशिष्यते॥
मूलम्
एवं धर्मैर्मनुष्याणामुद्धवात्मनिवेदिनाम्।
मयि सञ्जायते भक्तिः कोऽन्योऽर्थोऽस्यावशिष्यते॥
अनुवाद (हिन्दी)
उद्धवजी! जो मनुष्य इन धर्मोंका पालन करते हैं और मेरे प्रति आत्मनिवेदन कर देते हैं, उनके हृदयमें मेरी प्रेममयी भक्तिका उदय होता है और जिसे मेरी भक्ति प्राप्त हो गयी, उसके लिये और किस दूसरी वस्तुका प्राप्त होना शेष रह जाता है?॥ २४॥
श्लोक-२५
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदाऽऽत्मन्यर्पितं चित्तं शान्तं सत्त्वोपबृंहितम्।
धर्मं ज्ञानं सवैराग्यमैश्वर्यं चाभिपद्यते॥
मूलम्
यदाऽऽत्मन्यर्पितं चित्तं शान्तं सत्त्वोपबृंहितम्।
धर्मं ज्ञानं सवैराग्यमैश्वर्यं चाभिपद्यते॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकारके धर्मोंका पालन करनेसे चित्तमें जब सत्त्वगुणकी वृद्धि होती है और वह शान्त होकर आत्मामें लग जाता है, उस समय साधकको धर्म, ज्ञान, वैराग्य और ऐश्वर्य स्वयं ही प्राप्त हो जाते हैं॥ २५॥
श्लोक-२६
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदर्पितं तद् विकल्पे इन्द्रियैः परिधावति।
रजस्वलं चासन्निष्ठं चित्तं विद्धि विपर्ययम्॥
मूलम्
यदर्पितं तद् विकल्पे इन्द्रियैः परिधावति।
रजस्वलं चासन्निष्ठं चित्तं विद्धि विपर्ययम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह संसार विविध कल्पनाओंसे भरपूर है। सच पूछो तो इसका नाम तो है, किन्तु कोई वस्तु नहीं है। जब चित्त इसमें लगा दिया जाता है, तब इन्द्रियोंके साथ इधर-उधर भटकने लगता है। इस प्रकार चित्तमें रजोगुणकी बाढ़ आ जाती है, वह असत् वस्तुमें लग जाता है और उसके धर्म, ज्ञान आदि तो लुप्त हो ही जाते हैं, वह अधर्म, अज्ञान और मोहका भी घर बन जाता है॥ २६॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
यदर्पितमिति रजस्वलमनात्मनिष्ठं यत् वित्तमिन्द्रियैरर्पितं शब्दादिविकल्पं परिधावति तच्चित्तं विपर्ययं विद्धि भ्रान्तियुक्तं विद्धि ॥ २६ ॥
श्लोक-२७
विश्वास-प्रस्तुतिः
धर्मो मद्भक्तिकृत् प्रोक्तो ज्ञानं चैकात्म्यदर्शनम्।
गुणेष्वसङ्गो वैराग्यमैश्वर्यं चाणिमादयः॥
मूलम्
धर्मो मद्भक्तिकृत् प्रोक्तो ज्ञानं चैकात्म्यदर्शनम्।
गुणेष्वसङ्गो वैराग्यमैश्वर्यं चाणिमादयः॥
अनुवाद (हिन्दी)
उद्धव! जिससे मेरी भक्ति हो, वही धर्म है; जिससे ब्रह्म और आत्माकी एकताका साक्षात्कार हो, वही ज्ञान है; विषयोंसे असंग—निर्लेप रहना ही वैराग्य है और अणिमादि सिद्धियाँ ही ऐश्वर्य हैं॥ २७॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
प्रकृतं धर्मादिचतुष्टयं विवृणोति । धर्म इति । मद्भक्तिकारणम् ऐकात्म्यदर्शनम् एकात्मशब्दो बहुब्रीहिः तस्य भाव ऐकात्म्यं सर्वेषामात्मनामेकेन परमात्मना आत्मवत्त्वदर्शनमित्यर्थः ॥ २७- २९ ॥
श्लोक-२८
मूलम् (वचनम्)
उद्धव उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
