[सप्ताशीतितमोऽध्यायः]
भागसूचना
वेदस्तुति
श्लोक-१
मूलम् (वचनम्)
परीक्षिदुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रह्मन् ब्रह्मण्यनिर्देश्ये निर्गुणे गुणवृत्तयः।
कथं चरन्ति श्रुतयः साक्षात् सदसतः परे॥
मूलम्
ब्रह्मन् ब्रह्मण्यनिर्देश्ये निर्गुणे गुणवृत्तयः।
कथं चरन्ति श्रुतयः साक्षात् सदसतः परे॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा परीक्षित् ने पूछा—भगवन्! ब्रह्म कार्य और कारणसे सर्वथा परे है। सत्त्व, रज और तम—ये तीनों गुण उसमें हैं ही नहीं। मन और वाणीसे संकेतरूपमें भी उसका निर्देश नहीं किया जा सकता। दूसरी ओर समस्त श्रुतियोंका विषय गुण ही है। (वे जिस विषयका वर्णन करती हैं उसके गुण, जाति, क्रिया अथवा रूढिका ही निर्देश करती हैं)ऐसी स्थितिमें श्रुतियाँ निर्गुण ब्रह्मका प्रतिपादन किस प्रकार करती हैं? क्योंकि निर्गुण वस्तुका स्वरूप तो उनकी पहुँचके परे है॥ १॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
अनिर्देश्ये चेतनाचेतनसजातीयतया निर्देष्टुमशक्ये निर्गुणे त्रिगुणप्रत्यनीके तगुणप्रवृत्तिनिमित्ताश्च श्रुतयः कथं प्रवर्तन्ते । न हि प्रवृत्तिनिमित्तप्रहाणेन शब्दः प्रतिपादयितुमलमिति प्रश्नार्थः ॥ १ ॥
श्लोक-२
मूलम् (वचनम्)
श्रीशुक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
बुद्धीन्द्रियमनःप्राणान् जनानामसृजत् प्रभुः।
मात्रार्थं च भवार्थं च आत्मनेऽकल्पनाय च॥
मूलम्
बुद्धीन्द्रियमनःप्राणान् जनानामसृजत् प्रभुः।
मात्रार्थं च भवार्थं च आत्मनेऽकल्पनाय च॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! (भगवान् सर्वशक्तिमान् और गुणोंके निधान हैं। श्रुतियाँ स्पष्टतः सगुणका ही निरूपण करती हैं, परन्तु विचार करनेपर उनका तात्पर्य निर्गुण ही निकलता है। विचार करनेके लिये ही) भगवान्ने जीवोंके लिये बुद्धि, इन्द्रिय, मन और प्राणोंकी सृष्टि की है। इनके द्वारा वे स्वेच्छासे अर्थ, धर्म, काम अथवा मोक्षका अर्जन कर सकते हैं (प्राणोंके द्वारा जीवन-धारण, श्रवणादि इन्द्रियोंके द्वारा महावाक्य आदिका श्रवण, मनके द्वारा मनन और बुद्धिके द्वारा निश्चय करनेपर श्रुतियोंके तात्पर्य निर्गुण स्वरूपका साक्षात्कार हो सकता है। इसलिये श्रुतियाँ सगुणका प्रतिपादन करनेपर भी वस्तुतः निर्गुणपरक हैं)॥ २॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
सर्वे शब्दाः चिदचिद्वारा तस्मिन् वर्तन्त इति परिहार उच्यते - बुद्धीन्द्रियेति । मात्रार्थं देहोत्पादनार्थं भवार्थम् आत्मार आत्मज्ञानार्थम् । कल्पनाय सृष्ट्याद्यर्थम् । जगव्यापाररूपक्रियार्थमित्यर्थः ॥२॥
श्लोक-३
विश्वास-प्रस्तुतिः
सैषा ह्युपनिषद् ब्राह्मी पूर्वेषां पूर्वजैर्धृता।
श्रद्धया धारयेद् यस्तां क्षेमं गच्छेदकिञ्चनः॥
मूलम्
सैषा ह्युपनिषद् ब्राह्मी(ब्राह्मणी) पूर्वेषां पूर्वजैर्धृता।
श्रद्धया धारयेद् यस्तां क्षेमं गच्छेदकिञ्चनः॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्मका प्रतिपादन करनेवाली उपनिषद्का यही स्वरूप है। इसे पूर्वजोंके भी पूर्वज सनकादि ऋषियोंने आत्मनिश्चयके द्वारा धारण किया है। जो भी मनुष्य इसे श्रद्धापूर्वक धारण करता है, वह बन्धनके कारण समस्त उपाधियों—अनात्मभावोंसे मुक्त होकर अपने परम कल्याणस्वरूप परमात्माको प्राप्त हो जाता है॥ ३॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
ब्राह्मणी वेदसम्बन्धिनी । उपनिषद्रहस्यमित्यर्थः ॥ ३-५ ॥
श्लोक-४
विश्वास-प्रस्तुतिः
अत्र ते वर्णयिष्यामि गाथां नारायणान्विताम्।
नारदस्य च संवादमृषेर्नारायणस्य च॥
मूलम्
अत्र ते वर्णयिष्यामि गाथां नारायणान्विताम्।
नारदस्य च संवादमृषेर्नारायणस्य च॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस विषयमें मैं तुम्हें एक गाथा सुनाता हूँ। उस गाथाके साथ स्वयं भगवान् नारायणका सम्बन्ध है। वह गाथा देवर्षि नारद और ऋषिश्रेष्ठ नारायणका संवाद है॥ ४॥
श्लोक-५
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकदा नारदो लोकान् पर्यटन् भगवत्प्रियः।
सनातनमृषिं द्रष्टुं ययौ नारायणाश्रमम्॥
मूलम्
एकदा नारदो लोकान् पर्यटन् भगवत्प्रियः।
सनातनमृषिं द्रष्टुं ययौ नारायणाश्रमम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक समयकी बात है, भगवान्के प्यारे भक्त देवर्षि नारदजी विभिन्न लोकोंमें विचरण करते हुए सनातनऋषि भगवान् नारायणका दर्शन करनेके लिये बदरिकाश्रम गये॥ ५॥
श्लोक-६
विश्वास-प्रस्तुतिः
यो वै भारतवर्षेऽस्मिन् क्षेमाय स्वस्तये नृणाम्।
धर्मज्ञानशमोपेतमाकल्पादास्थितस्तपः॥
मूलम्
यो वै भारतवर्षेऽस्मिन् क्षेमाय स्वस्तये नृणाम्।
धर्मज्ञानशमोपेतमाकल्पादास्थितस्तपः॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् नारायण मनुष्योंके अभ्युदय (लौकिक कल्याण) और परम निःश्रेयस (भगवत्स्वरूप अथवा मोक्षकी प्राप्ति) के लिये इस भारतवर्षमें कल्पके प्रारम्भसे ही धर्म, ज्ञान और संयमके साथ महान् तपस्या कर रहे हैं॥ ६॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
क्षेमाय अभयरूपमोक्षाय ॥६-८॥
श्लोक-७
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्रोपविष्टमृषिभिः कलापग्रामवासिभिः।
परीतं प्रणतोऽपृच्छदिदमेव कुरूद्वह॥
मूलम्
तत्रोपविष्टमृषिभिः कलापग्रामवासिभिः।
परीतं प्रणतोऽपृच्छदिदमेव कुरूद्वह॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! एक दिन वे कलापग्रामवासी सिद्ध ऋषियोंके बीचमें बैठे हुए थे। उस समय नारदजीने उन्हें प्रणाम करके बड़ी नम्रतासे यही प्रश्न पूछा, जो तुम मुझसे पूछ रहे हो॥ ७॥
श्लोक-८
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मै ह्यवोचद् भगवानृषीणां शृण्वतामिदम्।
यो ब्रह्मवादः पूर्वेषां जनलोकनिवासिनाम्॥
मूलम्
तस्मै ह्यवोचद् भगवानृषीणां शृण्वतामिदम्।
यो ब्रह्मवादः पूर्वेषां जनलोकनिवासिनाम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् नारायणने ऋषियोंकी उस भरी सभामें नारदजीको उनके प्रश्नका उत्तर दिया और वह कथा सुनायी, जो पूर्वकालीन जनलोक निवासियोंमें परस्पर वेदोंके तात्पर्य और ब्रह्मके स्वरूपके सम्बन्धमें विचार करते समय कही गयी थी॥ ८॥
श्लोक-९
मूलम् (वचनम्)
श्रीभगवानुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वायम्भुव ब्रह्मसत्रं जनलोकेऽभवत् पुरा।
तत्रस्थानां मानसानां मुनीनामूर्ध्वरेतसाम्॥
मूलम्
स्वायम्भुव ब्रह्मसत्रं जनलोकेऽभवत् पुरा।
तत्रस्थानां मानसानां मुनीनामूर्ध्वरेतसाम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् नारायणने कहा—नारदजी! प्राचीन कालकी बात है। एक बार जनलोकमें वहाँ रहनेवाले ब्रह्माके मानसपुत्र नैष्ठिक ब्रह्मचारी सनक, सनन्दन, सनातन आदि परमर्षियोंका ब्रह्मसत्र (ब्रह्मविषयक विचार या प्रवचन) हुआ था॥ ९॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
स्वायम्भुवं स्वयम्भुवाऽनुष्ठितं ब्रह्मसत्रम् । वेदसिद्ध भगवदाराधनरूपं मन्त्रम् ॥ ९ ॥
श्लोक-१०
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्वेतद्वीपं गतवति त्वयि द्रष्टुं तदीश्वरम्।
ब्रह्मवादः सुसंवृत्तः श्रुतयो यत्र शेरते।
तत्र हायमभूत् प्रश्नस्त्वं मां यमनुपृच्छसि॥
मूलम्
श्वेतद्वीपं गतवति त्वयि द्रष्टुं तदीश्वरम्।
ब्रह्मवादः सुसंवृत्तः श्रुतयो यत्र शेरते।
तत्र हायमभूत् प्रश्नस्त्वं मां यमनुपृच्छसि॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय तुम मेरी श्वेतद्वीपाधिपति अनिरुद्ध-मूर्तिका दर्शन करनेके लिये श्वेतद्वीप चले गये थे। उस समय वहाँ उस ब्रह्मके सम्बन्धमें बड़ी ही सुन्दर चर्चा हुई थी, जिसके विषयमें श्रुतियाँ भी मौन धारण कर लेती हैं, स्पष्ट वर्णन न करके तात्पर्यरूपसे लक्षित कराती हुई उसीमें सो जाती हैं। उस ब्रह्मसत्रमें यही प्रश्न उपस्थित किया गया था, जो तुम मुझसे पूछ रहे हो॥ १०॥
मूलम्
ब्रह्मवादः ब्रह्मणां वाद: ॥१० ॥
श्लोक-११
विश्वास-प्रस्तुतिः
तुल्यश्रुततपःशीलास्तुल्यस्वीयारिमध्यमाः।
अपि चक्रुः प्रवचनमेकं शुश्रूषवोऽपरे॥
मूलम्
तुल्यश्रुततपःशीलास्तुल्यस्वीयारिमध्यमाः।
अपि चक्रुः प्रवचनमेकं शुश्रूषवोऽपरे॥
अनुवाद (हिन्दी)
सनक, सनन्दन, सनातन, सनत्कुमार—ये चारों भाई शास्त्रीय ज्ञान, तपस्या और शील-स्वभावमें समान हैं। उन लोगोंकी दृष्टिमें शत्रु, मित्र और उदासीन एक-से हैं। फिर भी उन्होंने अपनेमेंसे सनन्दनको तो वक्ता बना लिया और शेष भाई सुननेके इच्छुक बनकर बैठ गये॥ ११॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
प्रवचनम् एकं चक्रुः । सनन्दनं प्रतिवक्तारं चकुः ॥११- १३ ॥
श्लोक-१२
मूलम् (वचनम्)
सनन्दन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वसृष्टमिदमापीय शयानं सह शक्तिभिः।
तदन्ते बोधयाञ्चक्रुस्तल्लिङ्गैः श्रुतयः परम्॥
मूलम्
स्वसृष्टमिदमापीय शयानं सह शक्तिभिः।
तदन्ते बोधयाञ्चक्रुस्तल्लिङ्गैः श्रुतयः परम्॥
श्लोक-१३
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा शयानं सम्राजं वन्दिनस्तत्पराक्रमैः।
प्रत्यूषेऽभ्येत्य सुश्लोकैर्बोधयन्त्यनुजीविनः॥
मूलम्
यथा शयानं सम्राजं वन्दिनस्तत्पराक्रमैः।
प्रत्यूषेऽभ्येत्य सुश्लोकैर्बोधयन्त्यनुजीविनः॥
अनुवाद (हिन्दी)
सनन्दनजीने कहा—जिस प्रकार प्रातःकाल होनेपर सोते हुए सम्राट्को जगानेके लिये अनुजीवी वंदीजन उसके पास आते हैं और सम्राट्के पराक्रम तथा सुयशका गान करके उसे जगाते हैं, वैसे ही जब परमात्मा अपने बनाये हुए सम्पूर्ण जगत्को अपनेमें लीन करके अपनी शक्तियोंके सहित सोये रहते हैं; तब प्रलयके अन्तमें श्रुतियाँ उनका प्रतिपादन करनेवाले वचनोंसे उन्हें इस प्रकार जगाती हैं॥ १२-१३॥
श्लोक-१४
मूलम् (वचनम्)
श्रुतय ऊचुः
विश्वास-प्रस्तुतिः
जय जय जह्यजामजित दोषगृभीतगुणां
त्वमसि यदात्मना समवरुद्धसमस्तभगः।
अगजगदोकसामखिलशक्त्यवबोधक ते
क्वचिदजयाऽऽत्मना च चरतोऽनुचरेन्निगमः॥
मूलम्
जय जय जह्यजामजित दोषगृभीतगुणां
त्वमसि यदात्मना समवरुद्धसमस्तभगः।
अगजगदोकसामखिलशक्त्यवबोधक ते
क्वचिदजयाऽऽत्मना च चरतोऽनुचरेन्निगमः॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रुतियाँ कहती हैं—अजित! आप ही सर्वश्रेष्ठ हैं, आपपर कोई विजय नहीं प्राप्त कर सकता। आपकी जय हो, जय हो। प्रभो! आप स्वभावसे ही समस्त ऐश्वर्योंसे पूर्ण हैं, इसलिये चराचर प्राणियोंको फँसानेवाली मायाका नाश कर दीजिये। प्रभो! इस गुणमयी मायाने दोषके लिये—जीवोंके आनन्दादिमय सहज स्वरूपका आच्छादन करके उन्हें बन्धनमें डालनेके लिये ही सत्त्वादि गुणोंको ग्रहण किया है। जगत्में जितनी भी साधना, ज्ञान, क्रिया आदि शक्तियाँ हैं, उन सबको जगानेवाले आप ही हैं। इसलिये आपके मिटाये बिना यह माया मिट नहीं सकती। (इस विषयमें यदि प्रमाण पूछा जाय, तो आपकी श्वासभूता श्रुतियाँ ही—हम ही प्रमाण हैं।) यद्यपि हम आपका स्वरूपतः वर्णन करनेमें असमर्थ हैं, परन्तु जब कभी आप मायाके द्वारा जगत्की सृष्टि करके सगुण हो जाते हैं या उसको निषेध करके स्वरूपस्थितिकी लीला करते हैं अथवा अपना सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीविग्रह प्रकट करके क्रीड़ा करते हैं, तभी हम यत्किंचित् आपका वर्णन करनेमें समर्थ होती हैं*॥ १४॥
