[षट्सप्ततितमोऽध्यायः]
भागसूचना
शाल्वके साथ यादवोंका युद्ध
श्लोक-१
मूलम् (वचनम्)
श्रीशुक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथान्यदपि कृष्णस्य शृणु कर्माद्भुतं नृप।
क्रीडानरशरीरस्य यथा सौभपतिर्हतः॥
मूलम्
अथान्यदपि कृष्णस्य शृणु कर्माद्भुतं नृप।
क्रीडानरशरीरस्य यथा सौभपतिर्हतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! अब मनुष्यकी-सी लीला करनेवाले भगवान् श्रीकृष्णका एक और भी अद्भुत चरित्र सुनो। इसमें यह बताया जायगा कि सौभनामक विमानका अधिपति शाल्व किस प्रकार भगवान्के हाथसे मारा गया॥ १॥
श्लोक-२
विश्वास-प्रस्तुतिः
शिशुपालसखः शाल्वो रुक्मिण्युद्वाह आगतः।
यदुभिर्निर्जितः संख्ये जरासन्धादयस्तथा॥
मूलम्
शिशुपालसखः शाल्वो रुक्मिण्युद्वाह आगतः।
यदुभिर्निर्जितः संख्ये जरासन्धादयस्तथा॥
अनुवाद (हिन्दी)
शाल्व शिशुपालका सखा था और रुक्मिणीके विवाहके अवसरपर बारातमें शिशुपालकी ओरसे आया हुआ था। उस समय यदुवंशियोंने युद्धमें जरासन्ध आदिके साथ-साथ शाल्वको भी जीत लिया था॥ २॥
श्लोक-३
विश्वास-प्रस्तुतिः
शाल्वः प्रतिज्ञामकरोत् शृण्वतां सर्वभूभुजाम्।
अयादवीं क्ष्मां करिष्ये पौरुषं मम पश्यत॥
मूलम्
शाल्वः प्रतिज्ञामकरोत् शृण्वतां सर्वभूभुजाम्।
अयादवीं क्ष्मां करिष्ये पौरुषं मम पश्यत॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस दिन सब राजाओंके सामने शाल्वने यह प्रतिज्ञा की थी कि ‘मैं पृथ्वीसे यदुवंशियोंको मिटाकर छोड़ूँगा, सब लोग मेरा बल-पौरुष देखना’॥ ३॥
श्लोक-४
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति मूढः प्रतिज्ञाय देवं पशुपतिं प्रभुम्।
आराधयामास नृप पांसुमुष्टिं सकृद् ग्रसन्॥
मूलम्
इति मूढः प्रतिज्ञाय देवं पशुपतिं प्रभुम्।
आराधयामास नृप पांसुमुष्टिं सकृद् ग्रसन्॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! मूढ़ शाल्वने इस प्रकार प्रतिज्ञा करके देवाधिदेव भगवान् पशुपतिकी आराधना प्रारम्भ की। वह उन दिनों दिनमें केवल एक बार मुट्ठीभर राख फाँक लिया करता था॥ ४॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
पांसुमुष्टिं भस्ममुष्टिम् ॥ ४-१६ ॥
श्लोक-५
विश्वास-प्रस्तुतिः
संवत्सरान्ते भगवानाशुतोष उमापतिः।
वरेणच्छन्दयामास शाल्वं शरणमागतम्॥
मूलम्
संवत्सरान्ते भगवानाशुतोष उमापतिः।
वरेणच्छन्दयामास शाल्वं शरणमागतम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
यों तो पार्वतीपति भगवान् शंकर आशुतोष हैं, औढरदानी हैं, फिर भी वे शाल्वका घोर संकल्प जानकर एक वर्षके बाद प्रसन्न हुए। उन्होंने अपने शरणागत शाल्वसे वर माँगनेके लिये कहा॥ ५॥
श्लोक-६
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवासुरमनुष्याणां गन्धर्वोरगरक्षसाम्।
अभेद्यं कामगं वव्रे स यानं वृष्णिभीषणम्॥
मूलम्
देवासुरमनुष्याणां गन्धर्वोरगरक्षसाम्।