यमः कतिविधः प्रोक्तो नियमो वारिकर्शन।
कः शमः को दमः कृष्ण का तितिक्षा धृतिः प्रभो॥
मूलम्
यमः कतिविधः प्रोक्तो नियमो वारिकर्शन।
कः शमः को दमः कृष्ण का तितिक्षा धृतिः प्रभो॥
अनुवाद (हिन्दी)
उद्धवजीने कहा—रिपुसूदन! यम और नियम कितने प्रकारके हैं? श्रीकृष्ण! शम क्या है? दम क्या है? प्रभो! तितिक्षा और धैर्य क्या है?॥ २८॥
श्लोक-२९
विश्वास-प्रस्तुतिः
किं दानं किं तपः शौर्यं किं सत्यमृतमुच्यते।
कस्त्यागः किं धनं चेष्टं को यज्ञः का च दक्षिणा॥
मूलम्
किं दानं किं तपः शौर्यं किं सत्यमृतमुच्यते।
कस्त्यागः किं धनं चेष्टं को यज्ञः का च दक्षिणा॥
अनुवाद (हिन्दी)
आप मुझे दान, तपस्या, शूरता, सत्य और ऋतका भी स्वरूप बतलाइये। त्याग क्या है? अभीष्ट धन कौन-सा है? यज्ञ किसे कहते हैं? और दक्षिणा क्या वस्तु है?॥ २९॥
श्लोक-३०
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुंसः किंस्विद्बलं श्रीमन् भगो लाभश्च केशव।
का विद्या ह्रीः परा का श्रीः किं सुखं दुःखमेव च॥
मूलम्
पुंसः किंस्विद्बलं श्रीमन् भगो लाभश्च केशव।
का विद्या ह्रीः परा का श्रीः किं सुखं दुःखमेव च॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीमान् केशव! पुरुषका सच्चा बल क्या है? भग किसे कहते हैं? और लाभ क्या वस्तु है? उत्तम विद्या, लज्जा, श्री तथा सुख और दुःख क्या है?॥ ३०॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
ह्रीरित्यत्र का ह्रीरित्यन्वयः ॥ ३०-३२ ॥
श्लोक-३१
विश्वास-प्रस्तुतिः
कः पण्डितः कश्च मूर्खः कः पन्था उत्पथश्च कः।
कः स्वर्गो नरकः कः स्वित् को बन्धुरुत कं गृहम्॥
मूलम्
कः पण्डितः कश्च मूर्खः कः पन्था उत्पथश्च कः।
कः स्वर्गो नरकः कः स्वित् को बन्धुरुत कं गृहम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
पण्डित और मूर्खके लक्षण क्या हैं? सुमार्ग और कुमार्गका क्या लक्षण है? स्वर्ग और नरक क्या हैं? भाई-बन्धु किसे मानना चाहिये? और घर क्या है?॥ ३१॥
श्लोक-३२
विश्वास-प्रस्तुतिः
क आढ्यः को दरिद्रो वा कृपणः कः क ईश्वरः।
एतान् प्रश्नान् मम ब्रूहि विपरीतांश्च सत्पते॥
मूलम्
क आढ्यः को दरिद्रो वा कृपणः कः क ईश्वरः।
एतान् प्रश्नान् मम ब्रूहि विपरीतांश्च सत्पते॥
अनुवाद (हिन्दी)
धनवान् और निर्धन किसे कहते हैं? कृपण कौन है? और ईश्वर किसे कहते हैं? भक्तवत्सल प्रभो! आप मेरे इन प्रश्नोंका उत्तर दीजिये और साथ ही इनके विरोधी भावोंकी भी व्याख्या कीजिये॥ ३२॥
श्लोक-३३
मूलम् (वचनम्)
श्रीभगवानुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहिंसा सत्यमस्तेयमसङ्गो ह्रीरसञ्चयः।
आस्तिक्यं ब्रह्मचर्यं च मौनं स्थैर्यं क्षमाभयम्॥
मूलम्
अहिंसा सत्यमस्तेयमसङ्गो ह्रीरसञ्चयः।
आस्तिक्यं ब्रह्मचर्यं च मौनं स्थैर्यं क्षमाभयम्॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
