८९ द्विजकुमारानयनम्

[एकोननवतितमोऽध्यायः]

भागसूचना

भृगुजीके द्वारा त्रिदेवोंकी परीक्षा तथा भगवान‍्का मरे हुए ब्राह्मण-बालकोंको वापस लाना

श्लोक-१

मूलम् (वचनम्)

श्रीशुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

सरस्वत्यास्तटे राजन्नृषयः सत्रमासत।
वितर्कः समभूत्तेषां त्रिष्वधीशेषु को महान्॥

मूलम्

सरस्वत्यास्तटे राजन्नृषयः सत्रमासत।
वितर्कः समभूत्तेषां त्रिष्वधीशेषु को महान्॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! एक बार सरस्वती नदीके पावन तटपर यज्ञ प्रारम्भ करनेके लिये बड़े-बड़े ऋषि-मुनि एकत्र होकर बैठे। उन लोगोंमें इस विषयपर वाद-विवाद चला कि ब्रह्मा, शिव और विष्णुमें सबसे बड़ा कौन है?॥ १॥

श्लोक-२

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य जिज्ञासया ते वै भृगुं ब्रह्म सुतं नृप।
तज्ज्ञप्त्यै प्रेषयामासुः सोऽभ्यगाद् ब्रह्मणः सभाम्॥

मूलम्

तस्य जिज्ञासया ते वै भृगुं ब्रह्म सुतं नृप।
तज्ज्ञप्त्यै प्रेषयामासुः सोऽभ्यगाद् ब्रह्मणः सभाम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! उन लोगोंने यह बात जाननेके लिये ब्रह्मा, विष्णु और शिवकी परीक्षा लेनेके उद्देश्यसे ब्रह्माके पुत्र भृगुजीको उनके पास भेजा। महर्षि भृगु सबसे पहले ब्रह्माजीकी सभामें गये॥ २॥

श्लोक-३

विश्वास-प्रस्तुतिः

न तस्मै प्रह्वणं स्तोत्रं चक्रे सत्त्वपरीक्षया।
तस्मै चुक्रोध भगवान् प्रज्वलन् स्वेन तेजसा॥

मूलम्

न तस्मै प्रह्वणं स्तोत्रं चक्रे सत्त्वपरीक्षया।
तस्मै चुक्रोध भगवान् प्रज्वलन् स्वेन तेजसा॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने ब्रह्माजीके धैर्य आदिकी परीक्षा करनेके लिये न उन्हें नमस्कार किया और न तो उनकी स्तुति ही की। इसपर ऐसा मालूम हुआ कि ब्रह्माजी अपने तेजसे दहक रहे हैं। उन्हें क्रोध आ गया॥ ३॥

श्लोक-४

विश्वास-प्रस्तुतिः

स आत्मन्युत्थितं मन्युमात्मजायात्मना प्रभुः।
अशीशमद् यथा वह्निं स्वयोन्या वारिणाऽऽत्मभूः॥

मूलम्

स आत्मन्युत्थितं मन्युमात्मजायात्मना प्रभुः।
अशीशमद् यथा वह्निं स्वयोन्या वारिणाऽऽत्मभूः॥

अनुवाद (हिन्दी)

परन्तु जब समर्थ ब्रह्माजीने देखा कि यह तो मेरा पुत्र ही है, तब अपने मनमें उठे हुए क्रोधको भीतर-ही-भीतर विवेकबुद्धिसे दबा लिया; ठीक वैसे ही, जैसे कोई अरणि-मन्थनसे उत्पन्न अग्निको जलसे बुझा दे॥ ४॥

श्लोक-५

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः कैलासमगमत् स तं देवो महेश्वरः।
परिरब्धुं समारेभे उत्थाय भ्रातरं मुदा॥

मूलम्

ततः कैलासमगमत् स तं देवो महेश्वरः।
परिरब्धुं समारेभे उत्थाय भ्रातरं मुदा॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँसे महर्षि भृगु कैलासमें गये। देवाधिदेव भगवान् शंकरने जब देखा कि मेरे भाई भृगुजी आये हैं, तब उन्होंने बड़े आनन्दसे खड़े होकर उनका आलिंगन करनेके लिये भुजाएँ फैला दीं॥ ५॥

श्लोक-६

विश्वास-प्रस्तुतिः

नैच्छत्त्वमस्युत्पथग इति देवश्चुकोप ह।
शूलमुद्यम्य तं हन्तुमारेभे तिग्मलोचनः॥

मूलम्

नैच्छत्त्वमस्युत्पथग इति देवश्चुकोप ह।
शूलमुद्यम्य तं हन्तुमारेभे तिग्मलोचनः॥

अनुवाद (हिन्दी)

परन्तु महर्षि भृगुने उनसे आलिंगन करना स्वीकार न किया और कहा—‘तुम लोक और वेदकी मर्यादाका उल्लंघन करते हो, इसलिये मैं तुमसे नहीं मिलता।’ भृगुजीकी यह बात सुनकर भगवान् शंकर क्रोधके मारे तिलमिला उठे। उनकी आँखें चढ़ गयीं। उन्होंने त्रिशूल उठाकर महर्षि भृगुको मारना चाहा॥ ६॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

चुकोपेति उक्तोऽथ वैकुण्ठशब्दः पूर्ववत् ॥६-१४॥

श्लोक-७

विश्वास-प्रस्तुतिः

पतित्वा पादयोर्देवी सान्त्वयामास तं गिरा।
अथो जगाम वैकुण्ठं यत्र देवो जनार्दनः॥

मूलम्

पतित्वा पादयोर्देवी सान्त्वयामास तं गिरा।
अथो जगाम वैकुण्ठं यत्र देवो जनार्दनः॥

अनुवाद (हिन्दी)

परन्तु उसी समय भगवती सतीने उनके चरणोंपर गिरकर बहुत अनुनय-विनय की और किसी प्रकार उनका क्रोध शान्त किया। अब महर्षि भृगुजी भगवान् विष्णुके निवासस्थान वैकुण्ठमें गये॥ ७॥

श्लोक-८

विश्वास-प्रस्तुतिः

शयानं श्रिय उत्सङ्गे पदा वक्षस्यताडयत्।
तत उत्थाय भगवान् सह लक्ष्म्या सतां गतिः॥

मूलम्

शयानं श्रिय उत्सङ्गे पदा वक्षस्यताडयत्।
तत उत्थाय भगवान् सह लक्ष्म्या सतां गतिः॥

श्लोक-९

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वतल्पादवरुह्याथ ननाम शिरसा मुनिम्।
आह ते स्वागतं ब्रह्मन् निषीदात्रासने क्षणम्।
अजानतामागतान् वः क्षन्तुमर्हथ नः प्रभो॥