पादटिप्पनी
- इन श्लोकोंपर श्रीश्रीधरस्वामीने बहुत सुन्दर श्लोक लिखे हैं, वे अर्थसहित यहाँ दिये जाते हैं—
जय जयाजित जह्यगजंगमा-
वृतिमजामुपनीतमृषागुणाम्।
न हि भवन्तमृते प्रभवन्त्यमी
निगमगीतगुणार्णवता तव॥ १॥
अजित! आपकी जय हो, जय हो! झूठे गुण धारण करके चराचर जीवको आच्छादित करनेवाली इस मायाको नष्ट कर दीजिये। आपके बिना बेचारे जीव इसको नहीं मार सकेंगे—नहीं पार कर सकेंगे। वेद इस बातका गान करते रहते हैं कि आप सकल सद्गुणोंके समुद्र हैं॥ १॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
श्रुतयः ऊचुः ॥ जय जयेति । अजां प्रकृतिम् । जहि विध्वंसय । संसरतां चेतनानां प्रकृतिसम्बन्धं निराकुर्या इत्यर्थः । दोषगृभीतगुणः दोषेभ्यः गृहीतगुणः सत्स्वपि दोषगुणानां ग्रहीतेत्यर्थः । यद्वा, अजितदोषेषु सापराधेष्वपि जनेषु गुणलवोस्ति तद्ग्राहीत्यर्थः । आत्मना समवरुद्धसमस्तभगः । स्वत एव स्वीकृताऽसङ्कुचितज्ञानैश्वर्यादिगुणकस्त्वमसि। यत् यस्मादजां जहि आश्रितवत्सलत्वात् निरङ्कुशैश्वर्यत्वाच्च त्वमेव मोक्षं दातुं क्षमः । तस्मात् अजां विध्वंसयेत्यर्थः । अगजगदोकसां स्थावरजङ्गमशरीराश्रयाणां जीवात्मनामखिलचिच्छक्तिशक्त्यवबन्धकशक्त्यावबोधक ! अजया आत्मना च प्रकृतिपुरुषाभ्यां विशिष्टस्य चरतः जगत्सर्गादिलीलां कुर्वतः ते ते इति सम्बन्धसामान्ये कर्मणि षष्ठी । निगमोऽनुचरेत् चिदचिच्छरीरकस्य जगतः कारणत्वं वेदः प्रतिपादयेदित्यर्थः । एवं जगत्कारणत्वं मोक्षप्रदत्वं तदौपयिकगुणपूर्णत्वं शास्त्रप्रमाणकत्वं चोक्तम् ॥ १४ ॥
श्लोक-१५
विश्वास-प्रस्तुतिः
बृहदुपलब्धमेतदवयन्त्यवशेषतया
यत उदयास्तमयौ विकृतेर्मृदि वाविकृतात्।
अत ऋषयो दधुस्त्वयि मनोवचनाचरितं
कथमयथा भवन्ति भुवि दत्तपदानि नृणाम्॥
मूलम्
बृहदुपलब्धमेतदवयन्त्यवशेषतया
यत उदयास्तमयौ विकृतेर्मृदि वाविकृतात्।
अत ऋषयो दधुस्त्वयि मनोवचनाचरितं
कथमयथा भवन्ति भुवि दत्तपदानि नृणाम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसमें सन्देह नहीं कि हमारे द्वारा इन्द्र, वरुण आदि देवताओंका भी वर्णन किया जाता है, परन्तु हमारे (श्रुतियोंके) सारे मन्त्र अथवा सभी मन्त्रद्रष्टा ऋषि प्रतीत होनेवाले इस सम्पूर्ण जगत्को ब्रह्मस्वरूप ही अनुभव करते हैं। क्योंकि जिस समय यह सारा जगत् नहीं रहता, उस समय भी आप बच रहते हैं। जैसे घट, शराव (मिट्टीका प्याला—कसोरा) आदि सभी विकार मिट्टीसे ही उत्पन्न और उसीमें लीन होते हैं, उसी प्रकार सम्पूर्ण जगत्की उत्पत्ति और प्रलय आपमें ही होती है। तब क्या आप पृथ्वीके समान विकारी हैं? नहीं-नहीं, आप तो एकरस—निर्विकार हैं। इसीसे तो यह जगत् आपमें उत्पन्न नहीं, प्रतीत है। इसलिये जैसे घट, शराव आदिका वर्णन भी मिट्टीका ही वर्णन है, वैसे ही इन्द्र, वरुण आदि देवताओंका वर्णन भी आपका ही वर्णन है। यही कारण है कि विचारशील ऋषि, मनसे जो कुछ सोचा जाता है और वाणीसे जो कुछ कहा जाता है, उसे आपमें ही स्थित, आपका ही स्वरूप देखते हैं। मनुष्य अपना पैर चाहे कहीं भी रखे—ईंट, पत्थर या काठपर—होगा वह पृथ्वीपर ही; क्योंकि वे सब पृथ्वीस्वरूप ही हैं। इसलिये हम चाहे जिस नाम या जिस रूपका वर्णन करें, वह आपका ही नाम, आपका ही रूप है*॥ १५॥
पादटिप्पनी
- द्रुहिणवह्निरवीन्द्रमुखामरा
जगदिदं न भवेत्पृथगुत्थितम्।
बहुमुखैरपि मन्त्रगणैरज-
स्त्वमुरुमूर्तिरतो विनिगद्यसे॥ २॥
ब्रह्मा, अग्नि, सूर्य, इन्द्र आदि देवता तथा यह सम्पूर्ण जगत् प्रतीत होनेपर भी आपसे पृथक् नहीं है। इसलिये अनेक देवताओंका प्रतिपादन करनेवाले वेद-मन्त्र उन देवताओंके नामसे पृथक्-पृथक् आपकी ही विभिन्न मूर्तियोंका वर्णन करते हैं। वस्तुतः आप अजन्मा हैं; उन मूर्तियोंके रूपमें भी आपका जन्म नहीं होता॥ २॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
उपरितनश्लोकैरयमेवार्थः प्रपञ्च्यते - बृहदित्यादिना । सृष्टेः पूर्वकाले यतः त्वत्तः सृष्टिकाले आविर्भूतम् उत्पन्नम्। प्रभवदेतज्जगत् भवान् स्थितिकाले संरक्षति वा तत्काले अत्ति संहरति । एवम्भूतस्य विकृतैर्विकारं प्राप्तस्य कार्यभूतस्य जगतः सृष्टेः पूर्वकाले एवम्भूतस्य उदयास्तमयौ यतस्त्वत्तः तत्कालगं बृहत् अनन्तगुणयुक्तं ब्रह्म । त्वामेव ऋषयोऽवयन्ति जानन्ति इति श्रुतेः ॥ इत्यन्वयः । किम्भूतं ब्रह्म । अवशेषतया सर्वोपरिसंहारे व्यवस्थिततया जगत्कारणत्वादुपलब्धज्ञानम्। कस्मात्। केवलघटाद्युत्पत्तेः पूर्वं मृदिव घयद्यवस्थारहिता मृदिव भवदिति ब्रह्मप्रलयकाले कार्यावस्थाविधुरमित्यर्थः । एवमप्येतत्कारणावस्थाप्रपञ्चनेन सह सर्गरक्षणसंहारहेतुत्वमुक्तम् । जगत्कारणत्वान्मुमुक्षुभिः सेव्यत्वमाह-अत इति । अतः कारणात् ऋषयो ज्ञानिनो मनोवचनाचरितं ध्यानस्तुतिचेष्टितानि । पदानि मोघानि पतनस्यावर्जनीयत्वात् भुवि निहितानि पदानि अमोघानि पश्चात् पतनाभावात् । एवं मनोवाक्कायचेष्टितानि त्वदाराधनरूपाणि अमोघानि संसारगर्तपतननिवारणानीत्यर्थः ॥१५॥
श्लोक-१६
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति तव सूरयस्त्र्यधिपतेऽखिललोकमल-
क्षपणकथामृताब्धिमवगाह्य तपांसि जहुः।
किमुत पुनः स्वधामविधुताशयकालगुणाः
परम भजन्ति ये पदमजस्रसुखानुभवम्॥
मूलम्
इति तव सूरयस्त्र्यधिपतेऽखिललोकमल-
क्षपणकथामृताब्धिमवगाह्य तपांसि जहुः।
किमुत पुनः स्वधामविधुताशयकालगुणाः
परम भजन्ति ये पदमजस्रसुखानुभवम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवन्! लोग सत्त्व, रज, तम—इन तीन गुणोंकी मायासे बने हुए अच्छे-बुरे भावों या अच्छी-बुरी क्रियाओंमें उलझ जाया करते हैं, परन्तु आप तो उस मायानटीके स्वामी, उसको नचानेवाले हैं। इसीलिये विचारशील पुरुष आपकी लीलाकथाके अमृतसागरमें गोते लगाते रहते हैं और इस प्रकार अपने सारे पाप-तापको धो-बहा देते हैं। क्यों न हो, आपकी लीला-कथा सभी जीवोंके मायामलको नष्ट करनेवाली जो है। पुरुषोत्तम! जिन महापुरुषोंने आत्मज्ञानके द्वारा अन्तःकरणके राग-द्वेष आदि और शरीरके कालकृत जरा-मरण आदि दोष मिटा दिये हैं और निरन्तर आपके उस स्वरूपकी अनुभूतिमें मग्न रहते हैं, जो अखण्ड आनन्दस्वरूप है, उन्होंने अपने पाप-तापोंको सदाके लिये शान्त, भस्म कर दिया है—इसके विषयमें तो कहना ही क्या है*॥ १६॥
पादटिप्पनी
- सकलवेदगणेरितसद्गुण-
स्त्वमिति सर्वमनीषिजना रताः।
त्वयि सुभद्रगुणश्रवणादिभि-
स्तव पदस्मरणेन गतक्लमाः॥ ३॥
सारे वेद आपके सद्गुणोंका वर्णन करते हैं। इसलिये संसारके सभी विद्वान् आपके मंगलमय कल्याणकारी गुणोंके श्रवण, स्मरण आदिके द्वारा आपसे ही प्रेम करते हैं और आपके चरणोंका स्मरण करके सम्पूर्ण क्लेशोंसे मुक्त हो जाते हैं॥ ३॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
भगवत्कथाश्रवणादीनां पापहरत्वमाह-इतीति । हे त्र्यधिपते ! जन्मस्थितिविनाशनिर्वाहक ! लोकस्य मलं एवं तत्क्षपणकथामृताब्धिम् अवगाह्य तपांसि जहुः । आध्यात्मिकादितापानि जहुः त्यक्तवन्तः किम्पुनर्ध्यानपरा इत्याहुः- किमुतेति स्वधाम तेजः स्वज्ञानम् । तेन विधुताः आशयगुणा रागादिमनोवृत्तयः कालगुणा जरामरणादयश्च यैस्ते । पद्यत इति पदं स्वरूपम् । अजस्रसुखानुभवं नित्यज्ञानानन्दरूपम् । भजन्ति समाधिना साक्षात्कुर्वन्ति ॥ १६ ॥
श्लोक-१७
विश्वास-प्रस्तुतिः
दृतय इव श्वसन्त्यसुभृतो यदि तेऽनुविधा
महदहमादयोऽण्डमसृजन् यदनुग्रहतः।
पुरुषविधोऽन्वयोऽत्र चरमोऽन्नमयादिषु यः
सदसतः परं त्वमथ यदेष्ववशेषमृतम्॥
मूलम्
दृतय इव श्वसन्त्यसुभृतो यदि तेऽनुविधा
महदहमादयोऽण्डमसृजन् यदनुग्रहतः।
पुरुषविधोऽन्वयोऽत्र चरमोऽन्नमयादिषु यः
सदसतः परं त्वमथ यदेष्ववशेषमृतम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवन्! प्राणधारियोंके जीवनकी सफलता इसीमें है कि वे आपका भजन-सेवन करें, आपकी आज्ञाका पालन करें; यदि वे ऐसा नहीं करते तो उनका जीवन व्यर्थ है और उनके शरीरमें श्वासका चलना ठीक वैसा ही है, जैसा लुहारकी धौंकनीमें हवाका आना-जाना। महत्तत्त्व, अहंकार आदिने आपके अनुग्रहसे—आपके उनमें प्रवेश करनेपर ही इस ब्रह्माण्डकी सृष्टि की है। अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनन्दमय—इन पाँचों कोशोंमें पुरुष-रूपसे रहनेवाले, उनमें ‘मैं-मैं’ की स्फूर्ति करनेवाले भी आप ही हैं! आपके ही अस्तित्वसे उन कोशोंके अस्तित्वका अनुभव होता है और उनके न रहनेपर भी अन्तिम अवधिरूपसे आप विराजमान रहते हैं। इस प्रकार सबमें अन्वित और सबकी अवधि होनेपर भी आप असंग ही हैं। क्योंकि वास्तवमें जो कुछ वृत्तियोंके द्वारा अस्ति अथवा नास्तिके रूपमें अनुभव होता है, उन समस्त कार्य-कारणोंसे आप परे हैं। ‘नेति-नेति’ के द्वारा इन सबका निषेध हो जानेपर भी आप ही शेष रहते हैं, क्योंकि आप उस निषेधके भी साक्षी हैं और वास्तवमें आप ही एकमात्र सत्य हैं (इसलिये आपके भजनके बिना जीवका जीवन व्यर्थ ही है, क्योंकि वह इस महान् सत्यसे वंचित है)*॥ १७॥
पादटिप्पनी
- नरवपुः प्रतिपद्य यदि त्वयि
श्रवणवर्णनसंस्मरणादिभिः।
नरहरे! न भजन्ति नृणामिदं
दृतिवदुच्छ्वसितं विफलं ततः॥ ४॥
नरहरे! मनुष्य-शरीर प्राप्त करके यदि जीव आपके श्रवण, वर्णन और संस्मरण आदिके द्वारा आपका भजन नहीं करते तो जीवोंका श्वास लेना धौंकनीके समान ही सर्वथा व्यर्थ है॥ ४॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
अथ भगवद्भजनविमुखानां जन्मवैय्यर्थ्यमाह दृतय इति । ते अनुविधाः तवानुविधायिनः त्वदाश्रयणयोग्यजन्मभाजोऽपि असुभृतः असुतृपो यदि प्राणेन्द्रियतर्पणपराः शब्दादिविषयचपलाश्चेत् दृतय इव श्वसन्ति ! ते सकलपुरुषार्थहीनाः इत्यर्थः । तच्छब्दनिर्दिष्टं भगवन्तं कारणत्वेन विशिनष्टि - महदहमादय इति । महदहङ्कारादयः पदार्थाः । यदनुग्रहतः यत्सङ्कल्पानुगृहीतास्सन्तोऽण्डं ब्रह्माण्डगोलकमसृजन् । त्वत्कटाक्षेण निर्माणकरणसमर्था भवन्ति इति भावः । यद्वा तस्य तेऽनुविधायिन इत्यर्थः । अथ सर्वान्तरात्मत्वेन विशिनष्टि - पुरुषविधोऽन्वय इति । अन्नमयादिषु यः चरमः आनन्दमयान्नमयप्राणमयमनोमयविज्ञानमयानां मध्ये यः चरमः अन्तिमः स आनन्दमयः । ‘तस्माद्वा एतस्माद्विज्ञानमयात् । अन्योऽन्तर आत्माऽऽनन्दमयः ।’ इति श्रूयते । स पुरुषविधोऽन्वयः । स वा एष पुरुषविध एव ।’ इत्यादिप्रकारेण शिरःपक्षपुच्छादिरूपपुरुषप्रकारान्वयवान् पक्षपुच्छादिरूपनामसम्बन्धवान् । तस्य पुरुषप्रकारान्वयवतः ‘प्रियमेव शिरः । मोदो दक्षिणः पक्षः । प्रमोद उत्तरः पक्षः । आनन्द आत्मा । ब्रह्म पुच्छं प्रतिष्ठा ।’ इति । पुरुषपुरुषविधत्वं हि निरूप्यते । एष्वन्नमयादिषु अवशेषं पश्चान्निर्दिष्टम् । एषु संहतेषु अवस्थितं वा । अतः परं चिदचिद्वाचिसदसच्छब्दवाच्यम् ऋतं निर्विकारम् । ‘तदनुप्रविश्य सच्च त्यच्च सत्यमभवत् ।’ इति हि श्रूयते । एवम्भूतं यत्तस्य तेऽनुविधा: भक्ताः ते जीवन्ति सफलजन्मानो भजन्तीत्यन्वयः ॥१७॥
श्लोक-१८
विश्वास-प्रस्तुतिः
उदरमुपासते य ऋषिवर्त्मसु कूर्पदृशः
परिसरपद्धतिं हृदयमारुणयो दहरम्।
