०२

[द्वितीयोऽध्यायः]

भागसूचना

वसुदेवजीके पास श्रीनारदजीका आना और उन्हें राजा जनक तथा नौ योगीश्वरोंका संवाद सुनाना

श्लोक-१

मूलम् (वचनम्)

श्रीशुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

गोविन्दभुजगुप्तायां द्वारवत्यां कुरूद्वह।
अवात्सीन्नारदोऽभीक्ष्णं कृष्णोपासनलालसः॥

मूलम्

गोविन्दभुजगुप्तायां द्वारवत्यां कुरूद्वह।
अवात्सीन्नारदोऽभीक्ष्णं कृष्णोपासनलालसः॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—कुरुनन्दन! देवर्षि नारदके मनमें भगवान् श्रीकृष्णकी सन्निधिमें रहनेकी बड़ी लालसा थी। इसलिये वे श्रीकृष्णके निज बाहुओंसे सुरक्षित द्वारकामें—जहाँ दक्ष आदिके शापका कोई भय नहीं था, विदा कर देनेपर भी पुनः-पुनः आकर प्रायः रहा ही करते थे॥ १॥

श्लोक-२

विश्वास-प्रस्तुतिः

को नु राजन्निन्द्रियवान् मुकुन्दचरणाम्बुजम्।
न भजेत् सर्वतोमृत्युरुपास्यममरोत्तमैः॥

मूलम्

को नु राजन्निन्द्रियवान् मुकुन्दचरणाम्बुजम्।
न भजेत् सर्वतोमृत्युरुपास्यममरोत्तमैः॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! ऐसा कौन प्राणी है, जिसे इन्द्रियाँ तो प्राप्त हों और वह भगवान‍्के ब्रह्मा आदि बड़े-बड़े देवताओंके भी उपास्य चरणकमलोंकी दिव्य गन्ध, मधुर मकरन्द-रस, अलौकिक रूपमाधुरी, सुकुमार स्पर्श और मंगलमय ध्वनिका सेवन करना न चाहे? क्योंकि यह बेचारा प्राणी सब ओरसे मृत्युसे ही घिरा हुआ है॥ २॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

इन्द्रियवान् चक्षुष्मान् ॥ २ - ३ ॥

श्लोक-३

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमेकदा तु देवर्षिं वसुदेवो गृहागतम्।
अर्चितं सुखमासीनमभिवाद्येदमब्रवीत्॥

मूलम्

तमेकदा तु देवर्षिं वसुदेवो गृहागतम्।
अर्चितं सुखमासीनमभिवाद्येदमब्रवीत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक दिनकी बात है, देवर्षि नारद वसुदेवजीके यहाँ पधारे। वसुदेवजीने उनका अभिवादन किया तथा आरामसे बैठ जानेपर विधिपूर्वक उनकी पूजा की और इसके बाद पुनः प्रणाम करके उनसे यह बात कही॥ ३॥

श्लोक-४

मूलम् (वचनम्)

वसुदेव उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

भगवन् भवतो यात्रा स्वस्तये सर्वदेहिनाम्।
कृपणानां यथा पित्रोरुत्तमश्लोकवर्त्मनाम्॥

मूलम्

भगवन् भवतो यात्रा स्वस्तये सर्वदेहिनाम्।
कृपणानां यथा पित्रोरुत्तमश्लोकवर्त्मनाम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

वसुदेवजीने कहा—संसारमें माता-पिताका आगमन पुत्रोंके लिये और भगवान‍्की ओर अग्रसर होनेवाले साधु-संतोंका पदार्पण प्रपंचमें उलझे हुए दीन-दुःखियोंके लिये बड़ा ही सुखकर और बड़ा ही मंगलमय होता है। परन्तु भगवन्! आप तो स्वयं भगवन्मय, भगवत्स्वरूप हैं। आपका चलना-फिरना तो समस्त प्राणियोंके कल्याणके लिये ही होता है॥ ४॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

उत्तमश्लोकवर्ष्मणः भगवच्छरीरभूतस्य तवागमनं पित्रोरागमनमिव कृपणानां देहिनां स्वस्तये भवति ॥ ४-५ ॥

श्लोक-५

विश्वास-प्रस्तुतिः

भूतानां देवचरितं दुःखाय च सुखाय च।
सुखायैव हि साधूनां त्वादृशामच्युतात्मनाम्॥

मूलम्

भूतानां देवचरितं दुःखाय च सुखाय च।
सुखायैव हि साधूनां त्वादृशामच्युतात्मनाम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवताओंके चरित्र भी कभी प्राणियोंके लिये दुःखके हेतु, तो कभी सुखके हेतु बन जाते हैं। परन्तु जो आप-जैसे भगवत्प्रेमी पुरुष हैं—जिनका हृदय, प्राण, जीवन, सब कुछ भगवन्मय हो गया है—उनकी तो प्रत्येक चेष्टा समस्त प्राणियोंके कल्याणके लिये ही होती है॥ ५॥

श्लोक-६

विश्वास-प्रस्तुतिः

भजन्ति ये यथा देवान् देवा अपि तथैव तान्।
छायेव कर्मसचिवाः साधवो दीनवत्सलाः॥

मूलम्

भजन्ति ये यथा देवान् देवा अपि तथैव तान्।
छायेव कर्मसचिवाः साधवो दीनवत्सलाः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो लोग देवताओंका जिस प्रकार भजन करते हैं, देवता भी परछाईंके समान ठीक उसी रीतिसे भजन करनेवालोंको फल देते हैं; क्योंकि देवता कर्मके मन्त्री हैं, अधीन हैं। परन्तु सत्पुरुष दीनवत्सल होते हैं अर्थात् जो सांसारिक सम्पत्ति एवं साधनसे भी हीन हैं, उन्हें अपनाते हैं॥ ६॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

छायेवेत्युपकारकत्वात्संश्रवणीयत्वं विवक्षितम् ॥ ६-८ ॥

श्लोक-७

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रह्मंस्तथापि पृच्छामो धर्मान् भागवतांस्तव।
याञ्छ्रुत्वा श्रद्धया मर्त्यो मुच्यते सर्वतोभयात्॥

मूलम्

ब्रह्मंस्तथापि पृच्छामो धर्मान् भागवतांस्तव।
याञ्छ्रुत्वा श्रद्धया मर्त्यो मुच्यते सर्वतोभयात्॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्मन्! (यद्यपि हम आपके शुभागमन और शुभ दर्शनसे ही कृतकृत्य हो गये हैं) तथापि आपसे उन धर्मोंके—साधनोंके सम्बन्धमें प्रश्न कर रहे हैं, जिनको मनुष्य श्रद्धासे सुन भर ले तो इस सब ओरसे भयदायक संसारसे मुक्त हो जाय॥ ७॥

श्लोक-८

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहं किल पुरानन्तं प्रजार्थो भुवि मुक्तिदम्।
अपूजयं न मोक्षाय मोहितो देवमायया॥

मूलम्

अहं किल पुरानन्तं प्रजार्थो भुवि मुक्तिदम्।
अपूजयं न मोक्षाय मोहितो देवमायया॥

अनुवाद (हिन्दी)

पहले जन्ममें मैंने मुक्ति देनेवाले भगवान‍्की आराधना तो की थी, परन्तु इसलिये नहीं कि मुझे मुक्ति मिले। मेरी आराधनाका उद्देश्य था कि वे मुझे पुत्ररूपमें प्राप्त हों। उस समय मैं भगवान‍्की लीलासे मुग्ध हो रहा था॥ ८॥