मूलम्

स्वतल्पादवरुह्याथ ननाम शिरसा मुनिम्।
आह ते स्वागतं ब्रह्मन् निषीदात्रासने क्षणम्।
अजानतामागतान् वः क्षन्तुमर्हथ नः प्रभो॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय भगवान् विष्णु लक्ष्मीजीकी गोदमें अपना सिर रखकर लेटे हुए थे। भृगुजीने जाकर उनके वक्षःस्थलपर एक लात कसकर जमा दी। भक्तवत्सल भगवान् विष्णु लक्ष्मीजीके साथ उठ बैठे और झटपट अपनी शय्यासे नीचे उतरकर मुनिको सिर झुकाया, प्रणाम किया। भगवान‍्ने कहा—‘ब्रह्मन्! आपका स्वागत है, आप भले पधारे। इस आसनपर बैठकर कुछ क्षण विश्राम कीजिये। प्रभो! मुझे आपके शुभागमनका पता न था। इसीसे मैं आपकी अगवानी न कर सका। मेरा अपराध क्षमा कीजिये॥ ८-९॥

श्लोक-१०

विश्वास-प्रस्तुतिः

अतीव कोमलौ तात चरणौ ते महामुने।
इत्युक्त्वा विप्रचरणौ मर्दयन् स्वेन पाणिना॥

मूलम्

अतीव कोमलौ तात चरणौ ते महामुने।
इत्युक्त्वा विप्रचरणौ मर्दयन् स्वेन पाणिना॥

अनुवाद (हिन्दी)

महामुने! आपके चरणकमल अत्यन्त कोमल हैं।’ यों कहकर भृगुजीके चरणोंको भगवान् अपने हाथोंसे सहलाने लगे॥ १०॥

श्लोक-११

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुनीहि सहलोकं मां लोकपालांश्च मद‍्गतान्।
पादोदकेन भवतस्तीर्थानां तीर्थकारिणा॥

मूलम्

पुनीहि सहलोकं मां लोकपालांश्च मद‍्गतान्।
पादोदकेन भवतस्तीर्थानां तीर्थकारिणा॥

अनुवाद (हिन्दी)

और बोले—‘महर्षे! आपके चरणोंका जल तीर्थोंको भी तीर्थ बनानेवाला है। आप उससे वैकुण्ठलोक, मुझे और मेरे अन्दर रहनेवाले लोकपालोंको पवित्र कीजिये॥ ११॥

श्लोक-१२

विश्वास-प्रस्तुतिः

अद्याहं भगवँल्लक्ष्म्या आसमेकान्तभाजनम्।
वत्स्यत्युरसि मे भूतिर्भवत्पादहतांहसः॥

मूलम्

अद्याहं भगवँल्लक्ष्म्या आसमेकान्तभाजनम्।
वत्स्यत्युरसि मे भूतिर्भवत्पादहतांहसः॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवन्! आपके चरणकमलोंके स्पर्शसे मेरे सारे पाप धुल गये। आज मैं लक्ष्मीका एकमात्र आश्रय हो गया। अब आपके चरणोंसे चिह्नित मेरे वक्षःस्थलपर लक्ष्मी सदा-सर्वदा निवास करेंगी’॥ १२॥

श्लोक-१३

मूलम् (वचनम्)

श्रीशुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं ब्रुवाणे वैकुण्ठे भृगुस्तन्मन्द्रया गिरा।
निर्वृतस्तर्पितस्तूष्णीं भक्त्युत्कण्ठोऽश्रुलोचनः॥

मूलम्

एवं ब्रुवाणे वैकुण्ठे भृगुस्तन्मन्द्रया गिरा।
निर्वृतस्तर्पितस्तूष्णीं भक्त्युत्कण्ठोऽश्रुलोचनः॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—जब भगवान‍्ने अत्यन्त गम्भीर वाणीसे इस प्रकार कहा, तब भृगुजी परम सुखी और तृप्त हो गये। भक्तिके उद्रेकसे उनका गला भर आया, आँखोंमें आँसू छलक आये और वे चुप हो गये॥ १३॥

श्लोक-१४

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुनश्च सत्रमाव्रज्य मुनीनां ब्रह्मवादिनाम्।
स्वानुभूतमशेषेण राजन् भृगुरवर्णयत्॥

मूलम्

पुनश्च सत्रमाव्रज्य मुनीनां ब्रह्मवादिनाम्।
स्वानुभूतमशेषेण राजन् भृगुरवर्णयत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! भृगुजी वहाँसे लौटकर ब्रह्मवादी मुनियोंके सत्संगमें आये और उन्हें ब्रह्मा, शिव और विष्णुभगवान‍्के यहाँ जो कुछ अनुभव हुआ था, वह सब कह सुनाया॥ १४॥

श्लोक-१५

विश्वास-प्रस्तुतिः

तन्निशम्याथ मुनयो विस्मिता मुक्तसंशयाः।
भूयांसं श्रद्दधुर्विष्णुं यतः शान्तिर्यतोऽभयम्॥

मूलम्

तन्निशम्याथ मुनयो विस्मिता मुक्तसंशयाः।
भूयांसं श्रद्दधुर्विष्णुं यतः शान्तिर्यतोऽभयम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

भृगुजीका अनुभव सुनकर सभी ऋषि-मुनियोंको बड़ा विस्मय हुआ, उनका सन्देह दूर हो गया। तबसे वे भगवान् विष्णुको ही सर्वश्रेष्ठ मानने लगे; क्योंकि वे ही शान्ति और अभयके उद‍्गमस्थान हैं॥ १५॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

विकृतत्वात् ब्रह्मादयः प्रकृतिवश्याः परमपुरुषस्त्वत्प्रकृतिवश्यः अपि तु परः । ततः इन्द्रस्वतो हेयप्रत्यनीकः अतः प्रकृतिवश्येभ्यश्चेतनेभ्यः पर इति निश्चितवन्त इत्यर्थः ॥ १५ ॥

श्लोक-१६

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्मः साक्षाद् यतो ज्ञानं वैराग्यं च तदन्वितम्।
ऐश्वर्यं चाष्टधा यस्माद् यशश्चात्ममलापहम्॥

मूलम्

धर्मः साक्षाद् यतो ज्ञानं वैराग्यं च तदन्वितम्।
ऐश्वर्यं चाष्टधा यस्माद् यशश्चात्ममलापहम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् विष्णुसे ही साक्षात् धर्म, ज्ञान, वैराग्य, आठ प्रकारके ऐश्वर्य और चित्तको शुद्ध करनेवाला यश प्राप्त होता है॥ १६॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

तदेव प्रपञ्चयति-धर्मः साक्षादिति । मायया प्रकृत्या गुणा: सत्त्वादयः विषमावस्थिताः ॥ १६ - २५ ॥

श्लोक-१७

विश्वास-प्रस्तुतिः

मुनीनां न्यस्तदण्डानां शान्तानां समचेतसाम्।
अकिञ्चनानां साधूनां यमाहुः परमां गतिम्॥

