[षोडशोऽध्यायः]
भागसूचना
भगवान्की विभूतियोंका वर्णन
श्लोक-१
मूलम् (वचनम्)
उद्धव उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वं ब्रह्म परमं साक्षादनाद्यन्तमपावृतम्।
सर्वेषामपि भावानां त्राणस्थित्यप्ययोद्भवः॥
मूलम्
त्वं ब्रह्म परमं साक्षादनाद्यन्तमपावृतम्।
सर्वेषामपि भावानां त्राणस्थित्यप्ययोद्भवः॥
श्लोक-२
विश्वास-प्रस्तुतिः
उच्चावचेषु भूतेषु दुर्ज्ञेयमकृतात्मभिः।
उपासते त्वां भगवन् याथातथ्येन ब्राह्मणाः॥
मूलम्
उच्चावचेषु भूतेषु दुर्ज्ञेयमकृतात्मभिः।
उपासते त्वां भगवन् याथातथ्येन ब्राह्मणाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
उद्धवजीने कहा—भगवन्! आप स्वयं परब्रह्म हैं, न आपका आदि है और न अन्त। आप आवरण—रहित, अद्वितीय तत्त्व हैं। समस्त प्राणियों और पदार्थोंकी उत्पत्ति, स्थिति, रक्षा और प्रलयके कारण भी आप ही हैं। आप ऊँचे-नीचे सभी प्राणियोंमें स्थित हैं; परन्तु जिन लोगोंने अपने मन और इन्द्रियोंको वशमें नहीं किया है, वे आपको नहीं जान सकते। आपकी यथोचित उपासना तो ब्रह्मवेत्ता पुरुष ही करते हैं॥ १-२॥
श्लोक-३
विश्वास-प्रस्तुतिः
येषु येषु च भावेषु भक्त्या त्वां परमर्षयः।
उपासीनाः प्रपद्यन्ते संसिद्धिं तद् वदस्व मे॥
मूलम्
येषु येषु च भावेषु भक्त्या त्वां परमर्षयः।
उपासीनाः प्रपद्यन्ते संसिद्धिं तद् वदस्व मे॥
अनुवाद (हिन्दी)
बड़े-बड़े ऋषि-महर्षि आपके जिन रूपों और विभूतियोंकी परम भक्तिके साथ उपासना करके सिद्धि प्राप्त करते हैं, वह आप मुझसे कहिये॥ ३॥
श्लोक-४
विश्वास-प्रस्तुतिः
गूढश्चरसि भूतात्मा भूतानां भूतभावन।
न त्वां पश्यन्ति भूतानि पश्यन्तं मोहितानि ते॥
मूलम्
गूढश्चरसि भूतात्मा भूतानां भूतभावन।
न त्वां पश्यन्ति भूतानि पश्यन्तं मोहितानि ते॥
अनुवाद (हिन्दी)
समस्त प्राणियोंके जीवनदाता प्रभो! आप समस्त प्राणियोंके अन्तरात्मा हैं। आप उनमें अपनेको गुप्त रखकर लीला करते रहते हैं। आप तो सबको देखते हैं, परन्तु जगत्के प्राणी आपकी मायासे ऐसे मोहित हो रहे हैं कि वे आपको नहीं देख पाते॥ ४॥
श्लोक-५
विश्वास-प्रस्तुतिः
याः काश्च भूमौ दिवि वै रसायां
विभूतयो दिक्षु महाविभूते।
ता मह्यमाख्याह्यनुभावितास्ते
नमामि ते तीर्थपदाङ्घ्रिपद्मम्॥
मूलम्
याः काश्च भूमौ दिवि वै रसायां
विभूतयो दिक्षु महाविभूते।
ता मह्यमाख्याह्यनुभावितास्ते
नमामि ते तीर्थपदाङ्घ्रिपद्मम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
अचिन्त्य ऐश्वर्य सम्पन्न प्रभो! पृथ्वी, स्वर्ग, पाताल तथा दिशा-विदिशाओंमें आपके प्रभावसे युक्त जो-जो भी विभूतियाँ हैं, आप कृपा करके मुझसे उनका वर्णन कीजिये। प्रभो! मैं आपके उन चरणकमलोंकी वन्दना करता हूँ, जो समस्त तीर्थोंको भी तीर्थ बनानेवाले हैं॥ ५॥
श्लोक-६
मूलम् (वचनम्)
श्रीभगवानुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमेतदहं पृष्टः प्रश्नं प्रश्नविदां वर।
युयुत्सुना विनशने सपत्नैरर्जुनेन वै॥
मूलम्
एवमेतदहं पृष्टः प्रश्नं प्रश्नविदां वर।
युयुत्सुना विनशने सपत्नैरर्जुनेन वै॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् श्रीकृष्णने कहा—प्रिय उद्धव! तुम प्रश्नका मर्म समझनेवालोंमें शिरोमणि हो। जिस समय कुरुक्षेत्रमें कौरव-पाण्डवोंका युद्ध छिड़ा हुआ था, उस समय शत्रुओंसे युद्धके लिये तत्पर अर्जुनने मुझसे यही प्रश्न किया था॥ ६॥
