[पञ्चदशोऽध्यायः]
भागसूचना
भिन्न-भिन्न सिद्धियोंके नाम और लक्षण
श्लोक-१
मूलम् (वचनम्)
श्रीभगवानुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
जितेन्द्रियस्य युक्तस्य जितश्वासस्य योगिनः।
मयि धारयतश्चेत उपतिष्ठन्ति सिद्धयः॥
मूलम्
जितेन्द्रियस्य युक्तस्य जितश्वासस्य योगिनः।
मयि धारयतश्चेत उपतिष्ठन्ति सिद्धयः॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं—प्रिय उद्धव! जब साधक इन्द्रिय, प्राण और मनको अपने वशमें करके अपना चित्त मुझमें लगाने लगता है, मेरी धारणा करने लगता है, तब उसके सामने बहुत-सी सिद्धियाँ उपस्थित होती हैं॥ १॥
श्लोक-२
मूलम् (वचनम्)
उद्धव उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
कया धारणया कास्वित् कथंस्वित् सिद्धिरच्युत।
कति वा सिद्धयो ब्रूहि योगिनां सिद्धिदो भवान्॥
मूलम्
कया धारणया कास्वित् कथंस्वित् सिद्धिरच्युत।
कति वा सिद्धयो ब्रूहि योगिनां सिद्धिदो भवान्॥
अनुवाद (हिन्दी)
उद्धवजीने कहा—अच्युत! कौन-सी धारणा करनेसे किस प्रकार कौन-सी सिद्धि प्राप्त होती है और उनकी संख्या कितनी है, आप ही योगियोंको सिद्धियाँ देते हैं, अतः आप इनका वर्णन कीजिये॥ २॥
श्लोक-३
मूलम् (वचनम्)
श्रीभगवानुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
सिद्धयोऽष्टादश प्रोक्ता धारणायोगपारगैः।
तासामष्टौ मत्प्रधाना दशैव गुणहेतवः॥
मूलम्
सिद्धयोऽष्टादश प्रोक्ता धारणायोगपारगैः।
तासामष्टौ मत्प्रधाना दशैव गुणहेतवः॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् श्रीकृष्णने कहा—प्रिय उद्धव! धारणायोगके पारगामी योगियोंने अठारह प्रकारकी सिद्धियाँ बतलायी हैं। उनमें आठ सिद्धियाँ तो प्रधानरूपसे मुझमें ही रहती हैं और दूसरोंमें न्यून; तथा दस सत्त्वगुणके विकाससे भी मिल जाती हैं॥ ३॥
श्लोक-४
विश्वास-प्रस्तुतिः
अणिमा महिमा मूर्तेर्लघिमा प्राप्तिरिन्द्रियैः।
प्राकाम्यं श्रुतदृष्टेषु शक्तिप्रेरणमीशिता॥
मूलम्
अणिमा महिमा मूर्तेर्लघिमा प्राप्तिरिन्द्रियैः।
प्राकाम्यं श्रुतदृष्टेषु शक्तिप्रेरणमीशिता॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनमें तीन सिद्धियाँ तो शरीरकी हैं—‘अणिमा’,‘महिमा’ और ‘लघिमा’। इन्द्रियोंकी एक सिद्धि है—‘प्राप्ति’। लौकिक और पारलौकिक पदार्थोंका इच्छानुसार अनुभव करनेवाली सिद्धि ‘प्राकाम्य’ है। माया और उसके कार्योंको इच्छानुसार संचालित करना ‘ईशिता’ नामकी सिद्धि है॥ ४॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
प्राप्तिः अङ्गत्वेन विदूरस्थस्पर्शादिप्राकाम्यं धारणादिव्यापारेष्वन्येभ्यः प्रभूतव्यापारक्षमत्वम् ॥ ४ ॥
श्लोक-५
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुणेष्वसङ्गो वशिता यत्कामस्तदवस्यति।
एता मे सिद्धयः सौम्य अष्टावौत्पत्तिका मताः॥
मूलम्
गुणेष्वसङ्गो वशिता यत्कामस्तदवस्यति।
एता मे सिद्धयः सौम्य अष्टावौत्पत्तिका मताः॥
अनुवाद (हिन्दी)