श्लोक-९

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा विचित्रव्यसनाद् भवद‍्भिर्विश्वतोभयात्।
मुच्येम ह्यञ्जसैवाद्धा तथा नः शाधि सुव्रत॥

मूलम्

यथा विचित्रव्यसनाद् भवद‍्भिर्विश्वतोभयात्।
मुच्येम ह्यञ्जसैवाद्धा तथा नः शाधि सुव्रत॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुव्रत! अब आप मुझे ऐसा उपदेश दीजिये जिससे मैं इस जन्म-मृत्युरूप भयावह संसारसे—जिसमें दुःख भी सुखका विचित्र और मोहक रूप धारण करके सामने आते हैं—अनायास ही पार हो जाऊँ॥ ९॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

अञ्जसा मुच्येम तथा नः अद्धा शाधि अञ्जसा शाधि ॥ ९-११ ॥

श्लोक-१०

मूलम् (वचनम्)

श्रीशुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

राजन्नेवं कृतप्रश्नो वसुदेवेन धीमता।
प्रीतस्तमाह देवर्षिर्हरेः संस्मारितो गुणैः॥

मूलम्

राजन्नेवं कृतप्रश्नो वसुदेवेन धीमता।
प्रीतस्तमाह देवर्षिर्हरेः संस्मारितो गुणैः॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—राजन्! बुद्धिमान् वसुदेवजीने भगवान‍्के स्वरूप और गुण आदिके श्रवणके अभिप्रायसे ही यह प्रश्न किया था। देवर्षि नारद उनका प्रश्न सुनकर भगवान‍्के अचिन्त्य अनन्त कल्याणमय गुणोंके स्मरणमें तन्मय हो गये और प्रेम एवं आनन्दमें भरकर वसुदेवजीसे बोले॥ १०॥

श्लोक-११

मूलम् (वचनम्)

नारद उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

सम्यगेतद् व्यवसितं भवता सात्वतर्षभ।
यत् पृच्छसे भागवतान् धर्मांस्त्वं विश्वभावनान्॥

मूलम्

सम्यगेतद् व्यवसितं भवता सात्वतर्षभ।
यत् पृच्छसे भागवतान् धर्मांस्त्वं विश्वभावनान्॥

अनुवाद (हिन्दी)

नारदजीने कहा—यदुवंशशिरोमणे! तुम्हारा यह निश्चय बहुत ही सुन्दर है; क्योंकि यह भागवत धर्मके सम्बन्धमें है, जो सारे विश्वको जीवन-दान देनेवाला है, पवित्र करनेवाला है॥ ११॥

श्लोक-१२

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रुतोऽनुपठितो ध्यात आदृतो वानुमोदितः।
सद्यः पुनाति सद्धर्मो देव विश्वद्रुहोऽपि हि॥

मूलम्

श्रुतोऽनुपठितो ध्यात आदृतो वानुमोदितः।
सद्यः पुनाति सद्धर्मो देव विश्वद्रुहोऽपि हि॥

अनुवाद (हिन्दी)

वसुदेवजी! यह भागवतधर्म एक ऐसी वस्तु है, जिसे कानोंसे सुनने, वाणीसे उच्चारण करने, चित्तसे स्मरण करने, हृदयसे स्वीकार करने या कोई इसका पालन करने जा रहा हो तो उसका अनुमोदन करनेसे ही मनुष्य उसी क्षण पवित्र हो जाता है—चाहे वह भगवान‍्का एवं सारे संसारका द्रोही ही क्यों न हो॥ १२॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

देवविश्वद्रुहोऽपि ॥ १२-१८ ॥

श्लोक-१३

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वया परमकल्याणः पुण्यश्रवणकीर्तनः।
स्मारितो भगवानद्य देवो नारायणो मम॥

मूलम्

त्वया परमकल्याणः पुण्यश्रवणकीर्तनः।
स्मारितो भगवानद्य देवो नारायणो मम॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिनके गुण, लीला और नाम आदिका श्रवण तथा कीर्तन पतितोंको भी पावन करनेवाला है, उन्हीं परम कल्याणस्वरूप मेरे आराध्यदेव भगवान् नारायणका तुमने आज मुझे स्मरण कराया है॥ १३॥

श्लोक-१४

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्।
आर्षभाणां च संवादं विदेहस्य महात्मनः॥

मूलम्

अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्।
आर्षभाणां च संवादं विदेहस्य महात्मनः॥

अनुवाद (हिन्दी)

वसुदेवजी! तुमने मुझसे जो प्रश्न किया है, इसके सम्बन्धमें संत पुरुष एक प्राचीन इतिहास कहा करते हैं। वह इतिहास है—ऋषभके पुत्र नौ योगीश्वरों और महात्मा विदेहका शुभ संवाद॥ १४॥

श्लोक-१५

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रियव्रतो नाम सुतो मनोः स्वायम्भुवस्य यः।
तस्याग्नीध्रस्ततो नाभिर्ऋषभस्तत्सुतः स्मृतः॥

मूलम्

प्रियव्रतो नाम सुतो मनोः स्वायम्भुवस्य यः।
तस्याग्नीध्रस्ततो नाभिर्ऋषभस्तत्सुतः स्मृतः॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुम जानते ही हो कि स्वायम्भुव मनुके एक प्रसिद्ध पुत्र थे प्रियव्रत। प्रियव्रतके आग्नीध्र, आग्नीध्रके नाभि और नाभिके पुत्र हुए ऋषभ॥ १५॥

श्लोक-१६

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमाहुर्वासुदेवांशं मोक्षधर्मविवक्षया।
अवतीर्णं सुतशतं तस्यासीद् ब्रह्मपारगम्॥

मूलम्

तमाहुर्वासुदेवांशं मोक्षधर्मविवक्षया।
अवतीर्णं सुतशतं तस्यासीद् ब्रह्मपारगम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

शास्त्रोंने उन्हें भगवान् वासुदेवका अंश कहा है। मोक्षधर्मका उपदेश करनेके लिये उन्होंने अवतार ग्रहण किया था। उनके सौ पुत्र थे और सब-के-सब वेदोंके पारदर्शी विद्वान् थे॥ १६॥

श्लोक-१७

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेषां वै भरतो ज्येष्ठो नारायणपरायणः।
विख्यातं वर्षमेतद् यन्नाम्ना भारतमद‍्भुतम्॥

मूलम्

तेषां वै भरतो ज्येष्ठो नारायणपरायणः।
विख्यातं वर्षमेतद् यन्नाम्ना भारतमद‍्भुतम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनमें सबसे बड़े थे राजर्षि भरत। वे भगवान् नारायणके परम प्रेमी भक्त थे। उन्हींके नामसे यह भूमिखण्ड, जो पहले ‘अजनाभवर्ष’ कहलाता था, ‘भारतवर्ष’ कहलाया। यह भारतवर्ष भी एक अलौकिक स्थान है॥ १७॥

श्लोक-१८

विश्वास-प्रस्तुतिः

स भुक्तभोगां त्यक्त्वेमां निर्गतस्तपसा हरिम्।
उपासीनस्तत्पदवीं लेभे वै जन्मभिस्त्रिभिः॥

मूलम्

स भुक्तभोगां त्यक्त्वेमां निर्गतस्तपसा हरिम्।
उपासीनस्तत्पदवीं लेभे वै जन्मभिस्त्रिभिः॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजर्षि भरतने सारी पृथ्वीका राज्य-भोग किया, परन्तु अन्तमें इसे छोड़कर वनमें चले गये। वहाँ उन्होंने तपस्याके द्वारा भगवान‍्की उपासना की और तीन जन्मोंमें वे भगवान‍्को प्राप्त हुए॥ १८॥

