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[अशीतितमोऽध्यायः]

भागसूचना

श्रीकृष्णके द्वारा सुदामाजीका स्वागत

श्लोक-१

मूलम् (वचनम्)

राजोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

भगवन् यानि चान्यानि मुकुन्दस्य महात्मनः।
वीर्याण्यनन्तवीर्यस्य श्रोतुमिच्छामहे प्रभो॥

मूलम्

भगवन् यानि चान्यानि मुकुन्दस्य महात्मनः।
वीर्याण्यनन्तवीर्यस्य श्रोतुमिच्छामहे प्रभो॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा परीक्षित् ने कहा—भगवन्! प्रेम और मुक्तिके दाता परब्रह्म परमात्मा भगवान् श्रीकृष्णकी शक्ति अनन्त है। इसलिये उनकी माधुर्य और ऐश्वर्यसे भरी लीलाएँ भी अनन्त हैं। अब हम उनकी दूसरी लीलाएँ , जिनका वर्णन आपने अबतक नहीं किया है, सुनना चाहते हैं॥ १॥

श्लोक-२

विश्वास-प्रस्तुतिः

को नु श्रुत्वासकृद् ब्रह्मन्नुत्तमश्लोकसत्कथाः।
विरमेत विशेषज्ञो विषण्णः काममार्गणैः॥

मूलम्

को नु श्रुत्वासकृद् ब्रह्मन्नुत्तमश्लोकसत्कथाः।
विरमेत विशेषज्ञो विषण्णः काममार्गणैः॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्मन्! यह जीव विषय-सुखको खोजते-खोजते अत्यन्त दुःखी हो गया है। वे बाणकी तरह इसके चित्तमें चुभते रहते हैं। ऐसी स्थितिमें ऐसा कौन-सा रसिक—रसका विशेषज्ञ पुरुष होगा, जो बार-बार पवित्रकीर्ति भगवान् श्रीकृष्णकी मंगलमयी लीलाओंका श्रवण करके भी उनसे विमुख होना चाहेगा॥ २॥

श्लोक-३

विश्वास-प्रस्तुतिः

सा वाग् यया तस्य गुणान् गृणीते
करौ च तत्कर्मकरौ मनश्च।
स्मरेद् वसन्तं स्थिरजङ्गमेषु
शृणोति तत्पुण्यकथाः स कर्णः॥

मूलम्

सा वाग् यया तस्य गुणान् गृणीते
करौ च तत्कर्मकरौ मनश्च।
स्मरेद् वसन्तं स्थिरजङ्गमेषु
शृणोति तत्पुण्यकथाः स कर्णः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो वाणी भगवान‍्के गुणोंका गान करती है, वही सच्ची वाणी है। वे ही हाथ सच्चे हाथ हैं, जो भगवान‍्की सेवाके लिये काम करते हैं। वही मन सच्चा मन है, जो चराचर प्राणियोंमें निवास करनेवाले भगवान‍्का स्मरण करता है; और वे ही कान वास्तवमें कान कहनेयोग्य हैं, जो भगवान‍्की पुण्यमयी कथाओंका श्रवण करते हैं॥ ३॥

श्लोक-४

विश्वास-प्रस्तुतिः

शिरस्तु तस्योभयलिङ्गमानमे-
त्तदेव यत् पश्यति तद्धि चक्षुः।
अङ्गानि विष्णोरथ तज्जनानां
पादोदकं यानि भजन्ति नित्यम्॥

मूलम्

शिरस्तु तस्योभयलिङ्गमानमे-
त्तदेव यत् पश्यति तद्धि चक्षुः।
अङ्गानि विष्णोरथ तज्जनानां
पादोदकं यानि भजन्ति नित्यम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

वही सिर सिर है, जो चराचर जगत‍्को भगवान‍्की चल-अचल प्रतिमा समझकर नमस्कार करता है; और जो सर्वत्र भगवद्विग्रहका दर्शन करते हैं, वे ही नेत्र वास्तवमें नेत्र हैं। शरीरके जो अंग भगवान् और उनके भक्तोंके चरणोदकका सेवन करते हैं, वे ही अंग वास्तवमें अंग हैं; सच पूछिये तो उन्हींका होना सफल है॥ ४॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

उभयलिङ्गं चरमचरं च शरीरं रामाद्यवताररूपम् अर्चारूपं चेति केचित् ॥४-१५॥

श्लोक-५

मूलम् (वचनम्)

सूत उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

विष्णुरातेन सम्पृष्टो भगवान् बादरायणिः।
वासुदेवे भगवति निमग्नहृदयोऽब्रवीत्॥

मूलम्

विष्णुरातेन सम्पृष्टो भगवान् बादरायणिः।
वासुदेवे भगवति निमग्नहृदयोऽब्रवीत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

