[अष्टसप्ततितमोऽध्यायः]
भागसूचना
दन्तवक्त्र और विदूरथका उद्धार तथा तीर्थयात्रामें बलरामजीके हाथसे सूतजीका वध
श्लोक-१
मूलम् (वचनम्)
श्रीशुक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
शिशुपालस्य शाल्वस्य पौण्ड्रकस्यापि दुर्मतिः।
परलोकगतानां च कुर्वन् पारोक्ष्यसौहृदम्॥
मूलम्
शिशुपालस्य शाल्वस्य पौण्ड्रकस्यापि दुर्मतिः।
परलोकगतानां च कुर्वन् पारोक्ष्यसौहृदम्॥
श्लोक-२
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकः पदातिः संक्रुद्धो गदापाणिः प्रकम्पयन्।
पद्भ्यामिमां महाराज महासत्त्वो व्यदृश्यत॥
मूलम्
एकः पदातिः संक्रुद्धो गदापाणिः प्रकम्पयन्।
पद्भ्यामिमां महाराज महासत्त्वो व्यदृश्यत॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! शिशुपाल, शाल्व और पौण्ड्रकके मारे जानेपर उनकी मित्रताका ऋण चुकानेके लिये मूर्ख दन्तवक्त्र अकेला ही पैदल युद्धभूमिमें आ धमका। वह क्रोधके मारे आगबबूला हो रहा था। शस्त्रके नामपर उसके हाथमें एकमात्र गदा थी। परन्तु परीक्षित्! लोगोंने देखा, वह इतना शक्तिशाली है कि उसके पैरोंकी धमकसे पृथ्वी हिल रही है॥ १-२॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
व्यदृश्यत दन्तवक्त्र इत्यर्थः ॥ २-१५ ॥
श्लोक-३
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं तथाऽऽयान्तमालोक्य गदामादाय सत्वरः।
अवप्लुत्य रथात् कृष्णः सिन्धुं वेलेव प्रत्यधात्॥
मूलम्
तं तथाऽऽयान्तमालोक्य गदामादाय सत्वरः।
अवप्लुत्य रथात् कृष्णः सिन्धुं वेलेव प्रत्यधात्॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् श्रीकृष्णने जब उसे इस प्रकार आते देखा, तब झटपट हाथमें गदा लेकर वे रथसे कूद पड़े। फिर जैसे समुद्रके तटकी भूमि उसके ज्वार-भाटेको आगे बढ़नेसे रोक देती है, वैसे ही उन्होंने उसे रोक दिया॥ ३॥
श्लोक-४
विश्वास-प्रस्तुतिः
गदामुद्यम्य कारूषो मुकुन्दं प्राह दुर्मदः।
दिष्ट्या दिष्ट्या भवानद्य मम दृष्टिपथं गतः॥
मूलम्
गदामुद्यम्य कारूषो मुकुन्दं प्राह दुर्मदः।
दिष्ट्या दिष्ट्या भवानद्य मम दृष्टिपथं गतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
घमंडके नशेमें चूर करूषनरेश दन्तवक्त्रने गदा तानकर भगवान् श्रीकृष्णसे कहा—‘बड़े सौभाग्य और आनन्दकी बात है कि आज तुम मेरी आँखोंके सामने पड़ गये॥ ४॥
श्लोक-५
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वं मातुलेयो नः कृष्ण मित्रध्रुङ्मां जिघांससि।
अतस्त्वां गदया मन्द हनिष्ये वज्रकल्पया॥
मूलम्
त्वं मातुलेयो नः कृष्ण मित्रध्रुङ्मां जिघांससि।
अतस्त्वां गदया मन्द हनिष्ये वज्रकल्पया॥
अनुवाद (हिन्दी)