अभयमिति पदम् अन्यस्मात्स्वस्य भयाभावात् अभयान्तरं द्वादशस्त्रस्मादन्येषां च भयाभावश्च विवक्षितः उभयोद्वादश अभयमित्युभयविवक्षया तत्रोच्चारणम् अत उभयेषां द्वादशत्वं पूर्ण स्यात् ॥ ३३-३६ ॥
श्लोक-३४
विश्वास-प्रस्तुतिः
शौचं जपस्तपो होमःश्रद्धाऽऽतिथ्यं मदर्चनम्।
तीर्थाटनं परार्थेहा तुष्टिराचार्यसेवनम्॥
मूलम्
शौचं जपस्तपो होमःश्रद्धाऽऽतिथ्यं मदर्चनम्।
तीर्थाटनं परार्थेहा तुष्टिराचार्यसेवनम्॥
श्लोक-३५
विश्वास-प्रस्तुतिः
एते यमाः सनियमा उभयोर्द्वादश स्मृताः।
पुंसामुपासितास्तात यथाकामं दुहन्ति हि॥
मूलम्
एते यमाः सनियमा उभयोर्द्वादश स्मृताः।
पुंसामुपासितास्तात यथाकामं दुहन्ति हि॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् श्रीकृष्णने कहा—‘यम’ बारह हैं—अहिंसा, सत्य, अस्तेय (चोरी न करना), असंगता, लज्जा, असंचय (आवश्यकतासे अधिक धन आदि न जोड़ना), आस्तिकता, ब्रह्मचर्य, मौन, स्थिरता, क्षमा और अभय। नियमोंकी संख्या भी बारह ही हैं। शौच (बाहरी पवित्रता और भीतरी पवित्रता), जप, तप, हवन, श्रद्धा, अतिथिसेवा, मेरी पूजा, तीर्थयात्रा, परोपकारकी चेष्टा, सन्तोष और गुरुसेवा—इस प्रकार ‘यम’ और ‘नियम’ दोनोंकी संख्या बारह-बारह हैं। ये सकाम और निष्काम दोनों प्रकारके साधकोंके लिये उपयोगी हैं। उद्धवजी! जो पुरुष इनका पालन करते हैं, वे यम और नियम उनके इच्छानुसार उन्हें भोग और मोक्ष दोनों प्रदान करते हैं॥ ३३—३५॥
श्लोक-३६
विश्वास-प्रस्तुतिः
शमो मन्निष्ठता बुद्धेर्दम इन्द्रियसंयमः।
तितिक्षा दुःखसंमर्षो जिह्वोपस्थजयो धृतिः॥
मूलम्
शमो मन्निष्ठता बुद्धेर्दम इन्द्रियसंयमः।
तितिक्षा दुःखसंमर्षो जिह्वोपस्थजयो धृतिः॥
अनुवाद (हिन्दी)
बुद्धिका मुझमें लग जाना ही ‘शम’ है। इन्द्रियोंके संयमका नाम ‘दम’ है। न्यायसे प्राप्त दुःखके सहनेका नाम ‘तितिक्षा’ है। जिह्वा और जननेन्द्रियपर विजय प्राप्त करना ‘धैर्य’ है॥ ३६॥
श्लोक-३७
विश्वास-प्रस्तुतिः
दण्डन्यासः परं दानं कामत्यागस्तपः स्मृतम्।
स्वभावविजयः शौर्यं सत्यं च समदर्शनम्॥
मूलम्
दण्डन्यासः परं दानं कामत्यागस्तपः स्मृतम्।
स्वभावविजयः शौर्यं सत्यं च समदर्शनम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
किसीसे द्रोह न करना सबको अभय देना ‘दान’ है। कामनाओंका त्याग करना ही ‘तप’ है। अपनी वासनाओंपर विजय प्राप्त करना ही ‘शूरता’ है। सर्वत्र समस्वरूप, सत्यस्वरूप परमात्माका दर्शन ही ‘सत्य’ है॥ ३७॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
स्वभावविजयः मनुष्यादिस्वभावविजयः क्षुत्पिपासानभिभूतत्वं अपक्षपातेन दर्शनम् ॥ ३७ ॥
श्लोक-३८
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऋतं च सूनृता वाणी कविभिः परिकीर्तिता।
कर्मस्वसङ्गमः शौचं त्यागः संन्यास उच्यते॥
मूलम्
ऋतं च सूनृता वाणी कविभिः परिकीर्तिता।
