[दशमोऽध्यायः]
भागसूचना
लौकिक तथा पारलौकिक भोगोंकी असारताका निरूपण
श्लोक-१
मूलम् (वचनम्)
श्रीभगवानुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
मयोदितेष्ववहितः स्वधर्मेषु मदाश्रयः।
वर्णाश्रमकुलाचारमकामात्मा समाचरेत्॥
मूलम्
मयोदितेष्ववहितः स्वधर्मेषु मदाश्रयः।
वर्णाश्रमकुलाचारमकामात्मा समाचरेत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं—प्यारे उद्धव! साधकको चाहिये कि सब तरहसे मेरी शरणमें रहकर (गीता-पाञ्चरात्र आदिमें) मेरे द्वारा उपदिष्ट अपने धर्मोंका सावधानीसे पालन करे। साथ ही जहाँतक उनसे विरोध न हो वहाँतक निष्कामभावसे अपने वर्ण, आश्रम और कुलके अनुसार सदाचारका भी अनुष्ठान करे॥ १॥
श्लोक-२
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्वीक्षेत विशुद्धात्मा देहिनां विषयात्मनाम्।
गुणेषु तत्त्वध्यानेन सर्वारम्भविपर्ययम्॥
मूलम्
अन्वीक्षेत विशुद्धात्मा देहिनां विषयात्मनाम्।
गुणेषु तत्त्वध्यानेन सर्वारम्भविपर्ययम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
निष्काम होनेका उपाय यह है कि स्वधर्मोंका पालन करनेसे शुद्ध हुए अपने चित्तमें यह विचार करे कि जगत्के विषयी प्राणी शब्द, स्पर्श, रूप आदि विषयोंको सत्य समझकर उनकी प्राप्तिके लिये जो प्रयत्न करते हैं, उसमें उनका उद्देश्य तो यह होता है कि सुख मिले, परन्तु मिलता है दुःख॥ २॥
श्लोक-३
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुप्तस्य विषयालोको ध्यायतो वा मनोरथः।
नानात्मकत्वाद् विफलस्तथा भेदात्मधीर्गुणैः॥
मूलम्
सुप्तस्य विषयालोको ध्यायतो वा मनोरथः।
नानात्मकत्वाद् विफलस्तथा भेदात्मधीर्गुणैः॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसके सम्बन्धमें ऐसा विचार करना चाहिये कि स्वप्न-अवस्थामें और मनोरथ करते समय जाग्रत्-अवस्थामें भी मनुष्य मन-ही-मन अनेकों प्रकारके विषयोंका अनुभव करता है, परन्तु उसकी वह सारी कल्पना वस्तुशून्य होनेके कारण व्यर्थ है। वैसे ही इन्द्रियोंके द्वारा होनेवाली भेदबुद्धि भी व्यर्थ ही है, क्योंकि यह भी इन्द्रियजन्य और नाना वस्तुविषयक होनेके कारण पूर्ववत् असत्य ही है॥ ३॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
भेदार्थधीः भेदविषयधीः आत्मनि देहभेदारोपः विफलः नानात्मकत्वात् आत्मन्यविद्यमानः मनुष्यत्वादिगोचरत्वात् ॥ १-३ ॥
श्लोक-४
विश्वास-प्रस्तुतिः
निवृत्तं कर्म सेवेत प्रवृत्तं मत्परस्त्यजेत्।
जिज्ञासायां संप्रवृत्तो नाद्रियेत् कर्मचोदनाम्॥
मूलम्
निवृत्तं कर्म सेवेत प्रवृत्तं मत्परस्त्यजेत्।
जिज्ञासायां संप्रवृत्तो नाद्रियेत् कर्मचोदनाम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो पुरुष मेरी शरणमें है, उसे अन्तर्मुख करनेवाले निष्काम अथवा नित्यकर्म ही करने चाहिये। उन कर्मोंका बिलकुल परित्याग कर देना चाहिये जो बहिर्मुख बनानेवाले अथवा सकाम हों। जब आत्मज्ञानकी उत्कट इच्छा जाग उठे, तब तो कर्मसम्बन्धी विधि-विधानोंका भी आदर नहीं करना चाहिये॥ ४॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
कर्मचोदनां काम्यकर्म चोदनाम् ॥ ४-६ ॥
श्लोक-५
विश्वास-प्रस्तुतिः
यमानभीक्ष्णं सेवेत नियमान् मत्परः क्वचित्।
मदभिज्ञं गुरुं शान्तमुपासीत मदात्मकम्॥
मूलम्
यमानभीक्ष्णं सेवेत नियमान् मत्परः क्वचित्।
मदभिज्ञं गुरुं शान्तमुपासीत मदात्मकम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