सूतजी कहते हैं—शौनकादि ऋषियो! जब राजा परीक्षित् ने इस प्रकार प्रश्न किया, तब भगवान् श्रीशुकदेवजीका हृदय भगवान् श्रीकृष्णमें ही तल्लीन हो गया। उन्होंने परीक्षित् से इस प्रकार कहा॥ ५॥

श्लोक-६

मूलम् (वचनम्)

श्रीशुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृष्णस्यासीत् सखा कश्चिद् ब्राह्मणो ब्रह्मवित्तमः।
विरक्त इन्द्रियार्थेषु प्रशान्तात्मा जितेन्द्रियः॥

मूलम्

कृष्णस्यासीत् सखा कश्चिद् ब्राह्मणो ब्रह्मवित्तमः।
विरक्त इन्द्रियार्थेषु प्रशान्तात्मा जितेन्द्रियः॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीशुकदेवजीने कहा—परीक्षित्! एक ब्राह्मण भगवान् श्रीकृष्णके परम मित्र थे। वे बड़े ब्रह्मज्ञानी, विषयोंसे विरक्त, शान्तचित्त और जितेन्द्रिय थे॥ ६॥

श्लोक-७

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदृच्छयोपपन्नेन वर्तमानो गृहाश्रमी।
तस्य भार्या कुचैलस्य क्षुत्क्षामा च तथाविधा॥

मूलम्

यदृच्छयोपपन्नेन वर्तमानो गृहाश्रमी।
तस्य भार्या कुचैलस्य क्षुत्क्षामा च तथाविधा॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे गृहस्थ होनेपर भी किसी प्रकारका संग्रह-परिग्रह न रखकर प्रारब्धके अनुसार जो कुछ मिल जाता, उसीमें सन्तुष्ट रहते थे। उनके वस्त्र तो फटे-पुराने थे ही, उनकी पत्नीके भी वैसे ही थे। वह भी अपने पतिके समान ही भूखसे दुबली हो रही थी॥ ७॥

श्लोक-८

विश्वास-प्रस्तुतिः

पतिव्रता पतिं प्राह म्लायता वदनेन सा।
दरिद्रा सीदमाना सा वेपमानाभिगम्य च॥

मूलम्

पतिव्रता पतिं प्राह म्लायता वदनेन सा।
दरिद्रा सीदमाना सा वेपमानाभिगम्य च॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक दिन दरिद्रताकी प्रतिमूर्ति दुःखिनी पतिव्रता भूखके मारे काँपती हुई अपने पतिदेवके पास गयी और मुरझाये हुए मुँहसे बोली—॥ ८॥

श्लोक-९

विश्वास-प्रस्तुतिः

ननु ब्रह्मन् भगवतः सखा साक्षाच्छ्रियः पतिः।
ब्रह्मण्यश्च शरण्यश्च भगवान् सात्वतर्षभः॥

मूलम्

ननु ब्रह्मन् भगवतः सखा साक्षाच्छ्रियः पतिः।
ब्रह्मण्यश्च शरण्यश्च भगवान् सात्वतर्षभः॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भगवन्! साक्षात् लक्ष्मीपति भगवान् श्रीकृष्ण आपके सखा हैं। वे भक्तवाञ्छाकल्पतरु, शरणागतवत्सल और ब्राह्मणोंके परम भक्त हैं॥ ९॥

श्लोक-१०

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमुपैहि महाभाग साधूनां च परायणम्।
दास्यति द्रविणं भूरि सीदते ते कुटुम्बिने॥

मूलम्

तमुपैहि महाभाग साधूनां च परायणम्।
दास्यति द्रविणं भूरि सीदते ते कुटुम्बिने॥

अनुवाद (हिन्दी)

परम भाग्यवान् आर्यपुत्र! वे साधु-संतोंके, सत्पुरुषोंके एकमात्र आश्रय हैं। आप उनके पास जाइये। जब वे जानेंगे कि आप कुटुम्बी हैं और अन्नके बिना दुःखी हो रहे हैं तो वे आपको बहुत-सा धन देंगे॥ १०॥

श्लोक-११

विश्वास-प्रस्तुतिः

आस्तेऽधुना द्वारवत्यां भोजवृष्ण्यन्धकेश्वरः।
स्मरतः पादकमलमात्मानमपि यच्छति।
किं न्वर्थकामान् भजतो नात्यभीष्टाञ्जगद‍्गुरुः॥

मूलम्

आस्तेऽधुना द्वारवत्यां भोजवृष्ण्यन्धकेश्वरः।
स्मरतः पादकमलमात्मानमपि यच्छति।
किं न्वर्थकामान् भजतो नात्यभीष्टाञ्जगद‍्गुरुः॥

अनुवाद (हिन्दी)

आजकल वे भोज, वृष्णि और अन्धकवंशी यादवोंके स्वामीके रूपमें द्वारकामें ही निवास कर रहे हैं और इतने उदार हैं कि जो उनके चरणकमलोंका स्मरण करते हैं, उन प्रेमी भक्तोंको वे अपने-आपतकका दान कर डालते हैं। ऐसी स्थितिमें जगद‍्गुरु भगवान् श्रीकृष्ण अपने भक्तोंको यदि धन और विषयसुख, जो अत्यन्त वाञ्छनीय नहीं है, दे दें तो इसमें आश्चर्यकी कौन-सी बात है?’॥ ११॥

