[प्रथमोऽध्यायः]
भागसूचना
यदुवंशको ऋषियोंका शाप
श्लोक-१
मूलम् (वचनम्)
श्रीबादरायणिरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृत्वा दैत्य वधं कृष्णः सरामो यदुभिर्वृतः।
भुवोऽवतारयद् भारं जविष्ठं जनयन् कलिम्॥
मूलम्
कृत्वा दैत्य वधं कृष्णः सरामो यदुभिर्वृतः।
भुवोऽवतारयद् भारं जविष्ठं जनयन् कलिम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
व्यासनन्दन भगवान् श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्णने बलरामजी तथा अन्य यदुवंशियोंके साथ मिलकर बहुत-से दैत्योंका संहार किया तथा कौरव और पाण्डवोंमें भी शीघ्र मार-काट मचानेवाला अत्यन्त प्रबल कलह उत्पन्न करके पृथ्वीका भार उतार दिया॥ १॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
कलिः कलहः ॥ १-३ ॥
श्लोक-२
विश्वास-प्रस्तुतिः
ये कोपिताः सुबहु पाण्डुसुताः सपत्नै-
र्दुर्द्यूतहेलनकचग्रहणादिभिस्तान्।
कृत्वा निमित्तमितरेतरतः समेतान्
हत्वा नृपान् निरहरत् क्षितिभारमीशः॥
मूलम्
ये कोपिताः सुबहु पाण्डुसुताः सपत्नै-
र्दुर्द्यूतहेलनकचग्रहणादिभिस्तान्।
कृत्वा निमित्तमितरेतरतः समेतान्
हत्वा नृपान् निरहरत् क्षितिभारमीशः॥
अनुवाद (हिन्दी)
कौरवोंने कपटपूर्ण जूएसे, तरह-तरहके अपमानोंसे तथा द्रौपदीके केश खींचने आदि अत्याचारोंसे पाण्डवोंको अत्यन्त क्रोधित कर दिया था। उन्हीं पाण्डवोंको निमित्त बनाकर भगवान् श्रीकृष्णने दोनों पक्षोंमें एकत्र हुए राजाओंको मरवा डाला और इस प्रकार पृथ्वीका भार हलका कर दिया॥ २॥
श्लोक-३
विश्वास-प्रस्तुतिः
भूभारराजपृतना यदुभिर्निरस्य
गुप्तैः स्वबाहुभिरचिन्तयदप्रमेयः।
मन्येऽवनेर्ननु गतोऽप्यगतं हि भारं
यद् यादवं कुलमहो अविषह्यमास्ते॥
मूलम्
भूभारराजपृतना यदुभिर्निरस्य
गुप्तैः स्वबाहुभिरचिन्तयदप्रमेयः।
मन्येऽवनेर्ननु गतोऽप्यगतं हि भारं
यद् यादवं कुलमहो अविषह्यमास्ते॥
अनुवाद (हिन्दी)
अपने बाहुबलसे सुरक्षित यदुवंशियोंके द्वारा पृथ्वीके भार—राजा और उनकी सेनाका विनाश करके, प्रमाणोंके द्वारा ज्ञानके विषय न होनेवाले भगवान् श्रीकृष्णने विचार किया कि लोकदृष्टिसे पृथ्वीका भार दूर हो जानेपर भी वस्तुतः मेरी दृष्टिसे अभीतक दूर नहीं हुआ; क्योंकि जिसपर कोई विजय नहीं प्राप्त कर सकता, वह यदुवंश अभी पृथ्वीपर विद्यमान है॥ ३॥
श्लोक-४
विश्वास-प्रस्तुतिः
नैवान्यतः परिभवोऽस्य भवेत् कथञ्चि-
न्मत्संश्रयस्य विभवोन्नहनस्य नित्यम्।
अन्तःकलिं यदुकुलस्य विधाय वेणु-
स्तम्बस्य वह्निमिव शान्तिमुपैमि धाम॥
मूलम्
नैवान्यतः परिभवोऽस्य भवेत् कथञ्चि-
न्मत्संश्रयस्य विभवोन्नहनस्य नित्यम्।
अन्तःकलिं यदुकुलस्य विधाय वेणु-