अहिंसा आदि यमोंका तो आदरपूर्वक सेवन करना चाहिये, परन्तु शौच (पवित्रता) आदि नियमोंका पालन शक्तिके अनुसार और आत्मज्ञानके विरोधी न होनेपर ही करना चाहिये। जिज्ञासु पुरुषके लिये यम और नियमोंके पालनसे भी बढ़कर आवश्यक बात यह है कि वह अपने गुरुकी, जो मेरे स्वरूपको जाननेवाले और शान्त हों, मेरा ही स्वरूप समझकर सेवा करे॥ ५॥
श्लोक-६
विश्वास-प्रस्तुतिः
अमान्यमत्सरो दक्षो निर्ममो दृढसौहृदः।
असत्वरोऽर्थजिज्ञासुरनसूयुरमोघवाक्॥
मूलम्
अमान्यमत्सरो दक्षो निर्ममो दृढसौहृदः।
असत्वरोऽर्थजिज्ञासुरनसूयुरमोघवाक्॥
अनुवाद (हिन्दी)
शिष्यको अभिमान न करना चाहिये। वह कभी किसीसे डाह न करे—किसीका बुरा न सोचे। वह प्रत्येक कार्यमें कुशल हो—उसे आलस्य छू न जाय। उसे कहीं भी ममता न हो, गुरुके चरणोंमें दृढ़ अनुराग हो। कोई काम हड़बड़ाकर न करे—उसे सावधानीसे पूरा करे। सदा परमार्थके सम्बन्धमें ज्ञान प्राप्त करनेकी इच्छा बनाये रखे। किसीके गुणोंमें दोष न निकाले और व्यर्थकी बात न करे॥ ६॥
श्लोक-७
विश्वास-प्रस्तुतिः
जायापत्यगृहक्षेत्रस्वजनद्रविणादिषु।
उदासीनः समं पश्यन् सर्वेष्वर्थमिवात्मनः॥
मूलम्
जायापत्यगृहक्षेत्रस्वजनद्रविणादिषु।
उदासीनः समं पश्यन् सर्वेष्वर्थमिवात्मनः॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिज्ञासुका परम धन है आत्मा; इसलिये वह स्त्री-पुत्र, घर-खेत, स्वजन और धन आदि सम्पूर्ण पदार्थोंमें एक सम आत्माको देखे और किसीमें कुछ विशेषताका आरोप करके उससे ममता न करे, उदासीन रहे॥ ७॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
सर्वेषु जायापत्यादिषु उदासीनः सर्वेषु समं साधारणं पश्येत् ममैवेदमिति न जानीयात् आत्मनोऽर्थमिव स्वकीयतयाभिमतोऽर्थोऽहि पुत्रादिभिर्भुज्यते एवं पुत्रादयोऽपि न ममैवेति पश्येदित्यर्थः ॥ ७-८ ॥
श्लोक-८
विश्वास-प्रस्तुतिः
विलक्षणः स्थूलसूक्ष्माद् देहादात्मेक्षिता स्वदृक्।
यथाग्निर्दारुणो दाह्याद् दाहकोऽन्यः प्रकाशकः॥
मूलम्
विलक्षणः स्थूलसूक्ष्माद् देहादात्मेक्षिता स्वदृक्।
यथाग्निर्दारुणो दाह्याद् दाहकोऽन्यः प्रकाशकः॥
अनुवाद (हिन्दी)
उद्धव! जैसे जलनेवाली लकड़ीसे उसे जलाने और प्रकाशित करनेवाली आग सर्वथा अलग है। ठीक वैसे ही विचार करनेपर जान पड़ता है कि पञ्चभूतोंका बना स्थूलशरीर और मन-बुद्धि आदि सत्रह तत्त्वोंका बना सूक्ष्मशरीर दोनों ही दृश्य और जड हैं। तथा उनको जानने और प्रकाशित करनेवाला आत्मा साक्षी एवं स्वयंप्रकाश है। शरीर अनित्य, अनेक एवं जड हैं। आत्मा नित्य, एक एवं चेतन है। इस प्रकार देहकी अपेक्षा आत्मामें महान् विलक्षणता है। अतएव देहसे आत्मा भिन्न है॥ ८॥
श्लोक-९
विश्वास-प्रस्तुतिः
निरोधोत्पत्त्यणुबृहन्नानात्वं तत्कृतान् गुणान्।
अन्तःप्रविष्ट आधत्त एवं देहगुणान् परः॥
मूलम्
निरोधोत्पत्त्यणुबृहन्नानात्वं तत्कृतान् गुणान्।
अन्तःप्रविष्ट आधत्त एवं देहगुणान् परः॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब आग लकड़ीमें प्रज्वलित होती है, तब लकड़ीके उत्पत्ति-विनाश, बड़ाई-छोटाई और अनेकता आदि सभी गुण वह स्वयं ग्रहण कर लेती है। परन्तु सच पूछो, तो लकड़ीके उन गुणोंसे आगका कोई सम्बन्ध नहीं है। वैसे ही जब आत्मा अपनेको शरीर मान लेता है तब वह देहके जडता, अनित्यता, स्थूलता, अनेकता आदि गुणोंसे सर्वथा रहित होनेपर भी उनसे युक्त जान पड़ता है॥ ९॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