मूलम्

मुनीनां न्यस्तदण्डानां शान्तानां समचेतसाम्।
अकिञ्चनानां साधूनां यमाहुः परमां गतिम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

शान्त, समचित्त, अकिंचन और सबको अभय देनेवाले साधु-मुनियोंकी वे ही एकमात्र परम गति हैं। ऐसा सारे शास्त्र कहते हैं॥ १७॥

श्लोक-१८

विश्वास-प्रस्तुतिः

सत्त्वं यस्य प्रिया मूर्तिर्ब्राह्मणास्त्विष्टदेवताः।
भजन्त्यनाशिषः शान्ता यं वा निपुणबुद्धयः॥

मूलम्

सत्त्वं यस्य प्रिया मूर्तिर्ब्राह्मणास्त्विष्टदेवताः।
भजन्त्यनाशिषः शान्ता यं वा निपुणबुद्धयः॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनकी प्रिय मूर्ति है सत्त्व और इष्टदेव हैं ब्राह्मण। निष्काम, शान्त और निपुणबुद्धि (विवेकसम्पन्न)पुरुष उनका भजन करते हैं॥ १८॥

श्लोक-१९

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्रिविधाकृतयस्तस्य राक्षसा असुराः सुराः।
गुणिन्या मायया सृष्टाः सत्त्वं तत्तीर्थसाधनम्॥

मूलम्

त्रिविधाकृतयस्तस्य राक्षसा असुराः सुराः।
गुणिन्या मायया सृष्टाः सत्त्वं तत्तीर्थसाधनम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान‍्की गुणमयी मायाने राक्षस, असुर और देवता—उनकी ये तीन मूर्तियाँ बना दी हैं। इनमें सत्त्वमयी देवमूर्ति ही उनकी प्राप्तिका साधन है। वे स्वयं ही समस्त पुरुषार्थस्वरूप हैं॥ १९॥

श्लोक-२०

मूलम् (वचनम्)

श्रीशुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं सारस्वता विप्रा नृणां संशयनुत्तये।
पुरुषस्य पदाम्भोजसेवया तद‍्गतिं गताः॥

मूलम्

एवं सारस्वता विप्रा नृणां संशयनुत्तये।
पुरुषस्य पदाम्भोजसेवया तद‍्गतिं गताः॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! सरस्वती-तटके ऋषियोंने अपने लिये नहीं, मनुष्योंका संशय मिटानेके लिये ही ऐसी युक्ति रची थी। पुरुषोत्तम भगवान‍्के चरणकमलोंकी सेवा करके उन्होंने उनका परमपद प्राप्त किया॥ २०॥

श्लोक-२१

मूलम् (वचनम्)

सूत उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्येतन्मुनितनयास्यपद्मगन्ध-
पीयूषं भवभयभित् परस्य पुंसः।
सुश्लोकं श्रवणपुटैः पिबत्यभीक्ष्णं
पान्थोऽध्वभ्रमणपरिश्रमं जहाति॥

मूलम्

इत्येतन्मुनितनयास्यपद्मगन्ध-
पीयूषं भवभयभित् परस्य पुंसः।
सुश्लोकं श्रवणपुटैः पिबत्यभीक्ष्णं
पान्थोऽध्वभ्रमणपरिश्रमं जहाति॥

अनुवाद (हिन्दी)

सूतजी कहते हैं—शौनकादि ऋषियो! भगवान् पुरुषोत्तमकी यह कमनीय कीर्ति-कथा जन्म-मृत्युरूप संसारके भयको मिटानेवाली है। यह व्यासनन्दनभगवान् श्रीशुकदेवजीके मुखारविन्दसे निकली हुई सुरभिमयी मधुमयी सुधाधारा है। इस संसारके लंबे पथका जो बटोही अपने कानोंके दोनोंसे इसका निरन्तर पान करता रहता है, उसकी सारी थकावट, जो जगत‍्में इधर-उधर भटकनेसे होती है, दूर हो जाती है॥ २१॥

श्लोक-२२

मूलम् (वचनम्)

श्रीशुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकदा द्वारवत्यां तु विप्रपत्न्याः कुमारकः।
जातमात्रो भुवं स्पृष्ट्वा ममार किल भारत॥

मूलम्

एकदा द्वारवत्यां तु विप्रपत्न्याः कुमारकः।
जातमात्रो भुवं स्पृष्ट्वा ममार किल भारत॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! एक दिनकी बात है, द्वारकापुरीमें किसी ब्राह्मणीके गर्भसे एक पुत्र पैदा हुआ, परन्तु वह उसी समय पृथ्वीका स्पर्श होते ही मर गया॥ २२॥

श्लोक-२३

विश्वास-प्रस्तुतिः

विप्रो गृहीत्वा मृतकं राजद्वार्युपधाय सः।
इदं प्रोवाच विलपन्नातुरो दीनमानसः॥

मूलम्

विप्रो गृहीत्वा मृतकं राजद्वार्युपधाय सः।
इदं प्रोवाच विलपन्नातुरो दीनमानसः॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्राह्मण अपने बालकका मृत शरीर लेकर राजमहलके द्वारपर गया और वहाँ उसे रखकर अत्यन्त आतुरता और दुःखी मनसे विलाप करता हुआ यह कहने लगा—॥ २३॥

श्लोक-२४

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रह्मद्विषः शठधियो लुब्धस्य विषयात्मनः।
क्षत्रबन्धोः कर्मदोषात् पञ्चत्वं मे गतोऽर्भकः॥

मूलम्

ब्रह्मद्विषः शठधियो लुब्धस्य विषयात्मनः।
क्षत्रबन्धोः कर्मदोषात् पञ्चत्वं मे गतोऽर्भकः॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इसमें सन्देह नहीं कि ब्राह्मणद्रोही, धूर्त, कृपण और विषयी राजाके कर्मदोषसे ही मेरे बालककी मृत्यु हुई है॥ २४॥

श्लोक-२५

विश्वास-प्रस्तुतिः

हिंसाविहारं नृपतिं दुःशीलमजितेन्द्रियम्।
प्रजा भजन्त्यः सीदन्ति दरिद्रा नित्यदुःखिताः॥

मूलम्

हिंसाविहारं नृपतिं दुःशीलमजितेन्द्रियम्।
प्रजा भजन्त्यः सीदन्ति दरिद्रा नित्यदुःखिताः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो राजा हिंसापरायण, दुःशील और अजितेन्द्रिय होता है, उसे राजा मानकर सेवा करनेवाली प्रजा दरिद्र होकर दुःख-पर-दुःख भोगती रहती है और उसके सामने संकट-पर-संकट आते रहते हैं॥ २५॥

श्लोक-२६

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं द्वितीयं विप्रर्षिस्तृतीयं त्वेवमेव च।
विसृज्य स नृपद्वारि तां गाथां समगायत॥