विषयोंमें रहकर भी उनमें आसक्त न होना ‘वशिता’ है और जिस-जिस सुखकी कामना करे, उसकी सीमातक पहुँच जाना ‘कामावसायिता’ नामकी आठवीं सिद्धि है। ये आठों सिद्धियाँ मुझमें स्वभावसे ही रहती हैं और जिन्हें मैं देता हूँ, उन्हींको अंशतः प्राप्त होती हैं॥ ५॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
यत्कामस्तदवस्यति यत्र कामना तं देशं तदानीमेव प्राप्य स्थितो भवति यद्वा वृष्ट्याद्यभिमतसाधका भवति ॥ ५ ॥
श्लोक-६
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनूर्मिमत्त्वं देहेऽस्मिन् दूरश्रवणदर्शनम्।
मनोजवः कामरूपं परकायप्रवेशनम्॥
मूलम्
अनूर्मिमत्त्वं देहेऽस्मिन् दूरश्रवणदर्शनम्।
मनोजवः कामरूपं परकायप्रवेशनम्॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
अनूर्मिमत्त्वं पलितादिरहितत्वम्, अशनायाद्यतीतत्वं वा दूरश्रवणं सर्वभूतरुतज्ञानम् ॥ ६-९ ॥
श्लोक-७
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वच्छन्दमृत्युर्देवानां सहक्रीडानुदर्शनम्।
यथासङ्कल्पसंसिद्धिराज्ञाप्रतिहतागतिः॥
मूलम्
स्वच्छन्दमृत्युर्देवानां सहक्रीडानुदर्शनम्।
यथासङ्कल्पसंसिद्धिराज्ञाप्रतिहतागतिः॥
अनुवाद (हिन्दी)
इनके अतिरिक्त और भी कई सिद्धियाँ हैं। शरीरमें भूख-प्यास आदि वेगोंका न होना, बहुत दूरकी वस्तु देख लेना और बहुत दूरकी बात सुन लेना, मनके साथ ही शरीरका उस स्थानपर पहुँच जाना, जो इच्छा हो वही रूप बना लेना; दूसरे शरीरमें प्रवेश करना, जब इच्छा हो तभी शरीर छोड़ना, अप्सराओंके साथ होनेवाली देवक्रीड़ाका दर्शन, संकल्पकी सिद्धि, सब जगह सबके द्वारा बिना ननु-नचके आज्ञापालन—ये दस सिद्धियाँ सत्त्वगुणके विशेष विकाससे होती हैं॥ ६-७॥
श्लोक-८
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रिकालज्ञत्वमद्वन्द्वं परचित्ताद्यभिज्ञता।
अग्न्यर्काम्बुविषादीनां प्रतिष्टम्भोऽपराजयः॥
मूलम्
त्रिकालज्ञत्वमद्वन्द्वं परचित्ताद्यभिज्ञता।
अग्न्यर्काम्बुविषादीनां प्रतिष्टम्भोऽपराजयः॥
अनुवाद (हिन्दी)
भूत, भविष्य और वर्तमानकी बात जान लेना; शीत-उष्ण, सुख-दुःख और राग-द्वेष आदि द्वन्द्वोंके वशमें न होना, दूसरेके मन आदिकी बात जान लेना; अग्नि, सूर्य, जल, विष आदिकी शक्तिको स्तम्भित कर देना और किसीसे भी पराजित न होना—ये पाँच सिद्धियाँ भी योगियोंको प्राप्त होती हैं॥ ८॥
श्लोक-९
विश्वास-प्रस्तुतिः
एताश्चोद्देशतः प्रोक्ता योगधारणसिद्धयः।
यया धारणया या स्याद् यथा वा स्यान्निबोध मे॥
मूलम्
एताश्चोद्देशतः प्रोक्ता योगधारणसिद्धयः।
यया धारणया या स्याद् यथा वा स्यान्निबोध मे॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रिय उद्धव! योग-धारणा करनेसे जो सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं, उनका मैंने नाम-निर्देशके साथ वर्णन कर दिया। अब किस धारणासे कौन-सी सिद्धि कैसे प्राप्त होती है, यह बतलाता हूँ, सुनो॥ ९॥
श्लोक-१०
विश्वास-प्रस्तुतिः
भूतसूक्ष्मात्मनि मयि तन्मात्रं धारयेन्मनः।