निरोधेति । दाह्यमनुप्रविष्टोऽग्निः उत्पत्तिं विनाशमणुत्वं बृहत्त्वमित्येवं रूपं नानात्वं तत्कृतान् गुणान् बहुलत्वविरलत्वादीन् आधत्ते आसमन्ताद्धत्ते एवं देहात्परो जीवोऽपि देहमनु प्रविष्टो देहगुणान् धत्त इत्यर्थः ॥ ९-१० ॥
श्लोक-१०
विश्वास-प्रस्तुतिः
योऽसौ गुणैर्विरचितो देहोऽयं पुरुषस्य हि।
संसारस्तन्निबन्धोऽयं पुंसो विद्याच्छिदात्मनः॥
मूलम्
योऽसौ गुणैर्विरचितो देहोऽयं पुरुषस्य हि।
संसारस्तन्निबन्धोऽयं पुंसो विद्याच्छिदात्मनः॥
अनुवाद (हिन्दी)
ईश्वरके द्वारा नियन्त्रित मायाके गुणोंने ही सूक्ष्म और स्थूलशरीरका निर्माण किया है। जीवको शरीर और शरीरको जीव समझ लेनेके कारण ही स्थूलशरीरके जन्म-मरण और सूक्ष्मशरीरके आवागमनका आत्मापर आरोप किया जाता है। जीवको जन्म-मृत्युरूप संसार इसी भ्रम अथवा अध्यासके कारण प्राप्त होता है। आत्माके स्वरूपका ज्ञान होनेपर उसकी जड़ कट जाती है॥ १०॥
श्लोक-११
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्माज्जिज्ञासयाऽऽत्मानमात्मस्थं केवलं परम्।
सङ्गम्य निरसेदेतद्वस्तुबुद्धिं यथाक्रमम्॥
मूलम्
तस्माज्जिज्ञासयाऽऽत्मानमात्मस्थं केवलं परम्।
सङ्गम्य निरसेदेतद्वस्तुबुद्धिं यथाक्रमम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्यारे उद्धव! इस जन्म-मृत्युरूप संसारका कोई दूसरा कारण नहीं, केवल अज्ञान ही मूल कारण है। इसलिये अपने वास्तविक स्वरूपको, आत्माको जाननेकी इच्छा करनी चाहिये। अपना यह वास्तविक स्वरूप समस्त प्रकृति और प्राकृत जगत्से अतीत, द्वैतकी गन्धसे रहित एवं अपने-आपमें ही स्थित है। उसका और कोई आधार नहीं है। उसे जानकर धीरे-धीरे स्थूलशरीर, सूक्ष्मशरीर आदिमें जो सत्यत्वबुद्धि हो रही है उसे क्रमशः मिटा देना चाहिये॥ ११॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
एतद्वस्तुबुद्धिं एतस्मिन्नुपादेयबुद्धिम् ॥ ११-१२ ॥
श्लोक-१२
विश्वास-प्रस्तुतिः
आचार्योऽरणिराद्यः स्यादन्तेवास्युत्तरारणिः।
तत्सन्धानं प्रवचनं विद्यासन्धिः सुखावहः॥
मूलम्
आचार्योऽरणिराद्यः स्यादन्तेवास्युत्तरारणिः।
तत्सन्धानं प्रवचनं विद्यासन्धिः सुखावहः॥
श्लोक-१३
विश्वास-प्रस्तुतिः
वैशारदी सातिविशुद्धबुद्धि-
र्धुनोति मायां गुणसम्प्रसूताम्।
गुणांश्च सन्दह्य यदात्ममेतत्
स्वयं च शाम्यत्यसमिद् यथाग्निः॥
मूलम्
वैशारदी सातिविशुद्धबुद्धि-
र्धुनोति मायां गुणसम्प्रसूताम्।
गुणांश्च सन्दह्य यदात्ममेतत्
स्वयं च शाम्यत्यसमिद् यथाग्निः॥
अनुवाद (हिन्दी)
(यज्ञमें जब अरणिमन्थन करके अग्नि उत्पन्न करते हैं, तो उसमें नीचे-ऊपर दो लकड़ियाँ रहती हैं और बीचमें मन्थनकाष्ठ रहता है; वैसे ही) विद्यारूप अग्निकी उत्पत्तिके लिये आचार्य और शिष्य तो नीचे-ऊपरकी अरणियाँ हैं तथा उपदेश मन्थनकाष्ठ है। इनसे जो ज्ञानाग्नि प्रज्वलित होती है वह विलक्षण सुख देनेवाली है। इस यज्ञमें बुद्धिमान् शिष्य सद्गुरुके द्वारा जो अत्यन्त विशुद्ध ज्ञान प्राप्त करता है, वह गुणोंसे बनी हुई विषयोंकी मायाको भस्म कर देता है। तत्पश्चात् वे गुण भी भस्म हो जाते हैं, जिनसे कि यह संसार बना हुआ है। इस प्रकार सबके भस्म हो जानेपर जब आत्माके अतिरिक्त और कोई वस्तु शेष नहीं रह जाती, तब वह ज्ञानाग्नि भी ठीक वैसे ही अपने वास्तविक स्वरूपमें शान्त हो जाती है, जैसे समिधा न रहनेपर आग बुझ जाती है*॥ १२-१३॥
पादटिप्पनी
