१४

[चतुर्दशोऽध्यायः]

भागसूचना

भक्तियोगकी महिमा तथा ध्यानविधिका वर्णन

श्लोक-१

मूलम् (वचनम्)

उद्धव उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

वदन्ति कृष्ण श्रेयांसि बहूनि ब्रह्मवादिनः।
तेषां विकल्पप्राधान्यमुताहो एकमुख्यता॥

मूलम्

वदन्ति कृष्ण श्रेयांसि बहूनि ब्रह्मवादिनः।
तेषां विकल्पप्राधान्यमुताहो एकमुख्यता॥

अनुवाद (हिन्दी)

उद्धवजीने पूछा—श्रीकृष्ण! ब्रह्मवादी महात्मा आत्मकल्याणके अनेकों साधन बतलाते हैं। उनमें अपनी-अपनी दृष्टिके अनुसार सभी श्रेष्ठ हैं अथवा किसी एककी प्रधानता है?॥ १॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

श्रेयांसि पुरुषार्थसाधनानि विकल्पप्राधान्यं विकल्पेनैकस्य तुल्यफलं प्रति निरपेक्षसाधनतया प्राधान्यमेकमुख्यता एकस्यैव प्राधान्यम् ॥ १ ॥

श्लोक-२

विश्वास-प्रस्तुतिः

भवतोदाहृतः स्वामिन् भक्तियोगोऽनपेक्षितः।
निरस्य सर्वतः सङ्गं येन त्वय्याविशेन्मनः॥

मूलम्

भवतोदाहृतः स्वामिन् भक्तियोगोऽनपेक्षितः।
निरस्य सर्वतः सङ्गं येन त्वय्याविशेन्मनः॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरे स्वामी! आपने तो अभी-अभी भक्तियोगको ही निरपेक्ष एवं स्वतन्त्र साधन बतलाया है; क्योंकि इसीसे सब ओरसे आसक्ति छोड़कर मन आपमें ही तन्मय हो जाता है॥ २॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

अनपेक्षितः अपेक्षितान्तररहितः अननुमत इतिवत् येन भक्तियोगेन ॥ २-६ ॥

श्लोक-३

मूलम् (वचनम्)

श्रीभगवानुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

कालेन नष्टा प्रलये वाणीयं वेदसंज्ञिता।
मयाऽऽदौ ब्रह्मणे प्रोक्ता धर्मो यस्यां मदात्मकः॥

मूलम्

कालेन नष्टा प्रलये वाणीयं वेदसंज्ञिता।
मयाऽऽदौ ब्रह्मणे प्रोक्ता धर्मो यस्यां मदात्मकः॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् श्रीकृष्णने कहा—प्रिय उद्धव! यह वेदवाणी समयके फेरसे प्रलयके अवसरपर लुप्त हो गयी थी; फिर जब सृष्टिका समय आया, तब मैंने अपने संकल्पसे ही इसे ब्रह्माको उपदेश किया, इसमें मेरे भागवतधर्मका ही वर्णन है॥ ३॥

श्लोक-४

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेन प्रोक्ता च पुत्राय मनवे पूर्वजाय सा।
ततो भृग्वादयोऽगृह्णन् सप्त ब्रह्ममहर्षयः॥

मूलम्

तेन प्रोक्ता च पुत्राय मनवे पूर्वजाय सा।
ततो भृग्वादयोऽगृह्णन् सप्त ब्रह्ममहर्षयः॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्माने अपने ज्येष्ठ पुत्र स्वायम्भुव मनुको उपदेश किया और उनसे भृगु, अंगिरा, मरीचि, पुलह, अत्रि, पुलस्त्य और क्रतु—इन सात प्रजापति-महर्षियोंने ग्रहण किया॥ ४॥

श्लोक-५

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेभ्यः पितृभ्यस्तत्पुत्रा देवदानवगुह्यकाः।
मनुष्याः सिद्धगन्धर्वाः सविद्याधरचारणाः॥

मूलम्

तेभ्यः पितृभ्यस्तत्पुत्रा देवदानवगुह्यकाः।
मनुष्याः सिद्धगन्धर्वाः सविद्याधरचारणाः॥

श्लोक-६

विश्वास-प्रस्तुतिः

किंदेवाः किन्नरा नागा रक्षः किम्पुरुषादयः।
बह्व्यस्तेषां प्रकृतयो रजःसत्त्वतमोभुवः॥

मूलम्

किंदेवाः किन्नरा नागा रक्षः किम्पुरुषादयः।
बह्व्यस्तेषां प्रकृतयो रजःसत्त्वतमोभुवः॥

श्लोक-७

विश्वास-प्रस्तुतिः

याभिर्भू(भृ)तानि भिद्यन्ते भूतानां मतयस्तथा।
यथाप्रकृति सर्वेषां चित्रा वाचः स्रवन्ति हि॥

मूलम्

याभिर्भू(भृ)तानि भिद्यन्ते भूतानां मतयस्तथा।
यथाप्रकृति सर्वेषां चित्रा वाचः स्रवन्ति हि॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर इन ब्रह्मर्षियोंकी सन्तान देवता, दानव, गुह्यक, मनुष्य, सिद्ध, गन्धर्व, विद्याधर, चारण, किन्देव१, किन्नर२, नाग, राक्षस और किम्पुरुष३ आदिने इसे अपने पूर्वज इन्हीं ब्रह्मर्षियोंसे प्राप्त किया। सभी जातियों और व्यक्तियोंके स्वभाव—उनकी वासनाएँ सत्त्व, रज और तमोगुणके कारण भिन्न-भिन्न हैं; इसलिये उनमें और उनकी बुद्धि-वृत्तियोंमें भी अनेकों भेद हैं। इसीलिये वे सभी अपनी-अपनी प्रकृतिके अनुसार उस वेदवाणीका भिन्न-भिन्न अर्थ ग्रहण करते हैं। वह वाणी ही ऐसी अलौकिक है कि उससे विभिन्न अर्थ निकलना स्वाभाविक ही है॥ ५—७॥

