१७

[सप्तदशोऽध्यायः]

भागसूचना

वर्णाश्रम-धर्म-निरूपण

श्लोक-१

मूलम् (वचनम्)

उद्धव उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्त्वयाभिहितः पूर्वं धर्मस्त्वद‍्भक्तिलक्षणः।
वर्णाश्रमाचारवतां सर्वेषां द्विपदामपि॥

मूलम्

यस्त्वयाभिहितः पूर्वं धर्मस्त्वद‍्भक्तिलक्षणः।
वर्णाश्रमाचारवतां सर्वेषां द्विपदामपि॥

श्लोक-२

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथानुष्ठीयमानेन त्वयि भक्तिर्नृणां भवेत्।
स्वधर्मेणारविन्दाक्ष तत् समाख्यातुमर्हसि॥

मूलम्

यथानुष्ठीयमानेन त्वयि भक्तिर्नृणां भवेत्।
स्वधर्मेणारविन्दाक्ष तत् समाख्यातुमर्हसि॥

अनुवाद (हिन्दी)

उद्धवजीने कहा—कमलनयन श्रीकृष्ण! आपने पहले वर्णाश्रम-धर्मका पालन करनेवालोंके लिये और सामान्यतः मनुष्यमात्रके लिये उस धर्मका उपदेश किया था, जिससे आपकी भक्ति प्राप्त होती है। अब आप कृपा करके यह बतलाइये कि मनुष्य किस प्रकारसे अपने धर्मका अनुष्ठान करे, जिससे आपके चरणोंमें उसे भक्ति प्राप्त हो जाय॥ १-२॥

श्लोक-३

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुरा किल महाबाहो धर्मं परमकं प्रभो।
यत्तेन हंसरूपेण ब्रह्मणेऽभ्यात्थ माधव॥

मूलम्

पुरा किल महाबाहो धर्मं परमकं प्रभो।
यत्तेन हंसरूपेण ब्रह्मणेऽभ्यात्थ माधव॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभो! महाबाहु माधव! पहले आपने हंसरूपसे अवतार ग्रहण करके ब्रह्माजीको अपने परमधर्मका उपदेश किया था॥ ३॥

श्लोक-४

विश्वास-प्रस्तुतिः

स इदानीं सुमहता कालेनामित्रकर्शन।
न प्रायो भविता मर्त्यलोके प्रागनुशासितः॥

मूलम्

स इदानीं सुमहता कालेनामित्रकर्शन।
न प्रायो भविता मर्त्यलोके प्रागनुशासितः॥

अनुवाद (हिन्दी)

रिपुदमन! बहुत समय बीत जानेके कारण वह इस समय मर्त्यलोकमें प्रायः नहीं-सा रह गया है, क्योंकि आपको उसका उपदेश किये बहुत दिन हो गये हैं॥ ४॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

शासिता विविच्य ज्ञापिता ॥ १-४ ॥

श्लोक-५

विश्वास-प्रस्तुतिः

वक्ता कर्ताविता नान्यो धर्मस्याच्युत ते भुवि।
सभायामपि वैरिञ्‍च्‍यां यत्र मूर्तिधराः कलाः॥

मूलम्

वक्ता कर्ताविता नान्यो धर्मस्याच्युत ते भुवि।
सभायामपि वैरिञ्‍च्‍यां यत्र मूर्तिधराः कलाः॥

अनुवाद (हिन्दी)

अच्युत! पृथ्वीमें तथा ब्रह्माकी उस सभामें भी, जहाँ सम्पूर्ण वेद मूर्तिमान् होकर विराजमान रहते हैं, आपके अतिरिक्त ऐसा कोई भी नहीं है, जो आपके इस धर्मका प्रवचन, प्रवर्त्तन अथवा संरक्षण कर सके॥ ५॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

कर्तेति । कर्त्ता कारयिता च स इतिन्यायेन मर्यादास्थापनार्थं नरनारायणादिरूपेण कर्त्ता ॥ ५ ॥

श्लोक-६

विश्वास-प्रस्तुतिः

कर्त्रावित्रा प्रवक्त्रा च भवता मधुसूदन।
त्यक्ते महीतले देव विनष्टं कः प्रवक्ष्यति॥

मूलम्

कर्त्रावित्रा प्रवक्त्रा च भवता मधुसूदन।
त्यक्ते महीतले देव विनष्टं कः प्रवक्ष्यति॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस धर्मके प्रवर्तक, रक्षक और उपदेशक आप ही हैं। आपने पहले जैसे मधु दैत्यको मारकर वेदोंकी रक्षा की थी, वैसे ही अपने धर्मकी भी रक्षा कीजिये। स्वयंप्रकाश परमात्मन्! जब आप पृथ्वीतलसे अपनी लीला संवरण कर लेंगे, तब तो इस धर्मका लोप ही हो जायगा तो फिर उसे कौन बतावेगा?॥ ६॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

अवित्रा रक्षकेण ॥ ६-९ ॥

श्लोक-७

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्त्वं नः सर्वधर्मज्ञ धर्मस्त्वद‍्भक्तिलक्षणः।
यथा यस्य विधीयेत तथा वर्णय मे प्रभो॥

मूलम्

तत्त्वं नः सर्वधर्मज्ञ धर्मस्त्वद‍्भक्तिलक्षणः।
यथा यस्य विधीयेत तथा वर्णय मे प्रभो॥

अनुवाद (हिन्दी)

आप समस्त धर्मोंके मर्मज्ञ हैं; इसलिये प्रभो! आप उस धर्मका वर्णन कीजिये, जो आपकी भक्ति प्राप्त करानेवाला है। और यह भी बतलाइये कि किसके लिये उसका कैसा विधान है॥ ७॥

श्लोक-८

मूलम् (वचनम्)

श्रीशुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्थं स्वभृत्यमुख्येन पृष्टः स भगवान् हरिः।
प्रीतः क्षेमाय मर्त्यानां धर्मानाह सनातनान्॥

मूलम्

इत्थं स्वभृत्यमुख्येन पृष्टः स भगवान् हरिः।
प्रीतः क्षेमाय मर्त्यानां धर्मानाह सनातनान्॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! जब इस प्रकार भक्तशिरोमणि उद्धवजीने प्रश्न किया, तब भगवान् श्रीकृष्णने अत्यन्त प्रसन्न होकर प्राणियोंके कल्याणके लिये उन्हें सनातन धर्मोंका उपदेश दिया॥ ८॥

