८१ पृथुकोपाख्यानम्

[एकाशीतितमोऽध्यायः]

भागसूचना

सुदामाजीको ऐश्वर्यकी प्राप्ति

श्लोक-१

मूलम् (वचनम्)

श्रीशुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

स इत्थं द्विजमुख्येन सह सङ्कथयन् हरिः।
सर्वभूतमनोऽभिज्ञः स्मयमान उवाच तम्॥

मूलम्

स इत्थं द्विजमुख्येन सह सङ्कथयन् हरिः।
सर्वभूतमनोऽभिज्ञः स्मयमान उवाच तम्॥

श्लोक-२

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रह्मण्यो ब्राह्मणं कृष्णो भगवान् प्रहसन् प्रियम्।
प्रेम्णा निरीक्षणेनैव प्रेक्षन् खलु सतां गतिः॥

मूलम्

ब्रह्मण्यो ब्राह्मणं कृष्णो भगवान् प्रहसन् प्रियम्।
प्रेम्णा निरीक्षणेनैव प्रेक्षन् खलु सतां गतिः॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—प्रिय परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्ण सबके मनकी बात जानते हैं। वे ब्राह्मणोंके परम भक्त, उनके क्लेशोंके नाशक तथा संतोंके एकमात्र आश्रय हैं। वे पूर्वोक्त प्रकारसे उन ब्राह्मणदेवताके साथ बहुत देरतक बातचीत करते रहे। अब वे अपने प्यारे सखा उन ब्राह्मणसे तनिक मुसकराकर विनोद करते हुए बोले। उस समय भगवान् श्रीकृष्ण उन ब्राह्मण-देवताकी ओर प्रेमभरी दृष्टिसे देख रहे थे॥ १-२॥

श्लोक-३

मूलम् (वचनम्)

श्रीभगवानुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

किमुपायनमानीतं ब्रह्मन् मे भवता गृहात्।
अण्वप्युपाहृतं भक्तैः प्रेम्णा भूर्येव मे भवेत्।
भूर्यप्यभक्तोपहृतं न मे तोषाय कल्पते॥

मूलम्

किमुपायनमानीतं ब्रह्मन् मे भवता गृहात्।
अण्वप्युपाहृतं भक्तैः प्रेम्णा भूर्येव मे भवेत्।
भूर्यप्यभक्तोपहृतं न मे तोषाय कल्पते॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् श्रीकृष्णने कहा—‘ब्रह्मन्! आप अपने घरसे मेरे लिये क्या उपहार लाये हैं? मेरे प्रेमी भक्त जब प्रेमसे थोड़ी-सी वस्तु भी मुझे अर्पण करते हैं तो वह मेरे लिये बहुत हो जाती है। परन्तु मेरे अभक्त यदि बहुत-सी सामग्री भी मुझे भेंट करते हैं तो उससे मैं सन्तुष्ट नहीं होता॥ ३॥

श्लोक-४

विश्वास-प्रस्तुतिः

पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः॥

मूलम्

पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो पुरुष प्रेम-भक्तिसे फल-फूल अथवा पत्ता-पानीमेंसे कोई भी वस्तु मुझे समर्पित करता है, तो मैं उस शुद्धचित्त भक्तका वह प्रेमोपहार केवल स्वीकार ही नहीं करता, बल्कि तुरंत भोग लगा लेता हूँ’॥ ४॥

श्लोक-५

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्तोऽपि द्विजस्तस्मै व्रीडितः पतये श्रियः।
पृथुकप्रसृतिं राजन् न प्रायच्छदवाङ्मुखः॥

मूलम्

इत्युक्तोऽपि द्विजस्तस्मै व्रीडितः पतये श्रियः।
पृथुकप्रसृतिं राजन् न प्रायच्छदवाङ्मुखः॥

श्लोक-६

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वभूतात्मदृक् साक्षात् तस्यागमनकारणम्।
विज्ञायाचिन्तयन्नायं श्रीकामो माभजत्पुरा॥

मूलम्

सर्वभूतात्मदृक् साक्षात् तस्यागमनकारणम्।
विज्ञायाचिन्तयन्नायं श्रीकामो माभजत्पुरा॥

श्लोक-७

विश्वास-प्रस्तुतिः

पत्न्याः पतिव्रतायास्तु सखा प्रियचिकीर्षया।
प्राप्तो मामस्य दास्यामि सम्पदोऽमर्त्यदुर्लभाः॥