पादटिप्पनी

१. श्रम और स्वेदादि दुर्गन्धसे रहित होनेके कारण जिनके विषयमें ‘ये देवता हैं या मनुष्य’ ऐसा सन्देह हो, वे द्वीपान्तर-निवासी मनुष्य।
२. मुख तथा शरीरकी आकृतिसे कुछ-कुछ मनुष्यके समान प्राणी।
३. कुछ-कुछ पुरुषके समान प्रतीत होनेवाले वानरादि।

श्रीसुदर्शनसूरिः

भृतानि भिद्यन्त इति जात्याभेदो विवक्षितः ॥ ७-८ ॥

श्लोक-८

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं प्रकृतिवैचित्र्याद् भिद्यन्ते मतयो नृणाम्।
पारम्पर्येण केषाञ्चित् पाखण्डमतयोऽपरे॥

मूलम्

एवं प्रकृतिवैचित्र्याद् भिद्यन्ते मतयो नृणाम्।
पारम्पर्येण केषाञ्चित् पाखण्डमतयोऽपरे॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी प्रकार स्वभावभेद तथा परम्परागत उपदेशके भेदसे मनुष्योंकी बुद्धिमें भिन्नता आ जाती है और कुछ लोग तो बिना किसी विचारके वेदविरुद्ध पाखण्डमतावलम्बी हो जाते हैं॥ ८॥

श्लोक-९

विश्वास-प्रस्तुतिः

मन्मायामोहितधियः पुरुषाः पुरुषर्षभ।
श्रेयो वदन्त्यनेकान्तं यथाकर्म यथारुचि॥

मूलम्

मन्मायामोहितधियः पुरुषाः पुरुषर्षभ।
श्रेयो वदन्त्यनेकान्तं यथाकर्म यथारुचि॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रिय उद्धव! सभीकी बुद्धि मेरी मायासे मोहित हो रही है; इसीसे वे अपने-अपने कर्म-संस्कार और अपनी-अपनी रुचिके अनुसार आत्मकल्याणके साधन भी एक नहीं, अनेकों बतलाते हैं॥ ९॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

यथाकर्म यथारुचि रुचिभेदनियामकं कर्मवैविध्यमित्यभिप्रायः ॥ ९ ॥

श्लोक-१०

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्ममेके यशश्चान्ये कामं सत्यं दमं शमम्।
अन्ये वदन्ति स्वार्थं वा ऐश्वर्यं त्यागभोजनम्॥

मूलम्

धर्ममेके यशश्चान्ये कामं सत्यं दमं शमम्।
अन्ये वदन्ति स्वार्थं वा ऐश्वर्यं त्यागभोजनम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

पूर्वमीमांसक धर्मको, साहित्याचार्य यशको, कामशास्त्री कामको, योगवेत्ता सत्य और शमदमादिको, दण्डनीतिकार ऐश्वर्यको, त्यागी त्यागको और लोकायतिक भोगको ही मनुष्य-जीवनका स्वार्थ—परम लाभ बतलाते हैं॥ १०॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

यशश्चान्य इति । लोकयज्ञो यथाविहितं भवति तादृशाचरितं श्रेय इत्यभिप्रायः यद्वा यावत्कीर्तिस्तावत्परलोकावस्थानमिति शास्त्रार्थयुक्तं कामं प्रजातन्तुमित्यर्थः ॥ १० ॥

श्लोक-११

विश्वास-प्रस्तुतिः

केचिद् यज्ञतपोदानं व्रतानि नियमान् यमान्।
आद्यन्तवन्त एवैषां लोकाः कर्मविनिर्मिताः।
दुःखोदर्कास्तमोनिष्ठाः क्षुद्रानन्दाः शुचार्पिताः॥

मूलम्

केचिद् यज्ञतपोदानं व्रतानि नियमान् यमान्।
आद्यन्तवन्त एवैषां लोकाः कर्मविनिर्मिताः।
दुःखोदर्कास्तमोनिष्ठाः क्षुद्रानन्दाः शुचार्पिताः॥

अनुवाद (हिन्दी)

कर्मयोगी लोग यज्ञ, तप, दान, व्रत तथा यम-नियम आदिको पुरुषार्थ बतलाते हैं। परन्तु ये सभी कर्म हैं; इनके फलस्वरूप जो लोक मिलते हैं, वे उत्पत्ति और नाशवाले हैं। कर्मोंका फल समाप्त हो जानेपर उनसे दुःख ही मिलता है और सच पूछो, तो उनकी अन्तिम गति घोर अज्ञान ही है। उनसे जो सुख मिलता है, वह तुच्छ हैं—नगण्य है और वे लोग भोगके समय भी असूया आदि दोषोंके कारण शोकसे परिपूर्ण हैं। (इसलिये इन विभिन्न साधनोंके फेरमें न पड़ना चाहिये)॥ ११॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

दुःखोदर्काः दुःखफलाः ॥ ११ ॥

श्लोक-१२

विश्वास-प्रस्तुतिः

मय्यर्पितात्मनः सभ्य निरपेक्षस्य सर्वतः।
मयाऽऽत्मना सुखं यत्तत् कुतः स्याद् विषयात्मनाम्॥