श्लोक-७
विश्वास-प्रस्तुतिः
ज्ञात्वा ज्ञातिवधं गर्ह्यमधर्मं राज्यहेतुकम्।
ततो निवृत्तो हन्ताहं हतोऽयमिति लौकिकः॥
मूलम्
ज्ञात्वा ज्ञातिवधं गर्ह्यमधर्मं राज्यहेतुकम्।
ततो निवृत्तो हन्ताहं हतोऽयमिति लौकिकः॥
अनुवाद (हिन्दी)
अर्जुनके मनमें ऐसी धारणा हुई कि कुटुम्बियोंको मारना, और सो भी राज्यके लिये, बहुत ही निन्दनीय अधर्म है। साधारण पुरुषोंके समान वह यह सोच रहा था कि ‘मैं मारनेवाला हूँ और ये सब मरनेवाले हैं।’ यह सोचकर वह युद्धसे उपरत हो गया॥ ७॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
ततो निवृत्त इति । आत्मनित्यत्वाज्ञानादहं हन्ता अयं हृत इति लोकदृष्टया युद्धान्निवृत्त इत्यर्थ ॥ १-७ ॥
श्लोक-८
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तदा पुरुषव्याघ्रो युक्त्या मे प्रतिबोधितः।
अभ्यभाषत मामेवं यथा त्वं रणमूर्धनि॥
मूलम्
स तदा पुरुषव्याघ्रो युक्त्या मे प्रतिबोधितः।
अभ्यभाषत मामेवं यथा त्वं रणमूर्धनि॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब मैंने रणभूमिमें बहुत-सी युक्तियाँ देकर वीरशिरोमणि अर्जुनको समझाया था। उस समय अर्जुनने भी मुझसे यही प्रश्न किया था, जो तुम कर रहे हो॥ ८॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
रणमूर्द्धन्यभ्यभाषत इत्यन्वयः ॥ ८
श्लोक-९
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहमात्मोद्धवामीषां भूतानां सुहृदीश्वरः।
अहं सर्वाणि भूतानि तेषां स्थित्युद्भवाप्ययः॥
मूलम्
अहमात्मोद्धवामीषां भूतानां सुहृदीश्वरः।
अहं सर्वाणि भूतानि तेषां स्थित्युद्भवाप्ययः॥
अनुवाद (हिन्दी)
उद्धवजी! मैं समस्त प्राणियोंका आत्मा, हितैषी, सुहृद् और ईश्वर—नियामक हूँ। मैं ही इन समस्त प्राणियों और पदार्थोंके रूपमें हूँ और इनकी उत्पत्ति, स्थिति एवं प्रलयका कारण भी हूँ॥ ९॥
श्लोक-१०
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहं गतिर्गतिमतां कालः कलयतामहम्।
गुणानां चाप्यहं साम्यं गुणिन्यौत्पत्तिको गुणः॥
मूलम्
अहं गतिर्गतिमतां कालः कलयतामहम्।
गुणानां चाप्यहं साम्यं गुणिन्यौत्पत्तिको गुणः॥
अनुवाद (हिन्दी)
गतिशील पदार्थोंमें मैं गति हूँ। अपने अधीन करनेवालोंमें मैं काल हूँ। गुणोंमें मैं उनकी मूलस्वरूपा साम्यावस्था हूँ और जितने भी गुणवान् पदार्थ हैं, उनमें उनका स्वाभाविक गुण हूँ॥ १०॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
अहं गतिरिति गतिर्मदधीनेत्यर्थः ॥ १० ॥
श्लोक-११
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुणिनामप्यहं सूत्रं महतां च महानहम्।
सूक्ष्माणामप्यहं जीवो दुर्जयानामहं मनः॥
मूलम्
गुणिनामप्यहं सूत्रं महतां च महानहम्।
सूक्ष्माणामप्यहं जीवो दुर्जयानामहं मनः॥
अनुवाद (हिन्दी)
गुणयुक्त वस्तुओंमें मैं क्रिया-शक्ति-प्रधान प्रथम कार्य सूत्रात्मा हूँ और महानोंमें ज्ञान-शक्तिप्रधान प्रथम कार्य महत्तत्त्व हूँ। सूक्ष्म वस्तुओंमें मैं जीव हूँ और कठिनाईसे वशमें होनेवालोंमें मन हूँ॥ ११॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
