[चतुःसप्ततितमोऽध्यायः]
भागसूचना
भगवान्की अग्रपूजा और शिशुपालका उद्धार
श्लोक-१
मूलम् (वचनम्)
श्रीशुक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं युधिष्ठिरो राजा जरासन्धवधं विभोः।
कृष्णस्य चानुभावं तं श्रुत्वा प्रीतस्तमब्रवीत्॥
मूलम्
एवं युधिष्ठिरो राजा जरासन्धवधं विभोः।
कृष्णस्य चानुभावं तं श्रुत्वा प्रीतस्तमब्रवीत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! धर्मराज युधिष्ठिर जरासन्धका वध और सर्वशक्तिमान् भगवान् श्रीकृष्णकी अद्भुत महिमा सुनकर बहुत प्रसन्न हुए और उनसे बोले॥ १॥
श्लोक-२
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ये स्युस्त्रैलोक्यगुरवः सर्वे लोकमहेश्वराः।
वहन्ति दुर्लभं लब्ध्वा शिरसैवानुशासनम्॥
मूलम्
ये स्युस्त्रैलोक्यगुरवः सर्वे लोकमहेश्वराः।
वहन्ति दुर्लभं लब्ध्वा शिरसैवानुशासनम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
धर्मराज युधिष्ठिरने कहा—सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीकृष्ण! त्रिलोकीके स्वामी ब्रह्मा, शंकर आदि और इन्द्रादि लोकपाल—सब आपकी आज्ञा पानेके लिये तरसते रहते हैं और यदि वह मिल जाती है तो बड़ी श्रद्धासे उसको शिरोधार्य करते हैं॥ २॥
श्लोक-३
विश्वास-प्रस्तुतिः
स भवानरविन्दाक्षो दीनानामीशमानिनाम्।
धत्तेऽनुशासनं भूमंस्तदत्यन्तविडम्बनम्॥
मूलम्
स भवानरविन्दाक्षो दीनानामीशमानिनाम्।
धत्तेऽनुशासनं भूमंस्तदत्यन्तविडम्बनम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
अनन्त! हमलोग हैं तो अत्यन्त दीन, परन्तु मानते हैं अपनेको भूपति और नरपति। ऐसी स्थितिमें हैं तो हम दण्डके पात्र, परन्तु आप हमारी आज्ञा स्वीकार करते हैं और उसका पालन करते हैं। सर्वशक्तिमान् कमलनयन भगवान्के लिये यह मनुष्य-लीलाका अभिनयमात्र है॥ ३॥
श्लोक-४
विश्वास-प्रस्तुतिः
न ह्येकस्याद्वितीयस्य ब्रह्मणः परमात्मनः।
कर्मभिर्वर्धते तेजो ह्रसते च यथा रवेः॥
मूलम्
न ह्येकस्याद्वितीयस्य ब्रह्मणः परमात्मनः।
कर्मभिर्वर्धते तेजो ह्रसते च यथा रवेः॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे उदय अथवा अस्तके कारण सूर्यके तेजमें घटती या बढ़ती नहीं होती, वैसे ही किसी भी प्रकारके कर्मोंसे न तो आपका उल्लास होता है और न तो ह्रास ही। क्योंकि आप सजातीय, विजातीय और स्वगतभेदसे रहित स्वयं परब्रह्म परमात्मा हैं॥ ४॥
श्लोक-५
विश्वास-प्रस्तुतिः
न वै तेऽजित भक्तानां ममाहमिति माधव।
त्वं तवेति च नानाधीः पशूनामिव वैकृता॥
मूलम्
न वै तेऽजित भक्तानां ममाहमिति माधव।
त्वं तवेति च नानाधीः पशूनामिव वैकृता॥
अनुवाद (हिन्दी)
किसीसे पराजित न होनेवाले माधव! ‘यह मैं हूँ और यह मेरा है तथा यह तू है और यह तेरा’—इस प्रकारकी विकारयुक्त भेदबुद्धि तो पशुओंकी होती है। जो आपके अनन्य भक्त हैं, उनके चित्तमें ऐसे पागलपनके विचार कभी नहीं आते। फिर आपमें तो होंगे ही कहाँसे? (इसलिये आप जो कुछ कर रहे हैं, वह लीला-ही-लीला है)॥ ५॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
नानाधीः स्वदेहपरदेहतत्सम्बन्धिष्वनात्मभूतेषु अनात्मीयेषु आत्माभिमानात्मीयत्वाभिमानरूपतया नानारूपा धीः ॥ ५-१६ ॥
श्लोक-६
मूलम् (वचनम्)
श्रीशुक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्त्वा यज्ञिये काले वव्रे युक्तान् स ऋत्विजः।
कृष्णानुमोदितः पार्थो ब्राह्मणान् ब्रह्मवादिनः॥
मूलम्
इत्युक्त्वा यज्ञिये काले वव्रे युक्तान् स ऋत्विजः।
कृष्णानुमोदितः पार्थो ब्राह्मणान् ब्रह्मवादिनः॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! इस प्रकार कहकर धर्मराज युधिष्ठिरने भगवान् श्रीकृष्णकी अनुमतिसे यज्ञके योग्य समय आनेपर यज्ञके कर्मोंमें निपुण वेदवादी ब्राह्मणोंको ऋत्विज्, आचार्य आदिके रूपमें वरण किया॥ ६॥
