[नवतितमोऽध्यायः]
भागसूचना
भगवान् श्रीकृष्णके लीला-विहारका वर्णन
श्लोक-१
मूलम् (वचनम्)
श्रीशुक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुखं स्वपुर्यां निवसन् द्वारकायां श्रियः पतिः।
सर्वसंपत्समृद्धायां जुष्टायां वृष्णिपुङ्गवैः॥
मूलम्
सुखं स्वपुर्यां निवसन् द्वारकायां श्रियः पतिः।
सर्वसंपत्समृद्धायां जुष्टायां वृष्णिपुङ्गवैः॥
श्लोक-२
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्त्रीभिश्चोत्तमवेषाभिर्नवयौवनकान्तिभिः।
कन्दुकादिभिर्हर्म्येषु क्रीडन्तीभिस्तडिद्द्युभिः॥
मूलम्
स्त्रीभिश्चोत्तमवेषाभिर्नवयौवनकान्तिभिः।
कन्दुकादिभिर्हर्म्येषु क्रीडन्तीभिस्तडिद्द्युभिः॥
श्लोक-३
विश्वास-प्रस्तुतिः
नित्यं संकुलमार्गायां मदच्युद्भिर्मतङ्गजैः।
स्वलङ्कृतैर्भटैरश्वै रथैश्च कनकोज्ज्वलैः॥
मूलम्
नित्यं संकुलमार्गायां मदच्युद्भिर्मतङ्गजैः।
स्वलङ्कृतैर्भटैरश्वै रथैश्च कनकोज्ज्वलैः॥
श्लोक-४
विश्वास-प्रस्तुतिः
उद्यानोपवनाढ्यायां पुष्पितद्रुमराजिषु।
निर्विशद्भृङ्गविहगैर्नादितायां समन्ततः॥
मूलम्
उद्यानोपवनाढ्यायां पुष्पितद्रुमराजिषु।
निर्विशद्भृङ्गविहगैर्नादितायां समन्ततः॥
श्लोक-५
विश्वास-प्रस्तुतिः
रेमे षोडशसाहस्रपत्नीनामेकवल्लभः।
तावद्विचित्ररूपोऽसौ तद्गृहेषु महर्द्धिषु॥
मूलम्
रेमे षोडशसाहस्रपत्नीनामेकवल्लभः।
तावद्विचित्ररूपोऽसौ तद्गृहेषु महर्द्धिषु॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! द्वारकानगरीकी छटा अलौकिक थी। उसकी सड़कें, मद चूते हुए मतवाले हाथियों, सुसज्जित योद्धाओं, घोड़ों और स्वर्णमय रथोंकी भीड़से सदा-सर्वदा भरी रहती थीं। जिधर देखिये, उधर ही हरे-भरे उपवन और उद्यान लहरा रहे हैं। पाँत-के-पाँत वृक्ष फूलोंसे लदे हुए हैं। उनपर बैठकर भौंरे गुनगुना रहे हैं और तरह-तरहके पक्षी कलरव कर रहे हैं। वह नगरी सब प्रकारकी सम्पत्तियोंसे भरपूर थी। जगत्के श्रेष्ठ वीर यदुवंशी उसका सेवन करनेमें अपना सौभाग्य मानते थे। वहाँकी स्त्रियाँ सुन्दर वेष-भूषासे विभूषित थीं और उनके अंग-अंगसे जवानीकी छटा छिटकती रहती थी। वे जब अपने महलोंमें गेंद आदिके खेल खेलतीं और उनका कोई अंग कभी दीख जाता तो ऐसा जान पड़ता, मानो बिजली चमक रही है। लक्ष्मीपति भगवान्की यही अपनी नगरी द्वारका थी। इसीमें वे निवास करते थे। भगवान् श्रीकृष्ण सोलह हजारसे अधिक पत्नियोंके एकमात्र प्राण-वल्लभ थे। उन पत्नियोंके अलग-अलग महल भी परम ऐश्वर्यसे सम्पन्न थे। जितनी पत्नियाँ थीं, उतने ही अद्भुत रूप धारण करके वे उनके साथ विहार करते थे॥ १—५॥
श्लोक-६
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रोत्फुल्लोत्पलकह्लारकुमुदाम्भोजरेणुभिः।
वासितामलतोयेषु कूजद्द्विजकुलेषु च॥
मूलम्
प्रोत्फुल्लोत्पलकह्लारकुमुदाम्भोजरेणुभिः।
वासितामलतोयेषु कूजद्द्विजकुलेषु च॥
श्लोक-७
विश्वास-प्रस्तुतिः
विजहार विगाह्याम्भो ह्रदिनीषु महोदयः।
कुचकुङ्कुमलिप्ताङ्गः परिरब्धश्च योषिताम्॥
मूलम्
विजहार विगाह्याम्भो ह्रदिनीषु महोदयः।
कुचकुङ्कुमलिप्ताङ्गः परिरब्धश्च योषिताम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
सभी पत्नियोंके महलोंमें सुन्दर-सुन्दर सरोवर थे। उनका निर्मल जल खिले हुए नीले, पीले, श्वेत, लाल आदि भाँति-भाँतिके कमलोंके परागसे महकता रहता था। उनमें झुंड-के-झुंड हंस, सारस आदि सुन्दर-सुन्दर पक्षी चहकते रहते थे। भगवान् श्रीकृष्ण उन जलाशयोंमें तथा कभी-कभी नदियोंके जलमें भी प्रवेश कर अपनी पत्नियोंके साथ जल-विहार करते थे। भगवान्के साथ विहार करनेवाली पत्नियाँ जब उन्हें अपने भुजपाशमें बाँध लेतीं, आलिंगन करतीं, तब भगवान्के श्रीअंगोंमें उनके वक्षःस्थलकी केसर लग जाती थी॥ ६-७॥
श्लोक-८
विश्वास-प्रस्तुतिः
उपगीयमानो गन्धर्वैर्मृदङ्गपणवानकान्।
वादयद्भिर्मुदा वीणां सूतमागधवन्दिभिः॥
मूलम्
उपगीयमानो गन्धर्वैर्मृदङ्गपणवानकान्।
वादयद्भिर्मुदा वीणां सूतमागधवन्दिभिः॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय गन्धर्व उनके यशका गान करने लगते और सूत, मागध एवं वन्दीजन बड़े आनन्दसे मृदंग, ढोल, नगारे और वीणा आदि बाजे बजाने लगते॥ ८॥
श्लोक-९
विश्वास-प्रस्तुतिः
सिच्यमानोऽच्युतस्ताभिर्हसन्तीभिः स्म रेचकैः।
