८२ वृष्णिगोपसङ्गमः

[द्वशीतितमोऽध्यायः]

भागसूचना

भगवान् श्रीकृष्ण-बलरामसे गोप-गोपियोंकी भेंट

श्लोक-१

मूलम् (वचनम्)

श्रीशुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथैकदा द्वारवत्यां वसतो रामकृष्णयोः।
सूर्योपरागः सुमहानासीत् कल्पक्षये यथा॥

मूलम्

अथैकदा द्वारवत्यां वसतो रामकृष्णयोः।
सूर्योपरागः सुमहानासीत् कल्पक्षये यथा॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! इसी प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजी द्वारकामें निवास कर रहे थे। एक बार सर्वग्रास सूर्यग्रहण लगा, जैसा कि प्रलयके समय लगा करता है॥ १॥

श्लोक-२

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं ज्ञात्वा मनुजा राजन् पुरस्तादेव सर्वतः।
समन्तपञ्चकं क्षेत्रं ययुः श्रेयोविधित्सया॥

मूलम्

तं ज्ञात्वा मनुजा राजन् पुरस्तादेव सर्वतः।
समन्तपञ्चकं क्षेत्रं ययुः श्रेयोविधित्सया॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! मनुष्योंको ज्योतिषियोंके द्वारा उस ग्रहणका पता पहलेसे ही चल गया था, इसलिये सब लोग अपने-अपने कल्याणके उद्देश्यसे पुण्य आदि उपार्जन करनेके लिये समन्तपंचक-तीर्थ कुरुक्षेत्रमें आये॥ २॥

श्लोक-३

विश्वास-प्रस्तुतिः

निःक्षत्रियां महीं कुर्वन् रामः शस्त्रभृतां वरः।
नृपाणां रुधिरौघेण यत्र चक्रे महाह्रदान्॥

मूलम्

निःक्षत्रियां महीं कुर्वन् रामः शस्त्रभृतां वरः।
नृपाणां रुधिरौघेण यत्र चक्रे महाह्रदान्॥

अनुवाद (हिन्दी)

समन्तपंचक क्षेत्र वह है, जहाँ शस्त्रधारियोंमें श्रेष्ठ परशुरामजीने सारी पृथ्वीको क्षत्रियहीन करके राजाओंकी रुधिरधारासे पाँच बड़े-बड़े कुण्ड बना दिये थे॥ ३॥

श्लोक-४

विश्वास-प्रस्तुतिः

ईजे च भगवान् रामो यत्रास्पृष्टोऽपि कर्मणा।
लोकस्य ग्राहयन्नीशो यथान्योऽघापनुत्तये॥

मूलम्

ईजे च भगवान् रामो यत्रास्पृष्टोऽपि कर्मणा।
लोकस्य ग्राहयन्नीशो यथान्योऽघापनुत्तये॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे कोई साधारण मनुष्य अपने पापकी निवृत्तिके लिये प्रायश्चित्त करता है, वैसे ही सर्वशक्तिमान् भगवान् परशुरामने अपने साथ कर्मका कुछ सम्बन्ध न होनेपर भी लोकमर्यादाकी रक्षाके लिये वहींपर यज्ञ किया था॥ ४॥

श्लोक-५

विश्वास-प्रस्तुतिः

महत्यां तीर्थयात्रायां तत्रागन् भारतीः प्रजाः।
वृष्णयश्च तथाक्रूरवसुदेवाहुकादयः॥

मूलम्

महत्यां तीर्थयात्रायां तत्रागन् भारतीः प्रजाः।
वृष्णयश्च तथाक्रूरवसुदेवाहुकादयः॥

श्लोक-६

विश्वास-प्रस्तुतिः

ययुर्भारत तत् क्षेत्रं स्वमघं क्षपयिष्णवः।
गदप्रद्युम्नसाम्बाद्याः सुचन्द्रशुकसारणैः॥

मूलम्

ययुर्भारत तत् क्षेत्रं स्वमघं क्षपयिष्णवः।
गदप्रद्युम्नसाम्बाद्याः सुचन्द्रशुकसारणैः॥

श्लोक-७

विश्वास-प्रस्तुतिः

आस्तेऽनिरुद्धो रक्षायां कृतवर्मा च यूथपः।
ते रथैर्देवधिष्ण्याभैर्हयैश्च तरलप्लवैः॥

मूलम्

आस्तेऽनिरुद्धो रक्षायां कृतवर्मा च यूथपः।
ते रथैर्देवधिष्ण्याभैर्हयैश्च तरलप्लवैः॥

श्लोक-८

विश्वास-प्रस्तुतिः

गजैर्नदद‍्भिरभ्राभैर्नृभिर्विद्याधरद्युभिः।
व्यरोचन्त महातेजाः पथि काञ्चनमालिनः॥

मूलम्

गजैर्नदद‍्भिरभ्राभैर्नृभिर्विद्याधरद्युभिः।
व्यरोचन्त महातेजाः पथि काञ्चनमालिनः॥

श्लोक-९

विश्वास-प्रस्तुतिः

दिव्यस्रग्वस्त्रसन्नाहाः कलत्रैः खेचरा इव।
तत्र स्नात्वा महाभागा उपोष्य सुसमाहिताः॥