कृष्ण! तुम मेरे मामाके लड़के हो, इसलिये तुम्हें मारना तो नहीं चाहिये; परन्तु एक तो तुमने मेरे मित्रोंको मार डाला है और दूसरे मुझे भी मारना चाहते हो। इसलिये मतिमन्द! आज मैं तुम्हें अपनी वज्रकर्कश गदासे चूर-चूर कर डालूँगा॥ ५॥
श्लोक-६
विश्वास-प्रस्तुतिः
तर्ह्यानृण्यमुपैम्यज्ञ मित्राणां मित्रवत्सलः।
बन्धुरूपमरिं हत्वा व्याधिं देहचरं यथा॥
मूलम्
तर्ह्यानृण्यमुपैम्यज्ञ मित्राणां मित्रवत्सलः।
बन्धुरूपमरिं हत्वा व्याधिं देहचरं यथा॥
अनुवाद (हिन्दी)
मूर्ख! वैसे तो तुम मेरे सम्बन्धी हो, फिर भी हो शत्रु ही, जैसे अपने ही शरीरमें रहनेवाला कोई रोग हो! मैं अपने मित्रोंसे बड़ा प्रेम करता हूँ, उनका मुझपर ऋण है। अब तुम्हें मारकर ही मैं उनके ऋणसे उऋण हो सकता हूँ॥ ६॥
श्लोक-७
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं रूक्षैस्तुदन् वाक्यैः कृष्णं तोत्त्रैरिव द्विपम्।
गदया ताडयन्मूर्ध्नि सिंहवद् व्यनदच्च सः॥
मूलम्
एवं रूक्षैस्तुदन् वाक्यैः कृष्णं तोत्त्रैरिव द्विपम्।
गदया ताडयन्मूर्ध्नि सिंहवद् व्यनदच्च सः॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे महावत अंकुशसे हाथीको घायल करता है, वैसे ही दन्तवक्त्रने अपनी कड़वी बातोंसे श्रीकृष्णको चोट पहुँचानेकी चेष्टा की और फिर वह उनके सिरपर बड़े वेगसे गदा मारकर सिंहके समान गरज उठा॥ ७॥
श्लोक-८
विश्वास-प्रस्तुतिः
गदयाभिहतोऽप्याजौ न चचाल यदूद्वहः।
कृष्णोऽपि तमहन् गुर्व्या कौमोदक्या स्तनान्तरे॥
मूलम्
गदयाभिहतोऽप्याजौ न चचाल यदूद्वहः।
कृष्णोऽपि तमहन् गुर्व्या कौमोदक्या स्तनान्तरे॥
अनुवाद (हिन्दी)
रणभूमिमें गदाकी चोट खाकर भी भगवान् श्रीकृष्ण टस-से-मस न हुए। उन्होंने अपनी बहुत बड़ी कौमोदकी गदा सँभालकर उससे दन्तवक्त्रके वक्षःस्थलपर प्रहार किया॥ ८॥
श्लोक-९
विश्वास-प्रस्तुतिः
गदानिर्भिन्नहृदय उद्वमन् रुधिरं मुखात्।
प्रसार्य केशबाह्वङ्घ्रीन् धरण्यां न्यपतद् व्यसुः॥
मूलम्
गदानिर्भिन्नहृदय उद्वमन् रुधिरं मुखात्।
प्रसार्य केशबाह्वङ्घ्रीन् धरण्यां न्यपतद् व्यसुः॥
अनुवाद (हिन्दी)
गदाकी चोटसे दन्तवक्त्रका कलेजा फट गया। वह मुँहसे खून उगलने लगा। उसके बाल बिखर गये, भुजाएँ और पैर फैल गये। निदान निष्प्राण होकर वह धरतीपर गिर पड़ा॥ ९॥
श्लोक-१०
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः सूक्ष्मतरं ज्योतिः कृष्णमाविशदद्भुतम्।
पश्यतां सर्वभूतानां यथा चैद्यवधे नृप॥
मूलम्
ततः सूक्ष्मतरं ज्योतिः कृष्णमाविशदद्भुतम्।
पश्यतां सर्वभूतानां यथा चैद्यवधे नृप॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! जैसा कि शिशुपालकी मृत्युके समय हुआ था, सब प्राणियोंके सामने ही दन्तवक्त्रके मृत शरीरसे एक अत्यन्त सूक्ष्म ज्योति निकली और वह बड़ी विचित्र रीतिसे भगवान् श्रीकृष्णमें समा गयी॥ १०॥