तत उदगादनन्त तव धाम शिरः परमं
पुनरिह यत् समेत्य न पतन्ति कृतान्तमुखे॥*
मूलम्
उदरमुपासते य ऋषिवर्त्मसु कूर्पदृशः
परिसरपद्धतिं हृदयमारुणयो दहरम्।
तत उदगादनन्त तव धाम शिरः परमं
पुनरिह यत् समेत्य न पतन्ति कृतान्तमुखे॥*
अनुवाद (हिन्दी)
ऋषियोंने आपकी प्राप्तिके लिये अनेकों मार्ग माने हैं। उनमें जो स्थूल दृष्टिवाले हैं, वे मणिपूरक चक्रमें अग्निरूपसे आपकी उपासना करते हैं। अरुणवंशके ऋषि समस्त नाड़ियोंके निकलनेके स्थान हृदयमें आपके परम सूक्ष्मस्वरूप दहर ब्रह्मकी उपासना करते हैं। प्रभो! हृदयसे ही आपको प्राप्त करनेका श्रेष्ठ मार्ग सुषुम्ना नाड़ी ब्रह्मरन्ध्रतक गयी हुई है। जो पुरुष उस ज्योतिर्मय मार्गको प्राप्त कर लेता है और उससे ऊपरकी ओर बढ़ता है, वह फिर जन्म-मृत्युके चक्करमें नहीं पड़ता*॥ १८॥
पादटिप्पनी
- उदरादिषु यः पुंसां चिन्तितो मुनिवर्त्मभिः।
हन्ति मृत्युभयं देवो हृद्गतं तमुपास्महे॥ ५॥
मनुष्य ऋषि-मुनियोंके द्वारा बतलायी हुई पद्धतियोंसे उदर आदि स्थानोंमें जिनका चिन्तन करते हैं और जो प्रभु उनके चिन्तन करनेपर मृत्यु-भयका नाश कर देते हैं, उन हृदयदेशमें विराजमान प्रभुकी हम उपासना करते हैं॥ ५॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
शरीरान्तरस्थानभेदेन उपासनाभेदान् विवक्षन् भगवदुपासकानां मोक्षफलमाह - उदरमिति । ऋषिवर्त्मसु ज्ञानमार्गेषु निष्ठिताः आरुणयः अरुणवंश्याः ऋषयस्तु साक्षात् हृदयस्थं त्वाम् उपासते । कूर्पदृशः सूक्ष्मदृशः उदरमुपासते । उदरस्थं वैश्वानररूपं त्वामुपासते । परिसरत्यस्याम् आत्मेति परिसरपद्धतिः । सुषुम्णामार्गान्तः । उपासते अनुसन्दधते । हृदयं हृदयगतं दहरपरिमाणत्वात् दहराकाशशब्दवाच्यं त्वामुपासते । हे अनन्त ! ततः पद्धतेः शिर उदगात् भ्रूमध्यगतं त्वामुपसते । पुनरिह यत् सङ्गं कृत्वा कृतान्तमुखे मृत्युमुखे न पतन्तीत्यर्थः । ‘शतं चैका च हृदयस्य नाड्यस्तासां मूर्धानमभि निस्सृतैका । तयोर्ध्वमायन्नमृतत्वमेति विष्वगन्या उत्क्रमणे भवन्ति ॥ इति श्रुतिः ॥ १८ ॥
श्लोक-१९
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वकृतविचित्रयोनिषु विशन्निव हेतुतया
तरतमतश्चकास्स्यनलवत् स्वकृतानुकृतिः।
अथ वितथास्वमूष्ववितथं तव धाम समं
विरजधियोऽन्वयन्त्यभिविपण्यव एकरसम्॥*
मूलम्
स्वकृतविचित्रयोनिषु विशन्निव हेतुतया
तरतमतश्चकास्स्यनलवत् स्वकृतानुकृतिः।
अथ वितथास्वमूष्ववितथं तव धाम समं
विरजधियोऽन्वयन्त्यभिविपण्यव एकरसम्॥*
अनुवाद (हिन्दी)
भगवन्! आपने ही देवता, मनुष्य और पशु-पक्षी आदि योनियाँ बनायी हैं। सदा-सर्वत्र सब रूपोंमें आप हैं ही, इसलिये कारणरूपसे प्रवेश न करनेपर भी आप ऐसे जान पड़ते हैं, मानो उसमें प्रविष्ट हुए हों। साथ ही विभिन्न आकृतियोंका अनुकरण करके कहीं उत्तम, तो कहीं अधमरूपसे प्रतीत होते हैं, जैसे आग छोटी-बड़ी लकड़ियों और कर्मोंके अनुसार प्रचुर अथवा अल्प परिमाणमें या उत्तम-अधमरूपमें प्रतीत होती है। इसलिये संत पुरुष लौकिक-पारलौकिक कर्मोंकी दुकानदारीसे, उनके फलोंसे विरक्त हो जाते हैं और अपनी निर्मल बुद्धिसे सत्य-असत्य, आत्मा-अनात्माको पहचानकर जगत्के झूठे रूपोंमें नहीं फँसते; आपके सर्वत्र एकरस, समभावसे स्थित सत्यस्वरूपका साक्षात्कार करते हैं॥ १९॥*
पादटिप्पनी
- स्वनिर्मितेषु कार्येषु तारतम्यविवर्जितम्।
सर्वानुस्यूतसन्मात्रं भगवन्तं भजामहे॥६॥
अपने द्वारा निर्मित सम्पूर्ण कार्योंमें जो न्यूनाधिक श्रेष्ठ-कनिष्ठके भावसे रहित एवं सबमें भरपूर हैं, इस रूपमें अनुभवमें आनेवाली निर्विशेष सत्ताके रूपमें स्थित हैं, उन भगवान्का हम भजन करते हैं॥ ६॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
कार्यान्तःप्रविष्टस्यापि निर्दोषतया परमप्राप्यत्वमाह - स्वकृतेति । स्वकृतविचित्रयोनिषु हेतुतया विशन्निव तरतमतश्चकास्सीत्यन्वयः । विचित्रयोनिषु हेतुतया विचित्रा उत्पत्तयो येषां तेषु । विशन् जीवान्तरात्मतया तिष्ठन् । तरतमतः अल्पत्वमहत्त्वादियुक्तत्वेन । चकास्सि प्रकाशसे । किम्भूतस्त्वम् । सुकृतानुकृतिः । स्वेन त्वया कृतेषु महदादिकार्येषु अनु पश्चात् कृति: प्रेरणा यस्य असौ कार्यपरिणामानुकारी । अथ वितथासु संहृतास्वमूषु योनिषु । तव धामावितथम् असंहृतं समम् एकरसम् कार्यानुप्रवेशतारतम्यरहितम् अविच्छिन्नानन्दम् । तव धाम स्वरूपम् । विरजधियः निर्मलधियः । अवयन्ति उपासते । अभिवियन्ति प्राप्नुवन्ति चेत्यर्थः । ‘पण व्यवहारे’ इत्यस्य रूपं पण्युरिति । तारतम्यभावे दृष्टान्तः । अनलवत् । यथा अनलः अग्निः काष्ठगतह्रस्वत्वदीर्घत्वतारतम्यरहितः ॥ १९ ॥
श्लोक-२०
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वकृतपुरेष्वमीष्वबहिरन्तरसंवरणं
तव पुरुषं वदन्त्यखिलशक्तिधृतोंऽशकृतम्।
इति नृगतिं विविच्य कवयो निगमावपनं
भवत उपासतेऽङ्घ्रिमभवं भुवि विश्वसिताः॥
मूलम्
स्वकृतपुरेष्वमीष्वबहिरन्तरसंवरणं
तव पुरुषं वदन्त्यखिलशक्तिधृतोंऽशकृतम्।
इति नृगतिं विविच्य कवयो निगमावपनं
भवत उपासतेऽङ्घ्रिमभवं भुवि विश्वसिताः॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रभो! जीव जिन शरीरोंमें रहता है, वे उसके कर्मके द्वारा निर्मित होते हैं और वास्तवमें उन शरीरोंके कार्य-कारणरूप आवरणोंसे वह रहित है, क्योंकि वस्तुतः उन आवरणोंकी सत्ता ही नहीं है। तत्त्वज्ञानी पुरुष ऐसा कहते हैं कि समस्त शक्तियोंको धारण करनेवाले आपका ही वह स्वरूप है। स्वरूप होनेके कारण अंश न होनेपर भी उसे अंश कहते हैं और निर्मित न होनेपर भी निर्मित कहते हैं। इसीसे बुद्धिमान् पुरुष जीवके वास्तविक स्वरूपपर विचार करके परम विश्वासके साथ आपके चरणकमलोंकी उपासना करते हैं। क्योंकि आपके चरण ही समस्त वैदिक कर्मोंके समर्पणस्थान और मोक्षस्वरूप हैं*॥ २०॥
पादटिप्पनी
- त्वदंशस्य ममेशान त्वन्मायाकृतबन्धनम्।
त्वदङ्घ्रिसेवामादिश्य परानन्द निवर्तय॥७॥
मेरे परमानन्दस्वरूप स्वामी! मैं आपका अंश हूँ। अपने चरणोंकी सेवाका आदेश देकर अपनी मायाके द्वारा निर्मित मेरे बन्धनको निवृत्त कर दो॥ ७॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
तावदुपासकस्य जीवस्य परेण सम्बन्धमाह - स्वकृतेति । स्वशब्दो भगवद्वाची । पुरेषु बहिरन्तरसंवरणम् । स्वरूपतो धर्मतश्च ज्ञानस्वरूपम् । यद्वा । शरीरेष्वन्तर्बहिश्च प्रसृताज्ञानं पुरुषं नाम जीवम् । अखिलशक्तिधृतस्तव अंशकृतम् । विशेषणतया शकृतम् । पुरुषसमष्टेर्विभक्तं वदन्ति । यद्वा । तदधीनत्वे सति तत्सदृशत्वं ज्ञानानन्दाकारत्वेन । किम्भूतम् । बहिरन्तरसंवरणम् । धर्मभूतज्ञानेन अन्तर्बहिरसंवरणम् । सर्वत्र प्रसृतज्ञानमिति । पूर्वोक्तप्रकारेण । नृगतिम् । नुः जीवस्य गतिम् । तत्त्वं विविच्य विचार्य। भवतोऽङ्घ्रि चरणम् । उपासते सेवन्ते । किम्भूतमङ्घ्रिम् ? निगमावपनं ज्ञानोत्पादकम् । अतः अभवम् भवनिवर्तकम् । किम्भूताः कवयः । भुवि संसारे निःश्वसिताः प्राणायामपराः उपासका इत्यर्थः । विश्वसिता इति पाठे कृतविश्वासाः अनन्यपराः उपासत इत्यर्थः ॥२०॥
श्लोक-२१
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुरवगमात्मतत्त्वनिगमाय तवात्ततनो-
श्चरितमहामृताब्धिपरिवर्तपरिश्रमणाः।
न परिलषन्ति केचिदपवर्गमपीश्वर ते
चरणसरोजहंसकुलसङ्गविसृष्टगृहाः॥
मूलम्
दुरवगमात्मतत्त्वनिगमाय तवात्ततनो-
श्चरितमहामृताब्धिपरिवर्तपरिश्रमणाः।
न परिलषन्ति केचिदपवर्गमपीश्वर ते
चरणसरोजहंसकुलसङ्गविसृष्टगृहाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवन्! परमात्मतत्त्वका ज्ञान प्राप्त करना अत्यन्त कठिन है। उसीका ज्ञान करानेके लिये आप विविध प्रकारके अवतार ग्रहण करते हैं और उनके द्वारा ऐसी लीला करते हैं, जो अमृतके महासागरसे भी मधुर और मादक होती है। जो लोग उसका सेवन करते हैं, उनकी सारी थकावट दूर हो जाती है, वे परमानन्दमें मग्न हो जाते हैं। कुछ प्रेमी भक्त तो ऐसे होते हैं, जो आपकी लीला-कथाओंको छोड़कर मोक्षकी भी अभिलाषा नहीं करते—स्वर्ग आदिकी तो बात ही क्या है। वे आपके चरणकमलोंके प्रेमी परमहंसोंके सत्संगमें, जहाँ आपकी कथा होती है, इतना सुख मानते हैं कि उसके लिये इस जीवनमें प्राप्त अपनी घर-गृहस्थीका भी परित्याग कर देते हैं*॥ २१॥
पादटिप्पनी
- त्वत्कथामृतपाथोघौ विहरन्तो महामुदः।
कुर्वन्ति कृतिनः केचिच्चतुर्वर्गं तृणोपमम्॥ ८॥
कोई-कोई विरले शुद्धान्तःकरण महापुरुष आपके अमृतमय कथा-समुद्रमें विहार करते हुए परमानन्दमें मग्न रहते हैं और धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष—इन चारों पुरुषार्थोंको तृणके समान तुच्छ बना देते हैं।
श्रीसुदर्शनसूरिः
अवताराणां भक्तिवर्धकत्वमाह - दुरवगमेति । भो ईश्वर ! सर्वनियन्तः ! दुरवगमात्मतत्त्वनिगमाय । दुरवगमं दुर्बोधं यदात्मतत्त्वं तस्य निगमाय ज्ञानप्रवर्तनाय । आत्ततनोः आविष्कृता मूर्तिः येन तस्य तव चरितमेव महामृताब्धिः महासमुद्रः । तस्मिन् परिवर्तेन आवर्तेन परिवर्जने गतः परिश्रमो येषां ते तथोक्ताः । अपवर्गमपि कैवल्यं मोक्षमपि भक्तिरसिका न वाञ्छन्ति, कुतोऽन्यान् । कालविधुतम् इन्द्रादिपदमिति भावः । कीदृशस्तव । चरणसरोजहंसकुलसङ्गविसृष्टगृहाः । त्वच्चरणकमले हंसा इव रममाणा ये भक्ताः । तेषां कुलं वृन्दम् । तेन यः समागमः । तेन विसृष्टाः त्यक्ताः गृहाः यैः तथाभूताः । त्यक्तगार्हस्थ्याः ॥ २१ ॥
श्लोक-२२
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वदनुपथं कुलायमिदमात्मसुहृत्प्रियव-
च्चरति तथोन्मुखे त्वयि हिते प्रिय आत्मनि च।
न बत रमन्त्यहो असदुपासनयाऽऽत्महनो
यदनुशया भ्रमन्त्युरुभये कुशरीरभृतः॥
मूलम्
त्वदनुपथं कुलायमिदमात्मसुहृत्प्रियव-
च्चरति तथोन्मुखे त्वयि हिते प्रिय आत्मनि च।
न बत रमन्त्यहो असदुपासनयाऽऽत्महनो
यदनुशया भ्रमन्त्युरुभये कुशरीरभृतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रभो! यह शरीर आपकी सेवाका साधन होकर जब आपके पथका अनुरागी हो जाता है, तब आत्मा, हितैषी, सुहृद् और प्रिय व्यक्तिके समान आचरण करता है। आप जीवके सच्चे हितैषी, प्रियतम और आत्मा ही हैं और सदा-सर्वदा जीवको अपनानेके लिये तैयार भी रहते हैं। इतनी सुगमता होनेपर तथा अनुकूल मानव-शरीरको पाकर भी लोग सख्यभाव आदिके द्वारा आपकी उपासना नहीं करते, आपमें नहीं रमते, बल्कि इस विनाशी और असत् शरीर तथा उसके सम्बन्धियोंमें ही रम जाते हैं, उन्हींकी उपासना करने लगते हैं और इस प्रकार अपने आत्माका हनन करते हैं, उसे अधोगतिमें पहुँचाते हैं। भला, यह कितने कष्टकी बात है! इसका फल यह होता है कि उनकी सारी वृत्तियाँ, सारी वासनाएँ शरीर आदिमें ही लग जाती हैं और फिर उनके अनुसार उनको पशु-पक्षी आदिके न जाने कितने बुरे-बुरे शरीर ग्रहण करने पड़ते हैं और इस प्रकार अत्यन्त भयावह जन्म-मृत्युरूप संसारमें भटकना पड़ता है*॥ २२॥
पादटिप्पनी
- त्वय्यात्मनि जगन्नाथे मन्मनो रमतामिह।
कदा ममेदृशं जन्म मानुषं सम्भविष्यति॥ ९॥
आप जगत्के स्वामी हैं और अपनी आत्मा ही हैं। इस जीवनमें ही मेरा मन आपमें रम जाय। मेरे स्वामी! मेरा ऐसा सौभाग्य कब होगा, जब मुझे इस प्रकारका मनुष्यजन्म प्राप्त होगा?