श्लोक-७
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्वैपायनो भरद्वाजः सुमन्तुर्गौतमोऽसितः।
वसिष्ठश्च्यवनः कण्वो मैत्रेयः कवषस्त्रितः॥
मूलम्
द्वैपायनो भरद्वाजः सुमन्तुर्गौतमोऽसितः।
वसिष्ठश्च्यवनः कण्वो मैत्रेयः कवषस्त्रितः॥
श्लोक-८
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वामित्रो वामदेवः सुमतिर्जैमिनिः क्रतुः।
पैलः पराशरो गर्गो वैशम्पायन एव च॥
मूलम्
विश्वामित्रो वामदेवः सुमतिर्जैमिनिः क्रतुः।
पैलः पराशरो गर्गो वैशम्पायन एव च॥
श्लोक-९
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथर्वा कश्यपो धौम्यो रामो भार्गव आसुरिः।
वीतिहोत्रो मधुच्छन्दा वीरसेनोऽकृतव्रणः॥
मूलम्
अथर्वा कश्यपो धौम्यो रामो भार्गव आसुरिः।
वीतिहोत्रो मधुच्छन्दा वीरसेनोऽकृतव्रणः॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके नाम ये हैं—श्रीकृष्णद्वैपायन व्यासदेव, भरद्वाज, सुमन्तु, गौतम, असित, वसिष्ठ, च्यवन,कण्व, मैत्रेय, कवष, त्रित, विश्वामित्र, वामदेव, सुमति, जैमिनि, क्रतु, पैल, पराशर, गर्ग, वैशम्पायन, अथर्वा, कश्यप, धौम्य, परशुराम, शुक्राचार्य, आसुरि, वीतिहोत्र, मधुच्छन्दा, वीरसेन और अकृतव्रण॥ ७—९॥
श्लोक-१०
विश्वास-प्रस्तुतिः
उपहूतास्तथा चान्ये द्रोणभीष्मकृपादयः।
धृतराष्ट्रः सहसुतो विदुरश्च महामतिः॥
मूलम्
उपहूतास्तथा चान्ये द्रोणभीष्मकृपादयः।
धृतराष्ट्रः सहसुतो विदुरश्च महामतिः॥
अनुवाद (हिन्दी)
इनके अतिरिक्त धर्मराजने द्रोणाचार्य, भीष्मपितामह, कृपाचार्य, धृतराष्ट्र और उनके दुर्योधन आदि पुत्रों और महामति विदुर आदिको भी बुलवाया॥ १०॥
श्लोक-११
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः शूद्रा यज्ञदिदृक्षवः।
तत्रेयुः सर्वराजानो राज्ञां प्रकृतयो नृप॥
मूलम्
ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः शूद्रा यज्ञदिदृक्षवः।
तत्रेयुः सर्वराजानो राज्ञां प्रकृतयो नृप॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! राजसूय-यज्ञका दर्शन करनेके लिये देशके सब राजा, उनके मन्त्री तथा कर्मचारी, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र—सब-के-सब वहाँ आये॥ ११॥
श्लोक-१२
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्ते देवयजनं ब्राह्मणाः स्वर्णलाङ्गलैः।
कृष्ट्वा तत्र यथाम्नायं दीक्षयाञ्चक्रिरे नृपम्॥
मूलम्
ततस्ते देवयजनं ब्राह्मणाः स्वर्णलाङ्गलैः।
कृष्ट्वा तत्र यथाम्नायं दीक्षयाञ्चक्रिरे नृपम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसके बाद ऋत्विज् ब्राह्मणोंने सोनेके हलोंसे यज्ञभूमिको जुतवाकर राजा युधिष्ठिरको शास्त्रानुसार यज्ञकी दीक्षा दी॥ १२॥
श्लोक-१३
विश्वास-प्रस्तुतिः
हैमाः किलोपकरणा वरुणस्य यथा पुरा।
इन्द्रादयो लोकपाला विरिञ्चभवसंयुताः॥
मूलम्
हैमाः किलोपकरणा वरुणस्य यथा पुरा।
इन्द्रादयो लोकपाला विरिञ्चभवसंयुताः॥
श्लोक-१४
विश्वास-प्रस्तुतिः
सगणाः सिद्धगन्धर्वा विद्याधरमहोरगाः।
मुनयो यक्षरक्षांसि खगकिन्नरचारणाः॥
मूलम्
सगणाः सिद्धगन्धर्वा विद्याधरमहोरगाः।
मुनयो यक्षरक्षांसि खगकिन्नरचारणाः॥
श्लोक-१५
विश्वास-प्रस्तुतिः
राजानश्च समाहूता राजपत्न्यश्च सर्वशः।
राजसूयं समीयुः स्म राज्ञः पाण्डुसुतस्य वै॥
मूलम्
राजानश्च समाहूता राजपत्न्यश्च सर्वशः।
राजसूयं समीयुः स्म राज्ञः पाण्डुसुतस्य वै॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्राचीन कालमें जैसे वरुणदेवके यज्ञमें सब-के-सब यज्ञपात्र सोनेके बने हुए थे, वैसे ही युधिष्ठिरके यज्ञमें भी थे। पाण्डुनन्दन महाराज युधिष्ठिरके यज्ञमें निमन्त्रण पाकर ब्रह्माजी, शंकरजी, इन्द्रादि लोकपाल, अपने गणोंके साथ सिद्ध और गन्धर्व, विद्याधर, नाग, मुनि, यक्ष, राक्षस, पक्षी, किन्नर, चारण, बड़े-बड़े राजा और रानियाँ—ये सभी उपस्थित हुए॥ १३—१५॥