श्लोक-१२

विश्वास-प्रस्तुतिः

स एवं भार्यया विप्रो बहुशः प्रार्थितो मृदु।
अयं हि परमो लाभ उत्तमश्लोकदर्शनम्॥

मूलम्

स एवं भार्यया विप्रो बहुशः प्रार्थितो मृदु।
अयं हि परमो लाभ उत्तमश्लोकदर्शनम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार जब उन ब्राह्मणदेवताकी पत्नीने अपने पतिदेवसे कई बार बड़ी नम्रतासे प्रार्थना की, तब उन्होंने सोचा कि ‘धनकी तो कोई बात नहीं है; परन्तु भगवान् श्रीकृष्णका दर्शन हो जायगा, यह तो जीवनका बहुत बड़ा लाभ है’॥ १२॥

श्लोक-१३

विश्वास-प्रस्तुतिः

इति सञ्चिन्त्य मनसा गमनाय मतिं दधे।
अप्यस्त्युपायनं किञ्चिद् गृहे कल्याणि दीयताम्॥

मूलम्

इति सञ्चिन्त्य मनसा गमनाय मतिं दधे।
अप्यस्त्युपायनं किञ्चिद् गृहे कल्याणि दीयताम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

यही विचार करके उन्होंने जानेका निश्चय किया और अपनी पत्नीसे बोले—‘कल्याणी! घरमें कुछ भेंट देनेयोग्य वस्तु भी है क्या? यदि हो तो दे दो’॥ १३॥

श्लोक-१४

विश्वास-प्रस्तुतिः

याचित्वा चतुरो मुष्टीन् विप्रान् पृथुकतण्डुलान्।
चैलखण्डेन तान् बद्‍ध्वा भर्त्रे प्रादादुपायनम्॥

मूलम्

याचित्वा चतुरो मुष्टीन् विप्रान् पृथुकतण्डुलान्।
चैलखण्डेन तान् बद्‍ध्वा भर्त्रे प्रादादुपायनम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब उस ब्राह्मणीने पास-पड़ोसके ब्राह्मणोंके घरसे चार मुट्ठी चिउड़े माँगकर एक कपड़ेमें बाँध दिये और भगवान‍्को भेंट देनेके लिये अपने पतिदेवको दे दिये॥ १४॥

श्लोक-१५

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तानादाय विप्राग्र्यः प्रययौ द्वारकां किल।
कृष्णसन्दर्शनं मह्यं कथं स्यादिति चिन्तयन्॥

मूलम्

स तानादाय विप्राग्र्यः प्रययौ द्वारकां किल।
कृष्णसन्दर्शनं मह्यं कथं स्यादिति चिन्तयन्॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके बाद वे ब्राह्मणदेवता उन चिउड़ोंको लेकर द्वारकाके लिये चल पड़े। वे मार्गमें यह सोचते जाते थे कि ‘मुझे भगवान् श्रीकृष्णके दर्शन कैसे प्राप्त होंगे?’॥ १५॥

श्लोक-१६

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्रीणि गुल्मान्यतीयाय तिस्रः कक्षाश्च स द्विजः।
विप्रोऽगम्यान्धकवृष्णीनां गृहेष्वच्युतधर्मिणाम्॥

मूलम्

त्रीणि गुल्मान्यतीयाय तिस्रः कक्षाश्च स द्विजः।
विप्रोऽगम्यान्धकवृष्णीनां गृहेष्वच्युतधर्मिणाम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! द्वारकामें पहुँचनेपर वे ब्राह्मणदेवता दूसरे ब्राह्मणोंके साथ सैनिकोंकी तीन छावनियाँ और तीन ड्योढ़ियाँ पार करके भगवद्धर्मका पालन करनेवाले अन्धक और वृष्णिवंशी यादवोंके महलोंमें, जहाँ पहुँचना अत्यन्त कठिन है, जा पहुँचे॥ १६॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

अन्यैर्द्विजैभिक्षुभिः सहित इति निर्भयप्रवेशे हेतुः ॥ १६-२९ ॥

श्लोक-१७

विश्वास-प्रस्तुतिः

गृहं द्व्यष्टसहस्राणां महिषीणां हरेर्द्विजः।
विवेशैकतमं श्रीमद् ब्रह्मानन्दं गतो यथा॥

मूलम्

गृहं द्व्यष्टसहस्राणां महिषीणां हरेर्द्विजः।
विवेशैकतमं श्रीमद् ब्रह्मानन्दं गतो यथा॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनके बीच भगवान् श्रीकृष्णकी सोलह हजार रानियोंके महल थे। उनमेंसे एकमें उन ब्राह्मणदेवताने प्रवेश किया। वह महल खूब सजा-सजाया—अत्यन्त शोभा-युक्त था। उसमें प्रवेश करते समय उन्हें ऐसा मालूम हुआ, मानो वे ब्रह्मानन्दके समुद्रमें डूब-उतरा रहे हों!॥ १७॥

