७९ बलदेवतीर्थयात्रानिरूपणम्

[एकोनाशीतितमोऽध्यायः]

भागसूचना

बल्वलका उद्धार और बलरामजीकी तीर्थयात्रा

श्लोक-१

मूलम् (वचनम्)

श्रीशुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः पर्वण्युपावृत्ते प्रचण्डः पांसुवर्षणः।
भीमो वायुरभूद् राजन् पूयगन्धस्तु सर्वशः॥

मूलम्

ततः पर्वण्युपावृत्ते प्रचण्डः पांसुवर्षणः।
भीमो वायुरभूद् राजन् पूयगन्धस्तु सर्वशः॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! पर्वका दिन आनेपर बड़ा भयंकर अंधड़ चलने लगा। धूलकी वर्षा होने लगी और चारों ओरसे पीबकी दुर्गन्ध आने लगी॥ १॥

श्लोक-२

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽमेध्यमयं वर्षं बल्वलेन विनिर्मितम्।
अभवद् यज्ञशालायां सोऽन्वदृश्यत शूलधृक्॥

मूलम्

ततोऽमेध्यमयं वर्षं बल्वलेन विनिर्मितम्।
अभवद् यज्ञशालायां सोऽन्वदृश्यत शूलधृक्॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके बाद यज्ञशालामें बल्वल दानवने मल-मूत्र आदि अपवित्र वस्तुओंकी वर्षा की। तदनन्तर हाथमें त्रिशूल लिये वह स्वयं दिखायी पड़ा॥ २॥

श्लोक-३

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं विलोक्य बृहत्कायं भिन्नाञ्जनचयोपमम्।
तप्तताम्रशिखाश्मश्रुं दंष्ट्रोग्रभ्रुकुटीमुखम्॥

मूलम्

तं विलोक्य बृहत्कायं भिन्नाञ्जनचयोपमम्।
तप्तताम्रशिखाश्मश्रुं दंष्ट्रोग्रभ्रुकुटीमुखम्॥

श्लोक-४

विश्वास-प्रस्तुतिः

सस्मार मुसलं रामः परसैन्यविदारणम्।
हलं च दैत्यदमनं ते तूर्णमुपतस्थतुः॥

मूलम्

सस्मार मुसलं रामः परसैन्यविदारणम्।
हलं च दैत्यदमनं ते तूर्णमुपतस्थतुः॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसका डील-डौल बहुत बड़ा था, ऐसा जान पड़ता मानो ढेर-का-ढेर कालिख इकट्ठा कर दिया गया हो। उसकी चोटी और दाढ़ी-मूँछ तपे हुए ताँबेके समान लाल-लाल थीं। बड़ी-बड़ी दाढ़ों और भौंहोंके कारण उसका मुँह बड़ा भयावना लगता था। उसे देखकर भगवान् बलरामजीने शत्रुसेनाकी कुंदी करने-वाले मूसल और दैत्योंको चीर-फाड़ डालनेवाले हलका स्मरण किया। उनके स्मरण करते ही वे दोनों शस्त्र तुरंत वहाँ आ पहुँचे॥ ३-४॥

श्लोक-५

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमाकृष्य हलाग्रेण बल्वलं गगनेचरम्।
मुसलेनाहनत् क्रुद्धो मूर्ध्नि ब्रह्मद्रुहं बलः॥

मूलम्

तमाकृष्य हलाग्रेण बल्वलं गगनेचरम्।
मुसलेनाहनत् क्रुद्धो मूर्ध्नि ब्रह्मद्रुहं बलः॥

श्लोक-६

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोऽपतद‍्भुवि निर्भिन्नललाटोऽसृक् समुत्सृजन्।
मुञ्चन्नार्तस्वरं शैलो यथा वज्रहतोऽरुणः॥

मूलम्

सोऽपतद‍्भुवि निर्भिन्नललाटोऽसृक् समुत्सृजन्।
मुञ्चन्नार्तस्वरं शैलो यथा वज्रहतोऽरुणः॥

