०४

[चतुर्थोऽध्यायः]

भागसूचना

भगवान‍्के अवतारोंका वर्णन

श्लोक-१

मूलम् (वचनम्)

राजोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यानि यानीह कर्माणि यैर्यैः स्वच्छन्दजन्मभिः।
चक्रे करोति कर्ता वा हरिस्तानि ब्रुवन्तु नः॥

मूलम्

यानि यानीह कर्माणि यैर्यैः स्वच्छन्दजन्मभिः।
चक्रे करोति कर्ता वा हरिस्तानि ब्रुवन्तु नः॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा निमिने पूछा—योगीश्वरो! भगवान् स्वतन्त्रतासे अपने भक्तोंकी भक्तिके वश होकर अनेकों प्रकारके अवतार ग्रहण करते हैं और अनेकों लीलाएँ करते हैं। आपलोग कृपा करके भगवान‍्की उन लीलाओंका वर्णन कीजिये, जो वे अबतक कर चुके हैं, कर रहे हैं या करेंगे॥ १॥

श्लोक-२

मूलम् (वचनम्)

द्रुमिल उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यो वा अनन्तस्य गुणाननन्ता-
ननुक्रमिष्यन् स तु बालबुद्धिः।
रजांसि भूमेर्गणयेत् कथञ्चित्
कालेन नैवाखिलशक्तिधाम्नः॥

मूलम्

यो वा अनन्तस्य गुणाननन्ता-
ननुक्रमिष्यन् स तु बालबुद्धिः।
रजांसि भूमेर्गणयेत् कथञ्चित्
कालेन नैवाखिलशक्तिधाम्नः॥

अनुवाद (हिन्दी)

अब सातवें योगीश्वर द्रुमिलजीने कहा—राजन्! भगवान् अनन्त हैं। उनके गुण भी अनन्त हैं। जो यह सोचता है कि मैं उनके गुणोंको गिन लूँगा, वह मूर्ख है, बालक है। यह तो सम्भव है कि कोई किसी प्रकार पृथ्वीके धूलि-कणोंको गिन ले, परन्तु समस्त शक्तियोंके आश्रय भगवान‍्के अनन्त गुणोंका कोई कभी किसी प्रकार पार नहीं पा सकता॥ २॥

श्लोक-३

विश्वास-प्रस्तुतिः

भूतैर्यदा पञ्चभिरात्मसृष्टैः
पुरं विराजं विरचय्य तस्मिन्।
स्वांशेन विष्टः पुरुषाभिधान-
मवाप नारायण आदिदेवः॥

मूलम्

भूतैर्यदा पञ्चभिरात्मसृष्टैः
पुरं विराजं विरचय्य तस्मिन्।
स्वांशेन विष्टः पुरुषाभिधान-
मवाप नारायण आदिदेवः॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान‍्ने ही पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश—इन पाँच भूतोंकी अपने-आपसे अपने-आपमें सृष्टि की है। जब वे इनके द्वारा विराट् शरीर, ब्रह्माण्डका निर्माण करके उसमें लीलासे अपने अंश अन्तर्यामीरूपसे प्रवेश करते हैं, (भोक्तारूपसे नहीं, क्योंकि भोक्ता तो अपने पुण्योंके फलस्वरूप जीव ही होता है) तब उन आदिदेव नारायणको ‘पुरुष’ नामसे कहते हैं, यही उनका पहला अवतार है॥ ३॥

श्लोक-४

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत्काय एष भुवनत्रयसन्निवेशो
यस्येन्द्रियैस्तनुभृतामुभयेन्द्रियाणि।
ज्ञानं स्वतः श्वसनतो बलमोज ईहा
सत्त्वादिभिः स्थितिलयोद‍्भव आदिकर्ता॥

