८८ रुद्रमोक्षणम्

[अष्टाशीतितमोऽध्यायः]

भागसूचना

शिवजीका संकटमोचन

श्लोक-१

मूलम् (वचनम्)

राजोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

देवासुरमनुष्येषु ये भजन्त्यशिवं शिवम्।
प्रायस्ते धनिनो भोजा न तु लक्ष्म्याः पतिं हरिम्॥

मूलम्

देवासुरमनुष्येषु ये भजन्त्यशिवं शिवम्।
प्रायस्ते धनिनो भोजा न तु लक्ष्म्याः पतिं हरिम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा परीक्षित् ने पूछा—भगवन्! भगवान् शंकरने समस्त भोगोंका परित्याग कर रखा है; परन्तु देखा यह जाता है कि जो देवता, असुर अथवा मनुष्य उनकी उपासना करते हैं, वे प्रायः धनी और भोगसम्पन्न हो जाते हैं। और भगवान् विष्णु लक्ष्मीपति हैं, परन्तु उनकी उपासना करनेवाले प्रायः धनी और भोग सम्पन्न नहीं होते॥ १॥

श्लोक-२

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतद् वेदितुमिच्छामः सन्देहोऽत्र महान् हि नः।
विरुद्धशीलयोः प्रभ्वोर्विरुद्धा भजतां गतिः॥

मूलम्

एतद् वेदितुमिच्छामः सन्देहोऽत्र महान् हि नः।
विरुद्धशीलयोः प्रभ्वोर्विरुद्धा भजतां गतिः॥

अनुवाद (हिन्दी)

दोनों प्रभु त्याग और भोगकी दृष्टिसे एक-दूसरेसे विरुद्ध स्वभाववाले हैं, परंतु उनके उपासकोंको उनके स्वरूपके विपरीत फल मिलता है। मुझे इस विषयमें बड़ा सन्देह है कि त्यागीकी उपासनासे भोग और लक्ष्मीपतिकी उपासनासे त्याग कैसे मिलता है? मैं आपसे यह जानना चाहता हूँ॥ २॥

श्लोक-३

मूलम् (वचनम्)

श्रीशुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

शिवः शक्तियुतः शश्वत् त्रिलिङ्गो गुणसंवृतः।
वैकारिकस्तैजसश्च तामसश्चेत्यहं त्रिधा॥

मूलम्

शिवः शक्तियुतः शश्वत् त्रिलिङ्गो गुणसंवृतः।
वैकारिकस्तैजसश्च तामसश्चेत्यहं त्रिधा॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! शिवजी सदा अपनी शक्तिसे युक्त रहते हैं। वे सत्त्व आदिगुणोंसे युक्त तथा अहंकारके अधिष्ठाता हैं। अहंकारके तीन भेद हैं—वैकारिक, तैजस और तामस॥ ३॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

त्रिलिङ्गः विक्ष्यमाणाधिष्ठेयत्रैविध्यात् । त्रिलिङ्गः वैकारिकः इति त्रिविधाहङ्काररूपइत्यर्थः । अहं शमध्यात्मम् अहं कर्तव्यमधिभूतं रुद्रस्तत्राधिदैवतम् इति श्रुतिः । आत्म इत्यहङ्कारतत्त्वमात्रं विवक्षितम् अमीषु षोडशसु कञ्चन उपधावनविकाराभिमानी देवेषु । कञ्चन इन्द्रादिकं भजत इत्यर्थः ॥ ३-४ ॥

श्लोक-४

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो विकारा अभवन् षोडशामीषु कञ्चन।
उपधावन् विभूतीनां सर्वासामश्नुते गतिम्॥

मूलम्

ततो विकारा अभवन् षोडशामीषु कञ्चन।
उपधावन् विभूतीनां सर्वासामश्नुते गतिम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

त्रिविध अहंकारसे सोलह विकार हुए—दस इन्द्रियाँ, पाँच महाभूत और एक मन। अतः इन सबके अधिष्ठातृ-देवताओंमेंसे किसी एककी उपासना करनेपर समस्त ऐश्वर्योंकी प्राप्ति हो जाती है॥ ४॥

श्लोक-५

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरिर्हि निर्गुणः साक्षात् पुरुषः प्रकृतेः परः।
स सर्वदृगुपद्रष्टा तं भजन् निर्गुणो भवेत्॥