अभेद्यं कामगं वव्रे स यानं वृष्णिभीषणम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय शाल्वने यह वर माँगा कि ‘मुझे आप एक ऐसा विमान दीजिये जो देवता, असुर, मनुष्य, गन्धर्व, नाग और राक्षसोंसे तोड़ा न जा सके; जहाँ इच्छा हो, वहीं चला जाय और यदुवंशियोंके लिये अत्यन्त भयंकर हो’॥ ६॥
श्लोक-७
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथेति गिरिशादिष्टो मयः परपुरञ्जयः।
पुरं निर्माय शाल्वाय प्रादात्सौभमयस्मयम्॥
मूलम्
तथेति गिरिशादिष्टो मयः परपुरञ्जयः।
पुरं निर्माय शाल्वाय प्रादात्सौभमयस्मयम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् शंकरने कह दिया ‘तथास्तु!’ इसके बाद उनकी आज्ञासे विपक्षियोंके नगर जीतनेवाले मय दानवने लोहेका सौभनामक विमान बनाया और शाल्वको दे दिया॥ ७॥
श्लोक-८
विश्वास-प्रस्तुतिः
स लब्ध्वा कामगं यानं तमोधाम दुरासदम्।
ययौ द्वारवतीं शाल्वो वैरं वृष्णिकृतं स्मरन्॥
मूलम्
स लब्ध्वा कामगं यानं तमोधाम दुरासदम्।
ययौ द्वारवतीं शाल्वो वैरं वृष्णिकृतं स्मरन्॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह विमान क्या था एक नगर ही था। वह इतना अन्धकारमय था कि उसे देखना या पकड़ना अत्यन्त कठिन था। चलानेवाला उसे जहाँ ले जाना चाहता, वहीं वह उसके इच्छा करते ही चला जाता था। शाल्वने वह विमान प्राप्त करके द्वारकापर चढ़ाई कर दी, क्योंकि वह वृष्णिवंशी यादवोंद्वारा किये हुए वैरको सदा स्मरण रखता था॥ ८॥
श्लोक-९
विश्वास-प्रस्तुतिः
निरुद्ध्य सेनया शाल्वो महत्या भरतर्षभ।
पुरीं बभञ्जोपवनान्युद्यानानि च सर्वशः॥
मूलम्
निरुद्ध्य सेनया शाल्वो महत्या भरतर्षभ।
पुरीं बभञ्जोपवनान्युद्यानानि च सर्वशः॥
श्लोक-१०
विश्वास-प्रस्तुतिः
सगोपुराणि द्वाराणि प्रासादाट्टालतोलिकाः।
विहारान् स विमानाग्र्यान्निपेतुः शस्त्रवृष्टयः॥
मूलम्
सगोपुराणि द्वाराणि प्रासादाट्टालतोलिकाः।
विहारान् स विमानाग्र्यान्निपेतुः शस्त्रवृष्टयः॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! शाल्वने अपनी बहुत बड़ी सेनासे द्वारकाको चारों ओरसे घेर लिया और फिर उसके फल-फूलसे लदे हुए उपवन और उद्यानोंको उजाड़ने और नगरद्वारों, फाटकों, राजमहलों, अटारियों, दीवारों और नागरिकोंके मनोविनोदके स्थानोंको नष्ट-भ्रष्ट करने लगा। उस श्रेष्ठ विमानसे शस्त्रोंकी झड़ी लग गयी॥ ९-१०॥
श्लोक-११
विश्वास-प्रस्तुतिः
शिला द्रुमाश्चाशनयः सर्पा आसारशर्कराः।
प्रचण्डश्चक्रवातोऽभूद् रजसाऽऽच्छादिता दिशः॥
मूलम्
शिला द्रुमाश्चाशनयः सर्पा आसारशर्कराः।
प्रचण्डश्चक्रवातोऽभूद् रजसाऽऽच्छादिता दिशः॥
अनुवाद (हिन्दी)
बड़ी-बड़ी चट्टानें, वृक्ष, वज्र, सर्प और ओले बरसने लगे। बड़े जोरका बवंडर उठ खड़ा हुआ। चारों ओर धूल-ही-धूल छा गयी॥ ११॥
श्लोक-१२
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्यर्द्यमाना सौभेन कृष्णस्य नगरी भृशम्।
नाभ्यपद्यत शं राजंस्त्रिपुरेण यथा मही॥
मूलम्
इत्यर्द्यमाना सौभेन कृष्णस्य नगरी भृशम्।