मूलम्

मय्यर्पितात्मनः सभ्य निरपेक्षस्य सर्वतः।
मयाऽऽत्मना सुखं यत्तत् कुतः स्याद् विषयात्मनाम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रिय उद्धव! जो सब ओरसे निरपेक्ष—बेपरवाह हो गया है, किसी भी कर्म या फल आदिकी आवश्यकता नहीं रखता और अपने अन्तःकरणको सब प्रकारसे मुझे ही समर्पित कर चुका है, परमानन्दस्वरूप मैं उसकी आत्माके रूपमें स्फुरित होने लगता हूँ। इससे वह जिस सुखका अनुभव करता है, वह विषय-लोलुप प्राणियोंको किसी प्रकार मिल नहीं सकता॥ १२॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

मयात्मना सुखमन्तरात्मनाभूतं मदनुभवाधीनं सुखम् ॥ १२ ॥

श्लोक-१३

विश्वास-प्रस्तुतिः

अकिञ्चनस्य दान्तस्य शान्तस्य समचेतसः।
मया सन्तुष्टमनसः सर्वाः सुखमया दिशः॥

मूलम्

अकिञ्चनस्य दान्तस्य शान्तस्य समचेतसः।
मया सन्तुष्टमनसः सर्वाः सुखमया दिशः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो सब प्रकारके संग्रह-परिग्रहसे रहित—अकिंचन है, जो अपनी इन्द्रियोंपर विजय प्राप्त करके शान्त और समदर्शी हो गया है, जो मेरी प्राप्तिसे ही मेरे सान्निध्यका अनुभव करके ही सदा-सर्वदा पूर्ण सन्तोषका अनुभव करता है, उसके लिये आकाशका एक-एक कोना आनन्दसे भरा हुआ है॥ १३॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

मया सन्तुष्टमनसो मत्तः प्रकृष्टप्रायान्तराभावात् सन्तोषमयाः सर्वा दिशः ॥ १३ ॥

श्लोक-१४

विश्वास-प्रस्तुतिः

न पारमेष्ठ्यं न महेन्द्रधिष्ण्यं
न सार्वभौमं न रसाधिपत्यम्।
न योगसिद्धीरपुनर्भवं वा
मय्यर्पितात्मेच्छति मद् विनान्यत्॥

मूलम्

न पारमेष्ठ्यं न महेन्द्रधिष्ण्यं
न सार्वभौमं न रसाधिपत्यम्।
न योगसिद्धीरपुनर्भवं वा
मय्यर्पितात्मेच्छति मद् विनान्यत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसने अपनेको मुझे सौंप दिया है, वह मुझे छोड़कर न तो ब्रह्माका पद चाहता है और न देवराज इन्द्रका, उसके मनमें न तो सार्वभौम सम्राट् बननेकी इच्छा होती है और न वह स्वर्गसे भी श्रेष्ठ रसातलका ही स्वामी होना चाहता है। वह योगकी बड़ी-बड़ी सिद्धियों और मोक्षतककी अभिलाषा नहीं करता॥ १४॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

सन्तोषमेव विवृणोति । न पारमेष्ठ्यमिति । रसाधिपत्यं पातालैश्वर्यम् ॥ १४-१५ ॥

श्लोक-१५

विश्वास-प्रस्तुतिः

न तथा मे प्रियतम आत्मयोनिर्न शङ्करः।
न च सङ्कर्षणो न श्रीर्नैवात्मा च यथा भवान्॥

मूलम्

न तथा मे प्रियतम आत्मयोनिर्न शङ्करः।
न च सङ्कर्षणो न श्रीर्नैवात्मा च यथा भवान्॥

अनुवाद (हिन्दी)

उद्धव! मुझे तुम्हारे-जैसे प्रेमी भक्त जितने प्रियतम हैं, उतने प्रिय मेरे पुत्र ब्रह्मा, आत्मा शंकर, सगे भाई बलरामजी, स्वयं अर्धांगिनी लक्ष्मीजी और मेरा अपना आत्मा भी नहीं है॥ १५॥

श्लोक-१६

विश्वास-प्रस्तुतिः

निरपेक्षं मुनिं शान्तं निर्वैरं समदर्शनम्।
अनुव्रजाम्यहं नित्यं पूयेयेत्यङ्घ्रिरेणुभिः॥

मूलम्

निरपेक्षं मुनिं शान्तं निर्वैरं समदर्शनम्।
अनुव्रजाम्यहं नित्यं पूयेयेत्यङ्घ्रिरेणुभिः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसे किसीकी अपेक्षा नहीं, जो जगत‍्के चिन्तनसे सर्वथा उपरत होकर मेरे ही मनन-चिन्तनमें तल्लीन रहता है और राग-द्वेष न रखकर सबके प्रति समान दृष्टि रखता है, उस महात्माके पीछे-पीछे मैं निरन्तर यह सोचकर घूमा करता हूँ कि उसके चरणोंकी धूल उड़कर मेरे ऊपर पड़ जाय और मैं पवित्र हो जाऊँ॥ १६॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

पूयेयेत्यतिवादः पावयेयमिति वार्थः ॥ १६ ॥

श्लोक-१७

विश्वास-प्रस्तुतिः

निष्किञ्चना मय्यनुरक्तचेतसः
शान्ता महान्तोऽखिलजीववत्सलाः।
कामैरनालब्धधियो जुषन्ति यत्
तन्नैरपेक्ष्यं न विदुः सुखं मम॥

मूलम्

निष्किञ्चना मय्यनुरक्तचेतसः
शान्ता महान्तोऽखिलजीववत्सलाः।
कामैरनालब्धधियो जुषन्ति यत्
तन्नैरपेक्ष्यं न विदुः सुखं मम॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो सब प्रकारके संग्रह-परिग्रहसे रहित हैं—यहाँतक कि शरीर आदिमें भी अहंता-ममता नहीं रखते, जिनका चित्त मेरे ही प्रेमके रंगमें रँग गया है, जो संसारकी वासनाओंसे शान्त-उपरत हो चुके हैं और जो अपनी महत्ता—उदारताके कारण स्वभावसे ही समस्त प्राणियोंके प्रति दया और प्रेमका भाव रखते हैं, किसी प्रकारकी कामना जिनकी बुद्धिका स्पर्श नहीं कर पाती, उन्हें मेरे जिस परमानन्दस्वरूपका अनुभव होता है, उसे और कोई नहीं जान सकता; क्योंकि वह परमानन्द तो केवल निरपेक्षतासे ही प्राप्त होता है॥ १७॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