मूलम्

एवं द्वितीयं विप्रर्षिस्तृतीयं त्वेवमेव च।
विसृज्य स नृपद्वारि तां गाथां समगायत॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! इसी प्रकार अपने दूसरे और तीसरे बालकके भी पैदा होते ही मर जानेपर वह ब्राह्मण लड़केकी लाश राजमहलके दरवाजेपर डाल गया और वही बात कह गया॥ २६॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

द्वितीयं तृतीयपर्यायम् ॥२६॥

श्लोक-२७

विश्वास-प्रस्तुतिः

तामर्जुन उपश्रुत्य कर्हिचित् केशवान्तिके।
परेते नवमे बाले ब्राह्मणं समभाषत॥

मूलम्

तामर्जुन उपश्रुत्य कर्हिचित् केशवान्तिके।
परेते नवमे बाले ब्राह्मणं समभाषत॥

अनुवाद (हिन्दी)

नवें बालकके मरनेपर जब वह वहाँ आया, तब उस समय भगवान् श्रीकृष्णके पास अर्जुन भी बैठे हुए थे। उन्होंने ब्राह्मणकी बात सुनकर उससे कहा—॥ २७॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

कर्हिचित् कदाचित् ॥ २७-४० ॥

श्लोक-२८

विश्वास-प्रस्तुतिः

किंस्विद् ‍ब्रह्मंस्त्वन्निवासे इह नास्ति धनुर्धरः।
राजन्यबन्धुरेते वै ब्राह्मणाः सत्र आसते॥

मूलम्

किंस्विद् ‍ब्रह्मंस्त्वन्निवासे इह नास्ति धनुर्धरः।
राजन्यबन्धुरेते वै ब्राह्मणाः सत्र आसते॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘ब्रह्मन्! आपके निवासस्थान द्वारकामें कोई धनुषधारी क्षत्रिय नहीं है क्या? मालूम होता है कि ये यदुवंशी ब्राह्मण हैं और प्रजापालनका परित्याग करके किसी यज्ञमें बैठे हुए हैं!॥ २८॥

श्लोक-२९

विश्वास-प्रस्तुतिः

धनदारात्मजापृक्ता यत्र शोचन्ति ब्राह्मणाः।
ते वै राजन्यवेषेण नटा जीवन्त्यसुम्भराः॥

मूलम्

धनदारात्मजापृक्ता यत्र शोचन्ति ब्राह्मणाः।
ते वै राजन्यवेषेण नटा जीवन्त्यसुम्भराः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिनके राज्यमें धन, स्त्री अथवा पुत्रोंसे वियुक्त होकर ब्राह्मण दुःखी होते हैं, वे क्षत्रिय नहीं हैं, क्षत्रियके वेषमें पेट पालनेवाले नट हैं। उनका जीवन व्यर्थ है॥ २९॥

श्लोक-३०

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहं प्रजा वां भगवन् रक्षिष्ये दीनयोरिह।
अनिस्तीर्णप्रतिज्ञोऽग्निं प्रवेक्ष्ये हतकल्मषः॥

मूलम्

अहं प्रजा वां भगवन् रक्षिष्ये दीनयोरिह।
अनिस्तीर्णप्रतिज्ञोऽग्निं प्रवेक्ष्ये हतकल्मषः॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवन्! मैं समझता हूँ कि आप स्त्री-पुरुष अपने पुत्रोंकी मृत्युसे दीन हो रहे हैं। मैं आपकी सन्तानकी रक्षा करूँगा। यदि मैं अपनी प्रतिज्ञा पूरी न कर सका तो आगमें कूदकर जल मरूँगा और इस प्रकार मेरे पापका प्रायश्चित्त हो जायगा’॥ ३०॥

श्लोक-३१

मूलम् (वचनम्)

ब्राह्मण उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

सङ्कर्षणो वासुदेवः प्रद्युम्नो धन्विनां वरः।
अनिरुद्धोऽप्रतिरथो न त्रातुं शक्नुवन्ति यत्॥

मूलम्

सङ्कर्षणो वासुदेवः प्रद्युम्नो धन्विनां वरः।
अनिरुद्धोऽप्रतिरथो न त्रातुं शक्नुवन्ति यत्॥

श्लोक-३२

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत् कथं नु भवान् कर्म दुष्करं जगदीश्वरैः।
चिकीर्षसि त्वं बालिश्यात् तन्न श्रद्दध्महे वयम्॥

मूलम्

तत् कथं नु भवान् कर्म दुष्करं जगदीश्वरैः।
चिकीर्षसि त्वं बालिश्यात् तन्न श्रद्दध्महे वयम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्राह्मणने कहा—अर्जुन! यहाँ बलरामजी, भगवान् श्रीकृष्ण, धनुर्धरशिरोमणि प्रद्युम्न, अद्वितीय योद्धा अनिरुद्ध भी जब मेरे बालकोंकी रक्षा करनेमें समर्थ नहीं हैं; इन जगदीश्वरोंके लिये भी यह काम कठिन हो रहा है; तब तुम इसे कैसे करना चाहते हो? सचमुच यह तुम्हारी मूर्खता है। हम तुम्हारी इस बातपर बिलकुल विश्वास नहीं करते॥ ३१-३२॥

श्लोक-३३

मूलम् (वचनम्)

अर्जुन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाहं सङ्कर्षणो ब्रह्मन् न कृष्णः कार्ष्णिरेव च।
अहं वा अर्जुनो नाम गाण्डीवं यस्य वै धनुः॥

मूलम्

नाहं सङ्कर्षणो ब्रह्मन् न कृष्णः कार्ष्णिरेव च।
अहं वा अर्जुनो नाम गाण्डीवं यस्य वै धनुः॥

अनुवाद (हिन्दी)

अर्जुनने कहा—ब्रह्मन्! मैं बलराम, श्रीकृष्ण अथवा प्रद्युम्न नहीं हूँ। मैं हूँ अर्जुन, जिसका गाण्डीव नामक धनुष विश्वविख्यात है॥ ३३॥

श्लोक-३४

विश्वास-प्रस्तुतिः

मावमंस्था मम ब्रह्मन् वीर्यं त्र्यम्बकतोषणम्।
मृत्युं विजित्य प्रधने आनेष्ये ते प्रजां प्रभो॥

मूलम्

मावमंस्था मम ब्रह्मन् वीर्यं त्र्यम्बकतोषणम्।
मृत्युं विजित्य प्रधने आनेष्ये ते प्रजां प्रभो॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्राह्मणदेवता! आप मेरे बल-पौरुषका तिरस्कार मत कीजिये। आप जानते नहीं, मैं अपने पराक्रमसे भगवान् शंकरको सन्तुष्ट कर चुका हूँ। भगवन्! मैं आपसे अधिक क्या कहूँ, मैं युद्धमें साक्षात् मृत्युको भी जीतकर आपकी सन्तान ला दूँगा॥ ३४॥

