[चतुरशीतितमोऽध्यायः]
भागसूचना
वसुदेवजीका यज्ञोत्सव
श्लोक-१
मूलम् (वचनम्)
श्रीशुक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रुत्वा पृथा सुबलपुत्र्यथ याज्ञसेनी
माधव्यथ क्षितिपपत्न्य उत स्वगोप्यः।
कृष्णेऽखिलात्मनि हरौ प्रणयानुबन्धं
सर्वा विसिस्म्युरलमश्रुकलाकुलाक्ष्यः॥
मूलम्
श्रुत्वा पृथा सुबलपुत्र्यथ याज्ञसेनी
माधव्यथ क्षितिपपत्न्य उत स्वगोप्यः।
कृष्णेऽखिलात्मनि हरौ प्रणयानुबन्धं
सर्वा विसिस्म्युरलमश्रुकलाकुलाक्ष्यः॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! सर्वात्मा भक्तभयहारी भगवान् श्रीकृष्णके प्रति उनकी पत्नियोंका कितना प्रेम है—यह बात कुन्ती, गान्धारी, द्रौपदी, सुभद्रा, दूसरी राजपत्नियों और भगवान्की प्रियतमा गोपियोंने भी सुनी। सब-की-सब उनका यह अलौकिक प्रेम देखकर अत्यन्त मुग्ध, अत्यन्त विस्मित हो गयीं। सबके नेत्रोंमें प्रेमके आँसू छलक आये॥ १॥
श्लोक-२
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति सम्भाषमाणासु स्त्रीभिः स्त्रीषु नृभिर्नृषु।
आययुर्मुनयस्तत्र कृष्णरामदिदृक्षया॥
मूलम्
इति सम्भाषमाणासु स्त्रीभिः स्त्रीषु नृभिर्नृषु।
आययुर्मुनयस्तत्र कृष्णरामदिदृक्षया॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार जिस समय स्त्रियोंसे स्त्रियाँ और पुरुषोंसे पुरुष बातचीत कर रहे थे, उसी समय बहुत-से ऋषि-मुनि भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजीका दर्शन करनेके लिये वहाँ आये॥ २॥
श्लोक-३
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्वैपायनो नारदश्च च्यवनो देवलोऽसितः।
विश्वामित्रः शतानन्दो भरद्वाजोऽथ गौतमः॥
मूलम्
द्वैपायनो नारदश्च च्यवनो देवलोऽसितः।
विश्वामित्रः शतानन्दो भरद्वाजोऽथ गौतमः॥
श्लोक-४
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामः सशिष्यो भगवान् वसिष्ठो गालवो भृगुः।
पुलस्त्यः कश्यपोऽत्रिश्च मार्कण्डेयो बृहस्पतिः॥
मूलम्
रामः सशिष्यो भगवान् वसिष्ठो गालवो भृगुः।
पुलस्त्यः कश्यपोऽत्रिश्च मार्कण्डेयो बृहस्पतिः॥
श्लोक-५
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्वितस्त्रितश्चैकतश्च ब्रह्मपुत्रास्तथाङ्गिराः।
अगस्त्यो याज्ञवल्क्यश्च वामदेवादयोऽपरे॥
मूलम्
द्वितस्त्रितश्चैकतश्च ब्रह्मपुत्रास्तथाङ्गिराः।
अगस्त्यो याज्ञवल्क्यश्च वामदेवादयोऽपरे॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनमें प्रधान ये थे—श्रीकृष्णद्वैपायन व्यास, देवर्षि नारद, च्यवन, देवल, असित, विश्वामित्र, शतानन्द, भरद्वाज, गौतम, अपने शिष्योंके सहित भगवान् परशुराम, वसिष्ठ, गालव, भृगु, पुलस्त्य, कश्यप, अत्रि, मार्कण्डेय, बृहस्पति, द्वित, त्रित, एकत, सनक, सनन्दन, सनातन, सनत्कुमार, अंगिरा, अगस्त्य, याज्ञवल्क्य और वामदेव इत्यादि॥ ३—५॥
श्लोक-६
विश्वास-प्रस्तुतिः
तान् दृष्ट्वा सहसोत्थाय प्रागासीना नृपादयः।
पाण्डवाः कृष्णरामौ च प्रणेमुर्विश्ववन्दितान्॥
मूलम्
तान् दृष्ट्वा सहसोत्थाय प्रागासीना नृपादयः।
पाण्डवाः कृष्णरामौ च प्रणेमुर्विश्ववन्दितान्॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऋषियोंको देखकर पहलेसे बैठे हुए नरपतिगण, युधिष्ठिर आदि पाण्डव, भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजी सहसा उठकर खड़े हो गये और सबने उन विश्ववन्दित ऋषियोंको प्रणाम किया॥ ६॥
श्लोक-७
विश्वास-प्रस्तुतिः
तानानर्चुर्यथा सर्वे सहरामोऽच्युतोऽर्चयत्।
स्वागतासनपाद्यार्घ्यमाल्यधूपानुलेपनैः॥
मूलम्
तानानर्चुर्यथा सर्वे सहरामोऽच्युतोऽर्चयत्।
स्वागतासनपाद्यार्घ्यमाल्यधूपानुलेपनैः॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसके बाद स्वागत, आसन, पाद्य, अर्घ्य, पुष्पमाला, धूप और चन्दन आदिसे सब राजाओंने तथा बलरामजीके साथ स्वयं भगवान् श्रीकृष्णने उन सब ऋषियोंकी विधिपूर्वक पूजा की॥ ७॥
श्लोक-८
विश्वास-प्रस्तुतिः
उवाच सुखमासीनान् भगवान् धर्मगुप्तनुः।
सदसस्तस्य महतो यतवाचोऽनुशृण्वतः॥
मूलम्
उवाच सुखमासीनान् भगवान् धर्मगुप्तनुः।
सदसस्तस्य महतो यतवाचोऽनुशृण्वतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब सब ऋषि-मुनि आरामसे बैठ गये, तब धर्मरक्षाके लिये अवतीर्ण भगवान् श्रीकृष्णने उनसे कहा। उस समय वह बहुत बड़ी सभा चुपचाप भगवान्का भाषण सुन रही थी॥ ८॥
श्लोक-९
मूलम् (वचनम्)
श्रीभगवानुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहो वयं जन्मभृतो लब्धं कार्त्स्न्येन तत्फलम्।
देवानामपि दुष्प्रापं यद् योगेश्वरदर्शनम्॥
मूलम्
अहो वयं जन्मभृतो लब्धं कार्त्स्न्येन तत्फलम्।
देवानामपि दुष्प्रापं यद् योगेश्वरदर्शनम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् श्रीकृष्णने कहा—धन्य है! हमलोगोंका जीवन सफल हो गया, आज जन्म लेनेका हमें पूरा-पूरा फल मिल गया; क्योंकि जिन योगेश्वरोंका दर्शन बड़े-बड़े देवताओंके लिये भी अत्यन्त दुर्लभ है, उन्हींका दर्शन हमें प्राप्त हुआ है॥ ९॥
श्लोक-१०
विश्वास-प्रस्तुतिः
किं स्वल्पतपसां नॄणामर्चायां देवचक्षुषाम्।
दर्शनस्पर्शनप्रश्नप्रह्वपादार्चनादिकम्॥
मूलम्
किं स्वल्पतपसां नॄणामर्चायां देवचक्षुषाम्।
दर्शनस्पर्शनप्रश्नप्रह्वपादार्चनादिकम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिन्होंने बहुत थोड़ी तपस्या की है और जो लोग अपने इष्टदेवको समस्त प्राणियोंके हृदयमें न देखकर केवल मूर्तिविशेषमें ही उनका दर्शन करते हैं, उन्हें आपलोगोंके दर्शन, स्पर्श, कुशल-प्रश्न, प्रणाम और पादपूजन आदिका सुअवसर भला कब मिल सकता है?॥ १०॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