मूलम्

हरिर्हि निर्गुणः साक्षात् पुरुषः प्रकृतेः परः।
स सर्वदृगुपद्रष्टा तं भजन् निर्गुणो भवेत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

परन्तु परीक्षित्! भगवान् श्रीहरि तो प्रकृतिसे परे स्वयं पुरुषोत्तम एवं प्राकृत गुणरहित हैं। वे सर्वज्ञ तथा सबके अन्तःकरणोंके साक्षी हैं। जो उनका भजन करता है, वह स्वयं भी गुणातीत हो जाता है॥ ५॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

उपद्रष्टा सर्वज्ञत्वाद्गुणदोषानुमन्ता ॥५- १०॥

श्लोक-६

विश्वास-प्रस्तुतिः

निवृत्तेष्वश्वमेधेषु राजा युष्मत्पितामहः।
शृण्वन् भगवतो धर्मानपृच्छदिदमच्युतम्॥

मूलम्

निवृत्तेष्वश्वमेधेषु राजा युष्मत्पितामहः।
शृण्वन् भगवतो धर्मानपृच्छदिदमच्युतम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! जब तुम्हारे दादा धर्मराज युधिष्ठिर अश्वमेध यज्ञ कर चुके, तब भगवान‍्से विविध प्रकारके धर्मोंका वर्णन सुनते समय उन्होंने भी यही प्रश्न किया था॥ ६॥

श्लोक-७

विश्वास-प्रस्तुतिः

स आह भगवांस्तस्मै प्रीतः शुश्रूषवे प्रभुः।
नृणां निःश्रेयसार्थाय योऽवतीर्णो यदोः कुले॥

मूलम्

स आह भगवांस्तस्मै प्रीतः शुश्रूषवे प्रभुः।
नृणां निःश्रेयसार्थाय योऽवतीर्णो यदोः कुले॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्ण सर्वशक्तिमान् परमेश्वर हैं। मनुष्योंके कल्याणके लिये ही उन्होंने यदुवंशमें अवतार धारण किया था। राजा युधिष्ठिरका प्रश्न सुनकर और उनकी सुननेकी इच्छा देखकर उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक इस प्रकार उत्तर दिया था॥ ७॥

श्लोक-८

मूलम् (वचनम्)

श्रीभगवानुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्याहमनुगृह्णामि हरिष्ये तद्धनं शनैः।
ततोऽधनं त्यजन्त्यस्य स्वजना दुःखदुःखितम्॥

मूलम्

यस्याहमनुगृह्णामि हरिष्ये तद्धनं शनैः।
ततोऽधनं त्यजन्त्यस्य स्वजना दुःखदुःखितम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् श्रीकृष्णने कहा—राजन्! जिसपर मैं कृपा करता हूँ, उसका सब धन धीरे-धीरे छीन लेता हूँ। जब वह निर्धन हो जाता है, तब उसके सगे-सम्बन्धी उसके दुःखाकुल चित्तकी परवा न करके उसे छोड़ देते हैं॥ ८॥

श्लोक-९

विश्वास-प्रस्तुतिः

स यदा वितथोद्योगो निर्विण्णः स्याद् धनेहया।
मत्परैः कृतमैत्रस्य करिष्ये मदनुग्रहम्॥

मूलम्

स यदा वितथोद्योगो निर्विण्णः स्याद् धनेहया।
मत्परैः कृतमैत्रस्य करिष्ये मदनुग्रहम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर वह धनके लिये उद्योग करने लगता है, तब मैं उसका वह प्रयत्न भी निष्फल कर देता हूँ। इस प्रकार बार-बार असफल होनेके कारण जब धन कमानेसे उसका मन विरक्त हो जाता है, उसे दुःख समझकर वह उधरसे अपना मुँह मोड़ लेता है और मेरे प्रेमी भक्तोंका आश्रय लेकर उनसे मेल-जोल करता है, तब मैं उसपर अपनी अहैतुक कृपाकी वर्षा करता हूँ॥ ९॥

श्लोक-१०

विश्वास-प्रस्तुतिः

तद‍्ब्रह्म परमं सूक्ष्मं चिन्मात्रं सदनन्तकम्।
अतो मां सुदुराराध्यं हित्वान्यान् भजते जनः॥