- यहाँतक यह बात स्पष्ट हो गयी कि स्वयंप्रकाश ज्ञानस्वरूप नित्य एक ही आत्मा है। कर्तृत्व, भोक्तृत्व आदि धर्म देहके कारण हैं। आत्माके अतिरिक्त जो कुछ है, सब अनित्य और मायामय है; इसलिये आत्मज्ञान होते ही समस्त विपत्तियोंसे मुक्ति मिल जाती है।
श्रीसुदर्शनसूरिः
वैशारदी विशारदा एतच्छरीरं यदात्मकं यन्नियाम्यं स्वयं च शाम्यति उपासनारूपध्यानात्मिका प्रतीतिः मुक्तौ नास्तीत्यर्थः ॥ १३ ॥
श्लोक-१४
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथैषां कर्मकर्तॄणां भोक्तॄणां सुखदुःखयोः।
नानात्वमथ नित्यत्वं लोककालागमात्मनाम्॥
मूलम्
अथैषां कर्मकर्तॄणां भोक्तॄणां सुखदुःखयोः।
नानात्वमथ नित्यत्वं लोककालागमात्मनाम्॥
श्लोक-१५
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन्यसे सर्वभावानां संस्था ह्यौत्पत्तिकी यथा।
तत्तदाकृतिभेदेन जायते भिद्यते च धीः॥
मूलम्
मन्यसे सर्वभावानां संस्था ह्यौत्पत्तिकी यथा।
तत्तदाकृतिभेदेन जायते भिद्यते च धीः॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
सर्वभावानां देवमनुष्यादीनां लोककालागनात्मनां देशकालागमस्वभावानां नानात्वनित्यत्वयोः नित्यत्वं प्रतिक्षिपति | संस्थेति । संस्था विनाशः औत्पत्तिकी जन्मप्रयुक्ता यथा तदपि मन्यसे इत्यर्थः । अथ देवादिनानात्वस्य देहगतत्वमाह तत्तदा कृतीति । देवाद्याकारभेदेन जीवा जायन्ते देवोऽहं मनुष्योऽहमिति तत्तदाकाराभिमानिनी धीश्च भिद्यत इत्यर्थः ॥ १४-१५ ॥
श्लोक-१६
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमप्यङ्ग सर्वेषां देहिनां देहयोगतः।
कालावयवतः सन्ति भावा जन्मादयोऽसकृत्॥
मूलम्
एवमप्यङ्ग सर्वेषां देहिनां देहयोगतः।
कालावयवतः सन्ति भावा जन्मादयोऽसकृत्॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
तत्रैव कालकृतं भेदान्तरमाह । एवमपीति । तत्रापि देवानामाकारभेदे चेत्यर्थः ॥ १६-१८ ॥
श्लोक-१७
विश्वास-प्रस्तुतिः
अत्रापि कर्मणां कर्तुरस्वातन्त्र्यं च लक्ष्यते।
भोक्तुश्च दुःखसुखयोः को न्वर्थो विवशं भजेत्॥
मूलम्
अत्रापि कर्मणां कर्तुरस्वातन्त्र्यं च लक्ष्यते।
भोक्तुश्च दुःखसुखयोः को न्वर्थो विवशं भजेत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्यारे उद्धव! यदि तुम कदाचित् कर्मोंके कर्ता और सुख-दुखोंके भोक्ता जीवोंको अनेक तथा जगत् , काल, वेद और आत्माओंको नित्य मानते हो; साथ ही समस्त पदार्थोंकी स्थिति प्रवाहसे नित्य और यथार्थ स्वीकार करते हो तथा यह समझते हो कि घट-पट आदि बाह्य आकृतियोंके भेदसे उनके अनुसार ज्ञान ही उत्पन्न होता और बदलता रहता है; तो ऐसे मतके माननेसे बड़ा अनर्थ हो जायगा। (क्योंकि इस प्रकार जगत्के कर्ता आत्माकी नित्य सत्ता और जन्म-मृत्युके चक्करसे मुक्ति भी सिद्ध न हो सकेगी।) यदि कदाचित् ऐसा स्वीकार भी कर लिया जाय तो देह और संवत्सरादि कालावयवोंके सम्बन्धसे होनेवाली जीवोंकी जन्म-मरण आदि अवस्थाएँ भी नित्य होनेके कारण दूर न हो सकेंगी; क्योंकि तुम देहादि पदार्थ और कालकी नित्यता स्वीकार करते हो। इसके सिवा, यहाँ भी कर्मोंका कर्ता तथा सुख-दुःखका भोक्ता जीव परतन्त्र ही दिखायी देता है; यदि वह स्वतन्त्र हो तो दुःखका फल क्यों भोगना चाहेगा? इस प्रकार सुख-भोगकी समस्या सुलझ जानेपर भी दुःख-भोगकी समस्या तो उलझी ही रहेगी। अतः इस मतके अनुसार जीवको कभी मुक्ति या स्वतन्त्रता प्राप्त न हो सकेगी। जब जीव स्वरूपतः परतन्त्र है, विवश है, तब तो स्वार्थ या परमार्थ कोई भी उसका सेवन न करेगा। अर्थात् वह स्वार्थ और परमार्थ दोनोंसे ही वञ्चित रह जायगा॥ १४—१७॥
श्लोक-१८