श्रीसुदर्शनसूरिः
भगवदाश्रयणं शरीरस्य फलम् । अन्यथा कुत्सितभगवद्विमुखदेहयोगात् संसरन्तीत्याह - त्वदनुपथमिति । ‘कुलायो नीडमस्त्रियाम् ।’ इति कोशात् । कुलायं नीडतुल्यं शरीरं त्वदनुपथं त्वदाराधनादिप्रवणं चेत् आत्मा च सुहृच्च प्रियश्च तद्वच्चरति । आत्मादितुल्यरूपात् स्वाधीनतया वर्तत इत्यर्थः । तथापि असदुपासनया शब्दादिविषयसेवया आत्महनः आत्मघातिनः पुरुषास्त्वयि न रमन्ति न रमन्ते इत्यन्वयः । कीदृशे त्वयीत्यत्राह - तथोत्सुखे यथावस्थितानुकूलानन्दे । प्रिये हितरूपे आत्मनि । एवम्भूते सुसेव्ये त्वयि । बत कष्टम् । अहो आश्चर्यम् । विषयादिसेवनया शिश्नोदराद्युपासनया स्वतन्त्राभिमानेन आत्मानं नरके पातयन्तीत्यर्थः । कुतो यदनुशयाः । यस्मिन् शब्दादौ विषयेऽनुशयवन्तः सन्तापवन्तः । उरुभये संसारे बहुदुःखपूर्णे संसारे भ्रमन्ति नात्मानं कुशरीरभृतः नश्वरे शरीरे देहे अहमित्यभिभाववन्तः तारयन्तीत्यर्थः । अतः शब्दादेः उपासनयैव त्वयि रमन्ते इत्यन्वयः ॥२२॥
श्लोक-२३
विश्वास-प्रस्तुतिः
निभृतमरुन्मनोऽक्षदृढयोगयुजो हृदि य-
न्मुनय उपासते तदरयोऽपि ययुः स्मरणात्।
स्त्रिय उरगेन्द्रभोगभुजदण्डविषक्तधियो
वयमपि ते समाः समदृशोऽङ्घ्रिसरोजसुधाः॥*
मूलम्
निभृतमरुन्मनोऽक्षदृढयोगयुजो हृदि य-
न्मुनय उपासते तदरयोऽपि ययुः स्मरणात्।
स्त्रिय उरगेन्द्रभोगभुजदण्डविषक्तधियो
वयमपि ते समाः समदृशोऽङ्घ्रिसरोजसुधाः॥*
अनुवाद (हिन्दी)
प्रभो! बड़े-बड़े विचारशील योगी-यति अपने प्राण, मन और इन्द्रियोंको वशमें करके दृढ़ योगाभ्यासके द्वारा हृदयमें आपकी उपासना करते हैं। परन्तु आश्चर्यकी बात तो यह है कि उन्हें जिस पदकी प्राप्ति होती है, उसीकी प्राप्ति उन शत्रुओंको भी हो जाती है, जो आपसे वैर-भाव रखते हैं। क्योंकि स्मरण तो वे भी करते ही हैं। कहाँतक कहें, भगवन्! वे स्त्रियाँ, जो अज्ञानवश आपको परिच्छिन्न मानती हैं और आपकी शेषनागके समान मोटी, लम्बी तथा सुकुमार भुजाओंके प्रति कामभावसे आसक्त रहती हैं, जिस परम पदको प्राप्त करती हैं, वही पद हम श्रुतियोंको भी प्राप्त होता है—यद्यपि हम आपको सदा-सर्वदा एकरस अनुभव करती हैं और आपके चरणारविन्दका मकरन्दरस पान करती रहती हैं। क्यों न हो, आप समदर्शी जो हैं। आपकी दृष्टिमें उपासकके परिच्छिन्न या अपरिच्छिन्न भावमें कोई अन्तर नहीं है॥ २३॥
पादटिप्पनी
- चरणस्मरणं प्रेम्णा तव देव सुदुर्लभम्।
यथाकथञ्चिन्नृहरे मम भूयादहर्निशम्॥ १०॥
देव! आपके चरणोंका प्रेमपूर्वक स्मरण अत्यन्त दुर्लभ है। चाहे जैसे-कैसे भी हो, नृसिंह! मुझे तो आपके चरणोंका स्मरण दिन-रात बना रहे।
श्रीसुदर्शनसूरिः
प्रतिकूलानामपि भगवत्स्मरणमुत्तारकमिति कथयन्ति हृदयं हृद्रतं त्वामनु य उपासते तान् विशिनष्टि - निभृतमरुन्मनोऽक्षदृढयोगयुजः । मरुत् प्राणवायुश्च नमश्चाक्षाणि इन्द्रियाणि च तानि निभृतानि यैस्ते निभृतमरुन्मनोऽक्षाः । ते दृढं स्थिरतरयोगं युञ्जन्तीति स्मरणात् त्वत्स्मरणात् अरयोऽपि त्वां ययुरिति । यद्यस्मात् त्वां मुनयः उपासते इत्यन्वयः । स्त्रियः गोप्यः कामतः कमनीयमूर्तिं त्वां मनसि निधाय त्वां प्रापुः । किम्भूताः । उरगेन्द्रभोगभुजदण्डविषक्तधियः । उरगेन्द्रभोगतुल्ये तव भुजदण्डे विशेषेण सक्तधियः। त्वां प्रापुः । वयं देवाः समाः पक्षपातरहिततया प्रमाणभूताः । परमकृपालोस्तव समा तुल्या समाना दृष्टिर्येषां ते । तव अङ्घ्रिसरोजमेव सुधा येषां ते तवाङ्घ्रिमेव भोग्यतया प्रकाशयाम इत्यर्थः ॥२३॥
श्लोक-२४
विश्वास-प्रस्तुतिः
क इह नु वेद बतावरजन्मलयोऽग्रसरं
यत उदगादृषिर्यमनु देवगणा उभये।
तर्हि न सन्न चासदुभयं न च कालजवः
किमपि न तत्र शास्त्रमवकृष्य शयीत यदा॥
मूलम्
क इह नु वेद बतावरजन्मलयोऽग्रसरं
यत उदगादृषिर्यमनु देवगणा उभये।
तर्हि न सन्न चासदुभयं न च कालजवः
किमपि न तत्र शास्त्रमवकृष्य शयीत यदा॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवन्! आप अनादि और अनन्त हैं। जिसका जन्म और मृत्यु कालसे सीमित है, वह भला, आपको कैसे जान सकता है। स्वयं ब्रह्माजी, निवृत्तिपरायण सनकादि तथा प्रवृत्तिपरायण मरीचि आदि भी बहुत पीछे आपसे ही उत्पन्न हुए हैं। जिस समय आप सबको समेटकर सो जाते हैं, उस समय ऐसा कोई साधन नहीं रह जाता, जिससे उनके साथ ही सोया हुआ जीव आपको जान सके। क्योंकि उस समय न तो आकाशादि स्थूल जगत् रहता है और न तो महत्तत्त्वादि सूक्ष्म जगत् । इन दोनोंसे बने हुए शरीर और उनके निमित्त क्षण-मुहूर्त आदि कालके अंग भी नहीं रहते। उस समय कुछ भी नहीं रहता। यहाँतक कि शास्त्र भी आपमें ही समा जाते हैं (ऐसी अवस्थामें आपको जाननेकी चेष्टा न करके आपका भजन करना ही सर्वोत्तम मार्ग है।)*॥ २४॥
पादटिप्पनी
- क्वाहं बुद्ध्यादिसंरुद्धः क्व च भूमन्महस्तव।
दीनबन्धो दयासिन्धो भक्तिं मे नृहरे दिश॥ ११॥
अनन्त! कहाँ बुद्धि आदि परिच्छिन्न उपाधियोंसे घिरा हुआ मैं और कहाँ आपका मन, वाणी आदिके अगोचर स्वरूप! (आपका ज्ञान तो बहुत ही कठिन है) इसलिये दीनबन्धु, दयासिन्धु! नरहरि देव! मुझे तो अपनी भक्ति ही दीजिये।
श्रीसुदर्शनसूरिः
शास्त्रेण विना भवतो दुरधिगमत्वमाहुः - क्व इहेति । अवरजन्मलयः आदिसृष्टेः पश्चात् जन्मलयभागी कः अत्र प्रथमसृष्टेः पूर्वं भाविनं त्वां वेद। ऋषिः ब्रह्मा उभये प्रवृत्तिनिवृत्तिनिष्ठाः । प्रवृत्तिनिष्ठाः मरीच्यादयः । निवृत्तिनिष्ठाः सनकादयश्च । तर्हि तदा सृष्टेः पूर्वकाले सत्कार्यावस्थं चिद्वस्तु असत्कार्यावस्थमचिद्वस्तु उभयं मिश्ररूपं कार्यं नेत्यर्थः । कालजव: कालप्रवृत्तिः सर्गविषया यदा शास्त्रमनुकृष्य स्वहृदये भवान् शयीत तदा न सन्तीत्यर्थः ॥ २४ ॥
श्लोक-२५
विश्वास-प्रस्तुतिः
जनिमसतः सतो मृतिमुतात्मनि ये च भिदां
विपणमृतं स्मरन्त्युपदिशन्ति त आरुपितैः।
त्रिगुणमयः पुमानिति भिदा यदबोधकृता
त्वयि न ततः परत्र स भवेदवबोधरसे॥
मूलम्
जनिमसतः सतो मृतिमुतात्मनि ये च भिदां
विपणमृतं स्मरन्त्युपदिशन्ति त आरुपितैः।
त्रिगुणमयः पुमानिति भिदा यदबोधकृता
त्वयि न ततः परत्र स भवेदवबोधरसे॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रभो! कुछ लोग मानते हैं कि असत् जगत्की उत्पत्ति होती है और कुछ लोग कहते हैं कि सत्-रूप दुःखोंका नाश होनेपर मुक्ति मिलती है। दूसरे लोग आत्माको अनेक मानते हैं, तो कई लोग कर्मके द्वारा प्राप्त होनेवाले लोक और परलोकरूप व्यवहारको सत्य मानते हैं। इसमें सन्देह नहीं कि ये सभी बातें भ्रममूलक हैं और वे आरोप करके ही ऐसा उपदेश करते हैं। पुरुष त्रिगुणमय है—इस प्रकारका भेदभाव केवल अज्ञानसे ही होता है और आप अज्ञानसे सर्वथा परे हैं। इसलिये ज्ञानस्वरूप आपमें किसी प्रकारका भेदभाव नहीं है*॥ २५॥
पादटिप्पनी
- मिथ्यातर्कसुकर्कशेरितमहा-
वादान्धकारान्तर-
भ्राम्यन्मन्दमतेरमन्दमहिमं-
स्त्वज्ज्ञानवर्त्मास्फुटम्।
श्रीमन्माधव वामन त्रिनयन
श्रीशंकर श्रीपते
गोविन्देति मुदा वदन् मधुपते
मुक्तः कदा स्यामहम्॥ १२॥
अनन्त महिमाशाली प्रभो! जो मन्दमति पुरुष झूठे तर्कोंके द्वारा प्रेरित अत्यन्त कर्कश वाद-विवादके घोर अन्धकारमें भटक रहे हैं, उनके लिये आपके ज्ञानका मार्ग स्पष्ट सूझना सम्भव नहीं है। इसलिये मेरे जीवनमें ऐसी सौभाग्यकी घड़ी कब आवेगी कि मैं श्रीमन्माधव, वामन, त्रिलोचन, श्रीशंकर, श्रीपते, गोविन्द, मधुपते—इस प्रकार आपको आनन्दमें भरकर पुकारता हुआ मुक्त हो जाऊँगा।
श्रीसुदर्शनसूरिः
उक्तार्थविरुद्धतार्किकसिद्धान्तानामज्ञानमूलत्वं भगवद्भानवतां तादृशभ्रमाभावं चाह - जनिमिति । असतो द्रव्यस्य जनि सत्तायोगं सतश्च द्रव्यस्य पश्चान्मृतिं नाशं स्मरन्तीत्यसत्यार्थवाद उक्तः । आत्मनि ये च भिदां स्थूत्वकृशत्वमनुष्यत्वादिरूपां स्मरन्ति । कर्मफलस्यैव नित्यत्वाद्वा इदमुक्तम् । विपणं कर्मफलं पुत्रादिव्यवहारम् ऋतं निर्दुष्टं स्वाभाविकं च ये वदन्ति । तैः आरुपितैः युक्त्याभासैः उपदिशन्ति इति मतान्तरेष्वप्युपदिशन्तीत्यनुषङ्गः । त्रिगुणमयः गुणैः सत्त्वादिभिः कार्यश्चायमिति त्रिगुणगणः । प्रकृतिः पुमान् जीवः इति भिदा । अब्रह्मात्मकतया स्वनिष्ठभेद इति साङ्ख्यमतमुक्तम् । ततः परत्र प्रकृतिपुरुषाभ्यां तस्मिन् ज्ञानस्वरूपे त्वयि साक्षात्कृते तर्काभासमूला न भवन्तीत्यर्थः ॥ २५ ॥
श्लोक-२६
विश्वास-प्रस्तुतिः
सदिव मनस्त्रिवृत्त्वयि विभात्यसदामनुजात्
सदभिमृशन्त्यशेषमिदमात्मतयाऽऽत्मविदः।
न हि विकृतिं त्यजन्ति कनकस्य तदात्मतया
स्वकृतमनुप्रविष्टमिदमात्मतयावसितम्॥
मूलम्
सदिव मनस्त्रिवृत्त्वयि विभात्यसदामनुजात्
सदभिमृशन्त्यशेषमिदमात्मतयाऽऽत्मविदः।
न हि विकृतिं त्यजन्ति कनकस्य तदात्मतया
स्वकृतमनुप्रविष्टमिदमात्मतयावसितम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह त्रिगुणात्मक जगत् मनकी कल्पनामात्र है। केवल यही नहीं, परमात्मा और जगत्से पृथक् प्रतीत होनेवाला पुरुष भी कल्पनामात्र ही है। इस प्रकार वास्तवमें असत् होनेपर भी अपने सत्य अधिष्ठान आपकी सत्ताके कारण यह सत्य-सा प्रतीत हो रहा है। इसलिये भोक्ता, भोग्य और दोनोंके सम्बन्धको सिद्ध करनेवाली इन्द्रियाँ आदि जितना भी जगत् है, सबको आत्मज्ञानी पुरुष आत्मरूपसे सत्य ही मानते हैं। सोनेसे बने हुए कड़े, कुण्डल आदि स्वर्णरूप ही तो हैं; इसलिये उनको इस रूपमें जाननेवाला पुरुष उन्हें छोड़ता नहीं, वह समझता है कि यह भी सोना है। इसी प्रकार यह जगत् आत्मामें ही कल्पित, आत्मासे ही व्याप्त है; इसलिये आत्मज्ञानी पुरुष इसे आत्मरूप ही मानते हैं*॥ २६॥
पादटिप्पनी