अनुवाद (हिन्दी)

बलरामजीने आकाशमें विचरनेवाले बल्वल दैत्यको अपने हलके अगले भागसे खींचकर उस ब्रह्मद्रोहीके सिरपर बड़े क्रोधसे एक मूसल कसकर जमाया, जिससे उसका ललाट फट गया और वह खून उगलता तथा आर्तस्वरसे चिल्लाता हुआ धरतीपर गिर पड़ा, ठीक वैसे ही जैसे वज्रकी चोट खाकर गेरू आदिसे लाल हुआ कोई पहाड़ गिर पड़ा हो॥ ५-६॥

श्लोक-७

विश्वास-प्रस्तुतिः

संस्तुत्य मुनयो रामं प्रयुज्यावितथाशिषः।
अभ्यषिञ्चन् महाभागा वृत्रघ्नं विबुधा यथा॥

मूलम्

संस्तुत्य मुनयो रामं प्रयुज्यावितथाशिषः।
अभ्यषिञ्चन् महाभागा वृत्रघ्नं विबुधा यथा॥

अनुवाद (हिन्दी)

नैमिषारण्यवासी महाभाग्यवान् मुनियोंने बलरामजीकी स्तुति की, उन्हें कभी न व्यर्थ होनेवाले आशीर्वाद दिये और जैसे देवतालोग देवराज इन्द्रका अभिषेक करते हैं, वैसे ही उनका अभिषेक किया॥ ७॥

श्लोक-८

विश्वास-प्रस्तुतिः

वैजयन्तीं ददुर्मालां श्रीधामाम्लानपङ्कजाम्।
रामाय वाससी दिव्ये दिव्यान्याभरणानि च॥

मूलम्

वैजयन्तीं ददुर्मालां श्रीधामाम्लानपङ्कजाम्।
रामाय वाससी दिव्ये दिव्यान्याभरणानि च॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके बाद ऋषियोंने बलरामजीको दिव्य वस्त्र और दिव्य आभूषण दिये तथा एक ऐसी वैजयन्ती माला भी दी, जो सौन्दर्यका आश्रय एवं कभी न मुरझानेवाले कमलके पुष्पोंसे युक्त थी॥ ८॥

श्लोक-९

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ तैरभ्यनुज्ञातः कौशिकीमेत्य ब्राह्मणैः।
स्नात्वा सरोवरमगाद् यतः सरयुरास्रवत्॥

मूलम्

अथ तैरभ्यनुज्ञातः कौशिकीमेत्य ब्राह्मणैः।
स्नात्वा सरोवरमगाद् यतः सरयुरास्रवत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर नैमिषारण्यवासी ऋषियोंसे विदा होकर उनके आज्ञानुसार बलरामजी ब्राह्मणोंके साथ कौशिकी नदीके तटपर आये। वहाँ स्नान करके वे उस सरोवरपर गये, जहाँसे सरयू नदी निकली है॥ ९॥

श्लोक-१०

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनुस्रोतेन सरयूं प्रयागमुपगम्य सः।
स्नात्वा सन्तर्प्य देवादीन् जगाम पुलहाश्रमम्॥

मूलम्

अनुस्रोतेन सरयूं प्रयागमुपगम्य सः।
स्नात्वा सन्तर्प्य देवादीन् जगाम पुलहाश्रमम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँसे सरयूके किनारे-किनारे चलने लगे, फिर उसे छोड़कर प्रयाग आये; और वहाँ स्नान तथा देवता, ऋषि एवं पितरोंका तर्पण करके वहाँसे पुलहाश्रम गये॥ १०॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

पुलहाश्रमं सालग्रामम् ॥ १०-१२ ॥

श्लोक-११

विश्वास-प्रस्तुतिः

गोमतीं गण्डकीं स्नात्वा विपाशां शोण आप्लुतः।
गयां गत्वा पितॄनिष्ट्वा गङ्गासागरसङ्गमे॥