अणिमानमवाप्नोति तन्मात्रोपासको मम॥
मूलम्
भूतसूक्ष्मात्मनि मयि तन्मात्रं धारयेन्मनः।
अणिमानमवाप्नोति तन्मात्रोपासको मम॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रिय उद्धव! पंचभूतोंकी सूक्ष्मतम मात्राएँ मेरा-ही शरीर है। जो साधक केवल मेरे उसी शरीरकी उपासना करता है और अपने मनको तदाकार बनाकर उसीमें लगा देता है अर्थात् मेरे तन्मात्रात्मक शरीरके अतिरिक्त और किसी भी वस्तुका चिन्तन नहीं करता, उसे ‘अणिमा’ नामकी सिद्धि अर्थात् पत्थरकी चट्टान आदिमें भी प्रवेश करनेकी शक्ति—अणुता प्राप्त हो जाती है॥ १०॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
तन्मात्रं तन्मात्रविषयं विषयान्तरनिवृत्तं तन्मात्रोपासकः मच्छरीरभूतभूतसूक्ष्मोपासकः ॥ १० ॥
श्लोक-११
विश्वास-प्रस्तुतिः
महत्यात्मन्मयि परे यथासंस्थं मनो दधत्।
महिमानमवाप्नोति भूतानां च पृथक् पृथक्॥
मूलम्
महत्यात्मन्मयि परे यथासंस्थं मनो दधत्।
महिमानमवाप्नोति भूतानां च पृथक् पृथक्॥
अनुवाद (हिन्दी)
महत्तत्त्वके रूपमें भी मैं ही प्रकाशित हो रहा हूँ और उस रूपमें समस्त व्यावहारिक ज्ञानोंका केन्द्र हूँ। जो मेरे उस रूपमें अपने मनको महत्तत्त्वाकार करके तन्मय कर देता है, उसे ‘महिमा’ नामकी सिद्धि प्राप्त होती है, और इसी प्रकार आकाशादि पंचभूतोंमें—जो मेरे ही शरीर हैं—अलग-अलग मन लगानेसे उन-उनकी महत्ता प्राप्त हो जाती है, यह भी ‘महिमा’ सिद्धिके ही अन्तर्गत है॥ ११॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
भूतानां पृथव्यादिस्थूलभूतानामात्मनि मयीत्यन्वयः ॥ ११ ॥
श्लोक-१२
विश्वास-प्रस्तुतिः
परमाणुमये चित्तं भूतानां मयि रञ्जयन्।
कालसूक्ष्मार्थतां योगी लघिमानमवाप्नुयात्॥
मूलम्
परमाणुमये चित्तं भूतानां मयि रञ्जयन्।
कालसूक्ष्मार्थतां योगी लघिमानमवाप्नुयात्॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो योगी वायु आदि चार भूतोंके परमाणुओंको मेरा ही रूप समझकर चित्तको तदाकार कर देता है, उसे ‘लघिमा’ सिद्धि प्राप्त हो जाती है—उसे परमाणुरूप कालके* समान सूक्ष्म वस्तु बननेका सामर्थ्य प्राप्त हो जाता है॥ १२॥
पादटिप्पनी
- पृथ्वी आदिके परमाणुओंमें गुरुत्व विद्यमान रहता है। इसीसे उसका भी निषेध करनेके लिये कालके परमाणुकी समानता बतायी है।
श्रीसुदर्शनसूरिः
परमाणुमये भूतानां सूक्ष्मावयवव्यापिनां कालसूक्ष्मात्मतां सूक्ष्मकालावस्थित्वं च ध्यायन्निति शेषः ॥ १२ ॥
श्लोक-१३
विश्वास-प्रस्तुतिः
धारयन् मय्यहंतत्त्वे मनो वैकारिकेऽखिलम्।
सर्वेन्द्रियाणामात्मत्वं प्राप्तिं प्राप्नोति मन्मनाः॥
मूलम्
धारयन् मय्यहंतत्त्वे मनो वैकारिकेऽखिलम्।
सर्वेन्द्रियाणामात्मत्वं प्राप्तिं प्राप्नोति मन्मनाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो सात्त्विक अहंकारको मेरा स्वरूप समझकर मेरे उसी रूपमें चित्तकी धारणा करता है, वह समस्त इन्द्रियोंका अधिष्ठाता हो जाता है। मेरा चिन्तन करनेवाला भक्त इस प्रकार ‘प्राप्ति’ नामकी सिद्धि प्राप्त कर लेता है॥ १३॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
