७७ सौभवधः

[सप्तसप्ततितमोऽध्यायः]

भागसूचना

शाल्व-उद्धार

श्लोक-१

मूलम् (वचनम्)

श्रीशुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तूपस्पृश्य सलिलं दंशितो धृतकार्मुकः।
नय मां द्युमतः पार्श्वं वीरस्येत्याह सारथिम्॥

मूलम्

स तूपस्पृश्य सलिलं दंशितो धृतकार्मुकः।
नय मां द्युमतः पार्श्वं वीरस्येत्याह सारथिम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! अब प्रद्युम्नजीने हाथ-मुँह धोकर, कवच पहन धनुष धारण किया और सारथीसे कहा कि ‘मुझे वीर द्युमान‍्के पास फिरसे ले चलो’॥ १॥

श्लोक-२

विश्वास-प्रस्तुतिः

विधमन्तं स्वसैन्यानि द्युमन्तं रुक्मिणीसुतः।
प्रतिहत्य प्रत्यविध्यन्नाराचैरष्टभिः स्मयन्॥

मूलम्

विधमन्तं स्वसैन्यानि द्युमन्तं रुक्मिणीसुतः।
प्रतिहत्य प्रत्यविध्यन्नाराचैरष्टभिः स्मयन्॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय द्युमान् यादवसेनाको तहस-नहस कर रहा था। प्रद्युम्नजीने उसके पास पहुँचकर उसे ऐसा करनेसे रोक दिया और मुसकराकर आठ बाण मारे॥ २॥

श्लोक-३

विश्वास-प्रस्तुतिः

चतुर्भिश्चतुरो वाहान् सूतमेकेन चाहनत्।
द्वाभ्यां धनुश्च केतुं च शरेणान्येन वै शिरः॥

मूलम्

चतुर्भिश्चतुरो वाहान् सूतमेकेन चाहनत्।
द्वाभ्यां धनुश्च केतुं च शरेणान्येन वै शिरः॥

अनुवाद (हिन्दी)

चार बाणोंसे उसके चार घोड़े और एक-एक बाणसे सारथी, धनुष, ध्वजा और उसका सिर काट डाला॥ ३॥

श्लोक-४

विश्वास-प्रस्तुतिः

गदसात्यकिसाम्बाद्या जघ्नुः सौभपतेर्बलम्।
पेतुः समुद्रे सौभेयाः सर्वे संछिन्नकन्धराः॥

मूलम्

गदसात्यकिसाम्बाद्या जघ्नुः सौभपतेर्बलम्।
पेतुः समुद्रे सौभेयाः सर्वे संछिन्नकन्धराः॥

अनुवाद (हिन्दी)

इधर गद, सात्यकि, साम्ब आदि यदुवंशी वीर भी शाल्वकी सेनाका संहार करने लगे। सौभ विमानपर चढ़े हुए सैनिकोंकी गरदनें कट जातीं और वे समुद्रमें गिर पड़ते॥ ४॥

श्लोक-५

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं यदूनां शाल्वानां निघ्नतामितरेतरम्।
युद्धं त्रिणवरात्रं तदभूत्तुमुलमुल्बणम्॥

मूलम्

एवं यदूनां शाल्वानां निघ्नतामितरेतरम्।
युद्धं त्रिणवरात्रं तदभूत्तुमुलमुल्बणम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार यदुवंशी और शाल्वके सैनिक एक-दूसरेपर प्रहार करते रहे। बड़ा ही घमासान और भयंकर युद्ध हुआ और वह लगातार सत्ताईस दिनोंतक चलता रहा॥ ५॥

श्लोक-६

विश्वास-प्रस्तुतिः

इन्द्रप्रस्थं गतः कृष्ण आहूतो धर्मसूनुना।
राजसूयेऽथ निर्वृत्ते शिशुपाले च संस्थिते॥