श्लोक-११
विश्वास-प्रस्तुतिः
विदूरथस्तु तद्भ्राता भ्रातृशोकपरिप्लुतः।
आगच्छदसिचर्मभ्यामुच्छ्वसंस्तज्जिघांसया॥
मूलम्
विदूरथस्तु तद्भ्राता भ्रातृशोकपरिप्लुतः।
आगच्छदसिचर्मभ्यामुच्छ्वसंस्तज्जिघांसया॥
अनुवाद (हिन्दी)
दन्तवक्त्रके भाईका नाम था विदूरथ। वह अपने भाईकी मृत्युसे अत्यन्त शोकाकुल हो गया। अब वह क्रोधके मारे लम्बी-लम्बी साँस लेता हुआ हाथमें ढाल-तलवार लेकर भगवान् श्रीकृष्णको मार डालनेकी इच्छासे आया॥ ११॥
श्लोक-१२
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य चापततः कृष्णश्चक्रेण क्षुरनेमिना।
शिरो जहार राजेन्द्र सकिरीटं सकुण्डलम्॥
मूलम्
तस्य चापततः कृष्णश्चक्रेण क्षुरनेमिना।
शिरो जहार राजेन्द्र सकिरीटं सकुण्डलम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजेन्द्र! जब भगवान् श्रीकृष्णने देखा कि अब वह प्रहार करना ही चाहता है, तब उन्होंने अपने छुरेके समान तीखी धारवाले चक्रसे किरीट और कुण्डलके साथ उसका सिर धड़से अलग कर दिया॥ १२॥
श्लोक-१३
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं सौभं च शाल्वं च दन्तवक्त्रं सहानुजम्।
हत्वा दुर्विषहानन्यैरीडितः सुरमानवैः॥
मूलम्
एवं सौभं च शाल्वं च दन्तवक्त्रं सहानुजम्।
हत्वा दुर्विषहानन्यैरीडितः सुरमानवैः॥
श्लोक-१४
विश्वास-प्रस्तुतिः
मुनिभिः सिद्धगन्धर्वैर्विद्याधरमहोरगैः।
अप्सरोभिः पितृगणैर्यक्षैः किन्नरचारणैः॥
मूलम्
मुनिभिः सिद्धगन्धर्वैर्विद्याधरमहोरगैः।
अप्सरोभिः पितृगणैर्यक्षैः किन्नरचारणैः॥
श्लोक-१५
विश्वास-प्रस्तुतिः
उपगीयमानविजयः कुसुमैरभिवर्षितः।
वृतश्च वृष्णिप्रवरैर्विवेशालङ्कृतां पुरीम्॥
मूलम्
उपगीयमानविजयः कुसुमैरभिवर्षितः।
वृतश्च वृष्णिप्रवरैर्विवेशालङ्कृतां पुरीम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्णने शाल्व, उसके विमान सौभ, दन्तवक्त्र और विदूरथको, जिन्हें मारना दूसरोंके लिये अशक्य था, मारकर द्वारकापुरीमें प्रवेश किया। उस समय देवता और मनुष्य उनकी स्तुति कर रहे थे। बड़े-बड़े ऋषि-मुनि, सिद्ध-गन्धर्व, विद्याधर और वासुकि आदि महानाग, अप्सराएँ , पितर, यक्ष, किन्नर तथा चारण उनके ऊपर पुष्पोंकी वर्षा करते हुए उनकी विजयके गीत गा रहे थे। भगवान्के प्रवेशके अवसरपर पुरी खूब सजा दी गयी थी और बड़े-बड़े वृष्णिवंशी यादव वीर उनके पीछे-पीछे चल रहे थे॥ १३—१५॥
श्लोक-१६
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं योगेश्वरः कृष्णो भगवाञ्जगदीश्वरः।
ईयते पशुदृष्टीनां निर्जितो जयतीति सः॥
मूलम्
एवं योगेश्वरः कृष्णो भगवाञ्जगदीश्वरः।
ईयते पशुदृष्टीनां निर्जितो जयतीति सः॥
अनुवाद (हिन्दी)
