[पञ्चसप्ततितमोऽध्यायः]
भागसूचना
राजसूय यज्ञकी पूर्ति और दुर्योधनका अपमान
श्लोक-१
मूलम् (वचनम्)
राजोवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अजातशत्रोस्तं दृष्ट्वा राजसूयमहोदयम्।
सर्वे मुमुदिरे ब्रह्मन् नृदेवा ये समागताः॥
मूलम्
अजातशत्रोस्तं दृष्ट्वा राजसूयमहोदयम्।
सर्वे मुमुदिरे ब्रह्मन् नृदेवा ये समागताः॥
श्लोक-२
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुर्योधनं वर्जयित्वा राजानः सर्षयः सुराः।
इति श्रुतं नो भगवंस्तत्र कारणमुच्यताम्॥
मूलम्
दुर्योधनं वर्जयित्वा राजानः सर्षयः सुराः।
इति श्रुतं नो भगवंस्तत्र कारणमुच्यताम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा परीक्षित् ने पूछा—भगवन्! अजातशत्रु धर्मराज युधिष्ठिरके राजसूय यज्ञमहोत्सवको देखकर, जितने मनुष्य, नरपति, ऋषि, मुनि और देवता आदि आये थे, वे सब आनन्दित हुए। परन्तु दुर्योधनको बड़ा दुःख, बड़ी पीड़ा हुई; यह बात मैंने आपके मुखसे सुनी है। भगवन्! आप कृपा करके इसका कारण बतलाइये॥ १-२॥
श्लोक-३
मूलम् (वचनम्)
ऋषिरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
पितामहस्य ते यज्ञे राजसूये महात्मनः।
बान्धवाः परिचर्यायां तस्यासन् प्रेमबन्धनाः॥
मूलम्
पितामहस्य ते यज्ञे राजसूये महात्मनः।
बान्धवाः परिचर्यायां तस्यासन् प्रेमबन्धनाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीशुकदेवजी महाराजने कहा—परीक्षित्! तुम्हारे दादा युधिष्ठिर बड़े महात्मा थे। उनके प्रेमबन्धनसे बँधकर सभी बन्धु-बान्धवोंने राजसूय यज्ञमें विभिन्न सेवाकार्य स्वीकार किया था॥ ३॥
श्लोक-४
विश्वास-प्रस्तुतिः
भीमो महानसाध्यक्षो धनाध्यक्षः सुयोधनः।
सहदेवस्तु पूजायां नकुलो द्रव्यसाधने॥
मूलम्
भीमो महानसाध्यक्षो धनाध्यक्षः सुयोधनः।
सहदेवस्तु पूजायां नकुलो द्रव्यसाधने॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीमसेन भोजनालयकी देख-रेख करते थे। दुर्योधन कोषाध्यक्ष थे। सहदेव अभ्यागतोंके स्वागत-सत्कारमें नियुक्त थे और नकुल विविध प्रकारकी सामग्री एकत्र करनेका काम देखते थे॥ ४॥
श्लोक-५
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरुशुश्रूषणे जिष्णुः कृष्णः पादावनेजने।
परिवेषणे द्रुपदजा कर्णो दाने महामनाः॥
मूलम्
गुरुशुश्रूषणे जिष्णुः कृष्णः पादावनेजने।
परिवेषणे द्रुपदजा कर्णो दाने महामनाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
अर्जुन गुरुजनोंकी सेवा-शुश्रूषा करते थे और स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण आये हुए अतिथियोंके पाँव पखारनेका काम करते थे। देवी द्रौपदी भोजन परसनेका काम करतीं और उदार-शिरोमणि कर्ण खुले हाथों दान दिया करते थे॥ ५॥
श्लोक-६
विश्वास-प्रस्तुतिः
युयुधानो विकर्णश्च हार्दिक्यो विदुरादयः।
बाह्लीकपुत्रा भूर्याद्या ये च सन्तर्दनादयः॥
मूलम्
युयुधानो विकर्णश्च हार्दिक्यो विदुरादयः।
बाह्लीकपुत्रा भूर्याद्या ये च सन्तर्दनादयः॥
श्लोक-७