मूलम्

यत्काय एष भुवनत्रयसन्निवेशो
यस्येन्द्रियैस्तनुभृतामुभयेन्द्रियाणि।
ज्ञानं स्वतः श्वसनतो बलमोज ईहा
सत्त्वादिभिः स्थितिलयोद‍्भव आदिकर्ता॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्हींके इस विराट् ब्रह्माण्ड शरीरमें तीनों लोक स्थित हैं। उन्हींकी इन्द्रियोंसे समस्त देहधारियोंकी ज्ञानेन्द्रियाँ और कर्मेन्द्रियाँ बनी हैं। उनके स्वरूपसे ही स्वतःसिद्ध ज्ञानका संचार होता है। उनके श्वास-प्रश्वाससे सब शरीरोंमें बल आता है तथा इन्द्रियोंमें ओज (इन्द्रियोंकी शक्ति) और कर्म करनेकी शक्ति प्राप्त होती है। उन्हींके सत्त्व आदि गुणोंसे संसारकी स्थिति, उत्पत्ति और प्रलय होते हैं। इस विराट् शरीरके जो शरीरी हैं, वे ही आदिकर्ता नारायण हैं॥ ४॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

१-३ उभयेन्द्रियाणि यस्येन्द्रियैः इन्द्रियशब्दो गौणः इन्द्रियवत्परिकरभूतं शेषभूतमित्यर्थः । बलं धारणसामर्थ्यम् ओजः प्रवृत्तिसामर्थ्यम् ईहा चेष्टा ॥ ३-६ ॥

श्लोक-५

विश्वास-प्रस्तुतिः

आदावभूच्छतधृती रजसास्य सर्गे
विष्णुः स्थितौ क्रतुपतिर्द्विजधर्मसेतुः।
रुद्रोऽप्ययाय तमसा पुरुषः स आद्य
इत्युद‍्भवस्थितिलयाः सततं प्रजासु॥

मूलम्

आदावभूच्छतधृती रजसास्य सर्गे
विष्णुः स्थितौ क्रतुपतिर्द्विजधर्मसेतुः।
रुद्रोऽप्ययाय तमसा पुरुषः स आद्य
इत्युद‍्भवस्थितिलयाः सततं प्रजासु॥

अनुवाद (हिन्दी)

पहले-पहल जगत‍्की उत्पत्तिके लिये उनके रजोगुणके अंशसे ब्रह्मा हुए, फिर वे आदिपुरुष ही संसारकी स्थितिके लिये अपने सत्त्वांशसे धर्म तथा ब्राह्मणोंके रक्षक यज्ञपति विष्णु बन गये। फिर वे ही तमोगुणके अंशसे जगत‍्के संहारके लिये रुद्र बने। इस प्रकार निरन्तर उन्हींसे परिवर्तनशील प्रजाकी उत्पत्ति-स्थिति और संहार होते रहते हैं॥ ५॥

श्लोक-६

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्मस्य दक्षदुहितर्यजनिष्ट मूर्त्यां
नारायणो नर ऋषिप्रवरः प्रशान्तः।
नैष्कर्म्यलक्षणमुवाच चचार कर्म
योऽद्यापि चास्त ऋषिवर्यनिषेविताङ्घ्रिः॥

मूलम्

धर्मस्य दक्षदुहितर्यजनिष्ट मूर्त्यां
नारायणो नर ऋषिप्रवरः प्रशान्तः।
नैष्कर्म्यलक्षणमुवाच चचार कर्म
योऽद्यापि चास्त ऋषिवर्यनिषेविताङ्घ्रिः॥

अनुवाद (हिन्दी)

दक्ष प्रजापतिकी एक कन्याका नाम था मूर्ति। वह धर्मकी पत्नी थी। उसके गर्भसे भगवान‍्ने ऋषिश्रेष्ठ शान्तात्मा ‘नर’ और ‘नारायण’ के रूपमें अवतार लिया । उन्होंने आत्मतत्त्वका साक्षात्कार करानेवाले उस भगवदाराधनरूप कर्मका उपदेश किया, जो वास्तवमें कर्मबन्धनसे छुड़ानेवाला और नैष्कर्म्य स्थितिको प्राप्त करानेवाला है। उन्होंने स्वयं भी वैसे ही कर्मका अनुष्ठान किया। बड़े-बड़े ऋषि-मुनि उनके चरणकमलोंकी सेवा करते रहते हैं। वे आज भी बदरिकाश्रममें उसी कर्मका आचरण करते हुए विराजमान हैं॥ ६॥

श्लोक-७

विश्वास-प्रस्तुतिः

इन्द्रो विशङ्क्य मम धाम जिघृक्षतीति
कामं न्ययुङ्क्त सगणं स बदर्युपाख्यम्।
गत्वाप्सरोगणवसन्तसुमन्दवातैः
स्त्रीप्रेक्षणेषुभिरविध्यदतन्महिज्ञः॥