श्लोक-१८

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं विलोक्याच्युतो दूरात् प्रियापर्यङ्कमास्थितः।
सहसोत्थाय चाभ्येत्य दोर्भ्यां पर्यग्रहीन्मुदा॥

मूलम्

तं विलोक्याच्युतो दूरात् प्रियापर्यङ्कमास्थितः।
सहसोत्थाय चाभ्येत्य दोर्भ्यां पर्यग्रहीन्मुदा॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय भगवान् श्रीकृष्ण अपनी प्राणप्रिया रुक्मिणीजीके पलंगपर विराजे हुए थे। ब्राह्मणदेवताको दूरसे ही देखकर वे सहसा उठ खड़े हुए और उनके पास आकर बड़े आनन्दसे उन्हें अपने भुजपाशमें बाँध लिया॥ १८॥

श्लोक-१९

विश्वास-प्रस्तुतिः

सख्युः प्रियस्य विप्रर्षेरङ्गसङ्गातिनिर्वृतः।
प्रीतो व्यमुञ्चदब्बिन्दून् नेत्राभ्यां पुष्करेक्षणः॥

मूलम्

सख्युः प्रियस्य विप्रर्षेरङ्गसङ्गातिनिर्वृतः।
प्रीतो व्यमुञ्चदब्बिन्दून् नेत्राभ्यां पुष्करेक्षणः॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! परमानन्दस्वरूप भगवान् अपने प्यारे सखा ब्राह्मणदेवताके अंग-स्पर्शसे अत्यन्त आनन्दित हुए। उनके कमलके समान कोमल नेत्रोंसे प्रेमके आँसू बरसने लगे॥ १९॥

श्लोक-२०

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथोपवेश्य पर्यङ्के स्वयं सख्युः समर्हणम्।
उपहृत्यावनिज्यास्य पादौ पादावनेजनीः॥

मूलम्

अथोपवेश्य पर्यङ्के स्वयं सख्युः समर्हणम्।
उपहृत्यावनिज्यास्य पादौ पादावनेजनीः॥

श्लोक-२१

विश्वास-प्रस्तुतिः

अग्रहीच्छिरसा राजन् भगवाँल्लोकपावनः।
व्यलिम्पद् दिव्यगन्धेन चन्दनागुरुकुङ्कुमैः॥

मूलम्

अग्रहीच्छिरसा राजन् भगवाँल्लोकपावनः।
व्यलिम्पद् दिव्यगन्धेन चन्दनागुरुकुङ्कुमैः॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! कुछ समयके बाद भगवान् श्रीकृष्णने उन्हें ले जाकर अपने पलंगपर बैठा दिया और स्वयं पूजनकी सामग्री लाकर उनकी पूजा की। प्रिय परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्ण सभीको पवित्र करनेवाले हैं; फिर भी उन्होंने अपने हाथों ब्राह्मणदेवताके पाँव पखारकर उनका चरणोदक अपने सिरपर धारण किया और उनके शरीरमें चन्दन, अरगजा, केसर आदि दिव्य गन्धोंका लेपन किया॥ २०-२१॥

श्लोक-२२

विश्वास-प्रस्तुतिः

धूपैः सुरभिभिर्मित्रं प्रदीपावलिभिर्मुदा।
अर्चित्वाऽऽवेद्य ताम्बूलं गां च स्वागतमब्रवीत्॥

मूलम्

धूपैः सुरभिभिर्मित्रं प्रदीपावलिभिर्मुदा।
अर्चित्वाऽऽवेद्य ताम्बूलं गां च स्वागतमब्रवीत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर उन्होंने बड़े आनन्दसे सुगन्धित धूप और दीपावलीसे अपने मित्रकी आरती उतारी। इस प्रकार पूजा करके पान एवं गाय देकर मधुर वचनोंसे ‘भले पधारे’ ऐसा कहकर उनका स्वागत किया॥ २२॥

श्लोक-२३

विश्वास-प्रस्तुतिः

कुचैलं मलिनं क्षामं द्विजं धमनिसंततम्।
देवी पर्यचरत् साक्षाच्चामरव्यजनेन वै॥

मूलम्

कुचैलं मलिनं क्षामं द्विजं धमनिसंततम्।
देवी पर्यचरत् साक्षाच्चामरव्यजनेन वै॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्राह्मणदेवता फटे-पुराने वस्त्र पहने हुए थे। शरीर अत्यन्त मलिन और दुर्बल था। देहकी सारी नसें दिखायी पड़ती थीं। स्वयं भगवती रुक्मिणीजी चँवर डुलाकर उनकी सेवा करने लगीं॥ २३॥