प्रतिषिञ्चन् विचिक्रीडे यक्षीभिर्यक्षराडिव॥
मूलम्
सिच्यमानोऽच्युतस्ताभिर्हसन्तीभिः स्म रेचकैः।
प्रतिषिञ्चन् विचिक्रीडे यक्षीभिर्यक्षराडिव॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान्की पत्नियाँ कभी-कभी हँसते-हँसते पिचकारियोंसे उन्हें भिगो देती थीं। वे भी उनको तर कर देते। इस प्रकार भगवान् अपनी पत्नियोंके साथ क्रीडा करते; मानो यक्षराज कुबेर यक्षिणियोंके साथ विहार कर रहे हों॥ ९॥
श्लोक-१०
विश्वास-प्रस्तुतिः
ताः क्लिन्नवस्त्रविवृतोरुकुचप्रदेशाः
सिञ्चन्त्य उद्धृतबृहत्कबरप्रसूनाः।
कान्तं स्म रेचकजिहीरषयोपगुह्य
जातस्मरोत्सवलसद्वदना विरेजुः॥
मूलम्
ताः क्लिन्नवस्त्रविवृतोरुकुचप्रदेशाः
सिञ्चन्त्य उद्धृतबृहत्कबरप्रसूनाः।
कान्तं स्म रेचकजिहीरषयोपगुह्य
जातस्मरोत्सवलसद्वदना विरेजुः॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय भगवान्की पत्नियोंके वक्षःस्थल और जंघा आदि अंग वस्त्रोंके भीग जानेके कारण उनमेंसे झलकने लगते। उनकी बड़ी-बड़ी चोटियों और जूड़ोंमेंसे गुँथे हुए फूल गिरने लगते, वे उन्हें भिगोते-भिगोते पिचकारी छीन लेनेके लिये उनके पास पहुँच जातीं और इसी बहाने अपने प्रियतमका आलिंगन कर लेतीं। उनके स्पर्शसे पत्नियोंके हृदयमें प्रेम-भावकी अभिवृद्धि हो जाती, जिससे उनका मुखकमल खिल उठता। ऐसे अवसरोंपर उनकी शोभा और भी बढ़ जाया करती॥ १०॥
श्लोक-११
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृष्णस्तु तत्स्तनविषज्जितकुङ्कुमस्रक्
क्रीडाभिषङ्गधुतकुन्तलवृन्दबन्धः।
सिञ्चन् मुहुर्युवतिभिः प्रतिषिच्यमानो
रेमे करेणुभिरिवेभपतिः परीतः॥
मूलम्
कृष्णस्तु तत्स्तनविषज्जितकुङ्कुमस्रक्
क्रीडाभिषङ्गधुतकुन्तलवृन्दबन्धः।
सिञ्चन् मुहुर्युवतिभिः प्रतिषिच्यमानो
रेमे करेणुभिरिवेभपतिः परीतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय भगवान् श्रीकृष्णकी वनमाला उन रानियोंके वक्षःस्थलपर लगी हुई केसरके रंगसे रँग जाती। विहारमें अत्यन्त मग्न हो जानेके कारण घुँघराली अलकें उन्मुक्त भावसे लहराने लगतीं। वे अपनी रानियोंको बार-बार भिगो देते और रानियाँ भी उन्हें सराबोर कर देतीं। भगवान् श्रीकृष्ण उनके साथ इस प्रकार विहार करते, मानो कोई गजराज हथिनियोंसे घिरकर उनके साथ क्रीड़ा कर रहा हो॥ ११॥
श्लोक-१२
विश्वास-प्रस्तुतिः
नटानां नर्तकीनां च गीतवाद्योपजीविनाम्।
क्रीडालङ्कारवासांसि कृष्णोऽदात्तस्य च स्त्रियः॥
मूलम्
नटानां नर्तकीनां च गीतवाद्योपजीविनाम्।
क्रीडालङ्कारवासांसि कृष्णोऽदात्तस्य च स्त्रियः॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् श्रीकृष्ण और उनकी पत्नियाँ क्रीडा करनेके बाद अपने-अपने वस्त्राभूषण उतारकर उन नटों और नर्तकियोंको दे देते, जिनकी जीविका केवल गाना-बजाना ही है॥ १२॥
श्लोक-१३
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृष्णस्यैवं विहरतो गत्यालापेक्षितस्मितैः।
नर्मक्ष्वेलिपरिष्वङ्गैः स्त्रीणां किल हृता धियः॥
मूलम्
कृष्णस्यैवं विहरतो गत्यालापेक्षितस्मितैः।
नर्मक्ष्वेलिपरिष्वङ्गैः स्त्रीणां किल हृता धियः॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! भगवान् इसी प्रकार उनके साथ विहार करते रहते। उनकी चाल-ढाल, बातचीत, चितवन-मुसकान, हास-विलास और आलिंगन आदिसे रानियोंकी चित्तवृत्ति उन्हींकी ओर खिंची रहती। उन्हें और किसी बातका स्मरण ही न होता॥ १३॥
श्लोक-१४
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऊचुर्मुकुन्दैकधियोऽगिर उन्मत्तवज्जडम्।
चिन्तयन्त्योऽरविन्दाक्षं तानि मे गदतः शृणु॥
मूलम्
ऊचुर्मुकुन्दैकधियोऽगिर उन्मत्तवज्जडम्।
चिन्तयन्त्योऽरविन्दाक्षं तानि मे गदतः शृणु॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! रानियोंके जीवन-सर्वस्व, उनके एकमात्र हृदयेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण ही थे। वे कमलनयन श्यामसुन्दरके चिन्तनमें ही इतनी मग्न हो जातीं कि कई देरतक चुप हो रहतीं और फिर उन्मत्तके समान असम्बद्ध बातें कहने लगतीं। कभी-कभी तो भगवान् श्रीकृष्णकी उपस्थितिमें ही प्रेमोन्मादके कारण उनके विरहका अनुभव करने लगतीं। और न जाने क्या-क्या कहने लगतीं। मैं उनकी बात तुम्हें सुनाता हूँ॥ १४॥
श्लोक-१५
मूलम् (वचनम्)