मम सुखं न विदुः मदधीनमोक्षसुखमपि न गणयन्ति नान्द्रियन्त इत्यर्थः ॥ १७-२४ ॥

श्लोक-१८

विश्वास-प्रस्तुतिः

बाध्यमानोऽपि मद‍्भक्तो विषयैरजितेन्द्रियः।
प्रायः प्रगल्भया भक्त्या विषयैर्नाभिभूयते॥

मूलम्

बाध्यमानोऽपि मद‍्भक्तो विषयैरजितेन्द्रियः।
प्रायः प्रगल्भया भक्त्या विषयैर्नाभिभूयते॥

अनुवाद (हिन्दी)

उद्धवजी! मेरा जो भक्त अभी जितेन्द्रिय नहीं हो सका है और संसारके विषय बार-बार उसे बाधा पहुँचाते रहते हैं—अपनी ओर खींच लिया करते हैं, वह भी क्षण-क्षणमें बढ़नेवाली मेरी प्रगल्भ भक्तिके प्रभावसे प्रायः विषयोंसे पराजित नहीं होता॥ १८॥

श्लोक-१९

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथाग्निः सुसमृद्धार्चिः करोत्येधांसि भस्मसात्।
तथा मद्विषया भक्तिरुद्धवैनांसि कृत्स्नशः॥

मूलम्

यथाग्निः सुसमृद्धार्चिः करोत्येधांसि भस्मसात्।
तथा मद्विषया भक्तिरुद्धवैनांसि कृत्स्नशः॥

अनुवाद (हिन्दी)

उद्धव! जैसे धधकती हुई आग लकड़ियोंके बड़े ढेरको भी जलाकर खाक कर देती है, वैसे ही मेरी भक्ति भी समस्त पापराशिको पूर्णतया जला डालती है॥ १९॥

श्लोक-२०

विश्वास-प्रस्तुतिः

न साधयति मां योगो न सांख्यं धर्म उद्धव।
न स्वाध्यायस्तपस्त्यागो यथा भक्तिर्ममोर्जिता॥

मूलम्

न साधयति मां योगो न सांख्यं धर्म उद्धव।
न स्वाध्यायस्तपस्त्यागो यथा भक्तिर्ममोर्जिता॥

अनुवाद (हिन्दी)

उद्धव! योग-साधन, ज्ञान-विज्ञान, धर्मानुष्ठान, जप-पाठ और तप-त्याग मुझे प्राप्त करानेमें उतने समर्थ नहीं हैं, जितनी दिनों-दिन बढ़नेवाली अनन्य प्रेममयी मेरी भक्ति॥ २०॥

श्लोक-२१

विश्वास-प्रस्तुतिः

भक्त्याहमेकया ग्राह्यः श्रद्धयाऽऽत्मा प्रियः सताम्।
भक्तिः पुनाति मन्निष्ठा श्वपाकानपि सम्भवात्॥

मूलम्

भक्त्याहमेकया ग्राह्यः श्रद्धयाऽऽत्मा प्रियः सताम्।
भक्तिः पुनाति मन्निष्ठा श्वपाकानपि सम्भवात्॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं संतोंका प्रियतम आत्मा हूँ, मैं अनन्य श्रद्धा और अनन्य भक्तिसे ही पकड़में आता हूँ। मुझे प्राप्त करनेका यह एक ही उपाय है। मेरी अनन्य भक्ति उन लोगोंको भी पवित्र—जातिदोषसे मुक्त कर देती है, जो जन्मसे ही चाण्डाल हैं॥ २१॥

श्लोक-२२

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्मः सत्यदयोपेतो विद्या वा तपसान्विता।
मद‍्भक्त्यापेतमात्मानं न सम्यक् प्रपुनाति हि॥

मूलम्

धर्मः सत्यदयोपेतो विद्या वा तपसान्विता।
मद‍्भक्त्यापेतमात्मानं न सम्यक् प्रपुनाति हि॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके विपरीत जो मेरी भक्तिसे वञ्चित हैं, उनके चित्तको सत्य और दयासे युक्त, धर्म और तपस्यासे युक्त विद्या भी भलीभाँति पवित्र करनेमें असमर्थ है॥ २२॥

श्लोक-२३

विश्वास-प्रस्तुतिः

कथं विना रोमहर्षं द्रवता चेतसा विना।
विनाऽऽनन्दाश्रुकलया शुध्येद् भक्त्या विनाऽऽशयः॥

मूलम्

कथं विना रोमहर्षं द्रवता चेतसा विना।
विनाऽऽनन्दाश्रुकलया शुध्येद् भक्त्या विनाऽऽशयः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जबतक सारा शरीर पुलकित नहीं हो जाता, चित्त पिघलकर गद‍्गद नहीं हो जाता, आनन्दके आँसू आँखोंसे छलकने नहीं लगते तथा अन्तरंग और बहिरंग भक्तिकी बाढ़में चित्त डूबने-उतराने नहीं लगता, तबतक इसके शुद्ध होनेकी कोई सम्भावना नहीं है॥ २३॥

श्लोक-२४

विश्वास-प्रस्तुतिः

वाग् गद‍्गदा द्रवते यस्य चित्तं
रुदत्यभीक्ष्णं हसति क्वचिच्च।
विलज्ज उद‍्गायति नृत्यते च
मद‍्भक्तियुक्तो भुवनं पुनाति॥