- यत्सत्त्वतः सदाभाति जगदेतदसत् स्वतः।
सदाभासमसत्यस्मिन् भगवन्तं भजाम तम्॥ १३॥
यह जगत् अपने स्वरूप, नाम और आकृतिके रूपमें असत् है, फिर भी जिस अधिष्ठान-सत्ताकी सत्यतासे यह सत्य जान पड़ता है तथा जो इस असत्य प्रपंचमें सत्यके रूपसे सदा प्रकाशमान रहता है, उस भगवान्का हम भजन करते हैं।
श्रीसुदर्शनसूरिः
विश्वस्य भगवदात्मकत्वाग्रहणं मनोदोषात् मनसि शुद्धे भगवदात्मकतया प्रतीयमानं विश्वमुपादेयं स्यादित्याह- सदिवेति । आमनुजात् मनुष्यपर्यन्तात् । मनुष्यपर्यन्तानां देहिनाम् । त्रिवृत् त्रिगुणात्मकम् । सदिव सत्त्वमर्थक्रियाकारित्वम् । मनसि कार्यकरमिव प्रतीयमानमपि त्वयि असद्भाति । कार्यकरं न भाति । त्वां न प्रकाशयति। अथशब्दः पक्षान्तरे विशुद्धे त्वत्प्रकाशनक्षमे मनसीत्यर्थः । आत्मविदः अशेषं न जगदिति परमात्मतया विमृशन्ति । हि आत्मशब्दः परमात्मपरः । अजयात्मना च चरत इत्युक्तप्रकारेण चिदचिद्विशिष्टं कारणं परं ब्रह्मैव कार्यावस्थं जगद्रूपेण स्थितमिति विमृशन्ति । ब्रह्मात्मकत्वेन जगतो हेतयत्वाभावे दृष्टान्तमाह-न हि त्यजन्ति कार्यावस्थायामपि कनकस्य न व्यतिरेकात् जगदुपादेयत्वमित्याह - स्वकृतमिति । स्वकृतं जगत्तेन परमात्मनानुप्रविष्टं व्याप्तं ‘तत्सृष्ट्वा तदेवानुप्राविशत् ।’ इति श्रुतिः । अतः इदं जगदात्मतया रूपितं परमात्मशब्दवाच्यम् । वस्त्वन्तरगते तया सुखरूपमित्यर्थः । ‘तदात्मानं स्वयमकुरुत।’ ‘तद्वैतत्सुकृतम् । रसो वै सः ।’ इति श्रुतिः ॥ २६ ॥
श्लोक-२७
विश्वास-प्रस्तुतिः
तव परि ये चरन्त्यखिलसत्त्वनिकेततया
त उत पदाऽऽक्रमन्त्यविगणय्य शिरो निर्ऋतेः।
परिवयसे पशूनिव गिरा विबुधानपि तां-
स्त्वयि कृतसौहृदाः खलु पुनन्ति न ये विमुखाः॥*
मूलम्
तव परि ये चरन्त्यखिलसत्त्वनिकेततया
त उत पदाऽऽक्रमन्त्यविगणय्य शिरो निर्ऋतेः।
परिवयसे पशूनिव गिरा विबुधानपि तां-
स्त्वयि कृतसौहृदाः खलु पुनन्ति न ये विमुखाः॥*
अनुवाद (हिन्दी)
भगवन्! जो लोग यह समझते हैं कि आप समस्त प्राणियों और पदार्थोंके अधिष्ठान हैं, सबके आधार हैं और सर्वात्मभावसे आपका भजन-सेवन करते हैं, वे मृत्युको तुच्छ समझकर उसके सिरपर लात मारते हैं अर्थात् उसपर विजय प्राप्त कर लेते हैं। जो लोग आपसे विमुख हैं, वे चाहे जितने बड़े विद्वान् हों, उन्हें आप कर्मोंका प्रतिपादन करनेवाली श्रुतियोंसे पशुओंके समान बाँध लेते हैं। इसके विपरीत जिन्होंने आपके साथ प्रेमका सम्बन्ध जोड़ रखा है, वे न केवल अपनेको बल्कि दूसरोंको भी पवित्र कर देते हैं—जगत्के बन्धनसे छुड़ा देते हैं। ऐसा सौभाग्य भला, आपसे विमुख लोगोंको कैसे प्राप्त हो सकता है*॥ २७॥
पादटिप्पनी
- तपन्तु तापैः प्रपतन्तु पर्वतादटन्तु तीर्थानि पठन्तु चागमान्।
यजन्तु यागैर्विवदन्तु वादैर्हर्रि विना नैव मृतिं तरन्ति॥ १४॥
लोग पंचाग्नि आदि तापोंसे तप्त हों, पर्वतसे गिरकर आत्मघात कर लें, तीर्थोंका पर्यटन करें, वेदोंका पाठ करें, यज्ञोंके द्वारा यजन करें अथवा भिन्न-भिन्न मतवादोंके द्वारा आपसमें विवाद करें, परन्तु भगवान्के बिना इस मृत्युमय संसार-सागरसे पार नहीं जाते।
श्रीसुदर्शनसूरिः
एवं भगवत्पराणां प्रभावं भगवद्विमुखानामपकर्षं चाह - तवेति । अखिलसत्त्वानां जन्तूनां निकेततया तथाविधसम्बन्धानुसन्धानेन । ये तव त्वाम् । परिचरन्ति सेवन्ति जानन्ति । ते निर्ऋतेः मृत्योरपि शिरः अविगणय्य अनादृत्य पदा क्रमन्ति पादेनाक्रमन्ति । अविबुधान् अज्ञानविवशान् पशूनिव । परिचरसे कृपया रक्षसि । गिरा उपदेशेनामानित्वादिना रक्षसीत्यर्थः । पुनन्ति लोकमिति शेषः । परिवयसे इति पाठे, तान् गिरा वाचा पशूनिव विबुधान् पण्डितानपि परिवयसे बध्नासीत्यर्थः ॥२७॥
श्लोक-२८
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वमकरणः स्वराडखिलकारकशक्तिधर-
स्तव बलिमुद्वहन्ति समदन्त्यजयानिमिषाः।
वर्षभुजोऽखिलक्षितिपतेरिव विश्वसृजो
विदधति यत्र ये त्वधिकृता भवतश्चकिताः॥
मूलम्
त्वमकरणः स्वराडखिलकारकशक्तिधर-
स्तव बलिमुद्वहन्ति समदन्त्यजयानिमिषाः।
वर्षभुजोऽखिलक्षितिपतेरिव विश्वसृजो
विदधति यत्र ये त्वधिकृता भवतश्चकिताः॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रभो! आप मन, बुद्धि और इन्द्रिय आदि करणोंसे—चिन्तन, कर्म आदिके साधनोंसे सर्वथा रहित हैं। फिर भी आप समस्त अन्तःकरण और बाह्य करणोंकी शक्तियोंसे सदा-सर्वदा सम्पन्न हैं। आप स्वतः सिद्ध ज्ञानवान् , स्वयंप्रकाश हैं; अतः कोई काम करनेके लिये आपको इन्द्रियोंकी आवश्यकता नहीं है। जैसे छोटे-छोटे राजा अपनी-अपनी प्रजासे कर लेकर स्वयं अपने सम्राट्को कर देते हैं, वैसे ही मनुष्योंके पूज्य देवता और देवताओंके पूज्य ब्रह्मा आदि भी अपने अधिकृत प्राणियोंसे पूजा स्वीकार करते हैं और मायाके अधीन होकर आपकी पूजा करते रहते हैं। वे इस प्रकार आपकी पूजा करते हैं कि आपने जहाँ जो कर्म करनेके लिये उन्हें नियुक्त कर दिया है, वे आपसे भयभीत रहकर वहीं वह काम करते रहते हैं*॥ २८॥
पादटिप्पनी
- अनिन्द्रियोऽपि यो देवः सर्वकारकशक्तिधृक्।
सर्वज्ञः सर्वकर्ता च सर्वसेव्यं नमामि तम्॥ १५॥
जो प्रभु इन्द्रियरहित होनेपर भी समस्त बाह्य और आन्तरिक इन्द्रियकी शक्तिको धारण करता है और सर्वज्ञ एवं सर्वकर्ता है, उस सबके सेवनीय प्रभुको मैं नमस्कार करता हूँ।
श्रीसुदर्शनसूरिः
भगवतः सर्वप्रशास्तृत्वमुच्यते - त्वमकरण इति । त्वरकरण इति पाठे हे विभो ! त्वर शीघ्रं सङ्कल्पमात्रेण करोतीति त्वरकरणः । स्वराट् स्वतन्त्रः । अखिलकारकशक्तिधर ! निमित्तोपादानादिसर्वकारकशक्तिधरः । शमदात्र्या दुःखप्राप्तामदायिन्या अजाशब्दाभिहृतया प्रकृत्या परतन्त्रा । अनिमिषाः देवास्तव बलिमुद्वहन्ति। वर्षभुजः भारतादिवर्षभोक्तारः। विश्वसृजः प्रजापत्यादयो देवाः । यत्र पदे येऽधिकृताः तत्र स्थिता ते भवदाज्ञाभीताः बलिमुद्वहन्तीत्यन्वयः ॥२८॥
श्लोक-२९
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्थिरचरजातयः स्युरजयोत्थनिमित्तयुजो
विहर उदीक्षया यदि परस्य विमुक्त ततः।
न हि परमस्य कश्चिदपरो न परश्च भवेद्
वियत इवापदस्य तव शून्यतुलां दधतः॥
मूलम्
स्थिरचरजातयः स्युरजयोत्थनिमित्तयुजो
विहर उदीक्षया यदि परस्य विमुक्त ततः।
न हि परमस्य कश्चिदपरो न परश्च भवेद्
वियत इवापदस्य तव शून्यतुलां दधतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
नित्यमुक्त! आप मायातीत हैं, फिर भी जब अपने ईक्षणमात्रसे—संकल्पमात्रसे मायाके साथ क्रीडा करते हैं, तब आपका संकेत पाते ही जीवोंके सूक्ष्म शरीर और उनके सुप्त कर्म-संस्कार जग जाते हैं और चराचर प्राणियोंकी उत्पत्ति होती है। प्रभो! आप परम दयालु हैं। आकाशके समान सबमें सम होनेके कारण न तो कोई आपका अपना है और न तो पराया। वास्तवमें तो आपके स्वरूपमें मन और वाणीकी गति ही नहीं है। आपमें कार्य-कारणरूप प्रपंचका अभाव होनेसे बाह्य दृष्टिसे आप शून्यके समान ही जान पड़ते हैं; परन्तु उस दृष्टिके भी अधिष्ठान होनेके कारण आप परम सत्य हैं*॥ २९॥
पादटिप्पनी
- त्वदीक्षणवशक्षोभमायाबोधितकर्मभिः।
जातान् संसरतः खिन्नान्नृहरे पाहि नः पितः॥ १६॥
नृसिंह! आपके सृष्टि-संकल्पसे क्षुब्ध होकर मायाने कर्मोंको जाग्रत् कर दिया है। उन्हींके कारण हम लोगोंका जन्म हुआ और अब आवागमनके चक्करमें भटककर हम दुःखी हो रहे हैं। पिताजी! आप हमारी रक्षा कीजिये।
श्रीसुदर्शनसूरिः
सर्वचेतनैरवर्जनीयसम्बन्धविशेषानुभवेन हेयप्रत्यनीकतया च तत्र कटाक्षादेव मोक्ष इत्याह-स्थिरचरेति । स्थावरजङ्गमसंस्थानाः सर्वे प्राणिनः । अजयोत्थनिमित्तयुजः । प्रकृतिकार्यदुःखनिमित्तयुजः प्रकृतिकार्यदुःखनिमित्तशरीरयुक्ताः । विरहो यदि कदाचित् प्रकृतिमोक्षः सम्भवति चेत् परमस्य तव उदीक्षया त्वत्कटाक्षान्मोक्षः सिद्ध्यतीत्यर्थः । ततो विमुक्तप्रकृतेर्हेयात् विशेषेण मुक्तः । मोक्षदाने हेतुमाह- न हि कश्चित् तवापरोऽस्तीति सर्वात्मनां स्वशरीरभूतत्वात् अन्यो नास्ति अतः सर्वरक्षकस्त्वमित्यर्थः । कीदृशस्य तवेत्याह- परस्येति । परत्वम् उत्पत्तिकालात् पूर्वत्वम् । अपरत्वं पश्चाद्भावित्वम् । परमस्येति परमः अतः एव स्वयं कस्यचिदपरः पश्चाद्भावी न भवतीत्यर्थः । वियत इवापदस्येति व्योमेव स्पर्शरहितस्य । अत्र यस्य एवं कालाकाल्यत्वाज्जन्माद्यवस्थात्रयरहितस्य सर्वव्यापिनोऽपि व्याप्यगतदोषस्पर्शाभावेनाविद्यमानतुलस्येत्यर्थः ॥ २९ ॥
श्लोक-३०
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपरिमिता ध्रुवास्तनुभृतो यदि सर्वगता-
स्तर्हि न शास्यतेति नियमो ध्रुव नेतरथा।
अजनि च यन्मयं तदविमुच्य नियन्तृ भवेत्
सममनुजानतां यदमतं मतदुष्टतया॥
मूलम्
अपरिमिता ध्रुवास्तनुभृतो यदि सर्वगता-
स्तर्हि न शास्यतेति नियमो ध्रुव नेतरथा।
अजनि च यन्मयं तदविमुच्य नियन्तृ भवेत्
सममनुजानतां यदमतं मतदुष्टतया॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवन्! आप नित्य एकरस हैं। यदि जीव असंख्य हों और सब-के-सब नित्य एवं सर्वव्यापक हों, तब तो वे आपके समान ही हो जायँगे; उस हालतमें वे शासित हैं और आप शासक—यह बात बन ही नहीं सकती, और तब आप उनका नियन्त्रण कर ही नहीं सकते। उनका नियन्त्रण आप तभी कर सकते हैं, जब वे आपसे उत्पन्न एवं आपकी अपेक्षा न्यून हों। इसमें सन्देह नहीं कि ये सब-के-सब जीव तथा इनकी एकता या विभिन्नता आपसे ही उत्पन्न हुई है। इसलिये आप उनमें कारणरूपसे रहते हुए भी उनके नियामक हैं। वास्तवमें आप उनमें समरूपसे स्थित हैं। परन्तु यह जाना नहीं जा सकता कि आपका वह स्वरूप कैसा है। क्योंकि जो लोग ऐसा समझते हैं कि हमने जान लिया, उन्होंने वास्तवमें आपको नहीं जाना; उन्होंने तो केवल अपनी बुद्धिके विषयको जाना है, जिससे आप परे हैं। और साथ ही मतिके द्वारा जितनी वस्तुएँ जानी जाती हैं, वे मतियोंकी भिन्नताके कारण भिन्न-भिन्न होती हैं; इसलिये उनकी दुष्टता, एक मतके साथ दूसरे मतका विरोध प्रत्यक्ष ही है। अतएव आपका स्वरूप समस्त मतोंके परे है*॥ ३०॥
