८६ श्रुतदेवानुग्रहः

[षडशीतितमोऽध्यायः]

भागसूचना

सुभद्राहरण और भगवान‍्का मिथिलापुरीमें राजा जनक और श्रुतदेव ब्राह्मणके घर एक ही साथ जाना

श्लोक-१

मूलम् (वचनम्)

राजोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रह्मन् वेदितुमिच्छामः स्वसारं रामकृष्णयोः।
यथोपयेमे विजयो या ममासीत् पितामही॥

मूलम्

ब्रह्मन् वेदितुमिच्छामः स्वसारं रामकृष्णयोः।
यथोपयेमे विजयो या ममासीत् पितामही॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा परीक्षित् ने पूछा—भगवन्! मेरे दादा अर्जुनने भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजीकी बहिन सुभद्राजीसे, जो मेरी दादी थीं, किस प्रकार विवाह किया? मैं यह जाननेके लिये बहुत उत्सुक हूँ॥ १॥

श्लोक-२

मूलम् (वचनम्)

श्रीशुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अर्जुनस्तीर्थयात्रायां पर्यटन्नवनीं प्रभुः।
गतः प्रभासमशृणोन्मातुलेयीं स आत्मनः॥

मूलम्

अर्जुनस्तीर्थयात्रायां पर्यटन्नवनीं प्रभुः।
गतः प्रभासमशृणोन्मातुलेयीं स आत्मनः॥

श्लोक-३

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुर्योधनाय रामस्तां दास्यतीति न चापरे।
तल्लिप्सुः स यतिर्भूत्वा त्रिदण्डी द्वारकामगात्॥

मूलम्

दुर्योधनाय रामस्तां दास्यतीति न चापरे।
तल्लिप्सुः स यतिर्भूत्वा त्रिदण्डी द्वारकामगात्॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीशुकदेवजीने कहा—परीक्षित्! एक बार अत्यन्त शक्तिशाली अर्जुन तीर्थयात्राके लिये पृथ्वीपर विचरण करते हुए प्रभासक्षेत्र पहुँचे। वहाँ उन्होंने यह सुना कि बलरामजी मेरे मामाकी पुत्री सुभद्राका विवाह दुर्योधनके साथ करना चाहते हैं और वसुदेव, श्रीकृष्ण आदि उनसे इस विषयमें सहमत नहीं हैं। अब अर्जुनके मनमें सुभद्राको पानेकी लालसा जग आयी। वे त्रिदण्डी वैष्णवका वेष धारण करके द्वारका पहुँचे॥ २-३॥

श्लोक-४

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्र वै वार्षिकान् मासानवात्सीत् स्वार्थसाधकः।
पौरैः सभाजितोऽभीक्ष्णं रामेणाजानता च सः॥

मूलम्

तत्र वै वार्षिकान् मासानवात्सीत् स्वार्थसाधकः।
पौरैः सभाजितोऽभीक्ष्णं रामेणाजानता च सः॥

अनुवाद (हिन्दी)

अर्जुन सुभद्राको प्राप्त करनेके लिये वहाँ वर्षाकालमें चार महीनेतक रहे। वहाँ पुरवासियों और बलरामजीने उनका खूब सम्मान किया। उन्हें यह पता न चला कि ये अर्जुन हैं॥ ४॥

श्लोक-५

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकदा गृहमानीय आतिथ्येन निमन्त्र्य तम्।
श्रद्धयोपहृतं भैक्ष्यं बलेन बुभुजे किल॥

मूलम्

एकदा गृहमानीय आतिथ्येन निमन्त्र्य तम्।
श्रद्धयोपहृतं भैक्ष्यं बलेन बुभुजे किल॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक दिन बलरामजीने आतिथ्यके लिये उन्हें निमन्त्रित किया और उनको वे अपने घर ले आये। त्रिदण्डी-वेषधारी अर्जुनको बलरामजीने अत्यन्त श्रद्धाके साथ भोजन-सामग्री निवेदित की और उन्होंने बड़े प्रेमसे भोजन किया॥ ५॥

श्लोक-६

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोऽपश्यत्तत्र महतीं कन्यां वीरमनोहराम्।
प्रीत्युत्फुल्लेक्षणस्तस्यां भावक्षुब्धं मनो दधे॥

मूलम्

सोऽपश्यत्तत्र महतीं कन्यां वीरमनोहराम्।
प्रीत्युत्फुल्लेक्षणस्तस्यां भावक्षुब्धं मनो दधे॥

अनुवाद (हिन्दी)

अर्जुनने भोजनके समय वहाँ विवाहयोग्य परम सुन्दरी सुभद्राको देखा। उसका सौन्दर्य बड़े-बड़े वीरोंका मन हरनेवाला था। अर्जुनके नेत्र प्रेमसे प्रफुल्लित हो गये। उनका मन उसे पानेकी आकांक्षासे क्षुब्ध हो गया और उन्होंने उसे पत्नी बनानेका दृढ़ निश्चय कर लिया॥ ६॥

श्लोक-७

विश्वास-प्रस्तुतिः

सापि तं चकमे वीक्ष्य नारीणां हृदयङ्गमम्।
हसन्ती व्रीडितापाङ्गी तन्न्यस्तहृदयेक्षणा॥

मूलम्

सापि तं चकमे वीक्ष्य नारीणां हृदयङ्गमम्।
हसन्ती व्रीडितापाङ्गी तन्न्यस्तहृदयेक्षणा॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! तुम्हारे दादा अर्जुन भी बड़े ही सुन्दर थे। उनके शरीरकी गठन, भाव-भंगी स्त्रियोंका हृदय स्पर्श कर लेती थी। उन्हें देखकर सुभद्राने भी मनमें उन्हींको पति बनानेका निश्चय किया। वह तनिक मुसकराकर लजीली चितवनसे उनकी ओर देखने लगी। उसने अपना हृदय उन्हें समर्पित कर दिया॥ ७॥

श्लोक-८

विश्वास-प्रस्तुतिः

तां परं समनुध्यायन्नन्तरं प्रेप्सुरर्जुनः।
न लेभे शं भ्रमच्चित्तः कामेनातिबलीयसा॥

मूलम्

तां परं समनुध्यायन्नन्तरं प्रेप्सुरर्जुनः।
न लेभे शं भ्रमच्चित्तः कामेनातिबलीयसा॥

अनुवाद (हिन्दी)