विश्वास-प्रस्तुतिः
निरूपिता महायज्ञे नानाकर्मसु ते तदा।
प्रवर्तन्ते स्म राजेन्द्र राज्ञः प्रियचिकीर्षवः॥
मूलम्
निरूपिता महायज्ञे नानाकर्मसु ते तदा।
प्रवर्तन्ते स्म राजेन्द्र राज्ञः प्रियचिकीर्षवः॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! इसी प्रकार सात्यकि, विकर्ण, हार्दिक्य, विदुर, भूरिश्रवा आदि बाह्लीकके पुत्र और सन्तर्दन आदि राजसूय यज्ञमें विभिन्न कर्मोंमें नियुक्त थे। वे सब-के-सब वैसा ही काम करते थे, जिससे महाराज युधिष्ठिरका प्रिय और हित हो॥ ६-७॥
श्लोक-८
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऋत्विक्सदस्यबहुवित्सु सुहृत्तमेषु
स्विष्टेषु सूनृतसमर्हणदक्षिणाभिः।
चैद्ये च सात्वतपतेश्चरणं प्रविष्टे
चक्रुस्ततस्त्ववभृथस्नपनं द्युनद्याम्॥
मूलम्
ऋत्विक्सदस्यबहुवित्सु सुहृत्तमेषु
स्विष्टेषु सूनृतसमर्हणदक्षिणाभिः।
चैद्ये च सात्वतपतेश्चरणं प्रविष्टे
चक्रुस्ततस्त्ववभृथस्नपनं द्युनद्याम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! जब ऋत्विज्, सदस्य और बहुज्ञ पुरुषोंका तथा अपने इष्ट-मित्र एवं बन्धु-बान्धवोंका सुमधुर वाणी, विविध प्रकारकी पूजा-सामग्री और दक्षिणा आदिसे भलीभाँति सत्कार हो चुका तथा शिशुपाल भक्तवत्सल भगवान्के चरणोंमें समा गया, तब धर्मराज युधिष्ठिर गंगाजीमें यज्ञान्त-स्नान करने गये॥ ८॥
श्लोक-९
विश्वास-प्रस्तुतिः
मृदङ्गशङ्खपणवधुन्धुर्यानकगोमुखाः।
वादित्राणि विचित्राणि नेदुरावभृथोत्सवे॥
मूलम्
मृदङ्गशङ्खपणवधुन्धुर्यानकगोमुखाः।
वादित्राणि विचित्राणि नेदुरावभृथोत्सवे॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय जब वे अवभृथ-स्नान करने लगे, तब मृदंग, शंख, ढोल, नौबत, नगारे और नरसिंगे आदि तरह-तरहके बाजे बजने लगे॥ ९॥
श्लोक-१०
विश्वास-प्रस्तुतिः
नर्तक्यो ननृतुर्हृष्टा गायका यूथशो जगुः।
वीणावेणुतलोन्नादस्तेषां स दिवमस्पृशत्॥
मूलम्
नर्तक्यो ननृतुर्हृष्टा गायका यूथशो जगुः।
वीणावेणुतलोन्नादस्तेषां स दिवमस्पृशत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
नर्तकियाँ आनन्दसे झूम-झूमकर नाचने लगीं। झुंड-के-झुंड गवैये गाने लगे और वीणा, बाँसुरी तथा झाँझ-मँजीरे बजने लगे। इनकी तुमुल ध्वनि सारे आकाशमें गूँज गयी॥ १०॥
श्लोक-११
विश्वास-प्रस्तुतिः
चित्रध्वजपताकाग्रैरिभेन्द्रस्यन्दनार्वभिः।
स्वलङ्कृतैर्भटैर्भूपा निर्ययू रुक्ममालिनः॥
मूलम्
चित्रध्वजपताकाग्रैरिभेन्द्रस्यन्दनार्वभिः।
स्वलङ्कृतैर्भटैर्भूपा निर्ययू रुक्ममालिनः॥
श्लोक-१२
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदुसृञ्जयकाम्बोजकुरुकेकयकोसलाः।
कम्पयन्तो भुवं सैन्यैर्यजमानपुरःसराः॥
मूलम्
यदुसृञ्जयकाम्बोजकुरुकेकयकोसलाः।
कम्पयन्तो भुवं सैन्यैर्यजमानपुरःसराः॥
अनुवाद (हिन्दी)
सोनेके हार पहने हुए यदु, सृंजय, कम्बोज, कुरु, केकय और कोसल देशके नरपति रंग-बिरंगी ध्वजा-पताकाओंसे युक्त और खूब सजे-धजे गजराजों, रथों, घोड़ों तथा सुसज्जित वीर सैनिकोंके साथ महाराज युधिष्ठिरको आगे करके पृथ्वीको कँपाते हुए चल रहे थे॥ ११-१२॥