मूलम्

इन्द्रो विशङ्क्य मम धाम जिघृक्षतीति
कामं न्ययुङ्क्त सगणं स बदर्युपाख्यम्।
गत्वाप्सरोगणवसन्तसुमन्दवातैः
स्त्रीप्रेक्षणेषुभिरविध्यदतन्महिज्ञः॥

अनुवाद (हिन्दी)

ये अपनी घोर तपस्याके द्वारा मेरा धाम छीनना चाहते हैं—इन्द्रने ऐसी आशंका करके स्त्री, वसन्त आदि दल-बलके साथ कामदेवको उनकी तपस्यामें विघ्न डालनेके लिये भेजा। कामदेवको भगवान‍्की महिमाका ज्ञान न था; इसलिये वह अप्सरागण, वसन्त तथा मन्द-सुगन्ध वायुके साथ बदरिकाश्रममें जाकर स्त्रियोंके कटाक्ष बाणोंसे उन्हें घायल करनेकी चेष्टा करने लगा॥ ७॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

स कामः अतन्महिज्ञः तन्महिमानभिज्ञः ॥ ७-८ ॥

श्लोक-८

विश्वास-प्रस्तुतिः

विज्ञाय शक्रकृतमक्रममादिदेवः
प्राह प्रहस्य गतविस्मय एजमानान्।
मा भैष्ट भो मदन मारुत देववध्वो
गृह्णीत नो बलिमशून्यमिमं कुरुध्वम्॥

मूलम्

विज्ञाय शक्रकृतमक्रममादिदेवः
प्राह प्रहस्य गतविस्मय एजमानान्।
मा भैष्ट भो मदन मारुत देववध्वो
गृह्णीत नो बलिमशून्यमिमं कुरुध्वम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

आदिदेव नर-नारायणने यह जानकर कि यह इन्द्रका कुचक्र है, भयसे काँपते हुए काम आदिकोंसे हँसकर कहा—उस समय उनके मनमें किसी प्रकारका अभिमान या आश्चर्य नहीं था। ‘कामदेव, मलय-मारुत और देवांगनाओ! तुमलोग डरो मत; हमारा आतिथ्य स्वीकार करो। अभी यहीं ठहरो, हमारा आश्रम सूना मत करो’॥ ८॥

श्लोक-९

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्थं ब्रुवत्यभयदे नरदेव देवाः
सव्रीडनम्रशिरसः सघृणं तमूचुः।
नैतद् विभो त्वयि परेऽविकृते विचित्रं
स्वारामधीरनिकरानतपादपद्मे॥

मूलम्

इत्थं ब्रुवत्यभयदे नरदेव देवाः
सव्रीडनम्रशिरसः सघृणं तमूचुः।
नैतद् विभो त्वयि परेऽविकृते विचित्रं
स्वारामधीरनिकरानतपादपद्मे॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! जब नर-नारायण ऋषिने उन्हें अभयदान देते हुए इस प्रकार कहा, तब कामदेव आदिके सिर लज्जासे झुक गये। उन्होंने दयालु भगवान् नर-नारायणसे कहा—‘प्रभो! आपके लिये यह कोई आश्चर्यकी बात नहीं है। क्योंकि आप मायासे परे और निर्विकार हैं। बड़े-बड़े आत्माराम और धीर पुरुष निरन्तर आपके चरणकमलोंमें प्रणाम करते रहते हैं॥ ९॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

अविकृते विकाररहिते स्वारामधीराः आत्मारामा विद्वांसः ॥ ९ ॥

श्लोक-१०

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वां सेवतां सुरकृता बहवोऽन्तरायाः
स्वौको विलङ्‍घ्य परमं व्रजतां पदं ते।
नान्यस्य बर्हिषि बलीन् ददतः स्वभागान्
धत्ते पदं त्वमविता यदि विघ्नमूर्ध्नि॥

मूलम्

त्वां सेवतां सुरकृता बहवोऽन्तरायाः
स्वौको विलङ्‍घ्य परमं व्रजतां पदं ते।
नान्यस्य बर्हिषि बलीन् ददतः स्वभागान्
धत्ते पदं त्वमविता यदि विघ्नमूर्ध्नि॥