श्लोक-१६
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेनिरे कृष्णभक्तस्य सूपपन्नमविस्मिताः।
अयाजयन् महाराजं याजका देववर्चसः।
राजसूयेन विधिवत् प्राचेतसमिवामराः॥
मूलम्
मेनिरे कृष्णभक्तस्य सूपपन्नमविस्मिताः।
अयाजयन् महाराजं याजका देववर्चसः।
राजसूयेन विधिवत् प्राचेतसमिवामराः॥
अनुवाद (हिन्दी)
सबने बिना किसी प्रकारके कौतूहलके यह बात मान ली कि राजसूय-यज्ञ करना युधिष्ठिरके योग्य ही है। क्योंकि भगवान् श्रीकृष्णके भक्तके लिये ऐसा करना कोई बहुत बड़ी बात नहीं है। उस समय देवताओंके समान तेजस्वी याजकोंने धर्मराज युधिष्ठिरसे विधिपूर्वक राजसूय-यज्ञ कराया; ठीक वैसे ही, जैसे पूर्वकालमें देवताओंने वरुणसे करवाया था॥ १६॥
श्लोक-१७
विश्वास-प्रस्तुतिः
सौ(सु)त्येऽहन्यवनीपालो याजकान् सदसस्पतीन्।
अपूजयन् महाभागान् यथावत् सुसमाहितः॥
मूलम्
सौ(सु)त्येऽहन्यवनीपालो याजकान् सदसस्पतीन्।
अपूजयन् महाभागान् यथावत् सुसमाहितः॥
अनुवाद (हिन्दी)
सोमलतासे रस निकालनेके दिन महाराज युधिष्ठिरने अपने परम भाग्यवान् याजकों और यज्ञकर्मकी भूल-चूकका निरीक्षण करनेवाले सदसस्पतियोंका बड़ी सावधानीसे विधिपूर्वक पूजन किया॥ १७॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
सुत्येऽहनि सोमाभिषवदिने ॥ १७-१८ ॥
श्लोक-१८
विश्वास-प्रस्तुतिः
सदस्याग्र्यार्हणार्हं वै विमृशन्तः सभासदः।
नाध्यगच्छन्ननैकान्त्यात् सहदेवस्तदाब्रवीत्॥
मूलम्
सदस्याग्र्यार्हणार्हं वै विमृशन्तः सभासदः।
नाध्यगच्छन्ननैकान्त्यात् सहदेवस्तदाब्रवीत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
अब सभासद् लोग इस विषयपर विचार करने लगे कि सदस्योंमें सबसे पहले किसकी पूजा—अग्रपूजा होनी चाहिये। जितनी मति, उतने मत। इसलिये सर्वसम्मतिसे कोई निर्णय न हो सका। ऐसी स्थितिमें सहदेवने कहा—॥ १८॥
श्लोक-१९
विश्वास-प्रस्तुतिः
अर्हति ह्यच्युतः श्रैष्ठ्यं भगवान् सात्वतां पतिः।
एष वै देवताः सर्वा देशकालधनादयः॥
मूलम्
अर्हति ह्यच्युतः श्रैष्ठ्यं भगवान् सात्वतां पतिः।
एष वै देवताः सर्वा देशकालधनादयः॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यदुवंशशिरोमणि भक्तवत्सल भगवान् श्रीकृष्ण ही सदस्योंमें सर्वश्रेष्ठ और अग्रपूजाके पात्र हैं; क्योंकि यही समस्त देवताओंके रूपमें हैं; और देश, काल, धन आदि जितनी भी वस्तुएँ हैं, उन सबके रूपमें भी ये ही हैं॥ १९॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
अच्युतः परब्रह्म नारायणत्वात् भगवान् —
“ज्ञानशक्तिबलैश्वर्यवीर्यतेजांस्यशेषतः । भगवच्छब्दवाच्यानि विना हेयैर्गुणादिभिः " ॥ इति वचनात् शक्तितेजोभ्यां जातस्यानिरुद्धव्यूहस्यावतारत्वात् भगवान् “वासुदेवपरा वेदाः” “नारायणपरा वेदाः” इत्युपक्रमोक्तस्याभ्यासमाह - यदात्मकमिति ॥ १९-२० ॥
श्लोक-२०
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदात्मकमिदं विश्वं क्रतवश्च यदात्मकाः।
अग्निराहुतयो मन्त्राः सांख्यं योगश्च यत्परः॥
मूलम्
यदात्मकमिदं विश्वं क्रतवश्च यदात्मकाः।
अग्निराहुतयो मन्त्राः सांख्यं योगश्च यत्परः॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह सारा विश्व श्रीकृष्णका ही रूप है। समस्त यज्ञ भी श्रीकृष्णस्वरूप ही हैं। भगवान् श्रीकृष्ण ही अग्नि, आहुति और मन्त्रोंके रूपमें हैं। ज्ञानमार्ग और कर्म-मार्ग—ये दोनों भी श्रीकृष्णकी प्राप्तिके ही हेतु हैं॥ २०॥
श्लोक-२१
विश्वास-प्रस्तुतिः
एक एवाद्वितीयोऽसावैतदात्म्यमिदं जगत्।
आत्मनाऽऽत्माश्रयः सभ्याः सृजत्यवति हन्त्यजः॥
मूलम्
एक एवाद्वितीयोऽसावैतदात्म्यमिदं जगत्।