मूलम्

पत्न्याः पतिव्रतायास्तु सखा प्रियचिकीर्षया।
प्राप्तो मामस्य दास्यामि सम्पदोऽमर्त्यदुर्लभाः॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्णके ऐसा कहनेपर भी उन ब्राह्मणदेवताने लज्जावश उन लक्ष्मीपतिको वे चार मुट्ठी चिउड़े नहीं दिये। उन्होंने संकोचसे अपना मुँह नीचे कर लिया था। परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्ण समस्त प्राणियोंके हृदयका एक-एक संकल्प और उनका अभाव भी जानते हैं। उन्होंने ब्राह्मणके आनेका कारण, उनके हृदयकी बात जान ली। अब वे विचार करने लगे कि ‘एक तो यह मेरा प्यारा सखा है, दूसरे इसने पहले कभी लक्ष्मीकी कामनासे मेरा भजन नहीं किया है। इस समय यह अपनी पतिव्रता पत्नीको प्रसन्न करनेके लिये उसीके आग्रहसे यहाँ आया है। अब मैं इसे ऐसी सम्पत्ति दूँगा, जो देवताओंके लिये भी अत्यन्त दुर्लभ है’॥ ५—७॥

श्लोक-८

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्थं विचिन्त्य वसनाच्चीरबद्धान्द्विजन्मनः।
स्वयं जहार किमिदमिति पृथुकतण्डुलान्॥

मूलम्

इत्थं विचिन्त्य वसनाच्चीरबद्धान्द्विजन्मनः।
स्वयं जहार किमिदमिति पृथुकतण्डुलान्॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् श्रीकृष्णने ऐसा विचार करके उनके वस्त्रमेंसे चिथड़ेकी एक पोटलीमें बँधा हुआ चिउड़ा ‘यह क्या है’—ऐसा कहकर स्वयं ही छीन लिया॥ ८॥

श्लोक-९

विश्वास-प्रस्तुतिः

नन्वेतदुपनीतं मे परमप्रीणनं सखे।
तर्पयन्त्यङ्ग मां विश्वमेते पृथुकतण्डुलाः॥

मूलम्

नन्वेतदुपनीतं मे परमप्रीणनं सखे।
तर्पयन्त्यङ्ग मां विश्वमेते पृथुकतण्डुलाः॥

अनुवाद (हिन्दी)

और बड़े आदरसे कहने लगे—‘प्यारे मित्र! यह तो तुम मेरे लिये अत्यन्त प्रिय भेंट ले आये हो। ये चिउड़े न केवल मुझे, बल्कि सारे संसारको तृप्त करनेके लिये पर्याप्त हैं’॥ ९॥

श्लोक-१०

विश्वास-प्रस्तुतिः

इति मुष्टिं सकृज्जग्ध्वा द्वितीयां जग्धुमाददे।
तावच्छ्रीर्जगृहे हस्तं तत्परा परमेष्ठिनः॥

मूलम्

इति मुष्टिं सकृज्जग्ध्वा द्वितीयां जग्धुमाददे।
तावच्छ्रीर्जगृहे हस्तं तत्परा परमेष्ठिनः॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसा कहकर वे उसमेंसे एक मुट्ठी चिउड़ा खा गये और दूसरी मुट्ठी ज्यों ही भरी, त्यों ही रुक्मिणीके रूपमें स्वयं भगवती लक्ष्मीजीने भगवान् श्रीकृष्णका हाथ पकड़ लिया! क्योंकि वे तो एकमात्र भगवान‍्के परायण हैं, उन्हें छोड़कर और कहीं जा नहीं सकतीं॥ १०॥

श्लोक-११

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतावतालं विश्वात्मन् सर्वसम्पत्समृद्धये।
अस्मिँल्‍लोकेऽथवामुष्मिन् पुंसस्त्वत्तोषकारणम्॥

मूलम्

एतावतालं विश्वात्मन् सर्वसम्पत्समृद्धये।
अस्मिँल्‍लोकेऽथवामुष्मिन् पुंसस्त्वत्तोषकारणम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

रुक्मिणीजीने कहा—‘विश्वात्मन्! बस, बस। मनुष्यको इस लोकमें तथा मरनेके बाद परलोकमें भी समस्त सम्पत्तियोंकी समृद्धि प्राप्त करनेके लिये यह एक मुट्ठी चिउड़ा ही बहुत है; क्योंकि आपके लिये इतना ही प्रसन्नताका हेतु बन जाता है’॥ ११॥