मूलम्

इन्द्रप्रस्थं गतः कृष्ण आहूतो धर्मसूनुना।
राजसूयेऽथ निर्वृत्ते शिशुपाले च संस्थिते॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन दिनों भगवान् श्रीकृष्ण धर्मराज युधिष्ठिरके बुलानेसे इन्द्रप्रस्थ गये हुए थे। राजसूय यज्ञ हो चुका था और शिशुपालकी भी मृत्यु हो गयी थी॥ ६॥

श्लोक-७

विश्वास-प्रस्तुतिः

कुरुवृद्धाननुज्ञाप्य मुनींश्च ससुतां पृथाम्।
निमित्तान्यतिघोराणि पश्यन् द्वारवतीं ययौ॥

मूलम्

कुरुवृद्धाननुज्ञाप्य मुनींश्च ससुतां पृथाम्।
निमित्तान्यतिघोराणि पश्यन् द्वारवतीं ययौ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ भगवान् श्रीकृष्णने देखा कि बड़े भयंकर अपशकुन हो रहे हैं। तब उन्होंने कुरुवंशके बड़े-बूढ़ों, ऋषि-मुनियों, कुन्ती और पाण्डवोंसे अनुमति लेकर द्वारकाके लिये प्रस्थान किया॥ ७॥

श्लोक-८

विश्वास-प्रस्तुतिः

आह चाहमिहायात आर्यमिश्राभिसङ्गतः।
राजन्याश्चैद्यपक्षीया नूनं हन्युः पुरीं मम॥

मूलम्

आह चाहमिहायात आर्यमिश्राभिसङ्गतः।
राजन्याश्चैद्यपक्षीया नूनं हन्युः पुरीं मम॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे मन-ही-मन कहने लगे कि ‘मैं पूज्य भाई बलरामजीके साथ यहाँ चला आया। अब शिशुपालके पक्षपाती क्षत्रिय अवश्य ही द्वारकापर आक्रमण कर रहे होंगे’॥ ८॥

श्लोक-९

विश्वास-प्रस्तुतिः

वीक्ष्य तत् कदनं स्वानां निरूप्य पुररक्षणम्।
सौभं च शाल्वराजं च दारुकं प्राह केशवः॥

मूलम्

वीक्ष्य तत् कदनं स्वानां निरूप्य पुररक्षणम्।
सौभं च शाल्वराजं च दारुकं प्राह केशवः॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् श्रीकृष्णने द्वारकामें पहुँचकर देखा कि सचमुच यादवोंपर बड़ी विपत्ति आयी है। तब उन्होंने बलरामजीको नगरकी रक्षाके लिये नियुक्त कर दिया और सौभपति शाल्वको देखकर अपने सारथि दारुकसे कहा—॥ ९॥

श्लोक-१०

विश्वास-प्रस्तुतिः

रथं प्रापय मे सूत शाल्वस्यान्तिकमाशु वै।
सम्भ्रमस्ते न कर्तव्यो मायावी सौभराडयम्॥

मूलम्

रथं प्रापय मे सूत शाल्वस्यान्तिकमाशु वै।
सम्भ्रमस्ते न कर्तव्यो मायावी सौभराडयम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘दारुक! तुम शीघ्र-से-शीघ्र मेरा रथ शाल्वके पास ले चलो। देखो, यह शाल्व बड़ा मायावी है, तो भी तुम तनिक भी भय न करना’॥ १०॥

श्लोक-११

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्तश्चोदयामास रथमास्थाय दारुकः।
विशन्तं ददृशुः सर्वे स्वे परे चारुणानुजम्॥

मूलम्

इत्युक्तश्चोदयामास रथमास्थाय दारुकः।
विशन्तं ददृशुः सर्वे स्वे परे चारुणानुजम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान‍्की ऐसी आज्ञा पाकर दारुक रथपर चढ़ गया और उसे शाल्वकी ओर ले चला। भगवान‍्के रथकी ध्वजा गरुड़चिह्नसे चिह्नित थी। उसे देखकर यदुवंशियों तथा शाल्वकी सेनाके लोगोंने युद्धभूमिमें प्रवेश करते ही भगवान‍्को पहचान लिया॥ ११॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