मूलम्

वाग् गद‍्गदा द्रवते यस्य चित्तं
रुदत्यभीक्ष्णं हसति क्वचिच्च।
विलज्ज उद‍्गायति नृत्यते च
मद‍्भक्तियुक्तो भुवनं पुनाति॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसकी वाणी प्रेमसे गद‍्गद हो रही है, चित्त पिघल-कर एक ओर बहता रहता है, एक क्षणके लिये भी रोनेका ताँता नहीं टूटता, परन्तु जो कभी-कभी खिल-खिलाकर हँसने भी लगता है, कहीं लाज छोड़कर ऊँचे स्वरसे गाने लगता है, तो कहीं नाचने लगता है, भैया उद्धव! मेरा वह भक्त न केवल अपनेको बल्कि सारे संसारको पवित्र कर देता है॥ २४॥

श्लोक-२५

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथाग्निना हेम मलं जहाति
ध्मातं पुनः स्वं भजते च रूपम्।
आत्मा च कर्मानुशयं विधूय
मद‍्भक्तियोगेन भजत्यथो माम्॥

मूलम्

यथाग्निना हेम मलं जहाति
ध्मातं पुनः स्वं भजते च रूपम्।
आत्मा च कर्मानुशयं विधूय
मद‍्भक्तियोगेन भजत्यथो माम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे आगमें तपानेपर सोना मैल छोड़ देता है—निखर जाता है और अपने असली शुद्ध रूपमें स्थित हो जाता है, वैसे ही मेरे भक्तियोगके द्वारा आत्मा कर्म-वासनाओंसे मुक्त होकर मुझको ही प्राप्त हो जाता है, क्योंकि मैं ही उसका वास्तविक स्वरूप हूँ॥ २५॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

यथाध्मातमिति श्रुतिमुखेन आध्मातमित्यर्थः । रूपमौज्ज्वल्यम् ॥ २५ ॥

श्लोक-२६

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा यथाऽऽत्मा परिमृज्यतेऽसौ
मत्पुण्यगाथाश्रवणाभिधानैः।
तथा तथा पश्यति वस्तु सूक्ष्मं
चक्षुर्यथैवाञ्जनसम्प्रयुक्तम्॥

मूलम्

यथा यथाऽऽत्मा परिमृज्यतेऽसौ
मत्पुण्यगाथाश्रवणाभिधानैः।
तथा तथा पश्यति वस्तु सूक्ष्मं
चक्षुर्यथैवाञ्जनसम्प्रयुक्तम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

उद्धवजी! मेरी परमपावन लीला-कथाके श्रवण-कीर्तनसे ज्यों-ज्यों चित्तका मैल धुलता जाता है, त्यों-त्यों उसे सूक्ष्म-वस्तुके—वास्तविक तत्त्वके दर्शन होने लगते हैं—जैसे अंजनके द्वारा नेत्रोंका दोष मिटनेपर उनमें सूक्ष्म वस्तुओंको देखनेकी शक्ति आने लगती है॥ २६॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

सूक्ष्मं तत्त्वं प्रकृतेः सूक्ष्मो जीवः जीवात्सूक्ष्मः परमात्मा ॥ २६ ॥

श्लोक-२७

विश्वास-प्रस्तुतिः

विषयान् ध्यायतश्चित्तं विषयेषु विषज्जते।
मामनुस्मरतश्चित्तं मय्येव प्रविलीयते॥

मूलम्

विषयान् ध्यायतश्चित्तं विषयेषु विषज्जते।
मामनुस्मरतश्चित्तं मय्येव प्रविलीयते॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो पुरुष निरन्तर विषय-चिन्तन किया करता है, उसका चित्त विषयोंमें फँस जाता है और जो मेरा स्मरण करता है, उसका चित्त मुझमें तल्लीन हो जाता है॥ २७॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

प्रलीयते प्रकर्षेण श्लिष्यति अन्यानुभवाक्षमं भवति ॥ २७ ॥

श्लोक-२८

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मादसदभिध्यानं यथा स्वप्नमनोरथम्।
हित्वा मयि समाधत्स्व मनो मद‍्भावभावितम्॥

मूलम्

तस्मादसदभिध्यानं यथा स्वप्नमनोरथम्।
हित्वा मयि समाधत्स्व मनो मद‍्भावभावितम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसलिये तुम दूसरे साधनों और फलोंका चिन्तन छोड़ दो। अरे भाई! मेरे अतिरिक्त और कुछ है ही नहीं, जो कुछ जान पड़ता है, वह ठीक वैसा ही है जैसे स्वप्न अथवा मनोरथका राज्य। इसलिये मेरे चिन्तनसे तुम अपना चित्त शुद्ध कर लो और उसे पूरी तरहसे—एकाग्रतासे मुझमें ही लगा दो॥ २८॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

असदभिध्यानम् अशुद्धाभिध्यानं यथास्वप्नमनोरथम् अस्थिरविषयमित्यर्थः । मद्भावभावितं मद्विषयभावबन्धेन भक्त्यावासितम् ॥ २८-३० ॥

श्लोक-२९

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्त्रीणां स्त्रीसङ्गिनां सङ्गं त्यक्त्वा दूरत आत्मवान्।
क्षेमे विविक्त आसीनश्चिन्तयेन्मामतन्द्रितः॥

मूलम्

स्त्रीणां स्त्रीसङ्गिनां सङ्गं त्यक्त्वा दूरत आत्मवान्।
क्षेमे विविक्त आसीनश्चिन्तयेन्मामतन्द्रितः॥

अनुवाद (हिन्दी)