महिष्य ऊचुः
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुररि विलपसि त्वं वीतनिद्रा न शेषे
स्वपिति जगति रात्र्यामीश्वरो गुप्तबोधः।
वयमिव सखि कच्चिद् गाढनिर्भिन्नचेता
नलिननयनहासोदारलीलेक्षितेन॥
मूलम्
कुररि विलपसि त्वं वीतनिद्रा न शेषे
स्वपिति जगति रात्र्यामीश्वरो गुप्तबोधः।
वयमिव सखि कच्चिद् गाढनिर्भिन्नचेता
नलिननयनहासोदारलीलेक्षितेन॥
अनुवाद (हिन्दी)
रानियाँ कहतीं—अरी कुररी! अब तो बड़ी रात हो गयी है। संसारमें सब ओर सन्नाटा छा गया है। देख, इस समय स्वयं भगवान् अपना अखण्ड बोध छिपाकर सो रहे हैं और तुझे नींद ही नहीं आती? तू इस तरह रात-रातभर जगकर विलाप क्यों कर रही है? सखी! कहीं कमलनयन भगवान्के मधुर हास्य और लीलाभरी उदार (स्वीकृतिसूचक) चितवनसे तेरा हृदय भी हमारी ही तरह बिंध तो नहीं गया है?॥ १५॥
श्लोक-१६
विश्वास-प्रस्तुतिः
नेत्रे निमीलयसि नक्तमदृष्टबन्धु-
स्त्वं रोरवीषि करुणं बत चक्रवाकि।
दास्यं गता वयमिवाच्युतपादजुष्टां
किं वा स्रजं स्पृहयसे कबरेण वोढुम्॥
मूलम्
नेत्रे निमीलयसि नक्तमदृष्टबन्धु-
स्त्वं रोरवीषि करुणं बत चक्रवाकि।
दास्यं गता वयमिवाच्युतपादजुष्टां
किं वा स्रजं स्पृहयसे कबरेण वोढुम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
अरी चकवी! तूने रातके समय अपने नेत्र क्यों बंद कर लिये हैं? क्या तेरे पतिदेव कहीं विदेश चले गये हैं कि तू इस प्रकार करुण स्वरसे पुकार रही है? हाय-हाय! तब तो तू बड़ी दुःखिनी है। परन्तु हो-न-हो तेरे हृदयमें भी हमारे ही समान भगवान्की दासी होनेका भाव जग गया है। क्या अब तू उनके चरणोंपर चढ़ायी हुई पुष्पोंकी माला अपनी चोटियोंमें धारण करना चाहती है?॥ १६॥
श्लोक-१७
विश्वास-प्रस्तुतिः
भो भोः सदा निष्टनसे उदन्व-
न्नलब्धनिद्रोऽधिगतप्रजागरः।
किं वा मुकुन्दापहृतात्मलाञ्छनः
प्राप्तां दशां त्वं च गतो दुरत्ययाम्॥
मूलम्
भो भोः सदा निष्टनसे उदन्व-
न्नलब्धनिद्रोऽधिगतप्रजागरः।
किं वा मुकुन्दापहृतात्मलाञ्छनः
प्राप्तां दशां त्वं च गतो दुरत्ययाम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
अहो समुद्र! तुम निरन्तर गरजते ही रहते हो। तुम्हें नींद नहीं आती क्या? जान पड़ता है तुम्हें सदा जागते रहनेका रोग लग गया है। परन्तु नहीं-नहीं, हम समझ गयीं, हमारे प्यारे श्यामसुन्दरने तुम्हारे धैर्य, गाम्भीर्य आदि स्वाभाविक गुण छीन लिये हैं। क्या इसीसे तुम हमारे ही समान ऐसी व्याधिके शिकार हो गये हो, जिसकी कोई दवा नहीं है?॥ १७॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
भो भो इति । तथा वयं मुकुन्दाहृतलाञ्छनाः तदपहृतगाम्भीर्यादिगुणः स्थगितगी: स्थगितबुद्धिः । अपियमितिपदम् ॥ १७-५० ॥
श्लोक-१८
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वं यक्ष्मणा बलवतासि गृहीत इन्दो
क्षीणस्तमो न निजदीधितिभिः क्षिणोषि।
कच्चिन्मुकुन्दगदितानि यथा वयं त्वं
विस्मृत्य भोः स्थगितगीरुपलक्ष्यसे नः॥
मूलम्
त्वं यक्ष्मणा बलवतासि गृहीत इन्दो
क्षीणस्तमो न निजदीधितिभिः क्षिणोषि।
कच्चिन्मुकुन्दगदितानि यथा वयं त्वं
विस्मृत्य भोः स्थगितगीरुपलक्ष्यसे नः॥
अनुवाद (हिन्दी)
चन्द्रदेव! तुम्हें बहुत बड़ा रोग राजयक्ष्मा हो गया है। इसीसे तुम इतने क्षीण हो रहे हो। अरे राम-राम, अब तुम अपनी किरणोंसे अँधेरा भी नहीं हटा सकते! क्या हमारी ही भाँति हमारे प्यारे श्यामसुन्दरकी मीठी-मीठी रहस्यकी बातें भूल जानेके कारण तुम्हारी बोलती बंद हो गयी है? क्या उसीकी चिन्तासे तुम मौन हो रहे हो?॥ १८॥
श्लोक-१९
विश्वास-प्रस्तुतिः
किं त्वाचरितमस्माभिर्मलयानिल तेऽप्रियम्।
गोविन्दापाङ्गनिर्भिन्ने हृदीरयसि नः स्मरम्॥
मूलम्
किं त्वाचरितमस्माभिर्मलयानिल तेऽप्रियम्।
गोविन्दापाङ्गनिर्भिन्ने हृदीरयसि नः स्मरम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
मलयानिल! हमने तेरा क्या बिगाड़ा है, जो तू हमारे हृदयमें कामका संचार कर रहा है? अरे तू नहीं जानता क्या? भगवान्की तिरछी चितवनसे हमारा हृदय तो पहलेसे ही घायल हो गया है॥ १९॥
श्लोक-२०
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेघ श्रीमंस्त्वमसि दयितो
यादवेन्द्रस्य नूनं
श्रीवत्साङ्कं वयमिव भवान्
ध्यायति प्रेमबद्धः।
अत्युत्कण्ठः शबलहृदयो-