मूलम्

दिव्यस्रग्वस्त्रसन्नाहाः कलत्रैः खेचरा इव।
तत्र स्नात्वा महाभागा उपोष्य सुसमाहिताः॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! इस महान् तीर्थयात्राके अवसरपर भारतवर्षके सभी प्रान्तोंकी जनता कुरुक्षेत्र आयी थी। उनमें अक्रूर, वसुदेव, उग्रसेन आदि बड़े-बूढ़े तथा गद, प्रद्युम्न, साम्ब आदि अन्य यदुवंशी भी अपने-अपने पापोंका नाश करनेके लिये कुरुक्षेत्र आये थे। प्रद्युम्ननन्दन अनिरुद्ध और यदुवंशी सेनापति कृतवर्मा—ये दोनों सुचन्द्र, शुक, सारण आदिके साथ नगरकी रक्षाके लिये द्वारकामें रह गये थे। यदुवंशी एक तो स्वभावसे ही परम तेजस्वी थे; दूसरे गलेमें सोनेकी माला, दिव्य पुष्पोंके हार, बहुमूल्य वस्त्र और कवचोंसे सुसज्जित होनेके कारण उनकी शोभा और भी बढ़ गयी थी। वे तीर्थयात्राके पथमें देवताओंके विमानके समान रथों, समुद्रकी तरंगके समान चलनेवाले घोड़ों, बादलोंके समान विशालकाय एवं गर्जना करते हुए हाथियों तथा विद्याधरोंके समान मनुष्योंके द्वारा ढोयी जानेवाली पालकियोंपर अपनी पत्नियोंके साथ इस प्रकार शोभायमान हो रहे थे, मानो स्वर्गके देवता ही यात्रा कर रहे हों। महाभाग्यवान् यदुवंशियोंने कुरुक्षेत्रमें पहुँचकर एकाग्रचित्तसे संयमपूर्वक स्नान किया और ग्रहणके उपलक्ष्यमें निश्चित कालतक उपवास किया॥ ५—९॥

श्लोक-१०

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्राह्मणेभ्यो ददुर्धेनूर्वासः स्रग्रुक्ममालिनीः।
रामह्रदेषु विधिवत् पुनराप्लुत्य वृष्णयः॥

मूलम्

ब्राह्मणेभ्यो ददुर्धेनूर्वासः स्रग्रुक्ममालिनीः।
रामह्रदेषु विधिवत् पुनराप्लुत्य वृष्णयः॥

श्लोक-११

विश्वास-प्रस्तुतिः

ददुः स्वन्नं द्विजाग्र्येभ्यः कृष्णे नो भक्तिरस्त्विति।
स्वयं च तदनुज्ञाता वृष्णयः कृष्णदेवताः॥

मूलम्

ददुः स्वन्नं द्विजाग्र्येभ्यः कृष्णे नो भक्तिरस्त्विति।
स्वयं च तदनुज्ञाता वृष्णयः कृष्णदेवताः॥

श्लोक-१२

विश्वास-प्रस्तुतिः

भुक्त्वोपविविशुः कामं स्निग्धच्छायाङ्घ्रिपाङ्घ्रिषु।
तत्रागतांस्ते ददृशुः सुहृत्सम्बन्धिनो नृपान्॥

मूलम्

भुक्त्वोपविविशुः कामं स्निग्धच्छायाङ्घ्रिपाङ्घ्रिषु।
तत्रागतांस्ते ददृशुः सुहृत्सम्बन्धिनो नृपान्॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने ब्राह्मणोंको गोदान किया। ऐसी गौओंका दान किया जिन्हें वस्त्रोंकी सुन्दर-सुन्दर झूलें, पुष्पमालाएँ एवं सोनेकी जंजीरें पहना दी गयी थीं। इसके बाद ग्रहणका मोक्ष हो जानेपर परशुरामजीके बनाये हुए कुण्डोंमें यदुवंशियोंने विधिपूर्वक स्नान किया और सत्पात्र ब्राह्मणोंको सुन्दर-सुन्दर पकवानोंका भोजन कराया। उन्होंने अपने मनमें यह संकल्प किया था कि भगवान् श्रीकृष्णके चरणोंमें हमारी प्रेमभक्ति बनी रहे। भगवान् श्रीकृष्णको ही अपना आदर्श और इष्टदेव माननेवाले यदुवंशियोंने ब्राह्मणोंसे अनुमति लेकर तब स्वयं भोजन किया और फिर घनी एवं ठंडी छायावाले वृक्षोंके नीचे अपनी-अपनी इच्छाके अनुसार डेरा डालकर ठहर गये। परीक्षित्! विश्राम कर लेनेके बाद यदुवंशियोंने अपने सुहृद् और सम्बन्धी राजाओंसे मिलना-भेंटना शुरू किया॥ १०—१२॥

श्लोक-१३

विश्वास-प्रस्तुतिः

मत्स्योशीनरकौसल्यविदर्भकुरुसृञ्जयान्।
काम्बोजकैकयान् मद्रान् कुन्तीनानर्तकेरलान्॥

मूलम्

मत्स्योशीनरकौसल्यविदर्भकुरुसृञ्जयान्।
काम्बोजकैकयान् मद्रान् कुन्तीनानर्तकेरलान्॥

श्लोक-१४

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्यांश्चैवात्मपक्षीयान् परांश्च शतशो नृप।
नन्दादीन् सुहृदो गोपान् गोपीश्चोत्कण्ठिताश्चिरम्॥

मूलम्

अन्यांश्चैवात्मपक्षीयान् परांश्च शतशो नृप।
नन्दादीन् सुहृदो गोपान् गोपीश्चोत्कण्ठिताश्चिरम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ मत्स्य, उशीनर, कोसल, विदर्भ, कुरु, सृंजय, काम्बोज, कैकय, मद्र, कुन्ति, आनर्त, केरल एवं दूसरे अनेकों देशोंके—अपने पक्षके तथा शत्रुपक्षके—सैकड़ों नरपति आये हुए थे। परीक्षित्! इनके अतिरिक्त यदुवंशियोंके परम हितैषी बन्धु नन्द आदि गोप तथा भगवान‍्के दर्शनके लिये चिरकालसे उत्कण्ठित गोपियाँ भी वहाँ आयी हुई थीं। यादवोंने इन सबको देखा॥ १३-१४॥