श्लोक-१९

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेषां नव नवद्वीपपतयोऽस्य समन्ततः।
कर्मतन्त्रप्रणेतार एकाशीतिर्द्विजातयः॥

मूलम्

तेषां नव नवद्वीपपतयोऽस्य समन्ततः।
कर्मतन्त्रप्रणेतार एकाशीतिर्द्विजातयः॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् ऋषभदेवजीके शेष निन्यानबे पुत्रोंमें नौ पुत्र तो इस भारतवर्षके सब ओर स्थित नौ द्वीपोंके अधिपति हुए और इक्यासी पुत्र कर्मकाण्डके रचयिता ब्राह्मण हो गये॥ १९॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

नव पुत्राः नवानां द्वीपानां पतयः ॥ १९-२१ ॥

श्लोक-२०

विश्वास-प्रस्तुतिः

नवाभवन् महाभागा मुनयो ह्यर्थशंसिनः।
श्रमणा वातरशना आत्मविद्याविशारदा॥

मूलम्

नवाभवन् महाभागा मुनयो ह्यर्थशंसिनः।
श्रमणा वातरशना आत्मविद्याविशारदा॥

श्लोक-२१

विश्वास-प्रस्तुतिः

कविर्हरिरन्तरिक्षः प्रबुद्धः पिप्पलायनः।
आविर्होत्रोऽथ द्रुमिलश्चमसः करभाजनः॥

मूलम्

कविर्हरिरन्तरिक्षः प्रबुद्धः पिप्पलायनः।
आविर्होत्रोऽथ द्रुमिलश्चमसः करभाजनः॥

अनुवाद (हिन्दी)

शेष नौ संन्यासी हो गये। वे बड़े ही भाग्यवान् थे। उन्होंने आत्मविद्याके सम्पादनमें बड़ा परिश्रम किया था और वास्तवमें वे उसमें बड़े निपुण थे। वे प्रायः दिगम्बर ही रहते थे और अधिकारियोंको परमार्थ-वस्तुका उपदेश किया करते थे। उनके नाम थे—कवि, हरि, अन्तरिक्ष, प्रबुद्ध, पिप्पलायन, आविर्होत्र, द्रुमिल, चमस और करभाजन॥ २०-२१॥

श्लोक-२२

विश्वास-प्रस्तुतिः

त एते भगवद्रूपं विश्वं सदसदात्मकम्।
आत्मनोऽव्यतिरेकेण पश्यन्तो व्यचरन् महीम्॥

मूलम्

त एते भगवद्रूपं विश्वं सदसदात्मकम्।
आत्मनोऽव्यतिरेकेण पश्यन्तो व्यचरन् महीम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे इस कार्य-कारण और व्यक्त-अव्यक्त भगवद्रूप जगत‍्को अपने आत्मासे अभिन्न अनुभव करते हुए पृथ्वीपर स्वच्छन्द विचरण करते थे॥ २२॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

सदसदात्मकम् आत्मनः परमात्मनः अव्यतिरेकेण शरीरतया नित्यसम्बन्धत्वेन ॥ २२-२६ ॥

श्लोक-२३

विश्वास-प्रस्तुतिः

अव्याहतेष्टगतयः सुरसिद्धसाध्य-
गन्धर्वयक्षनरकिन्नरनागलोकान्।
मुक्ताश्चरन्ति मुनिचारणभूतनाथ-
विद्याधरद्विजगवां भुवनानि कामम्॥

मूलम्

अव्याहतेष्टगतयः सुरसिद्धसाध्य-
गन्धर्वयक्षनरकिन्नरनागलोकान्।
मुक्ताश्चरन्ति मुनिचारणभूतनाथ-
विद्याधरद्विजगवां भुवनानि कामम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनके लिये कहीं भी रोक-टोक न थी। वे जहाँ चाहते, चले जाते। देवता, सिद्ध, साध्य-गन्धर्व, यक्ष, मनुष्य, किन्नर और नागोंके लोकोंमें तथा मुनि, चारण, भूतनाथ, विद्याधर, ब्राह्मण और गौओंके स्थानोंमें वे स्वछन्द विचरते थे। वसुदेवजी! वे सब-के-सब जीवन्मुक्त थे॥ २३॥

श्लोक-२४

विश्वास-प्रस्तुतिः

त एकदा निमेः सत्रमुपजग्मुर्यदृच्छया।
वितायमानमृषिभिरजनाभे महात्मनः॥

मूलम्

त एकदा निमेः सत्रमुपजग्मुर्यदृच्छया।
वितायमानमृषिभिरजनाभे महात्मनः॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक बारकी बात है, इस अजनाभ (भारत) वर्षमें विदेहराज महात्मा निमि बड़े-बड़े ऋषियोंके द्वारा एक महान् यज्ञ करा रहे थे। पूर्वोक्त नौ योगीश्वर स्वच्छन्द विचरण करते हुए उनके यज्ञमें जा पहुँचे॥ २४॥

श्लोक-२५

विश्वास-प्रस्तुतिः

तान् दृष्ट्वा सूर्यसंकाशान् महाभागवतान् नृपः।
यजमानोऽग्नयो विप्राः सर्व एवोपतस्थिरे॥

मूलम्

तान् दृष्ट्वा सूर्यसंकाशान् महाभागवतान् नृपः।
यजमानोऽग्नयो विप्राः सर्व एवोपतस्थिरे॥

अनुवाद (हिन्दी)

वसुदेवजी! वे योगीश्वर भगवान‍्के परम प्रेमी भक्त और सूर्यके समान तेजस्वी थे। उन्हें देखकर राजा निमि, आहवनीय आदि मूर्तिमान् अग्नि और ऋत्विज् आदि ब्राह्मण सब-के-सब उनके स्वागतमें खड़े हो गये॥ २५॥

श्लोक-२६

विश्वास-प्रस्तुतिः

विदेहस्तानभिप्रेत्य नारायणपरायणान्।
प्रीतः सम्पूजयाञ्चक्रे आसनस्थान् यथार्हतः॥

मूलम्

विदेहस्तानभिप्रेत्य नारायणपरायणान्।
प्रीतः सम्पूजयाञ्चक्रे आसनस्थान् यथार्हतः॥

अनुवाद (हिन्दी)

विदेहराज निमिने उन्हें भगवान‍्के परम प्रेमी भक्त जानकर यथायोग्य आसनोंपर बैठाया और प्रेम तथा आनन्दसे भरकर विधिपूर्वक उनकी पूजा की॥ २६॥

श्लोक-२७

विश्वास-प्रस्तुतिः

तान् रोचमानान् स्वरुचा ब्रह्मपुत्रोपमान् नव।
पप्रच्छ परमप्रीतः प्रश्रयावनतो नृपः॥

मूलम्

तान् रोचमानान् स्वरुचा ब्रह्मपुत्रोपमान् नव।
पप्रच्छ परमप्रीतः प्रश्रयावनतो नृपः॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे नवों योगीश्वर अपने अंगोंकी कान्तिसे इस प्रकार चमक रहे थे, मानो साक्षात् ब्रह्माजीके पुत्र सनकादि मुनीश्वर ही हों। राजा निमिने विनयसे झुककर परम प्रेमके साथ उनसे प्रश्न किया॥ २७॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

ब्रह्मपुत्रोपमान् भृग्वादितुल्यान् ॥ २७ ॥

श्लोक-२८

मूलम् (वचनम्)

विदेह उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

मन्ये भगवतः साक्षात् पार्षदान् वो मधुद्विषः।
विष्णोर्भूतानि लोकानां पावनाय चरन्ति हि॥