गुणिनां गुणवतां सूत्रं महत्तत्त्वम् ॥ ११-२२ ॥
श्लोक-१२
विश्वास-प्रस्तुतिः
हिरण्यगर्भो वेदानां मन्त्राणां प्रणवस्त्रिवृत्।
अक्षराणामकारोऽस्मि पदानिच्छन्दसामहम्॥
मूलम्
हिरण्यगर्भो वेदानां मन्त्राणां प्रणवस्त्रिवृत्।
अक्षराणामकारोऽस्मि पदानिच्छन्दसामहम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं वेदोंका अभिव्यक्ति स्थान हिरण्यगर्भ हूँ और मन्त्रोंमें तीन मात्राओं (अ+उ+म) वाला ओंकार हूँ। मैं अक्षरोंमें अकार, छन्दोंमें त्रिपदा गायत्री हूँ॥ १२॥
श्लोक-१३
विश्वास-प्रस्तुतिः
इन्द्रोऽहं सर्वदेवानां वसूनामस्मि हव्यवाट्।
आदित्यानामहं विष्णू रुद्राणां नीललोहितः॥
मूलम्
इन्द्रोऽहं सर्वदेवानां वसूनामस्मि हव्यवाट्।
आदित्यानामहं विष्णू रुद्राणां नीललोहितः॥
अनुवाद (हिन्दी)
समस्त देवताओंमें इन्द्र, आठ वसुओंमें अग्नि, द्वादश आदित्योंमें विष्णु और एकादश रुद्रोंमें नीललोहित नामका रुद्र हूँ॥ १३॥
श्लोक-१४
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रह्मर्षीणां भृगुरहं राजर्षीणामहं मनुः।
देवर्षीणां नारदोऽहं हविर्धान्यस्मि धेनुषु॥
मूलम्
ब्रह्मर्षीणां भृगुरहं राजर्षीणामहं मनुः।
देवर्षीणां नारदोऽहं हविर्धान्यस्मि धेनुषु॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं ब्रह्मर्षियोंमें भृगु, राजर्षियोंमें मनु, देवर्षियोंमें नारद और गौओंमें कामधेनु हूँ॥ १४॥
श्लोक-१५
विश्वास-प्रस्तुतिः
सिद्धेश्वराणां कपिलः सुपर्णोऽहं पतत्त्रिणाम्।
प्रजापतीनां दक्षोऽहं पितॄणामहमर्यमा॥
मूलम्
सिद्धेश्वराणां कपिलः सुपर्णोऽहं पतत्त्रिणाम्।
प्रजापतीनां दक्षोऽहं पितॄणामहमर्यमा॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं सिद्धेश्वरोंमें कपिल, पक्षियोंमें गरुड़, प्रजापतियोंमें दक्ष प्रजापति और पितरोंमें अर्यमा हूँ॥ १५॥
श्लोक-१६
विश्वास-प्रस्तुतिः
मां विद्ध्युद्धव दैत्यानां प्रह्रादमसुरेश्वरम्।
सोमं नक्षत्रौषधीनां धनेशं यक्षरक्षसाम्॥
मूलम्
मां विद्ध्युद्धव दैत्यानां प्रह्रादमसुरेश्वरम्।
सोमं नक्षत्रौषधीनां धनेशं यक्षरक्षसाम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रिय उद्धव! मैं दैत्योंमें दैत्यराज प्रह्लाद, नक्षत्रोंमें चन्द्रमा, ओषधियोंमें सोमरस एवं यक्ष-राक्षसोंमें कुबेर हूँ—ऐसा समझो॥ १६॥
श्लोक-१७
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऐरावतं गजेन्द्राणां यादसां वरुणं प्रभुम्।
तपतां द्युमतां सूर्यं मनुष्याणां च भूपतिम्॥
मूलम्
ऐरावतं गजेन्द्राणां यादसां वरुणं प्रभुम्।
तपतां द्युमतां सूर्यं मनुष्याणां च भूपतिम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं गजराजोंमें ऐरावत, जलनिवासियोंमें उनका प्रभु वरुण, तपने और चमकनेवालोंमें सूर्य तथा मनुष्योंमें राजा हूँ॥ १७॥
श्लोक-१८
विश्वास-प्रस्तुतिः
उच्चैःश्रवास्तुरङ्गाणां धातूनामस्मि काञ्चनम्।
यमः संयमतां चाहं सर्पाणामस्मि वासुकिः॥
मूलम्
उच्चैःश्रवास्तुरङ्गाणां धातूनामस्मि काञ्चनम्।
यमः संयमतां चाहं सर्पाणामस्मि वासुकिः॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं घोड़ोंमें उच्चैःश्रवा, धातुओंमें सोना, दण्डधारियोंमें यम और सर्पोंमें वासुकि हूँ॥ १८॥