श्लोक-१५

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्योन्यसन्दर्शनहर्षरंहसा
प्रोत्फुल्लहृद्वक्त्रसरोरुहश्रियः।
आश्लिष्य गाढं नयनैः स्रवज्जला
हृष्यत्त्वचो रुद्धगिरो ययुर्मुदम्॥

मूलम्

अन्योन्यसन्दर्शनहर्षरंहसा
प्रोत्फुल्लहृद्वक्त्रसरोरुहश्रियः।
आश्लिष्य गाढं नयनैः स्रवज्जला
हृष्यत्त्वचो रुद्धगिरो ययुर्मुदम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! एक-दूसरेके दर्शन, मिलन और वार्तालापसे सभीको बड़ा आनन्द हुआ। सभीके हृदय-कमल एवं मुख-कमल खिल उठे। सब एक-दूसरेको भुजाओंमें भरकर हृदयसे लगाते, उनके नेत्रोंसे आँसुओंकी झड़ी लग जाती, रोम-रोम खिल उठता, प्रेमके आवेगसे बोली बंद हो जाती और सब-के-सब आनन्द-समुद्रमें डूबने-उतराने लगते॥ १५॥

श्लोक-१६

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्त्रियश्च संवीक्ष्य मिथोऽतिसौहृद-
स्मितामलापाङ्गदृशोऽभिरेभिरे।
स्तनैः स्तनान् कुङ्कुमपङ्करूषितान्
निहत्य दोर्भिः प्रणयाश्रुलोचनाः॥

मूलम्

स्त्रियश्च संवीक्ष्य मिथोऽतिसौहृद-
स्मितामलापाङ्गदृशोऽभिरेभिरे।
स्तनैः स्तनान् कुङ्कुमपङ्करूषितान्
निहत्य दोर्भिः प्रणयाश्रुलोचनाः॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुरुषोंकी भाँति स्त्रियाँ भी एक-दूसरेको देखकर प्रेम और आनन्दसे भर गयीं। वे अत्यन्त सौहार्द, मन्द-मन्द मुसकान, परम पवित्र तिरछी चितवनसे देख-देखकर परस्पर भेंट-अँकवार भरने लगीं। वे अपनी भुजाओंमें भरकर केसर लगे हुए वक्षःस्थलोंको दूसरी स्त्रियोंके वक्षःस्थलोंसे दबातीं और अत्यन्त आनन्दका अनुभव करतीं। उस समय उनके नेत्रोंसे प्रेमके आँसू छलकने लगते॥ १६॥

श्लोक-१७

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽभिवाद्य ते वृद्धान् यविष्ठैरभिवादिताः।
स्वागतं कुशलं पृष्ट्वा चक्रुः कृष्णकथा मिथः॥

मूलम्

ततोऽभिवाद्य ते वृद्धान् यविष्ठैरभिवादिताः।
स्वागतं कुशलं पृष्ट्वा चक्रुः कृष्णकथा मिथः॥

अनुवाद (हिन्दी)

अवस्था आदिमें छोटोंने बड़े-बूढ़ोंको प्रणाम किया और उन्होंने अपनेसे छोटोंका प्रणाम स्वीकार किया। वे एक-दूसरेका स्वागत करके तथा कुशल-मंगल आदि पूछकर फिर श्रीकृष्णकी मधुर लीलाएँ आपसमें कहने-सुनने लगे॥ १७॥

श्लोक-१८

विश्वास-प्रस्तुतिः

पृथा भ्रातॄन् स्वसॄर्वीक्ष्य तत्पुत्रान् पितरावपि।
भ्रातृपत्नीर्मुकुन्दं च जहौ संकथया शुचः॥

मूलम्

पृथा भ्रातॄन् स्वसॄर्वीक्ष्य तत्पुत्रान् पितरावपि।
भ्रातृपत्नीर्मुकुन्दं च जहौ संकथया शुचः॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! कुन्ती वसुदेव आदि अपने भाइयों, बहिनों, उनके पुत्रों, माता-पिता, भाभियों और भगवान् श्रीकृष्णको देखकर तथा उनसे बातचीत करके अपना सारा दुःख भूल गयीं॥ १८॥

श्लोक-१९

मूलम् (वचनम्)

कुन्त्युवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

आर्य भ्रातरहं मन्ये आत्मानमकृताशिषम्।
यद् वा आपत्सु मद्वार्तां नानुस्मरथ सत्तमाः॥

मूलम्

आर्य भ्रातरहं मन्ये आत्मानमकृताशिषम्।
यद् वा आपत्सु मद्वार्तां नानुस्मरथ सत्तमाः॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुन्तीने वसुदेवजीसे कहा—भैया! मैं सचमुच बड़ी अभागिन हूँ। मेरी एक भी साध पूरी न हुई। आप-जैसे साधु-स्वभाव सज्जन भाई आपत्तिके समय मेरी सुधि भी न लें, इससे बढ़कर दुःखकी बात क्या होगी?॥ १९॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

भ्रातरिति वसुदेवः सम्बोध्यते ॥१९-२८॥

श्लोक-२०

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुहृदो ज्ञातयः पुत्रा भ्रातरः पितरावपि।
नानुस्मरन्ति स्वजनं यस्य दैवमदक्षिणम्॥

मूलम्

सुहृदो ज्ञातयः पुत्रा भ्रातरः पितरावपि।
नानुस्मरन्ति स्वजनं यस्य दैवमदक्षिणम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

भैया! विधाता जिसके बाँयें हो जाता है उसे स्वजन-सम्बन्धी, पुत्र और माता-पिता भी भूल जाते हैं। इसमें आपलोगोंका कोई दोष नहीं॥ २०॥

श्लोक-२१

मूलम् (वचनम्)

वसुदेव उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अम्ब मास्मानसूयेथा दैवक्रीडनकान् नरान्।
ईशस्य हि वशे लोकः कुरुते कार्यतेऽथवा॥