इन्द्रियाणामात्मत्वमिन्द्रियाणि दूरदेशव्यापीनि भवन्ति तं भावं तथाभावं तदेव प्राप्तिः ॥ १३ ॥
श्लोक-१४
विश्वास-प्रस्तुतिः
महत्यात्मनि यः सूत्रे धारयेन्मयि मानसम्।
प्राकाम्यं पारमेष्ठ्यं मे विन्दतेऽव्यक्तजन्मनः॥
मूलम्
महत्यात्मनि यः सूत्रे धारयेन्मयि मानसम्।
प्राकाम्यं पारमेष्ठ्यं मे विन्दतेऽव्यक्तजन्मनः॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो पुरुष मुझ महत्तत्त्वाभिमानी सूत्रात्मामें अपना चित्त स्थिर करता है, उसे मुझ अव्यक्तजन्मा (सूत्रात्मा) की ‘प्राकाम्य’ नामकी सिद्धि प्राप्त होती है—जिससे इच्छानुसार सभी भोग प्राप्त हो जाते हैं॥ १४॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
पारमेष्ठ्यं परमेष्ठिचिह्नमीश्वरेण सृष्ट्यादिनिर्वाहक इति ॥ १४–१६ ॥
श्लोक-१५
विश्वास-प्रस्तुतिः
विष्णौ त्र्यधीश्वरे चित्तं धारयेत् कालविग्रहे।
स ईशित्वमवाप्नोति क्षेत्रक्षेत्रज्ञचोदनाम्॥
मूलम्
विष्णौ त्र्यधीश्वरे चित्तं धारयेत् कालविग्रहे।
स ईशित्वमवाप्नोति क्षेत्रक्षेत्रज्ञचोदनाम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो त्रिगुणमयी मायाके स्वामी मेरे काल-स्वरूप विश्वरूपकी धारणा करता है, वह शरीरों और जीवोंको अपने इच्छानुसार प्रेरित करनेकी सामर्थ्य प्राप्त कर लेता है। इस सिद्धिका नाम ‘ईशित्व’ है॥ १५॥
श्लोक-१६
विश्वास-प्रस्तुतिः
नारायणे तुरीयाख्ये भगवच्छब्दशब्दिते।
मनो मय्यादधद् योगी मद्धर्मा वशितामियात्॥
मूलम्
नारायणे तुरीयाख्ये भगवच्छब्दशब्दिते।
मनो मय्यादधद् योगी मद्धर्मा वशितामियात्॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो योगी मेरे नारायण-स्वरूपमें—जिसे तुरीय और भगवान् भी कहते हैं—मनको लगा देता है, मेरे स्वाभाविक गुण उसमें प्रकट होने लगते हैं और उसे ‘वशिता’ नामकी सिद्धि प्राप्त हो जाती है॥ १६॥
श्लोक-१७
विश्वास-प्रस्तुतिः
निर्गुणे ब्रह्मणि मयि धारयन् विशदं मनः।
परमानन्दमाप्नोति यत्र कामोऽवसीयते॥
मूलम्
निर्गुणे ब्रह्मणि मयि धारयन् विशदं मनः।
परमानन्दमाप्नोति यत्र कामोऽवसीयते॥
अनुवाद (हिन्दी)
निर्गुण ब्रह्म भी मैं ही हूँ। जो अपना निर्मल मन मेरे इस ब्रह्मस्वरूपमें स्थित कर लेता है, उसे परमानन्द-स्वरूपिणी ‘कामावसायिता’ नामकी सिद्धि प्राप्त होती है। इसके मिलनेपर उसकी सारी कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं, समाप्त हो जाती हैं॥ १७॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
निर्गुणे गुणत्रयातीते ॥ १७-१८ ॥
श्लोक-१८
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्वेतद्वीपपतौ चित्तं शुद्धे धर्ममये मयि।
धारयञ्छ्वेततां याति षडूर्मिरहितो नरः॥
मूलम्
श्वेतद्वीपपतौ चित्तं शुद्धे धर्ममये मयि।