श्लोक-१२

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्राह्मणस्तां तु रजनीमुषित्वाच्युतमन्दिरे।
भुक्त्वा पीत्वा सुखं मेने आत्मानं स्वर्गतं यथा॥

मूलम्

ब्राह्मणस्तां तु रजनीमुषित्वाच्युतमन्दिरे।
भुक्त्वा पीत्वा सुखं मेने आत्मानं स्वर्गतं यथा॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! ब्राह्मणदेवता उस रातको भगवान् श्रीकृष्णके महलमें ही रहे। उन्होंने बड़े आरामसे वहाँ खाया-पिया और ऐसा अनुभव किया, मानो मैं वैकुण्ठमें ही पहुँच गया हूँ॥ १२॥

श्लोक-१३

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्वोभूते विश्वभावेन स्वसुखेनाभिवन्दितः।
जगाम स्वालयं तात पथ्यनुव्रज्य नन्दितः॥

मूलम्

श्वोभूते विश्वभावेन स्वसुखेनाभिवन्दितः।
जगाम स्वालयं तात पथ्यनुव्रज्य नन्दितः॥

श्लोक-१४

विश्वास-प्रस्तुतिः

स चालब्ध्वा धनं कृष्णान्न तु याचितवान् स्वयम्।
स्वगृहान् व्रीडितोऽगच्छन्महद्दर्शननिर्वृतः॥

मूलम्

स चालब्ध्वा धनं कृष्णान्न तु याचितवान् स्वयम्।
स्वगृहान् व्रीडितोऽगच्छन्महद्दर्शननिर्वृतः॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! श्रीकृष्णसे ब्राह्मणको प्रत्यक्षरूपमें कुछ भी न मिला। फिर भी उन्होंने उनसे कुछ माँगा नहीं! वे अपने चित्तकी करतूतपर कुछ लज्जित-से होकर भगवान् श्रीकृष्णके दर्शनजनित आनन्दमें डूबते-उतराते अपने घरकी ओर चल पड़े॥ १३-१४॥

श्लोक-१५

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहो ब्रह्मण्यदेवस्य दृष्टा ब्रह्मण्यता मया।
यद् दरिद्रतमो लक्ष्मीमाश्लिष्टो बिभ्रतोरसि॥

मूलम्

अहो ब्रह्मण्यदेवस्य दृष्टा ब्रह्मण्यता मया।
यद् दरिद्रतमो लक्ष्मीमाश्लिष्टो बिभ्रतोरसि॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे मन-ही-मन सोचने लगे—‘अहो, कितने आनन्द और आश्चर्यकी बात है! ब्राह्मणोंको अपना इष्टदेव माननेवाले भगवान् श्रीकृष्णकी ब्राह्मणभक्ति आज मैंने अपनी आँखों देख ली। धन्य है! जिनके वक्षःस्थलपर स्वयं लक्ष्मीजी सदा विराजमान रहती हैं, उन्होंने मुझ अत्यन्त दरिद्रको अपने हृदयसे लगा लिया॥ १५॥

श्लोक-१६

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्वाहं दरिद्रः पापीयान् क्व कृष्णः श्रीनिकेतनः।
ब्रह्मबन्धुरिति स्माहं बाहुभ्यां परिरम्भितः॥

मूलम्

क्वाहं दरिद्रः पापीयान् क्व कृष्णः श्रीनिकेतनः।
ब्रह्मबन्धुरिति स्माहं बाहुभ्यां परिरम्भितः॥

अनुवाद (हिन्दी)

कहाँ तो मैं अत्यन्त पापी और दरिद्र, और कहाँ लक्ष्मीके एकमात्र आश्रय भगवान् श्रीकृष्ण! परन्तु उन्होंने ‘यह ब्राह्मण है’—ऐसा समझकर मुझे अपनी भुजाओंमें भरकर हृदयसे लगा लिया॥ १६॥

श्लोक-१७

विश्वास-प्रस्तुतिः

निवासितः प्रियाजुष्टे पर्यङ्के भ्रातरो यथा।
महिष्या वीजितः श्रान्तो वालव्यजनहस्तया॥

मूलम्

निवासितः प्रियाजुष्टे पर्यङ्के भ्रातरो यथा।
महिष्या वीजितः श्रान्तो वालव्यजनहस्तया॥

अनुवाद (हिन्दी)