अर्चायां देवचक्षुषां प्रतिमामेव देवतां मन्वानानां किं न किञ्चित् प्रतिमादर्शनादिकं नोद्देश्यमित्यर्थः ॥१०-११ ॥
श्लोक-११
विश्वास-प्रस्तुतिः
न ह्यम्मयानि तीर्थानि न देवा मृच्छिलामयाः।
ते पुनन्त्युरुकालेन दर्शनादेव साधवः॥
मूलम्
न ह्यम्मयानि तीर्थानि न देवा मृच्छिलामयाः।
ते पुनन्त्युरुकालेन दर्शनादेव साधवः॥
अनुवाद (हिन्दी)
केवल जलमय तीर्थ ही तीर्थ नहीं कहलाते और केवल मिट्टी या पत्थरकी प्रतिमाएँ ही देवता नहीं होतीं; संत पुरुष ही वास्तवमें तीर्थ और देवता हैं; क्योंकि उनका बहुत समयतक सेवन किया जाय, तब वे पवित्र करते हैं; परंतु संत पुरुष तो दर्शनमात्रसे ही कृतार्थ कर देते हैं॥ ११॥
श्लोक-१२
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाग्निर्न सूर्यो न च चन्द्रतारका
न भूर्जलं खं श्वसनोऽथ वाङ्मनः।
उपासिता भेदकृतो हरन्त्यघं
विपश्चितो घ्नन्ति मुहूर्तसेवया॥
मूलम्
नाग्निर्न सूर्यो न च चन्द्रतारका
न भूर्जलं खं श्वसनोऽथ वाङ्मनः।
उपासिता भेदकृतो हरन्त्यघं
विपश्चितो घ्नन्ति मुहूर्तसेवया॥
अनुवाद (हिन्दी)
अग्नि, सूर्य, चन्द्रमा, तारे, पृथ्वी, जल, आकाश, वायु , वाणी और मनके अधिष्ठातृ-देवता उपासना करनेपर भी पापका पूरा-पूरा नाश नहीं कर सकते; क्योंकि उनकी उपासनासे भेद-बुद्धिका नाश नहीं होता, वह और भी बढ़ती है। परन्तु यदि घड़ी-दो-घड़ी भी ज्ञानी महापुरुषोंकी सेवा की जाय तो वे सारे पाप-ताप मिटा देते हैं; क्योंकि वे भेद-बुद्धिके विनाशक हैं॥ १२॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
उपासितास्तत्कालसेविताः भूजलादिशब्दाः देवतापराः भेदकृतः आत्मनि देहिनि देहगत भेदं कुर्वाणस्य मन्यमानस्य मुहूर्तसेवया विपश्चितस्तु हरन्तीत्यर्थः ॥ १२ ॥
श्लोक-१३
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्यात्मबुद्धिः कुणपे त्रिधातुके
स्वधीः कलत्रादिषु भौम इज्यधीः।
यत्तीर्थबुद्धिः सलिले न कर्हिचि-
ज्जनेष्वभिज्ञेषु स एव गोखरः॥
मूलम्
यस्यात्मबुद्धिः कुणपे त्रिधातुके
स्वधीः कलत्रादिषु भौम इज्यधीः।
यत्तीर्थबुद्धिः सलिले न कर्हिचि-
ज्जनेष्वभिज्ञेषु स एव गोखरः॥
अनुवाद (हिन्दी)
महात्माओ और सभासदो! जो मनुष्य वात, पित्त और कफ—इन तीन धातुओंसे बने हुए शवतुल्य शरीरको ही आत्मा—अपना ‘मैं’, स्त्री-पुत्र आदिको ही अपना और मिट्टी, पत्थर, काष्ठ आदि पार्थिव विकारोंको ही इष्टदेव मानता है तथा जो केवल जलको ही तीर्थ समझता है—ज्ञानी महापुरुषोंको नहीं, वह मनुष्य होनेपर भी पशुओंमें भी नीच गधा ही है॥ १३॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
कुणपे शरीरे त्रिधातुके वातपित्तश्लेष्ममये स्वधीः मदीयत्वबुद्धिः पार्थिवप्रतिमादाविज्यबुद्धिः गोखरः गोखरप्राय अत्त अभिज्ञेषु जनेषु सत्स्वपि ताननादृत्य देवतादिषु पूज्यबुद्धिं कुर्वन इत्यर्थः । एते श्लोकाः साधुजनप्रशंसापराः ॥ १३-१५ ॥
श्लोक-१४
मूलम् (वचनम्)
श्रीशुक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
निशम्येत्थं भगवतः कृष्णस्याकुण्ठमेधसः।
वचो दुरन्वयं विप्रास्तूष्णीमासन् भ्रमद्धियः॥
मूलम्
निशम्येत्थं भगवतः कृष्णस्याकुण्ठमेधसः।
वचो दुरन्वयं विप्रास्तूष्णीमासन् भ्रमद्धियः॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्ण अखण्ड ज्ञानसम्पन्न हैं। उनका यह गूढ भाषण सुनकर सब-के-सब ऋषि-मुनि चुप रह गये। उनकी बुद्धि चक्करमें पड़ गयी, वे समझ न सके कि भगवान् यह क्या कह रहे हैं॥ १४॥
श्लोक-१५
विश्वास-प्रस्तुतिः
चिरं विमृश्य मुनय ईश्वरस्येशितव्यताम्।
जनसङ्ग्रह इत्यूचुः स्मयन्तस्तं जगद्गुरुम्॥
मूलम्
चिरं विमृश्य मुनय ईश्वरस्येशितव्यताम्।
जनसङ्ग्रह इत्यूचुः स्मयन्तस्तं जगद्गुरुम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्होंने बहुत देरतक विचार करनेके बाद यह निश्चय किया कि भगवान् सर्वेश्वर होनेपर भी जो इस प्रकार सामान्य, कर्म-परतन्त्र जीवकी भाँति व्यवहार कर रहे हैं—यह केवल लोकसंग्रहके लिये ही है। ऐसा समझकर वे मुसकराते हुए जगद्गुरु भगवान् श्रीकृष्णसे कहने लगे॥ १५॥
श्लोक-१६
मूलम् (वचनम्)
मुनय ऊचुः
विश्वास-प्रस्तुतिः
यन्मायया तत्त्वविदुत्तमा वयं
विमोहिता विश्वसृजामधीश्वराः।
यदीशितव्यायति गूढ ईहया
अहो विचित्रं भगवद्विचेष्टितम्॥
मूलम्
यन्मायया तत्त्वविदुत्तमा वयं
विमोहिता विश्वसृजामधीश्वराः।
यदीशितव्यायति गूढ ईहया
अहो विचित्रं भगवद्विचेष्टितम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
मुनियोंने कहा—भगवन्! आपकी मायासे प्रजापतियोंके अधीश्वर मरीचि आदि तथा बड़े-बड़े तत्त्वज्ञानी हमलोग मोहित हो रहे हैं। आप स्वयं ईश्वर होते हुए भी मनुष्यकी-सी चेष्टाओंसे अपनेको छिपाये रखकर जीवकी भाँति आचरण करते हैं। भगवन्! सचमुच आपकी लीला अत्यन्त विचित्र है। परम आश्चर्यमयी है॥ १६॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
यदीशितव्यः यस्येशितव्यः सः ईश्वरः ईहया गूढः मनुष्यचेष्टया हेत्वभिप्रायो निर्देशः तस्माद्भगवद्विचेष्टितं चित्रमित्यर्थः १६॥
श्लोक-१७
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनीह एतद् बहुधैक आत्मना
सृजत्यवत्यत्ति न बध्यते यथा।
भौमैर्हि भूमिर्बहुनामरूपिणी
अहो विभूम्नश्चरितं विडम्बनम्॥
मूलम्
अनीह एतद् बहुधैक आत्मना
सृजत्यवत्यत्ति न बध्यते यथा।
भौमैर्हि भूमिर्बहुनामरूपिणी