श्लोक-१९
विश्वास-प्रस्तुतिः
नागेन्द्राणामनन्तोऽहं मृगेन्द्रः शृङ्गिदंष्ट्रिणाम्।
आश्रमाणामहं तुर्यो वर्णानां प्रथमोऽनघ॥
मूलम्
नागेन्द्राणामनन्तोऽहं मृगेन्द्रः शृङ्गिदंष्ट्रिणाम्।
आश्रमाणामहं तुर्यो वर्णानां प्रथमोऽनघ॥
अनुवाद (हिन्दी)
निष्पाप उद्धवजी! मैं नागराजोंमें शेषनाग, सींग और दाढ़वाले प्राणियोंमें उनका राजा सिंह, आश्रमोंमें संन्यास और वर्णोंमें ब्राह्मण हूँ॥ १९॥
श्लोक-२०
विश्वास-प्रस्तुतिः
तीर्थानां स्रोतसां गङ्गा समुद्रः सरसामहम्।
आयुधानां धनुरहं त्रिपुरघ्नो धनुष्मताम्॥
मूलम्
तीर्थानां स्रोतसां गङ्गा समुद्रः सरसामहम्।
आयुधानां धनुरहं त्रिपुरघ्नो धनुष्मताम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं तीर्थ और नदियोंमें गंगा, जलाशयोंमें समुद्र, अस्त्र-शस्त्रोंमें धनुष तथा धनुर्धरोंमें त्रिपुरारि शंकर हूँ॥ २०॥
श्लोक-२१
विश्वास-प्रस्तुतिः
धिष्ण्यानामस्म्यहं मेरुर्गहनानां हिमालयः।
वनस्पतीनामश्वत्थ ओषधीनामहं यवः॥
मूलम्
धिष्ण्यानामस्म्यहं मेरुर्गहनानां हिमालयः।
वनस्पतीनामश्वत्थ ओषधीनामहं यवः॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं निवासस्थानोंमें सुमेरु, दुर्गम स्थानोंमें हिमालय, वनस्पतियोंमें पीपल और धान्योंमें जौ हूँ॥ २१॥
श्लोक-२२
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुरोधसां वसिष्ठोऽहं ब्रह्मिष्ठानां बृहस्पतिः।
स्कन्दोऽहं सर्वसेनान्यामग्रण्यां भगवानजः॥
मूलम्
पुरोधसां वसिष्ठोऽहं ब्रह्मिष्ठानां बृहस्पतिः।
स्कन्दोऽहं सर्वसेनान्यामग्रण्यां भगवानजः॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं पुरोहितोंमें वसिष्ठ, वेदवेत्ताओंमें बृहस्पति, समस्त सेनापतियोंमें स्वामिकार्तिक और सन्मार्गप्रवर्तकोंमें भगवान् ब्रह्मा हूँ॥ २२॥
श्लोक-२३
विश्वास-प्रस्तुतिः
यज्ञानां ब्रह्मयज्ञोऽहं व्रतानामविहिंसनम्।
वाय्वग्न्यर्काम्बुवागात्मा शुचीनामप्यहं शुचिः॥
मूलम्
यज्ञानां ब्रह्मयज्ञोऽहं व्रतानामविहिंसनम्।
वाय्वग्न्यर्काम्बुवागात्मा शुचीनामप्यहं शुचिः॥
अनुवाद (हिन्दी)
पंचमहायज्ञोंमें ब्रह्मयज्ञ (स्वाध्याययज्ञ) हूँ, व्रतोंमें अहिंसाव्रत और शुद्ध करनेवाले पदार्थोंमें नित्यशुद्ध वायु, अग्नि, सूर्य, जल, वाणी एवं आत्मा हूँ॥ २३॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
वाय्वग्नीति । शुचीनां शोधकानां मध्ये वाय्वादिपदार्थोऽहमित्यर्थः ॥ २३ ॥
श्लोक-२४
विश्वास-प्रस्तुतिः
योगानामात्मसंरोधो मन्त्रोऽस्मि विजिगीषताम्।
आन्वीक्षिकी कौशलानां विकल्पः ख्यातिवादिनाम्॥
मूलम्
योगानामात्मसंरोधो मन्त्रोऽस्मि विजिगीषताम्।
आन्वीक्षिकी कौशलानां विकल्पः ख्यातिवादिनाम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
आठ प्रकारके योगोंमें मैं मनोनिरोधरूप समाधि हूँ। विजयके इच्छुकोंमें रहनेवाला मैं मन्त्र (नीति) बल हूँ, कौशलोंमें आत्मा और अनात्माका विवेकरूप कौशल तथा ख्यातिवादियोंमें विकल्प हूँ॥ २४॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
ख्यातिवादिनामिति । तार्किकपक्षोपलक्षणं विकल्पः त्वया किमेवमुच्यते उतान्यथेति विकल्पः ॥ २४ ॥