आत्मनाऽऽत्माश्रयः सभ्याः सृजत्यवति हन्त्यजः॥
अनुवाद (हिन्दी)
सभासदो! मैं कहाँतक वर्णन करूँ, भगवान् श्रीकृष्ण वह एकरस अद्वितीय ब्रह्म हैं, जिसमें सजातीय, विजातीय और स्वगतभेद नाममात्रका भी नहीं है। यह सम्पूर्ण जगत् उन्हींका स्वरूप है। वे अपने-आपमें ही स्थित और जन्म, अस्तित्व, वृद्धि आदि छः भावविकारोंसे रहित हैं। वे अपने आत्मस्वरूप संकल्पसे ही जगत्की सृष्टि, पालन और संहार करते हैं॥ २१॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
असौ नारायणः एकः नामरूपविक्तचिदचिद्विशिष्टः सृष्टेः पूर्वकाले च अद्वितीयः असहायः इदं स्थूलनामरूपविभक्तचिदचिद्रूपं जगत् ऐतदात्म्यम् एतदात्मकं सर्वदात्माश्रयः चिदचिदाश्रयं स्वसङ्कल्पेन सृष्ट्यादि करोति ॥२१॥
श्लोक-२२
विश्वास-प्रस्तुतिः
विविधानीह कर्माणि जनयन् यदवेक्षया।
ईहते यदयं सर्वः श्रेयो धर्मादिलक्षणम्॥
मूलम्
विविधानीह कर्माणि जनयन् यदवेक्षया।
ईहते यदयं सर्वः श्रेयो धर्मादिलक्षणम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
सारा जगत् श्रीकृष्णके ही अनुग्रहसे अनेकों प्रकारके कर्मका अनुष्ठान करता हुआ धर्म, अर्थ, काम और मोक्षरूप पुरुषार्थोंका सम्पादन करता है॥ २२॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
ईहते लोकाभिवृद्धये ॥२२-२६॥
श्लोक-२३
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मात् कृष्णाय महते दीयतां परमार्हणम्।
एवं चेत् सर्वभूतानामात्मनश्चार्हणं भवेत्॥
मूलम्
तस्मात् कृष्णाय महते दीयतां परमार्हणम्।
एवं चेत् सर्वभूतानामात्मनश्चार्हणं भवेत्॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसलिये सबसे महान् भगवान् श्रीकृष्णकी ही अग्रपूजा होनी चाहिये। इनकी पूजा करनेसे समस्त प्राणियोंकी तथा अपनी भी पूजा हो जाती है॥ २३॥
श्लोक-२४
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वभूतात्मभूताय कृष्णायानन्यदर्शिने।
देयं शान्ताय पूर्णाय दत्तस्यानन्त्यमिच्छता॥
मूलम्
सर्वभूतात्मभूताय कृष्णायानन्यदर्शिने।
देयं शान्ताय पूर्णाय दत्तस्यानन्त्यमिच्छता॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो अपने दान-धर्मको अनन्त भावसे युक्त करना चाहता हो, उसे चाहिये कि समस्त प्राणियों और पदार्थोंके अन्तरात्मा, भेदभावरहित, परम शान्त और परिपूर्ण भगवान् श्रीकृष्णको ही दान करे॥ २४॥
श्लोक-२५
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्त्वा सहदेवोऽभूत् तूष्णीं कृष्णानुभाववित्।
तच्छ्रुत्वा तुष्टुवुः सर्वे साधु साध्विति सत्तमाः॥
मूलम्
इत्युक्त्वा सहदेवोऽभूत् तूष्णीं कृष्णानुभाववित्।
तच्छ्रुत्वा तुष्टुवुः सर्वे साधु साध्विति सत्तमाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! सहदेव भगवान्की महिमा और उनके प्रभावको जानते थे। इतना कहकर वे चुप हो गये। उस समय धर्मराज युधिष्ठिरकी यज्ञसभामें जितने सत्पुरुष उपस्थित थे, सबने एक स्वरसे ‘बहुत ठीक, बहुत ठीक’ कहकर सहदेवकी बातका समर्थन किया॥ २५॥
श्लोक-२६
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रुत्वा द्विजेरितं राजा ज्ञात्वा हार्दं सभासदाम्।
समर्हयद्धृषीकेशं प्रीतः प्रणयविह्वलः॥
मूलम्
श्रुत्वा द्विजेरितं राजा ज्ञात्वा हार्दं सभासदाम्।
समर्हयद्धृषीकेशं प्रीतः प्रणयविह्वलः॥
अनुवाद (हिन्दी)
धर्मराज युधिष्ठिरने ब्राह्मणोंकी यह आज्ञा सुनकर तथा सभासदोंका अभिप्राय जानकर बड़े आनन्दसे प्रेमोद्रेकसे विह्वल होकर भगवान् श्रीकृष्णकी पूजा की॥ २६॥
श्लोक-२७
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्पादाववनिज्यापः शिरसा लोकपावनीः।
सभार्यः सानुजामात्यः सकुटुम्बोऽवहन्मुदा॥
मूलम्
तत्पादाववनिज्यापः शिरसा लोकपावनीः।