श्लोक-९

मूलम् (वचनम्)

श्रीभगवानुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्म्य एष तव प्रश्नो नैःश्रेयसकरो नृणाम्।
वर्णाश्रमाचारवतां तमुद्धव निबोध मे॥

मूलम्

धर्म्य एष तव प्रश्नो नैःश्रेयसकरो नृणाम्।
वर्णाश्रमाचारवतां तमुद्धव निबोध मे॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् श्रीकृष्णने कहा—प्रिय उद्धव! तुम्हारा प्रश्न धर्ममय है, क्योंकि इससे वर्णाश्रमधर्मी मनुष्योंको परमकल्याणस्वरूप मोक्षकी प्राप्ति होती है। अतः मैं तुम्हें उन धर्मोंका उपदेश करता हूँ, सावधान होकर सुनो॥ ९॥

श्लोक-१०

विश्वास-प्रस्तुतिः

आदौ कृतयुगे वर्णो नृणां हंस इति स्मृतः।
कृत्यकृत्याः प्रजा जात्या तस्मात् कृतयुगं विदुः॥

मूलम्

आदौ कृतयुगे वर्णो नृणां हंस इति स्मृतः।
कृत्यकृत्याः प्रजा जात्या तस्मात् कृतयुगं विदुः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिस समय इस कल्पका प्रारम्भ हुआ था और पहला सत्ययुग चल रहा था, उस समय सभी मनुष्योंका ‘हंस’ नामक एक ही वर्ण था। उस युगमें सब लोग जन्मसे ही कृतकृत्य होते थे; इसीलिये उसका एक नाम कृतयुग भी है॥ १०॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

आदौ कृतयुगे चतुर्युगसहस्रारम्भकृतयुगे हंस इति ब्राह्मणवर्णसंज्ञा नतु क्षत्रियादय इत्यर्थः ॥ १०-११ ॥

श्लोक-११

विश्वास-प्रस्तुतिः

वेदः प्रणव एवाग्रे धर्मोऽहं वृषरूपधृक्।
उपासते तपोनिष्ठा हंसं मां मुक्तकिल्बिषाः॥

मूलम्

वेदः प्रणव एवाग्रे धर्मोऽहं वृषरूपधृक्।
उपासते तपोनिष्ठा हंसं मां मुक्तकिल्बिषाः॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय केवल प्रणव ही वेद था और तपस्या, शौच, दया एवं सत्यरूप चार चरणोंसे युक्त मैं ही वृषभरूपधारी धर्म था। उस समयके निष्पाप एवं परमतपस्वी भक्तजन मुझ हंसस्वरूप शुद्ध परमात्माकी उपासना करते थे॥ ११॥

श्लोक-१२

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्रेतामुखे महाभाग प्राणान्मे हृदयात्त्रयी।
विद्या प्रादुरभूत्तस्या अहमासं त्रिवृन्मखः(स्वः)॥

मूलम्

त्रेतामुखे महाभाग प्राणान्मे हृदयात्त्रयी।
विद्या प्रादुरभूत्तस्या अहमासं त्रिवृन्मखः(स्वः)॥

अनुवाद (हिन्दी)

परम भाग्यवान् उद्धव! सत्ययुगके बाद त्रेतायुगका आरम्भ होनेपर मेरे हृदयसे श्वास-प्रश्वासके द्वारा ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेदरूप त्रयीविद्या प्रकट हुई और उस त्रयीविद्यासे होता, अध्वर्यु और उद‍्गाताके कर्मरूप तीन भेदोंवाले यज्ञके रूपसे मैं प्रकट हुआ॥ १२॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

त्रिवृन्मस्वः प्रणवप्रधानः ॥ १२ ॥

श्लोक-१३

विश्वास-प्रस्तुतिः

विप्रक्षत्रियविट्शूद्रा मुखबाहूरुपादजाः।
वैराजात् पुरुषाज्जाता य आत्माचारलक्षणाः॥

मूलम्

विप्रक्षत्रियविट्शूद्रा मुखबाहूरुपादजाः।
वैराजात् पुरुषाज्जाता य आत्माचारलक्षणाः॥

अनुवाद (हिन्दी)

विराट् पुरुषके मुखसे ब्राह्मण, भुजासे क्षत्रिय, जंघासे वैश्य और चरणोंसे शूद्रोंकी उत्पत्ति हुई। उनकी पहचान उनके स्वभावानुसार और आचरणसे होती है॥ १३॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

वैराजात् विराट्शब्दवाच्यानिरुद्धप्रसूताच्चतुर्मुखात् ॥ १३-१९ ॥

श्लोक-१४

विश्वास-प्रस्तुतिः

गृहाश्रमो जघनतो ब्रह्मचर्यं हृदो मम।
वक्षःस्थानाद् वने वासो न्यासः शीर्षणि संस्थितः॥

मूलम्

गृहाश्रमो जघनतो ब्रह्मचर्यं हृदो मम।
वक्षःस्थानाद् वने वासो न्यासः शीर्षणि संस्थितः॥

अनुवाद (हिन्दी)

उद्धवजी! विराट् पुरुष भी मैं ही हूँ; इसलिये मेरे ही ऊरुस्थलसे गृहस्थाश्रम, हृदयसे ब्रह्मचर्याश्रम, वक्षःस्थलसे वानप्रस्थाश्रम और मस्तकसे संन्यासाश्रमकी उत्पत्ति हुई है॥ १४॥

श्लोक-१५

विश्वास-प्रस्तुतिः

वर्णानामाश्रमाणां च जन्मभूम्यनुसारिणीः।
आसन् प्रकृतयो नॄणां नीचैर्नीचोत्तमोत्तमाः॥

मूलम्

वर्णानामाश्रमाणां च जन्मभूम्यनुसारिणीः।
आसन् प्रकृतयो नॄणां नीचैर्नीचोत्तमोत्तमाः॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन वर्ण और आश्रमोंके पुरुषोंके स्वभाव भी इनके जन्मस्थानोंके अनुसार उत्तम, मध्यम और अधम हो गये। अर्थात् उत्तम स्थानोंसे उत्पन्न होनेवाले वर्ण और आश्रमोंके स्वभाव उत्तम और अधम स्थानोंसे उत्पन्न होनेवालोंके अधम हुए॥ १५॥