ऽस्मद्विधो बाष्पधाराः
स्मृत्वा स्मृत्वा विसृजसि मुहु-
र्दुःखदस्तत्प्रसङ्गः॥
मूलम्
मेघ श्रीमंस्त्वमसि दयितो
यादवेन्द्रस्य नूनं
श्रीवत्साङ्कं वयमिव भवान्
ध्यायति प्रेमबद्धः।
अत्युत्कण्ठः शबलहृदयो-
ऽस्मद्विधो बाष्पधाराः
स्मृत्वा स्मृत्वा विसृजसि मुहु-
र्दुःखदस्तत्प्रसङ्गः॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीमन् मेघ! तुम्हारे शरीरका सौन्दर्य तो हमारे प्रियतम-जैसा ही है। अवश्य ही तुम यदुवंशशिरोमणि भगवान्के परम प्यारे हो। तभी तो तुम हमारी ही भाँति प्रेमपाशमें बँधकर उनका ध्यान कर रहे हो! देखो-देखो! तुम्हारा हृदय चिन्तासे भर रहा है, तुम उनके लिये अत्यन्त उत्कण्ठित हो रहे हो! तभी तो बार-बार उनकी याद करके हमारी ही भाँति आँसूकी धारा बहा रहे हो। श्यामघन! सचमुच घनश्यामसे नाता जोड़ना घर बैठे पीड़ा मोल लेना है॥ २०॥
श्लोक-२१
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रियरावपदानि भाषसे मृत-
सञ्जीविकयानया गिरा।
करवाणि किमद्य ते प्रियं
वद मे वल्गितकण्ठ कोकिल॥
मूलम्
प्रियरावपदानि भाषसे मृत-
सञ्जीविकयानया गिरा।
करवाणि किमद्य ते प्रियं
वद मे वल्गितकण्ठ कोकिल॥
अनुवाद (हिन्दी)
री कोयल! तेरा गला बड़ा ही सुरीला है, मीठी बोली बोलनेवाले हमारे प्राणप्यारेके समान ही मधुर स्वरसे तू बोलती है। सचमुच तेरी बोलीमें सुधा घोली हुई है, जो प्यारेके विरहसे मरे हुए प्रेमियोंको जिलानेवाली है। तू ही बता, इस समय हम तेरा क्या प्रिय करें?॥ २१॥
श्लोक-२२
विश्वास-प्रस्तुतिः
न चलसि न वदस्युदारबुद्धे
क्षितिधर चिन्तयसे महान्तमर्थम्।
अपि बत वसुदेवनन्दनाङ्घ्रिं
वयमिव कामयसे स्तनैर्विधर्तुम्॥
मूलम्
न चलसि न वदस्युदारबुद्धे
क्षितिधर चिन्तयसे महान्तमर्थम्।
अपि बत वसुदेवनन्दनाङ्घ्रिं
वयमिव कामयसे स्तनैर्विधर्तुम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रिय पर्वत! तुम तो बड़े उदार विचारके हो। तुमने ही पृथ्वीको भी धारण कर रखा है। न तुम हिलते-डोलते हो और न कुछ कहते-सुनते हो। जान पड़ता है कि किसी बड़ी बातकी चिन्तामें मग्न हो रहे हो। ठीक है, ठीक है; हम समझ गयीं। तुम हमारी ही भाँति चाहते हो कि अपने स्तनोंके समान बहुत-से शिखरोंपर मैं भी भगवान् श्यामसुन्दरके चरण-कमल धारण करूँ॥ २२॥
श्लोक-२३
विश्वास-प्रस्तुतिः
शुष्यद्ध्रदाः कर्शिता बत सिन्धुपत्न्यः
सम्प्रत्यपास्तकमलश्रिय इष्टभर्तुः।
यद्वद् वयं मधुपतेः प्रणयावलोक-
मप्राप्य मुष्टहृदयाः पुरुकर्शिताः स्म॥
मूलम्
शुष्यद्ध्रदाः कर्शिता बत सिन्धुपत्न्यः
सम्प्रत्यपास्तकमलश्रिय इष्टभर्तुः।
यद्वद् वयं मधुपतेः प्रणयावलोक-
मप्राप्य मुष्टहृदयाः पुरुकर्शिताः स्म॥
अनुवाद (हिन्दी)
समुद्रपत्नी नदियो! यह ग्रीष्म ऋतु है। तुम्हारे कुण्ड सूख गये हैं। अब तुम्हारे अंदर खिले हुए कमलोंका सौन्दर्य नहीं दीखता। तुम बहुत दुबली-पतली हो गयी हो। जान पड़ता है, जैसे हम अपने प्रियतम श्यामसुन्दरकी प्रेमभरी चितवन न पाकर अपना हृदय खो बैठी हैं और अत्यन्त दुबली-पतली हो गयी हैं, वैसे ही तुम भी मेघोंके द्वारा अपने प्रियतम समुद्रका जल न पाकर ऐसी दीन-हीन हो गयी हो॥ २३॥
श्लोक-२४
विश्वास-प्रस्तुतिः
हंस स्वागतमास्यतां पिब पयो
ब्रूह्यङ्ग शौरेः कथां
दूतं त्वां नु विदाम कच्चिदजितः
स्वस्त्यास्त उक्तं पुरा।
किं वा नश्चलसौहृदः स्मरति तं
कस्माद् भजामो वयं
क्षौद्रालापय कामदं श्रियमृते
सैवैकनिष्ठा स्त्रियाम्॥
मूलम्
हंस स्वागतमास्यतां पिब पयो
ब्रूह्यङ्ग शौरेः कथां
दूतं त्वां नु विदाम कच्चिदजितः
स्वस्त्यास्त उक्तं पुरा।
किं वा नश्चलसौहृदः स्मरति तं
कस्माद् भजामो वयं
क्षौद्रालापय कामदं श्रियमृते
सैवैकनिष्ठा स्त्रियाम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
हंस! आओ, आओ! भले आये, स्वागत है। आसनपर बैठो; लो, दूध पियो। प्रिय हंस! श्यामसुन्दरकी कोई बात तो सुनाओ। हम समझती हैं कि तुम उनके दूत हो। किसीके वशमें न होनेवाले श्यामसुन्दर सकुशल तो हैं न? अरे भाई! उनकी मित्रता तो बड़ी अस्थिर है, क्षणभंगुर है। एक बात तो बतलाओ, उन्होंने हमसे कहा था कि तुम्हीं हमारी परम प्रियतमा हो। क्या अब उन्हें यह बात याद है? जाओ, जाओ; हम तुम्हारी अनुनय-विनय नहीं सुनतीं। जब वे हमारी परवा नहीं करते, तो हम उनके पीछे क्यों मरें? क्षुद्रके दूत! हम उनके पास नहीं जातीं। क्या कहा? वे हमारी इच्छा पूर्ण करनेके लिये ही आना चाहते हैं, अच्छा! तब उन्हें तो यहाँ बुला लाना, हमसे बातें कराना, परन्तु कहीं लक्ष्मीको साथ न ले आना। तब क्या वे लक्ष्मीको छोड़कर यहाँ नहीं आना चाहते? यह कैसी बात है? क्या स्त्रियोंमें लक्ष्मी ही एक ऐसी हैं, जिनका भगवान्से अनन्य प्रेम है? क्या हममेंसे कोई एक भी वैसी नहीं है?॥ २४॥