मूलम्

अम्ब मास्मानसूयेथा दैवक्रीडनकान् नरान्।
ईशस्य हि वशे लोकः कुरुते कार्यतेऽथवा॥

अनुवाद (हिन्दी)

वसुदेवजीने कहा—बहिन! उलाहना मत दो। हमसे बिलग न मानो। सभी मनुष्य दैवके खिलौने हैं। यह सम्पूर्ण लोक ईश्वरके वशमें रहकर कर्म करता है और उसका फल भोगता है॥ २१॥

श्लोक-२२

विश्वास-प्रस्तुतिः

कंसप्रतापिताः सर्वे वयं याता दिशं दिशम्।
एतर्ह्येव पुनः स्थानं दैवेनासादिताः स्वसः॥

मूलम्

कंसप्रतापिताः सर्वे वयं याता दिशं दिशम्।
एतर्ह्येव पुनः स्थानं दैवेनासादिताः स्वसः॥

अनुवाद (हिन्दी)

बहिन! कंससे सताये जाकर हमलोग इधर-उधर अनेक दिशाओंमें भगे हुए थे। अभी कुछ ही दिन हुए, ईश्वरकृपासे हम सब पुनः अपना स्थान प्राप्त कर सके हैं॥ २२॥

श्लोक-२३

मूलम् (वचनम्)

श्रीशुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

वसुदेवोग्रसेनाद्यैर्यदुभिस्तेऽर्चिता नृपाः।
आसन्नच्युतसन्दर्शपरमानन्दनिर्वृताः॥

मूलम्

वसुदेवोग्रसेनाद्यैर्यदुभिस्तेऽर्चिता नृपाः।
आसन्नच्युतसन्दर्शपरमानन्दनिर्वृताः॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! वहाँ जितने भी नरपति आये थे—वसुदेव, उग्रसेन आदि यदुवंशियोंने उनका खूब सम्मान-सत्कार किया। वे सब भगवान् श्रीकृष्णका दर्शन पाकर परमानन्द और शान्तिका अनुभव करने लगे॥ २३॥

श्लोक-२४

विश्वास-प्रस्तुतिः

भीष्मो द्रोणोऽम्बिकापुत्रो गान्धारी ससुता तथा।
सदाराः पाण्डवाः कुन्ती सृञ्जयो विदुरः कृपः॥

मूलम्

भीष्मो द्रोणोऽम्बिकापुत्रो गान्धारी ससुता तथा।
सदाराः पाण्डवाः कुन्ती सृञ्जयो विदुरः कृपः॥

श्लोक-२५

विश्वास-प्रस्तुतिः

कुन्तिभोजो विराटश्च भीष्मको नग्नजिन्महान्।
पुरुजिद् द्रुपदः शल्यो धृष्टकेतुः सकाशिराट्॥

मूलम्

कुन्तिभोजो विराटश्च भीष्मको नग्नजिन्महान्।
पुरुजिद् द्रुपदः शल्यो धृष्टकेतुः सकाशिराट्॥

श्लोक-२६

विश्वास-प्रस्तुतिः

दमघोषो विशालाक्षो मैथिलो मद्रकेकयौ।
युधामन्युः सुशर्मा च ससुता बाह्लिकादयः॥

मूलम्

दमघोषो विशालाक्षो मैथिलो मद्रकेकयौ।
युधामन्युः सुशर्मा च ससुता बाह्लिकादयः॥

श्लोक-२७

विश्वास-प्रस्तुतिः

राजानो ये च राजेन्द्र युधिष्ठिरमनुव्रताः।
श्रीनिकेतं वपुः शौरेः सस्त्रीकं वीक्ष्य विस्मिताः॥

मूलम्

राजानो ये च राजेन्द्र युधिष्ठिरमनुव्रताः।
श्रीनिकेतं वपुः शौरेः सस्त्रीकं वीक्ष्य विस्मिताः॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! भीष्मपितामह, द्रोणाचार्य, धृतराष्ट्र, दुर्योधनादि पुत्रोंके साथ गान्धारी, पत्नियोंके सहित युधिष्ठिर आदि पाण्डव, कुन्ती, सृंजय, विदुर, कृपाचार्य, कुन्तिभोज, विराट, भीष्मक, महाराज नग्नजित् , पुरुजित् , द्रुपद, शल्य, धृष्टकेतु , काशीनरेश, दमघोष, विशालाक्ष, मिथिलानरेश, मद्रनरेश, केकयनरेश, युधामन्यु, सुशर्मा, अपने पुत्रोंके साथ बाह्लीक और दूसरे भी युधिष्ठिरके अनुयायी नृपति भगवान् श्रीकृष्णका परम सुन्दर श्रीनिकेतन विग्रह और उनकी रानियोंको देखकर अत्यन्त विस्मित हो गये॥ २४—२७॥

श्लोक-२८

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ ते रामकृष्णाभ्यां सम्यक् प्राप्तसमर्हणाः।
प्रशशंसुर्मुदा युक्ता वृष्णीन् कृष्णपरिग्रहान्॥

मूलम्

अथ ते रामकृष्णाभ्यां सम्यक् प्राप्तसमर्हणाः।
प्रशशंसुर्मुदा युक्ता वृष्णीन् कृष्णपरिग्रहान्॥

अनुवाद (हिन्दी)

अब वे बलरामजी तथा भगवान् श्रीकृष्णसे भलीभाँति सम्मान प्राप्त करके बड़े आनन्दसे श्रीकृष्णके स्वजनों—यदुवंशियोंकी प्रशंसा करने लगे॥ २८॥

श्लोक-२९

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहो भोजपते यूयं जन्मभाजो नृणामिह।
यत् पश्यथासकृत् कृष्णं दुर्दर्शमपि योगिनाम्॥