श्लोक-१६

विश्वास-प्रस्तुतिः

शमो दमस्तपः शौचं सन्तोषः क्षान्तिरार्जवम्।
मद‍्भक्तिश्च दया सत्यं ब्रह्मप्रकृतयस्त्विमाः॥

मूलम्

शमो दमस्तपः शौचं सन्तोषः क्षान्तिरार्जवम्।
मद‍्भक्तिश्च दया सत्यं ब्रह्मप्रकृतयस्त्विमाः॥

अनुवाद (हिन्दी)

शम, दम, तपस्या, पवित्रता, सन्तोष, क्षमाशीलता, सीधापन, मेरी भक्ति, दया और सत्य—ये ब्राह्मण वर्णके स्वभाव हैं॥ १६॥

श्लोक-१७

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेजो बलं धृतिः शौर्यं तितिक्षौदार्यमुद्यमः।
स्थैर्यं ब्रह्मण्यतैश्वर्यं क्षत्रप्रकृतयस्त्विमाः॥

मूलम्

तेजो बलं धृतिः शौर्यं तितिक्षौदार्यमुद्यमः।
स्थैर्यं ब्रह्मण्यतैश्वर्यं क्षत्रप्रकृतयस्त्विमाः॥

अनुवाद (हिन्दी)

तेज, बल, धैर्य, वीरता, सहनशीलता, उदारता, उद्योगशीलता, स्थिरता, ब्राह्मण-भक्ति और ऐश्वर्य—ये क्षत्रिय वर्णके स्वभाव हैं॥ १७॥

श्लोक-१८

विश्वास-प्रस्तुतिः

आस्तिक्यं दाननिष्ठा च अदम्भो ब्रह्मसेवनम्।
अतुष्टिरर्थोपचयैर्वैश्यप्रकृतयस्त्विमाः॥

मूलम्

आस्तिक्यं दाननिष्ठा च अदम्भो ब्रह्मसेवनम्।
अतुष्टिरर्थोपचयैर्वैश्यप्रकृतयस्त्विमाः॥

अनुवाद (हिन्दी)

आस्तिकता, दानशीलता, दम्भहीनता, ब्राह्मणोंकी सेवा करना और धनसंचयसे सन्तुष्ट न होना—ये वैश्य वर्णके स्वभाव हैं॥ १८॥

श्लोक-१९

विश्वास-प्रस्तुतिः

शुश्रूषणं द्विजगवां देवानां चाप्यमायया।
तत्र लब्धेन सन्तोषः शूद्रप्रकृतयस्त्विमाः॥

मूलम्

शुश्रूषणं द्विजगवां देवानां चाप्यमायया।
तत्र लब्धेन सन्तोषः शूद्रप्रकृतयस्त्विमाः॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्राह्मण, गौ और देवताओंकी निष्कपटभावसे सेवा करना और उसीसे जो कुछ मिल जाय, उसमें सन्तुष्ट रहना—ये शूद्र वर्णके स्वभाव हैं॥ १९॥

श्लोक-२०

विश्वास-प्रस्तुतिः

अशौचमनृतं स्तेयं नास्तिक्यं शुष्कविग्रहः।
कामः क्रोधश्च तर्षश्च स्वभावोऽन्तेवसायिनाम्॥

मूलम्

अशौचमनृतं स्तेयं नास्तिक्यं शुष्कविग्रहः।
कामः क्रोधश्च तर्षश्च स्वभावोऽन्तेवसायिनाम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

अपवित्रता, झूठ बोलना, चोरी करना, ईश्वर और परलोककी परवा न करना, झूठमूठ झगड़ना और काम, क्रोध एवं तृष्णाके वशमें रहना—ये अन्त्यजोंके स्वभाव हैं॥ २०॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

अन्तेवसायिनां चाण्डालानाम् ॥ २०-२१ ॥

श्लोक-२१

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहिंसा सत्यमस्तेयमकामक्रोधलोभता।
भूतप्रियहितेहा च धर्मोऽयं सार्ववर्णिकः॥

मूलम्

अहिंसा सत्यमस्तेयमकामक्रोधलोभता।
भूतप्रियहितेहा च धर्मोऽयं सार्ववर्णिकः॥

अनुवाद (हिन्दी)

उद्धवजी! चारों वर्णों और चारों आश्रमोंके लिये साधारण धर्म यह है कि मन, वाणी और शरीरसे किसीकी हिंसा न करें; सत्यपर दृढ़ रहें; चोरी न करें; काम, क्रोध तथा लोभसे बचें और जिन कामोंके करनेसे समस्त प्राणियोंकी प्रसन्नता और उनका भला हो, वही करें॥ २१॥

श्लोक-२२

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्वितीयं प्राप्यानुपूर्व्याज्जन्मोपनयनं द्विजः।
वसन् गुरुकुले दान्तो ब्रह्माधीयीत चाहुतः॥

मूलम्

द्वितीयं प्राप्यानुपूर्व्याज्जन्मोपनयनं द्विजः।
वसन् गुरुकुले दान्तो ब्रह्माधीयीत चाहुतः॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य गर्भाधान आदि संस्कारोंके क्रमसे यज्ञोपवीत संस्काररूप द्वितीय जन्म प्राप्त करके गुरुकुलमें रहे और अपनी इन्द्रियोंको वशमें रखे। आचार्यके बुलानेपर वेदका अध्ययन करे और उसके अर्थका भी विचार करे॥ २२॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

उपनयनमेव द्वितीयं जन्म ब्रह्म वेदम् ॥ २२ ॥

श्लोक-२३

विश्वास-प्रस्तुतिः

मेखलाजिनदण्डाक्षब्रह्मसूत्रकमण्डलून्।
जटिलोऽधौतदद्वासोऽरक्तपीठः कुशान् दधत्॥

मूलम्

मेखलाजिनदण्डाक्षब्रह्मसूत्रकमण्डलून्।
जटिलोऽधौतदद्वासोऽरक्तपीठः कुशान् दधत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेखला, मृगचर्म, वर्णके अनुसार दण्ड, रुद्राक्षकी माला, यज्ञोपवीत और कमण्डलु धारण करे। सिरपर जटा रखे, शौकीनीके लिये दाँत और वस्त्र न धोवे, रंगीन आसनपर न बैठे और कुश धारण करे॥ २३॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