श्लोक-२५
विश्वास-प्रस्तुतिः
इतीदृशेन भावेन कृष्णे योगेश्वरेश्वरे।
क्रियमाणेन माधव्यो लेभिरे परमां गतिम्॥
मूलम्
इतीदृशेन भावेन कृष्णे योगेश्वरेश्वरे।
क्रियमाणेन माधव्यो लेभिरे परमां गतिम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! श्रीकृष्ण-पत्नियाँ योगेश्वरेश्वर भगवान् श्रीकृष्णमें ऐसा ही अनन्य प्रेम-भाव रखती थीं। इसीसे उन्होंने परमपद प्राप्त किया॥ २५॥
श्लोक-२६
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रुतमात्रोऽपि यः स्त्रीणां प्रसह्याकर्षते मनः।
उरुगायोरुगीतो वा पश्यन्तीनां कुतः पुनः॥
मूलम्
श्रुतमात्रोऽपि यः स्त्रीणां प्रसह्याकर्षते मनः।
उरुगायोरुगीतो वा पश्यन्तीनां कुतः पुनः॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् श्रीकृष्णकी लीलाएँ अनेकों प्रकारसे अनेकों गीतोंद्वारा गान की गयी हैं। वे इतनी मधुर, इतनी मनोहर हैं कि उनके सुननेमात्रसे स्त्रियोंका मन बलात् उनकी ओर खिंच जाता है। फिर जो स्त्रियाँ उन्हें अपने नेत्रोंसे देखती थीं, उनके सम्बन्धमें तो कहना ही क्या है॥ २६॥
श्लोक-२७
विश्वास-प्रस्तुतिः
याः सम्पर्यचरन् प्रेम्णा पादसंवाहनादिभिः।
जगद्गुरुं भर्तृबुद्ध्या तासां किं वर्ण्यते तपः॥
मूलम्
याः सम्पर्यचरन् प्रेम्णा पादसंवाहनादिभिः।
जगद्गुरुं भर्तृबुद्ध्या तासां किं वर्ण्यते तपः॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिन बड़भागिनी स्त्रियोंने जगद्गुरु भगवान् श्रीकृष्णको अपना पति मानकर परम प्रेमसे उनके चरण–कमलोंको सहलाया, उन्हें नहलाया-धुलाया, खिलाया-पिलाया, तरह-तरहसे उनकी सेवा की, उनकी तपस्याका वर्णन तो भला, किया ही कैसे जा सकता है॥ २७॥
श्लोक-२८
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं वेदोदितं धर्ममनुतिष्ठन् सतां गतिः।
गृहं धर्मार्थकामानां मुहुश्चादर्शयत् पदम्॥
मूलम्
एवं वेदोदितं धर्ममनुतिष्ठन् सतां गतिः।
गृहं धर्मार्थकामानां मुहुश्चादर्शयत् पदम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्ण सत्पुरुषोंके एकमात्र आश्रय हैं। उन्होंने वेदोक्त धर्मका बार-बार आचरण करके लोगोंको यह बात दिखला दी कि घर ही धर्म, अर्थ और काम—साधनका स्थान है॥ २८॥
श्लोक-२९
विश्वास-प्रस्तुतिः
आस्थितस्य परं धर्मं कृष्णस्य गृहमेधिनाम्।
आसन् षोडशसाहस्रं महिष्यश्च शताधिकम्॥
मूलम्
आस्थितस्य परं धर्मं कृष्णस्य गृहमेधिनाम्।
आसन् षोडशसाहस्रं महिष्यश्च शताधिकम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसीलिये वे गृहस्थोचित श्रेष्ठ धर्मका आश्रय लेकर व्यवहार कर रहे थे। परीक्षित्! मैं तुमसे कह ही चुका हूँ कि उनकी रानियोंकी संख्या थी सोलह हजार एक सौ आठ॥ २९॥
श्लोक-३०
विश्वास-प्रस्तुतिः
तासां स्त्रीरत्नभूतानामष्टौ याः प्रागुदाहृताः।
रुक्मिणीप्रमुखा राजंस्तत्पुत्राश्चानुपूर्वशः॥
मूलम्
तासां स्त्रीरत्नभूतानामष्टौ याः प्रागुदाहृताः।
रुक्मिणीप्रमुखा राजंस्तत्पुत्राश्चानुपूर्वशः॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन श्रेष्ठ स्त्रियोंमेंसे रुक्मिणी आदि आठ पटरानियों और उनके पुत्रोंका तो मैं पहले ही क्रमसे वर्णन कर चुका हूँ॥ ३०॥
श्लोक-३१
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकैकस्यां दश दश कृष्णोऽजीजनदात्मजान्।
यावत्य आत्मनो भार्या अमोघगतिरीश्वरः॥
मूलम्
एकैकस्यां दश दश कृष्णोऽजीजनदात्मजान्।
यावत्य आत्मनो भार्या अमोघगतिरीश्वरः॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके अतिरिक्त भगवान् श्रीकृष्णकी और जितनी पत्नियाँ थीं, उनसे भी प्रत्येकके दस-दस पुत्र उत्पन्न किये। यह कोई आश्चर्यकी बात नहीं है। क्योंकि भगवान् सर्वशक्तिमान् और सत्यसंकल्प हैं॥ ३१॥
श्लोक-३२