अनुवाद (हिन्दी)

आपके भक्त आपकी भक्तिके प्रभावसे देवताओंकी राजधानी अमरावतीका उल्लंघन करके आपके परम-पदको प्राप्त होते हैं। इसलिये जब वे भजन करने लगते हैं, तब देवतालोग तरह-तरहसे उनकी साधनामें विघ्न डालते हैं। किन्तु जो लोग केवल कर्मकाण्डमें लगे रहकर यज्ञादिके द्वारा देवताओंको बलिके रूपमें उनका भाग देते रहते हैं, उन लोगोंके मार्गमें वे किसी प्रकारका विघ्न नहीं डालते। परन्तु प्रभो! आपके भक्तजन उनके द्वारा उपस्थित की हुई विघ्न-बाधाओंसे गिरते नहीं। बल्कि आपके करकमलोंकी छत्रछायामें रहते हुए वे विघ्नोंके सिरपर पैर रखकर आगे बढ़ जाते हैं, अपने लक्ष्यसे च्युत नहीं होते॥ १०॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

स्वौकः स्वशब्दो देववाची स्वर्गं विलङ्घयेत्यर्थः ॥ १० ॥

श्लोक-११

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्षुत्तृट्त्रिकालगुणमारुतजैह्व्यशैश्न्या-
नस्मानपारजलधीनतितीर्य केचित्।
क्रोधस्य यान्ति विफलस्य वशं पदे गो-
र्मज्जन्ति दुश्चरतपश्च वृथोत्सृजन्ति॥

मूलम्

क्षुत्तृट्त्रिकालगुणमारुतजैह्व्यशैश्न्या-
नस्मानपारजलधीनतितीर्य केचित्।
क्रोधस्य यान्ति विफलस्य वशं पदे गो-
र्मज्जन्ति दुश्चरतपश्च वृथोत्सृजन्ति॥

अनुवाद (हिन्दी)

बहुत-से लोग तो ऐसे होते हैं जो भूख-प्यास, गर्मी-सर्दी एवं आँधी-पानीके कष्टोंको तथा रसनेन्द्रिय और जननेन्द्रियके वेगोंको, जो अपार समुद्रोंके समान हैं, सह लेते हैं—पार कर जाते हैं। परन्तु फिर भी वे उस क्रोधके वशमें हो जाते हैं, जो गायके खुरसे बने गड्ढेके समान है और जिससे कोई लाभ नहीं है—आत्मनाशक है। और प्रभो! वे इस प्रकार अपनी कठिन तपस्याको खो बैठते हैं॥ ११॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

अस्मानपारजलधीन् अस्मानेव जलधीन् इति पदे गोः गोष्पदे ॥ ११-१२ ॥

श्लोक-१२

विश्वास-प्रस्तुतिः

इति प्रगृणतां तेषां स्त्रियोऽत्यद‍्भुतदर्शनाः।
दर्शयामास शुश्रूषां स्वर्चिताः कुर्वतीर्विभुः॥

मूलम्

इति प्रगृणतां तेषां स्त्रियोऽत्यद‍्भुतदर्शनाः।
दर्शयामास शुश्रूषां स्वर्चिताः कुर्वतीर्विभुः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब कामदेव, वसन्त आदि देवताओंने इस प्रकार स्तुति की तब सर्वशक्तिमान् भगवान‍्ने अपने योगबलसे उनके सामने बहुत-सी ऐसी रमणियाँ प्रकट करके दिखलायीं, जो अद‍्भुत रूप-लावण्यसे सम्पन्न और विचित्र वस्त्रालंकारोंसे सुसज्जित थीं तथा भगवान‍्की सेवा कर रही थीं॥ १२॥

श्लोक-१३

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते देवानुचरा दृष्ट्वा स्त्रियः श्रीरिव रूपिणीः।
गन्धेन मुमुहुस्तासां रूपौदार्यहतश्रियः॥

मूलम्

ते देवानुचरा दृष्ट्वा स्त्रियः श्रीरिव रूपिणीः।
गन्धेन मुमुहुस्तासां रूपौदार्यहतश्रियः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब देवराज इन्द्रके अनुचरोंने उन लक्ष्मीजीके समान रूपवती स्त्रियोंको देखा, तब उनके महान् सौन्दर्यके सामने उनका चेहरा फीका पड़ गया, वे श्रीहीन होकर उनके शरीरसे निकलनेवाली दिव्य सुगन्धसे मोहित हो गये॥ १३॥