अब अर्जुन केवल उसीका चिन्तन करने लगे और इस बातका अवसर ढूँढ़ने लगे कि इसे कब हर ले जाऊँ। सुभद्राको प्राप्त करनेकी उत्कट कामनासे उनका चित्त चक्‍कर काटने लगा, उन्हें तनिक भी शान्ति नहीं मिलती थी॥ ८॥

श्लोक-९

विश्वास-प्रस्तुतिः

महत्यां देवयात्रायां रथस्थां दुर्गनिर्गताम्।
जहारानुमतः पित्रोः कृष्णस्य च महारथः॥

मूलम्

महत्यां देवयात्रायां रथस्थां दुर्गनिर्गताम्।
जहारानुमतः पित्रोः कृष्णस्य च महारथः॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक बार सुभद्राजी देवदर्शनके लिये रथपर सवार होकर द्वारका-दुर्गसे बाहर निकलीं। उसी समय महारथी अर्जुनने देवकी-वसुदेव और श्रीकृष्णकी अनुमतिसे सुभद्राका हरण कर लिया॥ ९॥

श्लोक-१०

विश्वास-प्रस्तुतिः

रथस्थो धनुरादाय शूरांश्चारुन्धतो भटान्।
विद्राव्य क्रोशतां स्वानां स्वभागं मृगराडिव॥

मूलम्

रथस्थो धनुरादाय शूरांश्चारुन्धतो भटान्।
विद्राव्य क्रोशतां स्वानां स्वभागं मृगराडिव॥

अनुवाद (हिन्दी)

रथपर सवार होकर वीर अर्जुनने धनुष उठा लिया और जो सैनिक उन्हें रोकनेके लिये आये, उन्हें मार-पीटकर भगा दिया। सुभद्राके निज-जन रोते-चिल्लाते रह गये और अर्जुन जिस प्रकार सिंह अपना भाग लेकर चल देता है, वैसे ही सुभद्राको लेकर चल पड़े॥ १०॥

श्लोक-११

विश्वास-प्रस्तुतिः

तच्छ्रुत्वा क्षुभितो रामः पर्वणीव महार्णवः।
गृहीतपादः कृष्णेन सुहृद‍्भिश्चान्वशाम्यत॥

मूलम्

तच्छ्रुत्वा क्षुभितो रामः पर्वणीव महार्णवः।
गृहीतपादः कृष्णेन सुहृद‍्भिश्चान्वशाम्यत॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह समाचार सुनकर बलरामजी बहुत बिगड़े। वे वैसे ही क्षुब्ध हो उठे, जैसे पूर्णिमाके दिन समुद्र। परन्तु भगवान् श्रीकृष्ण तथा अन्य सुहृद्-सम्बन्धियोंने उनके पैर पकड़कर उन्हें बहुत कुछ समझाया-बुझाया, तब वे शान्त हुए॥ ११॥

श्लोक-१२

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्राहिणोत् पारिबर्हाणि वरवध्वोर्मुदा बलः।
महाधनोपस्करेभरथाश्वनरयोषितः॥

मूलम्

प्राहिणोत् पारिबर्हाणि वरवध्वोर्मुदा बलः।
महाधनोपस्करेभरथाश्वनरयोषितः॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके बाद बलरामजीने प्रसन्न होकर वर-वधूके लिये बहुत-सा धन, सामग्री, हाथी, रथ, घोड़े और दासी-दास दहेजमें भेजे॥ १२॥

श्लोक-१३

मूलम् (वचनम्)

श्रीशुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृष्णस्यासीद् द्विजश्रेष्ठः श्रुतदेव इति श्रुतः।
कृष्णैकभक्त्या पूर्णार्थः शान्तः कविरलम्पटः॥

मूलम्

कृष्णस्यासीद् द्विजश्रेष्ठः श्रुतदेव इति श्रुतः।
कृष्णैकभक्त्या पूर्णार्थः शान्तः कविरलम्पटः॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! विदेहकी राजधानी मिथिलामें एक गृहस्थ ब्राह्मण थे। उनका नाम था श्रुतदेव। वे भगवान् श्रीकृष्णके परम भक्त थे। वे एकमात्र भगवद‍्भक्तिसे ही पूर्णमनोरथ, परम शान्त, ज्ञानी और विरक्त थे॥ १३॥

श्लोक-१४

विश्वास-प्रस्तुतिः

स उवास विदेहेषु मिथिलायां गृहाश्रमी।
अनीहयाऽऽगताहार्यनिर्वर्तितनिजक्रियः॥

मूलम्

स उवास विदेहेषु मिथिलायां गृहाश्रमी।
अनीहयाऽऽगताहार्यनिर्वर्तितनिजक्रियः॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे गृहस्थाश्रममें रहते हुए भी किसी प्रकारका उद्योग नहीं करते थे; जो कुछ मिल जाता, उसीसे अपना निर्वाह कर लेते थे॥ १४॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

अनीहया गताहार्यः अनीहया स्वयं मुन्यन्नाहारः ॥१४-२० ॥

श्लोक-१५

विश्वास-प्रस्तुतिः

यात्रामात्रं त्वहरहर्दैवादुपनमत्युत।
नाधिकं तावता तुष्टः क्रियाश्चक्रे यथोचिताः॥

मूलम्

यात्रामात्रं त्वहरहर्दैवादुपनमत्युत।
नाधिकं तावता तुष्टः क्रियाश्चक्रे यथोचिताः॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रारब्धवश प्रतिदिन उन्हें जीवन-निर्वाहभरके लिये सामग्री मिल जाया करती थी, अधिक नहीं। वे उतनेसे ही सन्तुष्ट भी थे, और अपने वर्णाश्रमके अनुसार धर्म-पालनमें तत्पर रहते थे॥ १५॥

श्लोक-१६

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा तद्राष्ट्रपालोऽङ्ग बहुलाश्व इति श्रुतः।
मैथिलो निरहम्मान उभावप्यच्युतप्रियौ॥

मूलम्

तथा तद्राष्ट्रपालोऽङ्ग बहुलाश्व इति श्रुतः।
मैथिलो निरहम्मान उभावप्यच्युतप्रियौ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रिय परीक्षित्! उस देशके राजा भी ब्राह्मणके समान ही भक्तिमान् थे। मैथिलवंशके उन प्रतिष्ठित नरपतिका नाम था बहुलाश्व। उनमें अहंकारका लेश भी न था। श्रुतदेव और बहुलाश्व दोनों ही भगवान् श्रीकृष्णके प्यारे भक्त थे॥ १६॥