अहो विभूम्नश्चरितं विडम्बनम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे पृथ्वी अपने विकारों—वृक्ष, पत्थर, घट आदिके द्वारा बहुत-से नाम और रूप ग्रहण कर लेती है, वास्तवमें वह एक ही है, वैसे ही आप एक और चेष्टाहीन होनेपर भी अनेक रूप धारण कर लेते हैं और अपने-आपसे ही इस जगत्की रचना, रक्षा और संहार करते हैं। पर यह सब करते हुए भी इन कर्मोंसे लिप्त नहीं होते। जो सजातीय, विजातीय और स्वगत भेदशून्य एकरस अनन्त है, उसका यह चरित्र लीलामात्र नहीं तो और क्या है? धन्य है आपकी यह लीला!॥ १७॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
सृजतीति निमित्तत्वमुक्तम् । भौमैरित्युपादानत्वमुक्तम् । भूम्नः भगवतः विडम्बनं मनुष्यचेष्टानुकारः ॥ १७ - १८॥
श्लोक-१८
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथापि काले स्वजनाभिगुप्तये
बिभर्षि सत्त्वं खलनिग्रहाय च।
स्वलीलया वेदपथं सनातनं
वर्णाश्रमात्मा पुरुषः परो भवान्॥
मूलम्
अथापि काले स्वजनाभिगुप्तये
बिभर्षि सत्त्वं खलनिग्रहाय च।
स्वलीलया वेदपथं सनातनं
वर्णाश्रमात्मा पुरुषः परो भवान्॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवन्! यद्यपि आप प्रकृतिसे परे, स्वयं परब्रह्म परमात्मा हैं; तथापि समय-समयपर भक्तजनोंकी रक्षा और दुष्टोंका दमन करनेके लिये विशुद्ध सत्त्वमय श्रीविग्रह प्रकट करते हैं और अपनी लीलाके द्वारा सनातन वैदिक मार्गकी रक्षा करते हैं; क्योंकि सभी वर्णों और आश्रमोंके रूपमें आप स्वयं ही प्रकट हैं॥ १८॥
श्लोक-१९
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रह्म ते हृदयं शुक्लं तपःस्वाध्यायसंयमैः।
यत्रोपलब्धं सद् व्यक्तमव्यक्तं च ततः परम्॥
मूलम्
ब्रह्म ते हृदयं शुक्लं तपःस्वाध्यायसंयमैः।
यत्रोपलब्धं सद् व्यक्तमव्यक्तं च ततः परम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवन्! वेद आपका विशुद्ध हृदय है; तपस्या, स्वाध्याय, धारणा, ध्यान और समाधिके द्वारा उसीमें आपके साकार-निराकाररूप और दोनोंके अधिष्ठान-स्वरूप परब्रह्म परमात्माका साक्षात्कार होता है॥ १९॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
ब्रह्म ब्रह्मणकुलं यस्य सः व्यक्तं कार्यम् । अव्यक्तं कारणं यद्वा व्यक्तं शरीरम् अव्यक्तमात्मस्वरूपम् ॥ १९ ॥
श्लोक-२०
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्माद् ब्रह्मकुलं ब्रह्मन् शास्त्रयोनेस्त्वमात्मनः।
सभाजयसि सद्धाम तद् ब्रह्मण्याग्रणीर्भवान्॥
मूलम्
तस्माद् ब्रह्मकुलं ब्रह्मन् शास्त्रयोनेस्त्वमात्मनः।
सभाजयसि सद्धाम तद् ब्रह्मण्याग्रणीर्भवान्॥
अनुवाद (हिन्दी)
परमात्मन्! ब्राह्मण ही वेदोंके आधारभूत आपके स्वरूपकी उपलब्धिके स्थान हैं; इसीसे आप ब्राह्मणोंका सम्मान करते हैं और इसीसे आप ब्राह्मणभक्तोंमें अग्रगण्य भी हैं॥ २०॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
ब्रह्मकुलं ब्राह्मणकुलं शास्त्रप्रमाणकस्य तव शेषभूतं तस्माद्वेदधारकं ब्रह्मकुलं सभाजयसीत्यर्थः । विद्यायाः सत्यादित्यन्वयः ॥ २० ॥
श्लोक-२१
विश्वास-प्रस्तुतिः
अद्य नो जन्मसाफल्यं विद्यायास्तपसो दृशः।
त्वया सङ्गम्य सद्गत्या यदन्तः श्रेयसां परः॥
मूलम्
अद्य नो जन्मसाफल्यं विद्यायास्तपसो दृशः।
त्वया सङ्गम्य सद्गत्या यदन्तः श्रेयसां परः॥
अनुवाद (हिन्दी)
आप सर्वविध कल्याण-साधनोंकी चरमसीमा हैं और संत पुरुषोंकी एकमात्र गति हैं। आपसे मिलकर आज हमारे जन्म, विद्या, तप और ज्ञान सफल हो गये। वास्तवमें सबके परम फल आप ही हैं॥ २१॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
श्रेयसां परः पुरुषार्थः प्रकृष्टः अतस्त्वया सङ्गम्य अद्य नो जन्मसाफल्यम् ॥२१-२३॥
श्लोक-२२
विश्वास-प्रस्तुतिः
नमस्तस्मै भगवते कृष्णायाकुण्ठमेधसे।
स्वयोगमाययाच्छन्नमहिम्ने परमात्मने॥
मूलम्
नमस्तस्मै भगवते कृष्णायाकुण्ठमेधसे।
स्वयोगमाययाच्छन्नमहिम्ने परमात्मने॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रभो! आपका ज्ञान अनन्त है, आप स्वयं सच्चिदानन्दस्वरूप परब्रह्म परमात्मा भगवान् हैं। आपने अपनी अचिन्त्य शक्ति योगमायाके द्वारा अपनी महिमा छिपा रखी है, हम आपको नमस्कार करते हैं॥ २२॥
श्लोक-२३
विश्वास-प्रस्तुतिः
न यं विदन्त्यमी भूपा एकारामाश्च वृष्णयः।
मायाजवनिकाच्छन्नमात्मानं कालमीश्वरम्॥
मूलम्
न यं विदन्त्यमी भूपा एकारामाश्च वृष्णयः।
मायाजवनिकाच्छन्नमात्मानं कालमीश्वरम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
ये सभामें बैठे हुए राजालोग और दूसरोंकी तो बात ही क्या, स्वयं आपके साथ आहार-विहार करनेवाले यदुवंशी लोग भी आपको वास्तवमें नहीं जानते; क्योंकि आपने अपने स्वरूपको—जो सबका आत्मा, जगत्का आदिकारण और नियन्ता है—मायाके परदेसे ढक रखा है॥ २३॥
श्लोक-२४
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा शयानः पुरुष आत्मानं गुणतत्त्वदृक्।
नाममात्रेन्द्रियाभातं न वेद रहितं परम्॥
मूलम्
यथा शयानः पुरुष आत्मानं गुणतत्त्वदृक्।
नाममात्रेन्द्रियाभातं न वेद रहितं परम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब मनुष्य स्वप्न देखने लगता है, उस समय स्वप्नके मिथ्या पदार्थोंको ही सत्य समझ लेता है और नाममात्रकी इन्द्रियोंसे प्रतीत होनेवाले अपने स्वप्न शरीरको ही वास्तविक शरीर मान बैठता है। उसे उतनी देरके लिये इस बातका बिलकुल ही पता नहीं रहता कि स्वप्नशरीरके अतिरिक्त एक जाग्रत्-अवस्थाका शरीर भी है॥ २४॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
यथा शयान स्वने देहेन्द्रियादियुक्तमात्मानं पश्यति न देहात्परम् ॥ २४ ॥
श्लोक-२५
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं त्वा नाममात्रेषु विषयेष्विन्द्रियेहया।
मायया विभ्रमच्चित्तो न वेद स्मृत्युपप्लवात्॥
मूलम्
एवं त्वा नाममात्रेषु विषयेष्विन्द्रियेहया।
मायया विभ्रमच्चित्तो न वेद स्मृत्युपप्लवात्॥