अरुणानुजं ध्वजस्थगरुडम् ॥ ११-१४ ॥

श्लोक-१२

विश्वास-प्रस्तुतिः

शाल्वश्च कृष्णमालोक्य हतप्रायबलेश्वरः।
प्राहरत् कृष्णसूताय शक्तिं भीमरवां मृधे॥

मूलम्

शाल्वश्च कृष्णमालोक्य हतप्रायबलेश्वरः।
प्राहरत् कृष्णसूताय शक्तिं भीमरवां मृधे॥

श्लोक-१३

विश्वास-प्रस्तुतिः

तामापतन्तीं नभसि महोल्कामिव रंहसा।
भासयन्तीं दिशः शौरिः सायकैः शतधाच्छिनत्॥

मूलम्

तामापतन्तीं नभसि महोल्कामिव रंहसा।
भासयन्तीं दिशः शौरिः सायकैः शतधाच्छिनत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! अबतक शाल्वकी सारी सेना प्रायः नष्ट हो चुकी थी। भगवान् श्रीकृष्णको देखते ही उसने उनके सारथीपर एक बहुत बड़ी शक्ति चलायी। वह शक्ति बड़ा भयंकर शब्द करती हुई आकाशमें बड़े वेगसे चल रही थी और बहुत बड़े लूकके समान जान पड़ती थी। उसके प्रकाशसे दिशाएँ चमक उठी थीं। उसे सारथीकी ओर आते देख भगवान् श्रीकृष्णने अपने बाणोंसे उसके सैकड़ों टुकड़े कर दिये॥ १२-१३॥

श्लोक-१४

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं च षोडशभिर्विद्‍ध्वा बाणैः सौभं च खे भ्रमत्।
अविध्यच्छरसन्दोहैः खं सूर्य इव रश्मिभिः॥

मूलम्

तं च षोडशभिर्विद्‍ध्वा बाणैः सौभं च खे भ्रमत्।
अविध्यच्छरसन्दोहैः खं सूर्य इव रश्मिभिः॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके बाद उन्होंने शाल्वको सोलह बाण मारे और उसके विमानको भी, जो आकाशमें घूम रहा था, असंख्य बाणोंसे चलनी कर दिया—ठीक वैसे ही, जैसे सूर्य अपनी किरणोंसे आकाशको भर देता है॥ १४॥

श्लोक-१५

विश्वास-प्रस्तुतिः

शाल्वः शौरेस्तु दोः सव्यं सशार्ङ्गं शार्ङ्गधन्वनः।
बिभेद न्यपतद्धस्तात् शार्ङ्गमासीत्तदद‍्भुतम्॥

मूलम्

शाल्वः शौरेस्तु दोः सव्यं सशार्ङ्गं शार्ङ्गधन्वनः।
बिभेद न्यपतद्धस्तात् शार्ङ्गमासीत्तदद‍्भुतम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

शाल्वने भगवान् श्रीकृष्णकी बायीं भुजामें, जिसमें शार्ङ्गधनुष शोभायमान था, बाण मारा, इससे शार्ङ्गधनुष भगवान‍्के हाथसे छूटकर गिर पड़ा। यह एक अद‍्भुत घटना घट गयी॥ १५॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

न्यपतदिति मनुष्यभावानुकारः ॥ १५-२७ ॥

श्लोक-१६

विश्वास-प्रस्तुतिः

हाहाकारो महानासीद् भूतानां तत्र पश्यताम्।
विनद्य सौभराडुच्चैरिदमाह जनार्दनम्॥

मूलम्

हाहाकारो महानासीद् भूतानां तत्र पश्यताम्।
विनद्य सौभराडुच्चैरिदमाह जनार्दनम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो लोग आकाश या पृथ्वीसे यह युद्ध देख रहे थे, वे बड़े जोरसे ‘हाय-हाय’ पुकार उठे। तब शाल्वने गरजकर भगवान् श्रीकृष्णसे यों कहा—॥ १६॥