योगेश्वर एवं जगदीश्वर भगवान् श्रीकृष्ण इसी प्रकार अनेकों खेल खेलते रहते हैं। जो पशुओंके समान अविवेकी हैं, वे उन्हें कभी हारते भी देखते हैं। परन्तु वास्तवमें तो वे सदा-सर्वदा विजयी ही हैं॥ १६॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
निर्जितो जयतीति भ्रान्तिः अजित एव जयतीत्यर्थः ॥ १६-१७ ॥
श्लोक-१७
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रुत्वा युद्धोद्यमं रामः कुरूणां सह पाण्डवैः।
तीर्थाभिषेकव्याजेन मध्यस्थः प्रययौ किल॥
मूलम्
श्रुत्वा युद्धोद्यमं रामः कुरूणां सह पाण्डवैः।
तीर्थाभिषेकव्याजेन मध्यस्थः प्रययौ किल॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक बार बलरामजीने सुना कि दुर्योधनादि कौरव पाण्डवोंके साथ युद्ध करनेकी तैयारी कर रहे हैं। वे मध्यस्थ थे, उन्हें किसीका पक्ष लेकर लड़ना पसंद नहीं था। इसलिये वे तीर्थोंमें स्नान करनेके बहाने द्वारकासे चले गये॥ १७॥
श्लोक-१८
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्नात्वा प्रभासे सन्तर्प्य देवर्षिपितृमानवान्।
सरस्वतीं प्रतिस्रोतं ययौ ब्राह्मणसंवृतः॥
मूलम्
स्नात्वा प्रभासे सन्तर्प्य देवर्षिपितृमानवान्।
सरस्वतीं प्रतिस्रोतं ययौ ब्राह्मणसंवृतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँसे चलकर उन्होंने प्रभासक्षेत्रमें स्नान किया और तर्पण तथा ब्राह्मणभोजनके द्वारा देवता, ऋषि, पितर और मनुष्योंको तृप्त किया। इसके बाद वे कुछ ब्राह्मणोंके साथ जिधरसे सरस्वती नदी आ रही थी, उधर ही चल पड़े॥ १८॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
प्रतिस्रोतं पश्चिमाभिमुखस्रोतसम् ॥ १८-२२॥
श्लोक-१९
विश्वास-प्रस्तुतिः
पृथूदकं बिन्दुसरस्त्रितकूपं सुदर्शनम्।
विशालं ब्रह्मतीर्थं च चक्रं प्राचीं सरस्वतीम्॥
मूलम्
पृथूदकं बिन्दुसरस्त्रितकूपं सुदर्शनम्।
विशालं ब्रह्मतीर्थं च चक्रं प्राचीं सरस्वतीम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे क्रमशः पृथूदक, बिन्दुसर, त्रितकूप, सुदर्शनतीर्थ, विशालतीर्थ, ब्रह्मतीर्थ, चक्रतीर्थ और पूर्ववाहिनी सरस्वती आदि तीर्थोंमें गये॥ १९॥
श्लोक-२०
विश्वास-प्रस्तुतिः
यमुनामनु यान्येव गङ्गामनु च भारत।
जगाम नैमिषं यत्र ऋषयः सत्रमासते॥
मूलम्
यमुनामनु यान्येव गङ्गामनु च भारत।
जगाम नैमिषं यत्र ऋषयः सत्रमासते॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! तदनन्तर यमुनातट और गंगातटके प्रधान-प्रधान तीर्थोंमें होते हुए वे नैमिषारण्य क्षेत्रमें गये। उन दिनों नैमिषारण्य क्षेत्रमें बड़े-बड़े ऋषि सत्संगरूप महान् सत्र कर रहे थे॥ २०॥
श्लोक-२१
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमागतमभिप्रेत्य मुनयो दीर्घसत्रिणः।
अभिनन्द्य यथान्यायं प्रणम्योत्थाय चार्चयन्॥
मूलम्
तमागतमभिप्रेत्य मुनयो दीर्घसत्रिणः।