श्लोक-१३
विश्वास-प्रस्तुतिः
सदस्यर्त्विग्द्विजश्रेष्ठा ब्रह्मघोषेण भूयसा।
देवर्षिपितृगन्धर्वास्तुष्टुवुः पुष्पवर्षिणः॥
मूलम्
सदस्यर्त्विग्द्विजश्रेष्ठा ब्रह्मघोषेण भूयसा।
देवर्षिपितृगन्धर्वास्तुष्टुवुः पुष्पवर्षिणः॥
अनुवाद (हिन्दी)
यज्ञके सदस्य ऋत्विज् और बहुत-से श्रेष्ठ ब्राह्मण वेदमन्त्रोंका ऊँचे स्वरसे उच्चारण करते हुए चले। देवता, ऋषि, पितर, गन्धर्व आकाशसे पुष्पोंकी वर्षा करते हुए उनकी स्तुति करने लगे॥ १३॥
श्लोक-१४
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वलङ्कृता नरा नार्यो गन्धस्रग्भूषणाम्बरैः।
विलिम्पन्त्योऽभिषिञ्चन्त्यो विजह्रुर्विविधै रसैः॥
मूलम्
स्वलङ्कृता नरा नार्यो गन्धस्रग्भूषणाम्बरैः।
विलिम्पन्त्योऽभिषिञ्चन्त्यो विजह्रुर्विविधै रसैः॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन्द्रप्रस्थके नर-नारी इत्र-फुलेल, पुष्पोंके हार, रंग-बिरंगे वस्त्र और बहुमूल्य आभूषणोंसे सज-धजकर एक-दूसरेपर जल, तेल, दूध, मक्खन आदि रस डालकर भिगो देते, एक-दूसरेके शरीरमें लगा देते और इस प्रकार क्रीडा करते हुए चलने लगे॥ १४॥
श्लोक-१५
विश्वास-प्रस्तुतिः
तैलगोरसगन्धोदहरिद्रासान्द्रकुङ्कुमैः।
पुम्भिर्लिप्ताः प्रलिम्पन्त्यो विजह्रुर्वारयोषितः॥
मूलम्
तैलगोरसगन्धोदहरिद्रासान्द्रकुङ्कुमैः।
पुम्भिर्लिप्ताः प्रलिम्पन्त्यो विजह्रुर्वारयोषितः॥
अनुवाद (हिन्दी)
वाराङ्गनाएँ पुरुषोंको तेल, गोरस, सुगन्धित जल, हल्दी और गाढ़ी केसर मल देतीं और पुरुष भी उन्हें उन्हीं वस्तुओंसे सराबोर कर देते॥ १५॥
श्लोक-१६
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुप्ता नृभिर्निरगमन्नुपलब्धुमेतद्
देव्यो यथा दिवि विमानवरैर्नृदेव्यः।
ता मातुलेयसखिभिः परिषिच्यमानाः
सव्रीडहासविकसद्वदना विरेजुः॥
मूलम्
गुप्ता नृभिर्निरगमन्नुपलब्धुमेतद्
देव्यो यथा दिवि विमानवरैर्नृदेव्यः।
ता मातुलेयसखिभिः परिषिच्यमानाः
सव्रीडहासविकसद्वदना विरेजुः॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय इस उत्सवको देखनेके लिये जैसे उत्तम-उत्तम विमानोंपर चढ़कर आकाशमें बहुत-सी देवियाँ आयी थीं, वैसे ही सैनिकोंके द्वारा सुरक्षित इन्द्रप्रस्थकी बहुत-सी राजमहिलाएँ भी सुन्दर-सुन्दर पालकियोंपर सवार होकर आयी थीं। पाण्डवोंके ममेरे भाई श्रीकृष्ण और उनके सखा उन रानियोंके ऊपर तरह-तरहके रंग आदि डाल रहे थे। इससे रानियोंके मुख लजीली मुसकराहटसे खिल उठते थे और उनकी बड़ी शोभा होती थी॥ १६॥
श्लोक-१७
विश्वास-प्रस्तुतिः
ता देवरानुत सखीन् सिषिचुर्दृतीभिः
क्लिन्नाम्बरा विवृतगात्रकुचोरुमध्याः।
औत्सुक्यमुक्तकबराच्च्यवमानमाल्याः
क्षोभं दधुर्मलधियां रुचिरैर्विहारैः॥
मूलम्
ता देवरानुत सखीन् सिषिचुर्दृतीभिः
क्लिन्नाम्बरा विवृतगात्रकुचोरुमध्याः।
औत्सुक्यमुक्तकबराच्च्यवमानमाल्याः