विश्वास-प्रस्तुतिः
न देहिनां सुखं किञ्चिद् विद्यते विदुषामपि।
तथा च दुःखं मूढानां वृथाहङ्करणं परम्॥
मूलम्
न देहिनां सुखं किञ्चिद् विद्यते विदुषामपि।
तथा च दुःखं मूढानां वृथाहङ्करणं परम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
(यदि यह कहा जाय कि जो भलीभाँति कर्म करना जानते हैं, वे सुखी रहते हैं, और जो नहीं जानते उन्हें दुःख भोगना पड़ता है तो यह कहना भी ठीक नहीं; क्योंकि) ऐसा देखा जाता है कि बड़े-बड़े कर्मकुशल विद्वानोंको भी कुछ सुख नहीं मिलता और मूढ़ोंका भी कभी दुःखसे पाला नहीं पड़ता। इसलिये जो लोग अपनी बुद्धि या कर्मसे सुख पानेका घमंड करते हैं, उनका वह अभिमान व्यर्थ है॥ १८॥
श्लोक-१९
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदि प्राप्तिं विघातं च जानन्ति सुखदुःखयोः।
तेऽप्यद्धा न विदुर्योगं मृत्युर्न प्रभवेद् यथा॥
मूलम्
यदि प्राप्तिं विघातं च जानन्ति सुखदुःखयोः।
तेऽप्यद्धा न विदुर्योगं मृत्युर्न प्रभवेद् यथा॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि यह स्वीकार कर लिया जाय कि वे लोग सुखकी प्राप्ति और दुःखके नाशका ठीक-ठीक उपाय जानते हैं, तो भी यह तो मानना ही पड़ेगा कि उन्हें भी ऐसे उपायका पता नहीं है, जिससे मृत्यु उनके ऊपर कोई प्रभाव न डाल सके और वे कभी मरें ही नहीं॥ १९॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
तेऽपि कर्मपारतंत्र्यात् अस्वातन्त्र्यवेदिनोऽपि मोक्षोपायं न विदुः ॥ १९ ॥
श्लोक-२०
विश्वास-प्रस्तुतिः
को न्वर्थः सुखयत्येनं कामो वा मृत्युरन्तिके।
आघातं नीयमानस्य वध्यस्येव न तुष्टिदः॥
मूलम्
को न्वर्थः सुखयत्येनं कामो वा मृत्युरन्तिके।
आघातं नीयमानस्य वध्यस्येव न तुष्टिदः॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब मृत्यु उनके सिरपर नाच रही है तब ऐसी कौन-सी भोग-सामग्री या भोग-कामना है जो उन्हें सुखी कर सके? भला, जिस मनुष्यको फाँसीपर लटकानेके लिये वधस्थानपर ले जाया जा रहा है, उसे क्या फूल-चन्दन-स्त्री आदि पदार्थ सन्तुष्ट कर सकते हैं? कदापि नहीं। (अतः पूर्वोक्त मत माननेवालोंकी दृष्टिसे न सुख ही सिद्ध होगा और न जीवका कुछ पुरुषार्थ ही रहेगा)॥ २०॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
मृत्युरन्तिके यस्मात्कोऽन्वर्थः आघातं हिंसास्थानम् ॥ २० - २१ ॥
श्लोक-२१
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रुतं च दृष्टवद् दुष्टं स्पर्धासूयात्ययव्ययैः।
बह्वन्तरायकामत्वात् कृषिवच्चापि निष्फलम्॥
मूलम्
श्रुतं च दृष्टवद् दुष्टं स्पर्धासूयात्ययव्ययैः।
बह्वन्तरायकामत्वात् कृषिवच्चापि निष्फलम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्यारे उद्धव! लौकिक सुखके समान पारलौकिक सुख भी दोषयुक्त ही है; क्योंकि वहाँ भी बराबरीवालोंसे होड़ चलती है, अधिक सुख भोगनेवालोंके प्रति असूया होती है—उनके गुणोंमें दोष निकाला जाता है और छोटोंसे घृणा होती है। प्रतिदिन पुण्य क्षीण होनेके साथ ही वहाँके सुख भी क्षयके निकट पहुँचते रहते हैं और एक दिन नष्ट हो जाते हैं। वहाँकी कामना पूर्ण होनेमें भी यजमान, ऋत्विज् और कर्म आदिकी त्रुटियोंके कारण बड़े-बड़े विघ्नोंकी सम्भावना रहती है। जैसे हरी-भरी खेती भी अतिवृष्टि-अनावृष्टि आदिके कारण नष्ट हो जाती है, वैसे ही स्वर्ग भी प्राप्त होते-होते विघ्नोंके कारण नहीं मिल पाता॥ २१॥
श्लोक-२२