अनुवाद (हिन्दी)
ठीक इसी प्रकार, जाग्रत्-अवस्थामें भी इन्द्रियोंकी प्रवृत्तिरूप मायासे चित्त मोहित होकर नाममात्रके विषयोंमें भटकने लगता है। उस समय भी चित्तके चक्करसे विवेकशक्ति ढक जाती है और जीव यह नहीं जान पाता कि आप इस जाग्रत् संसारसे परे हैं॥ २५॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
एवं जाग्रत्पुरुषोऽपि न देहातिरिक्तं पश्यति अतः सुप्तप्रायपुरुषः गात्मानं न वेद । आत्मनः परं परमात्मानं च न वेदेति कैमुत्यसिद्धमित्यर्थः । स्मृत्युपप्लवात् ‘ध्रुवा स्मृति:’ इति प्रसिद्धीपासनान्वयाभावात् ॥२३-२८॥
श्लोक-२६
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्याद्य ते ददृशिमाङ्घ्रिमघौघमर्ष-
तीर्थास्पदं हृदि कृतं सुविपक्वयोगैः।
उत्सिक्तभक्त्युपहताशयजीवकोशा
आपुर्भवद्गतिमथोऽनुगृहाण भक्तान्॥
मूलम्
तस्याद्य ते ददृशिमाङ्घ्रिमघौघमर्ष-
तीर्थास्पदं हृदि कृतं सुविपक्वयोगैः।
उत्सिक्तभक्त्युपहताशयजीवकोशा
आपुर्भवद्गतिमथोऽनुगृहाण भक्तान्॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रभो! बड़े-बड़े ऋषि-मुनि अत्यन्त परिपक्व योग-साधनाके द्वारा आपके उन चरणकमलोंको हृदयमें धारण करते हैं, जो समस्त पापराशिको नष्ट करनेवाले गंगाजलके भी आश्रय-स्थान हैं। यह बड़े सौभाग्यकी बात है कि आज हमें उन्हींका दर्शन हुआ है। प्रभो! हम आपके भक्त हैं, आप हमपर अनुग्रह कीजिये; क्योंकि आपके परम पदकी प्राप्ति उन्हीं लोगोंको होती है, जिनका लिंगशरीररूप जीवकोश आपकी उत्कृष्ट भक्तिके द्वारा नष्ट हो जाता है॥ २६॥
श्लोक-२७
मूलम् (वचनम्)
श्रीशुक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्यनुज्ञाप्य दाशार्हं धृतराष्ट्रं युधिष्ठिरम्।
राजर्षे स्वाश्रमान् गन्तुं मुनयो दधिरे मनः॥
मूलम्
इत्यनुज्ञाप्य दाशार्हं धृतराष्ट्रं युधिष्ठिरम्।
राजर्षे स्वाश्रमान् गन्तुं मुनयो दधिरे मनः॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—राजर्षे! भगवान्की इस प्रकार स्तुति करके और उनसे, राजा धृतराष्ट्रसे तथा धर्मराज युधिष्ठिरजीसे अनुमति लेकर उन लोगोंने अपने-अपने आश्रमपर जानेका विचार किया॥ २७॥
श्लोक-२८
विश्वास-प्रस्तुतिः
तद् वीक्ष्य तानुपव्रज्य वसुदेवो महायशाः।
प्रणम्य चोपसंगृह्य बभाषेदं सुयन्त्रितः॥
मूलम्
तद् वीक्ष्य तानुपव्रज्य वसुदेवो महायशाः।
प्रणम्य चोपसंगृह्य बभाषेदं सुयन्त्रितः॥
अनुवाद (हिन्दी)
परम यशस्वी वसुदेवजी उनका जानेका विचार देखकर उनके पास आये और उन्हें प्रणाम किया और उनके चरण पकड़कर बड़ी नम्रतासे निवेदन करने लगे॥ २८॥
श्लोक-२९
मूलम् (वचनम्)
वसुदेव उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
नमो वः सर्वदेवेभ्य ऋषयः श्रोतुमर्हथ।
कर्मणा कर्मनिर्हारो यथा स्यान्नस्तदुच्यताम्॥
मूलम्
नमो वः सर्वदेवेभ्य ऋषयः श्रोतुमर्हथ।
कर्मणा कर्मनिर्हारो यथा स्यान्नस्तदुच्यताम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
वसुदेवजीने कहा—ऋषियो! आपलोग सर्वदेवस्वरूप हैं। मैं आपलोगोंको नमस्कार करता हूँ। आपलोग कृपा करके मेरी एक प्रार्थना सुन लीजिये। वह यह कि जिन कर्मोंके अनुष्ठानसे कर्मों और कर्मवासनाओंका आत्यन्तिक नाश—मोक्ष हो जाय, उनका आप मुझे उपदेश कीजिये॥ २९॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
कर्मनिर्हारः कर्मबन्धक्षापणम् ॥२९-३१॥
श्लोक-३०
मूलम् (वचनम्)
नारद उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
नातिचित्रमिदं विप्रा वसुदेवो बुभुत्सया।
कृष्णं मत्वार्भकं यन्नः पृच्छति श्रेय आत्मनः॥
मूलम्
नातिचित्रमिदं विप्रा वसुदेवो बुभुत्सया।
कृष्णं मत्वार्भकं यन्नः पृच्छति श्रेय आत्मनः॥
अनुवाद (हिन्दी)
नारदजीने कहा—ऋषियो! यह कोई आश्चर्यकी बात नहीं है कि वसुदेवजी श्रीकृष्णको अपना बालक समझकर शुद्ध जिज्ञासाके भावसे अपने कल्याणका साधन हमलोगोंसे पूछ रहे हैं॥ ३०॥
श्लोक-३१
विश्वास-प्रस्तुतिः
सन्निकर्षो हि मर्त्यानामनादरणकारणम्।
गाङ्गं हित्वा यथान्याम्भस्तत्रत्यो याति शुद्धये॥
मूलम्
सन्निकर्षो हि मर्त्यानामनादरणकारणम्।
गाङ्गं हित्वा यथान्याम्भस्तत्रत्यो याति शुद्धये॥
अनुवाद (हिन्दी)
संसारमें बहुत पास रहना मनुष्योंके अनादरका कारण हुआ करता है। देखते हैं, गंगातटपर रहनेवाला पुरुष गंगाजल छोड़कर अपनी शुद्धिके लिये दूसरे तीर्थमें जाता है॥ ३१॥
श्लोक-३२
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्यानुभूतिः कालेन लयोत्पत्त्यादिनास्य वै।
स्वतोऽन्यस्माच्च गुणतो न कुतश्चन रिष्यति॥
मूलम्
यस्यानुभूतिः कालेन लयोत्पत्त्यादिनास्य वै।
स्वतोऽन्यस्माच्च गुणतो न कुतश्चन रिष्यति॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीकृष्णकी अनुभूति समयके फेरसे होनेवाली जगत्की सृष्टि, स्थिति और प्रलयसे मिटनेवाली नहीं है। वह स्वतः किसी दूसरे निमित्तसे, गुणोंसे और किसीसे भी क्षीण नहीं होती॥ ३२॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
यस्यानुभूतिरिति । कालेन जन्मस्थितिप्रलयात्मकेन गुणत्रयावस्था अन्येषां ज्ञानलोपाहेतवः तैरसङ्कुचितज्ञान इत्यर्थः ।
श्लोक-३३
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं क्लेशकर्मपरिपाकगुणप्रवाहै-
रव्याहतानुभवमीश्वरमद्वितीयम्।
प्राणादिभिः स्वविभवैरुपगूढमन्यो
मन्येत सूर्यमिव मेघहिमोपरागैः॥
मूलम्
तं क्लेशकर्मपरिपाकगुणप्रवाहै-
रव्याहतानुभवमीश्वरमद्वितीयम्।
प्राणादिभिः स्वविभवैरुपगूढमन्यो