श्लोक-१७

विश्वास-प्रस्तुतिः

तयोः प्रसन्नो भगवान् दारुकेणाहृतं रथम्।
आरुह्य साकं मुनिभिर्विदेहान् प्रययौ प्रभुः॥

मूलम्

तयोः प्रसन्नो भगवान् दारुकेणाहृतं रथम्।
आरुह्य साकं मुनिभिर्विदेहान् प्रययौ प्रभुः॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक बार भगवान् श्रीकृष्णने उन दोनोंपर प्रसन्न होकर दारुकसे रथ मँगवाया और उसपर सवार होकर द्वारकासे विदेह देशकी ओर प्रस्थान किया॥ १७॥

श्लोक-१८

विश्वास-प्रस्तुतिः

नारदो वामदेवोऽत्रिः कृष्णो रामोऽसितोऽरुणिः।
अहं बृहस्पतिः कण्वो मैत्रेयश्च्यवनादयः॥

मूलम्

नारदो वामदेवोऽत्रिः कृष्णो रामोऽसितोऽरुणिः।
अहं बृहस्पतिः कण्वो मैत्रेयश्च्यवनादयः॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान‍्के साथ नारद, वामदेव, अत्रि, वेदव्यास, परशुराम, असित, आरुणि, मैं (शुकदेव), बृहस्पति, कण्व, मैत्रेय, च्यवन आदि ऋषि भी थे॥ १८॥

श्लोक-१९

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्र तत्र तमायान्तं पौरा जानपदा नृप।
उपतस्थुः सार्घ्यहस्ता ग्रहैः सूर्यमिवोदितम्॥

मूलम्

तत्र तत्र तमायान्तं पौरा जानपदा नृप।
उपतस्थुः सार्घ्यहस्ता ग्रहैः सूर्यमिवोदितम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! वे जहाँ-जहाँ पहुँचते, वहाँ-वहाँकी नागरिक और ग्रामवासी प्रजा पूजाकी सामग्री लेकर उपस्थित होती। पूजा करनेवालोंको भगवान् ऐसे जान पड़ते, मानो ग्रहोंके साथ साक्षात् सूर्यनारायण उदय हो रहे हों॥ १९॥

श्लोक-२०

विश्वास-प्रस्तुतिः

आनर्तधन्वकुरुजाङ्गलकङ्कमत्स्य-
पाञ्चालकुन्तिमधुकेकयकोसलार्णाः।
अन्ये च तन्मुखसरोजमुदारहास-
स्निग्धेक्षणं नृप पपुर्दृशिभिर्नृनार्यः॥

मूलम्

आनर्तधन्वकुरुजाङ्गलकङ्कमत्स्य-
पाञ्चालकुन्तिमधुकेकयकोसलार्णाः।
अन्ये च तन्मुखसरोजमुदारहास-
स्निग्धेक्षणं नृप पपुर्दृशिभिर्नृनार्यः॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! उस यात्रामें आनर्त, धन्व, कुरुजांगल, कंक, मत्स्य, पांचाल, कुन्ति, मधु, केकय, कोसल, अर्ण आदि अनेक देशोंके नर-नारियोंने अपने नेत्ररूपी दोनोंसे भगवान् श्रीकृष्णके उन्मुक्त हास्य और प्रेमभरी चितवनसे युक्त मुखारविन्दके मकरन्द-रसका पान किया॥ २०॥

श्लोक-२१

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेभ्यः स्ववीक्षणविनष्टतमिस्रदृग्भ्यः
क्षेमं त्रिलोकगुरुरर्थदृशं च यच्छन्।
शृण्वन् दिगन्तधवलं स्वयशोऽशुभघ्नं
गीतं सुरैर्नृभिरगाच्छनकैर्विदेहान्॥

मूलम्

तेभ्यः स्ववीक्षणविनष्टतमिस्रदृग्भ्यः
क्षेमं त्रिलोकगुरुरर्थदृशं च यच्छन्।
शृण्वन् दिगन्तधवलं स्वयशोऽशुभघ्नं
गीतं सुरैर्नृभिरगाच्छनकैर्विदेहान्॥

अनुवाद (हिन्दी)

त्रिलोकगुरु भगवान् श्रीकृष्णके दर्शनसे उन लोगोंकी अज्ञानदृष्टि नष्ट हो गयी। प्रभु-दर्शन करनेवाले नर-नारियोंको अपनी दृष्टिसे परम कल्याण और तत्त्वज्ञानका दान करते चल रहे थे। स्थान-स्थानपर मनुष्य और देवता भगवान‍्की उस कीर्तिका गान करते सुनाते, जो समस्त दिशाओंको उज्ज्वल बनानेवाली एवं समस्त अशुभोंका विनाश करनेवाली है। इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण धीरे-धीरे विदेह देशमें पहुँचे॥ २१॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

अर्थदृशं तत्त्वार्थज्ञानम् ॥२१-२२॥

श्लोक-२२

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेऽच्युतं प्राप्तमाकर्ण्य पौरा जानपदा नृप।
अभीयुर्मुदितास्तस्मै गृहीतार्हणपाणयः॥

मूलम्

तेऽच्युतं प्राप्तमाकर्ण्य पौरा जानपदा नृप।
अभीयुर्मुदितास्तस्मै गृहीतार्हणपाणयः॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्णके शुभागमनका समाचार सुनकर नागरिक और ग्रामवासियोंके आनन्दकी सीमा न रही। वे अपने हाथोंमें पूजाकी विविध सामग्रियाँ लेकर उनकी अगवानी करने आये॥ २२॥

श्लोक-२३

विश्वास-प्रस्तुतिः

दृष्ट्वा त उत्तमश्लोकं प्रीत्युत्फुल्लाननाशयाः।
कैर्धृताञ्जलिभिर्नेमुः श्रुतपूर्वांस्तथा मुनीन्॥

मूलम्

दृष्ट्वा त उत्तमश्लोकं प्रीत्युत्फुल्लाननाशयाः।
कैर्धृताञ्जलिभिर्नेमुः श्रुतपूर्वांस्तथा मुनीन्॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् श्रीकृष्णका दर्शन करके उनके हृदय और मुखकमल प्रेम और आनन्दसे खिल उठे। उन्होंने भगवान‍्को तथा उन मुनियोंको, जिनका नाम केवल सुन रखा था, देखा न था—हाथ जोड़ मस्तक झुकाकर प्रणाम किया॥ २३॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