पादटिप्पनी
- अन्तर्यन्ता सर्वलोकस्य गीतः
श्रुत्या युक्त्या चैवमेवावसेयः।
यः सर्वज्ञः सर्वशक्तिर्नृसिंहः
श्रीमन्तं तं चेतसैवावलम्बे॥ १७॥
श्रुतिने समस्त दृश्यप्रपंचके अन्तर्यामीके रूपमें जिनका गान किया है, और युक्तिसे भी वैसा ही निश्चय होता है। जो सर्वज्ञ, सर्वशक्ति और नृसिंह—पुरुषोत्तम हैं, उन्हीं सर्वसौन्दर्य-माधुर्यनिधि प्रभुका मैं मन-ही-मन आश्रय ग्रहण करता हूँ।
श्रीसुदर्शनसूरिः
अथ जीवानाम् अणुत्वं परस्य तदन्तः प्रविश्य नियन्तृत्वं चाह - अपरिमिता इति । अपरिमिताः असङ्ख्येयाः जीवाः सर्वगताश्चेत् ध्रुवाः अस्पन्दाः स्युः । उत्क्रान्तिगत्या गतिश्रुतिविरोधः स्यात् । तनुभृत इति सर्वेषां शरीरसम्बन्धेन सर्वशरीराचरितपुण्यपापानां सर्वसाधारणत्वेन व्यवस्थितफलदानायोगात्, शासनं नोपपद्यते । इतरथा असर्वगतत्वे अध्रुवत्वे स्पन्दनवत्वे अणुत्वे अध्रुवतास्पन्दनवत्त्वम् । उत्क्रान्तिगत्या गतयश्चोपपद्यन्ते इत्यर्थः । शासनोपपत्तिः स्फुटत्वादनभिहिता । यद्वा । इतरथा शासनीयत्वे अध्रुवतास्पन्दनवत्त्वम् अणुत्वं स्वीकार्यमित्यर्थः । प्रशासनं चान्तः प्रविश्येत्याह- अजनि चेति । यन्मयम् अजनि । व्यापकेन प्रचुरं जगदजनि तद्ब्रह्म अविमुच्य नियाम्यत्वमविमुच्य अन्तःस्थितत्वेन नियन्तृत्वमिति समजानतां सम्यगजानतां यन्मतं मतदुष्टतया दुष्टमतत्वात् । अमतम् अनभिमतमित्यर्थः ॥ ३० ॥
श्लोक-३१
विश्वास-प्रस्तुतिः
न घटत उद्भवः प्रकृतिपूरुषयोरजयो-
रुभययुजा भवन्त्यसुभृतो जलबुद्बुदवत्।
त्वयि त इमे ततो विविधनामगुणैः परमे
सरित इवार्णवे मधुनि लिल्युरशेषरसाः॥
मूलम्
न घटत उद्भवः प्रकृतिपूरुषयोरजयो-
रुभययुजा भवन्त्यसुभृतो जलबुद्बुदवत्।
त्वयि त इमे ततो विविधनामगुणैः परमे
सरित इवार्णवे मधुनि लिल्युरशेषरसाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
स्वामिन्! जीव आपसे उत्पन्न होता है, यह कहनेका ऐसा अर्थ नहीं है कि आप परिणामके द्वारा जीव बनते हैं। सिद्धान्त तो यह है कि प्रकृति और पुरुष दोनों ही अजन्मा हैं। अर्थात् उनका वास्तविक स्वरूप—जो आप हैं—कभी वृत्तियोंके अंदर उतरता नहीं, जन्म नहीं लेता। तब प्राणियोंका जन्म कैसे होता है? अज्ञानके कारण प्रकृतिको पुरुष और पुरुषको प्रकृति समझ लेनेसे, एकका दूसरेके साथ संयोग हो जानेसे जैसे ‘बुलबुला’ नामकी कोई स्वतन्त्र वस्तु नहीं है, परन्तु उपादान-कारण जल और निमित्त-कारण वायुके संयोगसे उसकी सृष्टि हो जाती है। प्रकृतिमें पुरुष और पुरुषमें प्रकृतिका अध्यास (एकमें दूसरेकी कल्पना) हो जानेके कारण ही जीवोंके विविध नाम और गुण रख लिये जाते हैं। अन्तमें जैसे समुद्रमें नदियाँ और मधुमें समस्त पुष्पोंके रस समा जाते हैं, वैसे ही वे सब-के-सब उपाधिरहित आपमें समा जाते हैं। (इसलिये जीवोंकी भिन्नता और उनका पृथक् अस्तित्व आपके द्वारा नियन्त्रित है। उनकी पृथक् स्वतन्त्रता और सर्व-व्यापकता आदि वास्तविक सत्यको न जाननेके कारण ही मानी जाती है)*॥ ३१॥
पादटिप्पनी
- यस्मिन्नुद्यद् विलयमपि यद्
भाति विश्वं लयादौ
जीवोपेतं गुरुकरुणया
केवलात्मावबोधे।
अत्यन्तान्तं व्रजति सहसा
सिन्धुवत्सिन्धुमध्ये
मध्येचित्तं त्रिभुवनगुरुं
भावये तं नृसिंहम्॥ १८॥
जीवोंके सहित यह सम्पूर्ण विश्व जिनमें उदय होता है और सुषुप्ति आदि अवस्थाओंमें विलयको प्राप्त होता है तथा भान होता है, गुरुदेवकी करुणा प्राप्त होनेपर जब शुद्ध आत्माका ज्ञान होता है, तब समुद्रमें नदीके समान सहसा यह जिनमें आत्यन्तिक प्रलयको प्राप्त हो जाता है, उन्हीं त्रिभुवनगुरु नृसिंहभगवान्की मैं अपने हृदयमें भावना करता हूँ।
श्रीसुदर्शनसूरिः
एवं नियमात् तदनुपपत्तिः परिहृता । नित्यस्योत्पत्त्यनुपपत्तिं परिहरति-न घटत इति । यद्यपि अजत्वात् प्रकृतिपुरुषस्य च नेत्पत्तिस्तथापि विद्यमानानामेवाप्यवयवानां परस्परसंयोगात् बुद्बुदोत्पत्तिवत् उभययुजात् प्रकृतिपुरुषयोः संयोगात् । तनुभृतो भवन्ति । देवमनुष्यादिशरीरविशिष्टरूपेणोत्पत्तिर्युज्यत इत्यर्थः । तर्हि कथं ब्रह्मणः कार्यत्वमित्यत्राह - त्वयीति । विविधनामगुणः विविधनामरूपभाजः सर्वे पदार्थाः । ततः परमे सर्वान्तरात्मनि त्वयि वर्तन्ते। अर्णवे सरित इव त्वयि प्रलयकाले निलिल्युरित्यर्थः । चिदचिच्छरीरब्रह्मस्थाने अर्णवो मधु च ॥३१॥
श्लोक-३२
विश्वास-प्रस्तुतिः
नृषु तव मायया भ्रमममीष्ववगत्य भृशं
त्वयि सुधियोऽभवे दधति भावमनुप्रभवम्।
कथमनुवर्ततां भवभयं तव यद् भ्रुकुटिः
सृजति मुहुस्त्रिणेमिरभवच्छरणेषु भयम्॥
मूलम्
नृषु तव मायया भ्रमममीष्ववगत्य भृशं
त्वयि सुधियोऽभवे दधति भावमनुप्रभवम्।
कथमनुवर्ततां भवभयं तव यद् भ्रुकुटिः
सृजति मुहुस्त्रिणेमिरभवच्छरणेषु भयम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवन्! सभी जीव आपकी मायासे भ्रममें भटक रहे हैं, अपनेको आपसे पृथक् मानकर जन्म-मृत्युका चक्कर काट रहे हैं। परन्तु बुद्धिमान् पुरुष इस भ्रमको समझ लेते हैं और सम्पूर्ण भक्तिभावसे आपकी शरण ग्रहण करते हैं, क्योंकि आप जन्म-मृत्युके चक्करसे छुड़ानेवाले हैं। यद्यपि शीत, ग्रीष्म और वर्षा—इन तीन भागोंवाला कालचक्र आपका भ्रूविलासमात्र है, वह सभीको भयभीत करता है, परन्तु वह उन्हींको बार-बार भयभीत करता है, जो आपकी शरण नहीं लेते। जो आपके शरणागत भक्त हैं, उन्हें भला, जन्म-मृत्युरूप संसारका भय कैसे हो सकता है?*॥ ३२॥
पादटिप्पनी
- संसारचक्रक्रकचैर्विदीर्ण-
मुदीर्णनानाभवतापतप्तम्।
कथंचिदापन्नमिह प्रपन्नं
त्वमुद्धर श्रीनृहरे नृलोकम्॥ १९॥
नृसिंह! यह जीव संसार-चक्रके आरेसे टुकड़े-टुकड़े हो रहा है और नाना प्रकारके सांसारिक तापोंकी धधकती हुई लपटोंसे झुलस रहा है। यह आपत्तिग्रस्त जीव किसी प्रकार आपकी कृपासे आपकी शरणमें आया है। आप इसका उद्धार कीजिये।
श्रीसुदर्शनसूरिः
एवं जगत्कारणे त्वयि भक्तिमतां न भयमित्याह - नृषु तवेति । तव मायया त्वदीयया प्रकृत्या समम् अहङ्कारममकाररूपं भावं भक्तिं प्रपत्तिं वा अनुवर्ततां त्वामनुवर्तमानानां कालः । स तवैव भ्रुकुटीस्थानीयः । अभवच्चरणेषु त्वच्चरणानाश्रितेषु ॥३२॥
श्लोक-३३
विश्वास-प्रस्तुतिः
विजितहृषीकवायुभिरदान्तमनस्तुरगं
य इह यतन्ति यन्तुमतिलोलमुपायखिदः।
व्यसनशतान्विताः समवहाय गुरोश्चरणं
वणिज इवाज सन्त्यकृतकर्णधरा जलधौ॥
मूलम्
विजितहृषीकवायुभिरदान्तमनस्तुरगं
य इह यतन्ति यन्तुमतिलोलमुपायखिदः।
व्यसनशतान्विताः समवहाय गुरोश्चरणं
वणिज इवाज सन्त्यकृतकर्णधरा जलधौ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अजन्मा प्रभो! जिन योगियोंने अपनी इन्द्रियों और प्राणोंको वशमें कर लिया है, वे भी, जब गुरुदेवके चरणोंकी शरण न लेकर उच्छृंखल एवं अत्यन्त चंचल मन-तुरंगको अपने वशमें करनेका प्रयत्न करते हैं, तब अपने साधनोंमें सफल नहीं होते। उन्हें बार-बार खेद और सैकड़ों विपत्तियोंका सामना करना पड़ता है, केवल श्रम और दुःख ही उनके हाथ लगता है। उनकी ठीक वही दशा होती है, जैसी समुद्रमें बिना कर्णधारकी नावपर यात्रा करनेवाले व्यापारियोंकी होती है (तात्पर्य यह कि जो मनको वशमें करना चाहते हैं, उनके लिये कर्णधार—गुरुकी अनिवार्य आवश्यकता है)*॥ ३३॥
पादटिप्पनी
- यदा परानन्दगुरो भवत्पदे
पदं मनो मे भगवल्ँलभेत।
तदा निरस्ताखिलसाधनश्रमः
श्रयेय सौख्यं भवतः कृपातः॥ २०॥
परमानन्दमय गुरुदेव! भगवन्! जब मेरा मन आपके चरणोंमें स्थान प्राप्त कर लेगा, तब मैं आपकी कृपासे समस्त साधनोंके परिश्रमसे छुटकारा पाकर परमानन्द प्राप्त करूँगा।
श्रीसुदर्शनसूरिः
आचार्यसेवाविरहितानामुक्तभगवद्भजनालाभमाह - विजितेति । हृषीकं बाह्येन्द्रियम् । यतन्ति यतन्ते । ये त्वकृतकर्णधराः अलब्धकर्णधराः ॥ ३३॥
श्लोक-३४
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वजनसुतात्मदारधनधामधरासुरथै-
स्त्वयि सति किं नृणां श्रयत आत्मनि सर्वरसे।
इति सदजानतां मिथुनतो रतये चरतां
सुखयति को न्विह स्वविहते स्वनिरस्तभगे॥
मूलम्
स्वजनसुतात्मदारधनधामधरासुरथै-
स्त्वयि सति किं नृणां श्रयत आत्मनि सर्वरसे।
इति सदजानतां मिथुनतो रतये चरतां
सुखयति को न्विह स्वविहते स्वनिरस्तभगे॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवन्! आप अखण्ड आनन्दस्वरूप और शरणागतोंके आत्मा हैं। आपके रहते स्वजन, पुत्र, देह, स्त्री, धन, महल, पृथ्वी, प्राण और रथ आदिसे क्या प्रयोजन है? जो लोग इस सत्य सिद्धान्तको न जानकर स्त्री-पुरुषके सम्बन्धसे होनेवाले सुखोंमें ही रम रहे हैं, उन्हें संसारमें भला, ऐसी कौन-सी वस्तु है, जो सुखी कर सके। क्योंकि संसारकी सभी वस्तुएँ स्वभावसे ही विनाशी हैं, एक-न-एक दिन मटियामेट हो जानेवाली हैं। और तो क्या, वे स्वरूपसे ही सारहीन और सत्ताहीन हैं; वे भला, क्या सुख दे सकती हैं*॥ ३४॥
पादटिप्पनी
- भजतो हि भवान् साक्षात्परमानन्दचिद्घनः।
आत्मैव किमतः कृत्यं तुच्छदारसुतादिभिः॥ २१॥
जो आपका भजन करते हैं, उनके लिये आप स्वयं साक्षात् परमानन्दचिद्घन आत्मा ही हैं। इसलिये उन्हें तुच्छ स्त्री, पुत्र, धन आदिसे क्या प्रयोजन है?