मूलम्

अहो भोजपते यूयं जन्मभाजो नृणामिह।
यत् पश्यथासकृत् कृष्णं दुर्दर्शमपि योगिनाम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन लोगोंने मुख्यतया उग्रसेनजीको सम्बोधित कर कहा—‘भोजराज उग्रसेनजी! सच पूछिये तो इस जगत‍्के मनुष्योंमें आपलोगोंका जीवन ही सफल है, धन्य है! धन्य है! क्योंकि जिन श्रीकृष्णका दर्शन बड़े-बड़े योगयोंके लिये भी दुर्लभ है, उन्हींको आपलोग नित्य-निरन्तर देखते रहते हैं॥ २९॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

भोजपते इति हे उग्रसेन ! ॥ २९ ॥

श्लोक-३०

विश्वास-प्रस्तुतिः

यद्विश्रुतिः श्रुतिनुतेदमलं पुनाति
पादावनेजनपयश्च वचश्च शास्त्रम्।
भूः कालभर्जितभगापि यदङ्घ्रिपद्म-
स्पर्शोत्थशक्तिरभिवर्षति नोऽखिलार्थान्॥

मूलम्

यद्विश्रुतिः श्रुतिनुतेदमलं पुनाति
पादावनेजनपयश्च वचश्च शास्त्रम्।
भूः कालभर्जितभगापि यदङ्घ्रिपद्म-
स्पर्शोत्थशक्तिरभिवर्षति नोऽखिलार्थान्॥

अनुवाद (हिन्दी)

वेदोंने बड़े आदरके साथ भगवान् श्रीकृष्णकी कीर्तिका गान किया है। उनके चरणधोवनका जल गंगाजल, उनकी वाणी—शास्त्र और उनकी कीर्ति इस जगत‍्को अत्यन्त पवित्र कर रही है। अभी हमलोगोंके जीवनकी ही बात है, समयके फेरसे पृथ्वीका सारा सौभाग्य नष्ट हो चुका था; परन्तु उनके चरणकमलोंके स्पर्शसे पृथ्वीमें फिर समस्त शक्तियोंका संचार हो गया और अब वह फिर हमारी समस्त अभिलाषाओं—मनोरथोंको पूर्ण करने लगी॥ ३०॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

विश्रुतिश्रुतिर्यस्य विश्रवणं विश्रुतिः विश्रुतिमिति पाठे “इमं मे गङ्गे यमुने सरस्वति इत्यादिषु विविधश्रुतिषु श्रुतमिति पयोविशेषणं स्ववचः गीताशास्त्र यस्य कीर्तिः श्रवणं गङ्गाजलं गीताशास्त्रं चेति अलं पुनातीत्यकार अमीवमलमिति पाठे पापाख्यं मलमित्यर्थः । भूरिति कालभजित भगापि कालेन दग्धैश्वर्या भूमिर्यदङ्घ्रिपद्मस्पर्शोत्थशक्तिरस्माकमखिलानर्थान् वर्षतीत्यर्थः ॥ ३० ॥

श्लोक-३१

विश्वास-प्रस्तुतिः

तद्दर्शनस्पर्शनानुपथप्रजल्प-
शय्यासनाशनसयौनसपिण्डबन्धः।
येषां गृहे निरयवर्त्मनि वर्ततां वः
स्वर्गापवर्गविरमः स्वयमास विष्णुः॥

मूलम्

तद्दर्शनस्पर्शनानुपथप्रजल्प-
शय्यासनाशनसयौनसपिण्डबन्धः।
येषां गृहे निरयवर्त्मनि वर्ततां वः
स्वर्गापवर्गविरमः स्वयमास विष्णुः॥

अनुवाद (हिन्दी)

उग्रसेनजी! आपलोगोंका श्रीकृष्णके साथ वैवाहिक एवं गोत्रसम्बन्ध है। यही नहीं, आप हर समय उनका दर्शन और स्पर्श प्राप्त करते रहते हैं। उनके साथ चलते हैं, बोलते हैं, सोते हैं, बैठते हैं और खाते-पीते हैं। यों तो आपलोग गृहस्थीकी झंझटोंमें फँसे रहते हैं—जो नरकका मार्ग है, परन्तु आपलोगोंके घर वे सर्वव्यापक विष्णु भगवान् मूर्तिमान् रूपसे निवास करते हैं, जिनके दर्शनमात्रसे स्वर्ग और मोक्षतककी अभिलाषा मिट जाती है’॥ ३१॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

अनुपथशब्दोऽनुगमपरः सयौनं सविवाहादिसम्बन्ध सपिण्डबन्ध एकगोत्रान्वयः स्वर्गापवर्गविरमः जन्ममृत्युनिवारकः ॥ ३१-३६॥

श्लोक-३२

मूलम् (वचनम्)

श्रीशुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

नन्दस्तत्र यदून् प्राप्तान् ज्ञात्वा कृष्णपुरोगमान्।
तत्रागमद् वृतो गोपैरनःस्थार्थैर्दिदृक्षया॥

मूलम्

नन्दस्तत्र यदून् प्राप्तान् ज्ञात्वा कृष्णपुरोगमान्।
तत्रागमद् वृतो गोपैरनःस्थार्थैर्दिदृक्षया॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! जब नन्दबाबाको यह बात मालूम हुई कि श्रीकृष्ण आदि यदुवंशी कुरुक्षेत्रमें आये हुए हैं, तब वे गोपोंके साथ अपनी सारी सामग्री गाड़ियोंपर लादकर अपने प्रिय पुत्र श्रीकृष्ण-बलराम आदिको देखनेके लिये वहाँ आये॥ ३२॥

श्लोक-३३

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं दृष्ट्वा वृष्णयो हृष्टास्तन्वः प्राणमिवोत्थिताः।
परिषस्वजिरे गाढं चिरदर्शनकातराः॥

मूलम्

तं दृष्ट्वा वृष्णयो हृष्टास्तन्वः प्राणमिवोत्थिताः।
परिषस्वजिरे गाढं चिरदर्शनकातराः॥