मन्येत सूर्यमिव मेघहिमोपरागैः॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनका ज्ञानमय स्वरूप अविद्या, राग-द्वेष आदि क्लेश, पुण्य-पापमय कर्म, सुख-दुःखादि कर्मफल तथा सत्त्व आदि गुणोंके प्रवाहसे खण्डित नहीं है। वे स्वयं अद्वितीय परमात्मा हैं। जब वे अपनेको अपनी ही शक्तियों—प्राण आदिसे ढक लेते हैं, तब मूर्खलोग ऐसा समझते हैं कि वे ढक गये; जैसे बादल, कुहरा या ग्रहणके द्वारा अपने नेत्रोंके ढक जानेपर सूर्यको ढका हुआ मान लेते हैं॥ ३३॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
अन्यैरलक्ष्यत्वे दृष्टान्तमाह-सूर्यमिवेति ॥३३-३७॥
श्लोक-३४
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथोचुर्मुनयो राजन्नाभाष्यानकदुन्दुभिम्।
सर्वेषां शृण्वतां राज्ञां तथैवाच्युतरामयोः॥
मूलम्
अथोचुर्मुनयो राजन्नाभाष्यानकदुन्दुभिम्।
सर्वेषां शृण्वतां राज्ञां तथैवाच्युतरामयोः॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! इसके बाद ऋषियोंने भगवान् श्रीकृष्ण, बलरामजी और अन्यान्य राजाओंके सामने ही वसुदेवजीको सम्बोधित करके कहा—॥ ३४॥
श्लोक-३५
विश्वास-प्रस्तुतिः
कर्मणा कर्मनिर्हार एष साधु निरूपितः।
यच्छ्रद्धया यजेद् विष्णुं सर्वयज्ञेश्वरं मखैः॥
मूलम्
कर्मणा कर्मनिर्हार एष साधु निरूपितः।
यच्छ्रद्धया यजेद् विष्णुं सर्वयज्ञेश्वरं मखैः॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘कर्मोंके द्वारा कर्मवासनाओं और कर्मफलोंका आत्यन्तिक नाश करनेका सबसे अच्छा उपाय यह है कि यज्ञ आदिके द्वारा समस्त यज्ञोंके अधिपति भगवान् विष्णुकी श्रद्धापूर्वक आराधना करे॥ ३५॥
श्लोक-३६
विश्वास-प्रस्तुतिः
चित्तस्योपशमोऽयं वै कविभिः शास्त्रचक्षुषा।
दर्शितः सुगमो योगो धर्मश्चात्ममुदावहः॥
मूलम्
चित्तस्योपशमोऽयं वै कविभिः शास्त्रचक्षुषा।
दर्शितः सुगमो योगो धर्मश्चात्ममुदावहः॥
अनुवाद (हिन्दी)
त्रिकालदर्शी ज्ञानियोंने शास्त्रदृष्टिसे यही चित्तकी शान्तिका उपाय, सुगम मोक्षसाधन और चित्तमें आनन्दका उल्लास करनेवाला धर्म बतलाया है॥ ३६॥
श्लोक-३७
विश्वास-प्रस्तुतिः
अयं स्वस्त्ययनः पन्था द्विजातेर्गृहमेधिनः।
यच्छ्रद्धयाऽऽप्तवित्तेन शुक्लेनेज्येत पूरुषः॥
मूलम्
अयं स्वस्त्ययनः पन्था द्विजातेर्गृहमेधिनः।
यच्छ्रद्धयाऽऽप्तवित्तेन शुक्लेनेज्येत पूरुषः॥
अनुवाद (हिन्दी)
अपने न्यायार्जित धनसे श्रद्धापूर्वक पुरुषोत्तमभगवान्की आराधना करना ही द्विजाति—ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य गृहस्थके लिये परम कल्याणका मार्ग है॥ ३७॥
श्लोक-३८
विश्वास-प्रस्तुतिः
वित्तैषणां यज्ञदानैर्गृहैर्दारसुतैषणाम्।
आत्मलोकैषणां देव कालेन विसृजेद् बुधः।
ग्रामे त्यक्तैषणाः सर्वे ययुर्धीरास्तपोवनम्॥
मूलम्
वित्तैषणां यज्ञदानैर्गृहैर्दारसुतैषणाम्।
आत्मलोकैषणां देव कालेन विसृजेद् बुधः।
ग्रामे त्यक्तैषणाः सर्वे ययुर्धीरास्तपोवनम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
वसुदेवजी! विचारवान् पुरुषको चाहिये कि यज्ञ, दान आदिके द्वारा धनकी इच्छाको, गृहस्थोचित भोगोंद्वारा स्त्री-पुत्रकी इच्छाको और कालक्रमसे स्वर्गादि भोग भी नष्ट हो जाते हैं—इस विचारसे लोकैषणाको त्याग दे। इस प्रकार धीर पुरुष घरमें रहते हुए ही तीनों प्रकारकी एषणाओं—इच्छाओंका परित्याग करके तपोवनका रास्ता लिया करते थे॥ ३८॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
वित्तैषणामिति । अर्थैषणानिमित्तं तद्रक्षणानिमित्तं दुःखम् अर्थस्य सम्यग्व्ययेन परिहरेदित्यर्थः । गृहैः गार्हस्थ्यवासेन दरपुत्रलाभे सति एतावतालमिति बुद्धिः स्यादित्यर्थः । कालेन कालपरिच्छिन्नत्वादनित्यत्वबुद्ध्या लोकैषणां जयेदित्यर्थः ॥ ३८-३९ ॥
श्लोक-३९
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऋणैस्त्रिभिर्द्विजो जातो देवर्षिपितृ़णां प्रभो।
यज्ञाध्ययनपुत्रैस्तान्यनिस्तीर्य त्यजन् पतेत्॥
मूलम्
ऋणैस्त्रिभिर्द्विजो जातो देवर्षिपितृ़णां प्रभो।
यज्ञाध्ययनपुत्रैस्तान्यनिस्तीर्य त्यजन् पतेत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
समर्थ वसुदेवजी! ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य—ये तीनों देवता, ऋषि और पितरोंका ऋण लेकर ही पैदा होते हैं। इनके ऋणोंसे छुटकारा मिलता है यज्ञ, अध्ययन और सन्तानोत्पत्तिसे। इनसे उऋण हुए बिना ही जो संसारका त्याग करता है, उसका पतन हो जाता है॥ ३९॥
श्लोक-४०
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वं त्वद्य मुक्तो द्वाभ्यां वै ऋषिपित्रोर्महामते।
यर्ज्ञैर्देवर्णमुन्मुच्य निर्ऋणोऽशरणो भव॥
मूलम्
त्वं त्वद्य मुक्तो द्वाभ्यां वै ऋषिपित्रोर्महामते।
यर्ज्ञैर्देवर्णमुन्मुच्य निर्ऋणोऽशरणो भव॥
अनुवाद (हिन्दी)
परम बुद्धिमान् वसुदेवजी! आप अबतक ऋषि और पितरोंके ऋणसे तो मुक्त हो चुके हैं। अब यज्ञोंके द्वारा देवताओंका ऋण चुका दीजिये; और इस प्रकार सबसे उऋण होकर गृहत्याग कीजिये, भगवान्की शरण हो जाइये॥ ४०॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
अशरणः गृहसङ्गरहितः ॥४०-५० ॥
श्लोक-४१
विश्वास-प्रस्तुतिः
वसुदेव भवान् नूनं भक्त्या परमया हरिम्।
जगतामीश्वरं प्रार्चः स यद् वां पुत्रतां गतः॥
मूलम्
वसुदेव भवान् नूनं भक्त्या परमया हरिम्।
जगतामीश्वरं प्रार्चः स यद् वां पुत्रतां गतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
वसुदेवजी! आपने अवश्य ही परम भक्तिसे जगदीश्वर भगवान्की आराधना की है; तभी तो वे आप दोनोंके पुत्र हुए हैं॥ ४१॥
श्लोक-४२
मूलम् (वचनम्)
श्रीशुक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति तद्वचनं श्रुत्वा वसुदेवो महामनाः।
तानृषीनृत्विजो वव्रे मूर्ध्नाऽऽनम्य प्रसाद्य च॥
मूलम्
इति तद्वचनं श्रुत्वा वसुदेवो महामनाः।