श्लोक-२५
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्त्रीणां तु शतरूपाहं पुंसां स्वायम्भुवो मनुः।
नारायणो मुनीनां च कुमारो ब्रह्मचारिणाम्॥
मूलम्
स्त्रीणां तु शतरूपाहं पुंसां स्वायम्भुवो मनुः।
नारायणो मुनीनां च कुमारो ब्रह्मचारिणाम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं स्त्रियोंमें मनुपत्नी शतरूपा, पुरुषोंमें स्वायम्भुव मनु, मुनीश्वरोंमें नारायण और ब्रह्मचारियोंमें सनत्कुमार हूँ॥ २५॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
कुमारः सनत्कुमारः ॥ २५ ॥
श्लोक-२६
विश्वास-प्रस्तुतिः
धर्माणामस्मि संन्यासः क्षेमाणामबहिर्मतिः।
गुह्यानां सूनृतं मौनं मिथुनानामजस्त्वहम्॥
मूलम्
धर्माणामस्मि संन्यासः क्षेमाणामबहिर्मतिः।
गुह्यानां सूनृतं मौनं मिथुनानामजस्त्वहम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं धर्मोंमें कर्मसंन्यास अथवा एषणात्रयके त्यागद्वारा सम्पूर्ण प्राणियोंको अभयदानरूप सच्चा संन्यास हूँ। अभयके साधनोंमें आत्मस्वरूपका अनुसन्धान हूँ, अभिप्राय-गोपनके साधनोंमें मधुर वचन एवं मौन हूँ और स्त्री-पुरुषके जोड़ोंमें मैं प्रजापति हूँ—जिनके शरीरके दो भागोंसे पुरुष और स्त्रीका पहला जोड़ा पैदा हुआ॥ २६॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
संन्यासः फलत्यागः अबहिर्मतिः प्रत्यगात्मानुसन्धानम् ॥ २६ ॥
श्लोक-२७
विश्वास-प्रस्तुतिः
संवत्सरोऽस्म्यनिमिषामृतूनां मधुमाधवौ।
मासानां मार्गशीर्षोऽहं नक्षत्राणां तथाभिजित्॥
मूलम्
संवत्सरोऽस्म्यनिमिषामृतूनां मधुमाधवौ।
मासानां मार्गशीर्षोऽहं नक्षत्राणां तथाभिजित्॥
अनुवाद (हिन्दी)
सदा सावधान रहकर जागनेवालोंमें संवत्सररूप काल मैं हूँ, ऋतुओंमें वसन्त, महीनोंमें मार्गशीर्ष और नक्षत्रोंमें अभिजित् हूँ॥ २७॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
अनिमिषां कालावयवानाम् अनिमिषः कालस्तेनावयवा लक्षिताः ॥ २७ ॥
श्लोक-२८
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहं युगानां च कृतं धीराणां देवलोऽसितः।
द्वैपायनोऽस्मि व्यासानां कवीनां काव्य आत्मवान्॥
मूलम्
अहं युगानां च कृतं धीराणां देवलोऽसितः।
द्वैपायनोऽस्मि व्यासानां कवीनां काव्य आत्मवान्॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं युगोंमें सत्ययुग, विवेकियोंमें महर्षि देवल और असित, व्यासोंमें श्रीकृष्णद्वैपायन व्यास तथा कवियोंमें मनस्वी शुक्राचार्य हूँ॥ २८॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
कवीनां दिव्यदर्शिनाम् ॥ २८ ॥
श्लोक-२९
विश्वास-प्रस्तुतिः
वासुदेवो भगवतां त्वं तु भागवतेष्वहम्।
किंपुरुषाणां हनुमान् विद्याध्राणां सुदर्शनः॥
मूलम्
वासुदेवो भगवतां त्वं तु भागवतेष्वहम्।
किंपुरुषाणां हनुमान् विद्याध्राणां सुदर्शनः॥
अनुवाद (हिन्दी)
सृष्टिकी उत्पत्ति और लय, प्राणियोंके जन्म और मृत्यु तथा विद्या और अविद्याके जाननेवाले भगवानोंमें (विशिष्ट महा-पुरुषोंमें) मैं वासुदेव हूँ। मेरे प्रेमी भक्तोंमें तुम (उद्धव), किम्पुरुषोंमें हनुमान् , विद्याधरोंमें सुदर्शन (जिसने अजगरके रूपमें नन्दबाबाको ग्रस लिया था और फिर भगवान्के पादस्पर्शसे मुक्त हो गया था) मैं हूँ॥ २९॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