स्तम्बस्य वह्निमिव शान्तिमुपैमि धाम॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह यदुवंश मेरे आश्रित है और हाथी, घोड़े, जनबल, धनबल आदि विशाल वैभवके कारण उच्छृंखल हो रहा है। अन्य किसी देवता आदिसे भी इसकी किसी प्रकार पराजय नहीं हो सकती। बाँसके वनमें परस्पर संघर्षसे उत्पन्न अग्निके समान इस यदुवंशमें भी परस्पर कलह खड़ा करके मैं शान्ति प्राप्त कर सकूँगा और इसके बाद अपने धाममें जाऊँगा॥ ४॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
विभवोन्नहनस्य विभवोन्नद्धस्य शान्तिम् ऊर्मिषटकरहितम् ॥ ४ ॥
श्लोक-५
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं व्यवसितो राजन् सत्यसङ्कल्प ईश्वरः।
शापव्याजेन विप्राणां संजह्रे स्वकुलं विभुः॥
मूलम्
एवं व्यवसितो राजन् सत्यसङ्कल्प ईश्वरः।
शापव्याजेन विप्राणां संजह्रे स्वकुलं विभुः॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! भगवान् सर्वशक्तिमान् और सत्यसंकल्प हैं। उन्होंने इस प्रकार अपने मनमें निश्चय करके ब्राह्मणोंके शापके बहाने अपने ही वंशका संहार कर डाला, सबको समेटकर अपने धाममें ले गये॥ ५॥
श्लोक-६
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वमूर्त्या लोकलावण्यनिर्मुक्त्या लोचनं नृणाम्।
गीर्भिस्ताः स्मरतां चित्तं पदैस्तानीक्षतां क्रियाः॥
मूलम्
स्वमूर्त्या लोकलावण्यनिर्मुक्त्या लोचनं नृणाम्।
गीर्भिस्ताः स्मरतां चित्तं पदैस्तानीक्षतां क्रियाः॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
॥ ५ ॥ स्वमूर्त्या लोकलावण्यमिति आच्छिद्येत्यन्वयः । निर्मुक्त्या कटाक्षमोक्षेण नृणां लोचनमाच्छिद्य पुंसां दृष्ट्यपहारी तत्कटाक्ष इत्यर्थः । ताः गिरः स्मरतां चित्तं गिरो मनोहारिण्य इत्यर्थः । पदैः पदन्यासः मनोहारिभिः क्रियाः इतरविषयप्रवृत्तीराच्छिद्येत्यर्थः । सुश्लोक्यां श्लाघनीयां कीर्त्ति वितत्य विस्तार्य्यं अनया की य ॥ ६-८ ॥
श्लोक-७
विश्वास-प्रस्तुतिः
आच्छिद्य कीर्तिं सुश्लोकां(क्यां) वितत्य ह्यञ्जसा नु कौ।
तमोऽनया तरिष्यन्तीत्यगात् स्वं पदमीश्वरः॥
मूलम्
आच्छिद्य कीर्तिं सुश्लोकां(क्यां) वितत्य ह्यञ्जसा नु कौ।
तमोऽनया तरिष्यन्तीत्यगात् स्वं पदमीश्वरः॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! भगवान्की वह मूर्ति त्रिलोकीके सौन्दर्यका तिरस्कार करनेवाली थी। उन्होंने अपनी सौन्दर्य-माधुरीसे सबके नेत्र अपनी ओर आकर्षित कर लिये थे। उनकी वाणी, उनके उपदेश परम मधुर, दिव्यातिदिव्य थे। उनके द्वारा उन्हें स्मरण करनेवालोंके चित्त उन्होंने छीन लिये थे। उनके चरणकमल त्रिलोक-सुन्दर थे। जिसने उनके एक चरण-चिह्नका भी दर्शन कर लिया, उसकी बहिर्मुखता दूर भाग गयी, वह कर्मप्रपंचसे ऊपर उठकर उन्हींकी सेवामें लग गया। उन्होंने अनायास ही पृथ्वीमें अपनी कीर्तिका विस्तार कर दिया, जिसका बड़े-बड़े सुकवियोंने बड़ी ही सुन्दर भाषामें वर्णन किया है। वह इसलिये कि मेरे चले जानेके बाद लोग मेरी इस कीर्तिका गान, श्रवण और स्मरण करके इस अज्ञानरूप अन्धकारसे सुगमतया पार हो जायँगे। इसके बाद परमैश्वर्यशाली भगवान् श्रीकृष्णने अपने धामको प्रयाण किया॥ ६-७॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