धारयञ्छ्वेततां याति षडूर्मिरहितो नरः॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रिय उद्धव! मेरा वह रूप, जो श्वेतद्वीपका स्वामी है, अत्यन्त शुद्ध और धर्ममय है। जो उसकी धारणा करता है, वह भूख-प्यास, जन्म-मृत्यु और शोक-मोह—इन छः ऊर्मियोंसे मुक्त हो जाता है और उसे शुद्ध स्वरूपकी प्राप्ति होती है॥ १८॥
श्लोक-१९
विश्वास-प्रस्तुतिः
मय्याकाशात्मनि प्राणे मनसा घोषमुद्वहन्।
तत्रोपलब्धा भूतानां हंसो वाचः शृणोत्यसौ॥
मूलम्
मय्याकाशात्मनि प्राणे मनसा घोषमुद्वहन्।
तत्रोपलब्धा भूतानां हंसो वाचः शृणोत्यसौ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं ही समष्टि-प्राणरूप आकाशात्मा हूँ। जो मेरे इस स्वरूपमें मनके द्वारा अनाहत नादका चिन्तन करता है, वह ‘दूरश्रवण’ नामकी सिद्धिसे सम्पन्न हो जाता है और आकाशमें उपलब्ध होनेवाली विविध प्राणियोंकी बोली सुन-समझ सकता है॥ १९॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
भूतानां वाच इत्यन्वयः ॥ १९ ॥
श्लोक-२०
विश्वास-प्रस्तुतिः
चक्षुस्त्वष्टरि संयोज्य त्वष्टारमपि चक्षुषि।
मां तत्र मनसा ध्यायन् विश्वं पश्यति सूक्ष्मदृक्॥
मूलम्
चक्षुस्त्वष्टरि संयोज्य त्वष्टारमपि चक्षुषि।
मां तत्र मनसा ध्यायन् विश्वं पश्यति सूक्ष्मदृक्॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो योगी नेत्रोंको सूर्यमें और सूर्यको नेत्रोंमें संयुक्त कर देता है और दोनोंके संयोगमें मन-ही-मन मेरा ध्यान करता है, उसकी दृष्टि सूक्ष्म हो जाती है, उसे ‘दूरदर्शन’ नामकी सिद्धि प्राप्त होती है और वह सारे संसारको देख सकता है॥ २०॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
त्वष्टा आदित्यः ॥ २० ॥
श्लोक-२१
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनो मयि सुसंयोज्य देहं तदनु वायुना।
मद्धारणानुभावेन तत्रात्मा यत्र वै मनः॥
मूलम्
मनो मयि सुसंयोज्य देहं तदनु वायुना।
मद्धारणानुभावेन तत्रात्मा यत्र वै मनः॥
अनुवाद (हिन्दी)
मन और शरीरको प्राणवायुके सहित मेरे साथ संयुक्त कर दे और मेरी धारणा करे तो इससे ‘मनोजव’ नामकी सिद्धि प्राप्त हो जाती है। इसके प्रभावसे वह योगी जहाँ भी जानेका संकल्प करता है, वहीं उसका शरीर उसी क्षण पहुँच जाता है॥ २१॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
वायुना सह देहं मयि संयोज्येत्यन्वयः ॥ २१ ॥
श्लोक-२२
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदा मन उपादाय यद् यद् रूपं बुभूषति।
तत्तद् भवेन्मनोरूपं मद्योगबलमाश्रयः॥
मूलम्
यदा मन उपादाय यद् यद् रूपं बुभूषति।
तत्तद् भवेन्मनोरूपं मद्योगबलमाश्रयः॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिस समय योगी मनको उपादान-कारण बनाकर किसी देवता आदिका रूप धारण करना चाहता है तो वह अपने मनके अनुकूल वैसा ही रूप धारण कर लेता है। इसका कारण यह है कि उसने अपने चित्तको मेरे साथ जोड़ दिया है॥ २२॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
मन उपादाय मयि निधायेत्यर्थः । मनोरूपं भवेत् अभिमतरूपवान् भवेत् ॥ २२-२३ ॥