श्लोक-२४

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्तःपुरजनो दृष्ट्वा कृष्णेनामलकीर्तिना।
विस्मितोऽभूदतिप्रीत्या अवधूतं सभाजितम्॥

मूलम्

अन्तःपुरजनो दृष्ट्वा कृष्णेनामलकीर्तिना।
विस्मितोऽभूदतिप्रीत्या अवधूतं सभाजितम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

अन्तःपुरकी स्त्रियाँ यह देखकर अत्यन्त विस्मित हो गयीं कि पवित्रकीर्ति भगवान् श्रीकृष्ण अतिशय प्रेमसे इस मैले-कुचैले अवधूत ब्राह्मणकी पूजा कर रहे हैं॥ २४॥

श्लोक-२५

विश्वास-प्रस्तुतिः

किमनेन कृतं पुण्यमवधूतेन भिक्षुणा।
श्रिया हीनेन लोकेऽस्मिन् गर्हितेनाधमेन च॥

मूलम्

किमनेन कृतं पुण्यमवधूतेन भिक्षुणा।
श्रिया हीनेन लोकेऽस्मिन् गर्हितेनाधमेन च॥

श्लोक-२६

विश्वास-प्रस्तुतिः

योऽसौ त्रिलोकगुरुणा श्रीनिवासेन सम्भृतः।
पर्यङ्कस्थां श्रियं हित्वा परिष्वक्तोऽग्रजो यथा॥

मूलम्

योऽसौ त्रिलोकगुरुणा श्रीनिवासेन सम्भृतः।
पर्यङ्कस्थां श्रियं हित्वा परिष्वक्तोऽग्रजो यथा॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे आपसमें कहने लगीं—‘इस नंग-धड़ंग, निर्धन, निन्दनीय और निकृष्ट भिखमंगेने ऐसा कौन-सा पुण्य किया है, जिससे त्रिलोकी-गुरु श्रीनिवास श्रीकृष्ण स्वयं इसका आदर-सत्कार कर रहे हैं। देखो तो सही, इन्होंने अपने पलंगपर सेवा करती हुई स्वयं लक्ष्मीरूपिणी रुक्मिणीजीको छोड़कर इस ब्राह्मणको अपने बड़े भाई बलरामजीके समान हृदयसे लगाया है’॥ २५-२६॥

श्लोक-२७

विश्वास-प्रस्तुतिः

कथयाञ्चक्रतुर्गाथाः पूर्वा गुरुकुले सतोः।
आत्मनो ललिता राजन् करौ गृह्य परस्परम्॥

मूलम्

कथयाञ्चक्रतुर्गाथाः पूर्वा गुरुकुले सतोः।
आत्मनो ललिता राजन् करौ गृह्य परस्परम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रिय परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्ण और वे ब्राह्मण दोनों एक-दूसरेका हाथ पकड़कर अपने पूर्वजीवनकी उन आनन्ददायक घटनाओंका स्मरण और वर्णन करने लगे जो गुरुकुलमें रहते समय घटित हुई थीं॥ २७॥

श्लोक-२८

मूलम् (वचनम्)

श्रीभगवानुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपि ब्रह्मन् गुरुकुलाद् भवता लब्धदक्षिणात्।
समावृत्तेन धर्मज्ञ भार्योढा सदृशी न वा॥

मूलम्

अपि ब्रह्मन् गुरुकुलाद् भवता लब्धदक्षिणात्।
समावृत्तेन धर्मज्ञ भार्योढा सदृशी न वा॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् श्रीकृष्णने कहा—धर्मके मर्मज्ञ ब्राह्मणदेव! गुरुदक्षिणा देकर जब आप गुरुकुलसे लौट आये, तब आपने अपने अनुरूप स्त्रीसे विवाह किया या नहीं?॥ २८॥

श्लोक-२९

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रायो गृहेषु ते चित्तमकामविहतं तथा।
नैवातिप्रीयसे विद्वन् धनेषु विदितं हि मे॥

मूलम्

प्रायो गृहेषु ते चित्तमकामविहतं तथा।
नैवातिप्रीयसे विद्वन् धनेषु विदितं हि मे॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं जानता हूँ कि आपका चित्त गृहस्थीमें रहनेपर भी प्रायः विषय-भोगोंमें आसक्त नहीं है। विद्वन्! यह भी मुझे मालूम है कि धन आदिमें भी आपकी कोई प्रीति नहीं है॥ २९॥

श्लोक-३०

विश्वास-प्रस्तुतिः

केचित् कुर्वन्ति कर्माणि कामैरहतचेतसः।
त्यजन्तः प्रकृतीर्दैवीर्यथाहं लोकसङ्ग्रहम्॥

मूलम्

केचित् कुर्वन्ति कर्माणि कामैरहतचेतसः।
त्यजन्तः प्रकृतीर्दैवीर्यथाहं लोकसङ्ग्रहम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