इतना ही नहीं, उन्होंने मुझे उस पलंगपर सुलाया, जिसपर उनकी प्राणप्रिया रुक्मिणीजी शयन करती हैं। मानो मैं उनका सगा भाई हूँ! कहाँतक कहूँ? मैं थका हुआ था, इसलिये स्वयं उनकी पटरानी रुक्मिणीजीने अपने हाथों चँवर डुलाकर मेरी सेवा की॥ १७॥

श्लोक-१८

विश्वास-प्रस्तुतिः

शुश्रूषया परमया पादसंवाहनादिभिः।
पूजितो देवदेवेन विप्रदेवेन देववत्॥

मूलम्

शुश्रूषया परमया पादसंवाहनादिभिः।
पूजितो देवदेवेन विप्रदेवेन देववत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

ओह, देवताओंके आराध्यदेव होकर भी ब्राह्मणोंको अपना इष्टदेव माननेवाले प्रभुने पाँव दबाकर, अपने हाथों खिला-पिलाकर मेरी अत्यन्त सेवा-शुश्रूषा की और देवताके समान मेरी पूजा की॥ १८॥

श्लोक-१९

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वर्गापवर्गयोः पुंसां रसायां भुवि सम्पदाम्।
सर्वासामपि सिद्धीनां मूलं तच्चरणार्चनम्॥

मूलम्

स्वर्गापवर्गयोः पुंसां रसायां भुवि सम्पदाम्।
सर्वासामपि सिद्धीनां मूलं तच्चरणार्चनम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

स्वर्ग, मोक्ष, पृथ्वी और रसातलकी सम्पत्ति तथा समस्त योगसिद्धियोंकी प्राप्तिका मूल उनके चरणोंकी पूजा ही है॥ १९॥

श्लोक-२०

विश्वास-प्रस्तुतिः

अधनोऽयं धनं प्राप्य माद्यन्नुच्चैर्न मां स्मरेत्।
इति कारुणिको नूनं धनं मेऽभूरि नाददात्॥

मूलम्

अधनोऽयं धनं प्राप्य माद्यन्नुच्चैर्न मां स्मरेत्।
इति कारुणिको नूनं धनं मेऽभूरि नाददात्॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर भी परमदयालु श्रीकृष्णने यह सोचकर मुझे थोड़ा-सा भी धन नहीं दिया कि कहीं यह दरिद्र धन पाकर बिलकुल मतवाला न हो जाय और मुझे न भूल बैठे’॥ २०॥

श्लोक-२१

विश्वास-प्रस्तुतिः

इति तच्चिन्तयन्नन्तः प्राप्तो निजगृहान्तिकम्।
सूर्यानलेन्दुसङ्काशैर्विमानैः सर्वतो वृतम्॥

मूलम्

इति तच्चिन्तयन्नन्तः प्राप्तो निजगृहान्तिकम्।
सूर्यानलेन्दुसङ्काशैर्विमानैः सर्वतो वृतम्॥

श्लोक-२२

विश्वास-प्रस्तुतिः

विचित्रोपवनोद्यानैः कूजद्‍‍द्विजकुलाकुलैः।
प्रोत्फुल्लकुमुदाम्भोजकह्लारोत्पलवारिभिः॥

मूलम्

विचित्रोपवनोद्यानैः कूजद्‍‍द्विजकुलाकुलैः।
प्रोत्फुल्लकुमुदाम्भोजकह्लारोत्पलवारिभिः॥

श्लोक-२३

विश्वास-प्रस्तुतिः

जुष्टं स्वलङ्कृतैः पुम्भिः स्त्रीभिश्च हरिणाक्षिभिः।
किमिदं कस्य वा स्थानं कथं तदिदमित्यभूत्॥

मूलम्

जुष्टं स्वलङ्कृतैः पुम्भिः स्त्रीभिश्च हरिणाक्षिभिः।
किमिदं कस्य वा स्थानं कथं तदिदमित्यभूत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार मन-ही-मन विचार करते-करते ब्राह्मणदेवता अपने घरके पास पहुँच गये। वे वहाँ क्या देखते हैं कि सब-का-सब स्थान सूर्य, अग्नि और चन्द्रमाके समान तेजस्वी रत्ननिर्मित महलोंसे घिरा हुआ है। ठौर-ठौर चित्र-विचित्र उपवन और उद्यान बने हुए हैं तथा उनमें झुंड-के-झुंड रंग-बिरंगे पक्षी कलरव कर रहे हैं। सरोवरोंमें कुमुदिनी तथा श्वेत, नील और सौगन्धिक—भाँति-भाँतिके कमल खिले हुए हैं; सुन्दर-सुन्दर स्त्री-पुरुष बन-ठनकर इधर-उधर विचर रहे हैं। उस स्थानको देखकर ब्राह्मणदेवता सोचने लगे—‘मैं यह क्या देख रहा हूँ? यह किसका स्थान है? यदि यह वही स्थान है, जहाँ मैं रहता था तो यह ऐसा कैसे हो गया’॥ २१—२३॥