श्लोक-२३
विश्वास-प्रस्तुतिः
परकायं विशन् सिद्ध आत्मानं तत्र भावयेत्।
पिण्डं हित्वा विशेत् प्राणो वायुभूतः षडङ्घ्रिवत्॥
मूलम्
परकायं विशन् सिद्ध आत्मानं तत्र भावयेत्।
पिण्डं हित्वा विशेत् प्राणो वायुभूतः षडङ्घ्रिवत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो योगी दूसरे शरीरमें प्रवेश करना चाहे, वह ऐसी भावना करे कि मैं उसी शरीरमें हूँ। ऐसा करनेसे उसका प्राण वायुरूप धारण कर लेता है और वह एक फूलसे दूसरे फूलपर जानेवाले भौंरेके समान अपना शरीर छोड़कर दूसरे शरीरमें प्रवेश कर जाता है॥ २३॥
श्लोक-२४
विश्वास-प्रस्तुतिः
पार्ष्ण्याऽऽपीड्य गुदं प्राणं हृदुरःकण्ठमूर्धसु।
आरोप्य ब्रह्मरन्ध्रेण ब्रह्म नीत्वोत्सृजेत्तनुम्॥
मूलम्
पार्ष्ण्याऽऽपीड्य गुदं प्राणं हृदुरःकण्ठमूर्धसु।
आरोप्य ब्रह्मरन्ध्रेण ब्रह्म नीत्वोत्सृजेत्तनुम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
योगीको यदि शरीरका परित्याग करना हो तो एड़ीसे गुदाद्वारको दबाकर प्राणवायुको क्रमशः हृदय, वक्षःस्थल, कण्ठ और मस्तकमें ले जाय। फिर ब्रह्मरन्ध्रके द्वारा उसे ब्रह्ममें लीन करके शरीरका परित्याग कर दे॥ २४॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
उत्सृजेत्तनुमिति छन्दत इत्यर्थः ॥ २४-२५॥
श्लोक-२५
विश्वास-प्रस्तुतिः
विहरिष्यन् सुराक्रीडे मत्स्थं सत्त्वं विभावयेत्।
विमानेनोपतिष्ठन्ति सत्त्ववृत्तीः सुरस्त्रियः॥
मूलम्
विहरिष्यन् सुराक्रीडे मत्स्थं सत्त्वं विभावयेत्।
विमानेनोपतिष्ठन्ति सत्त्ववृत्तीः सुरस्त्रियः॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि उसे देवताओंके विहारस्थलोंमें क्रीड़ा करनेकी इच्छा हो, तो मेरे शुद्ध सत्त्वमय स्वरूपकी भावना करे। ऐसा करनेसे सत्त्वगुणकी अंशस्वरूपा सुर-सुन्दरियाँ विमानपर चढ़कर उसके पास पहुँच जाती हैं॥ २५॥
श्लोक-२६
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा सङ्कल्पयेद् बुद्ध्या यदा वा मत्परः पुमान्।
मयि सत्ये मनो युञ्जंस्तथा तत् समुपाश्नुते॥
मूलम्
यथा सङ्कल्पयेद् बुद्ध्या यदा वा मत्परः पुमान्।
मयि सत्ये मनो युञ्जंस्तथा तत् समुपाश्नुते॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिस पुरुषने मेरे सत्यसंकल्पस्वरूपमें अपना चित्त स्थिर कर दिया है, उसीके ध्यानमें संलग्न है, वह अपने मनसे जिस समय जैसा संकल्प करता है, उसी समय उसका वह संकल्प सिद्ध हो जाता है॥ २६॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
सत्ये सत्यसङ्कल्पे ॥ २६-२८ ॥
श्लोक-२७
विश्वास-प्रस्तुतिः
यो वै मद्भावमापन्न ईशितुर्वशितुः पुमान्।
कुतश्चिन्न विहन्येत तस्य चाज्ञा यथा मम॥
मूलम्
यो वै मद्भावमापन्न ईशितुर्वशितुः पुमान्।
कुतश्चिन्न विहन्येत तस्य चाज्ञा यथा मम॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं ‘ईशित्व’ और ‘वशित्व’—इन दोनों सिद्धियोंका स्वामी हूँ; इसलिये कभी कोई मेरी आज्ञा टाल नहीं सकता। जो मेरे उस रूपका चिन्तन करके उसी भावसे युक्त हो जाता है, मेरे समान उसकी आज्ञाको भी कोई टाल नहीं सकता॥ २७॥