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्तरायैरविहतो यदि धर्मः स्वनुष्ठितः।
तेनापि निर्जितं स्थानं यथा गच्छति तच्छृणु॥
मूलम्
अन्तरायैरविहतो यदि धर्मः स्वनुष्ठितः।
तेनापि निर्जितं स्थानं यथा गच्छति तच्छृणु॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि यज्ञ-यागादि धर्म बिना किसी विघ्नके पूरा हो जाय तो उसके द्वारा जो स्वर्गादि लोक मिलते हैं, उनकी प्राप्तिका प्रकार मैं बतलाता हूँ, सुनो॥ २२॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
सोऽपि धर्मोऽपि निजार्जितकर्मानुष्ठानदशायां निरुद्धम् ॥ २२-२४ ॥
श्लोक-२३
विश्वास-प्रस्तुतिः
इष्ट्वेह देवता यज्ञैः स्वर्लोकं याति याज्ञिकः।
भुञ्जीत देववत्तत्र भोगान् दिव्यान् निजार्जितान्॥
मूलम्
इष्ट्वेह देवता यज्ञैः स्वर्लोकं याति याज्ञिकः।
भुञ्जीत देववत्तत्र भोगान् दिव्यान् निजार्जितान्॥
अनुवाद (हिन्दी)
यज्ञ करनेवाला पुरुष यज्ञोंके द्वारा देवताओंकी आराधना करके स्वर्गमें जाता है और वहाँ अपने पुण्यकर्मोंके द्वारा उपार्जित दिव्य भोगोंको देवताओंके समान भोगता है॥ २३॥
श्लोक-२४
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वपुण्योपचिते शुभ्रे विमान उपगीयते।
गन्धर्वैर्विहरन् मध्ये देवीनां हृद्यवेषधृक्॥
मूलम्
स्वपुण्योपचिते शुभ्रे विमान उपगीयते।
गन्धर्वैर्विहरन् मध्ये देवीनां हृद्यवेषधृक्॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसे उसके पुण्योंके अनुसार एक चमकीला विमान मिलता है और वह उसपर सवार होकर सुर-सुन्दरियोंके साथ विहार करता है। गन्धर्वगण उसके गुणोंका गान करते हैं और उसके रूप-लावण्यको देखकर दूसरोंका मन लुभा जाता है॥ २४॥
श्लोक-२५
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्त्रीभिः कामगयानेन किङ्किणीजालमालिना।
क्रीडन् न वेदात्मपातं सुराक्रीडेषु निर्वृतः॥
मूलम्
स्त्रीभिः कामगयानेन किङ्किणीजालमालिना।
क्रीडन् न वेदात्मपातं सुराक्रीडेषु निर्वृतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसका विमान वह जहाँ ले जाना चाहता है, वहीं चला जाता है और उसकी घंटियाँ घनघनाकर दिशाओंको गुंजारित करती हैं। वह अप्सराओंके साथ नन्दनवन आदि देवताओंकी विहार-स्थलियोंमें क्रीड़ाएँ करते-करते इतना बेसुध हो जाता है कि उसे इस बातका पता ही नहीं चलता कि अब मेरे पुण्य समाप्त हो जायँगे और मैं यहाँसे ढकेल दिया जाऊँगा॥ २५॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
सुराक्रीडेषु देवोद्यानेषु ॥ २५-२९ ॥
श्लोक-२६
विश्वास-प्रस्तुतिः
तावत् प्रमोदते स्वर्गे यावत् पुण्यं समाप्यते।
क्षीणपुण्यः पतत्यर्वागनिच्छन् कालचालितः॥
मूलम्
तावत् प्रमोदते स्वर्गे यावत् पुण्यं समाप्यते।
क्षीणपुण्यः पतत्यर्वागनिच्छन् कालचालितः॥
अनुवाद (हिन्दी)
जबतक उसके पुण्य शेष रहते हैं, तबतक वह स्वर्गमें चैनकी वंशी बजाता रहता है; परन्तु पुण्य क्षीण होते ही इच्छा न रहनेपर भी उसे नीचे गिरना पड़ता है, क्योंकि कालकी चाल ही ऐसी है॥ २६॥
श्लोक-२७
विश्वास-प्रस्तुतिः
यद्यधर्मरतः सङ्गादसतां वाजितेन्द्रियः।
कामात्मा कृपणो लुब्धः स्त्रैणो भूतविहिंसकः॥
मूलम्
यद्यधर्मरतः सङ्गादसतां वाजितेन्द्रियः।
कामात्मा कृपणो लुब्धः स्त्रैणो भूतविहिंसकः॥
श्लोक-२८
विश्वास-प्रस्तुतिः
पशूनविधिनाऽऽलभ्य प्रेतभूतगणान् यजन्।
नरकानवशो जन्तुर्गत्वा यात्युल्बणं तमः॥
मूलम्
पशूनविधिनाऽऽलभ्य प्रेतभूतगणान् यजन्।