श्लोक-१७

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत्त्वया मूढ नः सख्युर्भ्रातुर्भार्या हृतेक्षताम्।
प्रमत्तः स सभामध्ये त्वया व्यापादितः सखा॥

मूलम्

यत्त्वया मूढ नः सख्युर्भ्रातुर्भार्या हृतेक्षताम्।
प्रमत्तः स सभामध्ये त्वया व्यापादितः सखा॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मूढ़! तूने हमलोगोंके देखते-देखते हमारे भाई और सखा शिशुपालकी पत्नीको हर लिया तथा भरी सभामें, जब कि हमारा मित्र शिशुपाल असावधान था, तूने उसे मार डाला॥ १७॥

श्लोक-१८

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं त्वाद्य निशितैर्बाणैरपराजितमानिनम्।
नयाम्यपुनरावृत्तिं यदि तिष्ठेर्ममाग्रतः॥

मूलम्

तं त्वाद्य निशितैर्बाणैरपराजितमानिनम्।
नयाम्यपुनरावृत्तिं यदि तिष्ठेर्ममाग्रतः॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं जानता हूँ कि तू अपनेको अजेय मानता है। यदि मेरे सामने ठहर गया तो मैं आज तुझे अपने तीखे बाणोंसे वहाँ पहुँचा दूँगा, जहाँसे फिर कोई लौटकर नहीं आता’॥ १८॥

श्लोक-१९

मूलम् (वचनम्)

श्रीभगवानुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

वृथा त्वं कत्थसे मन्द न पश्यस्यन्तिकेऽन्तकम्।
पौरुषं दर्शयन्ति स्म शूरा न बहुभाषिणः॥

मूलम्

वृथा त्वं कत्थसे मन्द न पश्यस्यन्तिकेऽन्तकम्।
पौरुषं दर्शयन्ति स्म शूरा न बहुभाषिणः॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् श्रीकृष्णने कहा—‘रे मन्द! तू वृथा ही बहक रहा है। तुझे पता नहीं कि तेरे सिरपर मौत सवार है। शूरवीर व्यर्थकी बकवाद नहीं करते, वे अपनी वीरता ही दिखलाया करते हैं’॥ १९॥

श्लोक-२०

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्त्वा भगवाञ्छाल्वं गदया भीमवेगया।
तताड जत्रौ संरब्धः स चकम्पे वमन्नसृक्॥

मूलम्

इत्युक्त्वा भगवाञ्छाल्वं गदया भीमवेगया।
तताड जत्रौ संरब्धः स चकम्पे वमन्नसृक्॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार कहकर भगवान् श्रीकृष्णने क्रोधित हो अपनी अत्यन्त वेगवती और भयंकर गदासे शाल्वके जत्रुस्थान (हँसली) पर प्रहार किया। इससे वह खून उगलता हुआ काँपने लगा॥ २०॥

श्लोक-२१

विश्वास-प्रस्तुतिः

गदायां सन्निवृत्तायां शाल्वस्त्वन्तरधीयत।
ततो मुहूर्त आगत्य पुरुषः शिरसाच्युतम्।
देवक्या प्रहितोऽस्मीति नत्वा प्राह वचो रुदन्॥

मूलम्

गदायां सन्निवृत्तायां शाल्वस्त्वन्तरधीयत।
ततो मुहूर्त आगत्य पुरुषः शिरसाच्युतम्।
देवक्या प्रहितोऽस्मीति नत्वा प्राह वचो रुदन्॥

अनुवाद (हिन्दी)

इधर जब गदा भगवान‍्के पास लौट आयी, तब शाल्व अन्तर्धान हो गया। इसके बाद दो घड़ी बीतते-बीतते एक मनुष्यने भगवान‍्के पास पहुँचकर उनको सिर झुकाकर प्रणाम किया और वह रोता हुआ बोला—‘मुझे आपकी माता देवकीजीने भेजा है॥ २१॥