कैः शिरोभिः ॥२३ - ३४॥

श्लोक-२४

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वानुग्रहाय सम्प्राप्तं मन्वानौ तं जगद‍्गुरुम्।
मैथिलः श्रुतदेवश्च पादयोः पेततुः प्रभोः॥

मूलम्

स्वानुग्रहाय सम्प्राप्तं मन्वानौ तं जगद‍्गुरुम्।
मैथिलः श्रुतदेवश्च पादयोः पेततुः प्रभोः॥

अनुवाद (हिन्दी)

मिथिलानरेश बहुलाश्व और श्रुतदेवने, यह समझकर कि जगद‍्गुरु भगवान् श्रीकृष्ण हमलोगोंपर अनुग्रह करनेके लिये ही पधारे हैं, उनके चरणोंपर गिरकर प्रणाम किया॥ २४॥

श्लोक-२५

विश्वास-प्रस्तुतिः

न्यमन्त्रयेतां दाशार्हमातिथ्येन सह द्विजैः।
मैथिलः श्रुतदेवश्च युगपत् संहताञ्जली॥

मूलम्

न्यमन्त्रयेतां दाशार्हमातिथ्येन सह द्विजैः।
मैथिलः श्रुतदेवश्च युगपत् संहताञ्जली॥

अनुवाद (हिन्दी)

बहुलाश्व और श्रुतदेव दोनोंने ही एक साथ हाथ जोड़कर मुनिमण्डलीके सहित भगवान् श्रीकृष्णको आतिथ्य ग्रहण करनेके लिये निमन्त्रित किया॥ २५॥

श्लोक-२६

विश्वास-प्रस्तुतिः

भगवांस्तदभिप्रेत्य द्वयोः प्रियचिकीर्षया।
उभयोराविशद् गेहमुभाभ्यां तदलक्षितः॥

मूलम्

भगवांस्तदभिप्रेत्य द्वयोः प्रियचिकीर्षया।
उभयोराविशद् गेहमुभाभ्यां तदलक्षितः॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् श्रीकृष्ण दोनोंकी प्रार्थना स्वीकार करके दोनोंको ही प्रसन्न करनेके लिये एक ही समय पृथक्-पृथक् रूपसे दोनोंके घर पधारे और यह बात एक-दूसरेको मालूम न हुई कि भगवान् श्रीकृष्ण मेरे घरके अतिरिक्त और कहीं भी जा रहे हैं॥ २६॥

श्लोक-२७

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रोतुमप्यसतां दूरान् जनकः स्वगृहागतान्।
आनीतेष्वासनाग्र्येषु सुखासीनान् महामनाः॥

मूलम्

श्रोतुमप्यसतां दूरान् जनकः स्वगृहागतान्।
आनीतेष्वासनाग्र्येषु सुखासीनान् महामनाः॥

श्लोक-२८

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रवृद्धभक्त्या उद्धर्षहृदयास्राविलेक्षणः।
नत्वा तदङ्घ्रीन् प्रक्षाल्य तदपो लोकपावनीः॥

मूलम्

प्रवृद्धभक्त्या उद्धर्षहृदयास्राविलेक्षणः।
नत्वा तदङ्घ्रीन् प्रक्षाल्य तदपो लोकपावनीः॥

श्लोक-२९

विश्वास-प्रस्तुतिः

सकुटुम्बो वहन् मूर्ध्ना पूजयाञ्चक्र ईश्वरान्।
गन्धमाल्याम्बराकल्पधूपदीपार्घ्यगोवृषैः॥

मूलम्

सकुटुम्बो वहन् मूर्ध्ना पूजयाञ्चक्र ईश्वरान्।
गन्धमाल्याम्बराकल्पधूपदीपार्घ्यगोवृषैः॥

अनुवाद (हिन्दी)

विदेहराज बहुलाश्व बड़े मनस्वी थे; उन्होंने यह देखकर कि दुष्ट-दुराचारी पुरुष जिनका नाम भी नहीं सुन सकते, वे ही भगवान् श्रीकृष्ण और ऋषि-मुनि मेरे घर पधारे हैं, सुन्दर-सुन्दर आसन मँगाये और भगवान् श्रीकृष्ण तथा ऋषि-मुनि आरामसे उनपर बैठ गये। उस समय बहुलाश्वकी विचित्र दशा थी। प्रेम-भक्तिके उद्रेकसे उनका हृदय भर आया था। नेत्रोंमें आँसू उमड़ रहे थे। उन्होंने अपने पूज्यतम अतिथियोंके चरणोंमें नमस्कार करके पाँव पखारे और अपने कुटुम्बके साथ उनके चरणोंका लोकपावन जल सिरपर धारण किया और फिर भगवान् एवं भगवत्स्वरूप ऋषियोंको गन्ध, माला, वस्त्र, अलंकार, धूप, दीप, अर्घ्य, गौ, बैल आदि समर्पित करके उनकी पूजा की॥ २७—२९॥

श्लोक-३०

विश्वास-प्रस्तुतिः

वाचा मधुरया प्रीणन्निदमाहान्नतर्पितान्।
पादावङ्कगतौ विष्णोः संस्पृशञ्छनकैर्मुदा॥

मूलम्

वाचा मधुरया प्रीणन्निदमाहान्नतर्पितान्।
पादावङ्कगतौ विष्णोः संस्पृशञ्छनकैर्मुदा॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब सब लोग भोजन करके तृप्त हो गये, तब राजा बहुलाश्व भगवान् श्रीकृष्णके चरणोंको अपनी गोदमें लेकर बैठ गये। और बड़े आनन्दसे धीरे-धीरे उन्हें सहलाते हुए बड़ी मधुर वाणीसे भगवान‍्की स्तुति करने लगे॥ ३०॥

श्लोक-३१

मूलम् (वचनम्)

राजोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

भवान् हि सर्वभूतानामात्मा साक्षी स्वदृग् विभो।
अथ नस्त्वत्पदाम्भोजं स्मरतां दर्शनं गतः॥

मूलम्

भवान् हि सर्वभूतानामात्मा साक्षी स्वदृग् विभो।
अथ नस्त्वत्पदाम्भोजं स्मरतां दर्शनं गतः॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा बहुलाश्वने कहा—‘प्रभो! आप समस्त प्राणियोंके आत्मा, साक्षी एवं स्वयंप्रकाश हैं। हम सदा-सर्वदा आपके चरणकमलोंका स्मरण करते रहते हैं। इसीसे आपने हमलोगोंको दर्शन देकर कृतार्थ किया है॥ ३१॥