भगवतां ज्ञानैश्वर्यादिमतां निर्वाहको वासुदेवोऽहम् ॥ २९-३१ ॥
श्लोक-३०
विश्वास-प्रस्तुतिः
रत्नानां पद्मरागोऽस्मि पद्मकोशः सुपेशसाम्।
कुशोऽस्मि दर्भजातीनां गव्यमाज्यं हविःष्वहम्॥
मूलम्
रत्नानां पद्मरागोऽस्मि पद्मकोशः सुपेशसाम्।
कुशोऽस्मि दर्भजातीनां गव्यमाज्यं हविःष्वहम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
रत्नोंमें पद्मराग (लाल), सुन्दर वस्तुओंमें कमलकी कली, तृणोंमें कुश और हविष्योंमें गायका घी हूँ॥ ३०॥
श्लोक-३१
विश्वास-प्रस्तुतिः
व्यवसायिनामहं लक्ष्मीः कितवानां छलग्रहः।
तितिक्षास्मि तितिक्षूणां सत्त्वं सत्त्ववतामहम्॥
मूलम्
व्यवसायिनामहं लक्ष्मीः कितवानां छलग्रहः।
तितिक्षास्मि तितिक्षूणां सत्त्वं सत्त्ववतामहम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं व्यापारियोंमें रहनेवाली लक्ष्मी, छल-कपट करनेवालोंमें द्यूतक्रीडा, तितिक्षुओंकी तितिक्षा (कष्टसहिष्णुता) और सात्त्विक पुरुषोंमें रहनेवाला सत्त्वगुण हूँ॥ ३१॥
श्लोक-३२
विश्वास-प्रस्तुतिः
ओजः सहो बलवतां कर्माहं विद्धि सात्त्वताम्।
सात्त्वतां नवमूर्तीनामादिमूर्तिरहं परा॥
मूलम्
ओजः सहो बलवतां कर्माहं विद्धि सात्त्वताम्।
सात्त्वतां नवमूर्तीनामादिमूर्तिरहं परा॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं बलवानोंमें उत्साह और पराक्रम तथा भगवद्भक्तोंमें भक्तियुक्त निष्काम कर्म हूँ। वैष्णवोंकी पूज्य वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न, अनिरुद्ध, नारायण, हयग्रीव, वराह, नृसिंह और ब्रह्मा—इन नौ मूर्तियोंमें मैं पहली एवं श्रेष्ठ मूर्ति वासुदेव हूँ॥ ३२॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
सात्वतां महाभागवतानां कर्म पञ्चकालानुष्ठानम् आदिमूर्तिः सङ्कर्षणादिभ्यः प्रधानो वासुदेवोऽहमित्यर्थः ॥ ३२-३७ ॥
श्लोक-३३
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वावसुः पूर्वचित्तिर्गन्धर्वाप्सरसामहम्।
भूधराणामहं स्थैर्यं गन्धमात्रमहं भुवः॥
मूलम्
विश्वावसुः पूर्वचित्तिर्गन्धर्वाप्सरसामहम्।
भूधराणामहं स्थैर्यं गन्धमात्रमहं भुवः॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं गन्धर्वोंमें विश्वावसु और अप्सराओंमें ब्रह्माजीके दरबारकी अप्सरा पूर्वचित्ति हूँ। पर्वतोंमें स्थिरता और पृथ्वीमें शुद्ध अविकारी गन्ध मैं ही हूँ॥ ३३॥
श्लोक-३४
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपां रसश्च परमस्तेजिष्ठानां विभावसुः।
प्रभा सूर्येन्दुताराणां शब्दोऽहं नभसः परः॥
मूलम्
अपां रसश्च परमस्तेजिष्ठानां विभावसुः।
प्रभा सूर्येन्दुताराणां शब्दोऽहं नभसः परः॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं जलमें रस, तेजस्वियोंमें परम तेजस्वी अग्नि; सूर्य, चन्द्र और तारोंमें प्रभा तथा आकाशमें उसका एकमात्र गुण शब्द हूँ॥ ३४॥
श्लोक-३५
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रह्मण्यानां बलिरहं वीराणामहमर्जुनः।
भूतानां स्थितिरुत्पत्तिरहं वै प्रतिसङ्क्रमः॥
मूलम्
ब्रह्मण्यानां बलिरहं वीराणामहमर्जुनः।