मूलम्

मन्ये भगवतः साक्षात् पार्षदान् वो मधुद्विषः।
विष्णोर्भूतानि लोकानां पावनाय चरन्ति हि॥

अनुवाद (हिन्दी)

विदेहराज निमिने कहा—भगवन्! मैं ऐसा समझता हूँ कि आपलोग मधुसूदन भगवान‍्के पार्षद ही हैं, क्योंकि भगवान‍्के पार्षद संसारी प्राणियोंको पवित्र करनेके लिये विचरण किया करते हैं॥ २८॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

पार्षदान् पार्षदतुल्यान् ॥ २८-२९ ।।

श्लोक-२९

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुर्लभो मानुषो देहो देहिनां क्षणभङ्गुरः।
तत्रापि दुर्लभं मन्ये वैकुण्ठप्रियदर्शनम्॥

मूलम्

दुर्लभो मानुषो देहो देहिनां क्षणभङ्गुरः।
तत्रापि दुर्लभं मन्ये वैकुण्ठप्रियदर्शनम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

जीवोंके लिये मनुष्य-शरीरका प्राप्त होना दुर्लभ है। यदि यह प्राप्त भी हो जाता है तो प्रतिक्षण मृत्युका भय सिरपर सवार रहता है, क्योंकि यह क्षणभंगुर है। इसलिये अनिश्चित मनुष्य-जीवनमें भगवान‍्के प्यारे और उनको प्यार करनेवाले भक्तजनोंका, संतोंका दर्शन तो और भी दुर्लभ है॥ २९॥

श्लोक-३०

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत आत्यन्तिकं क्षेमं पृच्छामो भवतोऽनघाः।
संसारेऽस्मिन् क्षणार्धोऽपि सत्सङ्गः शेवधिर्नृणाम्॥

मूलम्

अत आत्यन्तिकं क्षेमं पृच्छामो भवतोऽनघाः।
संसारेऽस्मिन् क्षणार्धोऽपि सत्सङ्गः शेवधिर्नृणाम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसलिये त्रिलोकपावन महात्माओ! हम आपलोगोंसे यह प्रश्न करते हैं कि परम कल्याणका स्वरूप क्या है? और उसका साधन क्या है? इस संसारमें आधे क्षणका सत्संग भी मनुष्योंके लिये परम निधि है॥ ३०॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

शेवधिः अपरिमितपुरुषार्थावहः ॥ ३० ॥

श्लोक-३१

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्मान् भागवतान् ब्रूत यदि नः श्रुतये क्षमम्।
यैः प्रसन्नः प्रपन्नाय दास्यत्यात्मानमप्यजः॥

मूलम्

धर्मान् भागवतान् ब्रूत यदि नः श्रुतये क्षमम्।
यैः प्रसन्नः प्रपन्नाय दास्यत्यात्मानमप्यजः॥

अनुवाद (हिन्दी)

योगीश्वरो! यदि हम सुननेके अधिकारी हों तो आप कृपा करके भागवत-धर्मोंका उपदेश कीजिये; क्योंकि उनसे जन्मादि विकारसे रहित, एकरस भगवान् श्रीकृष्ण प्रसन्न होते हैं और उन धर्मोंका पालन करनेवाले शरणागत भक्तोंको अपने-आपतकका दान कर डालते हैं॥ ३१॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

यैः प्रसन्न इति भवदुपदेशः भगवत्प्रसादचिह्नमित्यर्थः ॥ ३१-३२ ॥

श्लोक-३२

मूलम् (वचनम्)

श्रीनारद उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं ते निमिना पृष्टा वसुदेव महत्तमाः।
प्रतिपूज्याब्रुवन् प्रीत्या ससदस्यर्त्विजं नृपम्॥

मूलम्

एवं ते निमिना पृष्टा वसुदेव महत्तमाः।
प्रतिपूज्याब्रुवन् प्रीत्या ससदस्यर्त्विजं नृपम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवर्षि नारदजीने कहा—वसुदेवजी! जब राजा निमिने उन भगवत्प्रेमी संतोंसे यह प्रश्न किया, तब उन लोगोंने बड़े प्रेमसे उनका और उनके प्रश्नका सम्मान किया और सदस्य तथा ऋत्विजोंके साथ बैठे हुए राजा निमिसे बोले॥ ३२॥

श्लोक-३३

मूलम् (वचनम्)

कविरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

मन्येऽकुतश्चिद‍्भयमच्युतस्य
पादाम्बुजोपासनमत्र नित्यम्।
उद्विग्नबुद्धेरसदात्मभावाद्
विश्वात्मना यत्र निवर्तते भीः॥

मूलम्

मन्येऽकुतश्चिद‍्भयमच्युतस्य
पादाम्बुजोपासनमत्र नित्यम्।
उद्विग्नबुद्धेरसदात्मभावाद्
विश्वात्मना यत्र निवर्तते भीः॥

अनुवाद (हिन्दी)

पहले उन नौ योगीश्वरोंमेंसे कविजीने कहा—राजन्! भक्तजनोंके हृदयसे कभी दूर न होनेवाले अच्युत भगवान‍्के चरणोंकी नित्य-निरन्तर उपासना ही इस संसारमें परम कल्याण—आत्यन्तिक क्षेम है और सर्वथा भयशून्य है, ऐसा मेरा निश्चित मत है। देह, गेह आदि तुच्छ एवं असत् पदार्थोंमें अहंता एवं ममता हो जानेके कारण जिन लोगोंकी चित्तवृत्ति उद्विग्न हो रही है, उनका भय भी इस उपासनाका अनुष्ठान करनेपर पूर्णतया निवृत्त हो जाता है॥ ३३॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

असदात्मभावात् असद्द ेहः देहात्माभिमानात् उद्विग्नबुद्धेः अच्युतपादाम्भोजोपासनमकुतश्चित् भयं मन्ये सर्वभयनिवारकं मन्ये यत्र उपासने कृते विश्वात्मना सर्वप्रकारेण भयं निवर्त्तते ॥ ३३ ॥

श्लोक-३४

विश्वास-प्रस्तुतिः

ये वै भगवता प्रोक्ता उपाया ह्यात्मलब्धये।
अञ्जः पुंसामविदुषां विद्धि भागवतान् हि तान्॥

मूलम्

ये वै भगवता प्रोक्ता उपाया ह्यात्मलब्धये।
अञ्जः पुंसामविदुषां विद्धि भागवतान् हि तान्॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान‍्ने भोले-भाले अज्ञानी पुरुषोंको भी सुगमतासे साक्षात् अपनी प्राप्तिके लिये जो उपाय स्वयं श्रीमुखसे बतलाये हैं, उन्हें ही ‘भागवत धर्म’ समझो॥ ३४॥

श्लोक-३५

विश्वास-प्रस्तुतिः

यानास्थाय नरो राजन् न प्रमाद्येत कर्हिचित्।
धावन् निमील्य वा नेत्रे न स्खलेन्न पतेदिह॥

मूलम्

यानास्थाय नरो राजन् न प्रमाद्येत कर्हिचित्।
धावन् निमील्य वा नेत्रे न स्खलेन्न पतेदिह॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! इन भागवतधर्मोंका अवलम्बन करके मनुष्य कभी विघ्नोंसे पीड़ित नहीं होता और नेत्र बंद करके दौड़नेपर भी अर्थात् विधि-विधानमें त्रुटि हो जानेपर भी न तो मार्गसे स्खलित ही होता है और न तो पतित—फलसे वञ्चित ही होता है॥ ३५॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