श्लोक-३२

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्ववचस्तदृतं कर्तुमस्मद्दृग्गोचरो भवान्।
यदात्थैकान्तभक्तान्मे नानन्तः श्रीरजः प्रियः॥

मूलम्

स्ववचस्तदृतं कर्तुमस्मद्दृग्गोचरो भवान्।
यदात्थैकान्तभक्तान्मे नानन्तः श्रीरजः प्रियः॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवन्! आपके वचन हैं कि मेरा अनन्यप्रेमी भक्त मुझे अपने स्वरूप बलरामजी, अर्द्धांगिनी लक्ष्मी और पुत्र ब्रह्मासे भी बढ़कर प्रिय है। अपने उन वचनोंको सत्य करनेके लिये ही आपने हमलोगोंको दर्शन दिया है॥ ३२॥

श्लोक-३३

विश्वास-प्रस्तुतिः

को नु त्वच्चरणाम्भोजमेवंविद् विसृजेत् पुमान्।
निष्किञ्चनानां शान्तानां मुनीनां यस्त्वमात्मदः॥

मूलम्

को नु त्वच्चरणाम्भोजमेवंविद् विसृजेत् पुमान्।
निष्किञ्चनानां शान्तानां मुनीनां यस्त्वमात्मदः॥

अनुवाद (हिन्दी)

भला, ऐसा कौन पुरुष है, जो आपकी इस परम दयालुता और प्रेमपरवशताको जानकर भी आपके चरणकमलोंका परित्याग कर सके? प्रभो! जिन्होंने जगत‍्की समस्त वस्तुओंका एवं शरीर आदिका भी मनसे परित्याग कर दिया है, उन परम शान्त मुनियोंको आप अपने तकको भी दे डालते हैं॥ ३३॥

श्लोक-३४

विश्वास-प्रस्तुतिः

योऽवतीर्य यदोर्वंशे नृणां संसरतामिह।
यशो वितेने तच्छान्त्यै त्रैलोक्यवृजिनापहम्॥

मूलम्

योऽवतीर्य यदोर्वंशे नृणां संसरतामिह।
यशो वितेने तच्छान्त्यै त्रैलोक्यवृजिनापहम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

आपने यदुवंशमें अवतार लेकर जन्म-मृत्युके चक्‍करमें पड़े हुए मनुष्योंको उससे मुक्त करनेके लिये जगत‍्में ऐसे विशुद्ध यशका विस्तार किया है, जो त्रिलोकीके पाप-तापको शान्त करनेवाला है॥ ३४॥

श्लोक-३५

विश्वास-प्रस्तुतिः

नमस्तुभ्यं भगवते कृष्णायाकुण्ठमेधसे।
नारायणाय ऋषये सुशान्तं तप ईयुषे॥

मूलम्

नमस्तुभ्यं भगवते कृष्णायाकुण्ठमेधसे।
नारायणाय ऋषये सुशान्तं तप ईयुषे॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभो! आप अचिन्त्य, अनन्त ऐश्वर्य और माधुर्यकी निधि हैं; सबके चित्तको अपनी ओर आकर्षित करनेके लिये आप सच्चिदानन्दस्वरूप परमब्रह्म हैं। आपका ज्ञान अनन्त है। परम शान्तिका विस्तार करनेके लिये आप ही नारायण ऋषिके रूपमें तपस्या कर रहे हैं। मैं आपको नमस्कार करता हूँ॥ ३५॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

व्रजेत् सुशान्ततपः ऊर्मिषट्कातीतं ज्ञानम् ॥३५-४०॥

श्लोक-३६

विश्वास-प्रस्तुतिः

दिनानि कतिचिद् भूमन् गृहान् नो निवस द्विजैः।
समेतः पादरजसा पुनीहीदं निमेः कुलम्॥

मूलम्

दिनानि कतिचिद् भूमन् गृहान् नो निवस द्विजैः।
समेतः पादरजसा पुनीहीदं निमेः कुलम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

एकरस अनन्त! आप कुछ दिनोंतक मुनिमण्डलीके साथ हमारे यहाँ निवास कीजिये और अपने चरणोंकी धूलसे इस निमिवंशको पवित्र कीजिये’॥ ३६॥

श्लोक-३७

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युपामन्त्रितो राज्ञा भगवाल्ँ‍लोकभावनः।
उवास कुर्वन् कल्याणं मिथिलानरयोषिताम्॥

मूलम्

इत्युपामन्त्रितो राज्ञा भगवाल्ँ‍लोकभावनः।
उवास कुर्वन् कल्याणं मिथिलानरयोषिताम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! सबके जीवनदाता भगवान् श्रीकृष्ण राजा बहुलाश्वकी यह प्रार्थना स्वीकार करके मिथिलावासी नर-नारियोंका कल्याण करते हुए कुछ दिनोंतक वहीं रहे॥ ३७॥

श्लोक-३८

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रुतदेवोऽच्युतं प्राप्तं स्वगृहाञ्जनको यथा।
नत्वा मुनीन् सुसंहृष्टो धुन्वन् वासो ननर्त ह॥

मूलम्

श्रुतदेवोऽच्युतं प्राप्तं स्वगृहाञ्जनको यथा।
नत्वा मुनीन् सुसंहृष्टो धुन्वन् वासो ननर्त ह॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रिय परीक्षित्! जैसे राजा बहुलाश्व भगवान् श्रीकृष्ण और मुनि-मण्डलीके पधारनेपर आनन्दमग्न हो गये थे, वैसे ही श्रुतदेव ब्राह्मण भी भगवान् श्रीकृष्ण और मुनियोंको अपने घर आया देखकर आनन्दविह्वल हो गये; वे उन्हें नमस्कार करके अपने वस्त्र उछाल-उछालकर नाचने लगे॥ ३८॥

श्लोक-३९

विश्वास-प्रस्तुतिः

तृणपीठबृसीष्वेतानानीतेषूपवेश्य सः।
स्वागतेनाभिनन्द्याङ्घ्रीन् सभार्योऽवनिजे मुदा॥

मूलम्

तृणपीठबृसीष्वेतानानीतेषूपवेश्य सः।
स्वागतेनाभिनन्द्याङ्घ्रीन् सभार्योऽवनिजे मुदा॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रुतदेवने चटाई, पीढ़े और कुशासन बिछाकर उनपर भगवान् श्रीकृष्ण और मुनियोंको बैठाया, स्वागत-भाषण आदिके द्वारा उनका अभिनन्दन किया तथा अपनी पत्नीके साथ बड़े आनन्दसे सबके पाँव पखारे॥ ३९॥