श्लोक-२८
विश्वास-प्रस्तुतिः
मद्भक्त्या शुद्धसत्त्वस्य योगिनो धारणाविदः।
तस्य त्रैकालिकी बुद्धिर्जन्ममृत्यूपबृंहिता॥
मूलम्
मद्भक्त्या शुद्धसत्त्वस्य योगिनो धारणाविदः।
तस्य त्रैकालिकी बुद्धिर्जन्ममृत्यूपबृंहिता॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिस योगीका चित्त मेरी धारणा करते-करते मेरी भक्तिके प्रभावसे शुद्ध हो गया है, उसकी बुद्धि जन्म-मृत्यु आदि अदृष्ट विषयोंको भी जान लेती है। और तो क्या—भूत, भविष्य और वर्तमानकी सभी बातें उसे मालूम हो जाती हैं॥ २८॥
श्लोक-२९
विश्वास-प्रस्तुतिः
अग्न्यादिभिर्न हन्येत मुनेर्योगमयं वपुः।
मद्योगश्रान्तचित्तस्य यादसामुदकं यथा॥
मूलम्
अग्न्यादिभिर्न हन्येत मुनेर्योगमयं वपुः।
मद्योगश्रान्तचित्तस्य यादसामुदकं यथा॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे जलके द्वारा जलमें रहनेवाले प्राणियोंका नाश नहीं होता, वैसे ही जिस योगीने अपना चित्त मुझमें लगाकर शिथिल कर दिया है, उसके योगमय शरीरको अग्नि, जल आदि कोई भी पदार्थ नष्ट नहीं कर सकते॥ २९॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
यादसां प्रभुरुदकैर्यथा न हन्यते तद्वदित्यर्थः ॥ २९ ॥
श्लोक-३०
विश्वास-प्रस्तुतिः
मद्विभूतीरभिध्यायन् श्रीवत्सास्त्रविभूषिताः।
ध्वजातपत्रव्यजनैः स भवेदपराजितः॥
मूलम्
मद्विभूतीरभिध्यायन् श्रीवत्सास्त्रविभूषिताः।
ध्वजातपत्रव्यजनैः स भवेदपराजितः॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो पुरुष श्रीवत्स आदि चिह्न और शंख-गदा-चक्र-पद्म आदि आयुधोंसे विभूषित तथा ध्वजा-छत्र-चँवर आदिसे सम्पन्न मेरे अवतारोंका ध्यान करता है, वह अजेय हो जाता है॥ ३०॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
मद्विभूतीरिति । श्वेतद्वीपश्रीविष्णुलोकादिषु ध्वजातपत्रादि प्राप्तिविलम्ब हेतुत्वाभिप्रायेणात्र तदुक्तिः ॥ ३०-३३ ॥
श्लोक-३१
विश्वास-प्रस्तुतिः
उपासकस्य मामेवं योगधारणया मुनेः।
सिद्धयः पूर्वकथिता उपतिष्ठन्त्यशेषतः॥
मूलम्
उपासकस्य मामेवं योगधारणया मुनेः।
सिद्धयः पूर्वकथिता उपतिष्ठन्त्यशेषतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार जो विचारशील पुरुष मेरी उपासना करता है और योगधारणाके द्वारा मेरा चिन्तन करता है, उसे वे सभी सिद्धियाँ पूर्णतः प्राप्त हो जाती हैं, जिनका वर्णन मैंने किया है॥ ३१॥
श्लोक-३२
विश्वास-प्रस्तुतिः
जितेन्द्रियस्य दान्तस्य जितश्वासात्मनो मुनेः।
मद्धारणां धारयतः का सा सिद्धिः सुदुर्लभा॥
मूलम्
जितेन्द्रियस्य दान्तस्य जितश्वासात्मनो मुनेः।
मद्धारणां धारयतः का सा सिद्धिः सुदुर्लभा॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्यारे उद्धव! जिसने अपने प्राण, मन और इन्द्रियोंपर विजय प्राप्त कर ली है, जो संयमी है और मेरे ही स्वरूपकी धारणा कर रहा है, उसके लिये ऐसी कोई भी सिद्धि नहीं, जो दुर्लभ हो। उसे तो सभी सिद्धियाँ प्राप्त ही हैं॥ ३२॥