श्लोक-२२

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृष्ण कृष्ण महाबाहो पिता ते पितृवत्सल।
बद्‍ध्वापनीतः शाल्वेन सौनिकेन यथा पशुः॥

मूलम्

कृष्ण कृष्ण महाबाहो पिता ते पितृवत्सल।
बद्‍ध्वापनीतः शाल्वेन सौनिकेन यथा पशुः॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने कहा है कि अपने पिताके प्रति अत्यन्त प्रेम रखनेवाले महाबाहु श्रीकृष्ण! शाल्व तुम्हारे पिताको उसी प्रकार बाँधकर ले गया है, जैसे कोई कसाई पशुको बाँधकर ले जाय!’॥ २२॥

श्लोक-२३

विश्वास-प्रस्तुतिः

निशम्य विप्रियं कृष्णो मानुषीं प्रकृतिं गतः।
विमनस्को घृणी स्नेहाद् बभाषे प्राकृतो यथा॥

मूलम्

निशम्य विप्रियं कृष्णो मानुषीं प्रकृतिं गतः।
विमनस्को घृणी स्नेहाद् बभाषे प्राकृतो यथा॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह अप्रिय समाचार सुनकर भगवान् श्रीकृष्ण मनुष्य-से बन गये। उनके मुँहपर कुछ उदासी छा गयी। वे साधारण पुरुषके समान अत्यन्त करुणा और स्नेहसे कहने लगे—॥ २३॥

श्लोक-२४

विश्वास-प्रस्तुतिः

कथं राममसम्भ्रान्तं जित्वाजेयं सुरासुरैः।
शाल्वेनाल्पीयसा नीतः पिता मे बलवान् विधिः॥

मूलम्

कथं राममसम्भ्रान्तं जित्वाजेयं सुरासुरैः।
शाल्वेनाल्पीयसा नीतः पिता मे बलवान् विधिः॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अहो! मेरे भाई बलरामजीको तो देवता अथवा असुर कोई नहीं जीत सकता। वे सदा-सर्वदा सावधान रहते हैं। शाल्वका बल-पौरुष तो अत्यन्त अल्प है। फिर भी इसने उन्हें कैसे जीत लिया और कैसे मेरे पिताजीको बाँधकर ले गया? सचमुच, प्रारब्ध बहुत बलवान् है’॥ २४॥

श्लोक-२५

विश्वास-प्रस्तुतिः

इति ब्रुवाणे गोविन्दे सौभराट् प्रत्युपस्थितः।
वसुदेवमिवानीय कृष्णं चेदमुवाच सः॥

मूलम्

इति ब्रुवाणे गोविन्दे सौभराट् प्रत्युपस्थितः।
वसुदेवमिवानीय कृष्णं चेदमुवाच सः॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् श्रीकृष्ण इस प्रकार कह ही रहे थे कि शाल्व वसुदेवजीके समान एक मायारचित मनुष्य लेकर वहाँ आ पहुँचा और श्रीकृष्णसे कहने लगा—॥ २५॥

श्लोक-२६

विश्वास-प्रस्तुतिः

एष ते जनिता तातो यदर्थमिह जीवसि।
वधिष्ये वीक्षतस्तेऽमुमीशश्चेत् पाहि बालिश॥

मूलम्

एष ते जनिता तातो यदर्थमिह जीवसि।
वधिष्ये वीक्षतस्तेऽमुमीशश्चेत् पाहि बालिश॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मूर्ख! देख, यही तुझे पैदा करनेवाला तेरा बाप है, जिसके लिये तू जी रहा है। तेरे देखते-देखते मैं इसका काम तमाम करता हूँ। कुछ बल-पौरुष हो, तो इसे बचा’॥ २६॥

श्लोक-२७

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं निर्भर्त्स्य मायावी खड्गेनानकदुन्दुभेः।
उत्कृत्य शिर आदाय खस्थं सौभं समाविशत्॥