नाभ्यपद्यत शं राजंस्त्रिपुरेण यथा मही॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! प्राचीन कालमें जैसे त्रिपुरासुरने सारी पृथ्वीको पीड़ित कर रखा था, वैसे ही शाल्वके विमानने द्वारकापुरीको अत्यन्त पीड़ित कर दिया। वहाँके नर-नारियोंको कहीं एक क्षणके लिये भी शान्ति न मिलती थी॥ १२॥
श्लोक-१३
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रद्युम्नो भगवान् वीक्ष्य बाध्यमाना निजाः प्रजाः।
मा भैष्टेत्यभ्यधाद् वीरो रथारूढो महायशाः॥
मूलम्
प्रद्युम्नो भगवान् वीक्ष्य बाध्यमाना निजाः प्रजाः।
मा भैष्टेत्यभ्यधाद् वीरो रथारूढो महायशाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
परमयशस्वी वीर भगवान् प्रद्युम्नने देखा—हमारी प्रजाको बड़ा कष्ट हो रहा है, तब उन्होंने रथपर सवार होकर सबको ढाढ़स बँधाया और कहा कि ‘डरो मत’॥ १३॥
श्लोक-१४
विश्वास-प्रस्तुतिः
सात्यकिश्चारुदेष्णश्च साम्बोऽक्रूरः सहानुजः।
हार्दिक्यो भानुविन्दश्च गदश्च शुकसारणौ॥
मूलम्
सात्यकिश्चारुदेष्णश्च साम्बोऽक्रूरः सहानुजः।
हार्दिक्यो भानुविन्दश्च गदश्च शुकसारणौ॥
श्लोक-१५
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपरे च महेष्वासा रथयूथपयूथपाः।
निर्ययुर्दंशिता गुप्ता रथेभाश्वपदातिभिः॥
मूलम्
अपरे च महेष्वासा रथयूथपयूथपाः।
निर्ययुर्दंशिता गुप्ता रथेभाश्वपदातिभिः॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके पीछे-पीछे सात्यकि, चारुदेष्ण, साम्ब, भाइयोंके साथ अक्रूर, कृतवर्मा, भानुविन्द, गद, शुक, सारण आदि बहुत-से वीर बड़े-बड़े धनुष धारण करके निकले। ये सब-के-सब महारथी थे। सबने कवच पहन रखे थे और सबकी रक्षाके लिये बहुत-से रथ, हाथी, घोड़े तथा पैदल सेना साथ-साथ चल रही थी॥ १४-१५॥
श्लोक-१६
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः प्रववृते युद्धं शाल्वानां यदुभिः सह।
यथासुराणां विबुधैस्तुमुलं लोमहर्षणम्॥
मूलम्
ततः प्रववृते युद्धं शाल्वानां यदुभिः सह।
यथासुराणां विबुधैस्तुमुलं लोमहर्षणम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसके बाद प्राचीन कालमें जैसे देवताओंके साथ असुरोंका घमासान युद्ध हुआ था वैसे ही शाल्वके सैनिकों और यदुवंशियोंका युद्ध होने लगा। उसे देखकर लोगोंके रोंगटे खड़े हो जाते थे॥ १६॥
श्लोक-१७
विश्वास-प्रस्तुतिः
ताश्च सौभपतेर्माया दिव्यास्त्रै रुक्मिणीसुतः।
क्षणेन नाशयामास नैशं तम इवोष्णगुः॥
मूलम्
ताश्च सौभपतेर्माया दिव्यास्त्रै रुक्मिणीसुतः।
क्षणेन नाशयामास नैशं तम इवोष्णगुः॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रद्युम्नजीने अपने दिव्य अस्त्रोंसे क्षणभरमें ही सौभपति शाल्वकी सारी माया काट डाली; ठीक वैसे ही जैसे सूर्य अपनी प्रखर किरणोंसे रात्रिका अन्धकार मिटा देते हैं॥ १७॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
उष्णगुः आदित्यः ॥ १७-२० ॥
श्लोक-१८
विश्वास-प्रस्तुतिः