मूलम्

गोमतीं गण्डकीं स्नात्वा विपाशां शोण आप्लुतः।
गयां गत्वा पितॄनिष्ट्वा गङ्गासागरसङ्गमे॥

श्लोक-१२

विश्वास-प्रस्तुतिः

उपस्पृश्य महेन्द्राद्रौ रामं दृष्ट्वाभिवाद्य च।
सप्तगोदावरीं वेणां पम्पां भीमरथीं ततः॥

मूलम्

उपस्पृश्य महेन्द्राद्रौ रामं दृष्ट्वाभिवाद्य च।
सप्तगोदावरीं वेणां पम्पां भीमरथीं ततः॥

श्लोक-१३

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्कन्दं दृष्ट्वा ययौ रामः श्रीशैलं गिरिशालयम्।
द्रविडेषु महापुण्यं दृष्ट्वाद्रिं वेङ्कटं प्रभुः॥

मूलम्

स्कन्दं दृष्ट्वा ययौ रामः श्रीशैलं गिरिशालयम्।
द्रविडेषु महापुण्यं दृष्ट्वाद्रिं वेङ्कटं प्रभुः॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

श्रीशैलं श्रीपर्वतम् ॥१३-१४॥

श्लोक-१४

विश्वास-प्रस्तुतिः

कामकोष्णीं पुरीं काञ्चीं कावेरीं च सरिद्वराम्।
श्रीरङ्गाख्यं महापुण्यं यत्र सन्निहितो हरिः॥

मूलम्

कामकोष्णीं पुरीं काञ्चीं कावेरीं च सरिद्वराम्।
श्रीरङ्गाख्यं महापुण्यं यत्र सन्निहितो हरिः॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँसे गण्डकी, गोमती तथा विपाशा नदियोंमें स्नान करके वे सोननदके तटपर गये और वहाँ स्नान किया। इसके बाद गयामें जाकर पितरोंका वसुदेवजीके आज्ञानुसार पूजन-यजन किया। फिर गंगासागर-संगमपर गये; वहाँ भी स्नान आदि तीर्थ-कृत्योंसे निवृत्त होकर महेन्द्र पर्वतपर गये। वहाँ परशुरामजीका दर्शन और अभिवादन किया। तदनन्तर सप्तगोदावरी, वेणा, पम्पा और भीमरथी आदिमें स्नान करते हुए स्वामिकार्तिकका दर्शन करने गये तथा वहाँसे महादेवजीके निवासस्थान श्रीशैलपर पहुँचे। इसके बाद भगवान् बलरामने द्रविड़ देशके परम पुण्यमय स्थान वेंकटाचल (बालाजी) का दर्शन किया और वहाँसे वे कामाक्षी—शिवकांची, विष्णुकांची होते हुए तथा श्रेष्ठ नदी कावेरीमें स्नान करते हुए पुण्यमय श्रीरंगक्षेत्रमें पहुँचे। श्रीरंगक्षेत्रमें भगवान् विष्णु सदा विराजमान रहते हैं॥ ११—१४॥

श्लोक-१५

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऋषभाद्रिं हरेः क्षेत्रं दक्षिणां मथुरां तथा।
सामुद्रं सेतुमगमन्महापातकनाशनम्॥

मूलम्

ऋषभाद्रिं हरेः क्षेत्रं दक्षिणां मथुरां तथा।
सामुद्रं सेतुमगमन्महापातकनाशनम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँसे उन्होंने विष्णुभगवान‍्के क्षेत्र ऋषभ पर्वत, दक्षिण मथुरा तथा बड़े-बड़े महापापोंको नष्ट करनेवाले सेतुबन्धकी यात्रा की॥ १५॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

वृषभाद्रिं वनगिरिम् ॥ १५-१७ ॥

श्लोक-१६

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्रायुतमदाद् धेनूर्ब्राह्मणेभ्यो हलायुधः।
कृतमालां ताम्रपर्णीं मलयं च कुलाचलम्॥