जगत‍्में विरले ही लोग ऐसे होते हैं, जो भगवान‍्की मायासे निर्मित विषयसम्बन्धी वासनाओंका त्याग कर देते हैं और चित्तमें विषयोंकी तनिक भी वासना न रहनेपर भी मेरे समान केवल लोकशिक्षाके लिये कर्म करते रहते हैं॥ ३०॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

केचित् मुमुक्षवस्त्यजन्तः त्यक्तफलसङ्गविरहे दृष्टान्तः यथा अहमिति । लोकसङग्रहमिति क्रियाविशेषणं लोकेन सडग्रहो यस्येति बहुवित्तवल्लोकसङग्रहानुगुणमित्यर्थः ॥ ३० ॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

केचित् मुमुक्षवस्त्यजन्तः त्यक्तफलसङ्गविरहे दृष्टान्तः यथा अहमिति । लोकसङग्रहमिति क्रियाविशेषणं लोकेन सडग्रहो यस्येति बहुवित्तवल्लोकसङग्रहानुगुणमित्यर्थः ॥ ३० ॥

श्लोक-३१

विश्वास-प्रस्तुतिः

कच्चिद् गुरुकुले वासं ब्रह्मन् स्मरसि नौ यतः।
द्विजो विज्ञाय विज्ञेयं तमसः पारमश्नुते॥

मूलम्

कच्चिद् गुरुकुले वासं ब्रह्मन् स्मरसि नौ यतः।
द्विजो विज्ञाय विज्ञेयं तमसः पारमश्नुते॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्राह्मणशिरोमणे! क्या आपको उस समयकी बात याद है, जब हम दोनों एक साथ गुरुकुलमें निवास करते थे। सचमुच गुरुकुलमें ही द्विजातियोंको अपने ज्ञातव्य वस्तुका ज्ञान होता है, जिसके द्वारा वे अज्ञानान्धकारसे पार हो जाते हैं॥ ३१॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

तमसः परम् अज्ञानस्य पारं स गुरुकुलवासः सत्कर्मसम्भवात् अनुष्ठानहेतुः तद्धेतुभूतज्ञानोत्पादकत्वादित्यभिप्रायः । यद्वा, सत्कर्मणां पुंसां द्वितीयजन्मनः सम्भवेन गुरुकुलवासरूपः आद्याश्रम इत्यर्थः । यस्मिन्त्राश्रमे गुरुरहमिव ज्ञानप्रदः स इत्यन्वयः ॥ ३१-३२॥

श्लोक-३२

विश्वास-प्रस्तुतिः

स वै सत्कर्मणां साक्षाद् द्विजातेरिह सम्भवः।
आद्योऽङ्ग यत्राश्रमिणां यथाहं ज्ञानदो गुरुः॥

मूलम्

स वै सत्कर्मणां साक्षाद् द्विजातेरिह सम्भवः।
आद्योऽङ्ग यत्राश्रमिणां यथाहं ज्ञानदो गुरुः॥

अनुवाद (हिन्दी)

मित्र! इस संसारमें शरीरका कारण—जन्मदाता पिता प्रथम गुरु है। इसके बाद उपनयन-संस्कार करके सत्कर्मोंकी शिक्षा देनेवाला दूसरा गुरु है। वह मेरे ही समान पूज्य है। तदनन्तर ज्ञानोपदेश करके परमात्माको प्राप्त करानेवाला गुरु तो मेरा स्वरूप ही है। वर्णाश्रमियोंके ये तीन गुरु होते हैं॥ ३२॥

श्लोक-३३

विश्वास-प्रस्तुतिः

नन्वर्थकोविदा ब्रह्मन् वर्णाश्रमवतामिह।
ये मया गुरुणा वाचा तरन्त्यञ्जो भवार्णवम्॥

मूलम्

नन्वर्थकोविदा ब्रह्मन् वर्णाश्रमवतामिह।
ये मया गुरुणा वाचा तरन्त्यञ्जो भवार्णवम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरे प्यारे मित्र! गुरुके स्वरूपमें स्वयं मैं हूँ। इस जगत‍्में वर्णाश्रमियोंमें जो लोग अपने गुरुदेवके उपदेशानुसार अनायास ही भवसागर पार कर लेते हैं, वे अपने स्वार्थ और परमार्थके सच्चे जानकार हैं॥ ३३॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

वर्णाश्रमवतां मध्ये अथ कोविदाः प्रयोजनकुशलाः अञ्जः अञ्जसा ॥ ३३ ॥

श्लोक-३४

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाहमिज्याप्रजातिभ्यां तपसोपशमेन वा।
तुष्येयं सर्वभूतात्मा गुरुशुश्रूषया यथा॥