संयमी पुरुष स्त्रियों और उनके प्रेमियोंका संग दूरसे ही छोड़कर, पवित्र एकान्त स्थानमें बैठकर बड़ी सावधानीसे मेरा ही चिन्तन करे॥ २९॥

श्लोक-३०

विश्वास-प्रस्तुतिः

न तथास्य भवेत् क्लेशो बन्धश्चान्यप्रसङ्गतः।
योषित्सङ्गाद् यथा पुंसो यथा तत्सङ्गिसङ्गतः॥

मूलम्

न तथास्य भवेत् क्लेशो बन्धश्चान्यप्रसङ्गतः।
योषित्सङ्गाद् यथा पुंसो यथा तत्सङ्गिसङ्गतः॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्यारे उद्धव! स्त्रियोंके संगसे और स्त्रीसंगियोंके—लम्पटोंके संगसे पुरुषको जैसे क्लेश और बन्धनमें पड़ना पड़ता है, वैसा क्लेश और फँसावट और किसीके भी संगसे नहीं होती॥ ३०॥

श्लोक-३१

मूलम् (वचनम्)

उद्धव उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा त्वामरविन्दाक्ष यादृशं वा यदात्मकम्।
ध्यायेन्मुमुक्षुरेतन्मे ध्यानं त्वं वक्तुमर्हसि॥

मूलम्

यथा त्वामरविन्दाक्ष यादृशं वा यदात्मकम्।
ध्यायेन्मुमुक्षुरेतन्मे ध्यानं त्वं वक्तुमर्हसि॥

अनुवाद (हिन्दी)

उद्धवजीने पूछा—कमलनयन श्यामसुन्दर! आप कृपा करके यह बतलाइये कि मुमुक्षु पुरुष आपका किस रूपसे, किस प्रकार और किस भावसे ध्यान करे?॥ ३१॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

यथेति ध्यानक्रियाविशेषणं यादृशमिति विग्रहसंस्थानप्रश्नः यदात्मकमिति दिव्यात्मस्वरूपप्रश्नः ॥ ३१-३२ ॥

श्लोक-३२

मूलम् (वचनम्)

श्रीभगवानुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

सम आसन आसीनः समकायो यथासुखम्।
हस्तावुत्सङ्ग आधाय स्वनासाग्रकृतेक्षणः॥

मूलम्

सम आसन आसीनः समकायो यथासुखम्।
हस्तावुत्सङ्ग आधाय स्वनासाग्रकृतेक्षणः॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् श्रीकृष्णने कहा—प्रिय उद्धव! जो न तो बहुत ऊँचा हो और न बहुत नीचा ही—ऐसे आसनपर शरीरको सीधा रखकर आरामसे बैठ जाय, हाथोंको अपनी गोदमें रख ले और दृष्टि अपनी नासिकाके अग्रभागपर जमावे॥ ३२॥

श्लोक-३३

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्राणस्य शोधयेन्मार्गं पूरकुम्भकरेचकैः।
विपर्ययेणापि शनैरभ्यसेन्निर्जितेन्द्रियः॥

मूलम्

प्राणस्य शोधयेन्मार्गं पूरकुम्भकरेचकैः।
विपर्ययेणापि शनैरभ्यसेन्निर्जितेन्द्रियः॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके बाद पूरक, कुम्भक और रेचक तथा रेचक, कुम्भक और पूरक—इन प्राणायामोंके द्वारा नाड़ियोंका शोधन करे। प्राणायामका अभ्यास धीरे-धीरे बढ़ाना चाहिये और उसके साथ-साथ इन्द्रियोंको जीतनेका भी अभ्यास करना चाहिये॥ ३३॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

विपर्ययेण रेचकपूरककुम्भकक्रमेण इह प्राणायामदशायां मनस आलम्बनम् ॥ ३३ ॥

श्लोक-३४

विश्वास-प्रस्तुतिः

हृद्यविच्छिन्नमोङ्कारं घण्टानादं विसोर्णवत्।
प्राणेनोदीर्य तत्राथ पुनः संवेशयेत् स्वरम्॥

मूलम्

हृद्यविच्छिन्नमोङ्कारं घण्टानादं विसोर्णवत्।
प्राणेनोदीर्य तत्राथ पुनः संवेशयेत् स्वरम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

हृदयमें कमलनालगत पतले सूतके समान ॐकारका चिन्तन करे, प्राणके द्वारा उसे ऊपर ले जाय और उसमें घण्टानादके समान स्वर स्थिर करे। उस स्वरका ताँता टूटने न पावे॥ ३४॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

प्रणवस्य स्वरूपमाह । ओङ्कारमिति घण्टानादबिसतन्तु अविच्छिन्नत्वे दृष्टान्तौ प्राणेनोद्घाट्य तत्र हृदि पुनः स्वरमोङ्कारं सम्वेशयेत् पुनः पुनः प्राणायामेष्वनुसन्दध्यादित्यर्थः ॥ ३४ ॥

श्लोक-३५

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं प्रणवसंयुक्तं प्राणमेव समभ्यसेत्।
दशकृत्वस्त्रिषवणं मासादर्वाग् जितानिलः॥

मूलम्

एवं प्रणवसंयुक्तं प्राणमेव समभ्यसेत्।
दशकृत्वस्त्रिषवणं मासादर्वाग् जितानिलः॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार प्रतिदिन तीन समय दस-दस बार ॐकार-सहित प्राणायामका अभ्यास करे। ऐसा करनेसे एक महीनेके अंदर ही प्राणवायु वशमें हो जाता है॥ ३५॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

त्रिषवणं त्रिसन्ध्यं जितानिलो भवतीति शेषः ॥ ३५-३६ ॥

श्लोक-३६

विश्वास-प्रस्तुतिः

हृत्पुण्डरीकमन्तःस्थमूर्ध्वनालमधोमुखम्।
ध्यात्वोर्ध्वमुखमुन्निद्रमष्टपत्रं सकर्णिकम्॥