श्लोक-३५

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं विश्रम्भितो विप्रः फाल्गुनेन परंतप।
जगाम स्वगृहं प्रीतः पार्थवीर्यं निशामयन्॥

मूलम्

एवं विश्रम्भितो विप्रः फाल्गुनेन परंतप।
जगाम स्वगृहं प्रीतः पार्थवीर्यं निशामयन्॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! जब अर्जुनने उस ब्राह्मणको इस प्रकार विश्वास दिलाया, तब वह लोगोंसे उनके बल-पौरुषका बखान करता हुआ बड़ी प्रसन्नतासे अपने घर लौट गया॥ ३५॥

श्लोक-३६

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रसूतिकाल आसन्ने भार्याया द्विजसत्तमः।
पाहि पाहि प्रजां मृत्योरित्याहार्जुनमातुरः॥

मूलम्

प्रसूतिकाल आसन्ने भार्याया द्विजसत्तमः।
पाहि पाहि प्रजां मृत्योरित्याहार्जुनमातुरः॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रसवका समय निकट आनेपर ब्राह्मण आतुर होकर अर्जुनके पास आया और कहने लगा—‘इस बार तुम मेरे बच्चेको मृत्युसे बचा लो’॥ ३६॥

श्लोक-३७

विश्वास-प्रस्तुतिः

स उपस्पृश्य शुच्यम्भो नमस्कृत्य महेश्वरम्।
दिव्यान्यस्त्राणि संस्मृत्य सज्यं गाण्डीवमाददे॥

मूलम्

स उपस्पृश्य शुच्यम्भो नमस्कृत्य महेश्वरम्।
दिव्यान्यस्त्राणि संस्मृत्य सज्यं गाण्डीवमाददे॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह सुनकर अर्जुनने शुद्ध जलसे आचमन किया, तथा भगवान् शंकरको नमस्कार किया। फिर दिव्य अस्त्रोंका स्मरण किया और गाण्डीव धनुषपर डोरी चढ़ाकर उसे हाथमें ले लिया॥ ३७॥

श्लोक-३८

विश्वास-प्रस्तुतिः

न्यरुणत् सूतिकागारं शरैर्नानास्त्रयोजितैः।
तिर्यगूर्ध्वमधः पार्थश्चकार शरपञ्जरम्॥

मूलम्

न्यरुणत् सूतिकागारं शरैर्नानास्त्रयोजितैः।
तिर्यगूर्ध्वमधः पार्थश्चकार शरपञ्जरम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

अर्जुनने बाणोंको अनेक प्रकारके अस्त्र-मन्त्रोंसे अभिमन्त्रित करके प्रसवगृहको चारों ओरसे घेर दिया। इस प्रकार उन्होंने सूतिकागृहके ऊपर-नीचे, अगल-बगल बाणोंका एक पिंजड़ा-सा बना दिया॥ ३८॥

श्लोक-३९

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः कुमारः संजातो विप्रपत्न्या रुदन् मुहुः।
सद्योऽदर्शनमापेदे सशरीरो विहायसा॥

मूलम्

ततः कुमारः संजातो विप्रपत्न्या रुदन् मुहुः।
सद्योऽदर्शनमापेदे सशरीरो विहायसा॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके बाद ब्राह्मणीके गर्भसे एक शिशु पैदा हुआ, जो बार-बार रो रहा था। परन्तु देखते-ही-देखते वह सशरीर आकाशमें अन्तर्धान हो गया॥ ३९॥

श्लोक-४०

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदाऽऽह विप्रो विजयं विनिन्दन् कृष्णसन्निधौ।
मौढ्यं पश्यत मे योऽहं श्रद्दधे क्लीबकत्थनम्॥

मूलम्

तदाऽऽह विप्रो विजयं विनिन्दन् कृष्णसन्निधौ।
मौढ्यं पश्यत मे योऽहं श्रद्दधे क्लीबकत्थनम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

अब वह ब्राह्मण भगवान् श्रीकृष्णके सामने ही अर्जुनकी निन्दा करने लगा। वह बोला—‘मेरी मूर्खता तो देखो, मैंने इस नपुंसककी डींगभरी बातोंपर विश्वास कर लिया॥ ४०॥

श्लोक-४१

विश्वास-प्रस्तुतिः

न प्रद्युम्नो नानिरुद्धो न रामो न च केशवः।
यस्य शेकुः परित्रातुं कोऽन्यस्तदवितेश्वरः॥

मूलम्

न प्रद्युम्नो नानिरुद्धो न रामो न च केशवः।
यस्य शेकुः परित्रातुं कोऽन्यस्तदवितेश्वरः॥

अनुवाद (हिन्दी)

भला जिसे प्रद्युम्न, अनिरुद्ध यहाँतक कि बलराम और भगवान् श्रीकृष्ण भी न बचा सके, उसकी रक्षा करनेमें और कौन समर्थ है?॥ ४१॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

यस्य यम् । अविता रक्षकः ॥४१-६६ ॥

श्लोक-४२

विश्वास-प्रस्तुतिः

धिगर्जुनं मृषावादं धिगात्मश्लाघिनो धनुः।
दैवोपसृष्टं यो मौढ्यादानिनीषति दुर्मतिः॥

मूलम्

धिगर्जुनं मृषावादं धिगात्मश्लाघिनो धनुः।
दैवोपसृष्टं यो मौढ्यादानिनीषति दुर्मतिः॥

अनुवाद (हिन्दी)

मिथ्यावादी अर्जुनको धिक्‍कार है! अपने मुँह अपनी बड़ाई करनेवाले अर्जुनके धनुषको धिक्‍कार है!! इसकी दुर्बुद्धि तो देखो! यह मूढ़तावश उस बालकको लौटा लाना चाहता है, जिसे प्रारब्धने हमसे अलग कर दिया है’॥ ४२॥

श्लोक-४३

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं शपति विप्रर्षौ विद्यामास्थाय फाल्गुनः।
ययौ संयमनीमाशु यत्रास्ते भगवान् यमः॥

मूलम्

एवं शपति विप्रर्षौ विद्यामास्थाय फाल्गुनः।
ययौ संयमनीमाशु यत्रास्ते भगवान् यमः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब वह ब्राह्मण इस प्रकार उन्हें भला-बुरा कहने लगा, तब अर्जुन योगबलसे तत्काल संयमनीपुरीमें गये, जहाँ भगवान् यमराज निवास करते हैं॥ ४३॥

श्लोक-४४

विश्वास-प्रस्तुतिः

विप्रापत्यमचक्षाणस्तत ऐन्द्रीमगात् पुरीम्।
आग्नेयीं नैर्ऋतीं सौम्यां वायव्यां वारुणीमथ।
रसातलं नाकपृष्ठं धिष्ण्यान्यन्यान्युदायुधः॥