तानृषीनृत्विजो वव्रे मूर्ध्नाऽऽनम्य प्रसाद्य च॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! परम मनस्वी वसुदेवजीने ऋषियोंकी यह बात सुनकर, उनके चरणोंमें सिर रखकर प्रणाम किया, उन्हें प्रसन्न किया और यज्ञके लिये ऋत्विजोंके रूपमें उनका वरण कर लिया॥ ४२॥
श्लोक-४३
विश्वास-प्रस्तुतिः
त एनमृषयो राजन् वृता धर्मेण धार्मिकम्।
तस्मिन्नयाजयन् क्षेत्रे मखैरुत्तमकल्पकैः॥
मूलम्
त एनमृषयो राजन् वृता धर्मेण धार्मिकम्।
तस्मिन्नयाजयन् क्षेत्रे मखैरुत्तमकल्पकैः॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! जब इस प्रकार वसुदेवजीने धर्मपूर्वक ऋषियोंको वरण कर लिया, तब उन्होंने पुण्यक्षेत्र कुरुक्षेत्रमें परम धार्मिक वसुदेवजीके द्वारा उत्तमोत्तम सामग्रीसे युक्त यज्ञ करवाये॥ ४३॥
श्लोक-४४
विश्वास-प्रस्तुतिः
तद्दीक्षायां प्रवृत्तायां वृष्णयः पुष्करस्रजः।
स्नाताः सुवाससो राजन् राजानः सुष्ठ्वलङ्कृताः॥
मूलम्
तद्दीक्षायां प्रवृत्तायां वृष्णयः पुष्करस्रजः।
स्नाताः सुवाससो राजन् राजानः सुष्ठ्वलङ्कृताः॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! जब वसुदेवजीने यज्ञकी दीक्षा ले ली, तब यदुवंशियोंने स्नान करके सुन्दर वस्त्र और कमलोंकी मालाएँ धारण कर लीं, राजालोग वस्त्राभूषणोंसे खूब सुसज्जित हो गये॥ ४४॥
श्लोक-४५
विश्वास-प्रस्तुतिः
तन्महिष्यश्च मुदिता निष्ककण्ठ्यः सुवाससः।
दीक्षाशालामुपाजग्मुरालिप्ता वस्तुपाणयः॥
मूलम्
तन्महिष्यश्च मुदिता निष्ककण्ठ्यः सुवाससः।
दीक्षाशालामुपाजग्मुरालिप्ता वस्तुपाणयः॥
अनुवाद (हिन्दी)
वसुदेवजीकी पत्नियोंने सुन्दर वस्त्र, अंगराग और सोनेके हारोंसे अपनेको सजा लिया और फिर वे सब बड़े आनन्दसे अपने-अपने हाथोंमें मांगलिक सामग्री लेकर यज्ञशालामें आयीं॥ ४५॥
श्लोक-४६
विश्वास-प्रस्तुतिः
नेदुर्मृदङ्गपटहशङ्खभेर्यानकादयः।
ननृतुर्नटनर्तक्यस्तुष्टुवुः सूतमागधाः।
जगुः सुकण्ठ्यो गन्धर्व्यः सङ्गीतं सहभर्तृकाः॥
मूलम्
नेदुर्मृदङ्गपटहशङ्खभेर्यानकादयः।
ननृतुर्नटनर्तक्यस्तुष्टुवुः सूतमागधाः।
जगुः सुकण्ठ्यो गन्धर्व्यः सङ्गीतं सहभर्तृकाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय मृदंग, पखावज, शंख, ढोल और नगारे आदि बाजे बजने लगे। नट और नर्तकियाँ नाचने लगीं। सूत और मागध स्तुतिगान करने लगे। गन्धर्वोंके साथ सुरीले गलेवाली गन्धर्वपत्नियाँ गान करने लगीं॥ ४६॥
श्लोक-४७
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमभ्यषिञ्चन् विधिवदक्तमभ्यक्तमृत्विजः।
पत्नीभिरष्टादशभिः सोमराजमिवोडुभिः॥
मूलम्
तमभ्यषिञ्चन् विधिवदक्तमभ्यक्तमृत्विजः।
पत्नीभिरष्टादशभिः सोमराजमिवोडुभिः॥
अनुवाद (हिन्दी)
वसुदेवजीने पहले नेत्रोंमें अंजन और शरीरमें मक्खन लगा लिया; फिर उनकी देवकी आदि अठारह पत्नियोंके साथ उन्हें ऋत्विजोंने महाभिषेककी विधिसे वैसे ही अभिषेक कराया, जिस प्रकार प्राचीन कालमें नक्षत्रोंके साथ चन्द्रमाका अभिषेक हुआ था॥ ४७॥
श्लोक-४८
विश्वास-प्रस्तुतिः
ताभिर्दुकूलवलयैर्हारनूपुरकुण्डलैः।
स्वलङ्कृताभिर्विबभौ दीक्षितोऽजिनसंवृतः॥
मूलम्
ताभिर्दुकूलवलयैर्हारनूपुरकुण्डलैः।
स्वलङ्कृताभिर्विबभौ दीक्षितोऽजिनसंवृतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय यज्ञमें दीक्षित होनेके कारण वसुदेवजी तो मृगचर्म धारण किये हुए थे; परन्तु उनकी पत्नियाँ सुन्दर-सुन्दर साड़ी, कंगन, हार, पायजेब और कर्णफूल आदि आभूषणोंसे खूब सजी हुई थीं। वे अपनी पत्नियोंके साथ भलीभाँति शोभायमान हुए॥ ४८॥
श्लोक-४९
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्यर्त्विजो महाराज रत्नकौशेयवाससः।
ससदस्या विरेजुस्ते यथा वृत्रहणोऽध्वरे॥
मूलम्
तस्यर्त्विजो महाराज रत्नकौशेयवाससः।
ससदस्या विरेजुस्ते यथा वृत्रहणोऽध्वरे॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! वसुदेवजीके ऋत्विज् और सदस्य रत्नजटित आभूषण तथा रेशमी वस्त्र धारण करके वैसे ही सुशोभित हुए, जैसे पहले इन्द्रके यज्ञमें हुए थे॥ ४९॥
श्लोक-५०
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदा रामश्च कृष्णश्च स्वैः स्वैर्बन्धुभिरन्वितौ।
रेजतुः स्वसुतैर्दारैर्जीवेशौ स्वविभूतिभिः॥
मूलम्
तदा रामश्च कृष्णश्च स्वैः स्वैर्बन्धुभिरन्वितौ।
रेजतुः स्वसुतैर्दारैर्जीवेशौ स्वविभूतिभिः॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजी अपने-अपने भाई-बन्धु और स्त्री-पुत्रोंके साथ इस प्रकार शोभायमान हुए, जैसे अपनी शक्तियोंके साथ समस्त जीवोंके ईश्वर स्वयं भगवान् समष्टि जीवोंके अभिमानी श्रीसंकर्षण तथा अपने विशुद्ध नारायणस्वरूपमें शोभायमान होते हैं॥ ५०॥
श्लोक-५१
विश्वास-प्रस्तुतिः
ईजेऽनुयज्ञं विधिना अग्निहोत्रादिलक्षणैः।
प्राकृतैर्वैकृतैर्यज्ञैर्द्रव्यज्ञानक्रियेश्वरम्॥
मूलम्
ईजेऽनुयज्ञं विधिना अग्निहोत्रादिलक्षणैः।
प्राकृतैर्वैकृतैर्यज्ञैर्द्रव्यज्ञानक्रियेश्वरम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
वसुदेवजीने प्रत्येक यज्ञमें ज्योतिष्टोम, दर्श, पूर्णमास आदि प्राकृत यज्ञों, सौरसत्रादि वैकृत यज्ञों और अग्निहोत्र आदि अन्यान्य यज्ञोंके द्वारा द्रव्य, क्रिया और उनके ज्ञानके—मन्त्रोंके स्वामी विष्णु-भगवान्की आराधना की॥ ५१॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
प्राकृतैः वैकृतैः प्रकृतिभिः विकृतिभिश्च द्रव्यज्ञानक्रियेश्वरं पञ्चभूतज्ञानेन्द्रियकर्मेन्द्रियनिर्वाहकं यद्वा पुरोडाशादि द्रव्यम् अङ्गकर्मविषयज्ञानतदनुष्ठानानां प्रभुम् ॥५१-६१॥
श्लोक-५२
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथर्त्विग्भ्योऽददात् काले यथाम्नातं स दक्षिणाः।