श्रीसुदर्शनसूरिः
भगवत्प्रवणानां सुखान्तरनैरपेक्ष्यं भगवद्विमुखानां सुखदुर्लभत्वं चाह - स्वजनेति । धाम गृहम् । धरा भूमिः । सर्वरसे सर्वविधसुगमे सदजानताम् अर्थतत्त्वमजानतां स्वपिहिते प्रकृतिसम्बन्धेन तिरोहिते । अत एव निरस्तभगे ज्ञानैश्वर्यादिहीने स्वरूपे सति इह संसारेऽसुखरूपे सति कः सुखयतीत्यन्वयः । नश्वरे स्वपिहिते इति पाठे नन्वात्मा चिदानन्दरूपः तर्हि विषयासङ्गेऽपि किं तथा न प्रतीयते । तत्राह- स्वपिहिते अज्ञानेनावृते । अत एव सुनिरस्तभगे सुष्ठु । निरस्तो भगो आनन्दस्वरूपो यस्य तस्मिन्। अतस्त्वद्भजनमेवोचितमित्यर्थः ॥ ३४ ॥
श्लोक-३५
विश्वास-प्रस्तुतिः
भुवि पुरुपुण्यतीर्थसदनान्यृषयो विमदा-
स्त उत भवत्पदाम्बुजहृदोऽघभिदङ्घ्रिजलाः।
दधति सकृन्मनस्त्वयि य आत्मनि नित्यसुखे
न पुनरुपासते पुरुषसारहरावसथान्॥
मूलम्
भुवि पुरुपुण्यतीर्थसदनान्यृषयो विमदा-
स्त उत भवत्पदाम्बुजहृदोऽघभिदङ्घ्रिजलाः।
दधति सकृन्मनस्त्वयि य आत्मनि नित्यसुखे
न पुनरुपासते पुरुषसारहरावसथान्॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवन्! जो ऐश्वर्य, लक्ष्मी, विद्या, जाति, तपस्या आदिके घमंडसे रहित हैं, वे संतपुरुष इस पृथ्वीतलपर परम पवित्र और सबको पवित्र करनेवाले पुण्यमय सच्चे तीर्थस्थान हैं। क्योंकि उनके हृदयमें आपके चरणारविन्द सर्वदा विराजमान रहते हैं और यही कारण है कि उन संत पुरुषोंका चरणामृत समस्त पापों और तापोंको सदाके लिये नष्ट कर देनेवाला है। भगवन्! आप नित्य-आनन्दस्वरूप आत्मा ही हैं। जो एक बार भी आपको अपना मन समर्पित कर देते हैं—आपमें मन लगा देते हैं—वे उन देह-गेहोंमें कभी नहीं फँसते जो जीवके विवेक, वैराग्य, धैर्य, क्षमा और शान्ति आदि गुणोंका नाश करनेवाले हैं। वे तो बस, आपमें ही रम जाते हैं*॥ ३५॥
पादटिप्पनी
- मुंचन्नंगतदंगसंगमनिशं
त्वामेव संचिन्तयन्
सन्तः सन्ति यतो यतो गतमदा-
स्तानाश्रमानावसन्।
नित्यं तन्मुखपंकजाद्विगलित-
त्वत्पुण्यगाथामृत-
स्रोतःसम्प्लवसंप्लुतो नरहरे
न स्यामहं देहभृत्॥ २२॥
मैं शरीर और उसके सम्बन्धियोंकी आसक्ति छोड़कर रात-दिन आपका ही चिन्तन करूँगा और जहाँ-जहाँ निरभिमान सन्त निवास करते हैं, उन्हीं-उन्हीं आश्रमोंमें रहूँगा। उन सत्पुरुषोंके मुख-कमलसे निःसृत आपकी पुण्यमयी कथा-सुधाकी नदियोंकी धारामें प्रतिदिन स्नान करूँगा और नृसिंह! फिर मैं कभी देहके बन्धनमें नहीं पड़ूँगा।
श्रीसुदर्शनसूरिः
भगवद्भक्तानां प्रभावमाह - भुवीति । पुरुपुण्यतीर्थसदनानि उपासते इत्याकृष्यान्वयः । भवत्पदाम्बुजहृदः अन्वत्पदाम्बुजन्यस्तहृदयाः अघभिदङ्घ्रिजलाः भगवद्भक्तानां पादोदकमपि पावनमित्यर्थः । दधति विदधति नित्यसुखे नित्यानन्दनिधौ पुरुषसारहरावसथान् न उत ते पुरुषाणां सारो ज्ञानवैराग्यादिस्तदपहरान् गृहान् न सेवन्त इत्यर्थः ॥३५॥
श्लोक-३६
विश्वास-प्रस्तुतिः
सत इदमुत्थितं सदिति चेन्ननु तर्कहतं
व्यभिचरति क्व च क्व च मृषा न तथोभययुक्।
व्यवहृतये विकल्प इषितोऽन्धपरम्परया
भ्रमयति भारती त उरुवृत्तिभिरुक्थजडान्॥
मूलम्
सत इदमुत्थितं सदिति चेन्ननु तर्कहतं
व्यभिचरति क्व च क्व च मृषा न तथोभययुक्।
व्यवहृतये विकल्प इषितोऽन्धपरम्परया
भ्रमयति भारती त उरुवृत्तिभिरुक्थजडान्॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवन्! जैसे मिट्टीसे बना हुआ घड़ा मिट्टीरूप ही होता है, वैसे ही सत् से बना हुआ जगत् भी सत् ही है—यह बात युक्तिसंगत नहीं है। क्योंकि कारण और कार्यका निर्देश ही उनके भेदका द्योतक है। यदि केवल भेदका निषेध करनेके लिये ही ऐसा कहा जा रहा हो तो पिता और पुत्रमें, दण्ड और घटनाशमें कार्य-कारण-भाव होनेपर भी वे एक दूसरेसे भिन्न हैं। इस प्रकार कार्य-कारणकी एकता सर्वत्र एक-सी नहीं देखी जाती। यदि कारण-शब्दसे निमित्त-कारण न लेकर केवल उपादान-कारण लिया जाय—जैसे कुण्डलका सोना—तो भी कहीं-कहीं कार्यकी असत्यता प्रमाणित होती है; जैसे रस्सीमें साँप। यहाँ उपादान-कारणके सत्य होनेपर भी उसका कार्य सर्प सर्वथा असत्य है। यदि यह कहा जाय कि प्रतीत होनेवाले सर्पका उपादान-कारण केवल रस्सी नहीं है, उसके साथ अविद्याका—भ्रमका मेल भी है, तो यह समझना चाहिये कि अविद्या और सत् वस्तुके संयोगसे ही इस जगत्की उत्पत्ति हुई है। इसलिये जैसे रस्सीमें प्रतीत होनेवाला सर्प मिथ्या है, वैसे ही सत् वस्तुमें अविद्याके संयोगसे प्रतीत होनेवाला नाम-रूपात्मक जगत् भी मिथ्या है। यदि केवल व्यवहारकी सिद्धिके लिये ही जगत्की सत्ता अभीष्ट हो, तो उसमें कोई आपत्ति नहीं; क्योंकि वह पारमार्थिक सत्य न होकर केवल व्यावहारिक सत्य है। यह भ्रम व्यावहारिक जगत्में माने हुए कालकी दृष्टिसे अनादि है; और अज्ञानीजन बिना विचार किये पूर्व-पूर्वके भ्रमसे प्रेरित होकर अन्धपरम्परासे इसे मानते चले आ रहे हैं। ऐसी स्थितिमें कर्मफलको सत्य बतलानेवाली श्रुतियाँ केवल उन्हीं लोगोंको भ्रममें डालती हैं, जो कर्ममें जड हो रहे हैं और यह नहीं समझते कि इनका तात्पर्य कर्मफलकी नित्यता बतलानेमें नहीं, बल्कि उनकी प्रशंसा करके उन कर्मोंमें लगानेमें है*॥ ३६॥
पादटिप्पनी
- उद्भूतं भवतः सतोऽपि भुवनं
सन्नैव सर्पः स्रजः
कुर्वत् कार्यमपीह कूटकनकं
वेदोऽपि नैवंपरः।
अद्वैतं तव सत्परं तु परमानन्दं
पदं तन्मुदा
वन्दे सुन्दरमिन्दिरानुत हरे
मा मुंच मामानतम्॥ २३॥
मालामें प्रतीयमान सर्पके समान सत्यस्वरूप आपसे उदय होनेपर भी यह त्रिभुवन सत्य नहीं है। झूठा सोना बाजारमें चल जानेपर भी सत्य नहीं हो जाता। वेदोंका तात्पर्य भी जगत्की सत्यतामें नहीं है। इसलिये आपका जो परम सत्य परमानन्दस्वरूप अद्वैत सुन्दर पद है, हे इन्दिरावन्दित श्रीहरे! मैं उसीकी वन्दना करता हूँ। मुझ शरणागतको मत छोड़िये।
श्रीसुदर्शनसूरिः
उक्तकार्यसत्तापत्तिक्षेपेण कार्यमिथ्यात्ववादं चोद्यमुखेन प्रस्तुत्य प्रतिक्षिपति - सत इदमिति । सत उत्थितमिदं सदिति तर्कहतं सत उत्पत्तिवैधर्म्यादिति चोद्यमिदं ननुशब्देन सूच्यते । परिहरति क्व व्यभिचरतीति कार्यं सदित्ययमर्थः । क्व व्यभिचरति, न क्वचिदपि व्यभिचार इत्यर्थः । स्वाप्नार्थशुक्तिरजतादौ व्यभिचार इत्यत्राह - क्व च मृषेति । क्व मृषा न क्वचित् कार्यं मृषा । स्वाप्नानामपीश्वरसृष्टत्वान्न मृषात्वम् । शुक्तौ रजतसद्भावान्न मृषात्वमित्यभिप्रायः । पञ्चीकरणप्रक्रियया सर्वत्र सत्यत्वं निर्वाह्य सत उत्पत्तिवैयर्थ्यं परिहरति-न तथोभययुगिति । व्यभिचरति इत्यनुषङ्गः । क्वचिदपि मृत्सुवर्णादिद्रव्ये उभयावस्थादर्शनं न व्यभिचरति । कार्यत्वकारणत्वरूपावस्थावदेव मृत्सुवर्णादिकं न व्यभिचरति । कार्यत्वकारणत्वरूपावस्थावदेव मृत्सुवर्णादिकं सर्वं सर्वदा दृश्यते । अतः सतोऽवस्थान्तरप्राप्तिः सफलेत्यर्थः । अवस्थाविकल्पश्च व्यवहृतये उदकाहरणाद्यर्थव्यवहृतये इषित इष्ट: । कार्यमिथ्यात्वविषया त्वद्भारती अन्धपरम्परयाऽऽगता । अन्धपरम्परया उक्थजडान् जडाकारकर्मपरम्परया जडान् अतत्त्वविदो भ्रमयतीति भावः ॥ ३६ ॥
श्लोक-३७
विश्वास-प्रस्तुतिः
न यदिदमग्र आस न भविष्यदतो निधना-
दनुमितमन्तरा त्वयि विभाति मृषैकरसे।
अत उपमीयते द्रविणजातिविकल्पपथै-
र्वितथमनोविलासमृतमित्यवयन्त्यबुधाः॥
मूलम्
न यदिदमग्र आस न भविष्यदतो निधना-
दनुमितमन्तरा त्वयि विभाति मृषैकरसे।
अत उपमीयते द्रविणजातिविकल्पपथै-
र्वितथमनोविलासमृतमित्यवयन्त्यबुधाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवन्! वास्तविक बात तो यह है कि यह जगत् उत्पत्तिके पहले नहीं था और प्रलयके बाद नहीं रहेगा; इससे यह सिद्ध होता है कि यह बीचमें भी एकरस परमात्मामें मिथ्या ही प्रतीत हो रहा है। इसीसे हम श्रुतियाँ इस जगत्का वर्णन ऐसी उपमा देकर करती हैं कि जैसे मिट्टीमें घड़ा, लोहेमें शस्त्र और सोनेमें कुण्डल आदि नाममात्र हैं, वास्तवमें मिट्टी, लोहा और सोना ही हैं। वैसे ही परमात्मामें वर्णित जगत् नाममात्र है, सर्वथा मिथ्या और मनकी कल्पना है। इसे नासमझ मूर्ख ही सत्य मानते हैं॥ ३७॥
पादटिप्पनी
- मुकुटकुण्डलकंकणकिंकिणी-
परिणतं कनकं परमार्थतः।
महदहङ्कृतिखप्रमुखं तथा
नरहरे न परं परमार्थतः॥ २४॥
सोना मुकुट, कुण्डल, कंकण और किंकिणीके रूपमें परिणत होनेपर भी वस्तुतः सोना ही है। इसी प्रकार नृसिंह! महत्तत्त्व, अहंकार और आकाश, वायु आदिके रूपमें उपलब्ध होनेवाला यह सम्पूर्ण जगत् वस्तुतः आपसे भिन्न नहीं है।
श्रीसुदर्शनसूरिः
मृत्पिण्डतत्कार्यदृष्टान्तानां कार्यमिध्यात्ववर्णनमविदुषामेव रोचते न विदुषामित्याह-न यदिति । पूर्वोत्तरकालयोरिव मध्यकाले नास्ति कार्यम् अनुमितत्वात् दुर्निरूपकारणत्वात् । अन्तरा ब्रह्मणि कल्पितं मृषा भातीति ब्रह्म मृत्पिण्डलोहमण्यादिभिरिव उपमीयते । इति कुदृष्टीनां वितथं मनोविलसितं प्रतिपन्नोपाधौ बाधादर्शनात् कस्मात् कुदृष्टिः कुदृष्टाभिमतकार्बमिवम ऋतं प्रामाणिकमिति अबुधाः अवयन्ति । न तु विद्वांस इत्यर्थः ॥ ३७ ॥
श्लोक-३८
विश्वास-प्रस्तुतिः
स यदजया त्वजामनुशयीत गुणांश्च जुषन्
भजति सरूपतां तदनु मृत्युमपेतभगः।
त्वमुत जहासि तामहिरिव त्वचमात्तभगो
महसि महीयसेऽष्टगुणितेऽपरिमेयभगः॥
मूलम्
स यदजया त्वजामनुशयीत गुणांश्च जुषन्
भजति सरूपतां तदनु मृत्युमपेतभगः।
त्वमुत जहासि तामहिरिव त्वचमात्तभगो
महसि महीयसेऽष्टगुणितेऽपरिमेयभगः॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवन्! जब जीव मायासे मोहित होकर अविद्याको अपना लेता है, उस समय उसके स्वरूपभूत आनन्दादि गुण ढक जाते हैं; वह गुणजन्य वृत्तियों, इन्द्रियों और देहोंमें फँस जाता है तथा उन्हींको अपना आपा मानकर उनकी सेवा करने लगता है। अब उनकी जन्म-मृत्युमें अपनी जन्म-मृत्यु मानकर उनके चक्करमें पड़ जाता है। परन्तु प्रभो! जैसे साँप अपने केंचुलसे कोई सम्बन्ध नहीं रखता, उसे छोड़ देता है—वैसे ही आप माया—अविद्यासे कोई सम्बन्ध नहीं रखते, उसे सदा-सर्वदा छोड़े रहते हैं। इसीसे आपके सम्पूर्ण ऐश्वर्य, सदा-सर्वदा आपके साथ रहते हैं। अणिमा आदि अष्टसिद्धियोंसे युक्त परमैश्वर्यमें आपकी स्थिति है। इसीसे आपका ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, ज्ञान और वैराग्य अपरिमित है, अनन्त है; वह देश, काल और वस्तुओंकी सीमासे आबद्ध नहीं है*॥ ३८॥
पादटिप्पनी
- नृत्यन्ती तव वीक्षणांगणगता
कालस्वभावादिभि-
र्भावान् सत्त्वरजस्तमोगुणमया-
नुन्मीलयन्ती बहून्।
मामाक्रम्य पदा शिरस्यतिभरं
सम्मर्दयन्त्यातुरं
माया ते शरणं गतोऽस्मि नृहरे
त्वामेव तां वारय॥ २५॥
प्रभो! आपकी यह माया आपकी दृष्टिके आँगनमें आकर नाच रही है और काल, स्वभाव आदिके द्वारा सत्त्वगुणी, रजोगुणी और तमोगुणी अनेकानेक भावोंका प्रदर्शन कर रही है। साथ ही यह मेरे सिरपर सवार होकर मुझ आतुरको बलपूर्वक रौंद रही है। नृसिंह! मैं आपकी शरणमें आया हूँ, आप ही इसे रोक दीजिये।
श्रीसुदर्शनसूरिः
प्रकृत्यन्तरवस्थाने तुल्येऽपि जीवस्य तत्परवशत्वम् । परस्य तदभावत्वं चाह - स यदजयेति । सरूपत स्थूलत्वादिधर्मताम् । अपेतभगः अपेतज्ञानैश्वर्यादिः । जहासि नियमेन तत्परतन्त्रतया सम्बन्धरहितोऽसीत्यर्थः ॥३८॥
श्लोक-३९
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदि न समुद्धरन्ति यतयो हृदि कामजटा
दुरधिगमोऽसतां हृदि गतोऽस्मृतकण्ठमणिः।
असुतृपयोगिनामुभयतोऽप्यसुखं भगव-
न्ननपगतान्तकादनधिरूढपदाद् भवतः॥
मूलम्
यदि न समुद्धरन्ति यतयो हृदि कामजटा
दुरधिगमोऽसतां हृदि गतोऽस्मृतकण्ठमणिः।
असुतृपयोगिनामुभयतोऽप्यसुखं भगव-
न्ननपगतान्तकादनधिरूढपदाद् भवतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवन्! यदि मनुष्य योगी-यति होकर भी अपने हृदयकी विषय-वासनाओंको उखाड़ नहीं फेंकते तो उन असाधकोंके लिये आप हृदयमें रहनेपर भी वैसे ही दुर्लभ हैं, जैसे कोई अपने गलेमें मणि पहने हुए हो, परन्तु उसकी याद न रहनेपर उसे ढूँढ़ता फिरे इधर-उधर। जो साधक अपनी इन्द्रियोंको तृप्त करनेमें ही लगे रहते हैं, विषयोंसे विरक्त नहीं होते, उन्हें जीवनभर और जीवनके बाद भी दुःख-ही-दुःख भोगना पड़ता है। क्योंकि वे साधक नहीं, दम्भी हैं। एक तो अभी उन्हें मृत्युसे छुटकारा नहीं मिला है, लोगोंको रिझाने, धन कमाने आदिके क्लेश उठाने पड़ रहे हैं, और दूसरे आपका स्वरूप न जाननेके कारण अपने धर्म-कर्मका उल्लंघन करनेसे परलोकमें नरक आदि प्राप्त होनेका भय भी बना ही रहता है*॥ ३९॥
पादटिप्पनी
- दम्भन्यासमिषेण वंचिंतजनं
भोगैकचिन्तातुरं
सम्मुह्यन्तमहर्निशं विरचितो-
द्योगक्लमैराकुलम्।
आज्ञालंघिंनमज्ञमज्ञजनता-
सम्माननासन्मदं
दीनानाथ दयानिधान परमा-
नन्द प्रभो पाहि माम्॥ २६॥