अनुवाद (हिन्दी)

नन्द आदि गोपोंको देखकर सब-के-सब यदुवंशी आनन्दसे भर गये। वे इस प्रकार उठ खड़े हुए, मानो मृत शरीरमें प्राणोंका संचार हो गया हो। वे लोग एक-दूसरेसे मिलनेके लिये बहुत दिनोंसे आतुर हो रहे थे। इसलिये एक-दूसरेको बहुत देरतक अत्यन्त गाढ़भावसे आलिंगन करते रहे॥ ३३॥

श्लोक-३४

विश्वास-प्रस्तुतिः

वसुदेवः परिष्वज्य सम्प्रीतः प्रेमविह्वलः।
स्मरन् कंसकृतान् क्लेशान् पुत्रन्यासं च गोकुले॥

मूलम्

वसुदेवः परिष्वज्य सम्प्रीतः प्रेमविह्वलः।
स्मरन् कंसकृतान् क्लेशान् पुत्रन्यासं च गोकुले॥

अनुवाद (हिन्दी)

वसुदेवजीने अत्यन्त प्रेम और आनन्दसे विह्वल होकर नन्दजीको हृदयसे लगा लिया। उन्हें एक-एक करके सारी बातें याद हो आयीं—कंस किस प्रकार उन्हें सताता था और किस प्रकार उन्होंने अपने पुत्रको गोकुलमें ले जाकर नन्दजीके घर रख दिया था॥ ३४॥

श्लोक-३५

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृष्णरामौ परिष्वज्य पितरावभिवाद्य च।
न किञ्चनोचतुः प्रेम्णा साश्रुकण्ठौ कुरूद्वह॥

मूलम्

कृष्णरामौ परिष्वज्य पितरावभिवाद्य च।
न किञ्चनोचतुः प्रेम्णा साश्रुकण्ठौ कुरूद्वह॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजीने माता यशोदा और पिता नन्दजीके हृदयसे लगकर उनके चरणोंमें प्रणाम किया। परीक्षित्! उस समय प्रेमके उद्रेकसे दोनों भाइयोंका गला रुँध गया, वे कुछ भी बोल न सके॥ ३५॥

श्लोक-३६

विश्वास-प्रस्तुतिः

तावात्मासनमारोप्य बाहुभ्यां परिरभ्य च।
यशोदा च महाभागा सुतौ विजहतुः शुचः॥

मूलम्

तावात्मासनमारोप्य बाहुभ्यां परिरभ्य च।
यशोदा च महाभागा सुतौ विजहतुः शुचः॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाभाग्यवती यशोदाजी और नन्दबाबाने दोनों पुत्रोंको अपनी गोदमें बैठा लिया और भुजाओंसे उनका गाढ़ आलिंगन किया। उनके हृदयमें चिरकालतक न मिलनेका जो दुःख था, वह सब मिट गया॥ ३६॥

श्लोक-३७

विश्वास-प्रस्तुतिः

रोहिणी देवकी चाथ परिष्वज्य व्रजेश्वरीम्।
स्मरन्त्यौ तत्कृतां मैत्रीं बाष्पकण्ठ्यौ समूचतुः॥

मूलम्

रोहिणी देवकी चाथ परिष्वज्य व्रजेश्वरीम्।
स्मरन्त्यौ तत्कृतां मैत्रीं बाष्पकण्ठ्यौ समूचतुः॥

अनुवाद (हिन्दी)

रोहिणी और देवकीजीने व्रजेश्वरी यशोदाको अपनी अँकवारमें भर लिया। यशोदाजीने उन लोगोंके साथ मित्रताका जो व्यवहार किया था, उसका स्मरण करके दोनोंका गला भर आया। वे यशोदाजीसे कहने लगीं—॥ ३७॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

मैत्रीति पक्ष उपलक्ष्यते ॥ ३७-३९ ॥

श्लोक-३८

विश्वास-प्रस्तुतिः

का विस्मरेत वां मैत्रीमनिवृत्तां व्रजेश्वरि।
अवाप्याप्यैन्द्रमैश्वर्यं यस्या नेह प्रतिक्रिया॥

मूलम्

का विस्मरेत वां मैत्रीमनिवृत्तां व्रजेश्वरि।
अवाप्याप्यैन्द्रमैश्वर्यं यस्या नेह प्रतिक्रिया॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘यशोदारानी! आपने और व्रजेश्वर नन्दजीने हमलोगोंके साथ जो मित्रताका व्यवहार किया है, वह कभी मिटनेवाला नहीं है, उसका बदला इन्द्रका ऐश्वर्य पाकर भी हम किसी प्रकार नहीं चुका सकतीं। नन्दरानीजी! भला ऐसा कौन कृतघ्न है, जो आपके उस उपकारको भूल सके?॥ ३८॥

श्लोक-३९

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतावदृष्टपितरौ युवयोः स्म पित्रोः
सम्प्रीणनाभ्युदयपोषणपालनानि।
प्राप्योषतुर्भवति पक्ष्म ह यद्वदक्ष्णो-
र्न्यस्तावकुत्र च भयौ न सतां परः स्वः॥

मूलम्

एतावदृष्टपितरौ युवयोः स्म पित्रोः
सम्प्रीणनाभ्युदयपोषणपालनानि।
प्राप्योषतुर्भवति पक्ष्म ह यद्वदक्ष्णो-
र्न्यस्तावकुत्र च भयौ न सतां परः स्वः॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवि! जिस समय बलराम और श्रीकृष्णने अपने मा-बापको देखातक न था और इनके पिताने धरोहरके रूपमें इन्हें आप दोनोंके पास रख छोड़ा था, उस समय आपने इन दोनोंकी इस प्रकार रक्षा की, जैसे पलकें पुतलियोंकी रक्षा करती हैं। तथा आपलोगोंने ही इन्हें खिलाया-पिलाया, दुलार किया और रिझाया; इनके मंगलके लिये अनेकों प्रकारके उत्सव मनाये। सच पूछिये, तो इनके मा-बाप आप ही लोग हैं। आपलोगोंकी देख-रेखमें इन्हें किसीकी आँचतक न लगी, ये सर्वथा निर्भय रहे, ऐसा करना आपलोगोंके अनुरूप ही था। क्योंकि सत्पुरुषोंकी दृष्टिमें अपने-परायेका भेद-भाव नहीं रहता। नन्दरानीजी! सचमुच आपलोग परम संत हैं॥ ३९॥