श्लोक-४०

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदम्भसा महाभाग आत्मानं सगृहान्वयम्।
स्नापयाञ्चक्र उद्धर्षो लब्धसर्वमनोरथः॥

मूलम्

तदम्भसा महाभाग आत्मानं सगृहान्वयम्।
स्नापयाञ्चक्र उद्धर्षो लब्धसर्वमनोरथः॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! महान् सौभाग्यशाली श्रुतदेवने भगवान् और ऋषियोंके चरणोदकसे अपने घर और कुटुम्बियोंको सींच दिया। इस समय उनके सारे मनोरथ पूर्ण हो गये थे। वे हर्षातिरेकसे मतवाले हो रहे थे॥ ४०॥

श्लोक-४१

विश्वास-प्रस्तुतिः

फलार्हणोशीरशिवामृताम्बुभि-
र्मृदा सुरभ्या तुलसीकुशाम्बुजैः।
आराधयामास यथोपपन्नया
सपर्यया सत्त्वविवर्धनान्धसा॥

मूलम्

फलार्हणोशीरशिवामृताम्बुभि-
र्मृदा सुरभ्या तुलसीकुशाम्बुजैः।
आराधयामास यथोपपन्नया
सपर्यया सत्त्वविवर्धनान्धसा॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर उन्होंने फल, गन्ध, खससे सुवासित निर्मल एवं मधुर जल, सुगन्धित मिट्टी, तुलसी, कुश, कमल आदि अनायास-प्राप्त पूजा-सामग्री और सत्त्वगुण बढ़ानेवाले अन्नसे सबकी आराधना की॥ ४१॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

सत्त्वविवर्धयाऽन्धसा सात्त्विकविकारवता अन्धः अन्नम् ॥४१-४३॥

श्लोक-४२

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तर्कयामास कुतो ममान्वभूद्
गृहान्धकूपे पतितस्य सङ्गमः।
यः सर्वतीर्थास्पदपादरेणुभिः
कृष्णेन चास्यात्मनिकेतभूसुरैः॥

मूलम्

स तर्कयामास कुतो ममान्वभूद्
गृहान्धकूपे पतितस्य सङ्गमः।
यः सर्वतीर्थास्पदपादरेणुभिः
कृष्णेन चास्यात्मनिकेतभूसुरैः॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय श्रुतदेवजी मन-ही-मन तर्कना करने लगे कि ‘मैं तो घर-गृहस्थीके अँधेरे कूएँमें गिरा हुआ हूँ, अभागा हूँ; मुझे भगवान् श्रीकृष्ण और उनके निवासस्थान ऋषि-मुनियोंका, जिनके चरणोंकी धूल ही समस्त तीर्थोंको तीर्थ बनानेवाली है, समागम कैसे प्राप्त हो गया?’॥ ४२॥

श्लोक-४३

विश्वास-प्रस्तुतिः

सूपविष्टान् कृतातिथ्याञ्छ्रुतदेव उपस्थितः।
सभार्यस्वजनापत्य उवाचाङ्घ्र्यभिमर्शनः॥

मूलम्

सूपविष्टान् कृतातिथ्याञ्छ्रुतदेव उपस्थितः।
सभार्यस्वजनापत्य उवाचाङ्घ्र्यभिमर्शनः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब सब लोग आतिथ्य स्वीकार करके आरामसे बैठ गये, तब श्रुतदेव अपने स्त्री-पुत्र तथा अन्य सम्बन्धियोंके साथ उनकी सेवामें उपस्थित हुए। वे भगवान् श्रीकृष्णके चरणकमलोंका स्पर्श करते हुए कहने लगे॥ ४३॥

श्लोक-४४

मूलम् (वचनम्)

श्रुतदेव उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाद्य नो दर्शनं प्राप्तः परं परमपूरुषः।
यर्हीदं शक्तिभिः सृष्ट्वा प्रविष्टो ह्यात्मसत्तया॥

मूलम्

नाद्य नो दर्शनं प्राप्तः परं परमपूरुषः।
यर्हीदं शक्तिभिः सृष्ट्वा प्रविष्टो ह्यात्मसत्तया॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रुतदेवने कहा—प्रभो! आप व्यक्त-अव्यक्तरूप प्रकृति और जीवोंसे परे पुरुषोत्तम हैं। मुझे आपने आज ही दर्शन दिया हो, ऐसी बात नहीं है। आप तो तभीसे सब लोगोंसे मिले हुए हैं, जबसे आपने अपनी शक्तियोंके द्वारा इस जगत‍्की रचना करके आत्मसत्ताके रूपमें इसमें प्रवेश किया है॥ ४४॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

शक्तिभिः सर्गादिशक्तिभिरुपेतः प्रविष्टः अनुप्रविष्टः आत्मसत्तया सदैकरूपेण ॥ ४४ ॥

श्लोक-४५

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा शयानः पुरुषो मनसैवात्ममायया।
सृष्ट्वा लोकं परं स्वाप्नमनुविश्यावभासते॥

मूलम्

यथा शयानः पुरुषो मनसैवात्ममायया।
सृष्ट्वा लोकं परं स्वाप्नमनुविश्यावभासते॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे सोया हुआ पुरुष स्वप्नावस्थामें अविद्यावश मन-ही-मन स्वप्न-जगत‍्की सृष्टि कर लेता है और उसमें स्वयं उपस्थित होकर अनेक रूपोंमें अनेक कर्म करता हुआ प्रतीत होता है, वैसे ही आपने अपनेमें ही अपनी मायासे जगत‍्की रचना कर ली है और अब इसमें प्रवेश करके अनेकों रूपोंसे प्रकाशित हो रहे हैं॥ ४५॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

यथा शयानः कृतकृत्यो अपः शेते तथा मायासहितश्च भवति अतः शयानः पुरुषः दृष्टान्तः जीवस्य स्वप्नस्रष्टृत्वायोगात् सुषुप्तवत् स्वाप्नम् अनित्यं कार्यजातम् ॥ ४५-४७ ॥

श्लोक-४६

विश्वास-प्रस्तुतिः

शृण्वतां गदतां शश्वदर्चतां त्वाभिवन्दताम्।
नृणां संवदतामन्तर्हृदि भास्यमलात्मनाम्॥