भूतानां स्थितिरुत्पत्तिरहं वै प्रतिसङ्क्रमः॥
अनुवाद (हिन्दी)
उद्धवजी! मैं ब्राह्मणभक्तोंमें बलि, वीरोंमें अर्जुन और प्राणियोंमें उनकी उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय हूँ॥ ३५॥
श्लोक-३६
विश्वास-प्रस्तुतिः
गत्युक्त्युत्सर्गोपादानमानन्दस्पर्शलक्षणम्।
आस्वादश्रुत्यवघ्राणमहं सर्वेन्द्रियेन्द्रियम्॥
मूलम्
गत्युक्त्युत्सर्गोपादानमानन्दस्पर्शलक्षणम्।
आस्वादश्रुत्यवघ्राणमहं सर्वेन्द्रियेन्द्रियम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं ही पैरोंमें चलनेकी शक्ति, वाणीमें बोलनेकी शक्ति, पायुमें मल-त्यागकी शक्ति, हाथोंमें पकड़नेकी शक्ति और जननेन्द्रियमें आनन्दोपभोगकी शक्ति हूँ। त्वचामें स्पर्शकी, नेत्रोंमें दर्शनकी, रसनामें स्वाद लेनेकी, कानोंमें श्रवणकी और नासिकामें सूँघनेकी शक्ति भी मैं ही हूँ। समस्त इन्द्रियोंकी इन्द्रिय-शक्ति मैं ही हूँ॥ ३६॥
श्लोक-३७
विश्वास-प्रस्तुतिः
पृथिवी वायुराकाश आपो ज्योतिरहं महान्।
विकारः पुरुषोऽव्यक्तं रजः सत्त्वं तमः परम्॥
मूलम्
पृथिवी वायुराकाश आपो ज्योतिरहं महान्।
विकारः पुरुषोऽव्यक्तं रजः सत्त्वं तमः परम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
पृथ्वी, वायु, आकाश, जल, तेज, अहंकार, महत्तत्त्व, पंचमहाभूत, जीव, अव्यक्त, प्रकृति, सत्त्व, रज, तम और उनसे परे रहनेवाला ब्रह्म—ये सब मैं ही हूँ॥ ३७॥
श्लोक-३८
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहमेतत्प्रसंख्यानं ज्ञानं तत्त्वविनिश्चयः।
मयेश्वरेण जीवेन गुणेन गुणिना विना।
सर्वात्मनापि सर्वेण न भावो विद्यते क्वचित्॥
मूलम्
अहमेतत्प्रसंख्यानं ज्ञानं तत्त्वविनिश्चयः।
मयेश्वरेण जीवेन गुणेन गुणिना विना।
सर्वात्मनापि सर्वेण न भावो विद्यते क्वचित्॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन तत्त्वोंकी गणना, लक्षणोंद्वारा उनका ज्ञान तथा तत्त्वज्ञानरूप उसका फल भी मैं ही हूँ। मैं ही ईश्वर हूँ, मैं ही जीव हूँ, मैं ही गुण हूँ और मैं ही गुणी हूँ। मैं ही सबका आत्मा हूँ और मैं ही सब कुछ हूँ। मेरे अतिरिक्त और कोई भी पदार्थ कहीं भी नहीं है॥ ३८॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
मयेश्वरेणेति कथंभूतेन जीवेन जीवशरीरकेण गुणेन गुणशरीरकेण ॥ ३८-४० ॥
श्लोक-३९
विश्वास-प्रस्तुतिः
संख्यानं परमाणूनां कालेन क्रियते मया।
न तथा मे विभूतीनां सृजतोऽण्डानि कोटिशः॥
मूलम्
संख्यानं परमाणूनां कालेन क्रियते मया।
न तथा मे विभूतीनां सृजतोऽण्डानि कोटिशः॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि मैं गिनने लगूँ तो किसी समय परमाणुओंकी गणना तो कर सकता हूँ, परन्तु अपनी विभूतियोंकी गणना नहीं कर सकता। क्योंकि जब मेरे रचे हुए कोटि-कोटि ब्रह्माण्डोंकी भी गणना नहीं हो सकती, तब मेरी विभूतियोंकी गणना तो हो ही कैसे सकती है॥ ३९॥
श्लोक-४०
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेजः श्रीः कीर्तरैश्वर्यं ह्रीस्त्यागः सौभगं भगः।
वीर्यं तितिक्षा विज्ञानं यत्र यत्र स मेंऽशकः॥
मूलम्
तेजः श्रीः कीर्तरैश्वर्यं ह्रीस्त्यागः सौभगं भगः।