मूलम्

तत्रायुतमदाद् धेनूर्ब्राह्मणेभ्यो हलायुधः।
कृतमालां ताम्रपर्णीं मलयं च कुलाचलम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ बलरामजीने ब्राह्मणोंको दस हजार गौएँ दान कीं। फिर वहाँसे कृतमाला और ताम्रपर्णी नदियोंमें स्नान करते हुए वे मलयपर्वतपर गये। वह पर्वत सात कुलपर्वतोंमेंसे एक है॥ १६॥

श्लोक-१७

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्रागस्त्यं समासीनं नमस्कृत्याभिवाद्य च।
योजितस्तेन चाशीर्भिरनुज्ञातो गतोऽर्णवम्।
दक्षिणं तत्र कन्याख्यां दुर्गां देवीं ददर्श सः॥

मूलम्

तत्रागस्त्यं समासीनं नमस्कृत्याभिवाद्य च।
योजितस्तेन चाशीर्भिरनुज्ञातो गतोऽर्णवम्।
दक्षिणं तत्र कन्याख्यां दुर्गां देवीं ददर्श सः॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँपर विराजमान अगस्त्य मुनिको उन्होंने नमस्कार और अभिवादन किया। अगस्त्यजीसे आशीर्वाद और अनुमति प्राप्त करके बलरामजीने दक्षिण समुद्रकी यात्रा की। वहाँ उन्होंने दुर्गादेवीका कन्याकुमारीके रूपमें दर्शन किया॥ १७॥

श्लोक-१८

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः फाल्गुनमासाद्य पञ्चाप्सरसमुत्तमम्।
विष्णुः सन्निहितो यत्र स्नात्वास्पर्शद् गवायुतम्॥

मूलम्

ततः फाल्गुनमासाद्य पञ्चाप्सरसमुत्तमम्।
विष्णुः सन्निहितो यत्र स्नात्वास्पर्शद् गवायुतम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके बाद वे फाल्गुन तीर्थ—अनन्तशयन क्षेत्रमें गये और वहाँके सर्वश्रेष्ठ पंचाप्सरस तीर्थमें स्नान किया। उस तीर्थमें सर्वदा विष्णुभगवान‍्का सान्निध्य रहता है। वहाँ बलरामजीने दस हजार गौएँ दान कीं॥ १८॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

फाल्गुनम् अनन्तपुरम् अस्पर्शत् ददौ ॥ १८-२२ ॥

श्लोक-१९

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽभिव्रज्य भगवान् केरलांस्तु त्रिगर्तकान्।
गोकर्णाख्यं शिवक्षेत्रं सान्निध्यं यत्र धूर्जटेः॥

मूलम्

ततोऽभिव्रज्य भगवान् केरलांस्तु त्रिगर्तकान्।
गोकर्णाख्यं शिवक्षेत्रं सान्निध्यं यत्र धूर्जटेः॥

अनुवाद (हिन्दी)

अब भगवान् बलराम वहाँसे चलकर केरल और त्रिगर्त देशोंमें होकर भगवान् शंकरके क्षेत्र गोकर्णतीर्थमें आये। वहाँ सदा-सर्वदा भगवान् शंकर विराजमान रहते हैं॥ १९॥

श्लोक-२०

विश्वास-प्रस्तुतिः

आर्यां द्वैपायनीं दृष्ट्वा शूर्पारकमगाद् बलः।
तापीं पयोष्णीं निर्विन्ध्यामुपस्पृश्याथ दण्डकम्॥

मूलम्

आर्यां द्वैपायनीं दृष्ट्वा शूर्पारकमगाद् बलः।
तापीं पयोष्णीं निर्विन्ध्यामुपस्पृश्याथ दण्डकम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँसे जलसे घिरे द्वीपमें निवास करनेवाली आर्यादेवीका दर्शन करने गये और फिर उस द्वीपसे चलकर शूर्पारक-क्षेत्रकी यात्रा की, इसके बाद तापी, पयोष्णी और निर्विन्ध्या नदियोंमें स्नान करके वे दण्डकारण्यमें आये॥ २०॥