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेषामुद्दामवीर्याणामष्टादश महारथाः।
आसन्नुदारयशसस्तेषां नामानि मे शृणु॥
मूलम्
तेषामुद्दामवीर्याणामष्टादश महारथाः।
आसन्नुदारयशसस्तेषां नामानि मे शृणु॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान्के परम पराक्रमी पुत्रोंमें अठारह तो महारथी थे, जिनका यश सारे जगत्में फैला हुआ था। उनके नाम मुझसे सुनो॥ ३२॥
श्लोक-३३
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रद्युम्नश्चानिरुद्धश्च दीप्तिमान् भानुरेव च।
साम्बो मधुर्बृहद्भानुश्चित्रभानुर्वृकोऽरुणः॥
मूलम्
प्रद्युम्नश्चानिरुद्धश्च दीप्तिमान् भानुरेव च।
साम्बो मधुर्बृहद्भानुश्चित्रभानुर्वृकोऽरुणः॥
श्लोक-३४
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुष्करो वेदबाहुश्च श्रुतदेवः सुनन्दनः।
चित्रबाहुर्विरूपश्च कविर्न्यग्रोध एव च॥
मूलम्
पुष्करो वेदबाहुश्च श्रुतदेवः सुनन्दनः।
चित्रबाहुर्विरूपश्च कविर्न्यग्रोध एव च॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रद्युम्न, अनिरुद्ध, दीप्तिमान्, भानु, साम्ब, मधु, बृहद्भानु, चित्रभानु, वृक, अरुण, पुष्कर, वेदबाहु, श्रुतदेव, सुनन्दन, चित्रबाहु, विरूप, कवि और न्यग्रोध॥ ३३-३४॥
श्लोक-३५
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतेषामपि राजेन्द्र तनुजानां मधुद्विषः।
प्रद्युम्न आसीत् प्रथमः पितृवद् रुक्मिणीसुतः॥
मूलम्
एतेषामपि राजेन्द्र तनुजानां मधुद्विषः।
प्रद्युम्न आसीत् प्रथमः पितृवद् रुक्मिणीसुतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजेन्द्र! भगवान् श्रीकृष्णके इन पुत्रोंमें भी सबसे श्रेष्ठ रुक्मिणीनन्दन प्रद्युम्नजी थे। वे सभी गुणोंमें अपने पिताके समान ही थे॥ ३५॥
श्लोक-३६
विश्वास-प्रस्तुतिः
स रुक्मिणो दुहितरमुपयेमे महारथः।
तस्मात् सुतोऽनिरुद्धोऽभून्नागायुतबलान्वितः॥
मूलम्
स रुक्मिणो दुहितरमुपयेमे महारथः।
तस्मात् सुतोऽनिरुद्धोऽभून्नागायुतबलान्वितः॥
अनुवाद (हिन्दी)
महारथी प्रद्युम्नने रुक्मीकी कन्यासे अपना विवाह किया था। उसीके गर्भसे अनिरुद्धजीका जन्म हुआ। उनमें दस हजार हाथियोंका बल था॥ ३६॥
श्लोक-३७
विश्वास-प्रस्तुतिः
स चापि रुक्मिणः पौत्रीं दौहित्रो जगृहे ततः।
वज्रस्तस्याभवद् यस्तु मौसलादवशेषितः॥
मूलम्
स चापि रुक्मिणः पौत्रीं दौहित्रो जगृहे ततः।
वज्रस्तस्याभवद् यस्तु मौसलादवशेषितः॥
अनुवाद (हिन्दी)
रुक्मीके दौहित्र अनिरुद्धजीने अपने नानाकी पोतीसे विवाह किया। उसके गर्भसे वज्रका जन्म हुआ। ब्राह्मणोंके शापसे पैदा हुए मूसलके द्वारा यदुवंशका नाश हो जानेपर एकमात्र वे ही बच रहे थे॥ ३७॥
श्लोक-३८
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रतिबाहुरभूत्तस्मात् सुबाहुस्तस्य चात्मजः।
सुबाहोः शान्तसेनोऽभूच्छतसेनस्तु तत्सुतः॥
मूलम्
प्रतिबाहुरभूत्तस्मात् सुबाहुस्तस्य चात्मजः।
सुबाहोः शान्तसेनोऽभूच्छतसेनस्तु तत्सुतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
वज्रके पुत्र हैं प्रतिबाहु, प्रतिबाहुके सुबाहु, सुबाहुके शान्तसेन और शान्तसेनके शतसेन॥ ३८॥
श्लोक-३९
विश्वास-प्रस्तुतिः
नह्येतस्मिन्कुले जाता अधना अबहुप्रजाः।
अल्पायुषोऽल्पवीर्याश्च अब्रह्मण्याश्च जज्ञिरे॥
मूलम्
नह्येतस्मिन्कुले जाता अधना अबहुप्रजाः।
अल्पायुषोऽल्पवीर्याश्च अब्रह्मण्याश्च जज्ञिरे॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! इस वंशमें कोई भी पुरुष ऐसा न हुआ जो बहुत-सी सन्तानवाला न हो तथा जो निर्धन, अल्पायु और अल्पशक्ति हो। वे सभी ब्राह्मणोंके भक्त थे॥ ३९॥
श्लोक-४०
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदुवंशप्रसूतानां पुंसां विख्यातकर्मणाम्।
संख्या न शक्यते कर्तुमपि वर्षायुतैर्नृप॥
मूलम्
यदुवंशप्रसूतानां पुंसां विख्यातकर्मणाम्।
संख्या न शक्यते कर्तुमपि वर्षायुतैर्नृप॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! यदुवंशमें ऐसे-ऐसे यशस्वी और पराक्रमी पुरुष हुए हैं, जिनकी गिनती भी हजारों वर्षोंमें पूरी नहीं हो सकती॥ ४०॥
श्लोक-४१
विश्वास-प्रस्तुतिः
तिस्रः कोट्यः सहस्राणामष्टाशीतिशतानि च।
आसन् यदुकुलाचार्याः कुमाराणामिति श्रुतम्॥
मूलम्
तिस्रः कोट्यः सहस्राणामष्टाशीतिशतानि च।