सुश्लोक्यां श्लाघनीयां कीर्त्ति वितत्य विस्तार्य्यं अनया कीर्त्त्या ॥ ६-८ ॥
श्लोक-८
मूलम् (वचनम्)
राजोवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रह्मण्यानां वदान्यानां नित्यं वृद्धोपसेविनाम्।
विप्रशापः कथमभूद् वृष्णीनां कृष्णचेतसाम्॥
मूलम्
ब्रह्मण्यानां वदान्यानां नित्यं वृद्धोपसेविनाम्।
विप्रशापः कथमभूद् वृष्णीनां कृष्णचेतसाम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा परीक्षित् ने पूछा—भगवन्! यदुवंशी बड़े ब्राह्मणभक्त थे। उनमें बड़ी उदारता भी थी और वे अपने कुलवृद्धोंकी नित्य-निरन्तर सेवा करनेवाले थे। सबसे बड़ी बात तो यह थी कि उनका चित्त भगवान् श्रीकृष्णमें लगा रहता था; फिर उनसे ब्राह्मणोंका अपराध कैसे बन गया? और क्यों ब्राह्मणोंने उन्हें शाप दिया?॥ ८॥
श्लोक-९
विश्वास-प्रस्तुतिः
यन्निमित्तः स वै शापो यादृशो द्विजसत्तम।
कथमेकात्मनां भेद एतत् सर्वं वदस्व मे॥
मूलम्
यन्निमित्तः स वै शापो यादृशो द्विजसत्तम।
कथमेकात्मनां भेद एतत् सर्वं वदस्व मे॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान्के परम प्रेमी विप्रवर! उस शापका कारण क्या था तथा क्या स्वरूप था? समस्त यदुवंशियोंके आत्मा, स्वामी और प्रियतम एकमात्र भगवान् श्रीकृष्ण ही थे; फिर उनमें फूट कैसे हुई? दूसरी दृष्टिसे देखें तो वे सब ऋषि अद्वैतदर्शी थे, फिर उनको ऐसी भेददृष्टि कैसे हुई? यह सब आप कृपा करके मुझे बतलाइये॥ ९॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
एकात्मनाम् अन्योन्यमैकमत्यं प्राप्तानां भेदः अन्तर्भेदः ॥ ९-१० ॥
श्लोक-१०
मूलम् (वचनम्)
श्रीशुक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिभ्रद् वपुः सकलसुन्दरसन्निवेशं
कर्माचरन् भुवि सुमङ्गलमाप्तकामः।
आस्थाय धाम रममाण उदारकीर्तिः
संहर्तुमैच्छत कुलं स्थितकृत्यशेषः॥
मूलम्
बिभ्रद् वपुः सकलसुन्दरसन्निवेशं
कर्माचरन् भुवि सुमङ्गलमाप्तकामः।
आस्थाय धाम रममाण उदारकीर्तिः