श्लोक-४०

मूलम् (वचनम्)

श्रीशुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

गोप्यश्च कृष्णमुपलभ्य चिरादभीष्टं
यत्प्रेक्षणे दृशिषु पक्ष्मकृतं शपन्ति।
दृग्भिर्हृदीकृतमलं परिरभ्य सर्वा-
स्तद‍्भावमापुरपि नित्ययुजां दुरापम्॥

मूलम्

गोप्यश्च कृष्णमुपलभ्य चिरादभीष्टं
यत्प्रेक्षणे दृशिषु पक्ष्मकृतं शपन्ति।
दृग्भिर्हृदीकृतमलं परिरभ्य सर्वा-
स्तद‍्भावमापुरपि नित्ययुजां दुरापम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! मैं कह चुका हूँ कि गोपियोंके परम प्रियतम, जीवनसर्वस्व श्रीकृष्ण ही थे। जब उनके दर्शनके समय नेत्रोंकी पलकें गिर पड़तीं, तब वे पलकोंको बनानेवालेको ही कोसने लगतीं। उन्हीं प्रेमकी मूर्ति गोपियोंको आज बहुत दिनोंके बाद भगवान् श्रीकृष्णका दर्शन हुआ। उनके मनमें इसके लिये कितनी लालसा थी, इसका अनुमान भी नहीं किया जा सकता। उन्होंने नेत्रोंके रास्ते अपने प्रियतम श्रीकृष्णको हृदयमें ले जाकर गाढ़ आलिंगन किया और मन-ही-मन आलिंगन करते-करते तन्मय हो गयीं। परीक्षित्! कहाँतक कहूँ, वे उस भावको प्राप्त हो गयीं, जो नित्य-निरन्तर अभ्यास करनेवाले योगियोंके लिये भी अत्यन्त दुर्लभ है॥ ४०॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

अक्ष्णोः पक्ष्म यथा रक्षकं तद्वद्युवामित्यर्थः । पक्ष्मकृतं पक्ष्मकर्तारं ब्रह्माणं हृदि नित्ययुजां नित्ययुञ्जानानां योगिनाम् ॥४०-४२॥

श्लोक-४१

विश्वास-प्रस्तुतिः

भगवांस्तास्तथाभूता विविक्त उपसङ्गतः।
आश्लिष्यानामयं पृष्ट्वा प्रहसन्निदमब्रवीत्॥

मूलम्

भगवांस्तास्तथाभूता विविक्त उपसङ्गतः।
आश्लिष्यानामयं पृष्ट्वा प्रहसन्निदमब्रवीत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब भगवान् श्रीकृष्णने देखा कि गोपियाँ मुझसे तादात्म्यको प्राप्त—एक हो रही हैं, तब वे एकान्तमें उनके पास गये, उनको हृदयसे लगाया, कुशल-मंगल पूछा और हँसते हुए यों बोले—॥ ४१॥

श्लोक-४२

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपि स्मरथ नः सख्यः स्वानामर्थचिकीर्षया।
गतांश्चिरायिताञ्छत्रुपक्षक्षपणचेतसः॥

मूलम्

अपि स्मरथ नः सख्यः स्वानामर्थचिकीर्षया।
गतांश्चिरायिताञ्छत्रुपक्षक्षपणचेतसः॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सखियो! हमलोग अपने स्वजन-सम्बन्धियोंका काम करनेके लिये व्रजसे बाहर चले आये और इस प्रकार तुम्हारी-जैसी प्रेयसियोंको छोड़कर हम शत्रुओंका विनाश करनेमें उलझ गये। बहुत दिन बीत गये, क्या कभी तुमलोग हमारा स्मरण भी करती हो?॥ ४२॥

श्लोक-४३

विश्वास-प्रस्तुतिः

अप्यवध्यायथास्मान् स्विदकृतज्ञाविशङ्कया।
नूनं भूतानि भगवान् युनक्ति वियुनक्ति च॥

मूलम्

अप्यवध्यायथास्मान् स्विदकृतज्ञाविशङ्कया।
नूनं भूतानि भगवान् युनक्ति वियुनक्ति च॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरी प्यारी गोपियो! कहीं तुमलोगोंके मनमें यह आशंका तो नहीं हो गयी है कि मैं अकृतज्ञ हूँ और ऐसा समझकर तुमलोग हमसे बुरा तो नहीं मानने लगी हो? निस्सन्देह भगवान् ही प्राणियोंके संयोग और वियोगके कारण हैं॥ ४३॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

अवध्यायथ अवध्यानं प्रीत्या चिन्तनम् ॥४३-४५॥

श्लोक-४४

विश्वास-प्रस्तुतिः

वायुर्यथा घनानीकं तृणं तूलं रजांसि च।
संयोज्याक्षिपते भूयस्तथा भूतानि भूतकृत्॥

मूलम्

वायुर्यथा घनानीकं तृणं तूलं रजांसि च।
संयोज्याक्षिपते भूयस्तथा भूतानि भूतकृत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे वायु बादलों, तिनकों, रूई और धूलके कणोंको एक-दूसरेसे मिला देती है और फिर स्वच्छन्दरूपसे उन्हें अलग-अलग कर देती है, वैसे ही समस्त पदार्थोंके निर्माता भगवान् भी सबका संयोग-वियोग अपनी इच्छानुसार करते रहते हैं॥ ४४॥