स्वलङ्कृतेभ्योऽलङ्कृत्य गोभूकन्या महाधनाः॥
मूलम्
अथर्त्विग्भ्योऽददात् काले यथाम्नातं स दक्षिणाः।
स्वलङ्कृतेभ्योऽलङ्कृत्य गोभूकन्या महाधनाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसके बाद उन्होंने उचित समयपर ऋत्विजोंको वस्त्रालंकारोंसे सुसज्जित किया और शास्त्रके अनुसार बहुत-सी दक्षिणा तथा प्रचुर धनके साथ अलंकृत गौएँ , पृथ्वी और सुन्दरी कन्याएँ दीं॥ ५२॥
श्लोक-५३
विश्वास-प्रस्तुतिः
पत्नीसंयाजावभृथ्यैश्चरित्वा ते महर्षयः।
सस्नू रामह्रदे विप्रा यजमानपुरःसराः॥
मूलम्
पत्नीसंयाजावभृथ्यैश्चरित्वा ते महर्षयः।
सस्नू रामह्रदे विप्रा यजमानपुरःसराः॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसके बाद महर्षियोंने पत्नीसंयाज नामक यज्ञांग और अवभृथस्नान अर्थात् यज्ञान्त-स्नानसम्बन्धी अवशेष कर्म कराकर वसुदेवजीको आगे करके परशुरामजीके बनाये ह्रदमें—रामह्रदमें स्नान किया॥ ५३॥
श्लोक-५४
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्नातोऽलङ्कारवासांसि वन्दिभ्योऽदात्तथा स्त्रियः।
ततः स्वलङ्कृतो वर्णानाश्वभ्योऽन्नेन पूजयत्॥
मूलम्
स्नातोऽलङ्कारवासांसि वन्दिभ्योऽदात्तथा स्त्रियः।
ततः स्वलङ्कृतो वर्णानाश्वभ्योऽन्नेन पूजयत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
स्नान करनेके बाद वसुदेवजी और उनकी पत्नियोंने वंदी-जनोंको अपने सारे वस्त्राभूषण दे दिये तथा स्वयं नये वस्त्राभूषणसे सुसज्जित होकर उन्होंने ब्राह्मणोंसे लेकर कुत्तोंतकको भोजन कराया॥ ५४॥
श्लोक-५५
विश्वास-प्रस्तुतिः
बन्धून् सदारान् ससुतान् पारिबर्हेण भूयसा।
विदर्भकोसलकुरून् काशिकेकयसृञ्जयान्॥
मूलम्
बन्धून् सदारान् ससुतान् पारिबर्हेण भूयसा।
विदर्भकोसलकुरून् काशिकेकयसृञ्जयान्॥
श्लोक-५६
विश्वास-प्रस्तुतिः
सदस्यर्त्विक्सुरगणान् नृभूतपितृचारणान्।
श्रीनिकेतमनुज्ञाप्य शंसन्तः प्रययुः क्रतुम्॥
मूलम्
सदस्यर्त्विक्सुरगणान् नृभूतपितृचारणान्।
श्रीनिकेतमनुज्ञाप्य शंसन्तः प्रययुः क्रतुम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर अपने भाई-बन्धुओं, उनके स्त्री-पुत्रों तथा विदर्भ, कोसल, कुरु, काशी, केकय और सृंजय आदि देशोंके राजाओं, सदस्यों, ऋत्विजों, देवताओं, मनुष्यों, भूतों, पितरों और चारणोंको विदाईके रूपमें बहुत-सी भेंट देकर सम्मानित किया। वे लोग लक्ष्मीपति भगवान् श्रीकृष्णकी अनुमति लेकर यज्ञकी प्रशंसा करते हुए अपने-अपने घर चले गये॥ ५५-५६॥
श्लोक-५७
विश्वास-प्रस्तुतिः
धृतराष्ट्रोऽनुजः पार्था भीष्मो द्रोणः पृथा यमौ।
नारदो भगवान् व्यासः सुहृत्सम्बन्धिबान्धवाः॥
मूलम्
धृतराष्ट्रोऽनुजः पार्था भीष्मो द्रोणः पृथा यमौ।
नारदो भगवान् व्यासः सुहृत्सम्बन्धिबान्धवाः॥
श्लोक-५८
विश्वास-प्रस्तुतिः
बन्धून् परिष्वज्य यदून् सौहृदात् क्लिन्नचेतसः।
ययुर्विरहकृच्छ्रेण स्वदेशांश्चापरे जनाः॥
मूलम्
बन्धून् परिष्वज्य यदून् सौहृदात् क्लिन्नचेतसः।
ययुर्विरहकृच्छ्रेण स्वदेशांश्चापरे जनाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! उस समय राजा धृतराष्ट्र, विदुर, युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, भीष्मपितामह, द्रोणाचार्य, कुन्ती, नकुल, सहदेव, नारद, भगवान् व्यासदेव तथा दूसरे स्वजन, सम्बन्धी और बान्धव अपने हितैषी बन्धु यादवोंको छोड़कर जानेमें अत्यन्त विरह-व्यथाका अनुभव करने लगे। उन्होंने अत्यन्त स्नेहार्द्र चित्तसे यदुवंशियोंका आलिंगन किया और बड़ी कठिनाईसे किसी प्रकार अपने-अपने देशको गये। दूसरे लोग भी इनके साथ ही वहाँसे रवाना हो गये॥ ५७-५८॥
श्लोक-५९
विश्वास-प्रस्तुतिः
नन्दस्तु सह गोपालैर्बृहत्या पूजयार्चितः।
कृष्णरामोग्रसेनाद्यैर्न्यवात्सीद् बन्धुवत्सलः॥
मूलम्
नन्दस्तु सह गोपालैर्बृहत्या पूजयार्चितः।
कृष्णरामोग्रसेनाद्यैर्न्यवात्सीद् बन्धुवत्सलः॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्ण, बलरामजी तथा उग्रसेन आदिने नन्दबाबा एवं अन्य सब गोपोंकी बहुत बड़ी-बड़ी सामग्रियोंसे अर्चा-पूजा की; उनका सत्कार किया; और वे प्रेम-परवश होकर बहुत दिनोंतक वहीं रहे॥ ५९॥
श्लोक-६०
विश्वास-प्रस्तुतिः
वसुदेवोऽञ्जसोत्तीर्य मनोरथमहार्णवम्।
सुहृद्वृतः प्रीतमना नन्दमाह करे स्पृशन्॥
मूलम्
वसुदेवोऽञ्जसोत्तीर्य मनोरथमहार्णवम्।
सुहृद्वृतः प्रीतमना नन्दमाह करे स्पृशन्॥
अनुवाद (हिन्दी)
वसुदेवजी अनायास ही अपने बहुत बड़े मनोरथका महासागर पारकर गये थे। उनके आनन्दकी सीमा न थी। सभी आत्मीयस्वजन उनके साथ थे। उन्होंने नन्दबाबाका हाथ पकड़कर कहा॥ ६०॥
श्लोक-६१
मूलम् (वचनम्)
वसुदेव उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
भ्रातरीशकृतः पाशो नृणां यः स्नेहसंज्ञितः।
तं दुस्त्यजमहं मन्ये शूराणामपि योगिनाम्॥
मूलम्
भ्रातरीशकृतः पाशो नृणां यः स्नेहसंज्ञितः।
तं दुस्त्यजमहं मन्ये शूराणामपि योगिनाम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
वसुदेवजीने कहा—भाईजी! भगवान्ने मनुष्योंके लिये एक बहुत बड़ा बन्धन बना दिया है। उस बन्धनका नाम है स्नेह, प्रेमपाश। मैं तो ऐसा समझता हूँ कि बड़े-बड़े शूरवीर और योगी-यति भी उसे तोड़नेमें असमर्थ हैं॥ ६१॥
श्लोक-६२
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस्मास्वप्रतिकल्पेयं यत् कृताज्ञेषु सत्तमैः।
मैत्र्यर्पिताफला वापि न निवर्तेत कर्हिचित्॥
मूलम्
अस्मास्वप्रतिकल्पेयं यत् कृताज्ञेषु सत्तमैः।
मैत्र्यर्पिताफला वापि न निवर्तेत कर्हिचित्॥
अनुवाद (हिन्दी)