मूलम्

शृण्वतां गदतां शश्वदर्चतां त्वाभिवन्दताम्।
नृणां संवदतामन्तर्हृदि भास्यमलात्मनाम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो लोग सर्वदा आपकी लीलाकथाका श्रवण-कीर्तन तथा आपकी प्रतिमाओंका अर्चन-वन्दन करते हैं और आपसमें आपकी ही चर्चा करते हैं, उनका हृदय शुद्ध हो जाता है और आप उसमें प्रकाशित हो जाते हैं॥ ४६॥

श्लोक-४७

विश्वास-प्रस्तुतिः

हृदिस्थोऽप्यतिदूरस्थः कर्मविक्षिप्तचेतसाम्।
आत्मशक्तिभिरग्राह्योऽप्यन्त्युपेतगुणात्मनाम्॥

मूलम्

हृदिस्थोऽप्यतिदूरस्थः कर्मविक्षिप्तचेतसाम्।
आत्मशक्तिभिरग्राह्योऽप्यन्त्युपेतगुणात्मनाम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिन लोगोंका चित्त लौकिक-वैदिक आदि कर्मोंकी वासनासे बहिर्मुख हो रहा है, उनके हृदयमें रहनेपर भी आप उनसे बहुत दूर हैं। किन्तु जिन लोगोंने आपके गुणगानसे अपने अन्तःकरणको सद‍्गुणसम्पन्न बना लिया है, उनके लिये चित्तवृत्तियोंसे अग्राह्य होनेपर भी आप अत्यन्त निकट हैं॥ ४७॥

श्लोक-४८

विश्वास-प्रस्तुतिः

नमोऽस्तु तेऽध्यात्मविदां परात्मने
अनात्मने स्वात्मविभक्तमृत्यवे।
सकारणाकारणलिङ्गमीयुषे
स्वमाययासंवृतरुद्धदृष्टये॥

मूलम्

नमोऽस्तु तेऽध्यात्मविदां परात्मने
अनात्मने स्वात्मविभक्तमृत्यवे।
सकारणाकारणलिङ्गमीयुषे
स्वमाययासंवृतरुद्धदृष्टये॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभो! जो लोग आत्मतत्त्वको जाननेवाले हैं, उनके आत्माके रूपमें ही आप स्थित हैं और जो शरीर आदिको ही अपना आत्मा मान बैठे हैं, उनके लिये आप अनात्माको प्राप्त होनेवाली मृत्युके रूपमें हैं। आप महत्तत्त्व आदि कार्य द्रव्य और प्रकृतिरूप कारणके नियामक हैं—शासक हैं। आपकी माया आपकी अपनी दृष्टिपर पर्दा नहीं डाल सकती, किन्तु उसने दूसरोंकी दृष्टिको ढक रखा है। आपको मैं नमस्कार करता हूँ॥ ४८॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

अनात्मने व्यापकान्तरशून्याय अस्वात्मविभक्तमृत्यवे स्वस्मिन्निवेशितमतिषु प्राणिषु मृत्युं संसारं स्थापितासि (कारणम् अनुग्रहकारणम् अनुग्रहहेतुकम् अकारणम् अकर्महेतुकम् लिङ्गं शरीरं रुद्धमूर्तये संसारिणामज्ञानसंवृतस्वान्ते अधिगमायेत्यर्थः ॥ ४८-५२ ॥

श्लोक-४९

विश्वास-प्रस्तुतिः

स त्वं शाधि स्वभृत्यान् नः किं देव करवामहे।
एतदन्तो नृणां क्लेशो यद् भवानक्षिगोचरः॥

मूलम्

स त्वं शाधि स्वभृत्यान् नः किं देव करवामहे।
एतदन्तो नृणां क्लेशो यद् भवानक्षिगोचरः॥

अनुवाद (हिन्दी)

स्वयंप्रकाश प्रभो! हम आपके सेवक हैं। हमें आज्ञा दीजिये कि हम आपकी क्या सेवा करें? नेत्रोंके द्वारा आपका दर्शन होनेतक ही जीवोंके क्लेश रहते हैं। आपके दर्शनमें ही समस्त क्लेशोंकी परिसमाप्ति है॥ ४९॥

श्लोक-५०

मूलम् (वचनम्)

श्रीशुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदुक्तमित्युपाकर्ण्य भगवान् प्रणतार्तिहा।
गृहीत्वा पाणिना पाणिं प्रहसंस्तमुवाच ह॥

मूलम्

तदुक्तमित्युपाकर्ण्य भगवान् प्रणतार्तिहा।
गृहीत्वा पाणिना पाणिं प्रहसंस्तमुवाच ह॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! शरणागत-भयहारी भगवान् श्रीकृष्णने श्रुतदेवकी प्रार्थना सुनकर अपने हाथसे उनका हाथ पकड़ लिया और मुसकराते हुए कहा॥ ५०॥

श्लोक-५१

मूलम् (वचनम्)

श्रीभगवानुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रह्मंस्तेऽनुग्रहार्थाय सम्प्राप्तान् विद्ध्यमून् मुनीन्।
सञ्चरन्ति मया लोकान् पुनन्तः पादरेणुभिः॥

मूलम्

ब्रह्मंस्तेऽनुग्रहार्थाय सम्प्राप्तान् विद्ध्यमून् मुनीन्।
सञ्चरन्ति मया लोकान् पुनन्तः पादरेणुभिः॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् श्रीकृष्णने कहा—प्रिय श्रुतदेव! ये बड़े-बड़े ऋषि-मुनि तुमपर अनुग्रह करनेके लिये ही यहाँ पधारे हैं। ये अपने चरणकमलोंकी धूलसे लोगों और लोकोंको पवित्र करते हुए मेरे साथ विचरण कर रहे हैं॥ ५१॥

श्लोक-५२

विश्वास-प्रस्तुतिः

देवाः क्षेत्राणि तीर्थानि दर्शनस्पर्शनार्चनैः।
शनैः पुनन्ति कालेन तदप्यर्हत्तमेक्षया॥

मूलम्

देवाः क्षेत्राणि तीर्थानि दर्शनस्पर्शनार्चनैः।
शनैः पुनन्ति कालेन तदप्यर्हत्तमेक्षया॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवता, पुण्यक्षेत्र और तीर्थ आदि तो दर्शन, स्पर्श, अर्चन आदिके द्वारा धीरे-धीरे बहुत दिनोंमें पवित्र करते हैं; परन्तु संत पुरुष अपनी दृष्टिसे ही सबको पवित्र कर देते हैं। यही नहीं; देवता आदिमें जो पवित्र करनेकी शक्ति है, वह भी उन्हें संतोंकी दृष्टिसे ही प्राप्त होती है॥ ५२॥