श्लोक-१४

विश्वास-प्रस्तुतिः

तानाह देवदेवेशः प्रणतान् प्रहसन्निव।
आसामेकतमां वृङ्ध्वं सवर्णां स्वर्गभूषणाम्॥

मूलम्

तानाह देवदेवेशः प्रणतान् प्रहसन्निव।
आसामेकतमां वृङ्ध्वं सवर्णां स्वर्गभूषणाम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

अब उनका सिर झुक गया। देवदेवेश भगवान् नारायण हँसते हुए-से उनसे बोले—‘तुमलोग इनमेंसे किसी एक स्त्रीको, जो तुम्हारे अनुरूप हो, ग्रहण कर लो। वह तुम्हारे स्वर्ग-लोककी शोभा बढ़ानेवाली होगी॥ १४॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

वृङ्ध्वं वृणीध्वम् ॥ १४-१६ ॥

श्लोक-१५

विश्वास-प्रस्तुतिः

ओमित्यादेशमादाय नत्वा तं सुरवन्दिनः।
उर्वशीमप्सरःश्रेष्ठां पुरस्कृत्य दिवं ययुः॥

मूलम्

ओमित्यादेशमादाय नत्वा तं सुरवन्दिनः।
उर्वशीमप्सरःश्रेष्ठां पुरस्कृत्य दिवं ययुः॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवराज इन्द्रके अनुचरोंने ‘जो आज्ञा’ कहकर भगवान‍्के आदेशको स्वीकार किया तथा उन्हें नमस्कार किया। फिर उनके द्वारा बनायी हुई स्त्रियोंमेंसे श्रेष्ठ अप्सरा उर्वशीको आगे करके वे स्वर्गलोकमें गये॥ १५॥

श्लोक-१६

विश्वास-प्रस्तुतिः

इन्द्रायानम्य सदसि शृण्वतां त्रिदिवौकसाम्।
ऊचुर्नारायणबलं शक्रस्तत्रास विस्मितः॥

मूलम्

इन्द्रायानम्य सदसि शृण्वतां त्रिदिवौकसाम्।
ऊचुर्नारायणबलं शक्रस्तत्रास विस्मितः॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ पहुँचकर उन्होंने इन्द्रको नमस्कार किया तथा भरी सभामें देवताओंके सामने भगवान् नर-नारायणके बल और प्रभावका वर्णन किया। उसे सुनकर देवराज इन्द्र अत्यन्त भयभीत और चकित हो गये॥ १६॥

श्लोक-१७

विश्वास-प्रस्तुतिः

हंसस्वरूप्यवददच्युत आत्मयोगं
दत्तः कुमार ऋषभो भगवान् पिता नः।
विष्णुः शिवाय जगतां कलयावतीर्ण-
स्तेनाहृता मधुभिदा श्रुतयो हयास्ये॥

मूलम्

हंसस्वरूप्यवददच्युत आत्मयोगं
दत्तः कुमार ऋषभो भगवान् पिता नः।
विष्णुः शिवाय जगतां कलयावतीर्ण-
स्तेनाहृता मधुभिदा श्रुतयो हयास्ये॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् विष्णुने अपने स्वरूपमें एकरस स्थित रहते हुए भी सम्पूर्ण जगत‍्के कल्याणके लिये बहुत-से कलावतार ग्रहण किये हैं। विदेहराज! हंस, दत्तात्रेय, सनक-सनन्दन-सनातन-सनत्कुमार और हमारे पिता ऋषभके रूपमें अवतीर्ण होकर उन्होंने आत्मसाक्षात्कारके साधनोंका उपदेश किया है। उन्होंने ही हयग्रीव-अवतार लेकर मधु-कैटभ नामक असुरोंका संहार करके उन लोगोंके द्वारा चुराये हुए वेदोंका उद्धार किया है॥ १७॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