मूलम्

तद‍्ब्रह्म परमं सूक्ष्मं चिन्मात्रं सदनन्तकम्।
अतो मां सुदुराराध्यं हित्वान्यान् भजते जनः॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरी कृपासे उसे परम सूक्ष्म अनन्त सच्चिदानन्दस्वरूप परब्रह्मकी प्राप्ति हो जाती है। इस प्रकार मेरी प्रसन्नता, मेरी आराधना बहुत कठिन है। इसीसे साधारण लोग मुझे छोड़कर मेरे ही दूसरे रूप अन्यान्य देवताओंकी आराधना करते हैं॥ १०॥

श्लोक-११

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्त आशुतोषेभ्यो लब्धराज्यश्रियोद्धताः।
मत्ताः प्रमत्ता वरदान् विस्मरन्त्यवजानते॥

मूलम्

ततस्त आशुतोषेभ्यो लब्धराज्यश्रियोद्धताः।
मत्ताः प्रमत्ता वरदान् विस्मरन्त्यवजानते॥

अनुवाद (हिन्दी)

दूसरे देवता आशुतोष हैं। वे झटपट पिघल पड़ते हैं और अपने भक्तोंको साम्राज्य-लक्ष्मी दे देते हैं। उसे पाकर वे उच्छृंखल, प्रमादी और उन्मत्त हो उठते हैं और अपने वरदाता देवताओंको भी भूल जाते हैं तथा उनका तिरस्कार कर बैठते हैं॥ ११॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

मत्ताः गर्विताः प्रमत्ताः अनवहिताः ॥ ११ - १३॥

श्लोक-१२

मूलम् (वचनम्)

श्रीशुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

शापप्रसादयोरीशा ब्रह्मविष्णुशिवादयः।
सद्यःशापप्रसादोऽङ्ग शिवो ब्रह्मा न चाच्युतः॥

मूलम्

शापप्रसादयोरीशा ब्रह्मविष्णुशिवादयः।
सद्यःशापप्रसादोऽङ्ग शिवो ब्रह्मा न चाच्युतः॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! ब्रह्मा, विष्णु और महादेव—ये तीनों शाप और वरदान देनेमें समर्थ हैं; परन्तु इनमें महादेव और ब्रह्मा शीघ्र ही प्रसन्न या रुष्ट होकर वरदान अथवा शाप दे देते हैं। परन्तु विष्णु भगवान् वैसे नहीं हैं॥ १२॥

श्लोक-१३

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्र चोदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्।
वृकासुराय गिरिशो वरं दत्त्वाऽऽप सङ्कटम्॥

मूलम्

अत्र चोदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्।
वृकासुराय गिरिशो वरं दत्त्वाऽऽप सङ्कटम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस विषयमें महात्मालोग एक प्राचीन इतिहास कहा करते हैं। भगवान् शंकर एक बार वृकासुरको वर देकर संकटमें पड़ गये थे॥ १३॥

श्लोक-१४

विश्वास-प्रस्तुतिः

वृको नामासुरः पुत्रः शकुनेः पथि नारदम्।
दृष्ट्वाऽऽशुतोषं पप्रच्छ देवेषु त्रिषु दुर्मतिः॥

मूलम्

वृको नामासुरः पुत्रः शकुनेः पथि नारदम्।
दृष्ट्वाऽऽशुतोषं पप्रच्छ देवेषु त्रिषु दुर्मतिः॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! वृकासुर शकुनिका पुत्र था। उसकी बुद्धि बहुत बिगड़ी हुई थी। एक दिन कहीं जाते समय उसने देवर्षि नारदको देख लिया और उनसे पूछा कि ‘तीनों देवताओंमें झटपट प्रसन्न होनेवाला कौन है?’॥ १४॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

त्रिषु देवेषु आशुदेवं पप्रच्छेत्यन्वयः ॥१४- १९॥

श्लोक-१५

विश्वास-प्रस्तुतिः

स आह देवं गिरिशमुपाधावाशु सिद्ध्यसि।
योऽल्पाभ्यां गुणदोषाभ्यामाशु तुष्यति कुप्यति॥

मूलम्

स आह देवं गिरिशमुपाधावाशु सिद्ध्यसि।
योऽल्पाभ्यां गुणदोषाभ्यामाशु तुष्यति कुप्यति॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! देवर्षि नारदने कहा—‘तुम भगवान् शंकरकी आराधना करो। इससे तुम्हारा मनोरथ बहुत जल्दी पूरा हो जायगा। वे थोड़े ही गुणोंसे शीघ्र-से-शीघ्र प्रसन्न और थोड़े ही अपराधसे तुरन्त क्रोध कर बैठते हैं॥ १५॥