आसन् यदुकुलाचार्याः कुमाराणामिति श्रुतम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैंने ऐसा सुना है कि यदुवंशके बालकोंको शिक्षा देनेके लिये तीन करोड़ अट्ठासी लाख आचार्य थे॥ ४१॥
श्लोक-४२
विश्वास-प्रस्तुतिः
संख्यानं यादवानां कः करिष्यति महात्मनाम्।
यत्रायुतानामयुतलक्षेणास्ते स आहुकः॥
मूलम्
संख्यानं यादवानां कः करिष्यति महात्मनाम्।
यत्रायुतानामयुतलक्षेणास्ते स आहुकः॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसी स्थितिमें महात्मा यदुवंशियोंकी संख्या तो बतायी ही कैसे जा सकती है! स्वयं महाराज उग्रसेनके साथ एक नील (१०००००००००००००) के लगभग सैनिक रहते थे॥ ४२॥
श्लोक-४३
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवासुराहवहता दैतेया ये सुदारुणाः।
ते चोत्पन्ना मनुष्येषु प्रजा दृप्ता बबाधिरे॥
मूलम्
देवासुराहवहता दैतेया ये सुदारुणाः।
ते चोत्पन्ना मनुष्येषु प्रजा दृप्ता बबाधिरे॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! प्राचीन कालमें देवासुरसंग्रामके समय बहुत-से भयंकर असुर मारे गये थे। वे ही मनुष्योंमें उत्पन्न हुए और बड़े घमंडसे जनताको सताने लगे॥ ४३॥
श्लोक-४४
विश्वास-प्रस्तुतिः
तन्निग्रहाय हरिणा प्रोक्ता देवा यदोः कुले।
अवतीर्णाः कुलशतं तेषामेकाधिकं नृप॥
मूलम्
तन्निग्रहाय हरिणा प्रोक्ता देवा यदोः कुले।
अवतीर्णाः कुलशतं तेषामेकाधिकं नृप॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनका दमन करनेके लिये भगवान्की आज्ञासे देवताओंने ही यदुवंशमें अवतार लिया था। परीक्षित्! उनके कुलोंकी संख्या एक सौ एक थी॥ ४४॥
श्लोक-४५
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेषां प्रमाणं भगवान् प्रभुत्वेनाभवद्धरिः।
ये चानुवर्तिनस्तस्य ववृधुः सर्वयादवाः॥
मूलम्
तेषां प्रमाणं भगवान् प्रभुत्वेनाभवद्धरिः।
ये चानुवर्तिनस्तस्य ववृधुः सर्वयादवाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे सब भगवान् श्रीकृष्णको ही अपना स्वामी एवं आदर्श मानते थे। जो यदुवंशी उनके अनुयायी थे, उनकी सब प्रकारसे उन्नति हुई॥ ४५॥
श्लोक-४६
विश्वास-प्रस्तुतिः
शय्यासनाटनालापक्रीडास्नानादिकर्मसु।
न विदुः सन्तमात्मानं वृष्णयः कृष्णचेतसः॥
मूलम्
शय्यासनाटनालापक्रीडास्नानादिकर्मसु।
न विदुः सन्तमात्मानं वृष्णयः कृष्णचेतसः॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदुवंशियोंका चित्त इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्णमें लगा रहता था कि उन्हें सोने-बैठने, घूमने-फिरने, बोलने-खेलने और नहाने-धोने आदि कामोंमें अपने शरीरकी भी सुधि न रहती थी। वे जानते ही न थे कि हमारा शरीर क्या कर रहा है। उनकी समस्त शारीरिक क्रियाएँ यन्त्रकी भाँति अपने-आप होती रहती थीं॥ ४६॥
श्लोक-४७
विश्वास-प्रस्तुतिः
तीर्थं चक्रे नृपोनं यदजनि यदुषु
स्वःसरित्पादशौचं
विद्विट्स्निग्धाः स्वरूपं ययुरजितपरा
श्रीर्यदर्थेऽन्ययत्नः।
यन्नामामङ्गलघ्नं श्रुतमथ गदितं
यत्कृतो गोत्रधर्मः
कृष्णस्यैतन्न चित्रं क्षितिभरहरणं
कालचक्रायुधस्य॥
मूलम्
तीर्थं चक्रे नृपोनं यदजनि यदुषु
स्वःसरित्पादशौचं
विद्विट्स्निग्धाः स्वरूपं ययुरजितपरा
श्रीर्यदर्थेऽन्ययत्नः।
यन्नामामङ्गलघ्नं श्रुतमथ गदितं
यत्कृतो गोत्रधर्मः
कृष्णस्यैतन्न चित्रं क्षितिभरहरणं
कालचक्रायुधस्य॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! भगवान्का चरणधोवन गंगाजी अवश्य ही समस्त तीर्थोंमें महान् एवं पवित्र हैं। परन्तु जब स्वयं परमतीर्थस्वरूप भगवान्ने ही यदुवंशमें अवतार ग्रहण किया, तब तो गंगाजलकी महिमा अपने-आप ही उनके सुयशतीर्थकी अपेक्षा कम हो गयी। भगवान्के स्वरूपकी यह कितनी बड़ी महिमा है कि उनसे प्रेम करनेवाले भक्त और द्वेष करनेवाले शत्रु दोनों ही उनके स्वरूपको प्राप्त हुए। जिस लक्ष्मीको प्राप्त करनेके लिये बड़े-बड़े देवता यत्न करते रहते हैं, वे ही भगवान्की सेवामें नित्य-निरन्तर लगी रहती हैं। भगवान्का नाम एक बार सुनने अथवा उच्चारण करनेसे ही सारे अमंगलोंको नष्ट कर देता है। ऋषियोंके वंशजोंमें जितने भी धर्म प्रचलित हैं, सबके संस्थापक भगवान् श्रीकृष्ण ही हैं। वे अपने हाथमें काल-स्वरूप चक्र लिये रहते हैं। परीक्षित्! ऐसी स्थितिमें वे पृथ्वीका भार उतार देते हैं, यह कौन बड़ी बात है॥ ४७॥