विव्याध पञ्चविंशत्या स्वर्णपुङ्खैरयोमुखैः।
शाल्वस्य ध्वजिनीपालं शरैः सन्नतपर्वभिः॥
मूलम्
विव्याध पञ्चविंशत्या स्वर्णपुङ्खैरयोमुखैः।
शाल्वस्य ध्वजिनीपालं शरैः सन्नतपर्वभिः॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रद्युम्नजीके बाणोंमें सोनेके पंख एवं लोहेके फल लगे हुए थे। उनकी गाँठें जान नहीं पड़ती थीं। उन्होंने ऐसे ही पचीस बाणोंसे शाल्वके सेनापतिको घायल कर दिया॥ १८॥
श्लोक-१९
विश्वास-प्रस्तुतिः
शतेनाताडयच्छाल्वमेकैकेनास्य सैनिकान्।
दशभिर्दशभिर्नेतॄन् वाहनानि त्रिभिस्त्रिभिः॥
मूलम्
शतेनाताडयच्छाल्वमेकैकेनास्य सैनिकान्।
दशभिर्दशभिर्नेतॄन् वाहनानि त्रिभिस्त्रिभिः॥
अनुवाद (हिन्दी)
परममनस्वी प्रद्युम्नजीने सेनापतिके साथ ही शाल्वको भी सौ बाण मारे, फिर प्रत्येक सैनिकको एक-एक और सारथियोंको दस-दस तथा वाहनोंको तीन-तीन बाणोंसे घायल किया॥ १९॥
श्लोक-२०
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदद्भुतं महत् कर्म प्रद्युम्नस्य महात्मनः।
दृष्ट्वा तं पूजयामासुः सर्वे स्वपरसैनिकाः॥
मूलम्
तदद्भुतं महत् कर्म प्रद्युम्नस्य महात्मनः।
दृष्ट्वा तं पूजयामासुः सर्वे स्वपरसैनिकाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
महामना प्रद्युम्नजीके इस अद्भुत और महान् कर्मको देखकर अपने एवं पराये—सभी सैनिक उनकी प्रशंसा करने लगे॥ २०॥
श्लोक-२१
विश्वास-प्रस्तुतिः
बहुरूपैकरूपं तद् दृश्यते न च दृश्यते।
मायामयं मयकृतं दुर्विभाव्यं परैरभूत्॥
मूलम्
बहुरूपैकरूपं तद् दृश्यते न च दृश्यते।
मायामयं मयकृतं दुर्विभाव्यं परैरभूत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! मय दानवका बनाया हुआ शाल्वका वह विमान अत्यन्त मायामय था। वह इतना विचित्र था कि कभी अनेक रूपोंमें दीखता तो कभी एक रूपमें, कभी दीखता तो कभी न भी दीखता। यदुवंशियोंको इस बातका पता ही न चलता कि वह इस समय कहाँ है॥ २१॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
मायामयम् आश्चर्यं द्रव्यमयं मूच्छित इति भयादपक्रमणम् अकीर्तिकरं न तु मूर्च्छायामित्यर्थः ॥ २१-३३ ॥
श्लोक-२२
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्वचिद् भूमौ क्वचिद् व्योम्नि गिरिमूर्ध्नि जले क्वचित्।
अलातचक्रवद् भ्राम्यत् सौभं तद् दुरवस्थितम्॥
मूलम्
क्वचिद् भूमौ क्वचिद् व्योम्नि गिरिमूर्ध्नि जले क्वचित्।
अलातचक्रवद् भ्राम्यत् सौभं तद् दुरवस्थितम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह कभी पृथ्वीपर आ जाता तो कभी आकाशमें उड़ने लगता। कभी पहाड़की चोटीपर चढ़ जाता तो कभी जलमें तैरने लगता। वह अलातचक्रके समान—मानो कोई दुमुँही लुकारियोंकी बनेठी भाँज रहा हो—घूमता रहता था, एक क्षणके लिये भी कहीं ठहरता न था॥ २२॥
श्लोक-२३
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत्र यत्रोपलक्ष्येत ससौभः सहसैनिकः।
शाल्वस्ततस्ततोऽमुञ्चन् शरान् सात्वतयूथपाः॥
मूलम्
यत्र यत्रोपलक्ष्येत ससौभः सहसैनिकः।