न प्रमाद्येत भगवद्धर्मनिष्ठानां न प्रमादोऽस्तीत्यर्थः । धावन्निमील्य नयने इति सर्वदा भगवानेव रक्षक इति तात्पर्य: ॥ ३४-३५ ॥

श्लोक-३६

विश्वास-प्रस्तुतिः

कायेन वाचा मनसेन्द्रियैर्वा
बुद्ध्याऽऽत्मना वानुसृतस्वभावात्।
करोति यद् यत् सकलं परस्मै
नारायणायेति समर्पयेत्तत्॥

मूलम्

कायेन वाचा मनसेन्द्रियैर्वा
बुद्ध्याऽऽत्मना वानुसृतस्वभावात्।
करोति यद् यत् सकलं परस्मै
नारायणायेति समर्पयेत्तत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

(भागवतधर्मका पालन करनेवालेके लिये यह नियम नहीं है कि वह एक विशेष प्रकारका कर्म ही करे।) वह शरीरसे, वाणीसे, मनसे, इन्द्रियोंसे, बुद्धिसे, अहंकारसे, अनेक जन्मों अथवा एक जन्मकी आदतोंसे स्वभाववश जो-जो करे, वह सब परमपुरुष भगवान् नारायणके लिये ही है—इस भावसे उन्हें समर्पण कर दे। (यही सरल-से-सरल, सीधा-सा भागवतधर्म है)॥ ३६॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

अनुसृतस्वभावः अनुभूत संसारवासनः यद्यत्करोतीति शास्त्रविरुद्धं लौकिकं च यद्यत्करोतीत्यर्थः ॥ ३६ ॥

श्लोक-३७

विश्वास-प्रस्तुतिः

भयं द्वितीयाभिनिवेशतः स्या-
दीशादपेतस्य विपर्ययोऽस्मृतिः।
तन्माययातो बुध आभजेत्तं
भक्त्यैकयेशं गुरुदेवतात्मा॥

मूलम्

भयं द्वितीयाभिनिवेशतः स्या-
दीशादपेतस्य विपर्ययोऽस्मृतिः।
तन्माययातो बुध आभजेत्तं
भक्त्यैकयेशं गुरुदेवतात्मा॥

अनुवाद (हिन्दी)

ईश्वरसे विमुख पुरुषको उनकी मायासे अपने स्वरूपकी विस्मृति हो जाती है और इस विस्मृतिसे ही ‘मैं देवता हूँ, मैं मनुष्य हूँ,’ इस प्रकारका भ्रम—विपर्यय हो जाता है। इस देह आदि अन्य वस्तुमें अभिनिवेश, तन्मयता होनेके कारण ही बुढ़ापा, मृत्यु, रोग आदि अनेकों भय होते हैं। इसलिये अपने गुरुको ही आराध्यदेव परम प्रियतम मानकर अनन्य भक्तिके द्वारा उस ईश्वरका भजन करना चाहिये॥ ३७॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

भयं द्वितीयेति । द्वितीयाभिनिवेशत अब्रह्मात्मक स्वतन्त्राभिनिवेशतः लोके सद्वितीयव्यवहारो हि स्वरसतः शरीरव्यतिरिक्तद्वितीयपरः यथा देवदत्तः सद्वितीय आगत इत्युक्तेः शरीरमन्तरेण सद्वितीयत्वमुक्तं स्यान्न तु स्वशरीरेण " यस्यात्मा शरीरम्” इति श्रुतिश्च जीवानां परमात्मशरीरव्यतिरिक्तस्वतन्त्राभिमान उक्तः अत एव ईशादपेतस्य भगवद्विमुखस्य विपर्ययस्स्मृतिः विपर्ययः देहात्माभिमानः तद्विषयस्मृतिः तन्मायया भगवदधीनया प्रकृत्या देहात्मभ्रान्तिर ब्रह्मात्मक स्वतन्त्रात्मभ्रातिश्चेत्युभयविधापि भ्रान्तिः भगवन्मायायत्ता तस्मात्तन्निवृत्तये भगवन्तं भजेदित्यर्थः । गुरुदेवतात्मा गुरुरेव देवतेति बुद्धिर्यस्य सः ॥ ३७ ॥

श्लोक-३८

विश्वास-प्रस्तुतिः

अविद्यमानोऽप्यवभाति हि द्वयो-
र्ध्यातुर्धिया स्वप्नमनोरथौ यथा।
तत् कर्मसङ्कल्पविकल्पकं मनो
बुधो निरुन्ध्यादभयं ततः स्यात्॥

मूलम्

अविद्यमानोऽप्यवभाति हि द्वयो-
र्ध्यातुर्धिया स्वप्नमनोरथौ यथा।
तत् कर्मसङ्कल्पविकल्पकं मनो
बुधो निरुन्ध्यादभयं ततः स्यात्॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! सच पूछो तो भगवान‍्के अतिरिक्त, आत्माके अतिरिक्त और कोई वस्तु है ही नहीं। परन्तु न होनेपर भी इसकी प्रतीति इसका चिन्तन करनेवालेको उसके चिन्तनके कारण, उधर मन लगनेके कारण ही होती है—जैसे स्वप्नके समय स्वप्नद्रष्टाकी कल्पनासे अथवा जाग्रत् अवस्थामें नाना प्रकारके मनोरथोंसे एक विलक्षण ही सृष्टि दीखने लगती है। इसलिये विचारवान् पुरुषको चाहिये कि सांसारिक कर्मोंके सम्बन्धमें संकल्प-विकल्प करनेवाले मनको रोक दे—कैद कर ले। बस, ऐसा करते ही उसे अभय पदकी, परमात्माकी प्राप्ति हो जायगी॥ ३८॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

अविद्यमानोऽपि द्वितीयः द्वयः स्वतन्त्रात्मभ्रमश्चेत्युभयमविद्यमानमप्रामाणिकम् उभयविधभ्रमपि मानसः अतस्तदुभयनिवृत्तये कर्माधीनं सङ्कल्प-विकल्पकं सङ्कल्पो देहादिरक्षार्था चिन्ता विकल्पः स्रक्चन्दनादिचिन्ताविस्तारः एतत्सर्वं मनःकृतं तस्मात् मनो निरुन्ध्यादित्यर्थः । तत अभयं स्यात् भगवन्नित्यशरीर भूतोऽस्मीति बुद्धिः स्यादित्यर्थः ॥ ३८-३९ ॥

श्लोक-३९

विश्वास-प्रस्तुतिः

शृण्वन् सुभद्राणि रथाङ्गपाणे-
र्जन्मानि कर्माणि च यानि लोके।
गीतानि नामानि तदर्थकानि
गायन् विलज्जो विचरेदसङ्गः॥

मूलम्

शृण्वन् सुभद्राणि रथाङ्गपाणे-
र्जन्मानि कर्माणि च यानि लोके।
गीतानि नामानि तदर्थकानि
गायन् विलज्जो विचरेदसङ्गः॥

अनुवाद (हिन्दी)

संसारमें भगवान‍्के जन्मकी और लीलाकी बहुत-सी मंगलमयी कथाएँ प्रसिद्ध हैं। उनको सुनते रहना चाहिये। उन गुणों और लीलाओंका स्मरण दिलानेवाले भगवान‍्के बहुत-से नाम भी प्रसिद्ध हैं। लाज-संकोच छोड़कर उनका गान करते रहना चाहिये। इस प्रकार किसी भी व्यक्ति, वस्तु और स्थानमें आसक्ति न करके विचरण करते रहना चाहिये॥ ३९॥