क्षोभं दधुर्मलधियां रुचिरैर्विहारैः॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन लोगोंके रंग आदि डालनेसे रानियोंके वस्त्र भीग गये थे। इससे उनके शरीरके अंग-प्रत्यंग—वक्षःस्थल, जंघा और कटिभाग कुछ-कुछ दीख-से रहे थे। वे भी पिचकारी और पात्रोंमें रंग भर-भरकर अपने देवरों और उनके सखाओंपर उड़ेल रही थीं। प्रेमभरी उत्सुकताके कारण उनकी चोटियों और जूड़ोंके बन्धन ढीले पड़ गये थे तथा उनमें गुँथे हुए फूल गिरते जा रहे थे। परीक्षित्! उनका यह रुचिर और पवित्र विहार देखकर मलिन अन्तःकरणवाले पुरुषोंका चित्त चंचल हो उठता था, काममोहित हो जाता था॥ १७॥
श्लोक-१८
विश्वास-प्रस्तुतिः
स सम्राड् रथमारूढः सदश्वं रुक्ममालिनम्।
व्यरोचत स्वपत्नीभिः क्रियाभिः क्रतुराडिव॥
मूलम्
स सम्राड् रथमारूढः सदश्वं रुक्ममालिनम्।
व्यरोचत स्वपत्नीभिः क्रियाभिः क्रतुराडिव॥
अनुवाद (हिन्दी)
चक्रवर्ती राजा युधिष्ठिर द्रौपदी आदि रानियोंके साथ सुन्दर घोड़ोंसे युक्त एवं सोनेके हारोंसे सुसज्जित रथपर सवार होकर ऐसे शोभायमान हो रहे थे, मानो स्वयं राजसूय यज्ञ प्रयाज आदि क्रियाओंके साथ मूर्तिमान् होकर प्रकट हो गया हो॥ १८॥
श्लोक-१९
विश्वास-प्रस्तुतिः
पत्नीसंयाजावभृथ्यैश्चरित्वा ते तमृत्विजः।
आचान्तं स्नापयाञ्चक्रुर्गङ्गायां सह कृष्णया॥
मूलम्
पत्नीसंयाजावभृथ्यैश्चरित्वा ते तमृत्विजः।
आचान्तं स्नापयाञ्चक्रुर्गङ्गायां सह कृष्णया॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऋत्विजोंने पत्नी-संयाज (एक प्रकारका यज्ञकर्म) तथा यज्ञान्त-स्नानसम्बन्धी कर्म करवाकर द्रौपदीके साथ सम्राट् युधिष्ठिरको आचमन करवाया और इसके बाद गंगास्नान॥ १९॥
श्लोक-२०
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवदुन्दुभयो नेदुर्नरदुन्दुभिभिः समम्।
मुमुचुः पुष्पवर्षाणि देवर्षिपितृमानवाः॥
मूलम्
देवदुन्दुभयो नेदुर्नरदुन्दुभिभिः समम्।
मुमुचुः पुष्पवर्षाणि देवर्षिपितृमानवाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय मनुष्योंकी दुन्दुभियोंके साथ ही देवताओंकी दुन्दुभियाँ भी बजने लगीं। बड़े-बड़े देवता, ऋषि-मुनि, पितर और मनुष्य पुष्पोंकी वर्षा करने लगे॥ २०॥
श्लोक-२१
विश्वास-प्रस्तुतिः
सस्नुस्तत्र ततः सर्वे वर्णाश्रमयुता नराः।
महापातक्यपि यतः सद्यो मुच्येत किल्बिषात्॥
मूलम्
सस्नुस्तत्र ततः सर्वे वर्णाश्रमयुता नराः।
महापातक्यपि यतः सद्यो मुच्येत किल्बिषात्॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज युधिष्ठिरके स्नान कर लेनेके बाद सभी वर्णों एवं आश्रमोंके लोगोंने गंगाजीमें स्नान किया; क्योंकि इस स्नानसे बड़े-से-बड़ा महापापी भी अपनी पाप-राशिसे तत्काल मुक्त हो जाता है॥ २१॥
श्लोक-२२
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ राजाहते क्षौमे परिधाय स्वलङ्कृतः।
ऋत्विक्सदस्यविप्रादीनानर्चाभरणाम्बरैः॥
मूलम्
अथ राजाहते क्षौमे परिधाय स्वलङ्कृतः।