श्लोक-४८
विश्वास-प्रस्तुतिः
जयति जननिवासो देवकीजन्मवादो
यदुवरपर्षत्स्वैर्दोर्भिरस्यन्नधर्मम्।
स्थिरचरवृजिनघ्नः सुस्मितश्रीमुखेन
व्रजपुरवनितानां वर्धयन् कामदेवम्॥
मूलम्
जयति जननिवासो देवकीजन्मवादो
यदुवरपर्षत्स्वैर्दोर्भिरस्यन्नधर्मम्।
स्थिरचरवृजिनघ्नः सुस्मितश्रीमुखेन
व्रजपुरवनितानां वर्धयन् कामदेवम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् श्रीकृष्ण ही समस्त जीवोंके आश्रयस्थान हैं। यद्यपि वे सदा-सर्वदा सर्वत्र उपस्थित ही रहते हैं, फिर भी कहनेके लिये उन्होंने देवकीजीके गर्भसे जन्म लिया है। यदुवंशी वीर पार्षदोंके रूपमें उनकी सेवा करते रहते हैं। उन्होंने अपने भुजबलसे अधर्मका अन्त कर दिया है। परीक्षित्! भगवान् स्वभावसे ही चराचर जगत्का दुःख मिटाते रहते हैं। उनका मन्द-मन्द मुसकानसे युक्त सुन्दर मुखारविन्द व्रजस्त्रियों और पुरस्त्रियोंके हृदयमें प्रेम-भावका संचार करता रहता है। वास्तवमें सारे जगत् पर वही विजयी हैं। उन्हींकी जय हो! जय हो!!॥ ४८॥
श्लोक-४९
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्थं परस्य निजवर्त्मरिरक्षयाऽऽत्त-
लीलातनोस्तदनुरूपविडम्बनानि।
कर्माणि कर्मकषणानि यदूत्तमस्य
श्रूयादमुष्य पदयोरनुवृत्तिमिच्छन्॥
मूलम्
इत्थं परस्य निजवर्त्मरिरक्षयाऽऽत्त-
लीलातनोस्तदनुरूपविडम्बनानि।
कर्माणि कर्मकषणानि यदूत्तमस्य
श्रूयादमुष्य पदयोरनुवृत्तिमिच्छन्॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! प्रकृतिसे अतीत परमात्माने अपने द्वारा स्थापित धर्म-मर्यादाकी रक्षाके लिये दिव्य लीला-शरीर ग्रहण किया और उसके अनुरूप अनेकों अद्भुत चरित्रोंका अभिनय किया। उनका एक-एक कर्मस्मरण करनेवालोंके कर्मबन्धनोंको काट डालनेवाला है। जो यदुवंशशिरोमणि भगवान् श्रीकृष्णके चरणकमलोंकी सेवाका अधिकार प्राप्त करना चाहे, उसे उनकी लीलाओंका ही श्रवण करना चाहिये॥ ४९॥
श्लोक-५०
विश्वास-प्रस्तुतिः
मर्त्यस्तयानुसवमेधितया मुकुन्द-
श्रीमत्कथाश्रवणकीर्तनचिन्तयैति।
तद्धाम दुस्तरकृतान्तजवापवर्गं
ग्रामाद् वनं क्षितिभुजोऽपि ययुर्यदर्थाः॥
मूलम्
मर्त्यस्तयानुसवमेधितया मुकुन्द-
श्रीमत्कथाश्रवणकीर्तनचिन्तयैति।
तद्धाम दुस्तरकृतान्तजवापवर्गं
ग्रामाद् वनं क्षितिभुजोऽपि ययुर्यदर्थाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! जब मनुष्य प्रतिक्षण भगवान् श्रीकृष्णकी मनोहारिणी लीला-कथाओंका अधिकाधिक श्रवण, कीर्तन और चिन्तन करने लगता है, तब उसकी यही भक्ति उसे भगवान्के परमधाममें पहुँचा देती है। यद्यपि कालकी गतिके परे पहुँच जाना बहुत ही कठिन है, परन्तु भगवान्के धाममें कालकी दाल नहीं गलती। वह वहाँतक पहुँच ही नहीं पाता। उसी धामकी प्राप्तिके लिये अनेक सम्राटोंने अपना राजपाट छोड़कर तपस्या करनेके उद्देश्यसे जंगलकी यात्रा की है। इसलिये मनुष्यको उनकी लीला-कथाका ही श्रवण करना चाहिये॥ ५०॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
“मस्त्यस्तयानुसवमेधितया मुकुन्द श्रीमत्कथाश्रवणवर्णनचिन्तयैति ।
तद्धाम दुस्त्यजकृतान्तजवापवर्गं ग्रामाद्वनं क्षितिभुजोऽपि ययुर्यदर्थाः ॥”
यद्भगः यस्य भगः उभयदृशीनां मनुष्यभावम् ईश्वरत्वं च पश्यन्तीनाम् अनुसवं अनुसन्ध्यं दुस्तरकृतान्तजवापवर्गम् । दुस्तरः कृतान्तो येषां तेषां जनानां दुःखापवर्गहेतुं धाम स्थानम् ॥
“चित्रं न चैतदुरुगायपवित्रलीलाविष्टब्धकल्मषकदम्बकमुक्तिरूपम् ।
स्त्रीणां सुदुस्त्यजकृतान्तजवापवर्गं ग्रामाद्वनं क्षितिभुजोऽपि ययुर्यदर्थाः ॥ "
इति श्रीहारीतकुलतिलकवाग्विजयसूनुना श्रीरङ्गराजदिव्याज्ञालब्धवेदव्यासापरनामधेय श्रीसुदर्शनसूरिणाभिहिते श्रीमद्भागवतमहापुराणे व्याख्याने श्रीशुकपक्षीये दशमस्कन्धे नवतितमोऽध्यायः ॥ ९० ॥
श्रीमते रामानुजाय नमः ॥
अनुवाद (समाप्ति)
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे वैयासिक्यामष्टादशसाहस्र्यां पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे उत्तरार्धे श्रीकृष्णचरितानुवर्णनं नाम नवतितमोऽध्यायः॥ ९०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मूलम्
अनुवाद (समाप्ति)
॥ इति दशमस्कन्धोत्तरार्धः समाप्तः॥
॥ हरिः ॐ तत्सत्॥