श्लोक-२१

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रविश्य रेवामगमद् यत्र माहिष्मती पुरी।
मनुतीर्थमुपस्पृश्य प्रभासं पुनरागमत्॥

मूलम्

प्रविश्य रेवामगमद् यत्र माहिष्मती पुरी।
मनुतीर्थमुपस्पृश्य प्रभासं पुनरागमत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ होकर वे नर्मदाजीके तटपर गये। परीक्षित्! इस पवित्र नदीके तटपर ही माहिष्मतीपुरी है। वहाँ मनुतीर्थमें स्नान करके वे फिर प्रभासक्षेत्रमें चले आये॥ २१॥

श्लोक-२२

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रुत्वा द्विजैः कथ्यमानं कुरुपाण्डवसंयुगे।
सर्वराजन्यनिधनं भारं मेने हृतं भुवः॥

मूलम्

श्रुत्वा द्विजैः कथ्यमानं कुरुपाण्डवसंयुगे।
सर्वराजन्यनिधनं भारं मेने हृतं भुवः॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहीं उन्होंने ब्राह्मणोंसे सुना कि कौरव और पाण्डवोंके युद्धमें अधिकांश क्षत्रियोंका संहार हो गया। उन्होंने ऐसा अनुभव किया कि अब पृथ्वीका बहुत-सा भार उतर गया॥ २२॥

श्लोक-२३

विश्वास-प्रस्तुतिः

स भीमदुर्योधनयोर्गदाभ्यां युध्यतोर्मृधे।
वारयिष्यन् विनशनं जगाम यदुनन्दनः॥

मूलम्

स भीमदुर्योधनयोर्गदाभ्यां युध्यतोर्मृधे।
वारयिष्यन् विनशनं जगाम यदुनन्दनः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिस दिन रणभूमिमें भीमसेन और दुर्योधन गदायुद्ध कर रहे थे, उसी दिन बलरामजी उन्हें रोकनेके लिये कुरुक्षेत्र जा पहुँचे॥ २३॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

विनशनं सरस्वतीतिरोधानदेशम् ॥ २३-२९ ॥

श्लोक-२४

विश्वास-प्रस्तुतिः

युधिष्ठिरस्तु तं दृष्ट्वा यमौ कृष्णार्जुनावपि।
अभिवाद्याभवंस्तूष्णीं किं विवक्षुरिहागतः॥

मूलम्

युधिष्ठिरस्तु तं दृष्ट्वा यमौ कृष्णार्जुनावपि।
अभिवाद्याभवंस्तूष्णीं किं विवक्षुरिहागतः॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज युधिष्ठिर, नकुल, सहदेव, भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुनने बलरामजीको देखकर प्रणाम किया तथा चुप हो रहे। वे डरते हुए मन-ही-मन सोचने लगे कि ये न जाने क्या कहनेके लिये यहाँ पधारे हैं?॥ २४॥

श्लोक-२५

विश्वास-प्रस्तुतिः

गदापाणी उभौ दृष्ट्वा संरब्धौ विजयैषिणौ।
मण्डलानि विचित्राणि चरन्ताविदमब्रवीत्॥

मूलम्

गदापाणी उभौ दृष्ट्वा संरब्धौ विजयैषिणौ।
मण्डलानि विचित्राणि चरन्ताविदमब्रवीत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय भीमसेन और दुर्योधन दोनों ही हाथमें गदा लेकर एक-दूसरेको जीतनेके लिये क्रोधसे भरकर भाँति-भाँतिके पैंतरे बदल रहे थे। उन्हें देखकर बलरामजीने कहा—॥ २५॥