ऋत्विक्सदस्यविप्रादीनानर्चाभरणाम्बरैः॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर धर्मराज युधिष्ठिरने नयी रेशमी धोती और दुपट्टा धारण किया तथा विविध प्रकारके आभूषणोंसे अपनेको सजा लिया। फिर ऋत्विज्, सदस्य, ब्राह्मण आदिको वस्त्राभूषण दे-देकर उनकी पूजा की॥ २२॥
श्लोक-२३
विश्वास-प्रस्तुतिः
बन्धुज्ञातिनृपान् मित्रसुहृदोऽन्यांश्च सर्वशः।
अभीक्ष्णं पूजयामास नारायणपरो नृपः॥
मूलम्
बन्धुज्ञातिनृपान् मित्रसुहृदोऽन्यांश्च सर्वशः।
अभीक्ष्णं पूजयामास नारायणपरो नृपः॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज युधिष्ठिर भगवत्परायण थे, उन्हें सबमें भगवान्के ही दर्शन होते। इसलिये वे भाई-बन्धु , कुटुम्बी, नरपति, इष्ट-मित्र, हितैषी और सभी लोगोंकी बार-बार पूजा करते॥ २३॥
श्लोक-२४
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वे जनाः सुररुचो मणिकुण्डलस्र-
गुष्णीषकञ्चुकदुकूलमहार्घ्यहाराः।
नार्यश्च कुण्डलयुगालकवृन्दजुष्ट-
वक्त्रश्रियः कनकमेखलया विरेजुः॥
मूलम्
सर्वे जनाः सुररुचो मणिकुण्डलस्र-
गुष्णीषकञ्चुकदुकूलमहार्घ्यहाराः।
नार्यश्च कुण्डलयुगालकवृन्दजुष्ट-
वक्त्रश्रियः कनकमेखलया विरेजुः॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय सभी लोग जड़ाऊ कुण्डल, पुष्पोंके हार, पगड़ी, लंबी अँगरखी, दुपट्टा तथा मणियोंके बहुमूल्य हार पहनकर देवताओंके समान शोभायमान हो रहे थे। स्त्रियोंके मुखोंकी भी दोनों कानोंके कर्णफूल और घुँघराली अलकोंसे बड़ी शोभा हो रही थी तथा उनके कटिभागमें सोनेकी करधनियाँ तो बहुत ही भली मालूम हो रही थीं॥ २४॥
श्लोक-२५
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथर्त्विजो महाशीलाः सदस्या ब्रह्मवादिनः।
ब्रह्मक्षत्रियविट्शूद्रा राजानो ये समागताः॥
मूलम्
अथर्त्विजो महाशीलाः सदस्या ब्रह्मवादिनः।
ब्रह्मक्षत्रियविट्शूद्रा राजानो ये समागताः॥
श्लोक-२६
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवर्षिपितृभूतानि लोकपालाः सहानुगाः।
पूजितास्तमनुज्ञाप्य स्वधामानि ययुर्नृप॥
मूलम्
देवर्षिपितृभूतानि लोकपालाः सहानुगाः।
पूजितास्तमनुज्ञाप्य स्वधामानि ययुर्नृप॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! राजसूय यज्ञमें जितने लोग आये थे—परम शीलवान् ऋत्विज्, ब्रह्मवादी सदस्य, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, राजा, देवता, ऋषि, मुनि, पितर तथा अन्य प्राणी और अपने अनुयायियोंके साथ लोकपाल—इन सबकी पूजा महाराज युधिष्ठिरने की। इसके बाद वे लोग धर्मराजसे अनुमति लेकर अपने-अपने निवासस्थानको चले गये॥ २५-२६॥
श्लोक-२७
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरिदासस्य राजर्षे राजसूयमहोदयम्।
नैवातृप्यन् प्रशंसन्तः पिबन् मर्त्योऽमृतं यथा॥
मूलम्
हरिदासस्य राजर्षे राजसूयमहोदयम्।
नैवातृप्यन् प्रशंसन्तः पिबन् मर्त्योऽमृतं यथा॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! जैसे मनुष्य अमृतपान करते-करते कभी तृप्त नहीं हो सकता, वैसे ही सब लोग भगवद्भक्त राजर्षि युधिष्ठिरके राजसूय महायज्ञकी प्रशंसा करते-करते तृप्त न होते थे॥ २७॥