अभिनन्द्य यथान्यायं प्रणम्योत्थाय चार्चयन्॥
अनुवाद (हिन्दी)
दीर्घकालतक सत्संगसत्रका नियम लेकर बैठे हुए ऋषियोंने बलरामजीको आया देख अपने-अपने आसनोंसे उठकर उनका स्वागत-सत्कार किया और यथायोग्य प्रणाम-आशीर्वाद करके उनकी पूजा की॥ २१॥
श्लोक-२२
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोऽर्चितः सपरीवारः कृतासनपरिग्रहः।
रोमहर्षणमासीनं महर्षेः शिष्यमैक्षत॥
मूलम्
सोऽर्चितः सपरीवारः कृतासनपरिग्रहः।
रोमहर्षणमासीनं महर्षेः शिष्यमैक्षत॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे अपने साथियोंके साथ आसन ग्रहण करके बैठ गये और उनकी अर्चा-पूजा हो चुकी, तब उन्होंने देखा कि भगवान् व्यासके शिष्य रोमहर्षण व्यासगद्दीपर बैठे हुए हैं॥ २२॥
श्लोक-२३
विश्वास-प्रस्तुतिः
अप्रत्युत्थायिनं सूतमकृतप्रह्वणाञ्जलिम्।
अध्यासीनं च तान् विप्रांश्चुकोपोद्वीक्ष्य माधवः॥
मूलम्
अप्रत्युत्थायिनं सूतमकृतप्रह्वणाञ्जलिम्।
अध्यासीनं च तान् विप्रांश्चुकोपोद्वीक्ष्य माधवः॥
अनुवाद (हिन्दी)
बलरामजीने देखा कि रोमहर्षणजी सूत-जातिमें उत्पन्न होनेपर भी उन श्रेष्ठ ब्राह्मणोंसे ऊँचे आसनपर बैठे हुए हैं और उनके आनेपर न तो उठकर स्वागत करते हैं और न हाथ जोड़कर प्रणाम ही। इसपर बलरामजीको क्रोध आ गया॥ २३॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
प्रह्वणं प्रणामः ॥ २३-३०॥
श्लोक-२४
विश्वास-प्रस्तुतिः
कस्मादसाविमान् विप्रानध्यास्ते प्रतिलोमजः।
धर्मपालांस्तथैवास्मान् वधमर्हति दुर्मतिः॥
मूलम्
कस्मादसाविमान् विप्रानध्यास्ते प्रतिलोमजः।
धर्मपालांस्तथैवास्मान् वधमर्हति दुर्मतिः॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे कहने लगे कि ‘यह रोमहर्षण प्रतिलोम जातिका होनेपर भी इन श्रेष्ठ ब्राह्मणोंसे तथा धर्मके रक्षक हमलोगोंसे ऊपर बैठा हुआ है, इसलिये यह दुर्बुद्धि मृत्युदण्डका पात्र है॥ २४॥
श्लोक-२५
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऋषेर्भगवतो भूत्वा शिष्योऽधीत्य बहूनि च।
सेतिहासपुराणानि धर्मशास्त्राणि सर्वशः॥
मूलम्
ऋषेर्भगवतो भूत्वा शिष्योऽधीत्य बहूनि च।
सेतिहासपुराणानि धर्मशास्त्राणि सर्वशः॥
श्लोक-२६
विश्वास-प्रस्तुतिः
अदान्तस्याविनीतस्य वृथा पण्डितमानिनः।
न गुणाय भवन्ति स्म नटस्येवाजितात्मनः॥
मूलम्
अदान्तस्याविनीतस्य वृथा पण्डितमानिनः।
न गुणाय भवन्ति स्म नटस्येवाजितात्मनः॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् व्यासदेवका शिष्य होकर इसने इतिहास, पुराण, धर्मशास्त्र आदि बहुत-से शास्त्रोंका अध्ययन भी किया है; परन्तु अभी इसका अपने मनपर संयम नहीं है। यह विनयी नहीं, उद्दण्ड है। इस अजितात्माने झूठमूठ अपनेको बहुत बड़ा पण्डित मान रखा है। जैसे नटकी सारी चेष्टाएँ अभिनय मात्र होती हैं, वैसे ही इसका सारा अध्ययन स्वाँगके लिये है। उससे न इसका लाभ है और न किसी दूसरेका॥ २५-२६॥