अक्षसूत्रम् अक्षवलयः ब्रह्मसूत्रमुपवीतम् उपवीताक्षब्रह्मसूत्रम् ॥ २३ ॥

श्लोक-२४

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्नानभोजनहोमेषु जपोच्चारे च वाग्यतः।
नच्छिन्द्यान्नखरोमाणि कक्षोपस्थगतान्यपि॥

मूलम्

स्नानभोजनहोमेषु जपोच्चारे च वाग्यतः।
नच्छिन्द्यान्नखरोमाणि कक्षोपस्थगतान्यपि॥

अनुवाद (हिन्दी)

स्नान, भोजन, हवन, जप और मल-मूत्र त्यागके समय मौन रहे। और कक्ष तथा गुप्तेन्द्रियके बाल और नाखूनोंको कभी न काटे॥ २४॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

उच्चारे विण्मूत्रोत्सर्जने ॥ २४ ॥

श्लोक-२५

विश्वास-प्रस्तुतिः

रेतो नावकिरेज्जातु ब्रह्मव्रतधरः स्वयम्।
अवकीर्णेऽवगाह्याप्सु यतासुस्त्रिपदीं जपेत्॥

मूलम्

रेतो नावकिरेज्जातु ब्रह्मव्रतधरः स्वयम्।
अवकीर्णेऽवगाह्याप्सु यतासुस्त्रिपदीं जपेत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

पूर्ण ब्रह्मचर्यका पालन करे। स्वयं तो कभी वीर्यपात करे ही नहीं। यदि स्वप्न आदिमें वीर्य स्खलित हो जाय, तो जलमें स्नान करके प्राणायाम करे एवं गायत्रीका जप करे॥ २५॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

अवकीर्णः स्कन्नरेताः त्रिपदीं सावित्रीम् ॥ २५-३० ॥

श्लोक-२६

विश्वास-प्रस्तुतिः

अग्न्यर्काचार्यगोविप्रगुरुवृद्धसुराञ्छुचिः।
समाहित उपासीत सन्ध्ये च यतवाग् जपन्॥

मूलम्

अग्न्यर्काचार्यगोविप्रगुरुवृद्धसुराञ्छुचिः।
समाहित उपासीत सन्ध्ये च यतवाग् जपन्॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्मचारीको पवित्रताके साथ एकाग्रचित्त होकर अग्नि, सूर्य, आचार्य, गौ, ब्राह्मण, गुरु, वृद्धजन और देवताओंकी उपासना करनी चाहिये तथा सायंकाल और प्रातःकाल मौन होकर सन्ध्योपासन एवं गायत्रीका जप करना चाहिये॥ २६॥

श्लोक-२७

विश्वास-प्रस्तुतिः

आचार्यं मां विजानीयान्नावमन्येत कर्हिचित्।
न मर्त्यबुद्ध्यासूयेत सर्वदेवमयो गुरुः॥

मूलम्

आचार्यं मां विजानीयान्नावमन्येत कर्हिचित्।
न मर्त्यबुद्ध्यासूयेत सर्वदेवमयो गुरुः॥

अनुवाद (हिन्दी)

आचार्यको मेरा ही स्वरूप समझे, कभी उनका तिरस्कार न करे। उन्हें साधारण मनुष्य समझकर दोषदृष्टि न करे; क्योंकि गुरु सर्वदेवमय होता है॥ २७॥

श्लोक-२८

विश्वास-प्रस्तुतिः

सायं प्रातरुपानीय भैक्ष्यं तस्मै निवेदयेत्।
यच्चान्यदप्यनुज्ञातमुपयुञ्जीत संयतः॥

मूलम्

सायं प्रातरुपानीय भैक्ष्यं तस्मै निवेदयेत्।
यच्चान्यदप्यनुज्ञातमुपयुञ्जीत संयतः॥

अनुवाद (हिन्दी)

सायंकाल और प्रातःकाल दोनों समय जो कुछ भिक्षामें मिले वह लाकर गुरुदेवके आगे रख दे। केवल भोजन ही नहीं, जो कुछ हो सब। तदनन्तर उनके आज्ञानुसार बड़े संयमसे भिक्षा आदिका यथोचित उपयोग करे॥ २८॥

श्लोक-२९

विश्वास-प्रस्तुतिः

शुश्रूषमाण आचार्यं सदोपासीत नीचवत्।
यानशय्यासनस्थानैर्नातिदूरे कृताञ्जलिः॥

मूलम्

शुश्रूषमाण आचार्यं सदोपासीत नीचवत्।
यानशय्यासनस्थानैर्नातिदूरे कृताञ्जलिः॥

अनुवाद (हिन्दी)

आचार्य यदि जाते हों तो उनके पीछे-पीछे चले, उनके सो जानेके बाद बड़ी सावधानीसे उनसे थोड़ी दूरपर सोवे। थके हों, तो पास बैठकर चरण दबावे और बैठे हों, तो उनके आदेशकी प्रतीक्षामें हाथ जोड़कर पासमें ही खड़ा रहे। इस प्रकार अत्यन्त छोटे व्यक्तिकी भाँति सेवा-शुश्रूषाके द्वारा सदा-सर्वदा आचार्यकी आज्ञामें तत्पर रहे॥ २९॥

श्लोक-३०

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवंवृत्तो गुरुकुले वसेद् भोगविवर्जितः।
विद्या समाप्यते यावद् बिभ्रद् व्रतमखण्डितम्॥

मूलम्

एवंवृत्तो गुरुकुले वसेद् भोगविवर्जितः।
विद्या समाप्यते यावद् बिभ्रद् व्रतमखण्डितम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

जबतक विद्याध्ययन समाप्त न हो जाय, तबतक सब प्रकारके भोगोंसे दूर रहकर इसी प्रकार गुरुकुलमें निवास करे और कभी अपना ब्रह्मचर्यव्रत खण्डित न होने दे॥ ३०॥

श्लोक-३१

विश्वास-प्रस्तुतिः

यद्यसौ छन्दसां लोकमारोक्ष्यन् ब्रह्मविष्टपम्।
गुरवे विन्यसेद् देहं स्वाध्यायार्थं बृहद्‍वृतः॥