श्लोक-२८
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो युधिष्ठिरो राजा सुहृत्सम्बन्धिबान्धवान्।
प्रेम्णा निवासयामास कृष्णं च त्यागकातरः॥
मूलम्
ततो युधिष्ठिरो राजा सुहृत्सम्बन्धिबान्धवान्।
प्रेम्णा निवासयामास कृष्णं च त्यागकातरः॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसके बाद धर्मराज युधिष्ठिरने बड़े प्रेमसे अपने हितैषी सुहृद्-सम्बन्धियों, भाई-बन्धुओं और भगवान् श्रीकृष्णको भी रोक लिया, क्योंकि उन्हें उनके विछोहकी कल्पनासे ही बड़ा दुःख होता था॥ २८॥
श्लोक-२९
विश्वास-प्रस्तुतिः
भगवानपि तत्राङ्ग न्यवात्सीत्तत्प्रियङ्करः।
प्रस्थाप्य यदुवीरांश्च साम्बादींश्च कुशस्थलीम्॥
मूलम्
भगवानपि तत्राङ्ग न्यवात्सीत्तत्प्रियङ्करः।
प्रस्थाप्य यदुवीरांश्च साम्बादींश्च कुशस्थलीम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्णने यदुवंशी वीर साम्ब आदिको द्वारकापुरी भेज दिया और स्वयं राजा युधिष्ठिरकी अभिलाषा पूर्ण करनेके लिये, उन्हें आनन्द देनेके लिये वहीं रह गये॥ २९॥
श्लोक-३०
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्थं राजा धर्मसुतो मनोरथमहार्णवम्।
सुदुस्तरं समुत्तीर्य कृष्णेनासीद् गतज्वरः॥
मूलम्
इत्थं राजा धर्मसुतो मनोरथमहार्णवम्।
सुदुस्तरं समुत्तीर्य कृष्णेनासीद् गतज्वरः॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार धर्मनन्दन महाराज युधिष्ठिर मनोरथोंके महान् समुद्रको, जिसे पार करना अत्यन्त कठिन है, भगवान् श्रीकृष्णकी कृपासे अनायास ही पार कर गये और उनकी सारी चिन्ता मिट गयी॥ ३०॥
श्लोक-३१
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकदान्तःपुरे तस्य वीक्ष्य दुर्योधनः श्रियम्।
अतप्यद् राजसूयस्य महित्वं चाच्युतात्मनः॥
मूलम्
एकदान्तःपुरे तस्य वीक्ष्य दुर्योधनः श्रियम्।
अतप्यद् राजसूयस्य महित्वं चाच्युतात्मनः॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक दिनकी बात है, भगवान्के परमप्रेमी महाराज युधिष्ठिरके अन्तःपुरकी सौन्दर्य-सम्पत्ति और राजसूय यज्ञद्वारा प्राप्त महत्त्वको देखकर दुर्योधनका मन डाहसे जलने लगा॥ ३१॥
श्लोक-३२
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्मिन् नरेन्द्रदितिजेन्द्रसुरेन्द्रलक्ष्मी-
र्नाना विभान्ति किल विश्वसृजोपक्लृप्ताः।
ताभिः पतीन् द्रुपदराजसुतोपतस्थे
यस्यां विषक्तहृदयः कुरुराडतप्यत्॥
मूलम्
यस्मिन् नरेन्द्रदितिजेन्द्रसुरेन्द्रलक्ष्मी-
र्नाना विभान्ति किल विश्वसृजोपक्लृप्ताः।
ताभिः पतीन् द्रुपदराजसुतोपतस्थे
यस्यां विषक्तहृदयः कुरुराडतप्यत्॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
यस्मिन्नन्तःपुरे लक्ष्मीः सम्पदः ताभिरुपलक्षिताः पतीन् कुरुराट् दुर्योधनः ॥३२ ॥
श्लोक-३३
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्मिंस्तदा मधुपतेर्महिषीसहस्रं
श्रोणीभरेण शनकैः क्वणदङ्घ्रिशोभम्।