श्लोक-२७
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतदर्थो हि लोकेऽस्मिन्नवतारो मया कृतः।
वध्या मे धर्मध्वजिनस्ते हि पातकिनोऽधिकाः॥
मूलम्
एतदर्थो हि लोकेऽस्मिन्नवतारो मया कृतः।
वध्या मे धर्मध्वजिनस्ते हि पातकिनोऽधिकाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो लोग धर्मका चिह्न धारण करते हैं, परन्तु धर्मका पालन नहीं करते, वे अधिक पापी हैं और वे मेरे लिये वध करने योग्य हैं। इस जगत्में इसीलिये मैंने अवतार धारण किया है’॥ २७॥
श्लोक-२८
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतावदुक्त्वा भगवान् निवृत्तोऽसद्वधादपि।
भावित्वात्तं कुशाग्रेण करस्थेनाहनत् प्रभुः॥
मूलम्
एतावदुक्त्वा भगवान् निवृत्तोऽसद्वधादपि।
भावित्वात्तं कुशाग्रेण करस्थेनाहनत् प्रभुः॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् बलराम यद्यपि तीर्थयात्राके कारण दुष्टोंके वधसे भी अलग हो गये थे, फिर भी इतना कहकर उन्होंने अपने हाथमें स्थित कुशकी नोकसे उनपर प्रहार कर दिया और वे तुरंत मर गये। होनहार ही ऐसी थी॥ २८॥
श्लोक-२९
विश्वास-प्रस्तुतिः
हाहेति वादिनः सर्वे मुनयः खिन्नमानसाः।
ऊचुः सङ्कर्षणं देवमधर्मस्ते कृतः प्रभो॥
मूलम्
हाहेति वादिनः सर्वे मुनयः खिन्नमानसाः।
ऊचुः सङ्कर्षणं देवमधर्मस्ते कृतः प्रभो॥
अनुवाद (हिन्दी)
सूतजीके मरते ही सब ऋषि-मुनि हाय-हाय करने लगे, सबके चित्त खिन्न हो गये। उन्होंने देवाधिदेव भगवान् बलरामजीसे कहा—‘प्रभो! आपने यह बहुत बड़ा अधर्म किया॥ २९॥
श्लोक-३०
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस्य ब्रह्मासनं दत्तमस्माभिर्यदुनन्दन।
आयुश्चात्माक्लमं तावद् यावत् सत्रं समाप्यते॥
मूलम्
अस्य ब्रह्मासनं दत्तमस्माभिर्यदुनन्दन।
आयुश्चात्माक्लमं तावद् यावत् सत्रं समाप्यते॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदुवंशशिरोमणे! सूतजीको हम लोगोंने ही ब्राह्मणोचित आसनपर बैठाया था और जबतक हमारा यह सत्र समाप्त न हो, तबतकके लिये उन्हें शारीरिक कष्टसे रहित आयु भी दे दी थी॥ ३०॥
श्लोक-३१
विश्वास-प्रस्तुतिः
अजानतैवाचरितस्त्वया ब्रह्मवधो यथा।
योगेश्वरस्य भवतो नाम्नायोऽपि नियामकः॥
मूलम्
अजानतैवाचरितस्त्वया ब्रह्मवधो यथा।
योगेश्वरस्य भवतो नाम्नायोऽपि नियामकः॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
आम्नायोऽपि न नियामकः कीर्तनकृदित्यर्थ इति ॥ ३१ ॥
श्लोक-३२
विश्वास-प्रस्तुतिः
यद्येतद् ब्रह्महत्यायाः पावनं लोकपावन।
चरिष्यति भवाल्ँलोकसङ्ग्रहोऽनन्यचोदितः॥
मूलम्