सभार्यः सानुजामात्यः सकुटुम्बोऽवहन्मुदा॥
अनुवाद (हिन्दी)
अपनी पत्नी, भाई, मन्त्री और कुटुम्बियोंके साथ धर्मराज युधिष्ठिरने बड़े प्रेम और आनन्दसे भगवान्के पाँव पखारे तथा उनके चरणकमलोंका लोकपावन जल अपने सिरपर धारण किया॥ २७॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
अवनिज्य प्रक्षाल्य ॥२७-४५॥
श्लोक-२८
विश्वास-प्रस्तुतिः
वासोभिः पीतकौशेयैर्भूषणैश्च महाधनैः।
अर्हयित्वाश्रुपूर्णाक्षो नाशकत् समवेक्षितुम्॥
मूलम्
वासोभिः पीतकौशेयैर्भूषणैश्च महाधनैः।
अर्हयित्वाश्रुपूर्णाक्षो नाशकत् समवेक्षितुम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्होंने भगवान्को पीले-पीले रेशमी वस्त्र और बहुमूल्य आभूषण समर्पित किये। उस समय उनके नेत्र प्रेम और आनन्दके आँसुओंसे इस प्रकार भर गये कि वे भगवान्को भलीभाँति देख भी नहीं सकते थे॥ २८॥
श्लोक-२९
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्थं सभाजितं वीक्ष्य सर्वे प्राञ्जलयो जनाः।
नमो जयेति नेमुस्तं निपेतुः पुष्पवृष्टयः॥
मूलम्
इत्थं सभाजितं वीक्ष्य सर्वे प्राञ्जलयो जनाः।
नमो जयेति नेमुस्तं निपेतुः पुष्पवृष्टयः॥
अनुवाद (हिन्दी)
यज्ञसभामें उपस्थित सभी लोग भगवान् श्रीकृष्णको इस प्रकार पूजित, सत्कृत देखकर हाथ जोड़े हुए ‘नमो नमः! जय जय!’ इस प्रकारके नारे लगाकर उन्हें नमस्कार करने लगे। उस समय आकाशसे स्वयं ही पुष्पोंकी वर्षा होने लगी॥ २९॥
श्लोक-३०
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्थं निशम्य दमघोषसुतः स्वपीठा-
दुत्थाय कृष्णगुणवर्णनजातमन्युः।
उत्क्षिप्य बाहुमिदमाह सदस्यमर्षी
संश्रावयन् भगवते परुषाण्यभीतः॥
मूलम्
इत्थं निशम्य दमघोषसुतः स्वपीठा-
दुत्थाय कृष्णगुणवर्णनजातमन्युः।
उत्क्षिप्य बाहुमिदमाह सदस्यमर्षी
संश्रावयन् भगवते परुषाण्यभीतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! अपने आसनपर बैठा हुआ शिशुपाल यह सब देख-सुन रहा था। भगवान् श्रीकृष्णके गुण सुनकर उसे क्रोध हो आया और वह उठकर खड़ा हो गया। वह भरी सभामें हाथ उठाकर बड़ी असहिष्णुता किन्तु निर्भयताके साथ भगवान्को सुना-सुनाकर अत्यन्त कठोर बातें कहने लगा—॥ ३०॥
श्लोक-३१
विश्वास-प्रस्तुतिः
ईशो दुरत्ययः काल इति सत्यवती श्रुतिः।
वृद्धानामपि यद् बुद्धिर्बालवाक्यैर्विभिद्यते॥
मूलम्
ईशो दुरत्ययः काल इति सत्यवती श्रुतिः।
वृद्धानामपि यद् बुद्धिर्बालवाक्यैर्विभिद्यते॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सभासदो! श्रुतियोंका यह कहना सर्वथा सत्य है कि काल ही ईश्वर है। लाख चेष्टा करनेपर भी वह अपना काम करा ही लेता है—इसका प्रत्यक्ष प्रमाण हमने देख लिया कि यहाँ बच्चों और मूर्खोंकी बातसे बड़े-बड़े वयोवृद्ध और ज्ञानवृद्धोंकी बुद्धि भी चकरा गयी है॥ ३१॥
श्लोक-३२
विश्वास-प्रस्तुतिः
यूयं पात्रविदां श्रेष्ठा मा मन्ध्वं बालभाषितम्।
सदसस्पतयः सर्वे कृष्णो यत् सम्मतोऽर्हणे॥
मूलम्
यूयं पात्रविदां श्रेष्ठा मा मन्ध्वं बालभाषितम्।
सदसस्पतयः सर्वे कृष्णो यत् सम्मतोऽर्हणे॥
अनुवाद (हिन्दी)
पर मैं मानता हूँ कि आपलोग अग्रपूजाके योग्य पात्रका निर्णय करनेमें सर्वथा समर्थ हैं। इसलिये सदसस्पतियो! आपलोग बालक सहदेवकी यह बात ठीक न मानें कि ‘कृष्ण ही अग्रपूजाके योग्य हैं॥ ३२॥
श्लोक-३३
विश्वास-प्रस्तुतिः
तपोविद्याव्रतधरान् ज्ञानविध्वस्तकल्मषान्।
परमर्षीन् ब्रह्मनिष्ठान् लोकपालैश्च पूजितान्॥
मूलम्
तपोविद्याव्रतधरान् ज्ञानविध्वस्तकल्मषान्।
परमर्षीन् ब्रह्मनिष्ठान् लोकपालैश्च पूजितान्॥
अनुवाद (हिन्दी)
यहाँ बड़े-बड़े तपस्वी, विद्वान्, व्रतधारी, ज्ञानके द्वारा अपने समस्त पाप-तापोंको शान्त करनेवाले, परम ज्ञानी परमर्षि, ब्रह्मनिष्ठ आदि उपस्थित हैं—जिनकी पूजा बड़े-बड़े लोकपाल भी करते हैं॥ ३३॥