नरकानवशो जन्तुर्गत्वा यात्युल्बणं तमः॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि कोई मनुष्य दुष्टोंकी संगतिमें पड़कर अधर्मपरायण हो जाय, अपनी इन्द्रियोंके वशमें होकर मनमानी करने लगे, लोभवश दाने-दानेमें कृपणता करने लगे, लम्पट हो जाय अथवा प्राणियोंको सताने लगे और विधि-विरुद्ध पशुओंकी बलि देकर भूत और प्रेतोंकी उपासनामें लग जाय, तब तो वह पशुओंसे भी गया-बीता हो जाता है और अवश्य ही नरकमें जाता है। उसे अन्तमें घोर अन्धकार, स्वार्थ और परमार्थसे रहित अज्ञानमें ही भटकना पड़ता है॥ २७-२८॥
श्लोक-२९
विश्वास-प्रस्तुतिः
कर्माणि दुःखोदर्काणि कुर्वन् देहेन तैः पुनः।
देहमाभजते तत्र किं सुखं मर्त्यधर्मिणः॥
मूलम्
कर्माणि दुःखोदर्काणि कुर्वन् देहेन तैः पुनः।
देहमाभजते तत्र किं सुखं मर्त्यधर्मिणः॥
अनुवाद (हिन्दी)
जितने भी सकाम और बहिर्मुख करनेवाले कर्म हैं, उनका फल दुःख ही है। जो जीव शरीरमें अहंता-ममता करके उन्हींमें लग जाता है, उसे बार-बार जन्म-पर-जन्म और मत्यु-पर-मृत्यु प्राप्त होती रहती है। ऐसी स्थितिमें मृत्युधर्मा जीवको क्या सुख हो सकता है?॥ २९॥
श्लोक-३०
विश्वास-प्रस्तुतिः
लोकानां लोकपालानां मद्भयं कल्पजीविनाम्।
ब्रह्मणोऽपि भयं मत्तो द्विपरार्धपरायुषः॥
मूलम्
लोकानां लोकपालानां मद्भयं कल्पजीविनाम्।
ब्रह्मणोऽपि भयं मत्तो द्विपरार्धपरायुषः॥
अनुवाद (हिन्दी)
सारे लोक और लोकपालोंकी आयु भी केवल एक कल्प है, इसलिये मुझसे भयभीत रहते हैं। औरोंकी तो बात ही क्या, स्वयं ब्रह्मा भी मुझसे भयभीत रहते हैं; क्योंकि उनकी आयु भी कालसे सीमित—केवल दो परार्द्ध है॥ ३०॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
मत् मत्तः अस्मात् ॥ ३०-३१ ॥
श्लोक-३१
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुणाः सृजन्ति कर्माणि गुणोऽनुसृजते गुणान्।
जीवस्तु गुणसंयुक्तो भुङ्क्ते कर्मफलान्यसौ॥
मूलम्
गुणाः सृजन्ति कर्माणि गुणोऽनुसृजते गुणान्।
जीवस्तु गुणसंयुक्तो भुङ्क्ते कर्मफलान्यसौ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सत्त्व, रज और तम—ये तीनों गुण इन्द्रियोंको उनके कर्मोंमें प्रेरित करते हैं और इन्द्रियाँ कर्म करती हैं। जीव अज्ञानवश सत्त्व, रज आदि गुणों और इन्द्रियोंको अपना स्वरूप मान बैठता है और उनके किये हुए कर्मोंका फल सुख-दुःख भोगने लगता है॥ ३१॥
श्लोक-३२
विश्वास-प्रस्तुतिः
यावत् स्याद् गुणवैषम्यं तावन्नानात्वमात्मनः।
नानात्वमात्मनो यावत् पारतन्त्र्यं तदैव हि॥
मूलम्
यावत् स्याद् गुणवैषम्यं तावन्नानात्वमात्मनः।
नानात्वमात्मनो यावत् पारतन्त्र्यं तदैव हि॥
अनुवाद (हिन्दी)
जबतक गुणोंकी विषमता है अर्थात् शरीरादिमें मैं और मेरेपनका अभिमान है; तभीतक आत्माके एकत्वकी अनुभूति नहीं होती—वह अनेक जान पड़ता है; और जबतक आत्माकी अनेकता है, तबतक तो उन्हें काल अथवा कर्म किसीके अधीन रहना ही पड़ेगा॥ ३२॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
आत्मनः नानात्वं देवमनुष्यादिरूप देहप्रयुक्तं नानात्वं पारतन्त्र्यं कर्मपारतन्त्र्यम् ॥ ३२ ॥
श्लोक-३३
विश्वास-प्रस्तुतिः
यावदस्यास्वतन्त्रत्वं तावदीश्वरतो भयम्।
य एतत् समुपासीरंस्ते मुह्यन्ति शुचार्पिताः॥
मूलम्
यावदस्यास्वतन्त्रत्वं तावदीश्वरतो भयम्।
य एतत् समुपासीरंस्ते मुह्यन्ति शुचार्पिताः॥
अनुवाद (हिन्दी)