आपने हम अकृतज्ञोंके प्रति अनुपम मित्रताका व्यवहार किया है। क्यों न हो, आप-सरीखे संत शिरोमणियोंका तो ऐसा स्वभाव ही होता है। हम इसका कभी बदला नहीं चुका सकते, आपको इसका कोई फल नहीं दे सकते। फिर भी हमारा यह मैत्री-सम्बन्ध कभी टूटनेवाला नहीं है। आप इसको सदा निभाते रहेंगे॥ ६२॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
अज्ञेषु सौहृदानभिज्ञेषु सत्तमैः युष्माभिः अर्पिता मैत्री अप्रतिकल्पा अप्रतिकार्या प्रमिति कुशलं नाचरामः नाचरितवन्त इति पुरः सतः पुरोवर्तिनो युष्मान् न पश्याम इत्यर्थः ॥ ६२-७१ ॥
श्लोक-६३
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रागकल्पाच्च कुशलं भ्रातर्वो नाचराम हि।
अधुना श्रीमदान्धाक्षा न पश्यामः पुरः सतः॥
मूलम्
प्रागकल्पाच्च कुशलं भ्रातर्वो नाचराम हि।
अधुना श्रीमदान्धाक्षा न पश्यामः पुरः सतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
भाईजी! पहले तो बंदीगृहमें बंद होनेके कारण हम आपका कुछ भी प्रिय और हित न कर सके। अब हमारी यह दशा हो रही है कि हम धन-सम्पत्तिके नशेसे—श्रीमदसे अंधे हो रहे हैं; आप हमारे सामने हैं तो भी हम आपकी ओर नहीं देख पाते॥ ६३॥
श्लोक-६४
विश्वास-प्रस्तुतिः
मा राज्यश्रीरभूत् पुंसः श्रेयस्कामस्य मानद।
स्वजनानुत बन्धून् वा न पश्यति ययान्धदृक्॥
मूलम्
मा राज्यश्रीरभूत् पुंसः श्रेयस्कामस्य मानद।
स्वजनानुत बन्धून् वा न पश्यति ययान्धदृक्॥
अनुवाद (हिन्दी)
दूसरोंको सम्मान देकर स्वयं सम्मान न चाहनेवाले भाईजी! जो कल्याणकामी है उसे राज्यलक्ष्मी न मिले—इसीमें उसका भला है; क्योंकि मनुष्य राज्यलक्ष्मीसे अंधा हो जाता है और अपने भाई-बन्धु, स्वजनोंतकको नहीं देख पाता॥ ६४॥
श्लोक-६५
मूलम् (वचनम्)
श्रीशुक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं सौहृदशैथिल्यचित्त आनकदुन्दुभिः।
रुरोद तत्कृतां मैत्रीं स्मरन्नश्रुविलोचनः॥
मूलम्
एवं सौहृदशैथिल्यचित्त आनकदुन्दुभिः।
रुरोद तत्कृतां मैत्रीं स्मरन्नश्रुविलोचनः॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! इस प्रकार कहते-कहते वसुदेवजीका हृदय प्रेमसे गद्गद हो गया। उन्हें नन्दबाबाकी मित्रता और उपकार स्मरण हो आये। उनके नेत्रोंमें प्रेमाश्रु उमड़ आये, वे रोने लगे॥ ६५॥
श्लोक-६६
विश्वास-प्रस्तुतिः
नन्दस्तु सख्युः प्रियकृत् प्रेम्णा गोविन्दरामयोः।
अद्य श्व इति मासांस्त्रीन् यदुभिर्मानितोऽवसत्॥
मूलम्
नन्दस्तु सख्युः प्रियकृत् प्रेम्णा गोविन्दरामयोः।
अद्य श्व इति मासांस्त्रीन् यदुभिर्मानितोऽवसत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
नन्दजी अपने सखा वसुदेवजीको प्रसन्न करनेके लिये एवं भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजीके प्रेमपाशमें बँधकर आज-कल करते-करते तीन महीनेतक वहीं रह गये। यदुवंशियोंने जी भर उनका सम्मान किया॥ ६६॥
श्लोक-६७
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः कामैः पूर्यमाणः सव्रजः सहबान्धवः।
परार्घ्याभरणक्षौमनानानर्घ्यपरिच्छदैः॥
मूलम्
ततः कामैः पूर्यमाणः सव्रजः सहबान्धवः।
परार्घ्याभरणक्षौमनानानर्घ्यपरिच्छदैः॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसके बाद बहुमूल्य आभूषण, रेशमी वस्त्र, नाना प्रकारकी उत्तमोत्तम सामग्रियों और भोगोंसे नन्दबाबाको, उनके व्रजवासी साथियोंको और बन्धु-बान्धवोंको खूब तृप्त किया॥ ६७॥
श्लोक-६८
विश्वास-प्रस्तुतिः
वसुदेवोग्रसेनाभ्यां कृष्णोद्धवबलादिभिः।
दत्तमादाय पारिबर्हं यापितो यदुभिर्ययौ॥
मूलम्
वसुदेवोग्रसेनाभ्यां कृष्णोद्धवबलादिभिः।
दत्तमादाय पारिबर्हं यापितो यदुभिर्ययौ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वसुदेवजी, उग्रसेन, श्रीकृष्ण, बलराम, उद्धव आदि यदुवंशियोंने अलग-अलग उन्हें अनेकों प्रकारकी भेंटें दीं। उनके विदा करनेपर उन सब सामग्रियोंको लेकर नन्दबाबा, अपने व्रजके लिये रवाना हुए॥ ६८॥
श्लोक-६९
विश्वास-प्रस्तुतिः
नन्दो गोपाश्च गोप्यश्च गोविन्दचरणाम्बुजे।
मनः क्षिप्तं पुनर्हर्तुमनीशा मथुरां ययुः॥
मूलम्
नन्दो गोपाश्च गोप्यश्च गोविन्दचरणाम्बुजे।
मनः क्षिप्तं पुनर्हर्तुमनीशा मथुरां ययुः॥
अनुवाद (हिन्दी)
नन्दबाबा, गोपों और गोपियोंका चित्त भगवान् श्रीकृष्णके चरणकमलोंमें इस प्रकार लग गया कि वे फिर प्रयत्न करनेपर भी उसे वहाँसे लौटा न सके। सुतरां बिना ही मनके उन्होंने मथुराकी यात्रा की॥ ६९॥
श्लोक-७०
विश्वास-प्रस्तुतिः
बन्धुषु प्रतियातेषु वृष्णयः कृष्णदेवताः।
वीक्ष्य प्रावृषमासन्नां ययुर्द्वारवतीं पुनः॥
मूलम्
बन्धुषु प्रतियातेषु वृष्णयः कृष्णदेवताः।
वीक्ष्य प्रावृषमासन्नां ययुर्द्वारवतीं पुनः॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब सब बन्धु-बान्धव वहाँसे विदा हो चुके, तब भगवान् श्रीकृष्णको ही एकमात्र इष्टदेव माननेवाले यदुवंशियोंने यह देखकर कि अब वर्षा ऋतु आ पहुँची है, द्वारकाके लिये प्रस्थान किया॥ ७०॥
श्लोक-७१
विश्वास-प्रस्तुतिः
जनेभ्यः कथयाञ्चक्रुर्यदुदेवमहोत्सवम्।
यदासीत्तीर्थयात्रायां सुहृत्सन्दर्शनादिकम्॥
मूलम्
जनेभ्यः कथयाञ्चक्रुर्यदुदेवमहोत्सवम्।
यदासीत्तीर्थयात्रायां सुहृत्सन्दर्शनादिकम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ जाकर उन्होंने सब लोगोंसे वसुदेवजीके यज्ञमहोत्सव, स्वजन-सम्बन्धियोंके दर्शन-मिलन आदि तीर्थयात्राके प्रसंगोंको कह सुनाया॥ ७१॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
॥ इति श्रीमद्भागवतव्याख्याने दशमस्कन्धे श्रीसुदर्शनसूरिकृतशुकपक्षीये चतुरशीतितमोऽध्यायः ॥ ८४ ॥
अनुवाद (समाप्ति)
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे उत्तरार्धे तीर्थयात्रानुवर्णनं नाम चतुरशीतितमोऽध्यायः॥ ८४॥