श्लोक-५३

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्राह्मणो जन्मना श्रेयान् सर्वेषां प्राणिनामिह।
तपसा विद्यया तुष्ट्या किमु मत्कलया युतः॥

मूलम्

ब्राह्मणो जन्मना श्रेयान् सर्वेषां प्राणिनामिह।
तपसा विद्यया तुष्ट्या किमु मत्कलया युतः॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रुतदेव! जगत‍्में ब्राह्मण जन्मसे ही सब प्राणियोंसे श्रेष्ठ हैं। यदि वह तपस्या, विद्या, सन्तोष और मेरी उपासना—मेरी भक्तिसे युक्त हो तब तो कहना ही क्या है॥ ५३॥

मूलम्

मत्कलया मद्विषयज्ञानेन ॥ ५३-५९ ॥

श्लोक-५४

विश्वास-प्रस्तुतिः

न ब्राह्मणान्मे दयितं रूपमेतच्चतुर्भुजम्।
सर्ववेदमयो विप्रः सर्वदेवमयो ह्यहम्॥

मूलम्

न ब्राह्मणान्मे दयितं रूपमेतच्चतुर्भुजम्।
सर्ववेदमयो विप्रः सर्वदेवमयो ह्यहम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

मुझे अपना यह चतुर्भुजरूप भी ब्राह्मणोंकी अपेक्षा अधिक प्रिय नहीं है। क्योंकि ब्राह्मण सर्ववेदमय है और मैं सर्वदेवमय हूँ॥ ५४॥

श्लोक-५५

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुष्प्रज्ञा अविदित्वैवमवजानन्त्यसूयवः।
गुरुं मां विप्रमात्मानमर्चादाविज्यदृष्टयः॥

मूलम्

दुष्प्रज्ञा अविदित्वैवमवजानन्त्यसूयवः।
गुरुं मां विप्रमात्मानमर्चादाविज्यदृष्टयः॥

अनुवाद (हिन्दी)

दुर्बुद्धि मनुष्य इस बातको न जानकर केवल मूर्ति आदिमें ही पूज्यबुद्धि रखते हैं और गुणोंमें दोष निकालकर मेरे स्वरूप जगद‍्गुरु ब्राह्मणका, जो कि उनका आत्मा ही है, तिरस्कार करते हैं॥ ५५॥

श्लोक-५६

विश्वास-प्रस्तुतिः

चराचरमिदं विश्वं भावा ये चास्य हेतवः।
मद्रूपाणीति चेतस्याधत्ते विप्रो मदीक्षया॥

मूलम्

चराचरमिदं विश्वं भावा ये चास्य हेतवः।
मद्रूपाणीति चेतस्याधत्ते विप्रो मदीक्षया॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्राह्मण मेरा साक्षात्कार करके अपने चित्तमें यह निश्चय कर लेता है कि यह चराचर जगत् , इसके सम्बन्धकी सारी भावनाएँ और इसके कारण प्रकृति-महत्तत्त्वादि सब-के-सब आत्मस्वरूप भगवान‍्के ही रूप हैं॥ ५६॥

श्लोक-५७

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्माद् ब्रह्मऋषीनेतान् ब्रह्मन् मच्छ्रद्धयार्चय।
एवं चेदर्चितोऽस्म्यद्धा नान्यथा भूरिभूतिभिः॥

मूलम्

तस्माद् ब्रह्मऋषीनेतान् ब्रह्मन् मच्छ्रद्धयार्चय।
एवं चेदर्चितोऽस्म्यद्धा नान्यथा भूरिभूतिभिः॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसलिये श्रुतदेव! तुम इन ब्रह्मर्षियोंको मेरा ही स्वरूप समझकर पूरी श्रद्धासे इनकी पूजा करो। यदि तुम ऐसा करोगे, तब तो तुमने साक्षात् अनायास ही मेरा पूजन कर लिया; नहीं तो बड़ी-बड़ी बहुमूल्य सामग्रियोंसे भी मेरी पूजा नहीं हो सकती॥ ५७॥

श्लोक-५८

मूलम् (वचनम्)

श्रीशुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

स इत्थं प्रभुणाऽऽदिष्टः सहकृष्णान् द्विजोत्तमान्।
आराध्यैकात्मभावेन मैथिलश्चाप सद‍्गतिम्॥

मूलम्

स इत्थं प्रभुणाऽऽदिष्टः सहकृष्णान् द्विजोत्तमान्।
आराध्यैकात्मभावेन मैथिलश्चाप सद‍्गतिम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्णका यह आदेश प्राप्त करके श्रुतदेवने भगवान् श्रीकृष्ण और उन ब्रह्मर्षियोंकी एकात्मभावसे आराधना की तथा उनकी कृपासे वे भगवत्स्वरूपको प्राप्त हो गये। राजा बहुलाश्वने भी वही गति प्राप्त की॥ ५८॥

श्लोक-५९

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं स्वभक्तयो राजन् भगवान् भक्तभक्तिमान्।
उषित्वाऽऽदिश्य सन्मार्गं पुनर्द्वारवतीमगात्॥

मूलम्

एवं स्वभक्तयो राजन् भगवान् भक्तभक्तिमान्।
उषित्वाऽऽदिश्य सन्मार्गं पुनर्द्वारवतीमगात्॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रिय परीक्षित्! जैसे भक्त भगवान‍्की भक्ति करते हैं, वैसे ही भगवान् भी भक्तोंकी भक्ति करते हैं। वे अपने दोनों भक्तोंको प्रसन्न करनेके लिये कुछ दिनोंतक मिथिलापुरीमें रहे और उन्हें साधु पुरुषोंके मार्गका उपदेश करके वे द्वारका लौट आये॥ ५९॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

॥ इति श्रीमद्भागवतव्याख्याने दशमस्कन्धे श्रीसुदर्शनसूरिकृतशुकपक्षीये षडशीतितमोऽध्यायः ॥ ८६ ॥

अनुवाद (समाप्ति)

इति श्रीमद‍्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे उत्तरार्धे श्रुतदेवानुग्रहो नाम षडशीतितमोऽध्यायः॥ ८६॥