श्लोक-३४
विश्वास-प्रस्तुतिः
सदस्पतीनतिक्रम्य गोपालः कुलपांसनः।
यथा काकः पुरोडाशं सपर्यां कथमर्हति॥
मूलम्
सदस्पतीनतिक्रम्य गोपालः कुलपांसनः।
यथा काकः पुरोडाशं सपर्यां कथमर्हति॥
अनुवाद (हिन्दी)
यज्ञकी भूल-चूक बतलानेवाले उन सदसस्पतियोंको छोड़कर यह कुलकलंक ग्वाला भला, अग्रपूजाका अधिकारी कैसे हो सकता है? क्या कौआ कभी यज्ञके पुरोडाशका अधिकारी हो सकता है?॥ ३४॥
श्लोक-३५
विश्वास-प्रस्तुतिः
वर्णाश्रमकुलापेतः सर्वधर्मबहिष्कृतः।
स्वैरवर्ती गुणैर्हीनः सपर्यां कथमर्हति॥
मूलम्
वर्णाश्रमकुलापेतः सर्वधर्मबहिष्कृतः।
स्वैरवर्ती गुणैर्हीनः सपर्यां कथमर्हति॥
अनुवाद (हिन्दी)
न इसका कोई वर्ण है और न तो आश्रम। कुल भी इसका ऊँचा नहीं है। सारे धर्मोंसे यह बाहर है। वेद और लोकमर्यादाओंका उल्लंघन करके मनमाना आचरण करता है। इसमें कोई गुण भी नहीं है। ऐसी स्थितिमें यह अग्रपूजाका पात्र कैसे हो सकता है?॥ ३५॥
श्लोक-३६
विश्वास-प्रस्तुतिः
ययातिनैषां हि कुलं शप्तं सद्भिर्बहिष्कृतम्।
वृथापानरतं शश्वत् सपर्यां कथमर्हति॥
मूलम्
ययातिनैषां हि कुलं शप्तं सद्भिर्बहिष्कृतम्।
वृथापानरतं शश्वत् सपर्यां कथमर्हति॥
अनुवाद (हिन्दी)
आपलोग जानते हैं कि राजा ययातिने इसके वंशको शाप दे रखा है। इसलिये सत्पुरुषोंने इस वंशका ही बहिष्कार कर दिया है। ये सब सर्वदा व्यर्थ मधुपानमें आसक्त रहते हैं। फिर ये अग्रपूजाके योग्य कैसे हो सकते हैं?॥ ३६॥
श्लोक-३७
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रह्मर्षिसेवितान् देशान् हित्वैतेऽब्रह्मवर्चसम्।
समुद्रं दुर्गमाश्रित्य बाधन्ते दस्यवः प्रजाः॥
मूलम्
ब्रह्मर्षिसेवितान् देशान् हित्वैतेऽब्रह्मवर्चसम्।
समुद्रं दुर्गमाश्रित्य बाधन्ते दस्यवः प्रजाः॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन सबने ब्रह्मर्षियोंके द्वारा सेवित मथुरा आदि देशोंका परित्याग कर दिया और ब्रह्मवर्चस्के विरोधी (वेदचर्चारहित) समुद्रमें किला बनाकर रहने लगे। वहाँसे जब ये बाहर निकलते हैं तो डाकुओंकी तरह सारी प्रजाको सताते हैं’॥ ३७॥
श्लोक-३८
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमादीन्यभद्राणि बभाषे नष्टमङ्गलः।
नोवाच किञ्चिद् भगवान् यथा सिंहः शिवारुतम्॥
मूलम्
एवमादीन्यभद्राणि बभाषे नष्टमङ्गलः।
नोवाच किञ्चिद् भगवान् यथा सिंहः शिवारुतम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! सच पूछो तो शिशुपालका सारा शुभ नष्ट हो चुका था। इसीसे उसने और भी बहुत-सी कड़ी-कड़ी बातें भगवान् श्रीकृष्णको सुनायीं। परन्तु जैसे सिंह कभी सियारकी ‘हुआँ-हुआँ’ पर ध्यान नहीं देता, वैसे ही भगवान् श्रीकृष्ण चुप रहे, उन्होंने उसकी बातोंका कुछ भी उत्तर न दिया॥ ३८॥
श्लोक-३९
विश्वास-प्रस्तुतिः
भगवन्निन्दनं श्रुत्वा दुःसहं तत् सभासदः।
कर्णौ पिधाय निर्जग्मुः शपन्तश्चेदिपं रुषा॥
मूलम्
भगवन्निन्दनं श्रुत्वा दुःसहं तत् सभासदः।
कर्णौ पिधाय निर्जग्मुः शपन्तश्चेदिपं रुषा॥
अनुवाद (हिन्दी)
परन्तु सभासदोंके लिये भगवान्की निन्दा सुनना असह्य था। उनमेंसे कई अपने-अपने कान बंद करके क्रोधसे शिशुपालको गाली देते हुए बाहर चले गये॥ ३९॥
श्लोक-४०
विश्वास-प्रस्तुतिः
निन्दां भगवतः शृण्वंस्तत्परस्य जनस्य वा।
ततो नापैति यः सोऽपि यात्यधः सुकृताच्च्युतः॥
मूलम्
निन्दां भगवतः शृण्वंस्तत्परस्य जनस्य वा।
ततो नापैति यः सोऽपि यात्यधः सुकृताच्च्युतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! जो भगवान्की या भगवत्परायण भक्तोंकी निन्दा सुनकर वहाँसे हट नहीं जाता, वह अपने शुभकर्मोंसे च्युत हो जाता है और उसकी अधोगति होती है॥ ४०॥
श्लोक-४१