प्रभो! मैं दम्भपूर्ण संन्यासके बहाने लोगोंको ठग रहा हूँ। एकमात्र भोगकी चिन्तासे ही आतुर हूँ तथा रात-दिन नाना प्रकारके उद्योगोंकी रचनाकी थकावटसे व्याकुल तथा बेसुध हो रहा हूँ। मैं आपकी आज्ञाका उल्लंघन करता हूँ, अज्ञानी हूँ और अज्ञानी लोगोंके द्वारा प्राप्त सम्मानसे ‘मैं सन्त हूँ’ ऐसा घमण्ड कर बैठा हूँ। दीनानाथ, दयानिधान, परमानन्द! मेरी रक्षा कीजिये।
श्रीसुदर्शनसूरिः
भगवत्प्रावण्ये सत्यपि कामहतानामनर्थमाह- यदि नेति । न समुद्धरन्ति संसारमिति शेषः । कण्ठस्थोऽप्यस्मर्यमाणो मणिरिव त्वं हृद्रतोऽपि न ज्ञायसे इत्यर्थः । असुतृपयोगिनां प्राणेन्द्रियतर्पणपराणां योगिनां न सुखम् । उभयत इहलोके परलोके चेत्यर्थः । अनधिरूढपदात् अनधिरूढपदत्वात् । भावप्रधानो निर्देशः ॥ ३९ ॥
श्लोक-४०
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वदवगमी न वेत्ति भवदुत्थशुभाशुभयो-
र्गुणविगुणान्वयांस्तर्हि देहभृतां च गिरः।
अनुयुगमन्वहं सगुण गीतपरम्परया
श्रवणभृतो यतस्त्वमपवर्गगतिर्मनुजैः॥
मूलम्
त्वदवगमी न वेत्ति भवदुत्थशुभाशुभयो-
र्गुणविगुणान्वयांस्तर्हि देहभृतां च गिरः।
अनुयुगमन्वहं सगुण गीतपरम्परया
श्रवणभृतो यतस्त्वमपवर्गगतिर्मनुजैः॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवन्! आपके वास्तविक स्वरूपको जाननेवाला पुरुष आपके दिये हुए पुण्य और पाप-कर्मोंके फल सुख एवं दुःखोंको नहीं जानता, नहीं भोगता; वह भोग्य और भोक्तापनके भावसे ऊपर उठ जाता है। उस समय विधि-निषेधके प्रतिपादक शास्त्र भी उससे निवृत्त हो जाते हैं; क्योंकि वे देहाभिमानियोंके लिये हैं। उनकी ओर तो उसका ध्यान ही नहीं जाता। जिसे आपके स्वरूपका ज्ञान नहीं हुआ है, वह भी यदि प्रतिदिन आपकी प्रत्येक युगमें की हुई लीलाओं, गुणोंका गान सुन-सुनकर उनके द्वारा आपको अपने हृदयमें बैठा लेता है तो अनन्त, अचिन्त्य, दिव्यगुणगणोंके निवासस्थान प्रभो! आपका वह प्रेमी भक्त भी पाप-पुण्योंके फल सुख-दुःखों और विधि-निषेधोंसे अतीत हो जाता है। क्योंकि आप ही उनकी मोक्षस्वरूप गति हैं। (परन्तु इन ज्ञानी और प्रेमियोंको छोड़कर और सभी शास्त्र बन्धनमें हैं तथा वे उसका उल्लंघन करनेपर दुर्गतिको प्राप्त होते हैं)*॥ ४०॥
पादटिप्पनी
- अवगमं तव मे दिशि माधव
स्फुरति यन्न सुखासुखसंगमः।
श्रवणवर्णनभावमथापि वा
न हि भवामि यथा विधिकिंकरः॥ २७॥
माधव! आप मुझे अपने स्वरूपका अनुभव कराइये, जिससे फिर सुख-दुःखके संयोगकी स्फूर्ति नहीं होती। अथवा मुझे अपने गुणोंके श्रवण और वर्णनका प्रेम ही दीजिये, जिससे कि मैं विधि-निषेधका किंकर न होऊँ।
श्रीसुदर्शनसूरिः
भगवत्पदाप्राप्तेः भगवज्ज्ञानवतां सम्पत्तिमाह- त्वदवगमीति । भवदुत्थयोः संसारोत्थयोः शुभाशुभयोः पुण्यापुण्ययोर्गुणविगुणान्वयात् देहभृतां गिरश्च स्तुतिनिन्दावाक्यानि । त्वदनुगमी त्वदनुभववान् न वेत्ति । मनुजैः सहास्मत्कुलगीतपरम्परया श्रवणभृतः श्रोत्रेणावगतः चेतसि धृतः त्वं तेषाम् अपवर्गगतिः अपवर्गरूपा गतिर्भवसि । सत्सम्प्रदायानुसारेण गीतः ॥४०॥
श्लोक-४१
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्युपतय एव ते न ययुरन्तमनन्ततया
त्वमपि यदन्तराण्डनिचया ननु सावरणाः।
ख इव रजांसि वान्ति वयसा सह यच्छ्रुतय-
स्त्वयि हि फलन्त्यतन्निरसनेन भवन्निधनाः॥
मूलम्
द्युपतय एव ते न ययुरन्तमनन्ततया
त्वमपि यदन्तराण्डनिचया ननु सावरणाः।
ख इव रजांसि वान्ति वयसा सह यच्छ्रुतय-
स्त्वयि हि फलन्त्यतन्निरसनेन भवन्निधनाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवन्! स्वर्गादि लोकोंके अधिपति इन्द्र, ब्रह्मा प्रभृति भी आपकी थाह—आपका पार न पा सके; और आश्चर्यकी बात तो यह है कि आप भी उसे नहीं जानते। क्योंकि जब अन्त है ही नहीं, तब कोई जानेगा कैसे? प्रभो! जैसे आकाशमें हवासे धूलके नन्हें-नन्हें कण उड़ते रहते हैं, वैसे ही आपमें कालके वेगसे अपनेसे उत्तरोत्तर दसगुने सात आवरणोंके सहित असंख्य ब्रह्माण्ड एक साथ ही घूमते रहते हैं। तब भला, आपकी सीमा कैसे मिले। हम श्रुतियाँ भी आपके स्वरूपका साक्षात् वर्णन नहीं कर सकतीं, आपके अतिरिक्त वस्तुओंका निषेध करते-करते अन्तमें अपना भी निषेध कर देती हैं और आपमें ही अपनी सत्ता खोकर सफल हो जाती हैं*॥ ४१॥
पादटिप्पनी
- द्युपतयो विदुरन्तमनन्त ते
न च भवान्न गिरः श्रुतिमौलयः।
त्वयि फलन्ति यतो नम इत्यतो
जय जयेति भजे तव तत्पदम्॥ २८॥
हे अनन्त! ब्रह्मा आदि देवता आपका अन्त नहीं जानते, न आप ही जानते और न तो वेदोंकी मुकुटमणि उपनिषदें ही जानती हैं; क्योंकि आप अनन्त हैं। उपनिषदें ‘नमो नमः’, ‘जय हो, जय हो’ यह कहकर आपमें चरितार्थ होती हैं। इसलिये मैं भी ‘नमो नमः’, ‘जय हो’, ‘जय हो’ यही कहकर आपके चरण-कमलकी उपासना करता हूँ।
श्रीसुदर्शनसूरिः
भगवतो माहात्म्यस्यापरिच्छेद्यत्वमाह - द्युपतय इति । द्युपतयः इन्द्रादयः । अन्तम् अवधिम् । यदन्तरा यस्यान्तं खे वयसा द्याः सर्व श्रुत्यर्थरूपस्य, पक्षिभिः सह । रजांसि इव यदन्तरा सावरणाः त्वत्पर्यवसायिन्यः श्रुतयः अतन्निरसनेन । फलन्ति सफलानि भवन्ति । द्याः । अतन्निरसनं तु समस्तचेतनसाजात्यनिरसनेन त्वद्वैलक्षण्यं बोधयन्तीत्यर्थः ॥ ४१ ॥
श्लोक-४२
मूलम् (वचनम्)
श्रीभगवानुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्येतद् ब्रह्मणः पुत्रा आश्रुत्यात्मानुशासनम्।
सनन्दनमथानर्चुः सिद्धा ज्ञात्वाऽऽत्मनो गतिम्॥
मूलम्
इत्येतद् ब्रह्मणः पुत्रा आश्रुत्यात्मानुशासनम्।
सनन्दनमथानर्चुः सिद्धा ज्ञात्वाऽऽत्मनो गतिम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् नारायणने कहा—देवर्षे! इस प्रकार सनकादि ऋषियोंने आत्मा और ब्रह्मकी एकता बतलानेवाला उपदेश सुनकर आत्मस्वरूपको जाना और नित्य सिद्ध होनेपर भी इस उपदेशसे कृतकृत्य-से होकर उन लोगोंने सनन्दनकी पूजा की॥ ४२॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
इति वेदस्तुतिम् आश्रुत्य । आत्मनो गतिम् आत्मतत्त्वम् ॥४२॥
श्लोक-४३
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्यशेषसमाम्नायपुराणोपनिषद्रसः।
समुद्धृतः पूर्वजातैर्व्योमयानैर्महात्मभिः॥
मूलम्
इत्यशेषसमाम्नायपुराणोपनिषद्रसः।
समुद्धृतः पूर्वजातैर्व्योमयानैर्महात्मभिः॥
अनुवाद (हिन्दी)
नारद! सनकादि ऋषि सृष्टिके आरम्भमें उत्पन्न हुए थे, अतएव वे सबके पूर्वज हैं। उन आकाशगामी महात्माओंने इस प्रकार समस्त वेद, पुराण और उपनिषदोंका रस निचोड़ लिया है, यह सबका सार-सर्वस्व है॥ ४३॥
मूलम्
इति सर्वश्रुतिपुराणरहस्यतात्पर्यमित्यर्थः ॥४३॥
श्लोक-४४
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वं चैतद् ब्रह्मदायाद श्रद्धयाऽऽत्मानुशासनम्।
धारयंश्चर गां कामं कामानां भर्जनं नृणाम्॥
मूलम्
त्वं चैतद् ब्रह्मदायाद श्रद्धयाऽऽत्मानुशासनम्।
धारयंश्चर गां कामं कामानां भर्जनं नृणाम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवर्षे! तुम भी उन्हींके समान ब्रह्माके मानस-पुत्र हो—उनकी ज्ञान-सम्पत्तिके उत्तराधिकारी हो। तुम भी श्रद्धाके साथ इस ब्रह्मात्मविद्याको धारण करो और स्वच्छन्दभावसे पृथ्वीमें विचरण करो। यह विद्या मनुष्योंकी समस्त वासनाओंको भस्म कर देनेवाली है॥ ४४॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
ब्रह्मदायादेति । ब्रह्म दायमिव अयत्नप्राप्यम् । अत्ति सेवत इति वा ब्रह्मपुत्र इति वा ॥ ४४ ॥
श्लोक-४५
मूलम् (वचनम्)
श्रीशुक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं स ऋषिणाऽऽदिष्टं गृहीत्वा श्रद्धयाऽऽत्मवान्।
पूर्णः श्रुतधरो राजन्नाह वीरव्रतो मुनिः॥
मूलम्
एवं स ऋषिणाऽऽदिष्टं गृहीत्वा श्रद्धयाऽऽत्मवान्।
पूर्णः श्रुतधरो राजन्नाह वीरव्रतो मुनिः॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! देवर्षि नारद बड़े संयमी, ज्ञानी, पूर्णकाम और नैष्ठिक ब्रह्मचारी हैं। वे जो कुछ सुनते हैं, उन्हें उसकी धारणा हो जाती है। भगवान् नारायणने उन्हें जब इस प्रकार उपदेश किया, तब उन्होंने बड़ी श्रद्धासे उसे ग्रहण किया और उनसे यह कहा॥ ४५॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
पूर्णः कृतकृत्यः । श्रुतधरः श्रुतमर्थं मनसि धारयन् । वीराणामिव व्रतं यस्य सः ॥४५ ॥
श्लोक-४६
मूलम् (वचनम्)
नारद उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
नमस्तस्मै भगवते कृष्णायामलकीर्त्तये।
यो धत्ते सर्वभूतानामभवायोशतीः कलाः॥
मूलम्
नमस्तस्मै भगवते कृष्णायामलकीर्त्तये।
यो धत्ते सर्वभूतानामभवायोशतीः कलाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवर्षि नारदने कहा—भगवन्! आप सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीकृष्ण हैं। आपकी कीर्ति परम पवित्र है। आप समस्त प्राणियोंके परम कल्याण—मोक्षके लिये कमनीय कलावतार धारण किया करते हैं। मैं आपको नमस्कार करता हूँ॥ ४६॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
अभवाय अपवर्गाय । कलाः मूर्तीः ॥ ४६-४९ ॥
श्लोक-४७
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्याद्यमृषिमानम्य तच्छिष्यांश्च महात्मनः।
ततोऽगादाश्रमं साक्षात् पितुर्द्वैपायनस्य मे॥
मूलम्
इत्याद्यमृषिमानम्य तच्छिष्यांश्च महात्मनः।
ततोऽगादाश्रमं साक्षात् पितुर्द्वैपायनस्य मे॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! इस प्रकार महात्मा देवर्षि नारद आदि ऋषि भगवान् नारायणको और उनके शिष्योंको नमस्कार करके स्वयं मेरे पिता श्रीकृष्णद्वैपायनके आश्रमपर गये॥ ४७॥
श्लोक-४८
विश्वास-प्रस्तुतिः
सभाजितो भगवता कृतासनपरिग्रहः।
तस्मै तद् वर्णयामास नारायणमुखाच्छ्रुतम्॥
मूलम्
सभाजितो भगवता कृतासनपरिग्रहः।
तस्मै तद् वर्णयामास नारायणमुखाच्छ्रुतम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् वेदव्यासने उनका यथोचित सत्कार किया। वे आसन स्वीकार करके बैठ गये, इसके बाद देवर्षि नारदने जो कुछ भगवान् नारायणके मुँहसे सुना था, वह सब कुछ मेरे पिताजीको सुना दिया॥ ४८॥
श्लोक-४९
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्येतद्वर्णितं राजन् यन्नः प्रश्नः कृतस्त्वया।
यथा ब्रह्मण्यनिर्देश्ये निर्गुणेऽपि मनश्चरेत्॥
मूलम्
इत्येतद्वर्णितं राजन् यन्नः प्रश्नः कृतस्त्वया।
यथा ब्रह्मण्यनिर्देश्ये निर्गुणेऽपि मनश्चरेत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! इस प्रकार मैंने तुम्हें बतलाया कि मन-वाणीसे अगोचर और समस्त प्राकृत गुणोंसे रहित परब्रह्म परमात्माका वर्णन श्रुतियाँ किस प्रकार करती हैं और उसमें मनका कैसे प्रवेश होता है? यही तो तुम्हारा प्रश्न था॥ ४९॥
श्लोक-५०
विश्वास-प्रस्तुतिः
योऽस्योत्प्रेक्षक आदिमध्यनिधने
योऽव्यक्तजीवेश्वरो
यः सृष्ट्वेदमनुप्रविश्य ऋषिणा
चक्रे पुरः शास्ति ताः।
यं संपद्य जहात्यजामनुशयी
सुप्तः कुलायं यथा
तं कैवल्यनिरस्तयोनिमभयं
ध्यायेदजस्रं हरिम्॥
मूलम्
योऽस्योत्प्रेक्षक आदिमध्यनिधने
योऽव्यक्तजीवेश्वरो
यः सृष्ट्वेदमनुप्रविश्य ऋषिणा
चक्रे पुरः शास्ति ताः।
यं संपद्य जहात्यजामनुशयी
सुप्तः कुलायं यथा
तं कैवल्यनिरस्तयोनिमभयं
ध्यायेदजस्रं हरिम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! भगवान् ही इस विश्वका संकल्प करते हैं तथा उसके आदि, मध्य और अन्तमें स्थित रहते हैं। वे प्रकृति और जीव दोनोंके स्वामी हैं। उन्होंने ही इसकी सृष्टि करके जीवके साथ इसमें प्रवेश किया है और शरीरोंका निर्माण करके वे ही उनका नियन्त्रण करते हैं। जैसे गाढ़ निद्रा—सुषुप्तिमें मग्न पुरुष अपने शरीरका अनुसन्धान छोड़ देता है, वैसे ही भगवान्को पाकर यह जीव मायासे मुक्त हो जाता है। भगवान् ऐसे विशुद्ध, केवल चिन्मात्र तत्त्व हैं कि उनमें जगत्के कारण माया अथवा प्रकृतिका रत्तीभर भी अस्तित्व नहीं है। वे ही वास्तवमें अभय-स्थान हैं। उनका चिन्तन निरन्तर करते रहना चाहिये॥ ५०॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
आत्मैक्षिकः स्वयमेवात्मनां साक्षात्कर्ता । यद्वा । आत्मनां शुभाशुभसाक्षी । ऋषिणा चतुर्मुखेन सह संहिताश्चक्रे प्रावर्तयत् | अनुशयी कर्मवश्यः । कैवल्यनिरस्तयोनिं संसारिणां मोक्षप्रदानेन निरस्तः योनिं निरस्तयोनिप्रभवदुःखम् । वितीर्य पर्याय । कर्हिचित् कदाचित् ॥५०॥
॥ इति श्रीमद्भागवतव्याख्याने दशमस्कन्धे श्रीसुदर्शनसूरिकृतशुकपक्षीये सप्ताशीतितमोऽध्यायः ॥८७॥
अनुवाद (समाप्ति)
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे उत्तरार्धे नारदनारायणसंवादे वेदस्तुतिर्नाम सप्ताशीतितमोऽध्यायः॥ ८७॥