यद्येतद् ब्रह्महत्यायाः पावनं लोकपावन।
चरिष्यति भवाल्ँलोकसङ्ग्रहोऽनन्यचोदितः॥
अनुवाद (हिन्दी)
आपने अनजानमें यह ऐसा काम कर दिया, जो ब्रह्महत्याके समान है। हमलोग यह मानते हैं कि आप योगेश्वर हैं, वेद भी आपपर शासन नहीं कर सकता। फिर भी आपसे यह प्रार्थना है कि आपका अवतार लोगोंको पवित्र करनेके लिये हुआ है; यदि आप किसीकी प्रेरणाके बिना स्वयं अपनी इच्छासे ही इस ब्रह्महत्याका प्रायश्चित्त कर लेंगे तो इससे लोगोंको बहुत शिक्षा मिलेगी’॥ ३१-३२॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
भवान् करिष्यति लोकसङ्ग्रहं लोकसङ्ग्रहः स्यादीत्यर्थः ॥३२-३४॥
श्लोक-३३
मूलम् (वचनम्)
श्रीभगवानुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
करिष्ये वधनिर्वेशं लोकानुग्रहकाम्यया।
नियमः प्रथमे कल्पे यावान् स तु विधीयताम्॥
मूलम्
करिष्ये वधनिर्वेशं लोकानुग्रहकाम्यया।
नियमः प्रथमे कल्पे यावान् स तु विधीयताम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् बलरामने कहा—मैं लोगोंको शिक्षा देनेके लिये, लोगोंपर अनुग्रह करनेके लिये इस ब्रह्महत्याका प्रायश्चित्त अवश्य करूँगा, अतः इसके लिये प्रथम श्रेणीका जो प्रायश्चित्त हो, आपलोग उसीका विधान कीजिये॥ ३३॥
श्लोक-३४
विश्वास-प्रस्तुतिः
दीर्घमायुर्बतैतस्य सत्त्वमिन्द्रियमेव च।
आशासितं यत्तद् ब्रूत साधये योगमायया॥
मूलम्
दीर्घमायुर्बतैतस्य सत्त्वमिन्द्रियमेव च।
आशासितं यत्तद् ब्रूत साधये योगमायया॥
अनुवाद (हिन्दी)
आपलोग इस सूतको लम्बी आयु, बल, इन्द्रिय-शक्ति आदि जो कुछ भी देना चाहते हों, मुझे बतला दीजिये; मैं अपने योगबलसे सब कुछ सम्पन्न किये देता हूँ॥ ३४॥
श्लोक-३५
मूलम् (वचनम्)
ऋषय ऊचुः
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस्त्रस्य तव वीर्यस्य मृत्योरस्माकमेव च।
यथा भवेद् वचः सत्यं तथा राम विधीयताम्॥
मूलम्
अस्त्रस्य तव वीर्यस्य मृत्योरस्माकमेव च।
यथा भवेद् वचः सत्यं तथा राम विधीयताम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऋषियोंने कहा—बलरामजी! आप ऐसा कोई उपाय कीजिये जिससे आपका शस्त्र, पराक्रम और इनकी मृत्यु भी व्यर्थ न हो और हमलोगोंने इन्हें जो वरदान दिया था, वह भी सत्य हो जाय॥ ३५॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
अस्त्रस्य सत्यत्वम् अस्माकं वचः सत्यमिति स्वरस एवार्थः ।। ३५-४०॥
श्लोक-३६
मूलम् (वचनम्)
श्रीभगवानुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
आत्मा वै पुत्र उत्पन्न इति वेदानुशासनम्।
तस्मादस्य भवेद् वक्ता आयुरिन्द्रियसत्त्ववान्॥
मूलम्
आत्मा वै पुत्र उत्पन्न इति वेदानुशासनम्।