मूलम्

नाहमिज्याप्रजातिभ्यां तपसोपशमेन वा।
तुष्येयं सर्वभूतात्मा गुरुशुश्रूषया यथा॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रिय मित्र! मैं सबका आत्मा हूँ, सबके हृदयमें अन्तर्यामीरूपसे विराजमान हूँ। मैं गृहस्थके धर्म पंचमहायज्ञ आदिसे, ब्रह्मचारीके धर्म उपनयन-वेदाध्ययन आदिसे, वानप्रस्थीके धर्म तपस्यासे और सब ओरसे उपरत हो जाना—इस संन्यासीके धर्मसे भी उतना सन्तुष्ट नहीं होता, जितना गुरुदेवकी सेवा-शुश्रूषासे सन्तुष्ट होता हूँ॥ ३४॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

प्रजातिः सन्तत्युत्पादनम् ॥३४-३५॥

श्लोक-३५

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपि नः स्मर्यते ब्रह्मन् वृत्तं निवसतां गुरौ।
गुरुदारैश्चोदितानामिन्धनानयने क्वचित्॥

मूलम्

अपि नः स्मर्यते ब्रह्मन् वृत्तं निवसतां गुरौ।
गुरुदारैश्चोदितानामिन्धनानयने क्वचित्॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्मन्! जिस समय हमलोग गुरुकुलमें निवास कर रहे थे; उस समयकी वह बात आपको याद है क्या, जब हम दोनोंको एक दिन हमारी गुरुपत्नीने ईंधन लानेके लिये जंगलमें भेजा था॥ ३५॥

श्लोक-३६

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रविष्टानां महारण्यमपर्तौ सुमहद् द्विज।
वातवर्षमभूत्तीव्रं निष्ठुराः स्तनयित्नवः॥

मूलम्

प्रविष्टानां महारण्यमपर्तौ सुमहद् द्विज।
वातवर्षमभूत्तीव्रं निष्ठुराः स्तनयित्नवः॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय हमलोग एक घोर जंगलमें गये हुए थे और बिना ऋतुके ही बड़ा भयंकर आँधी-पानी आ गया था। आकाशमें बिजली कड़कने लगी थी॥ ३६॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

अपर्तौ अकाले ॥ ३६-३९॥

श्लोक-३७

विश्वास-प्रस्तुतिः

सूर्यश्चास्तं गतस्तावत् तमसा चावृता दिशः।
निम्नं कूलं जलमयं न प्राज्ञायत किञ्चन॥

मूलम्

सूर्यश्चास्तं गतस्तावत् तमसा चावृता दिशः।
निम्नं कूलं जलमयं न प्राज्ञायत किञ्चन॥

अनुवाद (हिन्दी)

तबतक सूर्यास्त हो गया; चारों ओर अँधेरा-ही-अँधेरा फैल गया। धरतीपर इस प्रकार पानी-ही-पानी हो गया कि कहाँ गड्ढा है, कहाँ किनारा, इसका पता ही न चलता था॥ ३७॥

श्लोक-३८

विश्वास-प्रस्तुतिः

वयं भृशं तत्र महानिलाम्बुभि-
र्निहन्यमाना मुहुरम्बुसम्प्लवे।
दिशोऽविदन्तोऽथ परस्परं वने
गृहीतहस्ताः परिबभ्रिमातुराः॥

मूलम्

वयं भृशं तत्र महानिलाम्बुभि-
र्निहन्यमाना मुहुरम्बुसम्प्लवे।
दिशोऽविदन्तोऽथ परस्परं वने
गृहीतहस्ताः परिबभ्रिमातुराः॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह वर्षा क्या थी, एक छोटा-मोटा प्रलय ही था। आँधीके झटकों और वर्षाकी बौछारोंसे हमलोगोंको बड़ी पीड़ा हुई, दिशाका ज्ञान न रहा। हमलोग अत्यन्त आतुर हो गये और एक-दूसरेका हाथ पकड़कर जंगलमें इधर-उधर भटकते रहे॥ ३८॥

श्लोक-३९

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतद् विदित्वा उदिते रवौ सान्दीपनिर्गुरुः।
अन्वेषमाणो नः शिष्यानाचार्योऽपश्यदातुरान्॥

मूलम्

एतद् विदित्वा उदिते रवौ सान्दीपनिर्गुरुः।
अन्वेषमाणो नः शिष्यानाचार्योऽपश्यदातुरान्॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब हमारे गुरुदेव सान्दीपनि मुनिको इस बातका पता चला, तब वे सूर्योदय होनेपर अपने शिष्य हमलोगोंको ढूँढ़ते हुए जंगलमें पहुँचे और उन्होंने देखा कि हम अत्यन्त आतुर हो रहे हैं॥ ३९॥

श्लोक-४०

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहो हे पुत्रका यूयमस्मदर्थेऽतिदुःखिताः।
आत्मा वै प्राणिनां प्रेष्ठस्तमनादृत्य मत्पराः॥