दत्तः कुमारो दत्तात्रेयः अत्रापि भगवान् कलयावतीर्णः इत्यनुषङ्गः ॥ १७ ॥

श्लोक-१८

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुप्तोऽप्यये मनुरिलौषधयश्च मात्स्ये
क्रौडे हतो दितिज उद्धरताम्भसः क्ष्माम्।
कौर्मे धृतोऽद्रिरमृतोन्मथने स्वपृष्ठे
ग्राहात् प्रपन्नमिभराजममुञ्चदार्तम्॥

मूलम्

गुप्तोऽप्यये मनुरिलौषधयश्च मात्स्ये
क्रौडे हतो दितिज उद्धरताम्भसः क्ष्माम्।
कौर्मे धृतोऽद्रिरमृतोन्मथने स्वपृष्ठे
ग्राहात् प्रपन्नमिभराजममुञ्चदार्तम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रलयके समय मत्स्यावतार लेकर उन्होंने भावी मनु सत्यव्रत, पृथ्वी और ओषधियोंकी—धान्यादिकी रक्षा की और वराहावतार ग्रहण करके पृथ्वीका रसातलसे उद्धार करते समय हिरण्याक्षका संहार किया। कूर्मावतार ग्रहण करके उन्हीं भगवान‍्ने अमृत-मन्थनका कार्य सम्पन्न करनेके लिये अपनी पीठपर मन्दराचल धारण किया और उन्हीं भगवान् विष्णुने अपने शरणागत एवं आर्त भक्त गजेन्द्रको ग्राहसे छुड़ाया॥ १८॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

मात्स्ये अव्यये प्रलये इलां भूमितत्त्वम् अमुञ्चत् अमोचयत् ॥ १८ ॥

श्लोक-१९

विश्वास-प्रस्तुतिः

संस्तुन्वतोऽब्धिपतिताञ्छ्रमणानृषींश्च
शक्रं च वृत्रवधतस्तमसि प्रविष्टम्।
देवस्त्रियोऽसुरगृहे पिहिता अनाथा
जघ्नेऽसुरेन्द्रमभयाय सतां नृसिंहे॥

मूलम्

संस्तुन्वतोऽब्धिपतिताञ्छ्रमणानृषींश्च
शक्रं च वृत्रवधतस्तमसि प्रविष्टम्।
देवस्त्रियोऽसुरगृहे पिहिता अनाथा
जघ्नेऽसुरेन्द्रमभयाय सतां नृसिंहे॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक बार वालखिल्य ऋषि तपस्या करते-करते अत्यन्त दुर्बल हो गये थे। वे जब कश्यप ऋषिके लिये समिधा ला रहे थे तो थककर गायके खुरसे बने हुए गड्ढेमें गिर पड़े, मानो समुद्रमें गिर गये हों। उन्होंने जब स्तुति की, तब भगवान‍्ने अवतार लेकर उनका उद्धार किया। वृत्रासुरको मारनेके कारण जब इन्द्रको ब्रह्महत्या लगी और वे उसके भयसे भागकर छिप गये, तब भगवान‍्ने उस हत्यासे इन्द्रकी रक्षा की; और जब असुरोंने अनाथ देवांगनाओंको बंदी बना लिया, तब भी भगवान‍्ने ही उन्हें असुरोंके चंगुलसे छुड़ाया। जब हिरण्यकशिपुके कारण प्रह्लाद आदि संत पुरुषोंको भय पहुँचने लगा तब उनको निर्भय करनेके लिये भगवान‍्ने नृसिंहावतार ग्रहण किया और हिरण्यकशिपुको मार डाला॥ १९॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

पिहिता येनेत्यध्याहारः ॥ १९-२० ॥

श्लोक-२०

विश्वास-प्रस्तुतिः

देवासुरे युधि च दैत्यपतीन् सुरार्थे
हत्वान्तरेषु भुवनान्यदधात् कलाभिः।
भूत्वाथ वामन इमामहरद् बलेः क्ष्मां
याच्ञाच्छलेन समदाददितेः सुतेभ्यः॥

मूलम्

देवासुरे युधि च दैत्यपतीन् सुरार्थे
हत्वान्तरेषु भुवनान्यदधात् कलाभिः।
भूत्वाथ वामन इमामहरद् बलेः क्ष्मां
याच्ञाच्छलेन समदाददितेः सुतेभ्यः॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने देवताओंकी रक्षाके लिये देवासुर संग्राममें दैत्यपतियोंका वध किया और विभिन्न मन्वन्तरोंमें अपनी शक्तिसे अनेकों कलावतार धारण करके त्रिभुवनकी रक्षा की। फिर वामन-अवतार ग्रहण करके उन्होंने याचनाके बहाने इस पृथ्वीको दैत्यराज बलिसे छीन लिया और अदितिनन्दन देवताओंको दे दिया॥ २०॥