श्लोक-४०

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवंव्रतः स्वप्रियनामकीर्त्या
जातानुरागो द्रुतचित्त उच्चैः।
हसत्यथो रोदिति रौति गाय-
त्युन्मादवन्नृत्यति लोकबाह्यः॥

मूलम्

एवंव्रतः स्वप्रियनामकीर्त्या
जातानुरागो द्रुतचित्त उच्चैः।
हसत्यथो रोदिति रौति गाय-
त्युन्मादवन्नृत्यति लोकबाह्यः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो इस प्रकार विशुद्ध व्रत—नियम ले लेता है, उसके हृदयमें अपने परम प्रियतम प्रभुके नाम-कीर्तनसे अनुरागका, प्रेमका अंकुर उग आता है। उसका चित्त द्रवित हो जाता है। अब वह साधारण लोगोंकी स्थितिसे ऊपर उठ जाता है। लोगोंकी मान्यताओं, धारणाओंसे परे हो जाता है। दम्भसे नहीं, स्वभावसे ही मतवाला-सा होकर कभी खिलखिलाकर हँसने लगता है तो कभी फूट-फूटकर रोने लगता है। कभी ऊँचे स्वरसे भगवान‍्को पुकारने लगता है, तो कभी मधुर स्वरसे उनके गुणोंका गान करने लगता है। कभी-कभी जब वह अपने प्रियतमको अपने नेत्रोंके सामने अनुभव करता है, तब उन्हें रिझानेके लिये नृत्य भी करने लगता है॥ ४०॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

एवम्व्रत इति बहुब्रीहिः स्वप्रियस्य स्वस्य प्रीतिविषयो भगवान् तस्य नामकीर्तनादित्यर्थः ॥ ४० ॥

श्लोक-४१

विश्वास-प्रस्तुतिः

खं वायुमग्निं सलिलं महीं च
ज्योतींषि सत्त्वानि दिशो द्रुमादीन्।
सरित्समुद्रांश्च हरेः शरीरं
यत् किञ्च भूतं प्रणमेदनन्यः॥

मूलम्

खं वायुमग्निं सलिलं महीं च
ज्योतींषि सत्त्वानि दिशो द्रुमादीन्।
सरित्समुद्रांश्च हरेः शरीरं
यत् किञ्च भूतं प्रणमेदनन्यः॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! यह आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, ग्रह-नक्षत्र, प्राणी, दिशाएँ, वृक्ष-वनस्पति, नदी, समुद्र—सब-के-सब भगवान‍्के शरीर हैं। सभी रूपोंमें स्वयं भगवान् प्रकट हैं। ऐसा समझकर वह जो कोई भी उसके सामने आ जाता है—चाहे वह प्राणी हो या अप्राणी—उसे अनन्यभावसे—भगवद‍्भावसे प्रणाम करता है॥ ४१॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

सत्त्वानि जन्तूनि ॥ ४१ ॥

श्लोक-४२

विश्वास-प्रस्तुतिः

भक्तिः परेशानुभवो विरक्ति-
रन्यत्र चैष त्रिक एककालः।
प्रपद्यमानस्य यथाश्नतः स्यु-
स्तुष्टिः पुष्टिः क्षुदपायोऽनुघासम्॥

मूलम्

भक्तिः परेशानुभवो विरक्ति-
रन्यत्र चैष त्रिक एककालः।
प्रपद्यमानस्य यथाश्नतः स्यु-
स्तुष्टिः पुष्टिः क्षुदपायोऽनुघासम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे भोजन करनेवालेको प्रत्येक ग्रासके साथ ही तुष्टि (तृप्ति अथवा सुख), पुष्टि (जीवनशक्तिका संचार) और क्षुधा-निवृत्ति—ये तीनों एक साथ होते जाते हैं; वैसे ही जो मनुष्य भगवान‍्की शरण लेकर उनका भजन करने लगता है, उसे भजनके प्रत्येक क्षणमें भगवान‍्के प्रति प्रेम, अपने प्रेमास्पद प्रभुके स्वरूपका अनुभव और उनके अतिरिक्त अन्य वस्तुओंमें वैराग्य—इन तीनोंकी एक साथ ही प्राप्ति होती जाती है॥ ४२॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

परेशानुभवः ईश्वरस्वरूपगुणादिविषयं तत्त्वज्ञानम् अन्यत्र शब्दादौ विरक्तिः तुष्टिः अलम्बुद्धिः पुष्टिः शरीरपोषणं क्षुदपायः जाठराग्निना शरीरगतास्ध्यादिदाहः क्षुत्तन्निवृत्तिः अनुघासं प्रतिग्रासम् ॥ ४२ ॥

श्लोक-४३

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्यच्युताङ्घ्रिं भजतोऽनुवृत्त्या
भक्तिर्विरक्तिर्भगवत्प्रबोधः।
भवन्ति वै भागवतस्य राजं-
स्ततः परां शान्तिमुपैति साक्षात्॥

मूलम्

इत्यच्युताङ्घ्रिं भजतोऽनुवृत्त्या
भक्तिर्विरक्तिर्भगवत्प्रबोधः।
भवन्ति वै भागवतस्य राजं-
स्ततः परां शान्तिमुपैति साक्षात्॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! इस प्रकार जो प्रतिक्षण एक-एक वृत्तिके द्वारा भगवान‍्के चरणकमलोंका ही भजन करता है, उसे भगवान‍्के प्रति प्रेममयी भक्ति, संसारके प्रति वैराग्य और अपने प्रियतम भगवान‍्के स्वरूपकी स्फूर्ति—ये सब अवश्य ही प्राप्त होते हैं; वह भागवत हो जाता है और जब ये सब प्राप्त हो जाते हैं, तब वह स्वयं परम शान्तिका अनुभव करने लगता है॥ ४३॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

शान्तिम् अशनायापिपासाशोकमोहजरामरणाख्योर्मिषट्कप्रशमम् ॥ ४३ ॥

श्लोक-४४

मूलम् (वचनम्)

राजोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ भागवतं ब्रूत यद्धर्मो यादृशो नृणाम्।
यथा चरति यद् ब्रूते यैर्लिङ्गैर्भगवत्प्रियः॥

मूलम्

अथ भागवतं ब्रूत यद्धर्मो यादृशो नृणाम्।
यथा चरति यद् ब्रूते यैर्लिङ्गैर्भगवत्प्रियः॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा निमिने पूछा—योगीश्वर! अब आप कृपा करके भगवद‍्भक्तका लक्षण वर्णन कीजिये। उसके क्या धर्म हैं? और कैसा स्वभाव होता है? वह मनुष्योंके साथ व्यवहार करते समय कैसा आचरण करता है? क्या बोलता है? और किन लक्षणोंके कारण भगवान‍्का प्यारा होता है?॥ ४४॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

भागवतं भगवद्भक्तं यद्धर्म इति श्रीभगवति सर्वकर्मार्पणरूपन्यास-धर्मयुक्तः यादृशवासनायुक्तः चरतीति यद्भक्षयति यज्जानाति श्रीभगवत्प्रसादं तत्त्वत्रयं च मन्त्रं श्रीभगवद्गुणान् लिङ्गानि च शङ्खचक्रधारणोदुर्ध्वपुण्ड्र युगलमालिकादीनि पञ्चरात्रादिप्रसिद्धानि अन्यानि चेति प्रश्नार्थः ॥ ४४ ॥

श्लोक-४५

मूलम् (वचनम्)

हरिरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वभूतेषु यः पश्येद् भगवद‍्भावमात्मनः।
भूतानि भगवत्यात्मन्येष भागवतोत्तमः॥