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः पाण्डुसुताः क्रुद्धा मत्स्यकैकयसृञ्जयाः।
उदायुधाः समुत्तस्थुः शिशुपालजिघांसवः॥
मूलम्
ततः पाण्डुसुताः क्रुद्धा मत्स्यकैकयसृञ्जयाः।
उदायुधाः समुत्तस्थुः शिशुपालजिघांसवः॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! अब शिशुपालको मार डालनेके लिये पाण्डव, मत्स्य, केकय और सृंजयवंशी नरपति क्रोधित होकर हाथोंमें हथियार ले उठ खड़े हुए॥ ४१॥
श्लोक-४२
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततश्चैद्यस्त्वसम्भ्रान्तो जगृहे खड्गचर्मणी।
भर्त्सयन् कृष्णपक्षीयान् राज्ञः सदसि भारत॥
मूलम्
ततश्चैद्यस्त्वसम्भ्रान्तो जगृहे खड्गचर्मणी।
भर्त्सयन् कृष्णपक्षीयान् राज्ञः सदसि भारत॥
अनुवाद (हिन्दी)
परन्तु शिशुपालको इससे कोई घबड़ाहट न हुई। उसने बिना किसी प्रकारका आगा-पीछा सोचे अपनी ढाल-तलवार उठा ली और वह भरी सभामें श्रीकृष्णके पक्षपाती राजाओंको ललकारने लगा॥ ४२॥
श्लोक-४३
विश्वास-प्रस्तुतिः
तावदुत्थाय भगवान् स्वान् निवार्य स्वयं रुषा।
शिरः क्षुरान्तचक्रेण जहारापततो रिपोः॥
मूलम्
तावदुत्थाय भगवान् स्वान् निवार्य स्वयं रुषा।
शिरः क्षुरान्तचक्रेण जहारापततो रिपोः॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन लोगोंको लड़ते-झगड़ते देख भगवान् श्रीकृष्ण उठ खड़े हुए। उन्होंने अपने पक्षपाती राजाओंको शान्त किया और स्वयं क्रोध करके अपने ऊपर झपटते हुए शिशुपालका सिर छुरेके समान तीखी धारवाले चक्रसे काट लिया॥ ४३॥
श्लोक-४४
विश्वास-प्रस्तुतिः
शब्दः कोलाहलोऽप्यासीत् शिशुपाले हते महान्।
तस्यानुयायिनो भूपा दुद्रुवुर्जीवितैषिणः॥
मूलम्
शब्दः कोलाहलोऽप्यासीत् शिशुपाले हते महान्।
तस्यानुयायिनो भूपा दुद्रुवुर्जीवितैषिणः॥
अनुवाद (हिन्दी)
शिशुपालके मारे जानेपर वहाँ बड़ा कोलाहल मच गया। उसके अनुयायी नरपति अपने-अपने प्राण बचानेके लिये वहाँसे भाग खड़े हुए॥ ४४॥
श्लोक-४५
विश्वास-प्रस्तुतिः
चैद्यदेहोत्थितं ज्योतिर्वासुदेवमुपाविशत्।
पश्यतां सर्वभूतानामुल्केव भुवि खाच्च्युता॥
मूलम्
चैद्यदेहोत्थितं ज्योतिर्वासुदेवमुपाविशत्।
पश्यतां सर्वभूतानामुल्केव भुवि खाच्च्युता॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे आकाशसे गिरा हुआ लूक धरतीमें समा जाता है, वैसे ही सब प्राणियोंके देखते-देखते शिशुपालके शरीरसे एक ज्योति निकलकर भगवान् श्रीकृष्णमें समा गयी॥ ४५॥
श्लोक-४६
विश्वास-प्रस्तुतिः
जन्मत्रयानुगुणितवैरसंरब्धया धिया।
ध्यायंस्तन्मयतां यातो भावो हि भवकारणम्॥
मूलम्
जन्मत्रयानुगुणितवैरसंरब्धया धिया।
ध्यायंस्तन्मयतां यातो भावो हि भवकारणम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! शिशुपालके अन्तःकरणमें लगातार तीन जन्मसे वैरभावकी अभिवृद्धि हो रही थी। और इस प्रकार, वैरभावसे ही सही, ध्यान करते-करते वह तन्मय हो गया—पार्षद हो गया। सच है—मृत्युके बाद होनेवाली गतिमें भाव ही कारण है॥ ४६॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
भावश्चित्तवृत्तिः भवकारणम् शुभाशुभजन्मनोः फलोदयकारणम् ॥४६-४९॥
श्लोक-४७
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऋत्विग्भ्यः ससदस्येभ्यो दक्षिणां विपुलामदात्।
सर्वान् सम्पूज्य विधिवच्चक्रेऽवभृथमेकराट्॥
मूलम्
ऋत्विग्भ्यः ससदस्येभ्यो दक्षिणां विपुलामदात्।
सर्वान् सम्पूज्य विधिवच्चक्रेऽवभृथमेकराट्॥
अनुवाद (हिन्दी)
शिशुपालकी सद्गति होनेके बाद चक्रवर्ती धर्मराज युधिष्ठिरने सदस्यों और ऋत्विजोंको पुष्कल दक्षिणा दी तथा सबका सत्कार करके विधिपूर्वक यज्ञान्त-स्नान—अवभृथ-स्नान किया॥ ४७॥
श्लोक-४८
विश्वास-प्रस्तुतिः
साधयित्वा क्रतुं राज्ञः कृष्णो योगेश्वरेश्वरः।
उवास कतिचिन्मासान् सुहृद्भिरभियाचितः॥
मूलम्