मूलम्

हृत्पुण्डरीकमन्तःस्थमूर्ध्वनालमधोमुखम्।
ध्यात्वोर्ध्वमुखमुन्निद्रमष्टपत्रं सकर्णिकम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके बाद ऐसा चिन्तन करे कि हृदय एक कमल है, वह शरीरके भीतर इस प्रकार स्थित है मानो उसकी डंडी तो ऊपरकी ओर है और मुँह नीचेकी ओर। अब ध्यान करना चाहिये कि उसका मुख ऊपरकी ओर होकर खिल गया है, उसके आठ दल (पँखुड़ियाँ) हैं और उनके बीचोबीच पीली-पीली अत्यन्त सुकुमार कर्णिका (गद्दी) है॥ ३६॥

श्लोक-३७

विश्वास-प्रस्तुतिः

कर्णिकायां न्यसेत् सूर्यसोमाग्नीनुत्तरोत्तरम्।
वह्निमध्ये स्मरेद् रूपं ममैतद् ध्यानमङ्गलम्॥

मूलम्

कर्णिकायां न्यसेत् सूर्यसोमाग्नीनुत्तरोत्तरम्।
वह्निमध्ये स्मरेद् रूपं ममैतद् ध्यानमङ्गलम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

कर्णिकापर क्रमशः सूर्य, चन्द्रमा और अग्निका न्यास करना चाहिये। तदनन्तर अग्निके अंदर मेरे इस रूपका स्मरण करना चाहिये। मेरा यह स्वरूप ध्यानके लिये बड़ा ही मंगलमय है॥ ३७॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

तस्य मध्ये महानग्निरित्यग्निः प्रत्यक्षश्रुतिसिद्धः सूर्यसोमौ श्रुत्यन्तरसिद्धत्वादिह स्मृतौ ज्ञातव्यौ ॥ ३७ ॥

श्लोक-३८

विश्वास-प्रस्तुतिः

समं प्रशान्तं सुमुखं दीर्घचारुचतुर्भुजम्।
सुचारुसुन्दरग्रीवं सुकपोलं शुचिस्मितम्॥

मूलम्

समं प्रशान्तं सुमुखं दीर्घचारुचतुर्भुजम्।
सुचारुसुन्दरग्रीवं सुकपोलं शुचिस्मितम्॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

सुचारुभ्यः सुन्दरतरग्रीवा यस्य तत्सुचारुसुन्दरग्रीवम् ॥३८-४०॥

श्लोक-३९

विश्वास-प्रस्तुतिः

समानकर्णविन्यस्तस्फुरन्मकरकुण्डलम्।
हेमाम्बरं घनश्यामं श्रीवत्सश्रीनिकेतनम्॥

मूलम्

समानकर्णविन्यस्तस्फुरन्मकरकुण्डलम्।
हेमाम्बरं घनश्यामं श्रीवत्सश्रीनिकेतनम्॥

श्लोक-४०

विश्वास-प्रस्तुतिः

शङ्खचक्रगदापद्मवनमालाविभूषितम्।
नूपुरैर्विलसत्पादं कौस्तुभप्रभया युतम्॥

मूलम्

शङ्खचक्रगदापद्मवनमालाविभूषितम्।
नूपुरैर्विलसत्पादं कौस्तुभप्रभया युतम्॥

श्लोक-४१

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्युमत्किरीटकटककटिसूत्राङ्गदायुतम्।
सर्वाङ्गसुन्दरं हृद्यं प्रसादसुमुखेक्षणम्।
सुकुमारमभिध्यायेत् सर्वाङ्गेषु मनो दधत्॥

मूलम्

द्युमत्किरीटकटककटिसूत्राङ्गदायुतम्।
सर्वाङ्गसुन्दरं हृद्यं प्रसादसुमुखेक्षणम्।
सुकुमारमभिध्यायेत् सर्वाङ्गेषु मनो दधत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरे अवयवोंकी गठन बड़ी ही सुडौल है। रोम-रोमसे शान्ति टपकती है। मुखकमल अत्यन्त प्रफुल्लित और सुन्दर है। घुटनोंतक लंबी मनोहर चार भुजाएँ हैं। बड़ी ही सुन्दर और मनोहर गरदन है। मरकत-मणिके समान सुस्निग्ध कपोल हैं। मुखपर मन्द-मन्द मुसकानकी अनोखी ही छटा है। दोनों ओरके कान बराबर हैं और उनमें मकराकृत कुण्डल झिलमिल-झिलमिल कर रहे हैं। वर्षाकालीन मेघके समान श्यामल शरीरपर पीताम्बर फहरा रहा है। श्रीवत्स एवं लक्ष्मीजीका चिह्न वक्षःस्थलपर दायें-बायें विराजमान है। हाथोंमें क्रमशः शंख, चक्र, गदा एवं पद्म धारण किये हुए हैं। गलेमें वनमाला लटक रही है। चरणोंमें नूपुर शोभा दे रहे हैं, गलेमें कौस्तुभमणि जगमगा रही है। अपने-अपने स्थानपर चमचमाते हुए किरीट, कंगन, करधनी और बाजूबंद शोभायमान हो रहे हैं। मेरा एक-एक अंग अत्यन्त सुन्दर एवं हृदयहारी है। सुन्दर मुख और प्यारभरी चितवन कृपा-प्रसादकी वर्षा कर रही है। उद्धव! मेरे इस सुकुमार रूपका ध्यान करना चाहिये और अपने मनको एक-एक अंगमें लगाना चाहिये॥ ३८—४१॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