श्लोक-२१

विश्वास-प्रस्तुतिः

निःक्षत्रियामकृत गां च त्रिःसप्तकृत्वो
रामस्तु हैहयकुलाप्ययभार्गवाग्निः।
सोऽब्धिं बबन्ध दशवक्त्रमहन् सलङ्कं
सीतापतिर्जयति लोकमलघ्नकीर्तिः॥

मूलम्

निःक्षत्रियामकृत गां च त्रिःसप्तकृत्वो
रामस्तु हैहयकुलाप्ययभार्गवाग्निः।
सोऽब्धिं बबन्ध दशवक्त्रमहन् सलङ्कं
सीतापतिर्जयति लोकमलघ्नकीर्तिः॥

अनुवाद (हिन्दी)

परशुराम-अवतार ग्रहण करके उन्होंने ही पृथ्वीको इक्कीस बार क्षत्रियहीन किया। परशुरामजी तो हैहय-वंशका प्रलय करनेके लिये मानो भृगुवंशमें अग्नि रूपसे ही अवतीर्ण हुए थे। उन्हीं भगवान‍्ने रामावतारमें समुद्रपर पुल बाँधा एवं रावण और उसकी राजधानी लंकाको मटियामेट कर दिया। उनकी कीर्ति समस्त लोकोंके मलको नष्ट करनेवाली है। सीतापति भगवान् राम सदा-सर्वदा, सर्वत्र विजयी-ही-विजयी हैं॥ २१॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

हैहयेति । हैहयकुलाप्ययहेतुभूतो भार्गव इत्यर्थः ॥ २१-२३ ॥

इति श्रीमद्भागवतव्याख्याने एकादशस्कन्धीये श्रीसुदर्शनसूरिकृतशुकपक्षीये चतुर्थोऽध्यायः ॥

श्लोक-२२

विश्वास-प्रस्तुतिः

भूमेर्भरावतरणाय यदुष्वजन्मा
जातः करिष्यति सुरैरपि दुष्कराणि।
वादैर्विमोहयति यज्ञकृतोऽतदर्हान्
शूद्रान् कलौ क्षितिभुजो न्यहनिष्यदन्ते॥

मूलम्

भूमेर्भरावतरणाय यदुष्वजन्मा
जातः करिष्यति सुरैरपि दुष्कराणि।
वादैर्विमोहयति यज्ञकृतोऽतदर्हान्
शूद्रान् कलौ क्षितिभुजो न्यहनिष्यदन्ते॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! अजन्मा होनेपर भी पृथ्वीका भार उतारनेके लिये वे ही भगवान् यदुवंशमें जन्म लेंगे और ऐसे-ऐसे कर्म करेंगे, जिन्हें बड़े-बड़े देवता भी नहीं कर सकते। फिर आगे चलकर भगवान् ही बुद्धके रूपमें प्रकट होंगे और यज्ञके अनधिकारियोंको यज्ञ करते देखकर अनेक प्रकारके तर्क-वितर्कोंसे मोहित कर लेंगे और कलियुगके अन्तमें कल्किअवतार लेकर वे ही शूद्र राजाओंका वध करेंगे॥ २२॥

श्लोक-२३

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवंविधानि कर्माणि जन्मानि च जगत्पतेः।
भूरीणि भूरियशसो वर्णितानि महाभुज॥

मूलम्

एवंविधानि कर्माणि जन्मानि च जगत्पतेः।
भूरीणि भूरियशसो वर्णितानि महाभुज॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाबाहु विदेहराज! भगवान‍्की कीर्ति अनन्त है। महात्माओंने जगत्पति भगवान‍्के ऐसे-ऐसे अनेकों जन्म और कर्मोंका प्रचुरतासे गान भी किया है॥ २३॥

अनुवाद (समाप्ति)

इति श्रीमद‍्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायामेकादशस्कन्धे चतुर्थोऽध्यायः॥ ४॥