श्लोक-१६

विश्वास-प्रस्तुतिः

दशास्यबाणयोस्तुष्टः स्तुवतोर्वन्दिनोरिव।
ऐश्वर्यमतुलं दत्त्वा तत आप सुसङ्कटम्॥

मूलम्

दशास्यबाणयोस्तुष्टः स्तुवतोर्वन्दिनोरिव।
ऐश्वर्यमतुलं दत्त्वा तत आप सुसङ्कटम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

रावण और बाणासुरने केवल वंदीजनोंके समान शंकरजीकी कुछ स्तुतियाँ की थीं। इसीसे वे उनपर प्रसन्न हो गये और उन्हें अतुलनीय ऐश्वर्य दे दिया। बादमें रावणके कैलास उठाने और बाणासुरके नगरकी रक्षाका भार लेनेसे वे उनके लिये संकटमें भी पड़ गये थे’॥ १६॥

श्लोक-१७

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्यादिष्टस्तमसुर उपाधावत् स्वगात्रतः।
केदार आत्मक्रव्येण जुह्वानोऽग्निमुखं हरम्॥

मूलम्

इत्यादिष्टस्तमसुर उपाधावत् स्वगात्रतः।
केदार आत्मक्रव्येण जुह्वानोऽग्निमुखं हरम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

नारदजीका उपदेश पाकर वृकासुर केदारक्षेत्रमें गया और अग्निको भगवान् शंकरका मुख मानकर अपने शरीरका मांस काट-काटकर उसमें हवन करने लगा॥ १७॥

श्लोक-१८

विश्वास-प्रस्तुतिः

देवोपलब्धिमप्राप्य निर्वेदात् सप्तमेऽहनि।
शिरोऽवृश्चत् स्वधितिना तत्तीर्थक्लिन्नमूर्धजम्॥

मूलम्

देवोपलब्धिमप्राप्य निर्वेदात् सप्तमेऽहनि।
शिरोऽवृश्चत् स्वधितिना तत्तीर्थक्लिन्नमूर्धजम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार छः दिनतक उपासना करनेपर भी जब उसे भगवान् शंकरके दर्शन न हुए, तब उसे बड़ा दुःख हुआ। सातवें दिन केदारतीर्थमें स्नान करके उसने अपने भीगे बालवाले मस्तकको कुल्हाड़ेसे काटकर हवन करना चाहा॥ १८॥

श्लोक-१९

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदा महाकारुणिकः स धूर्जटि-
र्यथा वयं चाग्निरिवोत्थितोऽनलात्।
निगृह्य दोर्भ्यां भुजयोर्न्यवारयत्
तत्स्पर्शनाद् भूय उपस्कृताकृतिः॥

मूलम्

तदा महाकारुणिकः स धूर्जटि-
र्यथा वयं चाग्निरिवोत्थितोऽनलात्।
निगृह्य दोर्भ्यां भुजयोर्न्यवारयत्
तत्स्पर्शनाद् भूय उपस्कृताकृतिः॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! जैसे जगत‍्में कोई दुःखवश आत्महत्या करने जाता है तो हमलोग करुणावश उसे बचा लेते हैं, वैसे ही परम दयालु भगवान् शंकरने वृकासुरके आत्मघातके पहले ही अग्निकुण्डसे अग्निदेवके समान प्रकट होकर अपने दोनों हाथोंसे उसके दोनों हाथ पकड़ लिये और गला काटनेसे रोक दिया। उनका स्पर्श होते ही वृकासुरके अंग ज्यों-के-त्यों पूर्ण हो गये॥ १९॥

श्लोक-२०

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमाह चाङ्गालमलं वृणीष्व मे
यथाभिकामं वितरामि ते वरम्।
प्रीयेय तोयेन नृणां प्रपद्यता-
महो त्वयाऽऽत्मा भृशमर्द्यते वृथा॥