तस्मादस्य भवेद् वक्ता आयुरिन्द्रियसत्त्ववान्॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् बलरामने कहा—ऋषियो! वेदोंका ऐसा कहना है कि आत्मा ही पुत्रके रूपमें उत्पन्न होता है। इसलिये रोमहर्षणके स्थानपर उनका पुत्र आपलोगोंको पुराणोंकी कथा सुनायेगा। उसे मैं अपनी शक्तिसे दीर्घायु, इन्द्रियशक्ति और बल दिये देता हूँ॥ ३६॥
श्लोक-३७
विश्वास-प्रस्तुतिः
किं वः कामो मुनिश्रेष्ठा ब्रूताहं करवाण्यथ।
अजानतस्त्वपचितिं यथा मे चिन्त्यतां बुधाः॥
मूलम्
किं वः कामो मुनिश्रेष्ठा ब्रूताहं करवाण्यथ।
अजानतस्त्वपचितिं यथा मे चिन्त्यतां बुधाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऋषियो! इसके अतिरिक्त आपलोग और जो कुछ भी चाहते हों, मुझसे कहिये। मैं आपलोगोंकी इच्छा पूर्ण करूँगा। अनजानमें मुझसे जो अपराध हो गया है, उसका प्रायश्चित्त भी आपलोग सोच-विचारकर बतलाइये; क्योंकि आपलोग इस विषयके विद्वान् हैं॥ ३७॥
श्लोक-३८
मूलम् (वचनम्)
ऋषय ऊचुः
विश्वास-प्रस्तुतिः
इल्वलस्य सुतो घोरो बल्वलो नाम दानवः।
स दूषयति नः सत्रमेत्य पर्वणि पर्वणि॥
मूलम्
इल्वलस्य सुतो घोरो बल्वलो नाम दानवः।
स दूषयति नः सत्रमेत्य पर्वणि पर्वणि॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऋषियोंने कहा—बलरामजी! इल्वलका पुत्र बल्वल नामका एक भयंकर दानव है। वह प्रत्येक पर्वपर यहाँ आ पहुँचता है और हमारे इस सत्रको दूषित कर देता है॥ ३८॥
श्लोक-३९
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं पापं जहि दाशार्ह तन्नः शुश्रूषणं परम्।
पूयशोणितविण्मूत्रसुरामांसाभिवर्षिणम्॥
मूलम्
तं पापं जहि दाशार्ह तन्नः शुश्रूषणं परम्।
पूयशोणितविण्मूत्रसुरामांसाभिवर्षिणम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदुनन्दन! वह यहाँ आकर पीब, खून, विष्ठा, मूत्र, शराब और मांसकी वर्षा करने लगता है। आप उस पापीको मार डालिये। हमलोगोंकी यह बहुत बड़ी सेवा होगी॥ ३९॥
श्लोक-४०
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततश्च भारतं वर्षं परीत्य सुसमाहितः।
चरित्वा द्वादश मासांस्तीर्थस्नायी विशुद्ध्यसे॥
मूलम्
ततश्च भारतं वर्षं परीत्य सुसमाहितः।
चरित्वा द्वादश मासांस्तीर्थस्नायी विशुद्ध्यसे॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसके बाद आप एकाग्रचित्तसे तीर्थोंमें स्नान करते हुए बारह महीनोंतक भारतवर्षकी परिक्रमा करते हुए विचरण कीजिये। इससे आपकी शुद्धि हो जायगी॥ ४०॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
॥ इति श्रीमद्भागवतव्याख्याने दशमस्कन्धे श्रीसुदर्शनसूरिकृतशुकपक्षीये अष्टसप्ततितमोऽध्यायः ॥ ७८ ॥
अनुवाद (समाप्ति)
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे उत्तरार्धे बलदेवचरित्रे बल्वलवधोपक्रमो नामाष्टसप्ततितमोऽध्यायः॥ ७८॥