मूलम्

विप्रापत्यमचक्षाणस्तत ऐन्द्रीमगात् पुरीम्।
आग्नेयीं नैर्ऋतीं सौम्यां वायव्यां वारुणीमथ।
रसातलं नाकपृष्ठं धिष्ण्यान्यन्यान्युदायुधः॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ उन्हें ब्राह्मणका बालक नहीं मिला। फिर वे शस्त्र लेकर क्रमशः इन्द्र, अग्नि, निर्ऋति, सोम, वायु और वरुण आदिकी पुरियोंमें, अतलादि नीचेके लोकोंमें, स्वर्गसे ऊपरके महर्लोकादिमें एवं अन्यान्य स्थानोंमें गये॥ ४४॥

श्लोक-४५

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽलब्धद्विजसुतो ह्यनिस्तीर्णप्रतिश्रुतः।
अग्निं विविक्षुः कृष्णेन प्रत्युक्तः प्रतिषेधता॥

मूलम्

ततोऽलब्धद्विजसुतो ह्यनिस्तीर्णप्रतिश्रुतः।
अग्निं विविक्षुः कृष्णेन प्रत्युक्तः प्रतिषेधता॥

अनुवाद (हिन्दी)

परन्तु कहीं भी उन्हें ब्राह्मणका बालक न मिला। उनकी प्रतिज्ञा पूरी न हो सकी। अब उन्होंने अग्निमें प्रवेश करनेका विचार किया। परन्तु भगवान् श्रीकृष्णने उन्हें ऐसा करनेसे रोकते हुए कहा—॥ ४५॥

श्लोक-४६

विश्वास-प्रस्तुतिः

दर्शये द्विजसूनूंस्ते मावज्ञात्मानमात्मना।
ये ते नः कीर्तिं विमलां मनुष्याः स्थापयिष्यन्ति॥

मूलम्

दर्शये द्विजसूनूंस्ते मावज्ञात्मानमात्मना।
ये ते नः कीर्तिं विमलां मनुष्याः स्थापयिष्यन्ति॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भाई अर्जुन! तुम अपने आप अपना तिरस्कार मत करो। मैं तुम्हें ब्राह्मणके सब बालक अभी दिखाये देता हूँ। आज जो लोग तुम्हारी निन्दा कर रहे हैं, वे ही फिर हमलोगोंकी निर्मल कीर्तिकी स्थापना करेंगे’॥ ४६॥

श्लोक-४७

विश्वास-प्रस्तुतिः

इति संभाष्य भगवानर्जुनेन सहेश्वरः।
दिव्यं स्वरथमास्थाय प्रतीचीं दिशमाविशत्॥

मूलम्

इति संभाष्य भगवानर्जुनेन सहेश्वरः।
दिव्यं स्वरथमास्थाय प्रतीचीं दिशमाविशत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

सर्वशक्तिमान् भगवान् श्रीकृष्ण इस प्रकार समझा-बुझाकर अर्जुनके साथ अपने दिव्य रथपर सवार हुए और पश्चिम दिशाको प्रस्थान किया॥ ४७॥

श्लोक-४८

विश्वास-प्रस्तुतिः

सप्त द्वीपान् सप्त सिन्धून् सप्तसप्तगिरीनथ।
लोकालोकं तथातीत्य विवेश सुमहत्तमः॥

मूलम्

सप्त द्वीपान् सप्त सिन्धून् सप्तसप्तगिरीनथ।
लोकालोकं तथातीत्य विवेश सुमहत्तमः॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने सात-सात पर्वतोंवाले सात द्वीप, सात समुद्र और लोकालोक-पर्वतको लाँघकर घोर अन्धकारमें प्रवेश किया॥ ४८॥

श्लोक-४९

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्राश्वाः शैब्यसुग्रीवमेघपुष्पबलाहकाः।
तमसि भ्रष्टगतयो बभूवुर्भरतर्षभ॥

मूलम्

तत्राश्वाः शैब्यसुग्रीवमेघपुष्पबलाहकाः।
तमसि भ्रष्टगतयो बभूवुर्भरतर्षभ॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! वह अन्धकार इतना घोर था कि उसमें शैब्य, सुग्रीव, मेघपुष्प और बलाहक नामके चारों घोड़े अपना मार्ग भूलकर इधर-उधर भटकने लगे। उन्हें कुछ सूझता ही न था॥ ४९॥

श्लोक-५०

विश्वास-प्रस्तुतिः

तान् दृष्ट्वा भगवान् कृष्णो महायोगेश्वरेश्वरः।
सहस्रादित्यसंकाशं स्वचक्रं प्राहिणोत् पुरः॥

मूलम्

तान् दृष्ट्वा भगवान् कृष्णो महायोगेश्वरेश्वरः।
सहस्रादित्यसंकाशं स्वचक्रं प्राहिणोत् पुरः॥

अनुवाद (हिन्दी)

योगेश्वरोंके भी परमेश्वर भगवान् श्रीकृष्णने घोड़ोंकी यह दशा देखकर अपने सहस्र-सहस्र सूर्योंके समान तेजस्वी चक्रको आगे चलनेकी आज्ञा दी॥ ५०॥

श्लोक-५१

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमः सुघोरं गहनं कृतं महद्
विदारयद् भूरितरेण रोचिषा।
मनोजवं निर्विविशे सुदर्शनं
गुणच्युतो रामशरो यथा चमूः॥

मूलम्

तमः सुघोरं गहनं कृतं महद्
विदारयद् भूरितरेण रोचिषा।
मनोजवं निर्विविशे सुदर्शनं
गुणच्युतो रामशरो यथा चमूः॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुदर्शन चक्र अपने ज्योतिर्मय तेजसे स्वयं भगवान‍्के द्वारा उत्पन्न उस घने एवं महान् अन्धकारको चीरता हुआ मनके समान तीव्र गतिसे आगे-आगे चला। उस समय वह ऐसा जान पड़ता था, मानो भगवान् रामका बाण धनुषसे छूटकर राक्षसोंकी सेनामें प्रवेश कर रहा हो॥ ५१॥

श्लोक-५२

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्वारेण चक्रानुपथेन तत्तमः
परं परं ज्योतिरनन्तपारम्।
समश्नुवानं प्रसमीक्ष्य फाल्गुनः
प्रताडिताक्षोपिदधेऽक्षिणी उभे॥

मूलम्

द्वारेण चक्रानुपथेन तत्तमः
परं परं ज्योतिरनन्तपारम्।
समश्नुवानं प्रसमीक्ष्य फाल्गुनः
प्रताडिताक्षोपिदधेऽक्षिणी उभे॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार सुदर्शन चक्रके द्वारा बतलाये हुए मार्गसे चलकर रथ अन्धकारकी अन्तिम सीमापर पहुँचा। उस अन्धकारके पार सर्वश्रेष्ठ पारावाररहित व्यापक परम ज्योति जगमगा रही थी। उसे देखकर अर्जुनकी आँखें चौंधिया गयीं और उन्होंने विवश होकर अपने नेत्र बंद कर लिये॥ ५२॥