मूलम्

तमाह चाङ्गालमलं वृणीष्व मे
यथाभिकामं वितरामि ते वरम्।
प्रीयेय तोयेन नृणां प्रपद्यता-
महो त्वयाऽऽत्मा भृशमर्द्यते वृथा॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् शंकरने वृकासुरसे कहा—‘प्यारे वृकासुर! बस करो, बस करो; बहुत हो गया। मैं तुम्हें वर देना चाहता हूँ। तुम मुँहमाँगा वर माँग लो। अरे भाई! मैं तो अपने शरणागत भक्तोंपर केवल जल चढ़ानेसे ही सन्तुष्ट हो जाया करता हूँ। भला, तुम झूठ-मूठ अपने शरीरको क्यों पीड़ा दे रहे हो?’॥ २०॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

अर्द्यते क्लिश्यते ॥ २०-२४॥

श्लोक-२१

विश्वास-प्रस्तुतिः

देवं स वव्रे पापीयान् वरं भूतभयावहम्।
यस्य यस्य करं शीर्ष्णि धास्ये स म्रियतामिति॥

मूलम्

देवं स वव्रे पापीयान् वरं भूतभयावहम्।
यस्य यस्य करं शीर्ष्णि धास्ये स म्रियतामिति॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! अत्यन्त पापी वृकासुरने समस्त प्राणियोंको भयभीत करनेवाला यह वर माँगा कि ‘मैं जिसके सिरपर हाथ रख दूँ, वही मर जाय’॥ २१॥

श्लोक-२२

विश्वास-प्रस्तुतिः

तच्छ्रुत्वा भगवान् रुद्रो दुर्मना इव भारत।
ओमिति प्रहसंस्तस्मै ददेऽहेरमृतं यथा॥

मूलम्

तच्छ्रुत्वा भगवान् रुद्रो दुर्मना इव भारत।
ओमिति प्रहसंस्तस्मै ददेऽहेरमृतं यथा॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! उसकी यह याचना सुनकर भगवान् रुद्र पहले तो कुछ अनमने-से हो गये, फिर हँसकर कह दिया—‘अच्छा, ऐसा ही हो।’ ऐसा वर देकर उन्होंने मानो साँपको अमृत पिला दिया॥ २२॥

श्लोक-२३

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्तः सोऽसुरो नूनं गौरीहरणलालसः।
स तद्वरपरीक्षार्थं शम्भोर्मूर्ध्नि किलासुरः।
स्वहस्तं धातुमारेभे सोऽबिभ्यत् स्वकृताच्छिवः॥

मूलम्

इत्युक्तः सोऽसुरो नूनं गौरीहरणलालसः।
स तद्वरपरीक्षार्थं शम्भोर्मूर्ध्नि किलासुरः।
स्वहस्तं धातुमारेभे सोऽबिभ्यत् स्वकृताच्छिवः॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् शंकरके इस प्रकार कह देनेपर वृकासुरके मनमें यह लालसा हो आयी कि ‘मैं पार्वतीजीको ही हर लूँ।’ वह असुर शंकरजीके वरकी परीक्षाके लिये उन्हींके सिरपर हाथ रखनेका उद्योग करने लगा। अब तो शंकरजी अपने दिये हुए वरदानसे ही भयभीत हो गये॥ २३॥

श्लोक-२४

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेनोपसृष्टः संत्रस्तः पराधावन् सवेपथुः।
यावदन्तं दिवो भूमेः काष्ठानामुदगादुदक्॥

मूलम्

तेनोपसृष्टः संत्रस्तः पराधावन् सवेपथुः।
यावदन्तं दिवो भूमेः काष्ठानामुदगादुदक्॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह उनका पीछा करने लगा और वे उससे डरकर काँपते हुए भागने लगे। वे पृथ्वी, स्वर्ग और दिशाओंके अन्त तक दौड़ते गये; परन्तु फिर भी उसे पीछा करते देखकर उत्तरकी ओर बढ़े॥ २४॥

श्लोक-२५

विश्वास-प्रस्तुतिः

अजानन्तः प्रतिविधिं तूष्णीमासन् सुरेश्वराः।
ततो वैकुण्ठमगमद् भास्वरं तमसः परम्॥

मूलम्

अजानन्तः प्रतिविधिं तूष्णीमासन् सुरेश्वराः।
ततो वैकुण्ठमगमद् भास्वरं तमसः परम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

बड़े-बड़े देवता इस संकटको टालनेका कोई उपाय न देखकर चुप रह गये। अन्तमें वे प्राकृतिक अंधकारसे परे परम प्रकाशमय वैकुण्ठ-लोकमें गये॥ २५॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