संहर्तुमैच्छत कुलं स्थितकृत्यशेषः॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीशुकदेवजीने कहा—भगवान् श्रीकृष्णने वह शरीर धारण करके जिसमें सम्पूर्ण सुन्दर पदार्थोंका सन्निवेश था (नेत्रोंमें मृगनयन, कन्धोंमें सिंहस्कन्ध, करोंमें करि-कर, चरणोंमें कमल आदिका विन्यास था।) पृथ्वीमें मंगलमय कल्याणकारी कर्मोंका आचरण किया। वे पूर्णकाम प्रभु द्वारकाधाममें रहकर क्रीडा करते रहे और उन्होंने अपनी उदार कीर्तिकी स्थापना की। (जो कीर्ति स्वयं अपने आश्रयतकका दान कर सके वह उदार है।) अन्तमें श्रीहरिने अपने कुलके संहार—उपसंहारकी इच्छा की; क्योंकि अब पृथ्वीका भार उतरनेमें इतना ही कार्य शेष रह गया था॥ १०॥
श्लोक-११
विश्वास-प्रस्तुतिः
कर्माणि पुण्यनिवहानि सुमङ्गलानि
गायज्जगत्कलिमलापहराणि कृत्वा।
कालात्मना निवसता यदुदेवगेहे
पिण्डारकं समगमन् मुनयो निसृष्टाः॥
मूलम्
कर्माणि पुण्यनिवहानि सुमङ्गलानि
गायज्जगत्कलिमलापहराणि कृत्वा।
कालात्मना निवसता यदुदेवगेहे
पिण्डारकं समगमन् मुनयो निसृष्टाः॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
निसृष्टाः भगवत्सङ्कल्पप्रेरिताः ॥ ११-१३ ॥
श्लोक-१२
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वामित्रोऽसितः कण्वो दुर्वासा भृगुरङ्गिराः।
कश्यपो वामदेवोऽत्रिर्वसिष्ठो नारदादयः॥
मूलम्
विश्वामित्रोऽसितः कण्वो दुर्वासा भृगुरङ्गिराः।
कश्यपो वामदेवोऽत्रिर्वसिष्ठो नारदादयः॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् श्रीकृष्णने ऐसे परम मंगलमय और पुण्य-प्रापक कर्म किये, जिनका गान करनेवाले लोगोंके सारे कलिमल नष्ट हो जाते हैं। अब भगवान् श्रीकृष्ण महाराज उग्रसेनकी राजधानी द्वारकापुरीमें वसुदेवजीके घर यादवोंका संहार करनेके लिये कालरूपसे ही निवास कर रहे थे। उस समय उनके विदा कर देनेपर—विश्वामित्र, असित, कण्व, दुर्वासा, भृगु, अंगिरा, कश्यप, वामदेव, अत्रि, वसिष्ठ और नारद आदि बड़े-बड़े ऋषि द्वारकाके पास ही पिण्डारक क्षेत्रमें जाकर निवास करने लगे थे॥ ११-१२॥
श्लोक-१३
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्रीडन्तस्तानुपव्रज्य कुमारा यदुनन्दनाः।
उपसंगृह्य पप्रच्छुरविनीता विनीतवत्॥
मूलम्
क्रीडन्तस्तानुपव्रज्य कुमारा यदुनन्दनाः।
उपसंगृह्य पप्रच्छुरविनीता विनीतवत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक दिन यदुवंशके कुछ उद्दण्ड कुमार खेलते-खेलते उनके पास जा निकले। उन्होंने बनावटी नम्रतासे उनके चरणोंमें प्रणाम करके प्रश्न किया॥ १३॥
श्लोक-१४
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते वेषयित्वा स्त्रीवेषैः साम्बं जाम्बवतीसुतम्।
एषा पृच्छति वो विप्रा अन्तर्वत्न्यसितेक्षणा॥
मूलम्
ते वेषयित्वा स्त्रीवेषैः साम्बं जाम्बवतीसुतम्।
एषा पृच्छति वो विप्रा अन्तर्वत्न्यसितेक्षणा॥
श्लोक-१५
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रष्टुं विलज्जती साक्षात् प्रब्रूतामोघदर्शनाः।
प्रसोष्यन्ती पुत्रकामा किंस्वित् सञ्जनयिष्यति॥
मूलम्
प्रष्टुं विलज्जती साक्षात् प्रब्रूतामोघदर्शनाः।