वीर्यं तितिक्षा विज्ञानं यत्र यत्र स मेंऽशकः॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसा समझो कि जिसमें भी तेज, श्री, कीर्ति, ऐश्वर्य, लज्जा, त्याग, सौन्दर्य, सौभाग्य, पराक्रम, तितिक्षा और विज्ञान आदि श्रेष्ठ गुण हों, वह मेरा ही अंश है॥ ४०॥
श्लोक-४१
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतास्ते कीर्तिताः सर्वाः संक्षेपेण विभूतयः।
मनोविकारा एवैते यथा वाचाभिधीयते॥
मूलम्
एतास्ते कीर्तिताः सर्वाः संक्षेपेण विभूतयः।
मनोविकारा एवैते यथा वाचाभिधीयते॥
अनुवाद (हिन्दी)
उद्धवजी! मैंने तुम्हारे प्रश्नके अनुसार संक्षेपसे विभूतियोंका वर्णन किया। ये सब परमार्थ-वस्तु नहीं हैं, मनोविकारमात्र हैं; क्योंकि मनसे सोची और वाणीसे कही हुई कोई भी वस्तु परमार्थ (वास्तविक) नहीं होती। उसकी एक कल्पना ही होती है॥ ४१॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
मनोविकाराः मन्मयोविकाराः मत्सङ्कल्पमानजन्याः वाचा वेदेन ॥ ४१ ॥
श्लोक-४२
विश्वास-प्रस्तुतिः
वाचं यच्छ मनो यच्छ प्राणान् यच्छेन्द्रियाणि च।
आत्मानमात्मना यच्छ न भूयः कल्पसेऽध्वने॥
मूलम्
वाचं यच्छ मनो यच्छ प्राणान् यच्छेन्द्रियाणि च।
आत्मानमात्मना यच्छ न भूयः कल्पसेऽध्वने॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसलिये तुम वाणीको स्वच्छन्दभाषणसे रोको, मनके संकल्प-विकल्प बंद करो। इसके लिये प्राणोंको वशमें करो और इन्द्रियोंका दमन करो। सात्त्विक बुद्धिके द्वारा प्रपंचाभिमुख बुद्धिको शान्त करो। फिर तुम्हें संसारके जन्म-मृत्युरूप बीहड़ मार्गमें भटकना नहीं पड़ेगा॥ ४२॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
आत्मानमात्मना यच्छ अन्येषु न प्रवर्तय इति स्वात्मना आत्मानं स्वयमेव यच्छ अध्वने संसाराध्वने परिश्रमाय ॥ ४२-४३ ॥
श्लोक-४३
विश्वास-प्रस्तुतिः
यो वै वाङ्मनसी सम्यगसंयच्छन् धिया यतिः।
तस्य व्रतं तपो दानं स्रवत्यामघटाम्बुवत्॥
मूलम्
यो वै वाङ्मनसी सम्यगसंयच्छन् धिया यतिः।
तस्य व्रतं तपो दानं स्रवत्यामघटाम्बुवत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो साधक बुद्धिके द्वारा वाणी और मनको पूर्णतया वशमें नहीं कर लेता, उसके व्रत, तप और दान उसी प्रकार क्षीण हो जाते हैं, जैसे कच्चे घड़ेमें भरा हुआ जल॥ ४३॥
श्लोक-४४
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मान्मनोवचः प्राणान् नियच्छेन्मत्परायणः।
मद्भक्तियुक्तया बुद्ध्या ततः परिसमाप्यते॥
मूलम्
तस्मान्मनोवचः प्राणान् नियच्छेन्मत्परायणः।
मद्भक्तियुक्तया बुद्ध्या ततः परिसमाप्यते॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसलिये मेरे प्रेमी भक्तको चाहिये कि मेरे परायण होकर भक्तियुक्त बुद्धिसे वाणी, मन और प्राणोंका संयम करे। ऐसा कर लेनेपर फिर उसे कुछ करना शेष नहीं रहता। वह कृतकृत्य हो जाता है॥ ४४॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
परिसमाप्यते मोक्षोपायः सम्पूर्णो भवति ॥ ४४ ॥
इति श्रीमद्भागवतव्याख्याने एकादशस्कन्धीये श्रीसुदर्शनसूरिकृतशुकपक्षीये षोडशोऽध्यायः ॥ १५ ॥
अनुवाद (समाप्ति)
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायामेकादशस्कन्धे षोडशोऽध्यायः॥ १६॥