वैकुण्ठं विष्णुलोकं न तु परमस्थानं मुक्तप्राप्यम् ॥ २५ ॥

श्लोक-२६

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत्र नारायणः साक्षान्न्यासिनां परमा गतिः।
शान्तानां न्यस्तदण्डानां यतो नावर्तते गतः॥

मूलम्

यत्र नारायणः साक्षान्न्यासिनां परमा गतिः।
शान्तानां न्यस्तदण्डानां यतो नावर्तते गतः॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैकुण्ठमें स्वयं भगवान् नारायण निवास करते हैं। एकमात्र वे ही उन संन्यासियोंकी परम गति हैं जो सारे जगत‍्को अभयदान करके शान्तभावमें स्थित हो गये हैं। वैकुण्ठमें जाकर जीवको फिर लौटना नहीं पड़ता॥ २६॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

यतः नारायणात् यत इति पदस्य देशपरत्वेऽपि विष्णुगतानां श्वेतद्वीपवासिनां पुनर्जन्माभाव इत्यविरोधः ॥ २६-२९॥

श्लोक-२७

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं तथाव्यसनं दृष्ट्वा भगवान् वृजिनार्दनः।
दूरात् प्रत्युदियाद् भूत्वा वटुको योगमायया॥

मूलम्

तं तथाव्यसनं दृष्ट्वा भगवान् वृजिनार्दनः।
दूरात् प्रत्युदियाद् भूत्वा वटुको योगमायया॥

अनुवाद (हिन्दी)

भक्तभयहारी भगवान‍्ने देखा कि शंकरजी तो बड़े संकटमें पड़े हुए हैं। तब वे अपनी योगमायासे ब्रह्मचारी बनकर दूरसे ही धीरे-धीरे वृकासुरकी ओर आने लगे॥ २७॥

श्लोक-२८

विश्वास-प्रस्तुतिः

मेखलाजिनदण्डाक्षैस्तेजसाग्निरिव ज्वलन्।
अभिवादयामास च तं कुशपाणिर्विनीतवत्॥

मूलम्

मेखलाजिनदण्डाक्षैस्तेजसाग्निरिव ज्वलन्।
अभिवादयामास च तं कुशपाणिर्विनीतवत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान‍्ने मूँजकी मेखला, काला मृगचर्म, दण्ड और रुद्राक्षकी माला धारण कर रखी थी। उनके एक-एक अंगसे ऐसी ज्योति निकल रही थी, मानो आग धधक रही हो। वे हाथमें कुश लिये हुए थे। वृकासुरको देखकर उन्होंने बड़ी नम्रतासे झुककर प्रणाम किया॥ २८॥

श्लोक-२९

मूलम् (वचनम्)

श्रीभगवानुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

शाकुनेय भवान् व्यक्तं श्रान्तः किं दूरमागतः।
क्षणं विश्रम्यतां पुंस आत्मायं सर्वकामधुक्॥

मूलम्

शाकुनेय भवान् व्यक्तं श्रान्तः किं दूरमागतः।
क्षणं विश्रम्यतां पुंस आत्मायं सर्वकामधुक्॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्मचारी-वेषधारी भगवान‍्ने कहा—शकुनिनन्दन वृकासुरजी! आप स्पष्ट ही बहुत थके-से जान पड़ते हैं। आज आप बहुत दूरसे आ रहे हैं क्या? तनिक विश्राम तो कर लीजिये। देखिये, यह शरीर ही सारे सुखोंकी जड़ है। इसीसे सारी कामनाएँ पूरी होती हैं। इसे अधिक कष्ट न देना चाहिये॥ २९॥

श्लोक-३०

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदि नः श्रवणायालं युष्मद्‍व्यवसितं विभो।
भण्यतां प्रायशः पुम्भिर्धृतैः स्वार्थान् समीहते॥

मूलम्

यदि नः श्रवणायालं युष्मद्‍व्यवसितं विभो।
भण्यतां प्रायशः पुम्भिर्धृतैः स्वार्थान् समीहते॥

अनुवाद (हिन्दी)