प्रसोष्यन्ती पुत्रकामा किंस्वित् सञ्जनयिष्यति॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे जाम्बवतीनन्दन साम्बको स्त्रीके वेषमें सजाकर ले गये और कहने लगे, ‘ब्राह्मणो! यह कजरारी आँखोंवाली सुन्दरी गर्भवती है। यह आपसे एक बात पूछना चाहती है। परन्तु स्वयं पूछनेमें सकुचाती है। आपलोगोंका ज्ञान अमोघ—अबाध है, आप सर्वज्ञ हैं। इसे पुत्रकी बड़ी लालसा है और अब प्रसवका समय निकट आ गया है। आपलोग बताइये, यह कन्या जनेगी या पुत्र?’॥ १४-१५॥
श्लोक-१६
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं प्रलब्धा मुनयस्तानूचुः कुपिता नृप।
जनयिष्यति वो मन्दा मुसलं कुलनाशनम्॥
मूलम्
एवं प्रलब्धा मुनयस्तानूचुः कुपिता नृप।
जनयिष्यति वो मन्दा मुसलं कुलनाशनम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! जब उन कुमारोंने इस प्रकार उन ऋषि-मुनियोंको धोखा देना चाहा, तब वे भगवत्प्रेरणासे क्रोधित हो उठे। उन्होंने कहा—‘मूर्खो! यह एक ऐसा मूसल पैदा करेगी, जो तुम्हारे कुलका नाश करनेवाला होगा॥ १६॥
श्लोक-१७
विश्वास-प्रस्तुतिः
तच्छ्रुत्वा तेऽतिसन्त्रस्ता विमुच्य सहसोदरम्।
साम्बस्य ददृशुस्तस्मिन् मुसलं खल्वयस्मयम्॥
मूलम्
तच्छ्रुत्वा तेऽतिसन्त्रस्ता विमुच्य सहसोदरम्।
साम्बस्य ददृशुस्तस्मिन् मुसलं खल्वयस्मयम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
मुनियोंकी यह बात सुनकर वे बालक बहुत ही डर गये। उन्होंने तुरंत साम्बका पेट खोलकर देखा तो सचमुच उसमें एक लोहेका मूसल मिला॥ १७॥
श्लोक-१८
विश्वास-प्रस्तुतिः
किं कृतं मन्दभाग्यैर्नः किं वदिष्यन्ति नो जनाः।
इति विह्वलिता गेहानादाय मुसलं ययुः॥
मूलम्
किं कृतं मन्दभाग्यैर्नः किं वदिष्यन्ति नो जनाः।
इति विह्वलिता गेहानादाय मुसलं ययुः॥
अनुवाद (हिन्दी)
अब तो वे पछताने लगे और कहने लगे—‘हम बड़े अभागे हैं। देखो, हमलोगोंने यह क्या अनर्थ कर डाला? अब लोग हमें क्या कहेंगे?’ इस प्रकार वे बहुत ही घबरा गये तथा मूसल लेकर अपने निवासस्थानमें गये॥ १८॥
श्लोक-१९
विश्वास-प्रस्तुतिः
तच्चोपनीय सदसि परिम्लानमुखश्रियः।
राज्ञ आवेदयाञ्चक्रुः सर्वयादवसन्निधौ॥
मूलम्
तच्चोपनीय सदसि परिम्लानमुखश्रियः।
राज्ञ आवेदयाञ्चक्रुः सर्वयादवसन्निधौ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय उनके चेहरे फीके पड़ गये थे। मुख कुम्हला गये थे। उन्होंने भरी सभामें सब यादवोंके सामने ले जाकर वह मूसल रख दिया और राजा उग्रसेनसे सारी घटना कह सुनायी॥ १९॥
श्लोक-२०
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रुत्वामोघं विप्रशापं दृष्ट्वा च मुसलं नृप।
विस्मिता भयसन्त्रस्ता बभूवुर्द्वारकौकसः॥
मूलम्
श्रुत्वामोघं विप्रशापं दृष्ट्वा च मुसलं नृप।