श्लोक-२४

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं मीमांसमानं तं नरा नार्योऽमरप्रभाः।
प्रत्यगृह्णन् महाभागं गीतवाद्येन भूयसा॥

मूलम्

एवं मीमांसमानं तं नरा नार्योऽमरप्रभाः।
प्रत्यगृह्णन् महाभागं गीतवाद्येन भूयसा॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार वे सोच ही रहे थे कि देवताओंके समान सुन्दर-सुन्दर स्त्री-पुरुष गाजे-बाजेके साथ मंगलगीत गाते हुए उस महाभाग्यवान् ब्राह्मणकी अगवानी करनेके लिये आये॥ २४॥

श्लोक-२५

विश्वास-प्रस्तुतिः

पतिमागतमाकर्ण्य पत्न्युद्धर्षातिसम्भ्रमा।
निश्चक्राम गृहात्तूर्णं रूपिणी श्रीरिवालयात्॥

मूलम्

पतिमागतमाकर्ण्य पत्न्युद्धर्षातिसम्भ्रमा।
निश्चक्राम गृहात्तूर्णं रूपिणी श्रीरिवालयात्॥

अनुवाद (हिन्दी)

पतिदेवका शुभागमन सुनकर ब्राह्मणीको अपार आनन्द हुआ और वह हड़बड़ाकर जल्दी-जल्दी घरसे निकल आयी, वह ऐसी मालूम होती थी मानो मूर्तिमती लक्ष्मीजी ही कमलवनसे पधारी हों॥ २५॥

श्लोक-२६

विश्वास-प्रस्तुतिः

पतिव्रता पतिं दृष्ट्वा प्रेमोत्कण्ठाश्रुलोचना।
मीलिताक्ष्यनमद् बुद्ध्या मनसा परिषस्वजे॥

मूलम्

पतिव्रता पतिं दृष्ट्वा प्रेमोत्कण्ठाश्रुलोचना।
मीलिताक्ष्यनमद् बुद्ध्या मनसा परिषस्वजे॥

अनुवाद (हिन्दी)

पतिदेवको देखते ही पतिव्रता पत्नीके नेत्रोंमें प्रेम और उत्कण्ठाके आवेगसे आँसू छलक आये। उसने अपने नेत्र बंद कर लिये। ब्राह्मणीने बड़े प्रेमभावसे उन्हें नमस्कार किया और मन-ही-मन आलिंगन भी॥ २६॥

श्लोक-२७

विश्वास-प्रस्तुतिः

पत्नीं वीक्ष्य विस्फुरन्तीं देवीं वैमानिकीमिव।
दासीनां निष्ककण्ठीनां मध्ये भान्तीं स विस्मितः॥

मूलम्

पत्नीं वीक्ष्य विस्फुरन्तीं देवीं वैमानिकीमिव।
दासीनां निष्ककण्ठीनां मध्ये भान्तीं स विस्मितः॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रिय परीक्षित्! ब्राह्मणपत्नी सोनेका हार पहनी हुई दासियोंके बीचमें विमानस्थित देवांगनाके समान अत्यन्त शोभायमान एवं देदीप्यमान हो रही थी। उसे इस रूपमें देखकर वे विस्मित हो गये॥ २७॥

श्लोक-२८

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रीतः स्वयं तया युक्तः प्रविष्टो निजमन्दिरम्।
मणिस्तम्भशतोपेतं महेन्द्रभवनं यथा॥

मूलम्

प्रीतः स्वयं तया युक्तः प्रविष्टो निजमन्दिरम्।
मणिस्तम्भशतोपेतं महेन्द्रभवनं यथा॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने अपनी पत्नीके साथ बड़े प्रेमसे अपने महलमें प्रवेश किया। उनका महल क्या था, मानो देवराज इन्द्रका निवासस्थान। इसमें मणियोंके सैकड़ों खंभे खड़े थे॥ २८॥