मूलम्

एवं निर्भर्त्स्य मायावी खड्गेनानकदुन्दुभेः।
उत्कृत्य शिर आदाय खस्थं सौभं समाविशत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

मायावी शाल्वने इस प्रकार भगवान‍्को फटकार कर मायारचित वसुदेवका सिर तलवारसे काट लिया और उसे लेकर अपने आकाशस्थ विमानपर जा बैठा॥ २७॥

श्लोक-२८

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो मुहूर्तं प्रकृतावुपप्लुतः
स्वबोध आस्ते स्वजनानुषङ्गतः।
महानुभावस्तदबुद्ध्यदासुरीं
मायां स शाल्वप्रसृतां मयोदिताम्॥

मूलम्

ततो मुहूर्तं प्रकृतावुपप्लुतः
स्वबोध आस्ते स्वजनानुषङ्गतः।
महानुभावस्तदबुद्ध्यदासुरीं
मायां स शाल्वप्रसृतां मयोदिताम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्ण स्वयंसिद्ध ज्ञानस्वरूप और महानुभाव हैं। वे यह घटना देखकर दो घड़ीके लिये अपने स्वजन वसुदेवजीके प्रति अत्यन्त प्रेम होनेके कारण साधारण पुरुषोंके समान शोकमें डूब गये। परन्तु फिर वे जान गये कि यह तो शाल्वकी फैलायी हुई आसुरी माया ही है, जो उसे मय दानवने बतलायी थी॥ २८॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

प्रकृतावुपप्लुतः प्रकृतिवश्याज्ञसंसारिवदित्यर्थः । अबुध्यत प्रबुद्धवानित्यर्थः । नित्यसार्वज्ञत्वात् ॥ २८-२९ ॥

श्लोक-२९

विश्वास-प्रस्तुतिः

न तत्र दूतं न पितुः कलेवरं
प्रबुद्ध आजौ समपश्यदच्युतः।
स्वाप्नं यथा चाम्बरचारिणं रिपुं
सौभस्थमालोक्य निहन्तुमुद्यतः॥

मूलम्

न तत्र दूतं न पितुः कलेवरं
प्रबुद्ध आजौ समपश्यदच्युतः।
स्वाप्नं यथा चाम्बरचारिणं रिपुं
सौभस्थमालोक्य निहन्तुमुद्यतः॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् श्रीकृष्णने युद्धभूमिमें सचेत होकर देखा—न वहाँ दूत है और न पिताका वह शरीर; जैसे स्वप्नमें एक दृश्य दीखकर लुप्त हो गया हो! उधर देखा तो शाल्व विमानपर चढ़कर आकाशमें विचर रहा है। तब वे उसका वध करनेके लिये उद्यत हो गये॥ २९॥

श्लोक-३०

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं वदन्ति राजर्षे ऋषयः के च नान्विताः।
यत् स्ववाचो विरुध्येत नूनं ते न स्मरन्त्युत॥

मूलम्

एवं वदन्ति राजर्षे ऋषयः के च नान्विताः।
यत् स्ववाचो विरुध्येत नूनं ते न स्मरन्त्युत॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रिय परीक्षित्! इस प्रकारकी बात पूर्वापरका विचार न करनेवाले कोई-कोई ऋषि कहते हैं। अवश्य ही वे इस बातको भूल जाते हैं कि श्रीकृष्णके सम्बन्धमें ऐसा कहना उन्हींके वचनोंके विपरीत है॥ ३०॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

यत् स्ववाचा “तान्यहं वेद सर्वाणि" इति स्वसार्वज्ञविषयवाचा ते इति बहुवचनं तत्त्वाभिप्रायः ॥ ३० ॥

श्लोक-३१

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्व शोकमोहौ स्नेहो वा भयं वा येऽज्ञसम्भवाः।
क्व चाखण्डितविज्ञानज्ञानैश्वर्यस्त्वखण्डितः॥