मध्ये सुचारु कुचकुङ्कुमशोणहारं
श्रीमन्मुखं प्रचलकुण्डलकुन्तलाढ्यम्॥
मूलम्
यस्मिंस्तदा मधुपतेर्महिषीसहस्रं
श्रोणीभरेण शनकैः क्वणदङ्घ्रिशोभम्।
मध्ये सुचारु कुचकुङ्कुमशोणहारं
श्रीमन्मुखं प्रचलकुण्डलकुन्तलाढ्यम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! पाण्डवोंके लिये मय दानवने जो महल बना दिये थे, उनमें नरपति, दैत्यपति और सुरपतियोंकी विविध विभूतियाँ तथा श्रेष्ठ सौन्दर्य स्थान-स्थानपर शोभायमान था। उनके द्वारा राजरानी द्रौपदी अपने पतियोंकी सेवा करती थीं। उस राजभवनमें उन दिनों भगवान् श्रीकृष्णकी सहस्रों रानियाँ निवास करती थीं। नितम्बके भारी भारके कारण जब वे उस राजभवनमें धीरे-धीरे चलने लगती थीं, तब उनके पायजेबोंकी झनकार चारों ओर फैल जाती थी। उनका कटिभाग बहुत ही सुन्दर था तथा उनके वक्षःस्थलपर लगी हुई केसरकी लालिमासे मोतियोंके सुन्दर श्वेत हार भी लाल-लाल जान पड़ते थे। कुण्डलोंकी और घुँघराली अलकोंकी चंचलतासे उनके मुखकी शोभा और भी बढ़ जाती थी। यह सब देखकर दुर्योधनके हृदयमें बड़ी जलन होती। परीक्षित्! सच पूछो तो दुर्योधनका चित्त द्रौपदीमें आसक्त था और यही उसकी जलनका मुख्य कारण भी था॥ ३२-३३॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
मधुपतेः कृष्णस्य महिषीसहस्रम् आस्ते इत्यर्थः । अनेन महत्त्वं कथितं तस्मिन् अन्तःपुरे श्रियं दृष्ट्वा दुर्योधनः अतप्यदिति पूर्वेणान्वयः ॥ ३३ ॥ स्
श्लोक-३४
विश्वास-प्रस्तुतिः
सभायां मयक्लृप्तायां क्वापि धर्मसुतोऽधिराट्।
वृतोऽनुजैर्बन्धुभिश्च कृष्णेनापि स्वचक्षुषा॥
मूलम्
सभायां मयक्लृप्तायां क्वापि धर्मसुतोऽधिराट्।
वृतोऽनुजैर्बन्धुभिश्च कृष्णेनापि स्वचक्षुषा॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
स्वचक्षुषा नेत्रभूतेन ॥ ३४-३७॥
श्लोक-३५
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसीनः काञ्चने साक्षादासने मघवानिव।
पारमेष्ठ्यश्रिया जुष्टः स्तूयमानश्च वन्दिभिः॥
मूलम्
आसीनः काञ्चने साक्षादासने मघवानिव।
पारमेष्ठ्यश्रिया जुष्टः स्तूयमानश्च वन्दिभिः॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक दिन राजाधिराज महाराज युधिष्ठिर अपने भाइयों, सम्बन्धियों एवं अपने नयनोंके तारे परम हितैषी भगवान् श्रीकृष्णके साथ मयदानवकी बनायी सभामें स्वर्णसिंहासनपर देवराज इन्द्रके समान विराजमान थे। उनकी भोग-सामग्री, उनकी राज्यलक्ष्मी ब्रह्माजीके ऐश्वर्यके समान थी। वंदीजन उनकी स्तुति कर रहे थे॥ ३४-३५॥
श्लोक-३६
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र दुर्योधनो मानी परीतो भ्रातृभिर्नृप।
किरीटमाली न्यविशदसिहस्तः क्षिपन् रुषा॥
मूलम्
तत्र दुर्योधनो मानी परीतो भ्रातृभिर्नृप।
किरीटमाली न्यविशदसिहस्तः क्षिपन् रुषा॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसी समय अभिमानी दुर्योधन अपने दुःशासन आदि भाइयोंके साथ वहाँ आया। उसके सिरपर मुकुट, गलेमें माला और हाथमें तलवार थी। परीक्षित्! वह क्रोधवश द्वारपालों और सेवकोंको झिड़क रहा था॥ ३६॥