श्लोक-२९

विश्वास-प्रस्तुतिः

पयःफेननिभाः शय्या दान्ता रुक्मपरिच्छदाः।
पर्यङ्का हेमदण्डानि चामरव्यजनानि च॥

मूलम्

पयःफेननिभाः शय्या दान्ता रुक्मपरिच्छदाः।
पर्यङ्का हेमदण्डानि चामरव्यजनानि च॥

अनुवाद (हिन्दी)

हाथीके दाँतके बने हुए और सोनेके पातसे मँढ़े हुए पलंगोंपर दूधके फेनकी तरह श्वेत और कोमल बिछौने बिछ रहे थे। बहुत-से चँवर वहाँ रखे हुए थे, जिनमें सोनेकी डंडियाँ लगी हुई थीं॥ २९॥

श्लोक-३०

विश्वास-प्रस्तुतिः

आसनानि च हैमानि मृदूपस्तरणानि च।
मुक्तादामविलम्बीनि वितानानि द्युमन्ति च॥

मूलम्

आसनानि च हैमानि मृदूपस्तरणानि च।
मुक्तादामविलम्बीनि वितानानि द्युमन्ति च॥

अनुवाद (हिन्दी)

सोनेके सिंहासन शोभायमान हो रहे थे, जिनपर बड़ी कोमल-कोमल गद्दियाँ लगी हुई थीं! ऐसे चँदोवे भी झिलमिला रहे थे जिनमें मोतियोंकी लड़ियाँ लटक रही थीं॥ ३०॥

श्लोक-३१

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वच्छस्फटिककुड्येषु महामारकतेषु च।
रत्नदीपा भ्राजमाना ललनारत्नसंयुताः॥

मूलम्

स्वच्छस्फटिककुड्येषु महामारकतेषु च।
रत्नदीपा भ्राजमाना ललनारत्नसंयुताः॥

अनुवाद (हिन्दी)

स्फटिकमणिकी स्वच्छ भीतोंपर पन्नेकी पच्चीकारी की हुई थी। रत्ननिर्मित स्त्रीमूर्तियोंके हाथोंमें रत्नोंके दीपक जगमगा रहे थे॥ ३१॥

श्लोक-३२

विश्वास-प्रस्तुतिः

विलोक्य ब्राह्मणस्तत्र समृद्धीः सर्वसम्पदाम्।
तर्कयामास निर्व्यग्रः स्वसमृद्धिमहैतुकीम्॥

मूलम्

विलोक्य ब्राह्मणस्तत्र समृद्धीः सर्वसम्पदाम्।
तर्कयामास निर्व्यग्रः स्वसमृद्धिमहैतुकीम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार समस्त सम्पत्तियोंकी समृद्धि देखकर और उसका कोई प्रत्यक्ष कारण न पाकर, बड़ी गम्भीरतासे ब्राह्मणदेवता विचार करने लगे कि मेरे पास इतनी सम्पत्ति कहाँसे आ गयी॥ ३२॥

श्लोक-३३

विश्वास-प्रस्तुतिः

नूनं बतैतन्मम दुर्भगस्य
शश्वद्दरिद्रस्य समृद्धिहेतुः।
महाविभूतेरवलोकतोऽन्यो
नैवोपपद्येत यदूत्तमस्य॥

मूलम्

नूनं बतैतन्मम दुर्भगस्य
शश्वद्दरिद्रस्य समृद्धिहेतुः।
महाविभूतेरवलोकतोऽन्यो
नैवोपपद्येत यदूत्तमस्य॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे मन-ही-मन कहने लगे—‘मैं जन्मसे ही भाग्यहीन और दरिद्र हूँ। फिर मेरी इस सम्पत्ति-समृद्धिका कारण क्या है? अवश्य ही परमैश्वर्यशाली यदुवंशशिरोमणि भगवान् श्रीकृष्णके कृपाकटाक्षके अतिरिक्त और कोई कारण नहीं हो सकता॥ ३३॥

श्लोक-३४

विश्वास-प्रस्तुतिः

नन्वब्रुवाणो दिशते समक्षं
याचिष्णवे भूर्यपि भूरिभोजः।
पर्जन्यवत्तत् स्वयमीक्षमाणो
दाशार्हकाणामृषभः सखा मे॥