साधयित्वा क्रतुं राज्ञः कृष्णो योगेश्वरेश्वरः।
उवास कतिचिन्मासान् सुहृद्भिरभियाचितः॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! इस प्रकार योगेश्वरेश्वर भगवान् श्रीकृष्णने धर्मराज युधिष्ठिरका राजसूय यज्ञ पूर्ण किया और अपने सगे-सम्बन्धी और सुहृदोंकी प्रार्थनासे कुछ महीनोंतक वहीं रहे॥ ४८॥
श्लोक-४९
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽनुज्ञाप्य राजानमनिच्छन्तमपीश्वरः।
ययौ सभार्यः सामात्यः स्वपुरं देवकीसुतः॥
मूलम्
ततोऽनुज्ञाप्य राजानमनिच्छन्तमपीश्वरः।
ययौ सभार्यः सामात्यः स्वपुरं देवकीसुतः॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसके बाद राजा युधिष्ठिरकी इच्छा न होनेपर भी सर्वशक्तिमान् भगवान् श्रीकृष्णने उनसे अनुमति ले ली और अपनी रानियों तथा मन्त्रियोंके साथ इन्द्रप्रस्थसे द्वारकापुरीकी यात्रा की॥ ४९॥
श्लोक-५०
विश्वास-प्रस्तुतिः
वर्णितं तदुपाख्यानं मया ते बहुविस्तरम्।
वैकुण्ठवासिनोर्जन्म विप्रशापात् पुनः पुनः॥
मूलम्
वर्णितं तदुपाख्यानं मया ते बहुविस्तरम्।
वैकुण्ठवासिनोर्जन्म विप्रशापात् पुनः पुनः॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! मैं यह उपाख्यान तुम्हें बहुत विस्तारसे (सातवें स्कन्धमें) सुना चुका हूँ कि वैकुण्ठवासी जय और विजयको सनकादि ऋषियोंके शापसे बार-बार जन्म लेना पड़ा था॥ ५०॥
श्रीसुदर्शनसूरिः
वैकुण्ठवासिनोः वैकुण्ठप्राप्तिञ्च अत्र वक्तव्यं सर्वं पूर्वं प्रपञ्चितमिति ॥ ५०-५४॥
॥ इति श्रीमद्भागवतव्याख्याने दशमस्कन्धे श्रीसुदर्शनसूरिकृतशुकपक्षीये चतुस्सप्ततितमोऽध्यायः ॥ ७४ ॥
श्लोक-५१
विश्वास-प्रस्तुतिः
राजसूयावभृथ्येन स्नातो राजा युधिष्ठिरः।
ब्रह्मक्षत्रसभामध्ये शुशुभे सुरराडिव॥
मूलम्
राजसूयावभृथ्येन स्नातो राजा युधिष्ठिरः।
ब्रह्मक्षत्रसभामध्ये शुशुभे सुरराडिव॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज युधिष्ठिर राजसूयका यज्ञान्त-स्नान करके ब्राह्मण और क्षत्रियोंकी सभामें देवराज इन्द्रके समान शोभायमान होने लगे॥ ५१॥
श्लोक-५२
विश्वास-प्रस्तुतिः
राज्ञा सभाजिताः सर्वे सुरमानवखेचराः।
कृष्णं क्रतुं च शंसन्तः स्वधामानि ययुर्मुदा॥
मूलम्
राज्ञा सभाजिताः सर्वे सुरमानवखेचराः।
कृष्णं क्रतुं च शंसन्तः स्वधामानि ययुर्मुदा॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा युधिष्ठिरने देवता, मनुष्य और आकाशचारियोंका यथायोग्य सत्कार किया तथा वे भगवान् श्रीकृष्ण एवं राजसूय यज्ञकी प्रशंसा करते हुए बड़े आनन्दसे अपने-अपने लोकको चले गये॥ ५२॥
श्लोक-५३
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुर्योधनमृते पापं कलिं कुरुकुलामयम्।
यो न सेहे श्रियं स्फीतां दृष्ट्वा पाण्डुसुतस्य ताम्॥
मूलम्
दुर्योधनमृते पापं कलिं कुरुकुलामयम्।
यो न सेहे श्रियं स्फीतां दृष्ट्वा पाण्डुसुतस्य ताम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! सब तो सुखी हुए, परन्तु दुर्योधनसे पाण्डवोंकी यह उज्ज्वल राज्यलक्ष्मीका उत्कर्ष सहन न हुआ। क्योंकि वह स्वभावसे ही पापी, कलहप्रेमी और कुरुकुलका नाश करनेके लिये एक महान् रोग था॥ ५३॥
श्लोक-५४
विश्वास-प्रस्तुतिः
य इदं कीर्तयेद् विष्णोः कर्म चैद्यवधादिकम्।
राजमोक्षं वितानं च सर्वपापैः प्रमुच्यते॥
मूलम्
य इदं कीर्तयेद् विष्णोः कर्म चैद्यवधादिकम्।
राजमोक्षं वितानं च सर्वपापैः प्रमुच्यते॥
अनुवाद (हिन्दी)
परीक्षित्! जो पुरुष भगवान् श्रीकृष्णकी इस लीलाका—शिशुपालवध, जरासन्धवध, बंदी राजाओंकी मुक्ति और यज्ञानुष्ठानका कीर्तन करेगा, वह समस्त पापोंसे छूट जायगा॥ ५४॥
अनुवाद (समाप्ति)
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे उत्तरार्धे शिशुपालवधो नाम चतुःसप्ततितमोऽध्यायः॥ ७४॥