मूलम्

यद्यसौ छन्दसां लोकमारोक्ष्यन् ब्रह्मविष्टपम्।
गुरवे विन्यसेद् देहं स्वाध्यायार्थं बृहद्‍वृतः॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि ब्रह्मचारीका विचार हो कि मैं मूर्तिमान् वेदोंके निवासस्थान ब्रह्मलोकमें जाऊँ, तो उसे आजीवन नैष्ठिक ब्रह्मचर्य-व्रत ग्रहण कर लेना चाहिये। और वेदोंके स्वाध्यायके लिये अपना सारा जीवन आचार्यकी सेवामें ही समर्पित कर देना चाहिये॥ ३१॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

छन्दसां लोकं छन्दसां फलभूतं लोकं सप्तर्षिलोकम् व्रतं ब्रह्मचर्यव्रतम् ॥ ३१ ॥

श्लोक-३२

विश्वास-प्रस्तुतिः

अग्नौ गुरावात्मनि च सर्वभूतेषु मां परम्।
अपृथग्धीरुपासीत ब्रह्मवर्चस्व्यकल्मषः॥

मूलम्

अग्नौ गुरावात्मनि च सर्वभूतेषु मां परम्।
अपृथग्धीरुपासीत ब्रह्मवर्चस्व्यकल्मषः॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसा ब्रह्मचारी सचमुच ब्रह्मतेजसे सम्पन्न हो जाता है और उसके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं। उसे चाहिये कि अग्नि, गुरु, अपने शरीर और समस्त प्राणियोंमें मेरी ही उपासना करे और यह भाव रखे कि मेरे तथा सबके हृदयमें एक ही परमात्मा विराजमान हैं॥ ३२॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

अपृथग्धीः स्वनिष्ठभेदरहितः ॥ ३२ ॥

श्लोक-३३

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्त्रीणां निरीक्षणस्पर्शसंलापक्ष्वेलनादिकम्।
प्राणिनो मिथुनीभूतानगृहस्थोऽग्रतस्त्यजेत्॥

मूलम्

स्त्रीणां निरीक्षणस्पर्शसंलापक्ष्वेलनादिकम्।
प्राणिनो मिथुनीभूतानगृहस्थोऽग्रतस्त्यजेत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ और संन्यासियोंको चाहिये कि वे स्त्रियोंको देखना, स्पर्श करना, उनसे बातचीत या हँसी-मसखरी आदि करना दूरसे ही त्याग दें; मैथुन करते हुए प्राणियोंपर तो दृष्टिपाततक न करें॥ ३३॥

श्लोक-३४

विश्वास-प्रस्तुतिः

शौचमाचमनं स्नानं सन्ध्योपासनमार्जवम्।
तीर्थसेवा जपोऽस्पृश्याभक्ष्यासंभाष्यवर्जनम्॥

मूलम्

शौचमाचमनं स्नानं सन्ध्योपासनमार्जवम्।
तीर्थसेवा जपोऽस्पृश्याभक्ष्यासंभाष्यवर्जनम्॥

श्लोक-३५

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वाश्रमप्रयुक्तोऽयं नियमः कुलनन्दन।
मद‍्भावः सर्वभूतेषु मनोवाक्कायसंयमः॥

मूलम्

सर्वाश्रमप्रयुक्तोऽयं नियमः कुलनन्दन।
मद‍्भावः सर्वभूतेषु मनोवाक्कायसंयमः॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रिय उद्धव! शौच, आचमन, स्नान, सन्ध्योपासन, सरलता, तीर्थसेवन, जप, समस्त प्राणियोंमें मुझे ही देखना, मन, वाणी और शरीरका संयम—यह ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यासी—सभीके लिये एक-सा नियम है। अस्पृश्योंको न छूना, अभक्ष्य वस्तुओंको न खाना और जिनसे बोलना नहीं चाहिये उनसे न बोलना—ये नियम भी सबके लिये हैं॥ ३४-३५॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

मद्भावः मद्विषयभावनायुक्तः ॥ ३५ ॥

श्लोक-३६

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं बृहद्‍व्रतधरो ब्राह्मणोऽग्निरिव ज्वलन्।
मद‍्भक्तस्तीव्रतपसा दग्धकर्माशयोऽमलः॥

मूलम्

एवं बृहद्‍व्रतधरो ब्राह्मणोऽग्निरिव ज्वलन्।
मद‍्भक्तस्तीव्रतपसा दग्धकर्माशयोऽमलः॥

अनुवाद (हिन्दी)

नैष्ठिक ब्रह्मचारी ब्राह्मण इन नियमोंका पालन करनेसे अग्निके समान तेजस्वी हो जाता है। तीव्र तपस्याके कारण उसके कर्मसंस्कार भस्म हो जाते हैं, अन्तःकरण शुद्ध हो जाता है और वह मेरा भक्त होकर मुझे प्राप्त कर लेता है॥ ३६॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

मद्भक्त इति आश्रमधर्मेण सह मद्भक्तियुक्तश्चेन्मुच्येदित्यर्थः ॥ ३६-३७ ॥

श्लोक-३७

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथानन्तरमावेक्ष्यन् यथा जिज्ञासितागमः।
गुरवे दक्षिणां दत्त्वा स्नायाद् गुर्वनुमोदितः॥

मूलम्

अथानन्तरमावेक्ष्यन् यथा जिज्ञासितागमः।
गुरवे दक्षिणां दत्त्वा स्नायाद् गुर्वनुमोदितः॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्यारे उद्धव! यदि नैष्ठिक ब्रह्मचर्य ग्रहण करनेकी इच्छा न हो—गृहस्थाश्रममें प्रवेश करना चाहता हो, तो विधिपूर्वक वेदाध्ययन समाप्त करके आचार्यको दक्षिणा देकर और उनकी अनुमति लेकर समावर्तन-संस्कार करावे—स्नातक बनकर ब्रह्मचर्याश्रम छोड़ दे॥ ३७॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

आवेक्ष्यन् आश्रमान्तरं प्रवेदयन् ॥ ३८-४२ ॥

श्लोक-३८

विश्वास-प्रस्तुतिः

गृहं वनं वोपविशेत् प्रव्रजेद् वा द्विजोत्तमः।
आश्रमादाश्रमं गच्छेन्नान्यथा मत्परश्चरेत्॥