मूलम्

नन्वब्रुवाणो दिशते समक्षं
याचिष्णवे भूर्यपि भूरिभोजः।
पर्जन्यवत्तत् स्वयमीक्षमाणो
दाशार्हकाणामृषभः सखा मे॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह सब कुछ उनकी करुणाकी ही देन है। स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण पूर्णकाम और लक्ष्मीपति होनेके कारण अनन्त भोग-सामग्रियोंसे युक्त हैं। इसलिये वे याचक भक्तको उसके मनका भाव जानकर बहुत कुछ दे देते हैं, परन्तु उसे समझते हैं बहुत थोड़ा; इसलिये सामने कुछ कहते नहीं। मेरे यदुवंशशिरोमणि सखा श्यामसुन्दर सचमुच उस मेघसे भी बढ़कर उदार हैं, जो समुद्रको भर देनेकी शक्ति रखनेपर भी किसानके सामने न बरसकर उसके सो जानेपर रातमें बरसता है और बहुत बरसनेपर भी थोड़ा ही समझता है॥ ३४॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

पर्जन्यवत् । पर्जन्यो गर्जितपूर्वकं ददाति नैवमित्यर्थः । यद्वा पार्जन्यवत् ददाति न अस्मानीक्षमाणः इत्यर्थः ॥ ३४ ॥

श्लोक-३५

विश्वास-प्रस्तुतिः

किञ्चित्करोत्युर्वपि यत् स्वदत्तं
सुहृत्कृतं फल्ग्वपि भूरिकारी।
मयोपनीतां पृथुकैकमुष्टिं
प्रत्यग्रहीत् प्रीतियुतो महात्मा॥

मूलम्

किञ्चित्करोत्युर्वपि यत् स्वदत्तं
सुहृत्कृतं फल्ग्वपि भूरिकारी।
मयोपनीतां पृथुकैकमुष्टिं
प्रत्यग्रहीत् प्रीतियुतो महात्मा॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरे प्यारे सखा श्रीकृष्ण देते हैं बहुत, पर उसे मानते हैं बहुत थोड़ा! और उनका प्रेमी भक्त यदि उनके लिये कुछ भी कर दे, तो वे उसको बहुत मान लेते हैं। देखो तो सही! मैंने उन्हें केवल एक मुट्ठी चिउड़ा भेंट किया था,पर उदारशिरोमणि श्रीकृष्णने उसे कितने प्रेमसे स्वीकार किया॥ ३५॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

किञ्चिदिति । महदपि स्वदत्तम् अल्पं मन्यते सुहृदत्वम् अल्पमपि भूरि मन्यत इत्यर्थः ॥ ३५ ॥

श्लोक-३६

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्यैव मे सौहृदसख्यमैत्री
दास्यं पुनर्जन्मनि जन्मनि स्यात्।
महानुभावेन गुणालयेन
विषज्जतस्तत्पुरुषप्रसङ्गः॥

मूलम्

तस्यैव मे सौहृदसख्यमैत्री
दास्यं पुनर्जन्मनि जन्मनि स्यात्।
महानुभावेन गुणालयेन
विषज्जतस्तत्पुरुषप्रसङ्गः॥

अनुवाद (हिन्दी)

मुझे जन्म-जन्म उन्हींका प्रेम, उन्हींकी हितैषिता, उन्हींकी मित्रता और उन्हींकी सेवा प्राप्त हो। मुझे सम्पत्तिकी आवश्यकता नहीं, सदा-सर्वदा उन्हीं गुणोंके एकमात्र निवासस्थान महानुभाव भगवान् श्रीकृष्णके चरणोंमें मेरा अनुराग बढ़ता जाय और उन्हींके प्रेमी भक्तोंका सत्संग प्राप्त हो॥ ३६॥

श्लोक-३७

विश्वास-प्रस्तुतिः

भक्ताय चित्रा भगवान् हि सम्पदो
राज्यं विभूतीर्न समर्थयत्यजः।
अदीर्घबोधाय विचक्षणः स्वयं
पश्यन् निपातं धनिनां मदोद‍्भवम्॥

मूलम्

भक्ताय चित्रा भगवान् हि सम्पदो
राज्यं विभूतीर्न समर्थयत्यजः।
अदीर्घबोधाय विचक्षणः स्वयं
पश्यन् निपातं धनिनां मदोद‍्भवम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

अजन्मा भगवान् श्रीकृष्ण सम्पत्ति आदिके दोष जानते हैं। वे देखते हैं कि बड़े-बड़े धनियोंका धन और ऐश्वर्यके मदसे पतन हो जाता है। इसलिये वे अपने अदूरदर्शी भक्तको उसके माँगते रहनेपर भी तरह-तरहकी सम्पत्ति, राज्य और ऐश्वर्य आदि नहीं देते। यह उनकी बड़ी कृपा है’॥ ३७॥