आप तो सब प्रकारसे समर्थ हैं। इस समय आप क्या करना चाहते हैं? यदि मेरे सुननेयोग्य कोई बात हो तो बतलाइये। क्योंकि संसारमें देखा जाता है कि लोग सहायकोंके द्वारा बहुत-से काम बना लिया करते हैं॥ ३०॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

स्वार्थः स्वप्रयोजनं पुम्भिः पुरुषैः साधयितुमीयते भवान् इत्यर्थः ॥ ३०-४०॥

श्लोक-३१

मूलम् (वचनम्)

श्रीशुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं भगवता पृष्टो वचसामृतवर्षिणा।
गतक्लमोऽब्रवीत्तस्मै यथापूर्वमनुष्ठितम्॥

मूलम्

एवं भगवता पृष्टो वचसामृतवर्षिणा।
गतक्लमोऽब्रवीत्तस्मै यथापूर्वमनुष्ठितम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! भगवान‍्के एक-एक शब्दसे अमृत बरस रहा था। उनके इस प्रकार पूछनेपर पहले तो उसने तनिक ठहरकर अपनी थकावट दूर की; उसके बाद क्रमशः अपनी तपस्या, वरदान-प्राप्ति तथा भगवान् शंकरके पीछे दौड़नेकी बात शुरूसे कह सुनायी॥ ३१॥

श्लोक-३२

मूलम् (वचनम्)

श्रीभगवानुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं चेत्तर्हि तद्वाक्यं न वयं श्रद्दधीमहि।
यो दक्षशापात् पैशाच्यं प्राप्तः प्रेतपिशाचराट्॥

मूलम्

एवं चेत्तर्हि तद्वाक्यं न वयं श्रद्दधीमहि।
यो दक्षशापात् पैशाच्यं प्राप्तः प्रेतपिशाचराट्॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीभगवान‍्ने कहा—‘अच्छा, ऐसी बात है? तब तो भाई! हम उसकी बातपर विश्वास नहीं करते। आप नहीं जानते हैं क्या? वह तो दक्ष प्रजापतिके शापसे पिशाचभावको प्राप्त हो गया है। आजकल वही प्रेतों और पिशाचोंका सम्राट् है॥ ३२॥

श्लोक-३३

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदि वस्तत्र विश्रम्भो दानवेन्द्र जगद‍्गुरौ।
तर्ह्यङ्गाशु स्वशिरसि हस्तं न्यस्य प्रतीयताम्॥

मूलम्

यदि वस्तत्र विश्रम्भो दानवेन्द्र जगद‍्गुरौ।
तर्ह्यङ्गाशु स्वशिरसि हस्तं न्यस्य प्रतीयताम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

दानवराज! आप इतने बड़े होकर ऐसी छोटी-छोटी बातोंपर विश्वास कर लेते हैं? आप यदि अब भी उसे जगद‍्गुरु मानते हों और उसकी बातपर विश्वास करते हों तो झटपट अपने सिरपर हाथ रखकर परीक्षा कर लीजिये॥ ३३॥

श्लोक-३४

विश्वास-प्रस्तुतिः

यद्यसत्यं वचः शम्भोः कथञ्चिद् दानवर्षभ।
तदैनं जह्यसद्वाचं न यद् वक्तानृतं पुनः॥

मूलम्

यद्यसत्यं वचः शम्भोः कथञ्चिद् दानवर्षभ।
तदैनं जह्यसद्वाचं न यद् वक्तानृतं पुनः॥

अनुवाद (हिन्दी)

दानव-शिरोमणे! यदि किसी प्रकार शंकरकी बात असत्य निकले तो उस असत्यवादीको मार डालिये, जिससे फिर कभी वह झूठ न बोल सके॥ ३४॥

श्लोक-३५

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्थं भगवतश्चित्रैर्वचोभिः स सुपेशलैः।
भिन्नधीर्विस्मृतः शीर्ष्णि स्वहस्तं कुमतिर्व्यधात्॥

मूलम्

इत्थं भगवतश्चित्रैर्वचोभिः स सुपेशलैः।
भिन्नधीर्विस्मृतः शीर्ष्णि स्वहस्तं कुमतिर्व्यधात्॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! भगवान‍्ने ऐसी मोहित करनेवाली अद‍्भुत और मीठी बात कही कि उसकी विवेक-बुद्धि जाती रही। उस दुर्बुद्धिने भूलकर अपने ही सिरपर हाथ रख लिया॥ ३५॥