श्लोक-४५

विश्वास-प्रस्तुतिः

मयि भक्तिर्हि भूतानाममृतत्वाय कल्पते।
दिष्ट्या यदासीन्मत्स्नेहो भवतीनां मदापनः॥

मूलम्

मयि भक्तिर्हि भूतानाममृतत्वाय कल्पते।
दिष्ट्या यदासीन्मत्स्नेहो भवतीनां मदापनः॥

अनुवाद (हिन्दी)

सखियो! यह बड़े सौभाग्यकी बात है कि तुम सब लोगोंको मेरा वह प्रेम प्राप्त हो चुका है, जो मेरी ही प्राप्ति करानेवाला है। क्योंकि मेरे प्रति की हुई प्रेम-भक्ति प्राणियोंको अमृतत्व (परमानन्द-धाम) प्रदान करनेमें समर्थ है॥ ४५॥

श्लोक-४६

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहं हि सर्वभूतानामादिरन्तोऽन्तरं बहिः।
भौतिकानां यथा खं वार्भूर्वायुर्ज्योतिरङ्गनाः॥

मूलम्

अहं हि सर्वभूतानामादिरन्तोऽन्तरं बहिः।
भौतिकानां यथा खं वार्भूर्वायुर्ज्योतिरङ्गनाः॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्यारी गोपियो! जैसे घट, पट आदि जितने भी भौतिक पदार्थ हैं, उनके आदि, अन्त और मध्यमें, बाहर और भीतर, उनके मूल कारण पृथ्वी, जल, वायु , अग्नि तथा आकाश ही ओतप्रोत हो रहे हैं, वैसे ही जितने भी पदार्थ हैं, उनके पहले, पीछे, बीचमें, बाहर और भीतर केवल मैं-ही-मैं हूँ॥ ४६॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

उत्पत्तिकारणत्वे अन्तर्बहिः सद्भावे च दृष्टान्तमाह- यथा खमित्यादिना । यद्वा एवं पृथिव्यादिभूतानि देवादिशरीररूप कार्याणि एवंविधहेतुमन्तीत्यर्थः ॥४६॥

श्लोक-४७

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं ह्येतानि भूतानि भूतेष्वात्माऽऽत्मना ततः।
उभयं मय्यथ परे पश्यताभातमक्षरे॥

मूलम्

एवं ह्येतानि भूतानि भूतेष्वात्माऽऽत्मना ततः।
उभयं मय्यथ परे पश्यताभातमक्षरे॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी प्रकार सभी प्राणियोंके शरीरमें यही पाँचों भूत कारणरूपसे स्थित हैं और आत्मा भोक्ताके रूपसे अथवा जीवके रूपसे स्थित है। परन्तु मैं इन दोनोंसे परे अविनाशी सत्य हूँ। ये दोनों मेरे ही अंदर प्रतीत हो रहे हैं, तुमलोग ऐसा अनुभव करो॥ ४७॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

भूतेष्वात्मा जीवात्मा आत्मना मया कृतशरीरसंसृष्टाकृतिरित्यर्थः ॥ ४७-४८॥

श्लोक-४८

मूलम् (वचनम्)

श्रीशुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अध्यात्मशिक्षया गोप्य एवं कृष्णेन शिक्षिताः।
तदनुस्मरणध्वस्तजीवकोशास्तमध्यगन्॥

मूलम्

अध्यात्मशिक्षया गोप्य एवं कृष्णेन शिक्षिताः।
तदनुस्मरणध्वस्तजीवकोशास्तमध्यगन्॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्णने इस प्रकार गोपियोंको अध्यात्मज्ञानकी शिक्षासे शिक्षित किया। उसी उपदेशके बार-बार स्मरणसे गोपियोंका जीवकोश—लिंगशरीर नष्ट हो गया और वे भगवान‍्से एक हो गयीं, भगवान‍्को ही सदा-सर्वदाके लिये प्राप्त हो गयीं॥ ४८॥

श्लोक-४९

विश्वास-प्रस्तुतिः

आहुश्च ते नलिननाभ पदारविन्दं
योगेश्वरैर्हृदि विचिन्त्यमगाधबोधैः।
संसारकूपपतितोत्तरणावलम्बं
गेहञ्जुषामपि मनस्युदियात् सदा नः॥

मूलम्

आहुश्च ते नलिननाभ पदारविन्दं
योगेश्वरैर्हृदि विचिन्त्यमगाधबोधैः।
संसारकूपपतितोत्तरणावलम्बं
गेहञ्जुषामपि मनस्युदियात् सदा नः॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने कहा—‘हे कमलनाभ! अगाधबोध-सम्पन्न बड़े-बड़े योगेश्वर अपने हृदयकमलमें आपके चरणकमलोंका चिन्तन करते रहते हैं। जो लोग संसारके कूएँमें गिरे हुए हैं, उन्हें उससे निकलनेके लिये आपके चरणकमल ही एकमात्र अवलम्बन हैं। प्रभो! आप ऐसी कृपा कीजिये कि आपका वह चरणकमल, घर-गृहस्थके काम करते रहनेपर भी सदा-सर्वदा हमारे हृदयमें विराजमान रहे, हम एक क्षणके लिये भी उसे न भूलें॥ ४९॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

गेहञ्जुषां गृहस्थानामैश्वर्यपराणामित्यर्थः ॥४९॥

॥ इति श्रीमद्भागवतव्याख्याने दशमस्कन्धे श्रीसुदर्शनसूरिकृतशुकपक्षीये द्वयशीतितमोऽध्यायः ॥८२॥

अनुवाद (समाप्ति)

इति श्रीमद‍्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे उत्तरार्धे वृष्णिगोपसङ्गमो नाम द्व्यशीतितमोऽध्यायः॥ ८२॥