श्लोक-३८

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्थं व्यवसितो बुद्ध्या भक्तोऽतीव जनार्दने।
विषयाञ्जायया त्यक्ष्यन् बुभुजे नातिलम्पटः॥

मूलम्

इत्थं व्यवसितो बुद्ध्या भक्तोऽतीव जनार्दने।
विषयाञ्जायया त्यक्ष्यन् बुभुजे नातिलम्पटः॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! अपनी बुद्धिसे इस प्रकार निश्चय करके वे ब्राह्मणदेवता त्यागपूर्वक अनासक्तभावसे अपनी पत्नीके साथ भगवत्प्रसादस्वरूप विषयोंको ग्रहण करने लगे और दिनोंदिन उनकी प्रेम-भक्ति बढ़ने लगी॥ ३८॥

श्लोक-३९

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य वै देवदेवस्य हरेर्यज्ञपतेः प्रभोः।
ब्राह्मणाः प्रभवो दैवं न तेभ्यो विद्यते परम्॥

मूलम्

तस्य वै देवदेवस्य हरेर्यज्ञपतेः प्रभोः।
ब्राह्मणाः प्रभवो दैवं न तेभ्यो विद्यते परम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रिय परीक्षित्! देवताओंके भी आराध्यदेव भक्त-भयहारी यज्ञपति सर्वशक्तिमान् भगवान् स्वयं ब्राह्मणोंको अपना प्रभु, अपना इष्टदेव मानते हैं। इसलिये ब्राह्मणोंसे बढ़कर और कोई भी प्राणी जगत‍्में नहीं है॥ ३९॥

मूलम्

सौहृदसौख्यमैत्रीदास्यमिति द्वन्द्वैकवद्भावः । सौहृदं हितैषित्वं प्रियैषित्वम् अमित्रात्त्रायकत्वं मत्री उपकारस्मरणेन किञ्चित्करत्वं दास्यम् ॥३९-४१॥

॥ इति श्रीमद्भागवतव्याख्याने दशमस्कन्धे श्रीसुदर्शनसूरिकृतशुकपक्षीये एकाशीतितमोऽध्यायः ॥ ८१ ॥

श्लोक-४०

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं स विप्रो भगवत्सुहृत्तदा
दृष्ट्वा स्वभृत्यैरजितं पराजितम्।
तद्ध्यानवेगोद‍्ग्रथितात्मबन्धन-
स्तद्धाम लेभेऽचिरतः सतां गतिम्॥

मूलम्

एवं स विप्रो भगवत्सुहृत्तदा
दृष्ट्वा स्वभृत्यैरजितं पराजितम्।
तद्ध्यानवेगोद‍्ग्रथितात्मबन्धन-
स्तद्धाम लेभेऽचिरतः सतां गतिम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्णके प्यारे सखा उस ब्राह्मणने देखा कि ‘यद्यपि भगवान् अजित हैं, किसीके अधीन नहीं हैं; फिर भी वे अपने सेवकोंके अधीन हो जाते हैं, उनसे पराजित हो जाते हैं,’ अब वे उन्हींके ध्यानमें तन्मय हो गये। ध्यानके आवेगसे उनकी अविद्याकी गाँठ कट गयी और उन्होंने थोड़े ही समयमें भगवान‍्का धाम, जो कि संतोंका एकमात्र आश्रय है, प्राप्त किया॥ ४०॥

श्लोक-४१

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतद् ब्रह्मण्यदेवस्य श्रुत्वा ब्रह्मण्यतां नरः।
लब्धभावो भगवति कर्मबन्धाद् विमुच्यते॥

मूलम्

एतद् ब्रह्मण्यदेवस्य श्रुत्वा ब्रह्मण्यतां नरः।
लब्धभावो भगवति कर्मबन्धाद् विमुच्यते॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! ब्राह्मणोंको अपना इष्टदेव माननेवाले भगवान् श्रीकृष्णकी इस ब्राह्मणभक्तिको जो सुनता है, उसे भगवान‍्के चरणोंमें प्रेमभाव प्राप्त हो जाता है और वह कर्मबन्धनसे मुक्त हो जाता है॥ ४१॥

अनुवाद (समाप्ति)

इति श्रीमद‍्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे उत्तरार्धे पृथुकोपाख्यानं नामैकाशीतितमोऽध्यायः॥ ८१॥