श्लोक-३७
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्थलेऽभ्यगृह्णाद् वस्त्रान्तं जलं मत्वा स्थलेऽपतत्।
जले च स्थलवद् भ्रान्त्या मयमायाविमोहितः॥
मूलम्
स्थलेऽभ्यगृह्णाद् वस्त्रान्तं जलं मत्वा स्थलेऽपतत्।
जले च स्थलवद् भ्रान्त्या मयमायाविमोहितः॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस सभामें मय दानवने ऐसी माया फैला रखी थी कि दुर्योधनने उससे मोहित हो स्थलको जल समझकर अपने वस्त्र समेट लिये और जलको स्थल समझकर वह उसमें गिर पड़ा॥ ३७॥
श्लोक-३८
विश्वास-प्रस्तुतिः
जहास भीमस्तं दृष्ट्वा स्त्रियो नृपतयोऽपरे।
निवार्यमाणा अप्यङ्ग राज्ञा कृष्णानुमोदिताः॥
मूलम्
जहास भीमस्तं दृष्ट्वा स्त्रियो नृपतयोऽपरे।
निवार्यमाणा अप्यङ्ग राज्ञा कृष्णानुमोदिताः॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसको गिरते देखकर भीमसेन, राजरानियाँ तथा दूसरे नरपति हँसने लगे। यद्यपि युधिष्ठिर उन्हें ऐसा करनेसे रोक रहे थे, परन्तु प्यारे परीक्षित्! उन्हें इशारेसे श्रीकृष्णका अनुमोदन प्राप्त हो चुका था॥ ३८॥
श्लोक-३९
विश्वास-प्रस्तुतिः
स व्रीडितोऽवाग्वदनो रुषा ज्वलन्
निष्क्रम्य तूष्णीं प्रययौ गजाह्वयम्।
हाहेति शब्दः सुमहानभूत् सता-
मजातशत्रुर्विमना इवाभवत्।
बभूव तूष्णीं भगवान् भुवो भरं
समुज्जिहीर्षुर्भ्रमति स्म यद्दृशा॥
मूलम्
स व्रीडितोऽवाग्वदनो रुषा ज्वलन्
निष्क्रम्य तूष्णीं प्रययौ गजाह्वयम्।
हाहेति शब्दः सुमहानभूत् सता-
मजातशत्रुर्विमना इवाभवत्।
बभूव तूष्णीं भगवान् भुवो भरं
समुज्जिहीर्षुर्भ्रमति स्म यद्दृशा॥
अनुवाद (हिन्दी)
इससे दुर्योधन लज्जित हो गया, उसका रोम-रोम क्रोधसे जलने लगा। अब वह अपना मुँह लटकाकर चुपचाप सभाभवनसे निकलकर हस्तिनापुर चला गया। इस घटनाको देखकर सत्पुरुषोंमें हाहाकार मच गया और धर्मराज युधिष्ठिरका मन भी कुछ खिन्न-सा हो गया। परीक्षित्! यह सब होनेपर भी भगवान् श्रीकृष्ण चुप थे। उनकी इच्छा थी कि किसी प्रकार पृथ्वीका भार उतर जाय; और सच पूछो तो उन्हींकी दृष्टिसे दुर्योधनको वह भ्रम हुआ था॥ ३९॥
श्लोक-४०
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतत्तेऽभिहितं राजन् यत् पृष्टोऽहमिह त्वया।
सुयोधनस्य दौरात्म्यं राजसूये महाक्रतौ॥
मूलम्
एतत्तेऽभिहितं राजन् यत् पृष्टोऽहमिह त्वया।
सुयोधनस्य दौरात्म्यं राजसूये महाक्रतौ॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! तुमने मुझसे यह पूछा था कि उस महान् राजसूय-यज्ञमें दुर्योधनको डाह क्यों हुआ? जलन क्यों हुई? सो वह सब मैंने तुम्हें बतला दिया॥ ४०॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
॥ इति श्रीमद्भागवतव्याख्याने दशमस्कन्धे श्रीसुदर्शनसूरिकृतशुकपक्षीये पञ्चसप्ततितमोऽध्यायः ॥ ७५ ॥
अनुवाद (समाप्ति)
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे उत्तरार्धे दुर्योधनमानभङ्गो नाम पञ्चसप्ततितमोऽध्यायः॥ ७५॥