मूलम्

सर्वभूतेषु यः पश्येद् भगवद‍्भावमात्मनः।
भूतानि भगवत्यात्मन्येष भागवतोत्तमः॥

अनुवाद (हिन्दी)

अब नौ योगीश्वरोंमेंसे दूसरे हरिजी बोले—राजन्! आत्मस्वरूप भगवान् समस्त प्राणियोंमें आत्मारूपसे—नियन्तारूपसे स्थित हैं। जो कहीं भी न्यूनाधिकता न देखकर सर्वत्र परिपूर्ण भगवत्सत्ताको ही देखता है और साथ ही समस्त प्राणी और समस्त पदार्थ आत्मस्वरूप भगवान‍्में ही आधेयरूपसे अथवा अध्यस्तरूपसे स्थित हैं, अर्थात् वास्तवमें भगवत्स्वरूप ही हैं—इस प्रकारका जिसका अनुभव है, ऐसी जिसकी सिद्ध दृष्टि है, उसे भगवान‍्का परमप्रेमी उत्तम भागवत समझना चाहिये॥ ४५॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

पञ्चरात्रादिप्रसिद्धान्येतानि रहस्यानीति हृदि निधाय तेषां प्राप्त्यर्थम् अन्तराण्येवैतदुपायभूतानि लक्षणानि वर्णयति, हरिः जीवस्य भगवच्छरीरत्वं भगवति आत्मनि भूतानि सजीवशरीराणि इति वैशिष्टयज्ञानवानित्यर्थः ॥ ४५ ॥

श्लोक-४६

विश्वास-प्रस्तुतिः

ईश्वरे तदधीनेषु बालिशेषु द्विषत्सु च।
प्रेममैत्रीकृपोपेक्षा यः करोति स मध्यमः॥

मूलम्

ईश्वरे तदधीनेषु बालिशेषु द्विषत्सु च।
प्रेममैत्रीकृपोपेक्षा यः करोति स मध्यमः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो भगवान‍्से प्रेम, उनके भक्तोंसे मित्रता, दुःखी और अज्ञानियोंपर कृपा तथा भगवान‍्से द्वेष करनेवालोंकी उपेक्षा करता है, वह मध्यम कोटिका भागवत है॥ ४६॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

ईश्वरादिषु प्रेमादीनां क्रमेणान्वयः ॥ ४६ ॥

श्लोक-४७

विश्वास-प्रस्तुतिः

अर्चायामेव हरये पूजां यः श्रद्धयेहते।
न तद‍्भक्तेषु चान्येषु स भक्तः प्राकृतः स्मृतः॥

मूलम्

अर्चायामेव हरये पूजां यः श्रद्धयेहते।
न तद‍्भक्तेषु चान्येषु स भक्तः प्राकृतः स्मृतः॥

अनुवाद (हिन्दी)

और जो भगवान‍्के अर्चा-विग्रह—मूर्ति आदिकी पूजा तो श्रद्धासे करता है, परन्तु भगवान‍्के भक्तों या दूसरे लोगोंकी विशेष सेवा-शुश्रूषा नहीं करता, वह साधारण श्रेणीका भगवद‍्भक्त है॥ ४७॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

अर्चायामेव अन्येषु सूर्यादिषु स्थानेषु तद्भक्तेषु च श्रद्धया नतिपूजाम् एवं न सेवारूपं कैङ्कम् ईहते स प्राकृतः प्रकृतिसम्बन्धवश्यो भवति भक्त इवेति ॥ ४७ ॥

श्लोक-४८

विश्वास-प्रस्तुतिः

गृहीत्वापीन्द्रियैरर्थान् यो न द्वेष्टि न हृष्यति।
विष्णोर्मायामिदं पश्यन् स वै भागवतोत्तमः॥

मूलम्

गृहीत्वापीन्द्रियैरर्थान् यो न द्वेष्टि न हृष्यति।
विष्णोर्मायामिदं पश्यन् स वै भागवतोत्तमः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो श्रोत्र-नेत्र आदि इन्द्रियोंके द्वारा शब्द-रूप आदि विषयोंका ग्रहण तो करता है; परन्तु अपनी इच्छाके प्रतिकूल विषयोंसे द्वेष नहीं करता और अनुकूल विषयोंके मिलनेपर हर्षित नहीं होता—उसकी यह दृष्टि बनी रहती है कि यह सब हमारे भगवान‍्की माया है—वह पुरुष उत्तम भागवत है॥ ४८॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

एवं भागवतमुक्त्वा अन्तरलक्षणाविन्यासविद्योपयोगीत्याह – गृहीत्वेत्यादिना । विष्णोः सम्बन्धीदं शरीरं विश्वं मायां तदिच्छावशं पश्यन् ॥ ४८ ॥

श्लोक-४९

विश्वास-प्रस्तुतिः

देहेन्द्रियप्राणमनोधियां यो
जन्माप्ययक्षुद‍्भयतर्षकृच्छ्रैः।
संसारधर्मैरविमुह्यमानः
स्मृत्या हरेर्भागवतप्रधानः॥

मूलम्

देहेन्द्रियप्राणमनोधियां यो
जन्माप्ययक्षुद‍्भयतर्षकृच्छ्रैः।
संसारधर्मैरविमुह्यमानः
स्मृत्या हरेर्भागवतप्रधानः॥

अनुवाद (हिन्दी)

संसारके धर्म हैं—जन्म-मृत्यु, भूख-प्यास, श्रम-कष्ट, भय और तृष्णा। ये क्रमशः शरीर, प्राण, इन्द्रिय, मन और बुद्धिको प्राप्त होते ही रहते हैं। जो पुरुष भगवान‍्की स्मृतिमें इतना तन्मय रहता है कि इनके बार-बार होते-जाते रहनेपर भी उनसे मोहित नहीं होता, पराभूत नहीं होता, वह उत्तम भागवत है॥ ४९॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

देहस्य जन्माप्ययौ प्राणस्य क्षुत् इन्द्रियाणां कृच्छ्राणि मनसो भयं तर्षः तृष्णा बुद्धेः एवम्भूतैः संसारधर्मैः सर्वथा देहात्माभिमानरहित इत्यर्थः ॥ ४९ ॥

श्लोक-५०

विश्वास-प्रस्तुतिः

न कामकर्मबीजानां यस्य चेतसि सम्भवः।
वासुदेवैकनिलयः स वै भागवतोत्तमः॥

मूलम्

न कामकर्मबीजानां यस्य चेतसि सम्भवः।
वासुदेवैकनिलयः स वै भागवतोत्तमः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसके मनमें विषय-भोगकी इच्छा, कर्म-प्रवृत्ति और उनके बीज वासनाओंका उदय नहीं होता और जो एकमात्र भगवान् वासुदेवमें ही निवास करता है, वह उत्तम भगवद‍्भक्त है॥ ५०॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

कामकर्मवासनानामुत्पत्तिः यस्य चेतसि मनसि न भवेत् श्रीवासुदेवाश्रयः अन्तर्यामि - दृष्टिबलेन तदेव वसति ॥ ५० ॥

श्लोक-५१

विश्वास-प्रस्तुतिः

न यस्य जन्मकर्मभ्यां न वर्णाश्रमजातिभिः।
सज्जतेऽस्मिन्नहंभावो देहे वै स हरेः प्रियः॥

मूलम्

न यस्य जन्मकर्मभ्यां न वर्णाश्रमजातिभिः।
सज्जतेऽस्मिन्नहंभावो देहे वै स हरेः प्रियः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिनका इस शरीरमें न तो सत्कुलमें जन्म, तपस्या आदि कर्मसे तथा न वर्ण, आश्रम एवं जातिसे ही अहंभाव होता है, वह निश्चय ही भगवान‍्का प्यारा है॥ ५१॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