मूलम्

अहो हे पुत्रका यूयमस्मदर्थेऽतिदुःखिताः।
आत्मा वै प्राणिनां प्रेष्ठस्तमनादृत्य मत्पराः॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे कहने लगे—‘आश्चर्य है, आश्चर्य है! पुत्रो! तुमलोगोंने हमारे लिये अत्यन्त कष्ट उठाया। सभी प्राणियोंको अपना शरीर सबसे अधिक प्रिय होता है; परन्तु तुम दोनों उसकी भी परवा न करके हमारी सेवामें ही संलग्न रहे॥ ४०॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

आत्मा वै इति शरीरम् ॥४० - ४१ ॥

श्लोक-४१

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतदेव हि सच्छिष्यैः कर्तव्यं गुरुनिष्कृतम्।
यद् वै विशुद्धभावेन सर्वार्थात्मार्पणं गुरौ॥

मूलम्

एतदेव हि सच्छिष्यैः कर्तव्यं गुरुनिष्कृतम्।
यद् वै विशुद्धभावेन सर्वार्थात्मार्पणं गुरौ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गुरुके ऋणसे मुक्त होनेके लिये सत्-शिष्योंका इतना ही कर्तव्य है कि वे विशुद्ध भावसे अपना सब कुछ और शरीर भी गुरुदेवकी सेवामें समर्पित कर दें॥ ४१॥

श्लोक-४२

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुष्टोऽहं भो द्विजश्रेष्ठाः सत्याः सन्तु मनोरथाः।
छन्दांस्ययातयामानि भवन्त्विह परत्र च॥

मूलम्

तुष्टोऽहं भो द्विजश्रेष्ठाः सत्याः सन्तु मनोरथाः।
छन्दांस्ययातयामानि भवन्त्विह परत्र च॥

अनुवाद (हिन्दी)

द्विज-शिरोमणियो! मैं तुमलोगोंसे अत्यन्त प्रसन्न हूँ। तुम्हारे सारे मनोरथ, सारी अभिलाषाएँ पूर्ण हों और तुमलोगोंने हमसे जो वेदाध्ययन किया है, वह तुम्हें सर्वदा कण्ठस्थ रहे तथा इस लोक एवं परलोकमें कहीं भी निष्फल न हो’॥ ४२॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

अयातयामानि वीर्यवन्ति प्रदोषरहितानि ॥४२-४४॥

श्लोक-४३

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्थंविधान्यनेकानि वसतां गुरुवेश्मसु।
गुरोरनुग्रहेणैव पुमान् पूर्णः प्रशान्तये॥

मूलम्

इत्थंविधान्यनेकानि वसतां गुरुवेश्मसु।
गुरोरनुग्रहेणैव पुमान् पूर्णः प्रशान्तये॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रिय मित्र! जिस समय हमलोग गुरुकुलमें निवास कर रहे थे, हमारे जीवनमें ऐसी-ऐसी अनेकों घटनाएँ घटित हुई थीं। इसमें सन्देह नहीं कि गुरुदेवकी कृपासे ही मनुष्य शान्तिका अधिकारी होता और पूर्णताको प्राप्त करता है॥ ४३॥

श्लोक-४४

मूलम् (वचनम्)

ब्राह्मण उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

किमस्माभिरनिर्वृत्तं देवदेव जगद‍्गुरो।
भवता सत्यकामेन येषां वासो गुरावभूत्॥

मूलम्

किमस्माभिरनिर्वृत्तं देवदेव जगद‍्गुरो।
भवता सत्यकामेन येषां वासो गुरावभूत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्राह्मणदेवताने कहा—देवताओंके आराध्यदेव जगद‍्गुरु श्रीकृष्ण! भला, अब हमें क्या करना बाकी है? क्योंकि आपके साथ, जो सत्यसंकल्प परमात्मा हैं, हमें गुरुकुलमें रहनेका सौभाग्य प्राप्त हुआ था॥ ४४॥

श्लोक-४५

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्यच्छन्दोमयं ब्रह्म देह आवपनं विभो।
श्रेयसां तस्य गुरुषु वासोऽत्यन्तविडम्बनम्॥

मूलम्

यस्यच्छन्दोमयं ब्रह्म देह आवपनं विभो।
श्रेयसां तस्य गुरुषु वासोऽत्यन्तविडम्बनम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभो! छन्दोमय वेद, धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, चतुर्विध पुरुषार्थके मूल स्रोत हैं; और वे हैं आपके शरीर। वही आप वेदाध्ययनके लिये गुरुकुलमें निवास करें, यह मनुष्य-लीलाका अभिनय नहीं तो और क्या है?॥ ४५॥

मूलम्

आवपनं पुरुषार्थानामास्थानम् उत्पत्तिभूमिः । छन्दोमयं ब्रह्म ॥४५॥

॥ इति श्रीमद्भागवतव्याख्याने दशमस्कन्धे श्रीसुदर्शनसूरिकृतशुकपक्षीये अशीतितमोऽध्यायः ॥ ८० ॥

अनुवाद (समाप्ति)

इति श्रीमद‍्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे उत्तरार्धे श्रीदामचरितेऽशीतितमोऽध्यायः॥ ८०॥