विस्मिता भयसन्त्रस्ता बभूवुर्द्वारकौकसः॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! जब सब लोगोंने ब्राह्मणोंके शापकी बात सुनी और अपनी आँखोंसे उस मूसलको देखा, तब सब-के-सब द्वारकावासी विस्मित और भयभीत हो गये; क्योंकि वे जानते थे कि ब्राह्मणोंका शाप कभी झूठा नहीं होता॥ २०॥
श्लोक-२१
विश्वास-प्रस्तुतिः
तच्चूर्णयित्वा मुसलं यदुराजः स आहुकः।
समुद्रसलिले प्रास्यल्लोहं चास्यावशेषितम्॥
मूलम्
तच्चूर्णयित्वा मुसलं यदुराजः स आहुकः।
समुद्रसलिले प्रास्यल्लोहं चास्यावशेषितम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदुराज उग्रसेनने उस मूसलको चूरा-चूरा करा डाला और उस चूरे तथा लोहेके बचे हुए छोटे टुकड़ेको समुद्रमें फेंकवा दिया। (इसके सम्बन्धमें उन्होंने भगवान् श्रीकृष्णसे कोई सलाह न ली; ऐसी ही उनकी प्रेरणा थी)॥ २१॥
श्लोक-२२
विश्वास-प्रस्तुतिः
कश्चिन्मत्स्योऽग्रसील्लोहं चूर्णानि तरलैस्ततः।
उह्यमानानि वेलायां लग्नान्यासन् किलैरकाः॥
मूलम्
कश्चिन्मत्स्योऽग्रसील्लोहं चूर्णानि तरलैस्ततः।
उह्यमानानि वेलायां लग्नान्यासन् किलैरकाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! उस लोहेके टुकड़ेको एक मछली निगल गयी और चूरा तरंगोंके साथ बह-बहकर समुद्रके किनारे आ लगा। वह थोड़े दिनोंमें एरक(बिना गाँठकी एक घास) के रूपमें उग आया॥ २२॥
श्लोक-२३
विश्वास-प्रस्तुतिः
मत्स्यो गृहीतो मत्स्यघ्नैर्जालेनान्यैः सहार्णवे।
तस्योदरगतं लोहं स शल्ये लुब्धकोऽकरोत्॥
मूलम्
मत्स्यो गृहीतो मत्स्यघ्नैर्जालेनान्यैः सहार्णवे।
तस्योदरगतं लोहं स शल्ये लुब्धकोऽकरोत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
मछली मारनेवाले मछुओंने समुद्रमें दूसरी मछलियोंके साथ उस मछलीको भी पकड़ लिया। उसके पेटमें जो लोहेका टुकड़ा था, उसको जरा नामक व्याधने अपने बाणके नोकमें लगा लिया॥ २३॥
श्लोक-२४
विश्वास-प्रस्तुतिः
भगवाञ्ज्ञातसर्वार्थ ईश्वरोऽपि तदन्यथा।
कर्तुं नैच्छद् विप्रशापं कालरूप्यन्वमोदत॥
मूलम्
भगवाञ्ज्ञातसर्वार्थ ईश्वरोऽपि तदन्यथा।
कर्तुं नैच्छद् विप्रशापं कालरूप्यन्वमोदत॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् सब कुछ जानते थे। वे इस शापको उलट भी सकते थे। फिर भी उन्होंने ऐसा करना उचित न समझा। कालरूपधारी प्रभुने ब्राह्मणोंके शापका अनुमोदन ही किया॥ २४॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
ईश्वरोऽपि अन्यथा कत्तु समर्थोऽपि ॥ २४ ॥
इति श्रीमद्भागवतव्याख्याने एकादशस्कन्धीये श्री सुदर्शनसूरिकृतशुकपक्षीये प्रथमोऽध्यायः ॥ १ ॥
अनुवाद (समाप्ति)
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायामेकादशस्कन्धे प्रथमोऽध्यायः॥ १॥