मूलम्

गृहं वनं वोपविशेत् प्रव्रजेद् वा द्विजोत्तमः।
आश्रमादाश्रमं गच्छेन्नान्यथा मत्परश्चरेत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्मचारीको चाहिये कि ब्रह्मचर्य-आश्रमके बाद गृहस्थ अथवा वानप्रस्थ-आश्रममें प्रवेश करे। यदि ब्राह्मण हो तो संन्यास भी ले सकता है। अथवा उसे चाहिये कि क्रमशः एक आश्रमसे दूसरे आश्रममें प्रवेश करे। किन्तु मेरा आज्ञाकारी भक्त बिना आश्रमके रहकर अथवा विपरीत क्रमसे आश्रम-परिवर्तन कर स्वेच्छाचारमें न प्रवृत्त हो॥ ३८॥

श्लोक-३९

विश्वास-प्रस्तुतिः

गृहार्थी सदृशीं भार्यामुद्वहेदजुगुप्सिताम्।
यवीयसीं तु वयसा तां सवर्णामनुक्रमात्॥

मूलम्

गृहार्थी सदृशीं भार्यामुद्वहेदजुगुप्सिताम्।
यवीयसीं तु वयसा तां सवर्णामनुक्रमात्॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रिय उद्धव! यदि ब्रह्मचर्याश्रमके बाद गृहस्थाश्रम स्वीकार करना हो तो ब्रह्मचारीको चाहिये कि अपने अनुरूप एवं शास्त्रोक्त लक्षणोंसे सम्पन्न कुलीन कन्यासे विवाह करे। वह अवस्थामें अपनेसे छोटी और अपने ही वर्णकी होनी चाहिये। यदि कामवश अन्य वर्णकी कन्यासे और विवाह करना हो तो क्रमशः अपनेसे निम्न वर्णकी कन्यासे विवाह कर सकता है॥ ३९॥

श्लोक-४०

विश्वास-प्रस्तुतिः

इज्याध्ययनदानानि सर्वेषां च द्विजन्मनाम्।
प्रतिग्रहोऽध्यापनं च ब्राह्मणस्यैव याजनम्॥

मूलम्

इज्याध्ययनदानानि सर्वेषां च द्विजन्मनाम्।
प्रतिग्रहोऽध्यापनं च ब्राह्मणस्यैव याजनम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

यज्ञ-यागादि, अध्ययन और दान करनेका अधिकार ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्योंको समानरूपसे है। परन्तु दान लेने, पढ़ाने और यज्ञ करानेका अधिकार केवल ब्राह्मणोंको ही है॥ ४०॥

श्लोक-४१

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रतिग्रहं मन्यमानस्तपस्तेजोयशोनुदम्।
अन्याभ्यामेव जीवेत शिलैर्वा दोषदृक् तयोः॥

मूलम्

प्रतिग्रहं मन्यमानस्तपस्तेजोयशोनुदम्।
अन्याभ्यामेव जीवेत शिलैर्वा दोषदृक् तयोः॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्राह्मणको चाहिये कि इन तीनों वृत्तियोंमें प्रतिग्रह अर्थात् दान लेनेकी वृत्तिको तपस्या, तेज और यशका नाश करनेवाली समझकर पढ़ाने और यज्ञ करानेके द्वारा ही अपना जीवन-निर्वाह करे और यदि इन दोनों वृत्तियोंमें भी दोषदृष्टि हो—परावलम्बन, दीनता आदि दोष दीखते हों—तो अन्न कटनेके बाद खेतोंमें पड़े हुए दाने बीनकर ही अपने जीवनका निर्वाह कर ले॥ ४१॥

श्लोक-४२

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्राह्मणस्य हि देहोऽयं क्षुद्रकामाय नेष्यते।
कृच्छ्राय तपसे चेह प्रेत्यानन्तसुखाय च॥

मूलम्

ब्राह्मणस्य हि देहोऽयं क्षुद्रकामाय नेष्यते।
कृच्छ्राय तपसे चेह प्रेत्यानन्तसुखाय च॥

अनुवाद (हिन्दी)

उद्धव! ब्राह्मणका शरीर अत्यन्त दुर्लभ है। यह इसलिये नहीं है कि इसके द्वारा तुच्छ विषय-भोग ही भोगे जायँ। यह तो जीवनपर्यन्त कष्ट भोगने, तपस्या करने और अन्तमें अनन्त आनन्दस्वरूप मोक्षकी प्राप्ति करनेके लिये है॥ ४२॥

श्लोक-४३

विश्वास-प्रस्तुतिः

शिलोञ्छवृत्त्या परितुष्टचित्तो
धर्मं महान्तं विरजं जुषाणः।
मय्यर्पितात्मा गृह एव तिष्ठ-
न्नातिप्रसक्तः समुपैति शान्तिम्॥

मूलम्

शिलोञ्छवृत्त्या परितुष्टचित्तो
धर्मं महान्तं विरजं जुषाणः।
मय्यर्पितात्मा गृह एव तिष्ठ-
न्नातिप्रसक्तः समुपैति शान्तिम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो ब्राह्मण घरमें रहकर अपने महान् धर्मका निष्कामभावसे पालन करता है और खेतोंमें तथा बाजारोंमें गिरे-पड़े दाने चुनकर सन्तोषपूर्वक अपने जीवनका निर्वाह करता है, साथ ही अपना शरीर, प्राण, अन्तःकरण और आत्मा मुझे समर्पित कर देता है और कहीं भी अत्यन्त आसक्ति नहीं करता, वह बिना संन्यास लिये ही परमशान्तिस्वरूप परमपद प्राप्त कर लेता है॥ ४३॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

शान्तिं संसारक्लेशशान्तिम् ॥ ४३ - ४६ ॥

श्लोक-४४

विश्वास-प्रस्तुतिः

समुद्धरन्ति ये विप्रं सीदन्तं मत्परायणम्।
तानुद्धरिष्ये नचिरादापद‍्भ्यो नौरिवार्णवात्॥

मूलम्

समुद्धरन्ति ये विप्रं सीदन्तं मत्परायणम्।
तानुद्धरिष्ये नचिरादापद‍्भ्यो नौरिवार्णवात्॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो लोग विपत्तिमें पड़े कष्ट पा रहे मेरे भक्त ब्राह्मणको विपत्तियोंसे बचा लेते हैं, उन्हें मैं शीघ्र ही समस्त आपत्तियोंसे उसी प्रकार बचा लेता हूँ, जैसे समुद्रमें डूबते हुए प्राणीको नौका बचा लेती है॥ ४४॥

श्लोक-४५

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वाः समुद्धरेद् राजा पितेव व्यसनात् प्रजाः।
आत्मानमात्मना धीरो यथा गजपतिर्गजान्॥