मूलम्

क्व शोकमोहौ स्नेहो वा भयं वा येऽज्ञसम्भवाः।
क्व चाखण्डितविज्ञानज्ञानैश्वर्यस्त्वखण्डितः॥

अनुवाद (हिन्दी)

कहाँ अज्ञानियोंमें रहनेवाले शोक, मोह, स्नेह और भय; तथा कहाँ वे परिपूर्ण भगवान् श्रीकृष्ण—जिनका ज्ञान, विज्ञान और ऐश्वर्य अखण्डित है, एकरस है (भला, उनमें वैसे भावोंकी सम्भावना ही कहाँ है?)॥ ३१॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

अज्ञसम्भवाः संसारिषु सम्भवन्तः ज्ञानविज्ञानशब्दौ प्रकारप्रकारिज्ञानपरौ अखण्डितविज्ञानज्ञानैश्वर्यः ईश्वरः विज्ञानज्ञानैश्वर्याणाम् इति वा अर्थः ॥ ३१ ॥

श्लोक-३२

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत्पादसेवोर्जितयाऽऽत्मविद्यया
हिन्वन्त्यनाद्यात्मविपर्ययग्रहम्।
लभन्त आत्मीयमनन्तमैश्वरं
कुतो नु मोहः परमस्य सद‍्गतेः॥

मूलम्

यत्पादसेवोर्जितयाऽऽत्मविद्यया
हिन्वन्त्यनाद्यात्मविपर्ययग्रहम्।
लभन्त आत्मीयमनन्तमैश्वरं
कुतो नु मोहः परमस्य सद‍्गतेः॥

अनुवाद (हिन्दी)

बड़े-बड़े ऋषि-मुनि भगवान् श्रीकृष्णके चरणकमलोंकी सेवा करके आत्मविद्याका भलीभाँति सम्पादन करते हैं और उसके द्वारा शरीर आदिमें आत्मबुद्धिरूप अनादि अज्ञानको मिटा डालते हैं तथा आत्मसम्बन्धी अनन्त ऐश्वर्य प्राप्त करते हैं। उन संतोंके परम गतिस्वरूप भगवान् श्रीकृष्णमें भला, मोह कैसे हो सकता है?॥ ३२॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

आत्मीयमनन्तमैश्वरं गुणाष्टकलक्षणं लभन्ते ॥३२-३५॥

श्लोक-३३

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं शस्त्रपूगैः प्रहरन्तमोजसा
शाल्वं शरैः शौरिरमोघविक्रमः।
विद्‍ध्वाच्छिनद् वर्म धनुः शिरोमणिं
सौभं च शत्रोर्गदया रुरोज ह॥

मूलम्

तं शस्त्रपूगैः प्रहरन्तमोजसा
शाल्वं शरैः शौरिरमोघविक्रमः।
विद्‍ध्वाच्छिनद् वर्म धनुः शिरोमणिं
सौभं च शत्रोर्गदया रुरोज ह॥

अनुवाद (हिन्दी)

अब शाल्व भगवान् श्रीकृष्णपर बड़े उत्साह और वेगसे शस्त्रोंकी वर्षा करने लगा था। अमोघशक्ति भगवान् श्रीकृष्णने भी अपने बाणोंसे शाल्वको घायल कर दिया और उसके कवच, धनुष तथा सिरकी मणिको छिन्न-भिन्न कर दिया। साथ ही गदाकी चोटसे उसके विमानको भी जर्जर कर दिया॥ ३३॥

श्लोक-३४

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत् कृष्णहस्तेरितया विचूर्णितं
पपात तोये गदया सहस्रधा।
विसृज्य तद् भूतलमास्थितो गदा-
मुद्यम्य शाल्वोऽच्युतमभ्यगाद् द्रुतम्॥