द्युमत् द्युतिमत् ॥ ४१ ॥

श्लोक-४२

विश्वास-प्रस्तुतिः

इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यो मनसाऽऽकृष्य तन्मनः।
बुद्ध्या सारथिना धीरः प्रणयेन्मयि सर्वतः॥

मूलम्

इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यो मनसाऽऽकृष्य तन्मनः।
बुद्ध्या सारथिना धीरः प्रणयेन्मयि सर्वतः॥

अनुवाद (हिन्दी)

बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि मनके द्वारा इन्द्रियोंको उनके विषयोंसे खींच ले और मनको बुद्धिरूप सारथिकी सहायतासे मुझमें ही लगा दे, चाहे मेरे किसी भी अंगमें क्यों न लगे॥ ४२॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

बुद्धया भगवद्रूपमेव ध्येयं नान्यच्चिन्त्यमित्यध्यवसायेन सर्वव्यापकं शब्दादिसर्वविषयप्रवणम् एकत्र भगवद्विग्रहे अन्यानि रूपाणि विशेषतो मनोहारित्वादाह । सुस्मितमिति । आकृष्य विषयान्तरेभ्यः आकृष्य ॥ ४२-४३ ॥

श्लोक-४३

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत् सर्वव्यापकं चित्तमाकृष्यैकत्र धारयेत्।
नान्यानि चिन्तयेद् भूयः सुस्मितं भावयेन्मुखम्॥

मूलम्

तत् सर्वव्यापकं चित्तमाकृष्यैकत्र धारयेत्।
नान्यानि चिन्तयेद् भूयः सुस्मितं भावयेन्मुखम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब सारे शरीरका ध्यान होने लगे, तब अपने चित्तको खींचकर एक स्थानमें स्थिर करे और अन्य अंगोंका चिन्तन न करके केवल मन्द-मन्द मुसकानकी छटासे युक्त मेरे मुखका ही ध्यान करे॥ ४३॥

श्लोक-४४

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्र लब्धपदं चित्तमाकृष्य व्योम्नि धारयेत्।
तच्च त्यक्त्वा मदारोहो न किञ्चिदपि चिन्तयेत्॥

मूलम्

तत्र लब्धपदं चित्तमाकृष्य व्योम्नि धारयेत्।
तच्च त्यक्त्वा मदारोहो न किञ्चिदपि चिन्तयेत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब चित्त मुखारविन्दमें ठहर जाय, तब उसे वहाँसे हटाकर आकाशमें स्थिर करे। तदनन्तर आकाशका चिन्तन भी त्यागकर मेरे स्वरूपमें आरूढ हो जाय और मेरे सिवा किसी भी वस्तुका चिन्तन न करे॥ ४४॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

तत्र विग्रहे लब्धपदमित्यन्वयः व्योम्नि व्योमवदपरिच्छिन्ने दिव्यात्मस्वरूपे कं ब्रह्मखं ब्रह्मेति हि श्रुतिः मदारोहः मत्स्वरूपानुसन्धाननिष्ठः तच्च धारणमपि त्यक्त्वा न किचिदपि चिन्तयेत् समाधौ ध्येयमेव पश्यति ध्यानक्रियामपि न जानाति कुतो विषयान्तरज्ञानमित्यर्थः ॥ ४४ ॥

श्लोक-४५

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं समाहितमतिर्मामेवात्मानमात्मनि।
विचष्टे मयि सर्वात्मन् ज्योतिर्ज्योतिषि संयुतम्॥

मूलम्

एवं समाहितमतिर्मामेवात्मानमात्मनि।
विचष्टे मयि सर्वात्मन् ज्योतिर्ज्योतिषि संयुतम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब इस प्रकार चित्त समाहित हो जाता है, तब जैसे एक ज्योति दूसरी ज्योतिसे मिलकर एक हो जाती है, वैसे ही अपनेमें मुझे और मुझ सर्वात्मामें अपनेको अनुभव करने लगता है॥ ४५॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

समाधिदशायां परिशुद्धे जीवात्मन्यन्तरात्मतयावस्थित एव भगवाननुसंधेयः नतु केवल इत्याह । एवं समाहितेति ॥ ४५ ॥

श्लोक-४६

विश्वास-प्रस्तुतिः

ध्यानेनेत्थं सुतीव्रेण युञ्जतो योगिनो मनः।
संयास्यत्याशु निर्वाणं द्रव्यज्ञानक्रियाभ्रमः॥

मूलम्

ध्यानेनेत्थं सुतीव्रेण युञ्जतो योगिनो मनः।
संयास्यत्याशु निर्वाणं द्रव्यज्ञानक्रियाभ्रमः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो योगी इस प्रकार तीव्र ध्यानयोगके द्वारा मुझमें ही अपने चित्तका संयम करता है, उसके चित्तसे वस्तुकी अनेकता, तत्सम्बन्धी ज्ञान और उनकी प्राप्तिके लिये होनेवाले कर्मोंका भ्रम शीघ्र ही निवृत्त हो जाता है॥ ४६॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

ध्यानेति । द्रव्यज्ञानक्रियाभ्रमं द्रव्यं तमः ज्ञानं सत्त्वं क्रिया रजः तत्कृतभ्रमान्वितम्मनः उक्तलक्षणं ध्यानेन निर्वाणं मुक्ति विषयान्तरविगाहनाक्षमत्वं यास्यतीत्यर्थः ॥ ४६ ॥

इति श्रीमद्भागवतव्याख्याने एकादशस्कन्धीये श्री सुदर्शन सूरिकृतशुकपक्षीये चतुर्दशोऽध्यायः ॥ १४ ॥

अनुवाद (समाप्ति)

इति श्रीमद‍्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायामेकादशस्कन्धे चतुर्दशोऽध्यायः॥ १४॥