शाल्वस्ततस्ततोऽमुञ्चन् शरान् सात्वतयूथपाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
शाल्व अपने विमान और सैनिकोंके साथ जहाँ-जहाँ दिखायी पड़ता, वहीं-वहीं यदुवंशी सेनापति बाणोंकी झड़ी लगा देते थे॥ २३॥
श्लोक-२४
विश्वास-प्रस्तुतिः
शरैरग्न्यर्कसंस्पर्शैराशीविषदुरासदैः।
पीड्यमानपुरानीकः शाल्वोऽमुह्यत् परेरितैः॥
मूलम्
शरैरग्न्यर्कसंस्पर्शैराशीविषदुरासदैः।
पीड्यमानपुरानीकः शाल्वोऽमुह्यत् परेरितैः॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके बाण सूर्य और अग्निके समान जलते हुए तथा विषैले साँपकी तरह असह्य होते थे। उनसे शाल्वका नगराकार विमान और सेना अत्यन्त पीड़ित हो गयी, यहाँतक कि यदुवंशियोंके बाणोंसे शाल्व स्वयं मूर्च्छित हो गया॥ २४॥
श्लोक-२५
विश्वास-प्रस्तुतिः
शाल्वानीकपशस्त्रौघैर्वृष्णिवीरा भृशार्दिताः।
न तत्यजू रणं स्वं स्वं लोकद्वयजिगीषवः॥
मूलम्
शाल्वानीकपशस्त्रौघैर्वृष्णिवीरा भृशार्दिताः।
न तत्यजू रणं स्वं स्वं लोकद्वयजिगीषवः॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! शाल्वके सेनापतियोंने भी यदुवंशियोंपर खूब शस्त्रोंकी वर्षा कर रखी थी, इससे वे अत्यन्त पीड़ित थे; परन्तु उन्होंने अपना-अपना मोर्चा छोड़ा नहीं। वे सोचते थे कि मरेंगे तो परलोक बनेगा और जीतेंगे तो विजयकी प्राप्ति होगी॥ २५॥
श्लोक-२६
विश्वास-प्रस्तुतिः
शाल्वामात्यो द्युमान्नाम प्रद्युम्नं प्राक्प्रपीडितः।
आसाद्य गदया मौर्व्या व्याहत्य व्यनदद् बली॥
मूलम्
शाल्वामात्यो द्युमान्नाम प्रद्युम्नं प्राक्प्रपीडितः।
आसाद्य गदया मौर्व्या व्याहत्य व्यनदद् बली॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! शाल्वके मन्त्रीका नाम था द्युमान्, जिसे पहले प्रद्युम्नजीने पचीस बाण मारे थे। वह बहुत बली था। उसने झपटकर प्रद्युम्नजीपर अपनी फौलादी गदासे बड़े जोरसे प्रहार किया और ‘मार लिया, मार लिया’ कहकर गरजने लगा॥ २६॥
श्लोक-२७
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रद्युम्नं गदया शीर्णवक्षःस्थलमरिन्दमम्।
अपोवाह रणात् सूतो धर्मविद् दारुकात्मजः॥
मूलम्
प्रद्युम्नं गदया शीर्णवक्षःस्थलमरिन्दमम्।
अपोवाह रणात् सूतो धर्मविद् दारुकात्मजः॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! गदाकी चोटसे शत्रुदमन प्रद्युम्नजीका वक्षःस्थल फट-सा गया। दारुकका पुत्र उनका रथ हाँक रहा था। वह सारथिधर्मके अनुसार उन्हें रणभूमिसे हटा ले गया॥ २७॥
श्लोक-२८
विश्वास-प्रस्तुतिः
लब्धसंज्ञो मुहूर्तेन कार्ष्णिः सारथिमब्रवीत्।
अहो असाध्विदं सूत यद् रणान्मेऽपसर्पणम्॥
मूलम्
लब्धसंज्ञो मुहूर्तेन कार्ष्णिः सारथिमब्रवीत्।
अहो असाध्विदं सूत यद् रणान्मेऽपसर्पणम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
दो घड़ीमें प्रद्युम्नजीकी मूर्च्छा टूटी। तब उन्होंने सारथिसे कहा—‘सारथे! तूने यह बहुत बुरा किया। हाय, हाय! तू मुझे रणभूमिसे हटा लाया?॥ २८॥