श्लोक-५३

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः प्रविष्टः सलिलं नभस्वता
बलीयसैजद‍्बृहदूर्मिभूषणम्।
तत्राद‍्भुतं वै भवनं द्युमत्तमं
भ्राजन्मणिस्तम्भसहस्रशोभितम्॥

मूलम्

ततः प्रविष्टः सलिलं नभस्वता
बलीयसैजद‍्बृहदूर्मिभूषणम्।
तत्राद‍्भुतं वै भवनं द्युमत्तमं
भ्राजन्मणिस्तम्भसहस्रशोभितम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके बाद भगवान‍्के रथने दिव्य जलराशिमें प्रवेश किया। बड़ी तेज आँधी चलनेके कारण उस जलमें बड़ी-बड़ी तरंगें उठ रही थीं, जो बहुत ही भली मालूम होती थीं। वहाँ एक बड़ा सुन्दर महल था। उसमें मणियोंके सहस्र-सहस्र खंभे चमक-चमककर उसकी शोभा बढ़ा रहे थे और उसके चारों ओर बड़ी उज्ज्वल ज्योति फैल रही थी॥ ५३॥

श्लोक-५४

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मिन् महाभीममनन्तमद‍्भुतं
सहस्रमूर्धन्यफणामणिद्युभिः।
विभ्राजमानं द्विगुणोल्बणेक्षणं
सिताचलाभं शितिकण्ठजिह्वम्॥

मूलम्

तस्मिन् महाभीममनन्तमद‍्भुतं
सहस्रमूर्धन्यफणामणिद्युभिः।
विभ्राजमानं द्विगुणोल्बणेक्षणं
सिताचलाभं शितिकण्ठजिह्वम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसी महलमें भगवान् शेषजी विराजमान थे। उनका शरीर अत्यन्त भयानक और अद‍्भुत था। उनके सहस्र सिर थे और प्रत्येक फणपर सुन्दर-सुन्दर मणियाँ जगमगा रही थीं। प्रत्येक सिरमें दो-दो नेत्र थे और वे बड़े ही भयंकर थे। उनका सम्पूर्ण शरीर कैलासके समान श्वेतवर्णका था और गला तथा जीभ नीले रंगकी थी॥ ५४॥

श्लोक-५५

विश्वास-प्रस्तुतिः

ददर्श तद‍्भोगसुखासनं विभुं
महानुभावं पुरुषोत्तमोत्तमम्।
सान्द्राम्बुदाभं सुपिशङ्गवाससं
प्रसन्नवक्त्रं रुचिरायतेक्षणम्॥

मूलम्

ददर्श तद‍्भोगसुखासनं विभुं
महानुभावं पुरुषोत्तमोत्तमम्।
सान्द्राम्बुदाभं सुपिशङ्गवाससं
प्रसन्नवक्त्रं रुचिरायतेक्षणम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! अर्जुनने देखा कि शेषभगवान‍्की सुखमयी शय्यापर सर्वव्यापक महान् प्रभावशाली परम पुरुषोत्तम भगवान् विराजमान हैं। उनके शरीरकी कान्ति वर्षाकालीन मेघके समान श्यामल है। अत्यन्त सुन्दर पीला वस्त्र धारण किये हुए हैं। मुखपर प्रसन्नता खेल रही है और बड़े-बड़े नेत्र बहुत ही सुहावने लगते हैं॥ ५५॥

श्लोक-५६

विश्वास-प्रस्तुतिः

महामणिव्रातकिरीटकुण्डल-
प्रभापरिक्षिप्तसहस्रकुन्तलम्।
प्रलम्बचार्वष्टभुजं सकौस्तुभं
श्रीवत्सलक्ष्मं वनमालया वृतम्॥

मूलम्

महामणिव्रातकिरीटकुण्डल-
प्रभापरिक्षिप्तसहस्रकुन्तलम्।
प्रलम्बचार्वष्टभुजं सकौस्तुभं
श्रीवत्सलक्ष्मं वनमालया वृतम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

बहुमूल्य मणियोंसे जटित मुकुट और कुण्डलोंकी कान्तिसे सहस्रों घुँघराली अलकें चमक रही हैं। लंबी-लंबी, सुन्दर आठ भुजाएँ हैं; गलेमें कौस्तुभमणि है; वक्षःस्थलपर श्रीवत्सका चिह्न है और घुटनोंतक वनमाला लटक रही है॥ ५६॥

श्लोक-५७

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुनन्दनन्दप्रमुखैः स्वपार्षदै-
श्चक्रादिभिर्मूर्तिधरैर्निजायुधैः।
पुष्ट्या श्रिया कीर्त्यजयाखिलर्द्धिभि-
र्निषेव्यमाणं परमेष्ठिनां पतिम्॥

मूलम्

सुनन्दनन्दप्रमुखैः स्वपार्षदै-
श्चक्रादिभिर्मूर्तिधरैर्निजायुधैः।
पुष्ट्या श्रिया कीर्त्यजयाखिलर्द्धिभि-
र्निषेव्यमाणं परमेष्ठिनां पतिम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

अर्जुनने देखा कि उनके नन्द-सुनन्द आदि अपने पार्षद, चक्र-सुदर्शन आदि अपने मूर्तिमान् आयुध तथा पुष्टि, श्री, कीर्ति और अजा—ये चारों शक्तियाँ एवं सम्पूर्ण ऋद्धियाँ ब्रह्मादि लोकपालोंके अधीश्वर भगवान‍्की सेवा कर रही हैं॥ ५७॥

श्लोक-५८

विश्वास-प्रस्तुतिः

ववन्द आत्मानमनन्तमच्युतो
जिष्णुश्च तद्दर्शनजातसाध्वसः।
तावाह भूमा परमेष्ठिनां प्रभु-
र्बद्धाञ्जली सस्मितमूर्जया गिरा॥

मूलम्

ववन्द आत्मानमनन्तमच्युतो
जिष्णुश्च तद्दर्शनजातसाध्वसः।
तावाह भूमा परमेष्ठिनां प्रभु-
र्बद्धाञ्जली सस्मितमूर्जया गिरा॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्णने अपने ही स्वरूप श्रीअनन्त भगवान‍्को प्रणाम किया। अर्जुन उनके दर्शनसे कुछ भयभीत हो गये थे; श्रीकृष्णके बाद उन्होंने भी उनको प्रणाम किया और वे दोनों हाथ जोड़कर खड़े हो गये। अब ब्रह्मादि लोकपालोंके स्वामी भूमा पुरुषने मुसकराते हुुए मधुर एवं गम्भीर वाणीसे कहा—॥ ५८॥