मूलम्

सर्वाः समुद्धरेद् राजा पितेव व्यसनात् प्रजाः।
आत्मानमात्मना धीरो यथा गजपतिर्गजान्॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा पिताके समान सारी प्रजाका कष्टसे उद्धार करे—उन्हें बचावे, जैसे गजराज दूसरे गजोंकी रक्षा करता है और धीर होकर स्वयं अपने-आपसे अपना उद्धार करे॥ ४५॥

श्लोक-४६

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवंविधो नरपतिर्विमानेनार्कवर्चसा।
विधूयेहाशुभं कृत्स्नमिन्द्रेण सह मोदते॥

मूलम्

एवंविधो नरपतिर्विमानेनार्कवर्चसा।
विधूयेहाशुभं कृत्स्नमिन्द्रेण सह मोदते॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो राजा इस प्रकार प्रजाकी रक्षा करता है, वह सारे पापोंसे मुक्त होकर अन्त समयमें सूर्यके समान तेजस्वी विमानपर चढ़कर स्वर्गलोकमें जाता है और इन्द्रके साथ सुख भोगता है॥ ४६॥

श्लोक-४७

विश्वास-प्रस्तुतिः

सीदन् विप्रो वणिग्वृत्त्या पण्यैरेवापदं तरेत्।
खड्गेन वाऽऽपदाक्रान्तो न श्ववृत्त्या कथञ्चन॥

मूलम्

सीदन् विप्रो वणिग्वृत्त्या पण्यैरेवापदं तरेत्।
खड्गेन वाऽऽपदाक्रान्तो न श्ववृत्त्या कथञ्चन॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि ब्राह्मण अध्यापन अथवा यज्ञ-यागादिसे अपनी जीविका न चला सके, तो वैश्यवृत्तिका आश्रय ले ले, और जब-तक विपत्ति दूर न हो जाय तबतक करे। यदि बहुत बड़ी आपत्तिका सामना करना पड़े तो तलवार उठाकर क्षत्रियोंकी वृत्तिसे भी अपना काम चला ले, परन्तु किसी भी अवस्थामें नीचोंकी सेवा—जिसे ‘श्वानवृत्ति’ कहते हैं—न करे॥ ४७॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

श्ववृत्त्या सेवया ॥ ४७-५१ ॥

श्लोक-४८

विश्वास-प्रस्तुतिः

वैश्यवृत्त्या तु राजन्यो जीवेन्मृगययाऽऽपदि।
चरेद् वा विप्ररूपेण न श्ववृत्त्या कथञ्चन॥

मूलम्

वैश्यवृत्त्या तु राजन्यो जीवेन्मृगययाऽऽपदि।
चरेद् वा विप्ररूपेण न श्ववृत्त्या कथञ्चन॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी प्रकार यदि क्षत्रिय भी प्रजापालन आदिके द्वारा अपने जीवनका निर्वाह न कर सके तो वैश्यवृत्ति व्यापार आदि कर ले। बहुत बड़ी आपत्ति हो तो शिकारके द्वारा अथवा विद्यार्थियोंको पढ़ाकर अपनी आपत्तिके दिन काट दे, परन्तु नीचोंकी सेवा, ‘श्वानवृत्ति’ का आश्रय कभी न ले॥ ४८॥

श्लोक-४९

विश्वास-प्रस्तुतिः

शूद्रवृत्तिं भजेद् वैश्यः शूद्रः कारुकटक्रियाम्।
कृच्छ्रान्मुक्तो न गर्ह्येण वृत्तिं लिप्सेत कर्मणा॥

मूलम्

शूद्रवृत्तिं भजेद् वैश्यः शूद्रः कारुकटक्रियाम्।
कृच्छ्रान्मुक्तो न गर्ह्येण वृत्तिं लिप्सेत कर्मणा॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैश्य भी आपत्तिके समय शूद्रोंकी वृत्ति सेवासे अपना जीवन-निर्वाह कर ले और शूद्र चटाई बुनने आदि कारुवृत्तिका आश्रय ले ले; परन्तु उद्धव! ये सारी बातें आपत्तिकालके लिये ही हैं। आपत्तिका समय बीत जानेपर निम्नवर्णोंकी वृत्तिसे जीविकोपार्जन करनेका लोभ न करे॥ ४९॥

श्लोक-५०

विश्वास-प्रस्तुतिः

वेदाध्यायस्वधास्वाहाबल्यन्नाद्यैर्यथोदयम्।
देवर्षिपितृभूतानि मद‍‍्रूपाण्यन्वहं यजेत्॥

मूलम्

वेदाध्यायस्वधास्वाहाबल्यन्नाद्यैर्यथोदयम्।
देवर्षिपितृभूतानि मद‍‍्रूपाण्यन्वहं यजेत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

गृहस्थ पुरुषको चाहिये कि वेदाध्ययनरूप ब्रह्मयज्ञ, तर्पणरूप पितृयज्ञ, हवनरूप देवयज्ञ, काकबलि आदि भूतयज्ञ और अन्नदानरूप अतिथि यज्ञ आदिके द्वारा मेरे स्वरूपभूत ऋषि, देवता, पितर, मनुष्य एवं अन्य समस्त प्राणियोंकी यथाशक्ति प्रतिदिन पूजा करता रहे॥ ५०॥

श्लोक-५१

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदृच्छयोपपन्नेन शुक्लेनोपार्जितेन वा।
धनेनापीडयन् भृत्यान् न्यायेनैवाहरेत् क्रतून्॥

मूलम्

यदृच्छयोपपन्नेन शुक्लेनोपार्जितेन वा।
धनेनापीडयन् भृत्यान् न्यायेनैवाहरेत् क्रतून्॥

अनुवाद (हिन्दी)

गृहस्थ पुरुष अनायास प्राप्त अथवा शास्त्रोक्त रीतिसे उपार्जित अपने शुद्ध धनसे अपने भृत्य, आश्रित प्रजाजनको किसी प्रकारका कष्ट न पहुँचाते हुए न्याय और विधिके साथ ही यज्ञ करे॥ ५१॥

श्लोक-५२

विश्वास-प्रस्तुतिः

कुटुम्बेषु न सज्जेत न प्रमाद्येत् कुटुम्ब्यपि।
विपश्चिन्नश्वरं पश्येददृष्टमपि दृष्टवत्॥