श्लोक-२९
विश्वास-प्रस्तुतिः
न यदूनां कुले जातः श्रूयते रणविच्युतः।
विना मत् क्लीबचित्तेन सूतेन प्राप्तकिल्बिषात्॥
मूलम्
न यदूनां कुले जातः श्रूयते रणविच्युतः।
विना मत् क्लीबचित्तेन सूतेन प्राप्तकिल्बिषात्॥
अनुवाद (हिन्दी)
सूत! हमने ऐसा कभी नहीं सुना कि हमारे वंशका कोई भी वीर कभी रणभूमि छोड़कर अलग हट गया हो! यह कलंकका टीका तो केवल मेरे ही सिर लगा। सचमुच सूत! तू कायर है, नपुंसक है॥ २९॥
श्लोक-३०
विश्वास-प्रस्तुतिः
किं नु वक्ष्येऽभिसङ्गम्य पितरौ रामकेशवौ।
युद्धात् सम्यगपक्रान्तः पृष्टस्तत्रात्मनः क्षमम्॥
मूलम्
किं नु वक्ष्येऽभिसङ्गम्य पितरौ रामकेशवौ।
युद्धात् सम्यगपक्रान्तः पृष्टस्तत्रात्मनः क्षमम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
बतला तो सही, अब मैं अपने ताऊ बलरामजी और पिता श्रीकृष्णके सामने जाकर क्या कहूँगा? अब तो सब लोग यही कहेंगे न, कि मैं युद्धसे भग गया? उनके पूछनेपर मैं अपने अनुरूप क्या उत्तर दे सकूँगा’॥ ३०॥
श्लोक-३१
विश्वास-प्रस्तुतिः
व्यक्तं मे कथयिष्यन्ति हसन्त्यो भ्रातृजामयः।
क्लैब्यं कथं कथं वीर तवान्यैः कथ्यतां मृधे॥
मूलम्
व्यक्तं मे कथयिष्यन्ति हसन्त्यो भ्रातृजामयः।
क्लैब्यं कथं कथं वीर तवान्यैः कथ्यतां मृधे॥
अनुवाद (हिन्दी)
मेरी भाभियाँ हँसती हुई मुझसे साफ-साफ पूछेंगी कि ‘कहो, वीर! तुम नपुंसक कैसे हो गये? दूसरोंने युद्धमें तुम्हें नीचा कैसे दिखा दिया?’ ‘सूत! अवश्य ही तुमने मुझे रणभूमिसे भगाकर अक्षम्य अपराध किया है!’॥ ३१॥
श्लोक-३२
मूलम् (वचनम्)
सारथिरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
धर्मं विजानताऽऽयुष्मन् कृतमेतन्मया विभो।
सूतः कृच्छ्रगतं रक्षेद् रथिनं सारथिं रथी॥
मूलम्
धर्मं विजानताऽऽयुष्मन् कृतमेतन्मया विभो।
सूतः कृच्छ्रगतं रक्षेद् रथिनं सारथिं रथी॥
अनुवाद (हिन्दी)
सारथीने कहा—आयुष्मन्! मैंने जो कुछ किया है, सारथीका धर्म समझकर ही किया है। मेरे समर्थ स्वामी! युद्धका ऐसा धर्म है कि संकट पड़नेपर सारथी रथीकी रक्षा कर ले और रथी सारथीकी॥ ३२॥
श्लोक-३३
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतद् विदित्वा तु भवान् मयापोवाहितो रणात्।
उपसृष्टः परेणेति मूर्च्छितो गदया हतः॥
मूलम्
एतद् विदित्वा तु भवान् मयापोवाहितो रणात्।
उपसृष्टः परेणेति मूर्च्छितो गदया हतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस धर्मको समझते हुए ही मैंने आपको रणभूमिसे हटाया है। शत्रुने आपपर गदाका प्रहार किया था, जिससे आप मूर्च्छित हो गये थे, बड़े संकटमें थे; इसीसे मुझे ऐसा करना पड़ा॥ ३३॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
॥ इति श्रीमद्भागवतव्याख्याने दशमस्कन्धे श्रीसुदर्शनसूरिकृतशुकपक्षीये षट्सप्ततितमोऽध्यायः ॥ ७६ ॥
अनुवाद (समाप्ति)
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे उत्तरार्धे शाल्वयुद्धे षट्सप्ततितमोऽध्यायः॥ ७६॥