श्लोक-५९

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्विजात्मजा मे युवयोर्दिदृक्षुणा
मयोपनीता भुवि धर्मगुप्तये।
कलावतीर्णाववनेर्भरासुरान्
हत्वेह भूयस्त्वरयेतमन्ति मे॥

मूलम्

द्विजात्मजा मे युवयोर्दिदृक्षुणा
मयोपनीता भुवि धर्मगुप्तये।
कलावतीर्णाववनेर्भरासुरान्
हत्वेह भूयस्त्वरयेतमन्ति मे॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘श्रीकृष्ण और अर्जुन! मैंने तुम दोनोंको देखनेके लिये ही ब्राह्मणके बालक अपने पास मँगा लिये थे। तुम दोनोंने धर्मकी रक्षाके लिये मेरी कलाओंके साथ पृथ्वीपर अवतार ग्रहण किया है; पृथ्वीके भाररूप दैत्योंका संहार करके शीघ्र-से-शीघ्र तुमलोग फिर मेरे पास लौट आओ॥ ५९॥

श्लोक-६०

विश्वास-प्रस्तुतिः

पूर्णकामावपि युवां नरनारायणावृषी।
धर्ममाचरतां स्थित्यै ऋषभौ लोकसंग्रहम्॥

मूलम्

पूर्णकामावपि युवां नरनारायणावृषी।
धर्ममाचरतां स्थित्यै ऋषभौ लोकसंग्रहम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुम दोनों ऋषिवर नर और नारायण हो। यद्यपि तुम पूर्णकाम और सर्वश्रेष्ठ हो, फिर भी जगत‍्की स्थिति और लोकसंग्रहके लिये धर्मका आचरण करो’॥ ६०॥

श्लोक-६१

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्यादिष्टौ भगवता तौ कृष्णौ परमेष्ठिना।
ओमित्यानम्य भूमानमादाय द्विजदारकान्॥

मूलम्

इत्यादिष्टौ भगवता तौ कृष्णौ परमेष्ठिना।
ओमित्यानम्य भूमानमादाय द्विजदारकान्॥

श्लोक-६२

विश्वास-प्रस्तुतिः

न्यवर्ततां स्वकं धाम सम्प्रहृष्टौ यथागतम्।
विप्राय ददतुः पुत्रान् यथारूपं यथावयः॥

मूलम्

न्यवर्ततां स्वकं धाम सम्प्रहृष्टौ यथागतम्।
विप्राय ददतुः पुत्रान् यथारूपं यथावयः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब भगवान् भूमा पुरुषने श्रीकृष्ण और अर्जुनको इस प्रकार आदेश दिया, तब उन लोगोंने उसे स्वीकार करके उन्हें नमस्कार किया और बड़े आनन्दके साथ ब्राह्मण-बालकोंको लेकर जिस रास्तेसे, जिस प्रकार आये थे, उसीसे वैसे ही द्वारकामें लौट आये। ब्राह्मणके बालक अपनी आयुके अनुसार बड़े-बड़े हो गये थे। उनका रूप और आकृति वैसी ही थी, जैसी उनके जन्मके समय थी। उन्हें भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुनने उनके पिताको सौंप दिया॥ ६१-६२॥

श्लोक-६३

विश्वास-प्रस्तुतिः

निशाम्य वैष्णवं धाम पार्थः परमविस्मितः।
यत्किञ्चित् पौरुषं पुंसां मेने कृष्णानुकम्पितम्॥

मूलम्

निशाम्य वैष्णवं धाम पार्थः परमविस्मितः।
यत्किञ्चित् पौरुषं पुंसां मेने कृष्णानुकम्पितम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् विष्णुके उस परमधामको देखकर अर्जुनके आश्चर्यकी सीमा न रही। उन्होंने ऐसा अनुभव किया कि जीवोंमें जो कुछ बल-पौरुष है, वह सब भगवान् श्रीकृष्णकी ही कृपाका फल है॥ ६३॥

श्लोक-६४

विश्वास-प्रस्तुतिः

इतीदृशान्यनेकानि वीर्याणीह प्रदर्शयन्।
बुभुजे विषयान् ग्राम्यानीजे चात्यूर्जितैर्मखैः॥

मूलम्

इतीदृशान्यनेकानि वीर्याणीह प्रदर्शयन्।
बुभुजे विषयान् ग्राम्यानीजे चात्यूर्जितैर्मखैः॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! भगवान‍्ने और भी ऐसी अनेकों ऐश्वर्य और वीरतासे परिपूर्ण लीलाएँ कीं। लोकदृष्टिमें साधारण लोगोंके समान सांसारिक विषयोंका भोग किया और बड़े-बड़े महाराजाओंके समान श्रेष्ठ-श्रेष्ठ यज्ञ किये॥ ६४॥

श्लोक-६५

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रववर्षाखिलान् कामान् प्रजासु ब्राह्मणादिषु।
यथाकालं यथैवेन्द्रो भगवाञ्छ्रैष्ठ्यमास्थितः॥

मूलम्

प्रववर्षाखिलान् कामान् प्रजासु ब्राह्मणादिषु।
यथाकालं यथैवेन्द्रो भगवाञ्छ्रैष्ठ्यमास्थितः॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् श्रीकृष्णने आदर्श महापुरुषोंका-सा आचरण करते हुए ब्राह्मण आदि समस्त प्रजावर्गोंके सारे मनोरथ पूर्ण किये, ठीक वैसे ही, जैसे इन्द्र प्रजाके लिये समयानुसार वर्षा करते हैं॥ ६५॥

श्लोक-६६

विश्वास-प्रस्तुतिः

हत्वा नृपानधर्मिष्ठान् घातयित्वार्जुनादिभिः।
अञ्जसा वर्तयामास धर्मं धर्मसुतादिभिः॥

मूलम्

हत्वा नृपानधर्मिष्ठान् घातयित्वार्जुनादिभिः।
अञ्जसा वर्तयामास धर्मं धर्मसुतादिभिः॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने बहुत-से अधर्मी राजाओंको स्वयं मार डाला और बहुतोंको अर्जुन आदिके द्वारा मरवा डाला। इस प्रकार धर्मराज युधिष्ठिर आदि धार्मिक राजाओंसे उन्होंने अनायास ही सारी पृथ्वीमें धर्ममर्यादाकी स्थापना करा दी॥ ६६॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

॥ इति श्रीमद्भागवतव्याख्याने दशमस्कन्धे श्रीसुदर्शनसूरिकृतशुकपक्षीये एकोननवतितमोऽध्यायः ॥८९॥

अनुवाद (समाप्ति)

इति श्रीमद‍्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे उत्तरार्धे द्विजकुमारानयनं नाम एकोननवतितमोऽध्यायः॥ ८९॥