कर्मस्वसङ्गमः शौचं त्यागः संन्यास उच्यते॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी प्रकार सत्य और मधुर भाषणको ही महात्माओंने ‘ऋत’ कहा है। कर्मोंमें आसक्त न होना ही ‘शौच’ है। कामनाओंका त्याग ही सच्चा ‘संन्यास’ है॥ ३८॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
यथा दृष्टार्थविषया वागृतम् ऋतसत्ययोर्भेदः कर्मस्वसङ्गमः कर्तृत्वाभिमानाभावः संन्यासः फलत्यागः ॥ ३८ ॥
श्लोक-३९
विश्वास-प्रस्तुतिः
धर्म इष्टं धनं नॄणां यज्ञोऽहं भगवत्तमः।
दक्षिणा ज्ञानसन्देशः प्राणायामः परं बलम्॥
मूलम्
धर्म इष्टं धनं नॄणां यज्ञोऽहं भगवत्तमः।
दक्षिणा ज्ञानसन्देशः प्राणायामः परं बलम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
धर्म ही मनुष्योंका अभीष्ट ‘धन’ है। मैं परमेश्वर ही ‘यज्ञ’ हूँ। ज्ञानका उपदेश देना ही ‘दक्षिणा’ है। प्राणायाम ही श्रेष्ठ ‘बल’ है॥ ३९॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
भगवत्तमः अतिशयितज्ञानादिमान् ज्ञानसंदेशः ज्ञानप्रदानम् ॥ ३९ ॥
श्लोक-४०
विश्वास-प्रस्तुतिः
भगो म ऐश्वरो भावो लाभो मद्भक्तिरुत्तमः।
विद्याऽऽत्मनि भिदाबाधो जुगुप्सा ह्रीरकर्मसु॥
मूलम्
भगो म ऐश्वरो भावो लाभो मद्भक्तिरुत्तमः।
विद्याऽऽत्मनि भिदाबाधो जुगुप्सा ह्रीरकर्मसु॥
अनुवाद (हिन्दी)
मेरा ऐश्वर्य ही ‘भग’ है, मेरी श्रेष्ठ भक्ति ही उत्तम ‘लाभ’ है, सच्ची ‘विद्या’ वही है जिससे ब्रह्म और आत्माका भेद मिट जाता है। पाप करनेसे घृणा होनेका नाम ही ‘लज्जा’ है॥ ४०॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
ऐश्वरो भावः ईश्वरसम्बन्धी स्वभावः ऐश्वर्यवीर्ययशःप्रभृतयः आत्मनि भिदाभावः देवत्वमनुष्यत्वाद्यभिमाननिवृत्तिः अकर्मसु निषिद्धकर्मसु जुगुप्सा ह्रीः ॥ ४० ॥
श्लोक-४१
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रीर्गुणा नैरपेक्ष्याद्याः सुखं दुःखसुखात्ययः।
दुःखं कामसुखापेक्षा पण्डितो बन्धमोक्षवित्॥
मूलम्
श्रीर्गुणा नैरपेक्ष्याद्याः सुखं दुःखसुखात्ययः।
दुःखं कामसुखापेक्षा पण्डितो बन्धमोक्षवित्॥
अनुवाद (हिन्दी)
निरपेक्षता आदि गुण ही शरीरका सच्चा सौन्दर्य—‘श्री’ है, दुःख और सुख दोनोंकी भावनाका सदाके लिये नष्ट हो जाना ही ‘सुख’ है। विषयभोगोंकी कामना ही ‘दुःख’ है। जो बन्धन और मोक्षका तत्त्व जानता है, वही ‘पण्डित’ है॥ ४१॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
श्रीर्गुणा नैरपेक्षाद्याः निरपेक्षत्वगुणाद्याः श्रीर्भवति सैव श्रीः सन्तोष एव समृद्धिरित्यर्थः । दुःखसुखात्ययः दुःखतन्मिश्रसुखात्ययः ॥ ४१ ॥
श्लोक-४२
विश्वास-प्रस्तुतिः
मूर्खो देहाद्यहंबुद्धिः पन्था मन्निगमः स्मृतः।
उत्पथश्चित्तविक्षेपः स्वर्गः सत्त्वगुणोदयः॥
मूलम्
मूर्खो देहाद्यहंबुद्धिः पन्था मन्निगमः स्मृतः।
उत्पथश्चित्तविक्षेपः स्वर्गः सत्त्वगुणोदयः॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