श्लोक-२६

विश्वास-प्रस्तुतिः

युवां तुल्यबलौ वीरौ हे राजन् हे वृकोदर।
एकं प्राणाधिकं मन्ये उतैकं शिक्षयाधिकम्॥

मूलम्

युवां तुल्यबलौ वीरौ हे राजन् हे वृकोदर।
एकं प्राणाधिकं मन्ये उतैकं शिक्षयाधिकम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजा दुर्योधन और भीमसेन! तुम दोनों वीर हो। तुम दोनोंमें बल-पौरुष भी समान है। मैं ऐसा समझता हूँ कि भीमसेनमें बल अधिक है और दुर्योधनने गदायुद्धमें शिक्षा अधिक पायी है॥ २६॥

श्लोक-२७

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मादेकतरस्येह युवयोः समवीर्ययोः।
न लक्ष्यते जयोऽन्यो वा विरमत्वफलो रणः॥

मूलम्

तस्मादेकतरस्येह युवयोः समवीर्ययोः।
न लक्ष्यते जयोऽन्यो वा विरमत्वफलो रणः॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसलिये तुम लोगों-जैसे समान बलशालियोंमें किसी एककी जय या पराजय नहीं होती दीखती। अतः तुमलोग व्यर्थका युद्ध मत करो, अब इसे बंद कर दो’॥ २७॥

श्लोक-२८

विश्वास-प्रस्तुतिः

न तद्वाक्यं जगृहतुर्बद्धवैरौ नृपार्थवत्।
अनुस्मरन्तावन्योन्यं दुरुक्तं दुष्कृतानि च॥

मूलम्

न तद्वाक्यं जगृहतुर्बद्धवैरौ नृपार्थवत्।
अनुस्मरन्तावन्योन्यं दुरुक्तं दुष्कृतानि च॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! बलरामजीकी बात दोनोंके लिये हितकर थी। परन्तु उन दोनोंका वैरभाव इतना दृढ़मूल हो गया था कि उन्होंने बलरामजीकी बात न मानी। वे एक-दूसरेकी कटुवाणी और दुर्व्यवहारोंका स्मरण करके उन्मत्त-से हो रहे थे॥ २८॥

श्लोक-२९

विश्वास-प्रस्तुतिः

दिष्टं तदनुमन्वानो रामो द्वारवतीं ययौ।
उग्रसेनादिभिः प्रीतैर्ज्ञातिभिः समुपागतः॥

मूलम्

दिष्टं तदनुमन्वानो रामो द्वारवतीं ययौ।
उग्रसेनादिभिः प्रीतैर्ज्ञातिभिः समुपागतः॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् बलरामजीने निश्चय किया कि इनका प्रारब्ध ऐसा ही है; इसलिये उसके सम्बन्धमें विशेष आग्रह न करके वे द्वारका लौट गये। द्वारकामें उग्रसेन आदि गुरुजनों तथा अन्य सम्बन्धियोंने बड़े प्रेमसे आगे आकर उनका स्वागत किया॥ २९॥

श्लोक-३०

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं पुनर्नैमिषं प्राप्तमृषयोऽयाजयन् मुदा।
क्रत्वङ्गं क्रतुभिः सर्वैर्निवृत्ताखिलविग्रहम्॥

मूलम्

तं पुनर्नैमिषं प्राप्तमृषयोऽयाजयन् मुदा।
क्रत्वङ्गं क्रतुभिः सर्वैर्निवृत्ताखिलविग्रहम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँसे बलरामजी फिर नैमिषारण्य क्षेत्रमें गये। वहाँ ऋषियोंने विरोधभावसे—युद्धादिसे निवृत्त बलरामजीके द्वारा बड़े प्रेमसे सब प्रकारके यज्ञ कराये। परीक्षित्! सच पूछो तो जितने भी यज्ञ हैं, वे बलरामजीके अंग ही हैं। इसलिये उनका यह यज्ञानुष्ठान लोकसंग्रहके लिये ही था॥ ३०॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