श्लोक-३६

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथापतद् भिन्नशिरा वज्राहत इव क्षणात्।
जयशब्दो नमःशब्दः साधुशब्दोऽभवद् दिवि॥

मूलम्

अथापतद् भिन्नशिरा वज्राहत इव क्षणात्।
जयशब्दो नमःशब्दः साधुशब्दोऽभवद् दिवि॥

अनुवाद (हिन्दी)

बस, उसी क्षण उसका सिर फट गया और वह वहीं धरतीपर गिर पड़ा, मानो उसपर बिजली गिर पड़ी हो। उस समय आकाशमें देवतालोग ‘जय-जय, नमो नमः, साधु-साधु!’ के नारे लगाने लगे॥ ३६॥

श्लोक-३७

विश्वास-प्रस्तुतिः

मुमुचुः पुष्पवर्षाणि हते पापे वृकासुरे।
देवर्षिपितृगन्धर्वा मोचितः सङ्कटाच्छिवः॥

मूलम्

मुमुचुः पुष्पवर्षाणि हते पापे वृकासुरे।
देवर्षिपितृगन्धर्वा मोचितः सङ्कटाच्छिवः॥

अनुवाद (हिन्दी)

पापी वृकासुरकी मृत्युसे देवता, ऋषि, पितर और गन्धर्व अत्यन्त प्रसन्न होकर पुष्पोंकी वर्षा करने लगे और भगवान् शंकर उस विकट संकटसे मुक्त हो गये॥ ३७॥

श्लोक-३८

विश्वास-प्रस्तुतिः

मुक्तं गिरिशमभ्याह भगवान् पुरुषोत्तमः।
अहो देव महादेव पापोऽयं स्वेन पाप्मना॥

मूलम्

मुक्तं गिरिशमभ्याह भगवान् पुरुषोत्तमः।
अहो देव महादेव पापोऽयं स्वेन पाप्मना॥

श्लोक-३९

विश्वास-प्रस्तुतिः

हतः को नु महत्स्वीश जन्तुर्वै कृतकिल्बिषः।
क्षेमी स्यात् किमु विश्वेशे कृतागस्को जगद‍्गुरौ॥

मूलम्

हतः को नु महत्स्वीश जन्तुर्वै कृतकिल्बिषः।
क्षेमी स्यात् किमु विश्वेशे कृतागस्को जगद‍्गुरौ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अब भगवान् पुरुषोत्तमने भयमुक्त शंकरजीसे कहा कि ‘देवाधिदेव! बड़े हर्षकी बात है कि इस दुष्टको इसके पापोंने ही नष्ट कर दिया। परमेश्वर! भला, ऐसा कौन प्राणी है जो महापुरुषोंका अपराध करके कुशलसे रह सके? फिर स्वयं जगद‍्गुरु विश्वेश्वर! आपका अपराध करके तो कोई सकुशल रह ही कैसे सकता है?’॥ ३८-३९॥

श्लोक-४०

विश्वास-प्रस्तुतिः

य एवमव्याकृतशक्त्युदन्वतः
परस्य साक्षात् परमात्मनो हरेः।
गिरित्रमोक्षं कथयेच्छृणोति वा
विमुच्यते संसृतिभिस्तथारिभिः॥

मूलम्

य एवमव्याकृतशक्त्युदन्वतः
परस्य साक्षात् परमात्मनो हरेः।
गिरित्रमोक्षं कथयेच्छृणोति वा
विमुच्यते संसृतिभिस्तथारिभिः॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् अनन्त शक्तियोंके समुद्र हैं। उनकी एक-एक शक्ति मन और वाणीकी सीमाके परे है। वे प्रकृतिसे अतीत स्वयं परमात्मा हैं। उनकी शंकरजीको संकटसे छुड़ानेकी यह लीला जो कोई कहता या सुनता है, वह संसारके बन्धनों और शत्रुओंके भयसे मुक्त हो जाता है॥ ४०॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

॥ इति श्रीमद्भागवतव्याख्याने दशमस्कन्धे श्रीसुदर्शनसूरिकृतशुकपक्षीये अष्टाशीतितमोऽध्यायः ॥ ८८ ॥

अनुवाद (समाप्ति)

इति श्रीमद‍्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे उत्तरार्धे रुद्रमोक्षणं नामाष्टाशीतितमोऽध्यायः॥ ८८॥