जबतक परतन्त्रता है, तबतक ईश्वरसे भय बना ही रहता है। जो मैं और मेरेपनके भावसे ग्रस्त रहकर आत्माकी अनेकता, परतन्त्रता आदि मानते हैं और वैराग्य न ग्रहण करके बहिर्मुख करनेवाले कर्मोंका ही सेवन करते रहते हैं, उन्हें शोक और मोहकी प्राप्ति होती है॥ ३३॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
यावद्देहात्माभिमानं कर्मपारवश्यात् भवत्यस्वतन्त्रत्वं कर्मवश्यत्वं यावत्तावत्कर्मफलप्रदादीश्वराद्भयम् एतच्छरीरमुपासीरन् आत्मत्वेनानु संदधते ते मुह्यन्तीत्यर्थः ॥ ३३ ॥
श्लोक-३४
विश्वास-प्रस्तुतिः
काल आत्माऽऽगमो लोकः स्वभावो धर्म एव च।
इति मां बहुधा प्राहुर्गुणव्यतिकरे सति॥
मूलम्
काल आत्माऽऽगमो लोकः स्वभावो धर्म एव च।
इति मां बहुधा प्राहुर्गुणव्यतिकरे सति॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्यारे उद्धव! जब मायाके गुणोंमें क्षोभ होता है, तब मुझ आत्माको ही काल, जीव, वेद, लोक, स्वभाव और धर्म आदि अनेक नामोंसे निरूपण करने लगते हैं। (ये सब मायामय हैं। वास्तविक सत्य मैं आत्मा ही हूँ)॥ ३४॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
देशकालधर्माधर्मत उपात्तायां हि सुखदुःखभयादिहेयशङ्कायां भयादिहेतवः कालादयोऽपि तदधीना इत्याह । काल इति । आत्मा शरीरं पुण्यपापानुष्ठाता वा आगमः मार्गः स्वभावः क्षुरकण्टकविषाग्नि ‘चन्दनचन्द्रिकादिवस्तुस्वभावः गुणव्यतिकरे सृष्टिवेलायाम् ॥ ३४ ॥
श्लोक-३५
मूलम् (वचनम्)
उद्धव उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुणेषु वर्तमानोऽपि देहजेष्वनपावृतः।
गुणैर्न बद्ध्यते देही बद्ध्यते वा कथं विभो॥
मूलम्
गुणेषु वर्तमानोऽपि देहजेष्वनपावृतः।
गुणैर्न बद्ध्यते देही बद्ध्यते वा कथं विभो॥
अनुवाद (हिन्दी)
उद्धवजीने पूछा—भगवन्! यह जीव देह आदि रूप गुणोंमें ही रह रहा है। फिर देहसे होनेवाले कर्मों या सुख-दुःख आदि रूप फलोंमें क्यों नहीं बँधता है? अथवा यह आत्मा गुणोंसे निर्लिप्त है, देह आदिके सम्पर्कसे सर्वथा रहित है, फिर इसे बन्धनकी प्राप्ति कैसे होती है?॥ ३५॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
त्रिगुणमये शरीरे वर्त्तमानस्य बद्धस्य गुणातीतत्वमसम्भावितमिति चोदयति । गुणेषु वर्त्तमानोऽपीति ॥ ३५-३७ ॥
इति श्रीमद्भागवतव्याख्याने एकादशस्कन्धीये श्रीसुदर्शनसूरिकृतशुकपक्षीये दशमोऽध्यायः ॥ १० ॥
श्लोक-३६
विश्वास-प्रस्तुतिः
कथं वर्तेत विहरेत् कैर्वा ज्ञायेत लक्षणैः।
किं भुञ्जीतोत विसृजेच्छयीतासीत याति वा॥
मूलम्
कथं वर्तेत विहरेत् कैर्वा ज्ञायेत लक्षणैः।
किं भुञ्जीतोत विसृजेच्छयीतासीत याति वा॥
अनुवाद (हिन्दी)
बद्ध अथवा मुक्त पुरुष कैसा बर्ताव करता है, वह कैसे विहार करता है, या वह किन लक्षणोंसे पहचाना जाता है, कैसे भोजन करता है? और मल-त्याग आदि कैसे करता है? कैसे सोता है, कैसे बैठता है और कैसे चलता है?॥ ३६॥
श्लोक-३७
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतदच्युत मे ब्रूहि प्रश्नं प्रश्नविदां वर।
नित्यमुक्तो नित्यबद्ध एक एवेति मे भ्रमः॥
मूलम्
एतदच्युत मे ब्रूहि प्रश्नं प्रश्नविदां वर।
नित्यमुक्तो नित्यबद्ध एक एवेति मे भ्रमः॥
अनुवाद (हिन्दी)
अच्युत! प्रश्नका मर्म जाननेवालोंमें आप श्रेष्ठ हैं। इसलिये आप मेरे इस प्रश्नका उत्तर दीजिये—एक ही आत्मा अनादि गुणोंके संसर्गसे नित्यबद्ध भी मालूम पड़ता है और असंग होनेके कारण नित्यमुक्त भी। इस बातको लेकर मुझे भ्रम हो रहा है॥ ३७॥
अनुवाद (समाप्ति)
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायामेकादशस्कन्धे भगवदुद्धवसंवादे दशमोऽध्यायः॥ १०॥