क्रत्वङ्गं यज्ञशरीरम् ॥३०॥

श्लोक-३१

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेभ्यो विशुद्धविज्ञानं भगवान् व्यतरद् विभुः।
येनैवात्मन्यदो विश्वमात्मानं विश्वगं विदुः॥

मूलम्

तेभ्यो विशुद्धविज्ञानं भगवान् व्यतरद् विभुः।
येनैवात्मन्यदो विश्वमात्मानं विश्वगं विदुः॥

अनुवाद (हिन्दी)

सर्वसमर्थ भगवान् बलरामने उन ऋषियोंको विशुद्ध तत्त्वज्ञानका उपदेश किया, जिससे वे लोग इस सम्पूर्ण विश्वको अपने-आपमें और अपने-आपको सारे विश्वमें अनुभव करने लगे॥ ३१॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

ज्ञानप्रदानदक्षिणास्थानीयं येनेति धारकत्वं विश्वगमिति प्राप्यत्वम् ॥३१-३४॥

श्लोक-३२

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वपत्न्यावभृथस्नातो ज्ञातिबन्धुसुहृद्‍वृतः।
रेजे स्वज्योत्स्नयेवेन्दुः सुवासाः सुष्ठ्वलङ्कृतः॥

मूलम्

स्वपत्न्यावभृथस्नातो ज्ञातिबन्धुसुहृद्‍वृतः।
रेजे स्वज्योत्स्नयेवेन्दुः सुवासाः सुष्ठ्वलङ्कृतः॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके बाद बलरामजीने अपनी पत्नी रेवतीके साथ यज्ञान्त-स्नान किया और सुन्दर-सुन्दर वस्त्र तथा आभूषण पहनकर अपने भाई-बन्धु तथा स्वजन-सम्बन्धियोंके साथ इस प्रकार शोभायमान हुए, जैसे अपनी चन्द्रिका एवं नक्षत्रोंके साथ चन्द्रदेव होते हैं॥ ३२॥

श्लोक-३३

विश्वास-प्रस्तुतिः

ईदृग्विधान्यसंख्यानि बलस्य बलशालिनः।
अनन्तस्याप्रमेयस्य मायामर्त्यस्य सन्ति हि॥

मूलम्

ईदृग्विधान्यसंख्यानि बलस्य बलशालिनः।
अनन्तस्याप्रमेयस्य मायामर्त्यस्य सन्ति हि॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! भगवान् बलराम स्वयं अनन्त हैं। उनका स्वरूप मन और वाणीके परे है। उन्होंने लीलाके लिये ही यह मनुष्योंका-सा शरीर ग्रहण किया है। उन बलशाली बलरामजीके ऐसे-ऐसे चरित्रोंकी गिनती भी नहीं की जा सकती॥ ३३॥

श्लोक-३४

विश्वास-प्रस्तुतिः

योऽनुस्मरेत रामस्य कर्माण्यद‍्भुतकर्मणः।
सायं प्रातरनन्तस्य विष्णोः स दयितो भवेत्॥

मूलम्

योऽनुस्मरेत रामस्य कर्माण्यद‍्भुतकर्मणः।
सायं प्रातरनन्तस्य विष्णोः स दयितो भवेत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो पुरुष अनन्त, सर्वव्यापक, अद‍्भुतकर्मा भगवान् बलरामजीके चरित्रोंका सायं-प्रातः स्मरण करता है, वह भगवान‍्का अत्यन्त प्रिय हो जाता है॥ ३४॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

॥ इति श्रीमद्भागवतव्याख्याने दशमस्कन्धे श्रीसुदर्शनसूरिकृतशुकपक्षीये एकोनाशीतितमोऽध्यायः ॥७९॥

अनुवाद (समाप्ति)

इति श्रीमद‍्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे उत्तरार्धे बलदेवतीर्थयात्रानिरूपणं नामैकोनाशीतितमोऽध्यायः॥ ७९॥