मन्निगमः मद्विषयज्ञानम् ॥ ४२-४३ ॥
श्लोक-४३
विश्वास-प्रस्तुतिः
नरकस्तमउन्नाहो बन्धुर्गुरुरहं सखे।
गृहं शरीरं मानुष्यं गुणाढ्यो ह्याढ्य उच्यते॥
मूलम्
नरकस्तमउन्नाहो बन्धुर्गुरुरहं सखे।
गृहं शरीरं मानुष्यं गुणाढ्यो ह्याढ्य उच्यते॥
अनुवाद (हिन्दी)
शरीर आदिमें जिसका मैंपन है, वही ‘मूर्ख’ है। जो संसारकी ओरसे निवृत्त करके मुझे प्राप्त करा देता है, वही सच्चा ‘सुमार्ग’ है। चित्तकी बहिर्मुखता ही ‘कुमार्ग’ है। सत्त्वगुणकी वृद्धि ही ‘स्वर्ग’ और सखे! तमोगुणकी वृद्धि ही ‘नरक’ है। गुरु ही सच्चा ‘भाई-बन्धु’ है और वह गुरु मैं हूँ। यह मनुष्य-शरीर ही सच्चा ‘घर’ है तथा सच्चा ‘धनी’ वह है, जो गुणोंसे सम्पन्न है, जिसके पास गुणोंका खजाना है॥ ४२-४३॥
श्लोक-४४
विश्वास-प्रस्तुतिः
दरिद्रो यस्त्वसन्तुष्टः कृपणो योऽजितेन्द्रियः।
गुणेष्वसक्तधीरीशो गुणसङ्गो विपर्ययः॥
मूलम्
दरिद्रो यस्त्वसन्तुष्टः कृपणो योऽजितेन्द्रियः।
गुणेष्वसक्तधीरीशो गुणसङ्गो विपर्ययः॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसके चित्तमें असन्तोष है, अभावका बोध है, वही ‘दरिद्र’ है। जो जितेन्द्रिय नहीं है, वही ‘कृपण’ है। समर्थ, स्वतन्त्र और ‘ईश्वर’ वह है, जिसकी चित्तवृत्ति विषयोंमें आसक्त नहीं है। इसके विपरीत जो विषयोंमें आसक्त है, वही सर्वथा ‘असमर्थ’ है॥ ४४॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
विपर्ययः अनीश्वरत्वम् इदमपृष्टमपि प्रष्टुरभिप्रेतत्वादुक्तम् ॥ ४४ ॥
श्लोक-४५
विश्वास-प्रस्तुतिः
एत उद्धव ते प्रश्नाः सर्वे साधु निरूपिताः।
किं वर्णितेन बहुना लक्षणं गुणदोषयोः।
गुणदोषदृशिर्दोषो गुणस्तूभयवर्जितः॥
मूलम्
एत उद्धव ते प्रश्नाः सर्वे साधु निरूपिताः।
किं वर्णितेन बहुना लक्षणं गुणदोषयोः।
गुणदोषदृशिर्दोषो गुणस्तूभयवर्जितः॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्यारे उद्धव! तुमने जितने प्रश्न पूछे थे, उनका उत्तर मैंने दे दिया; इनको समझ लेना मोक्ष-मार्गके लिये सहायक है। मैं तुम्हें गुण और दोषोंका लक्षण अलग-अलग कहाँतक बताऊँ? सबका सारांश इतनेमें ही समझ लो कि गुणों और दोषोंपर दृष्टि जाना ही सबसे बड़ा दोष है और गुण-दोषोंपर दृष्टि न जाकर अपने शान्त निःसंकल्प स्वरूपमें स्थित रहे—वही सबसे बड़ा गुण है॥ ४५॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
उभयवर्जितः उभयवर्जनं गुणः अयमर्थः संसारे उपादेयतया चाभिमतानां सर्वपदार्थानां दोषदुष्टतया हेयत्वाविशेषेऽपि तद्विपर्ययेण इदं गुणवत् इदं दोषवदिति विभागज्ञानं भ्रान्तिरूपत्वाद्दोष इत्यर्थः ॥ ४५ ॥
इति श्रीमद्भागवतव्याख्याने एकादशस्कन्धीये श्रीसुदर्शनसूरिकृतशुकपक्षीये एकोनविंशोऽध्यायः ॥ १९ ॥
अनुवाद (समाप्ति)
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायामेकादशस्कन्धे एकोनविंशोऽध्यायः॥ १९॥