सत्कुलजन्म श्रौतस्मार्त्तकर्मभ्यां वर्णाश्रमविशिष्टजातिभिश्च देहनिष्ठाभिः अहम्भावो यस्य नास्ति देहनिष्ठक्षुद्भयादिकर्मवत् अवर्जनीयशास्त्रीय कर्माण्यपि कुर्वन्न तत्कृताऽहङ्कारविवश आत्मनि देहपुत्रदारादिके भिदा अब्रह्मात्मकस्वतन्त्र दृष्टिः ॥ ५१-५२ ॥

श्लोक-५२

विश्वास-प्रस्तुतिः

न यस्य स्वः पर इति वित्तेष्वात्मनि वा भिदा।
सर्वभूतसमः शान्तः स वै भागवतोत्तमः॥

मूलम्

न यस्य स्वः पर इति वित्तेष्वात्मनि वा भिदा।
सर्वभूतसमः शान्तः स वै भागवतोत्तमः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो धन-सम्पत्ति अथवा शरीर आदिमें ‘यह अपना है और यह पराया’—इस प्रकारका भेद-भाव नहीं रखता, समस्त पदार्थोंमें समस्वरूप परमात्माको देखता रहता है, समभाव रखता है तथा किसी भी घटना अथवा संकल्पसे विक्षिप्त न होकर शान्त रहता है, वह भगवान‍्का उत्तम भक्त है॥ ५२॥

श्लोक-५३

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्रिभुवनविभवहेतवेऽप्यकुण्ठ-
स्मृतिरजितात्मसुरादिभिर्विमृग्यात्।
न चलति भगवत्पदारविन्दा-
ल्लवनिमिषार्धमपि यः स वैष्णवाग्र्यः॥

मूलम्

त्रिभुवनविभवहेतवेऽप्यकुण्ठ-
स्मृतिरजितात्मसुरादिभिर्विमृग्यात्।
न चलति भगवत्पदारविन्दा-
ल्लवनिमिषार्धमपि यः स वैष्णवाग्र्यः॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! बड़े-बड़े देवता और ऋषि-मुनि भी अपने अन्तःकरणको भगवन्मय बनाते हुए जिन्हें ढूँढ़ते रहते हैं—भगवान‍्के ऐसे चरणकमलोंसे आधे क्षण, आधे पलके लिये भी जो नहीं हटता, निरन्तर उन चरणोंकी सन्निधि और सेवामें ही संलग्न रहता है; यहाँतक कि कोई स्वयं उसे त्रिभुवनकी राज्यलक्ष्मी दे तो भी वह भगवत्स्मृतिका तार नहीं तोड़ता, उस राज्यलक्ष्मीकी ओर ध्यान ही नहीं देता; वही पुरुष वास्तवमें भगवद‍्भक्त वैष्णवोंमें अग्रगण्य है, सबसे श्रेष्ठ है॥ ५३॥

श्लोक-५४

विश्वास-प्रस्तुतिः

भगवत उरुविक्रमाङ्घ्रिशाखा-
नखमणिचन्द्रिकया निरस्ततापे।
हृदि कथमुपसीदतां पुनः स
प्रभवति चन्द्र इवोदितेऽर्कतापः॥

मूलम्

भगवत उरुविक्रमाङ्घ्रिशाखा-
नखमणिचन्द्रिकया निरस्ततापे।
हृदि कथमुपसीदतां पुनः स
प्रभवति चन्द्र इवोदितेऽर्कतापः॥

अनुवाद (हिन्दी)

रासलीलाके अवसरपर नृत्य-गतिसे भाँति-भाँतिके पाद-विन्यास करनेवाले निखिल सौन्दर्य-माधुर्य-निधि भगवान‍्के चरणोंके अंगुलि-नखकी मणि-चन्द्रिकासे जिन शरणागत भक्तजनोंके हृदयका विरहजन्य संताप एक बार दूर हो चुका है, उनके हृदयमें वह फिर कैसे आ सकता है, जैसे चन्द्रोदय होनेपर सूर्यका ताप नहीं लग सकता॥ ५४॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

सन्न्यस्त इति दयालुत्वेन जीवहिंसारहितः । त्रिभुवनविभवकारणाय भगवत्पदारविन्दाल्लब्धनिमिषार्द्धं कालमपि न चलति एवमेतत्पद्यपर्यन्तं आन्तरवृत्त्युपवर्णनेन यादृश इति प्रश्नोत्तरमुक्त्वा इदानीम् उपसीदताम् इत्यनेन यद्धर्म इत्यस्योत्तरमाह - भगवत इति । उपसीदतां न्यासविद्यया श्रीभगवदुपसन्नानां आचार्यदत्तयेति रहस्यम् अनेन यैर्लिङ्गेरित्यस्याप्युत्तरमुक्तं वेदितव्यम् । आचार्येणैव लिङ्गानां श्रीवैष्णवचिह्नानां तप्तशङ्खचक्राङ्कनयुगलमालोर्ध्वपुण्ड्र कौपीनकटिसूत्रवस्त्रद्वयधारणादि श्रीमद्वयमन्त्रार्थानु सन्धानेन प्रपत्तिज्ञानादीनां दानात् यद्ब्रूते इत्यस्याप्युत्तरमुक्तम् । “सन्न्यस्तदण्डोऽखिलजीववत्सलः न यस्य स्वपर इति त्रिभुवनविभवहेतवं इत्यादिभिर्बहुभिः पद्यैर्यथा चरति इत्युत्तरमुक्तं वेदितव्यम् ॥ ५४ ॥

श्लोक-५५

विश्वास-प्रस्तुतिः

विसृजति हृदयं न यस्य साक्षा-
द्धरिरवशाभिहितोऽप्यघौघनाशः।
प्रणयरशनया धृताङ्घ्रिपद्मः
स भवति भागवतप्रधान उक्तः॥

मूलम्

विसृजति हृदयं न यस्य साक्षा-
द्धरिरवशाभिहितोऽप्यघौघनाशः।
प्रणयरशनया धृताङ्घ्रिपद्मः
स भवति भागवतप्रधान उक्तः॥

अनुवाद (हिन्दी)

विवशतासे नामोच्चारण करनेपर भी सम्पूर्ण अघ-राशिको नष्ट कर देनेवाले स्वयं भगवान् श्रीहरि जिसके हृदयको क्षणभरके लिये भी नहीं छोड़ते हैं, क्योंकि उसने प्रेमकी रस्सीसे उनके चरण-कमलोंको बाँध रखा है, वास्तवमें ऐसा पुरुष ही भगवान‍्के भक्तोंमें प्रधान है॥ ५५॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

विसृजतीति कृतकृत्यत्वमुच्यते हरति संसारमिति हरिः अवशाभिहितोपि इत्यनेन मरणदशायां मन्त्रानुसन्धानेऽननुसन्धानेपि अघौघं स्वप्राप्तिविरोधिनं नाशयतीति प्रपन्नेन पूर्वकाले प्रणयरशनया बद्धाङ्घ्रिपद्मः यस्य हृदयं न विसृजतीति ॥ ५५ ॥

इति श्रीमद्भागवतव्याख्याने एकादशस्कन्धीये श्रीसुदर्शनसूरिकृतशुकपक्षीये द्वितीयोऽध्यायः ॥ २ ॥

अनुवाद (समाप्ति)

इति श्रीमद‍्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायामेकादशस्कन्धे द्वितीयोऽध्यायः॥ २॥