मूलम्

कुटुम्बेषु न सज्जेत न प्रमाद्येत् कुटुम्ब्यपि।
विपश्चिन्नश्वरं पश्येददृष्टमपि दृष्टवत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रिय उद्धव! गृहस्थ पुरुष कुटुम्बमें आसक्त न हो। बड़ा कुटुम्ब होनेपर भी भजनमें प्रमाद न करे। बुद्धिमान् पुरुषको यह बात भी समझ लेनी चाहिये कि जैसे इस लोककी सभी वस्तुएँ नाशवान् हैं, वैसे ही स्वर्गादि परलोकके भोग भी नाशवान् ही हैं॥ ५२॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

अदृष्टमपि दृष्टवदिति अनित्यमित्यर्थः ॥ ५२-५३-

श्लोक-५३

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुत्रदाराप्तबन्धूनां सङ्गमः पान्थसङ्गमः।
अनुदेहं वियन्त्येते स्वप्नो निद्रानुगो यथा॥

मूलम्

पुत्रदाराप्तबन्धूनां सङ्गमः पान्थसङ्गमः।
अनुदेहं वियन्त्येते स्वप्नो निद्रानुगो यथा॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह जो स्त्री-पुत्र, भाई-बन्धु और गुरुजनोंका मिलना-जुलना है, यह वैसा ही है, जैसे किसी प्याऊपर कुछ बटोही इकट्ठे हो गये हों। सबको अलग-अलग रास्ते जाना है। जैसे स्वप्न नींद टूटनेतक ही रहता है, वैसे ही इन मिलने-जुलने वालोंका सम्बन्ध ही बस, शरीरके रहनेतक ही रहता है; फिर तो कौन किसको पूछता है॥ ५३॥

श्लोक-५४

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्थं परिमृशन्मुक्तो गृहेष्वतिथिवद् वसन्।
न गृहैरनुबध्येत निर्ममो निरहङ्कृतः॥

मूलम्

इत्थं परिमृशन्मुक्तो गृहेष्वतिथिवद् वसन्।
न गृहैरनुबध्येत निर्ममो निरहङ्कृतः॥

अनुवाद (हिन्दी)

गृहस्थको चाहिये कि इस प्रकार विचार करके घर-गृहस्थीमें फँसे नहीं, उसमें इस प्रकार अनासक्तभावसे रहे मानो कोई अतिथि निवास कर रहा हो। जो शरीर आदिमें अहंकार और घर आदिमें ममता नहीं करता, उसे घर-गृहस्थीके फंदे बाँध नहीं सकते॥ ५४॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

अतिथिवन्ममकाररहितः निरहंकृतिरिति साहित्येऽपि भगवज्ज्ञानवतां मोक्ष इत्यर्थः ॥ ५४-५६ ॥

इति श्रीमद्भागवतव्याख्याने एकादशस्कन्धीये श्रीसुदर्शनसूरिकृतशुकपक्षीये सप्तदशोऽध्यायः ॥ १७ ॥

श्लोक-५५

विश्वास-प्रस्तुतिः

कर्मभिर्गृहमेधीयैरिष्ट्वा मामेव भक्तिमान्।
तिष्ठेद् वनं वोपविशेत् प्रजावान् वा परिव्रजेद्॥

मूलम्

कर्मभिर्गृहमेधीयैरिष्ट्वा मामेव भक्तिमान्।
तिष्ठेद् वनं वोपविशेत् प्रजावान् वा परिव्रजेद्॥

अनुवाद (हिन्दी)

भक्तिमान् पुरुष गृहस्थोचित शास्त्रोक्त कर्मोंके द्वारा मेरी आराधना करता हुआ घरमें ही रहे, अथवा यदि पुत्रवान् हो तो वानप्रस्थ आश्रममें चला जाय या संन्यासाश्रम स्वीकार कर ले॥ ५५॥

श्लोक-५६

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्त्वासक्तमतिर्गेहे पुत्रवित्तैषणातुरः।
स्त्रैणः कृपणधीर्मूढो ममाहमिति बध्यते॥

मूलम्

यस्त्वासक्तमतिर्गेहे पुत्रवित्तैषणातुरः।
स्त्रैणः कृपणधीर्मूढो ममाहमिति बध्यते॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रिय उद्धव! जो लोग इस प्रकारका गृहस्थ जीवन न बिताकर घर-गृहस्थीमें ही आसक्त हो जाते हैं, स्त्री, पुत्र और धनकी कामनाओंमें फँसकर हाय-हाय करते रहते और मूढ़तावश स्त्रीलम्पट और कृपण होकर मैं-मेरेके फेरमें पड़ जाते हैं, वे बँध जाते हैं॥ ५६॥

श्लोक-५७

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहो मे पितरौ वृद्धौ भार्या बालात्मजाऽऽत्मजाः।
अनाथा मामृते दीनाः कथं जीवन्ति दुःखिताः॥

मूलम्

अहो मे पितरौ वृद्धौ भार्या बालात्मजाऽऽत्मजाः।
अनाथा मामृते दीनाः कथं जीवन्ति दुःखिताः॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे सोचते रहते हैं—हाय! हाय! मेरे माँ-बाप बूढ़े हो गये; पत्नीके बाल-बच्चे अभी छोटे-छोटे हैं, मेरे न रहनेपर ये दीन, अनाथ और दुःखी हो जायँगे; फिर इनका जीवन कैसे रहेगा?’॥ ५७॥

श्लोक-५८

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं गृहाशयाक्षिप्तहृदयो मूढधीरयम्।
अतृप्तस्ताननुध्यायन् मृतोऽन्धं विशते तमः॥

मूलम्

एवं गृहाशयाक्षिप्तहृदयो मूढधीरयम्।
अतृप्तस्ताननुध्यायन् मृतोऽन्धं विशते तमः॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार घर-गृहस्थीकी वासनासे जिसका चित्त विक्षिप्त हो रहा है, वह मूढ़बुद्धि पुरुष विषयभोगोंसे कभी तृप्त नहीं होता, उन्हींमें उलझकर अपना जीवन खो बैठता है और मरकर घोर तमोमय नरकमें जाता है॥ ५८॥

अनुवाद (समाप्ति)

इति श्रीमद‍्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायामेकादशस्कन्धे सप्तदशोऽध्यायः॥ १७॥