श्लोक-३३
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्तरायान् वदन्त्येता युञ्जतो योगमुत्तमम्।
मया सम्पद्यमानस्य कालक्षपणहेतवः॥
मूलम्
अन्तरायान् वदन्त्येता युञ्जतो योगमुत्तमम्।
मया सम्पद्यमानस्य कालक्षपणहेतवः॥
अनुवाद (हिन्दी)
परन्तु श्रेष्ठ पुरुष कहते हैं कि जो लोग भक्तियोग अथवा ज्ञानयोगादि उत्तम योगोंका अभ्यास कर रहे हैं, जो मुझसे एक हो रहे हैं उनके लिये इन सिद्धियोंका प्राप्त होना एक विघ्न ही है; क्योंकि इनके कारण व्यर्थ ही उनके समयका दुरुपयोग होता है॥ ३३॥
श्लोक-३४
विश्वास-प्रस्तुतिः
जन्मौषधितपोमन्त्रैर्यावतीरिह सिद्धयः।
योगेनाप्नोति ताः सर्वा नान्यैर्योगगतिं व्रजेत्॥
मूलम्
जन्मौषधितपोमन्त्रैर्यावतीरिह सिद्धयः।
योगेनाप्नोति ताः सर्वा नान्यैर्योगगतिं व्रजेत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
जगत्में जन्म, ओषधि, तपस्या और मन्त्रादिके द्वारा जितनी सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं, वे सभी योगके द्वारा मिल जाती हैं; परन्तु योगकी अन्तिम सीमा—मेरे सारूप्य, सालोक्य आदिकी प्राप्ति बिना मुझमें चित्त लगाये किसी भी साधनसे नहीं प्राप्त हो सकती॥ ३४॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
जन्मौषधीति । जन्मप्रयुक्तासिद्धिः पक्षिणामाकाशगमनादिः योगगतिं भक्तियोगफलं मोक्षम् ॥ ३४-३६ ॥
इति श्रीमद्भागवतव्याख्याने एकादशस्कन्धीये श्रीसुदर्शनसूरिकृतशुकपक्षीये पञ्चदशोऽध्यायः ॥ १५ ॥
श्लोक-३५
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वासामपि सिद्धीनां हेतुः पतिरहं प्रभुः।
अहं योगस्य सांख्यस्य धर्मस्य ब्रह्मवादिनाम्॥
मूलम्
सर्वासामपि सिद्धीनां हेतुः पतिरहं प्रभुः।
अहं योगस्य सांख्यस्य धर्मस्य ब्रह्मवादिनाम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्मवादियोंने बहुत-से साधन बतलाये हैं—योग, सांख्य और धर्म आदि। उनका एवं समस्त सिद्धियोंका एकमात्र मैं ही हेतु, स्वामी और प्रभु हूँ॥ ३५॥
श्लोक-३६
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहमात्माऽऽन्तरो बाह्योऽनावृतः सर्वदेहिनाम्।
यथा भूतानि भूतेषु बहिरन्तः स्वयं तथा॥
मूलम्
अहमात्माऽऽन्तरो बाह्योऽनावृतः सर्वदेहिनाम्।
यथा भूतानि भूतेषु बहिरन्तः स्वयं तथा॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे स्थूल पंचभूतोंमें बाहर, भीतर—सर्वत्र सूक्ष्म पंच-महाभूत ही हैं, सूक्ष्म भूतोंके अतिरिक्त स्थूल भूतोंकी कोई सत्ता ही नहीं है, वैसे ही मैं समस्त प्राणियोंके भीतर द्रष्टारूपसे और बाहर दृश्यरूपसे स्थित हूँ। मुझमें बाहर-भीतरका भेद भी नहीं है; क्योंकि मैं निरावरण, एक—अद्वितीय आत्मा हूँ॥ ३६॥
अनुवाद (समाप्ति)
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायामेकादशस्कन्धे पञ्चदशोऽध्यायः॥ १५॥