मूलम्

तत् कृष्णहस्तेरितया विचूर्णितं
पपात तोये गदया सहस्रधा।
विसृज्य तद् भूतलमास्थितो गदा-
मुद्यम्य शाल्वोऽच्युतमभ्यगाद् द्रुतम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्णके हाथोंसे चलायी हुई गदासे वह विमान चूर-चूर होकर समुद्रमें गिर पड़ा। गिरनेके पहले ही शाल्व हाथमें गदा लेकर धरतीपर कूद पड़ा और सावधान होकर बड़े वेगसे भगवान् श्रीकृष्णकी ओर झपटा॥ ३४॥

श्लोक-३५

विश्वास-प्रस्तुतिः

आधावतः सगदं तस्य बाहुं
भल्लेन छित्त्वाथ रथाङ्गमद‍्भुतम्।
वधाय शाल्वस्य लयार्कसन्निभं
बिभ्रद् बभौ सार्क इवोदयाचलः॥

मूलम्

आधावतः सगदं तस्य बाहुं
भल्लेन छित्त्वाथ रथाङ्गमद‍्भुतम्।
वधाय शाल्वस्य लयार्कसन्निभं
बिभ्रद् बभौ सार्क इवोदयाचलः॥

अनुवाद (हिन्दी)

शाल्वको आक्रमण करते देख उन्होंने भालेसे गदाके साथ उसका हाथ काट गिराया। फिर उसे मार डालनेके लिये उन्होंने प्रलयकालीन सूर्यके समान तेजस्वी और अत्यन्त अद‍्भुत सुदर्शन चक्र धारण कर लिया। उस समय उनकी ऐसी शोभा हो रही थी, मानो सूर्यके साथ उदयाचल शोभायमान हो॥ ३५॥

श्लोक-३६

विश्वास-प्रस्तुतिः

जहार तेनैव शिरः सकुण्डलं
किरीटयुक्तं पुरुमायिनो हरिः।
वज्रेण वृत्रस्य यथा पुरन्दरो
बभूव हाहेति वचस्तदा नृणाम्॥

मूलम्

जहार तेनैव शिरः सकुण्डलं
किरीटयुक्तं पुरुमायिनो हरिः।
वज्रेण वृत्रस्य यथा पुरन्दरो
बभूव हाहेति वचस्तदा नृणाम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् श्रीकृष्णने उस चक्रसे परम मायावी शाल्वका कुण्डल-किरीटसहित सिर धड़से अलग कर दिया; ठीक वैसे ही, जैसे इन्द्रने वज्रसे वृत्रासुरका सिर काट डाला था। उस समय शाल्वके सैनिक अत्यन्त दुःखसे ‘हाय-हाय’ चिल्ला उठे॥ ३६॥

श्रीसुदर्शनसूरिः

पुरुमायिनः पुरुरूपमायावतः ॥ ३६-३७॥

॥ इति श्रीमद्भागवतव्याख्याने दशमस्कन्धे श्रीसुदर्शनसूरिकृतशुकपक्षीये सप्तसप्ततितमोऽध्यायः ॥७७॥

श्लोक-३७

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मिन् निपतिते पापे सौभे च गदया हते।
नेदुर्दुन्दुभयो राजन् दिवि देवगणेरिताः।
सखीनामपचितिं कुर्वन् दन्तवक्त्रो रुषाभ्यगात्॥

मूलम्

तस्मिन् निपतिते पापे सौभे च गदया हते।
नेदुर्दुन्दुभयो राजन् दिवि देवगणेरिताः।
सखीनामपचितिं कुर्वन् दन्तवक्त्रो रुषाभ्यगात्॥

अनुवाद (हिन्दी)

परीक्षित्! जब पापी शाल्व मर गया और उसका विमान भी गदाके प्रहारसे चूर-चूर हो गया, तब देवतालोग आकाशमें दुन्दुभियाँ बजाने लगे। ठीक इसी समय दन्तवक्त्र अपने मित्र शिशुपाल आदिका बदला लेनेके लिये अत्यन्त क्रोधित होकर आ पहुँचा॥ ३७॥

अनुवाद (समाप्ति)

इति श्रीमद‍्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे उत्तरार्धे सौभवधो नाम सप्तसप्ततितमोऽध्यायः॥ ७७॥